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पद प्रदान करने की घोषणा सुनी तब मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि मेरी तो अपनी दृढ़ धारणा बनी हुई थी। आचार्यश्री तुलसी स्वयं महान हैं उनकी दृष्टि महान है और उनका यह निर्णय अत्यन्त दूरदर्शितापूर्ण है। आचार्यश्री तुलसी ने जैन धर्म और जैन दर्शन के कल्याण का भगीरथ कार्य किया है। आचार्यश्री केवल तेरापंथ के आचार्य के रूप में ही नहीं जाने जाते हैं बल्कि जैन धर्म के आचार्य के रूप में जाने जाते हैं । मैं आचार्यश्री को जीवन्त व्यक्तित्व वाला मानता हूं। मैं क्या सारा मानव समाज ही उन्हें उस रूप में मानता है।
आपने आगे कहा--मुनिश्री नथमल जी से मेरा सम्बन्ध सन् ६० से है। मैंने उन्हें विविध रूपों में देखा है। राजस्थान तथा अन्य प्रांतों में बैठ कर उनसे चर्चा, विचार मन्थन का अवसर उपलब्ध होता रहा है। मैंने उनके जीवन में एक अनोखी बात पाई। सन् ६० से पहले मैं जैन दर्शन के विश्रुत न्यायविद् पंडित चैनसुखदास जी से जैन दर्शन एवं जैन न्याय का अध्ययन किया करता था। पंडित जी ने ही पहले-पहल मुझे मुनि नथमल जी के बारे में बाताया। पंडित जी भी मुनिश्री के व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित थे । मुनिश्री नथमल जी हमेशा विकास की सीढ़ियों को पार करते रहे हैं । यों कहना चाहिए वे विकासवान व्यक्तित्व के धनी रहे हैं । उनका जीवन कभी ठहरा नहीं । जो ठहर जाता है, वह समाप्त हो जाता है।
डा० सोगानी ने आगे कहा-आचार्यश्री तुलसी का संघ गतिमान धर्म संघ है। उस संघ के एक सितारे मुनि नथमल जी है । मैंने उन्हें हरदम नए रूप में देखा है जब-जब भी मेरा मिलन हुआ तब-तब मैंने निखरे व्यक्तित्व के रूप में पाया। कई बार तो मैं सोच भी नहीं पाता था क्या सचमुच पिछली बार जिन मुनि नथमल को देखा था क्या मैं उन्हें ही देख रहा हूं या कोई दूसरे को।
आपने मुनिश्री नथमल जी के मुख्य तीन रूपों का वर्णन करते हुए बताया-पहलेपहल मैंने उन्हें दार्शनिक के रूप में देखा । उनको दर्शन की गहरी गुत्थियों को सुलझाते हुए कितनी ही बार मैंने निकट से परखा है। उनका अणुव्रत दर्शन मैंने पढ़ा मुझे प्रतीत हुआ यह अणुव्रत दर्शन है या विश्व दर्शन । वे किसी विश्वविद्यालय में नहीं पढ़े हैं, न कहीं वे प्रोफेसर रहे हैं, फिर कैसे वे इतनी गहराई में पहुंच जाते हैं। मैं समझ नहीं पाया सचमुच में वे जन्मजात प्रतिभावान् हैं। आचार्यश्री तुलसी से मुनि नथमल को मैं अलग नहीं देख सकता । यदि मैं अलग देखने की धृष्टता करू तो मैं नहीं जानता उनमें क्या बचेगा। उनका दूसरा रूप है-आगमज्ञ का । आगम हर जैन मुनि को पढ़ना होता है पर आगम में आगमन करना अलग बात है। जो आगम में आगमन करता है उसे महावीर के युग में जाना होता है, यह मेरी दृढ़ मान्यता है। युवाचार्य महाप्रज्ञ द्वारा संपादित आचारांग का अनुवाद मैंने पढ़ा । मैंने अनेक बार अनेक संतों द्वारा संपादित आचारांग पढ़े हैं पर मैं कभी गहराई से समझ नहीं सका। इस बार मैंने आप द्वारा संपादित आचारांग पढ़ा, मेरा मन तरोताजा हो उठा । उन्होंने आचारांग को सूत्रात्मक शैली में प्रस्तुत किया है । जब तक हमारी दृष्टि सूत्रात्मक रूप में नहीं जा पाएगी, तब तक हम आचारांग को नहीं समझ सकते।
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तुलसी-प्रज्ञा