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सदा विविहा भयन्ति लोए दिव्या माणुस्सगा तहा तिरिच्छा । भीमा भयभरवा उराला जो सोच्चा न वहिज्जई स भिक्खू ॥
लोक में देवता, मनुष्य और तिर्यञ्चों के अनेक प्रकार के रौद्र, अमित भयंकर और अद्भुत शब्द होते हैं, उन्हें सुनकर जो नहीं डरता-वह भिक्षु है।
वादं विविहं समिच्च लोए सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा । पन्ने अभिभूय सव्वदंसी उवसन्ते अविहेडए स भिक्खू ॥
लोक में विविध प्रकार के वादों को जानकर भी जो भिक्षुओं के साथ रहता है, जो संयमी है, जिसे आगम का परम अर्थ प्राप्त हुआ है, जो प्राज्ञ है, जो परीषहों को जीतने वाला और सब जीवों को आत्म-तुल्य समझने वाला है, जो उपशान्त और किसी को भी अपमानित न करने वाला होता हैवह भिक्षु है।
प्रसिप्पजीवी अगिहे अमित्ते जिइन्दिए सव्वओ विष्पमुक्के । अणुक्कसाई लहुअप्पभक्खी चेच्चा गिहं एगचरे स भिक्खू ।।
जो शिल्प-जीवी नहीं होता, जिसके घर नहीं होता, जिसके मित्र नहीं होते, जो जितेन्द्रिय और सब प्रकार के परिग्रह से मुक्त होता है, जिसका कषाय मन्द होता है, जो थोड़ा और निस्सार भोजन करता है, जो घर को छोड़ अकेला (रागद्वेष से रहित हो) विचरता है--वह भिक्षु है।
(उत्तरज्झयणाणि, अ० १५/६-१६)
तुलसी-प्रज्ञा