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तेरापन्थ को आचार्यश्री तुलसी की देन
साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा
तेरापन्थ धर्मसंघ एक प्रगतिशील धर्मसंघ है । एक आचार्य के सक्षम नेतृत्व में संगठन, अनुशासन और मर्यादानिष्ठा की दृष्टि से यह एक बेजोड़ उदाहरण है। इसका इतिहास दो शताब्दियों की कालावधि को अतिक्रान्त कर तीसरी शताब्दी में पदन्यास कर चुका है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की समुज्ज्वल आराधना करने के लिए आचार्य भिक्षु ने चौंतीस वर्ष का अवस्था में एक धर्मक्रान्ति की। सत्य के प्रति उनके सम्पूर्ण समर्पण, निर्भीक चिन्तनधारा और प्रतिकूल परिस्थितियों से लोहा लेने की अद्भुत क्षमता ने उनको एक प्राणवान् धर्मसंघ का प्रणेता बना दिया। उनकी दीर्घकालीन सूझबूझ और गहरी आचार-निष्ठा ने धर्मसंघ को आचार का सुदृढ़ कवच दे दिया। कष्टों के बीहड़ मार्ग पर चलकर उन्होंने एक राजपथ का निर्माण किया, जिस पर चलने वाले हजारों-हजारों व्यक्ति अपनी मंजिल की ओर आगे बढ़ रहे हैं । आचार्य भिक्षु के उत्तरवर्ती सातों आचार्यों ने हर मूल्य पर अपने धर्मसंघ के आदर्शों की सुरक्षा की। उन्होंने अठारह दशकों की लम्बी अवधि में समागत हर संघर्ष को निरस्त किया और उस पथ पर बिखरे काँटों तथा कंकरों को बुहार कर उसके पथिकों को अप्रतिम सुविधाएं दीं।
वर्तमान में तेरापन्थ के नवम अधिशास्ता युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी हैं । आपने अपने पूर्ववर्ती आठ आचार्यों द्वारा अर्जित सम्पदा को न केवल सुरक्षित ही रखा है, अपितु उसे वृद्धिंगत भी किया है । आपका शासनकाल अपने आप में अपूर्व और विलक्षण है । इस अपूर्वता का आभास उन सब लोगों को है, जो आचार्यश्री के व्यक्तित्व और कर्तृत्व से थोड़े भी परिचित हैं । परिचय के बिन्दु भी इतने सूक्ष्म और हल्के हैं कि उनके माध्यम से आपके समग्र व्यक्तित्व का दिग्दर्शन नहीं हो सकता। इसलिए प्रस्तुत सन्दर्भ की चर्चा एक बिन्दु की परिधि में परिक्रमा कर अपने पाठकों की जानकारी के धरातल को ठोस बनाना चाहती है।
वि० सं० १९९३ [ईस्वी सन् १९३६] भाद्रव शुक्ला तृतीया को तेरापन्थ के अष्टम आचार्यश्री कालूगणी ने मुनि तुलसी के तरुण कन्धों पर धर्मसंघ की धुरी रख दी। यह दिन आचार्यश्री तुलसी के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से संघीय दायित्व को स्वीकार करने का दिन था। अपना दायित्व अपने शिष्य को सौंप तीन दिन बाद ही कालूगणी दिवंगत हो गए। तेरापंथ
खण्ड ४, अंक ७-८
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