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श्रीमज्जयाचार्य रचित 'झीणी चर्चा'
(मूल एवं हिन्दी अनुवाद) सम्पा० एवं अनु-मुनि नवरत्नमल
(गताङ्ग से आगे) ढाल-३
दोहा १. उदै निपन उपशम निपन, खायक निपन पिछांण ।
बले खयोपशम निपन तणो, निरणय तीजी ढ़ाले जांण ।। उदय-निष्पन्न, उपशम-निष्पन्न, क्षायक-(क्षय) निष्पन्न तथा क्षयोपशम-निष्पन्न का विवेचनात्मक निर्णय तीसरी ढ़ाल में किया जा रहा है ।
[लय-प्रभवो मन में चितव.... ..] १. उदै निपन कर्म आठ नो, उपशम निपन एक सार ।
खायक निपन आठां तणो, खयोपशम निपन च्यार ।। उदय-निष्पन्न आठ कर्मों का, उपशम-निष्पन्न एक कर्म (मोह) का, क्षय-निष्पन्न आठ कर्मों का और क्षयोपशम-निष्पन्न चार कर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शणावरणीय, मोहनीय, अंतराय) का होता है।
२. छ कर्म उदे निपन सुणो, छ द्रव्य में जीव ताहि ।
नव तत्त्व में पिण जीव इक, सावद्य निरवद्य नांहि ।। छह कर्मों (मोह और नाम को छोड़कर) का उदय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में भी एक जीव है । पर वह सावध (पाप सहित) और निरवद्य (पाप रहित) नहीं है।
३. मोह कर्म उदै निपन ते, छ द्रव्य मांहि जीव ।
नव में जीव आश्रव अशुभ छ, सावद्य कयो सदीव ॥ मोह कर्म का उदय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और आश्रव हैं । आश्रव में मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग आश्रव है। उसे सदैव सावध ही कहा है।
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तुलसी-प्रज्ञा