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पूज्य मुनिश्री नथमल जी इस समय उन कुछ विरल और मूर्धन्य जैन श्रमणों में हैं, जिनकी कलम से महावीर का इस युग के सन्दर्भ में पुनरावतार हुआ है । उनका चिन्तन अनुभूत है, साक्षात्कृत है । वे योगी हैं। उनका ग्रन्थ 'सम्बोधि' इसका प्रमाण है । मैं इसे वर्तमान जिनवाणी का एक क्लासिक मानता हूँ ।
'श्रमण महावीर' भी अद्भुत ग्रन्थ है । बार-बार उसे पढ़ने को जी करता है । सबसे बड़ी बात यह कि पू० मुनिश्री नथमल जी के साथ मैं गहरी चिन्तनात्मक तदाकारिता महसूस करता हूँ | मैं चकित चमत्कृत हुआ यह देखकर कि 'अनुत्तर योगी' में जो मैंने लिखा है, उसका समर्थन मुझे उनके चिन्तन में बराबर मिलता गया है । तो मुझे लगा कि यह महावीर ही समर्थन है ।
पू० मुनिश्री को प्रणाम भेजता हूँ और उनका आशीर्वाद चाहता हूँ ।
वीरेन्द्र कुमार जैन बम्बई ( 'अनुत्तर योगी ' के यशस्वी लेखक )
यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि आचार्य तुलसी जी ने मुनिश्री नथमलजी जैसे स्वतन्त्रचेत्ता तलस्पर्शी चिंतक को उत्तराधिकारी के रूप में घोषित किया है । इस शुभ अवसर पर मैं दोनों महापुरुषों को बधाइयाँ देना चाहूँगा ।
एक छरहरे वदन में अपने अस्तित्व को छिपाये महाप्रज्ञ मुनिश्री नथमलजी का प्रशान्त व्यक्तित्व पिछली दशाब्दियों से चिंतन के क्षेत्र में दिनकरवत् चमक रहा है । वे समग्र भारतीय दर्शनों के गंभीर विद्वान हैं । संगोष्ठियों में तो हमने उन्हें विश्वकोष के रूप में पाया है । वे जिस अधिकारिक वाणी से अपनी आगमन और निगमन शैली में उद्धरणों और दृष्टान्तों के साथ विषय का प्रतिपादन करते हैं, वह अत्यन्त प्रभावक और हृदयग्राही बन जाता है । उन का लेखन, चिंतन और कथन एक सामञ्जस्यपूर्ण दृष्टिकोण से ओतप्रोत रहता है । जैन सिद्धान्तों की मर्मज्ञता उनकी भावप्रवणता साथ जुड़ जाती है | अनुभूति के स्वरों ने उनकी शैली में एक और आकर्षण डाल दिया है । छोटे-छोटे आप बीते उदाहरण कथन की सारवत्ता को अभिव्यक्त करते चले जाते हैं । शैक्षणिक और सामाजिक मूल्यों की आधार - शिला पर आसीन होकर वे प्रत्येक दर्शन का मूल्यांकन करते हैं । जैन आगमों का आधुनिक ढंग से संपादन - प्रकाशन भी उनकी सूझ-बूझ का निदर्शन है ।
युवकों के दायित्व को मुनिश्री ने भलीभाँति उभारा है, उनकी शक्ति, क्षमता और कर्त्तव्यपरायणता को जाग्रत करने का अथक प्रयत्न किया है । अणुव्रत आन्दोलन को युवकों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने का कार्य आचार्य श्री एवं मुनिश्री के सबल कंधों का प्रतिफल है । इतना ही नहीं, अहिंसा दर्शन के प्रति आस्था पैदा करने का पुण्यकार्य भी उन महापुरुषद्वय के प्रयत्नों का परिणाम कहा जा सकता है ।
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विगत वर्षों में संघ में यदा-कदा किन्हीं कारणवश विवादों का भूचाल आया । कतिपय तत्त्वों ने समाज में अशान्ति और संघ में अव्यवस्था फैलाने का भी उपक्रम किया, परन्तु
तुलसी- प्रज्ञा