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आती हैं, कार्य को बीच में ही छोड़ देते हैं। तीसरी कोटि के व्यक्ति महान व्यक्ति होते हैं। वे धीर, वीर और गम्भीर होते हैं। भले उनके सामने कितनी ही कठिनाइयाँ क्यों न आएं, स्वीकृत मार्ग से वे एक इंच भी इधर-उधर नहीं होते। उनका विवेकी और पुरुषार्थी मानस कभी भी औचित्य का अतिवर्तन नहीं करता। जो विवेकपूर्वक आसक्ति और कर्म दोनों को छोड़ने की क्षमता रखता है, वस्तुतः वह महान् होता है।
आत्म-साधना के क्षेत्र में अनासक्ति का बहुत बड़ा महत्त्व है। मोक्ष-प्राप्ति में गहत्याग की भी कम महत्ता नहीं है, पर आसक्ति से मुक्त हुए बिना केवल गृहत्याग फलदायी नहीं होता।
भगवान् महावीर से पूछा गया—भन्ते ! क्या मोक्ष पाने के लिए गृहवास का त्याग करना और साधु-वेष धारण करना अनिवार्य है ?
भगवान् ने कहा-वेष और गृहवास मोक्ष-प्राप्ति में इतने बाधक नहीं, जितनी बाधक है आसक्ति । मुक्ति का सम्बन्ध अन्तर्वत्तियों से है । अन्तर्वत्तियाँ यदि अनासक्त नहीं हैं, तो वेष बदल लेने पर भी मुक्ति नहीं होती और आन्तरिक वृत्तियाँ अनासक्त हैं, कषाय-मुक्त हैं, तो गृहवास से मुक्त हुए बिना भी मुक्ति हो जाती है।
__कोई व्यक्ति यह आग्रह करे कि भगवान् ने गृहस्थ वेष में भी मुक्त होना बताया है, इसलिए मैं तो इसी वेष में रहूँगा, साधु-वेष स्वीकार नहीं करूंगा, यह चिन्तन भूल भरा चिन्तन है। गृहस्थ वेष का आग्रह भी मेरी दृष्टि में एक आसक्ति ही है। जब मनुष्य विरक्त बन गया, संसार-त्याग की ओर उन्मुख बन गया, फिर साधु-वेष धारण न करने का क्या प्रयोजन ? हमारे सामने अपवाद रूप में एक या दो उदाहरण ही ऐसे मिलते हैं, मरुदेवी माता व भरत चक्रवर्ती का, जिन्होंने गृहस्थ वेष में रहते हुए भी कैवल्य प्राप्त किया।
साधु-वेष एक पहचान है, पर यह विचारों को भी बहुत प्रभावित करता है। साधक का यह चिन्तन रहता है कि मैंने साधु का वेष धारण किया है। मैं यदि अनुचित कार्य करूगा, तो लोग मुझे क्या कहेंगे ? मेरी एक गलती से सारा संघ बदनाम होगा। यह मेरे लिए उचित नहीं है । वेष भी मनुष्य का त्राण बन जाता है और उसे पथच्युत होने से बचा लेता है, ऐसे अनेक उदाहरण पढ़े और सुने जाते हैं।
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तुलसी प्रज्ञा