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उत्तर-ईसाई धर्म का क्षेत्र बहुत व्यापक है, बहुत बड़ा है और पोपपाल ने जो घोषणा की
है वह वर्तमान युग के सन्दर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण है । कुछ परम्पराओं से हटकर और नयी चेतना, नये दृष्टिकोण को अपनाने की बात जो सामने आई है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। मैं मानता हूं कि सौभाग्य से मुझे वह कार्य पहले से ही उपलब्ध हो गया। मेरे आचार्य ने पहले से ही कुछ ऐसे उदार व्यापक और विशाल दृष्टिकोण अपनाये हैं, जिनसे मैं स्वयं बहुत लाभान्वित हुआ हूं और हमारा संघ लाभान्वित हुआ है । आज ईसाई भी अध्यात्म-चेतना के प्रति आकृष्ट होता जा रहा है और उनके धर्मगुरु स्वयं पोपपाल ध्यान, साधना जैसे आध्यात्मिक प्रणालियों के प्रति अपनी रुचि प्रदर्शित करते हैं । सौभाग्य से हमारे संघ में भी आज सबसे ज्यादा किसी बात को महत्त्व दिया जा रहा है, तो अध्यात्म चेतना के जागरण को दिया जा रहा । उसके बिना मानवीय चेतना या सामाजिक चेतना या नैतिक चेतना विकसित नहीं हो सकती, कभी विकसित नहीं हो सकती। यह एक साम्य का बिंदु है कि हम जिस कल्पना को लेकर चल रहे हैं और ईसाई जगत का मानस भी उस बिंदु की ओर आ रहा है। संभव हो सकता है कि कभी ऐसा हो कि उस अध्यात्म-चेतना जागरण के बिंदु पर हम दोनों एक हो जाएं । कोई कठिनाई नहीं तो बहुत बड़ी संभावनाएं हैं और इन संभावनाओं पर विचार होना भी जरूरी है । मैं सोचता हूं आचार्यवर विचार करेंगे, मुझे भी कुछ मार्ग-दर्शन देंगे। मैं भी उस पर कुछ प्रयत्न करूं या आज सारे संसार को यदि किसी एक बिंदु पर लाया जा सकता है तो वह धर्म का बिंदु ही हो सकता है। इन भौतिकता के बिंदुओं ने यह प्रमाणित कर दिया कि इन आधारों पर चलने से संसार में विघटन होता है; कभी एकता स्थापित नहीं होती। अगर एकता का कोई बिंदु होगा तो अध्यात्म का बिंदु होगा और आने वाला युग अध्यात्म का ही युग होगा। हमने जो मार्ग चुना है, जो नेतृत्व और मार्ग-दर्शन आचार्यवर का मिल रहा है, वह पहले से ही इतना कल्याणकारी और श्रेयस्कर है। उस विंदु को और विकसित करने में मैं कुछ योगभूत बनूं तो यह मेरे लिये बहुत शुभ होगा।
खण्ड ४, अंक ७-८
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