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आचार्यश्री की दूरदर्शिता और संयोजनशीलता ने उन सभी ज्वारभाटों को बड़ी सुघड़ता और तथ्यता के साथ शान्त किया । यह उनकी प्रशासन क्षमता का ही प्रतीक है । इन सब कार्यों में आचार्यश्री को मुनिश्री का पूरा-पूरा सहयोग मिला है ।
ध्यान-योग जैन समाज से लुप्त-सा होता जा रहा था । इतनी गंभीर जैन ध्यानपरंपरा होते हुए भी साधक उसकी ओर से उदासीन - से हो गये थे । मुनिश्री ने लाडनूं में ध्यान-केन्द्र प्रारंभ कर एक नया आन्दोलन आरंभ कर दिया है । ध्यान की इस गूढ शैली को उन्होंने स्वयं की साधना के माध्यम से सहज और सरल बना दिया है । ध्यान शिविरों के संयोजन से अब यह परंपरा लोकप्रिय होती जा रही है ।
मुनिश्री की प्रतिभा और चिंतन ने अभी तक शताधिक कृतियों और निबन्धों को जन्म दिया है । इन कृतियों में चिंतन के साथ उद्बोधन मुखर होकर सामने आया है । लोकेषणा से दूर मुनिश्री ने जन सामान्य के दृष्टिकोण को झकझोरने का जो सफल प्रयत्न किया है, वह अभिनन्दनीय है । उनके सतत प्रयास से एक ऐसा नया क्रान्तिकारी तत्त्व खड़ा हो गया है जो अंधविश्वासों और रूढ़ियों से निर्मुक्त समाज की स्थापना में विश्वास करता है । मैं मेरा मन : मेरी शान्ति, तट दो प्रवाह एक, गूंजते स्वर : बहरे कान आदि कृतियाँ इसी विचार-शृंङ्खला से जुड़ी हुई हैं ।
आचार्य श्री तुलसी जी ने संघ, समाज और साहित्य को जो योगदान दिया है उसे मुनिश्री नथमलजी निश्चित ही आगे बढ़ायेंगे और उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी सिद्ध होंगे । मुनिश्री जी निरामय और शतायु हों, यही हमारी कामना है । मेरा विनम्र प्रणाम ।
डा० भागचन्द्र जैन, 'भास्कर'
खण्ड ४, अंक ७-८
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