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चिंतन के क्षण नहीं होते हैं । वहाँ प्रतिक्षण उत्सुकता होती है कि अगले क्षण क्या
होता है ।
प्रश्न
अंतरमानस में क्या प्रतिक्रिया हुई ?
- निर्वाचन की घोषणा के साथ ही आपके उत्तर -- जब आचार्यवर ने मुझे इस पद के लिये उपस्थित किया, वह क्षण मेरे लिये बहुत विचित्र था और एक साथ इतनी बातें मस्तिष्क में घूम गई कि उसका विश्लेषण करना भी मेरे लिये कठिन है । जिस दिन दीक्षित हुआ उस दिन से लेकर आज तक का समूचा जीवन चित्र पटल पर दृश्य की तरह आ गया । हमारा सम्बंध, तादात्म्य और आचार्यवर से मिली सारी प्रेरणाएं, उसके परिणाम और भविष्य की कल्पना वृत्त के रूप में एक साथ घूम गयी। उस एक क्षण का विश्लेषण करूं तो उसके लिए हजारों क्षण मुझे चाहिये, किंतु अज्ञात रूप में सारी बातें जैसे एक साथ चित्र-पटल पर उतर आयी। मुझे यही लगा कि अगर पहले अवकाश आचार्यवर मुझे देते तव तो मैं अपने मन की बातें भी और कठिनाइयां भी सामने प्रस्तुत करता । गुरुदेव ने बिना अवकाश दिये सीधा निर्देश और आदेश ही दे दिया । मेरे जीवन का व्रत है कि जो आदेश आचार्यवर से मिल जाता है उसे शिरोधार्य करना । उसे स्वीकृत करने के सिवाय मेरे सामने कोई उपाय नहीं था ।
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प्रश्न – विशाल संघ का महान् उत्तरदायित्व आपश्री द्वारा किये गये एकान्त साधना के संकल्प में बाधक नहीं बनेगा ?
उत्तर -- हमारा धर्म-संघ स्वयं साधना का स्थल है । यह संघ किसी दूसरी प्रवृत्ति का होता, तो निश्चित ही यह बाधा मेरे सामने आती, किन्तु मैं जो साधना कर रहा हूं वह समूचे धर्मसंघ में प्रतिबिम्बित होने की बात है । तब मैं इसे बाधा कैसे मानूं ? यह धर्मसंघ साधना का और आराधना का है । जैन विश्वभारती, लाडनूं में पिछले वर्ष मैंने प्रयोग शुरू किया, तो आचार्यवर ने अपना सन्देश दिया । उसमें उन्होंने कहा कि "यह तुम्हारा प्रयोग केवल तुम्हारा नहीं है, यह मेरा प्रयोग है, समूचे संघ का प्रयोग है ।" जब मेरे प्रयोग को आचार्यवर समूचे संघ का प्रयोग मानते हैं, तो उस स्थिति
समूचे संघ की साधना के निमित्त मैं सेवा करूं, तो उसमें कोई बाधा नहीं मानता, किन्तु मानता हूं कि जो मैं कर रहा हूं, उसका व्यापक प्रतिबिम्ब होगा । साधना को अधिक बल मिलेगा । मैं स्वतंत्र चिंतन कर रहा हूं, फिर भी यह मानता हूं कि साधना का विकास होना चाहिये । इसकी परम्परा भी होनी चाहिये, अकेला व्यक्ति कुछ करे अपने लिये तो बहुत मूल्यवान् है, किंतु वह समाज व्यापी बने यह और अधिक मूल्यवान् है । मैंने कभी केवली बनने की बात नहीं सोची, तीर्थंकर-चरणों का अनुसरण करने की बात सोची । केवली हर कोई व्यक्ति हो सकता है । केवली और तीर्थंकर में यही अन्तर है कि केवली अपने लिये होता है । तीर्थंकर वह होता है, जो दूसरों का भी भला कर सके, कल्याण कर सके । केवली के पदचिह्नों का अनुसरण मैंने कम किया । तीर्थंकरों के पदचिह्नों पर चलने का जो मेरा प्रयोग था, अनुसरण की प्रवृत्ति थी, उसे देखते हुए मैं कह सकता हूं कि इसमें मुझे कोई बाधा प्रतीत नहीं होती ।
खण्ड ४, अंक ७-द्र
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