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सम्पादकीय
जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ प्रारम्भ से ही एक आचार्य के नेतृत्व में फला-फूला और विकसित हुआ है। यही कारण है कि समस्त धर्मसंघों में एकता की दृष्टि से इसका असाधारण स्थान है। इस धर्मसंघ में दीक्षित साधु-साध्वी-संघ एक ही आचार्य के कुशल निर्देशन में चलता है। भिक्ष स्वामी ने जिस धर्मवक्ष का बीजारोपण किया, उसे क्रमशः आचार्य भारिमाल, ऋषिराय, जयजश, मघवा, माणक, डालचन्द, कालूगणी और आचार्य श्री तुलसी ने सिञ्चित कर समृद्ध किया है।
अणुव्रत अनुशास्ता युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी तेरापंथ धर्मसंघ के नवम-आचार्य हैं । आपके शासन काल में इस धर्मसंघ ने जो चातुर्दिश् उन्नति की है, वह आपकी कार्यक्षमता का निदर्शन है। किसी भी धर्मसंघ को एक सूत्र में पिरोए रहने का कार्य गुरुतर होता है और उससे भी गुरुतर कार्य होता है अपने सुयोग्य उत्तराधिकारी का चयन । किन्तु आचार्य श्री ने इस कार्य में अपनी जिस अलौकिक सूझ-बूझ का परिचय दिया है, वह अभिनन्दनीय है।
गत ३ फरवरी को राजलदेसर में आचार्य श्री ने तेरापंथ धर्मसंघ के ११५वें मर्यादा महोत्सव के अवसर पर विशाल चतुर्विध संघ के समक्ष मुनि श्री नथमल जी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है । कुछ ही महीनों पूर्व परमपूज्य आचार्यप्रवर ने उन्हें महाप्रज्ञ की उपाधि से विभूषित किया था और अब उन्हें युवाचार्य के पद पर आसीन किया है। साथ ही साथ उनकी महाप्रज्ञ उपाधि को उनके नाम में परिवर्तित कर दिया है और अब महाप्रज्ञ विशेषण विशेष्य बनकर उनका स्वरूप बन गया है।
इस प्रसंग में 'प्रज्ञा' शब्द के मौलिक अर्थ पर प्रकाश डालना अप्रासंगिक न होगा। प्रज्ञा के सामान्यतः तीन भेद गिनाये गये हैं-१. श्रुतमयी प्रज्ञा २. चिन्तामयी प्रज्ञा एवं ३. भावनामयी प्रज्ञा । आप्तवचन के आधार पर विकसित प्रज्ञा को श्रुतमयी प्रज्ञा, चिन्तनमनन पर आधारित प्रज्ञा को चिन्तामयी प्रज्ञा एवं समाधिजन्य ज्ञान को भावनामयी प्रज्ञा कहा गया है। ये तीनों प्रज्ञाएं आध्यात्मिक विकास के सोपान हैं। पातञ्जल योगभाष्य में एक श्लोक उद्धृत है, जो प्रज्ञा के स्वरूप पर विशद प्रकाश डालता है। वह इस प्रकार है
खण्ड ४, अंड ७-८