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________________ वचन-वीथी खत्तियगणउग्गरायपुता माहणभोइय विविहा य सिप्पिणो। नो तेसि वयह सिलोगपूयं तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ॥ क्षत्रिय, गण, उग्र, राजपुत्र, ब्राह्मण भोगिक (सामन्त) और विविध प्रकार के शिल्पी जो होते हैं, उनकी श्लाघा और पूजा नहीं करता, किन्तु उसे दोष-पूर्ण जान उसका परित्याग कर जो परिव्रजन करता है-~-वह भिक्षु है। गिहिणो जो पव्वइएण विट्ठा अप्पव्वइएण व संयुया हविज्जा। तेसि इहलोइयफलट्ठा जो संथवं न करेइ स भिक्खू ॥ दीक्षा लेने के पश्चात् जिन्हें देखा हो या उससे पहले जो परिचित हों, उनके साथ इहलौकिक फल (वस्त्र-पात्र आदि) की प्राप्ति के लिए जो परिचय नहीं करता-वह भिक्षु सयणासणपाणभोयणं विविहं खाइमसाइमं परेसि । अदए पडिसेहिए नियण्ठे जे तत्थ न पउस्सई स भिक्खू ॥ ___ शयन, आसन, पान, भोजन और विविध प्रकार के खाद्य-स्वाद्य गृहस्थ न दे तथा कारण विशेष से मांगने पर भी इन्कार हो जाए, उस स्थिति में जो प्रद्वेष न करे--वह भिक्षु है। जं किंचि आहारपाणं विविहं खाइमसाइमं परेसिं लद्ध । जो तं तिविहेण नाणुकम्पे मणवयकायसुसंवुडे स भिक्स् ॥ गृहस्थों के घर से जो कुछ आहार, पानक और विविध प्रकार के खाद्य-स्वाद्य प्राप्त कर जो हस्थ की मन, वचन और काया से अनुकम्पा नहीं करता-उन्हें आशी र्वाद नहीं देता, जो मन, वचन और काया से सुसंवृत होता है-वह भिक्षु है । ओसामन, जौ का दलिया, ठण्डा-वासी आहार, काँजी का पानी, जौ का पानी जैसी नीरस भिक्षा की जो निन्दा नहीं करता, जो सामान्य घरों में भिक्षा के लिए जाता हैवह भिक्षु है। आयामगं चेव जवोदणं च सीयं च सोवीरजवोदगं च। नो होलए पिण्डं नीरसं तु पन्तकुलाई परिव्वए स भिक्खू ।।
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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