________________
अनेक वर्षो की आपकी ज्ञानाराधना और उसके परिणामस्वरूप आपने जो साहित्यसाधना की है, वह मात्र जैन समाज की ही नहीं, समग्र भारतीय साहित्य के साहित्य सेवी होने का स्थान सहज ही प्राप्त करा देती है । संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी भाषा में आपने जो साहित्य रचा है, वह आपकी नवीन शैली के कारण बहुत ही आकर्षक है । आपके अनेक ग्रन्थों का अंग्रेजी में अनुवाद भी हुआ है । मौलिक साहित्य के निर्माण के साथ-साथ आपने अपने सम्प्रदाय के साहित्य-भंडार को भरने का भी प्रयत्न किया है। जैन आगमों का उद्धार भी आपने पूर्ण विद्वत्ता के साथ किया है । आप आचार्य तुलसी के भाष्यकार हैं, इतना कहना मात्र पर्याप्त नहीं है । आप भारतीय संस्कार परम्परा के भाष्यकार हैं, यह कहना आवश्यक है । तेरापंथ समाज के वैचारिक उन्नयन में आपकी जो देन है, वह चिरस्मरणीय रहेगी । इसी के आधार पर गत वर्ष ( कार्तिक शुक्ला १३, गंगाशहर में आचार्य तुलसी ने आपको 'महाप्रज्ञ' की उपाधि से विभूषित किया, यह उचित ही था और इस नये वर्ष के प्रारम्भ में आचार्य श्री तुलसी ने आपको अपने उत्तराधिकारी के लिए योग्य सहर्ष यही कहा जा सकता है कि आचार्य श्री तुलसी ने योग्य दिया है ।
)
माना है, इस विषय में व्यक्ति को योग्य पद
आचार्य श्री तुलसी ने जैन समाज को जो दिया है, उससे भी अधिक केवल जैन समाज को ही नहीं किन्तु समग्र भारतीय समाज को, ये मुनि नथमल जी, आचार्य बनकर देंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।
[६-२-७६ के वैनिक 'सन्देश' से साभार उद्धृत गुजराती का हिन्दी अनुवाद ]
३५०
इतनी दूर क्यों भेजा ?
विक्रम संवत् २००१ की घटना है । युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का चातुर्मास देहली था । हम सात संत उनके साथ थे । उस समय मेरे नकसीर की शिका
यत रहती थी । अतः गर्मी का ध्यान रखना पड़ता था। एक बार संतों ने मुझे किसी कारणवश गोचरी (भिक्षा) के लिए पहाड़गंज भेजा । मैं गोचरी करने के लिए चला गया । पीछे से युवाचार्य श्री को मालूम पड़ा कि मुझे इतनी दूर गोचरी के लिए भेजा गया है तब उन्होंने संतों से कहा – विमलकुमार जी को इतनी दूर क्यों भेजा ?
बात छोटी थी । लेकिन उसमें प्रकट होता था युवाचार्य श्री का वात्सल्य और पर दुःख द्रवत्व । जो व्यक्ति पर पीड़ा को स्वपीड़ा-तुल्य समझता है, वही दूसरे का प्रिय बन सकता है ।
-मुनि विमल कुमार
प्रज्ञा