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महाप्रज्ञ का आशु कविता करते हुए चित्र छपा। उस दुर्लभ चित्र को मैंने अपने पास आज भी सुरक्षित रख छोड़ा है।
युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी और युवाचार्य महाप्रज्ञ की विद्यागरिमा पूना के माध्यम से सारे दक्षिण में परिव्याप्त हो गई।
विश्वविख्यात विद्यानगरी काशी का वह प्रसंग भी मैं नहीं भूल सकता, जब आचार्यश्री तुलसी अपनी कलकत्ता-यात्रा के बीच वहां रुके थे। वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ तथा स्याद्वाद् महाविद्यालय आदि विद्या-केन्द्रों में महत्त्वपूर्ण विद्वत्सभाओं के समायोजन हुए। वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय और हिन्दू विश्वविद्यालय के समारोह तो सदा स्मरणीय रहेंगे। भारतीय दर्शन, जैन तत्त्वज्ञान आदि विषयों पर संस्कृत और हिन्दी में युवाचार्य महाप्रज्ञ के जो भाषण हुए, वे वैदुष्य और गहन अध्ययन की दृष्टि से एतिहासिक थे। वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में संस्कृत में कार्यक्रम चल रहा था। सायंकाल हो गया। साधुओं के प्रतिक्रमण की वेला थी। विद्वान् इतने विमुग्ध थे कि कार्यक्रम का अवरोध नहीं चाहते थे, अतः आचार्यश्री ने तत्काल साधुओं के वहीं रात्रि-प्रवास का निर्णय लिया और प्रतिक्रमण के पश्चात् पुनः कार्यक्रम चालू करवाया। घंटों कार्यक्रम चलता रहा--सब संस्कृत में। संस्कृत में आशुकवित्व का कार्यक्रम पूना की तरह यहां भी बड़ा चामत्कारिक रहा । विद्वानों की बड़ी सुखद प्रतिक्रिया रही और अनुशंसा भी की आचार्यवर ने कितना ऊंचा मनीषी तैयार किया है। विद्याभूमि काशी में युवाचार्य महाप्रज्ञ और उनकी प्रतिभा की सर्वत्र ख्याति हुई।
__ एक वरिष्ठ विद्वान् तथा चिन्तक के अतिरिक्त युवाचार्य महाप्रज्ञ का जो साधक का रूप है, वह अत्यन्त ही प्रेरक तथा उद्बोधक है । आज तो वे प्रेक्षाध्यान के माध्यम से साधना के क्षेत्र में एक अभिनव उद्योत दे ही रहे हैं, वर्षों पूर्व भी उनका जीवन इतना बहिनिरपेक्ष तथा अन्तः सापेक्ष रहा है कि उनको देखते ही यह अनुभूत होता था कि इस साधक के जीवन के कण-कण में अहिंसा और संयम की परिव्याप्ति है । युवाचार्य महाप्रज्ञ प्राय: अपने गुरुवर्य आचार्यश्री तुलसी के सान्निध्य में ही रहते आए हैं, पर चिकित्सा आदि की दृष्टि से कई ऐसे अवसर आए हैं, जब वे अपने साथी श्रमणों के साथ अलग भी रहे हैं। इन सभी प्रसंगों में मुझे उनके साथ रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ। भिवानी, कांकरोली, राजसमंद तथा सोजत रोड़ आदि में उनकी चिकित्सा की दृष्टि से प्रवास हुआ। मैं और मेरे साथी वहीं थे। घंटों उनके सान्निध्य पाने के सुअवसर मिलते। उनकी उदात्त मनोवृत्ति और उच्च भावना से हम विमोहित हो जाते । एक सहज निश्छल मानव के रूप में युवाचार्य अपनी कोटि के असाधारण हैं।
कांकरोली एवं राजसमंद में उनकी चिकित्सा मेरे मित्र वैद्य पं० मिश्रीलाल दवे आयुर्वेदाचार्य करते थे। श्री दवे एक सरलचेता भद्र व्यक्ति हैं। उस समय युवाचार्य के सान्निध्य में बैठने के विशेष प्रसंग बनते ही रहते थे। श्री दवे और हम आपस में कहतेतेरापंथ संघ के ये इतने मान्य और विद्वान् सन्त कैसी बाल सुलभ भद्रता लिए हुए हैं।
खण्ड ४, अंक ७-८
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