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________________ आदर्श श्रावक : महावीर की कल्पना -मुनि किशनलाल भगवान महावीर किसी एक वर्ग के आदर्श की परिकल्पना के पक्ष में कभी नहीं थे। उन्होंने आदर्श श्रावक की क्या आदर्श भगवान् की भी कभी कल्पना नहीं की। उनका विलक्षण व्यक्तित्व इस प्रकार निर्मित था कि वे सर्वत्र समता के ही दर्शन करते थे। साम्यभाव उनके रोम-रोम से प्रस्फुटित होता था। वे प्रत्येक व्यक्ति के व्यवहार में समत्व का दर्शन करना चाहते थे । उनकी साधना की उत्क्रान्ति का एक ही सूत्र था—समता "समया धम्ममुदाहरे मणी"। समता की इस सृष्टि के लिए सम्यक्-दर्शन अत्यन्त अपेक्षित है । भगवान् महावीर के धर्म और दर्शन का मूल आधार सम्यग्-दर्शन है। साधना की दृष्टि से सम्यग्-दर्शन विकास की प्रथम भूमिका है । श्रावक का कोई पहला आदर्श अथवा पहिचान का कारण हो सकता है, तो वह है सम्यग्-दर्शन । यह जैन परम्परा का ऐसा महत्त्वपूर्ण आदर्श है, जिसे प्राप्त किए बिना व्यक्ति विमुक्त हो ही नहीं सकता है। चंचल महिष के नुकीले शृंग पर टिके हुए मूंग के दाने के बराबर स्वल्प समय तक प्राप्त सम्यक्त्व भी व्यक्ति को मुक्तावस्था तक पहुंचाने में सहायक बन जाता है। विश्व में पीड़ा, अशान्ति, क्लेश का यदि कोई एक कारण हो सकता है, तो वह है मिथ्या-दृष्टि । व्यक्ति इससे यथार्थ को अयथार्थ देखता है । वस्तु के प्रति प्रिय-अप्रिय, रागद्वेष के भावों से कर्मों का अनुबन्ध करता है । कर्मों के अनुबन्ध से कषायों में तीव्रता आती है । तीव्र कषायों के कारण प्राणी पुनः पुनः जन्म-मरण को धारण करता है । सम्यग्-दर्शन की उपलब्धि की भूमिका देह और आत्मा का भिन्न साक्षात्कार है। कोई प्राणी जब एक बार भेद-विज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, तब उसकी मुक्ति निश्चित होती है । वह क्रमशः मोक्ष की ओर गति करने लगता है । भेद-विज्ञान उन्हें ही उपलब्ध होता है, जिनकी कषाय मन्द होती है । कषाय की तीव्रता में सम्यक्-दर्शन उत्पन्न नहीं हो सकता। मिथ्या-दर्शन का परिणाम मूर्छा एवं सम्यक्-दर्शन का परिणाम जागरण है । मूर्छा से चैतन्य विमूढ़ बनकर क्लेश के आवर्त में गिरता है । जागरण से मूर्छा टूटती है, व्यक्ति ४५० तुलसी-प्रज्ञा
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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