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________________ में और लगा कि इस मनीषी को शब्दशः, न अक्षरशः, पढ़ डाला जाए। पढ़ा भी, सुख भी मिला, स्फूर्त भी हुआ। आज सवेरे (२० मार्च १९७६) दो और किताबें रिव्ह्यू के लिए मिली हैं—“चेतना का ऊर्ध्वारोहण” तथा “जैन योग।" पहली का प्रथम वाक्य है- "हम मनुष्य हैं और चेतना हमारी विशेषता है।" बात सौ टका दुरुस्त है और सीधे-सादे शब्दों में कही गई है तथापि अभी कइयों को मनुष्यता-बोध नहीं है, चेतना-बोध तो काफी फासले की बात है। पूरी किताब अनुपम है, तथ्य-समीक्षण चमत्कृत करने वाला है ।" प्रेक्षा" में जो किश्तों में मिलता है, वह यहाँ अखण्ड रूप में संयोजित है । दूसरी का पहला वाक्य है-"आध्यात्मिक व्यक्ति सत्य का अन्वेषी होता है।" बात सशक्त है; किन्तु प्रस्तुति के बाद जहाँ प्रथम अध्याय का मुखड़ा है वहाँ का प्रथम वाक्य है-"तुम भिखारी नहीं हो.... भिखारी स्तब्ध रह गया....।" इस अंश को पढ़कर लगा कि रूपकों में से अर्थ को निचोड़ना और अपने पाठक या श्रोता को सुगम शब्दों में परोसना किसी महाप्रज्ञ का ही काम हो सकता है किसी सामान्य आदमी के बूते की बात वह नहीं है। * * * इस तरह जो मनीषी बार-बार आमने-सामने रहा है|रहता है, मेरी चेतना से टकराता है, वह अक्षर-पुरुष है मुनिश्री नथमल, जिनका यदि कोई अक्षर-चित्र मुझसे बनवाया जाए तो मैं “कॉलाजिंग” की नव्यतम विधा का उपयोग करूँगा और उनकी तमाम कतियों के प्रथम वाक्यों को गड्डमड्ड कर दूंगा और देखू गा कि एक परम पुरुष मेरे सामने उपस्थित है। मेरे लिए यही महाप्रज्ञ, जो सचमुच नामातीत और संबन्धातीत है, प्रणम्य है; प्रणाम उन्हें !!!! तुलसी प्रज्ञा
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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