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० मुनि श्री नथमलजी ज्ञान और विज्ञान की प्रवृत्ति से नित्य सृजनशील एक प्रयोगवेत्ता
हैं, जिनकी प्रयोगशाला खाते-पीते, उठते-बैठते प्रतिपल प्रतिवृत्ति में चलती रहती हैं । कहीं कुछ आहट नहीं और व्यवहार में कहीं कुछ कमी नहीं । सदैव बोलती हुई मुस्कराहट, जिज्ञासु और दर्शक के लिए बस यही सब कुछ है । दृष्टिमात्र ही आगुन्तक के हृदय को जीत लेती है । महानता के इस अपार संग्रह में भी अहम् कहीं छू भी नहीं गया है । अहंकार का तो प्रश्न ही नहीं है । दर्शक को वहाँ दर्शन ही नहीं वरन् प्रयोगशाला की झांकी भी मिलती है, लेकिन जकड़न कहीं भी नहीं हैं।
__ इसीलिए "महाप्रज्ञ' के रूप में आचार्य श्री तुलसी की यह खोज कहूं या देन, अद्वितीय है। न सिर्फ 'तेरापंथ' वरन् जैन जगत को आचार्य श्री ने अपने पीछे उन्हें 'धर्म-अनुशास्ता' के रूप में घोषित कर एक ऐसी देन दी है, जो सदैव चिर स्मरणीय रहेगी।
प्रज्ञाचक्ष पं० सुखलालजी के बाद जो एक कमी जैन जगत महसूस कर रहा था, महाप्रज्ञ के रूप में मुनि श्री नथमलजी को पाकर यह समाज आज अपनी धन्यता का अनुभव कर रहा है । वस्तुतः हम सब भाग्यशाली हैं और फिर 'तेरापंथ' के युवाचार्य के रूप में महाप्रज्ञ को पाकर हम और अधिक धन्य हो उठे हैं । युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी की यह एक ऐतिहासिक देन है। यह एक ऐसी देन है, जिससे युग-संदर्भ में जहाँ कई भविष्यवाणियां धराशायी हो उठी हैं तो कई पुनर्जीवित हो उठी हैं, जो जैन-दर्शन को नित्य नवीन उन्मेषों, प्रयोगों एवं विचारों से प्लावित करती रहेगी और न सिर्फ जैन वरन समूचे आध्यात्मिक नेतृत्व को नये आयाम प्रदान करेगी।
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तुलसी-प्रज्ञा