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४. नाम कर्म उदै निपन ते, छ द्रव्य मांहि जीव ।
नव में जीव आश्रव कहयो, शुभ जोग आश्रव कहीव ।। नाम कर्म का उदय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और आश्रव हैं । आश्रव में उसे शुभ योग आश्रव कहा गया है।
५. मोह कर्म उपशम निपन ते, छ द्रव्य मांहि जीव ।
नव में जीव संवर कयो, उत्तम गुण है अतीव ।। मोह कर्म का उपशम-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और संवर हैं । जो आत्मा के श्रेष्ठतम गुण हैं।
६. उदै निपन उपशम निपन, दाख्यो है दिल पाक ।
खायक निपन कह हिवै (ते) निसूणो तज छाक ।। उदय-निष्पन्न तथा उपशम-निष्पन्न का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन कर दिया गया है। अब क्षय-(क्षायक) निष्पन्न का उल्लेख कर रहा हूं, उसे सभी आलस्य और प्रमाद को छोड़कर सुनें।
७. ज्ञानावरणी खायक निपन ते, छव में जीव पिछांण।
नव में जीव ने निर्जरा, केवलज्ञान सुजाण ॥ ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दोजीव और निर्जरा हैं । ज्ञानावरणीय के क्षय से केवलज्ञान की उपलब्धि होती है।
८. दर्शणावरणी खायक निपन ते छव में जीव पिछांण।
नव में दोय जीव निर्जरा, केवल दर्शण जांण ।। दर्शणावरणीय कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और निर्जरा हैं। अर्थात् दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से केवलदर्शन की प्राप्ति होती है।
६. वेदनी खायक निपन ते, छव में जीव पिछांण।
नव में दोय जीव मोख छ, ते खय सहु खय जाण ॥ वेदनीय कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और मोक्ष हैं । वेदनीय कर्म के क्षय होने के साथ-साथ अवशेष सब कर्मों (आयुष्य, नाम, गोत्र) का क्षय हो जाता है।
१०. मोह कर्म खायक निपन ते, छ में जोव सजोय ।
नव में जीव संवर निर्जरा, दर्शण चारित्र दोय ।। मोहनीय कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में तीन-जीव, संवर और निर्जरा हैं। मोह कर्म के दो भेद हैं-दर्शणमोह और चारित्रमोह।
११. दर्शण मोह खायक निपन ते, छ में जीव तांम ।
नव में जीव संवर निर्जरा, खायक सम्यक्त्व पाम ।। दर्शनमोह का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में तीनजीव, संवर और निर्जरा हैं। दर्शनमोह के क्षय होने पर क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है।
खण्ड ४, अंक ७-८
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