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________________ *** १ दिसम्बर १९७४ / ८-१० अक्टूबर १९७७ के बीच उन्हें उन्हीं की कृतियों में तलाशता रहा। अक्टूबर १९७७ में मुझे लाडनूं जाना पड़ा। वहाँ एक संगोष्ठी आयोजित थी । यद्यपि मैं मैसूर विश्वविद्यालय की एक संगोष्ठी में था दो दिन पूर्व और यह असंभव ही था मुझ - जैसे निष्कांचन के लिए कि लाडनू पहुंच और संगोष्ठी में अपना शोधपत्र प्रस्तुत करू ँ, किन्तु जैन विश्व भारती के विद्वान् कुलपति श्री श्रीचंद जी रामपुरिया तथा "तुलसी प्रज्ञा" के संपादक डॉ० नथमल टाटिया की कृपा ने मुझे न्यौता और मैं वहाँ आकाशमार्ग से IT सका । आचार्यश्री अस्वस्थ थे, सारे कार्य चल रहे थे । कौन चला रहा था इन्हें ? मुनि श्री नथमल जी का कुशल, दिशादर्शी नेतृत्व । कहीं, कोई विशृंखलता नहीं थी। मुझे "जैन पत्र-पत्रिकाओं के उद्भव और विकास" पर अपना शोधपत्र पढ़ना था । पता नहीं क्यों ऐसा हुआ है कि जब भी मैं मुनिश्री नथमल जी से मिला हूं, एक विशेषांक की तैयारी के तेवर में ही उनसे मिलना पड़ा है। दिल्ली से लौटकर मैंने “श्रीमद्राजेन्द्र सूरीश्वर" विशेषांक संपन्न किया और लाडनू से लौटकर "जैन पत्र-पत्रिकाएँ" विशेषांक । इसे संयोग कहिये, अथवा नियतियोजित किन्तु हुआ यही, और होगा यही । पता नहीं मुनिश्री के व्यक्तित्व में ऐसा क्या है जो मेरी प्रज्ञा को माँजता है और उदारता को मेरे नजदीक ता है । संभवतः ८ अक्टूबर का वह दिन था । मैं अपने शोधपत्र का वाचन कर रहा था पढ़ चुका था शायद । कुछ भान नहीं है, किन्तु उसी दिन मुनिश्री ने कहा था - "पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि डॉ० नेमीचन्द जैन और हमारा साथ जन्मजन्मान्तर का है।" कह नहीं सकता चित्त की किस एकाग्रता में से यह क्वणित हुआ था, किन्तु उस रात वहीं लाडनू में मैं बहुत भीतर गया था और मेरी चेतना ने इस तथ्य पर अनायास हस्ताक्षर किये थे । यद्यपि आज वह क्षण गुजर गया है, किन्तु अभी भी मैं उस रोमांचक पल की तलाश में बना हुआ हूं; और जब पढ़ रहा हूं कि उन्होंने "नामातीत" और "संबन्धातीत" होने की ही है तो बहुत चिन्तित हूं । तो फिर क्या उस घटना पर स्याही का धब्बा डाल दूँ, किन्तु शायद वैसा इसलिए नहीं कर पाऊंगा क्योंकि बहुत गहरे में मैं उन्हें अपने आमनेसामने पा रहा हूं, ठीक वैसे ही जैसे कोई किसी गहन अंधियारे में मेरे हाथ में एक दीपक जलाकर रख जाता है और फिर नहीं दिखायी देता; या किसी माँ की वह मंगल कामना जो यात्रा पर निकल रहे अपने बेटे के लिए पाथेय तैयार करती है । सच तो यह है कि अपनी जीवन-यात्रा में मैंने उन्हें सदैव अपने परिपार्श्व में जीवन्त उपस्थित महसूस किया है । *** मैं जब भी उनके ग्रन्थों की स्वाध्याय-यात्रा में से गुजरा हूं तब भी मुझे ऐसा ही अहसास हुआ है । " सत्य की खोज / १९७४ / प्रथम वाक्य - " उपाय की खोज किये बिना उपेय की खोज नहीं की जा सकती । सत्य उपेय है । ज्ञान उसका उपाय है ।" इसे हजम करते लगा कि जैसे कोई सूत्रकार सामने है और अष्टाध्यायी सूत्रों की भाँति घटनाओं में से जीवन की तुलसी प्रज्ञा ५०४
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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