SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२. खायक सम्यक्त्व चौथा गुणठाणा तणी, छ में जीव विख्यात । नव में दोय जोव निर्जरा, संवर नहीं तिलमात ।। चौथे गुणस्थान वाले प्राणी का क्षायिक-सम्यक्त्व छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव ओर निर्जरा हैं, पर संवर किंचित् मात्र भी नहीं है। १३. खायक सम्यक्त्व विरत वंतरी, छ में जीव सुजाण । नव में जीव संवर कहयो, पांचमा सू पिछाण ।। देशव्रती और सर्वव्रती का क्षायिक-सम्यक्त्व छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और संवर' हैं, जो पाँचवें गुणस्थान से चौहदवें गुणस्थान तक होते हैं। १४. चारित्र मोह खायक निपन, छ में जोव सजांण । नव में जीव संवर विरत ते, खायक, चारित्र पिछांण ।। चारित्र मोह का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दोजीव और संवर हैं। उन्हें विरत और क्षायिक-चारित्र (यथाख्यात चारित्र) कहा जाता है। १५. आउखो कर्म खायक निपन ते, छ में जीव सजोय । ____नव में दोय जीव मोख छ, ते संसारी में न होय ।। आयुष्य कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और मोक्ष हैं। वे सांसारिक जीवों में नहीं होते। (आयुष्य कर्म के क्षय से अटल-अवगाहना (आत्म प्रदेशों का स्थिर होना) गुण प्रकट होता है, जो सिद्धों में ही पाया जाता है।) १६, नाम कर्म खायक निपन ते, छ में जीव पिछांण । नव में दोय जीव मोख छे, ते पिण सिद्धां में जांण ।। नाम कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और मोक्ष हैं । वे सिद्धों में ही होते हैं । (नाम कर्म के क्षय से अमूर्तित्व (अशरीरीपन) गुण उपलब्ध होता है, वह सांसारिक प्राणियों में नहीं मिलता।) १७, गोत कर्म खायक निपन ते, छ में जीव है सोय । नव में दोय जीव मोख छै, अगुरुलघु अवलोय ॥ गोत्र कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो--जीव और मोक्ष हैं । गौत्र कर्म के क्षय से अगुरुलघुत्व (न छोटापन न बड़ापन) गुण की प्राप्ति होती है (वह सिद्धों में ही होता है)। १८. अतराय खायक निपन ते, छ में जीव पिछांण । ___ नव में दोय जीव निर्जरा, पाच खायक लब्ध जांण ॥ अंतराय कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो---जीव और निर्जरा हैं। अंतराय कर्म के क्षय से पाँच क्षायिक लब्धियाँ (दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य) मिलती हैं। १. यहाँ संवर सम्यक्त्व संवर की अपेक्षा से है। m तुलसी-प्रज्ञा
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy