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आपने जैन आगम साहित्य का जैसा सुरुचिपूर्ण, परिशुद्ध एवं वैज्ञानिक सम्पादन किया है, वह एक आदर्श है । इसी प्रकार जैन दर्शन: मनन और मीमांसा, श्रमण महावीर, सत्य की खोज. मन के जीते जीत आदि आपकी कृतियाँ तरुण पीढ़ी के लिए प्रेरणादायी हैं। सरल-सुबोध शैली में, छोटे-छोटे वाक्यों के द्वारा मुनि श्री अपनी बात सहज ही गले उतार देते हैं । धर्म एवं दर्शन की गुत्थियों को वैज्ञानिक निकष पर कस कर अपने अनुभव को व्यक्त करने की अपूर्व क्षमता मुनि श्री की विशेषता है।
तेरापंथ समाज के लिए तो यह गौरव की बात है ही कि आचार्य तुलसी ने मुनि श्री को युवाचार्य अर्थात् अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया है। सम्पूर्ण जैन श्री संघ के लिए, सभी सम्प्रदायों के लिए भी यह प्रसन्नता का अवसर है। मुनि श्री की असाम्प्रदायिक एवं व्यापक समन्वयशील प्रज्ञा का लाभ उठाने का दायित्व समाज पर सहज ही आ गया है। विविध घेरों में आबद्ध शक्ति को संगठित करके समाज' यदि प्रयास करे तो मुनि श्री की मनीषा में से आणविक ऊर्जा जैसी एकता उत्पन्न हो सकती है।
आचार्य श्री तुलसी जी ने अपने आचार्य-काल में तेरापंथ-समाज को अनेक नये मोड़ दिये हैं, क्रांति का सूत्रपात किया है । बीसवीं शताब्दी में जैन-संसार में होने वाले परिवर्तनों की शृंखला में आचार्य श्री तुलसी के योगदान का उल्लेख स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। मुनि श्री नथमल जी आचार्य श्री तुलसी जी के निकटतम एवं प्रिय अन्तेवासी रहे हैं, जैसे कि भगवान् महावीर के इन्द्र भूति गौतम थे। समस्त परिवर्तन-प्रक्रियाओं के आप साक्षी रहे हैं--सारे मोड़ों और घटना-चक्र को समर्पण एवं निरहंकार भाव से आत्मसात् किया है। ग्रंथों के बीच भी आप निर्ग्रन्थ रहे हैं । ग्रंथों के पारगामी एवं रचयिता होने पर भी ग्रंथों से ऊपर रहे हैं । जो भी अपने गुरु से पाया है, उसे पचाया है और तभी कहा है जब वह अनुभव में उतर चुका है। फिर भी एक बात कहने को मन करता है कि इस समर्पित व्यक्तित्व के भीतर भी एक क्रांतिकारी सूर्य आकार लेता रहा है। युग की अनेक चुनौतियाँ आपके समक्ष उपस्थित होने वाली हैं। इसमें सन्देह नहीं कि मुनि श्री अपने हाथों आचार्य श्री तुलसी जी के आशीर्वाद से उनसे भी आगे बढ़कर समाज को एक नई दिशा दे सकेंगे। इससे आचार्य श्री का आचार्यत्व-गुरुत्व सौ गुना गौरवान्वित होगा, धर्म और दर्शन धन्य होगा, तरुण पीढ़ी का कल्याण होगा।
___सबसे पहले मैंने मुनि श्री के दर्शन निकट से बंबई में, सन् १९६८ में किये थे। उनकी तत्परता, विद्वानों के प्रति आत्मीयता, छोटों के प्रति भातृवत् वात्सल्य देखने लायक था। उनकी यह हार्दिक आकांक्षा है कि जैन धर्म और दर्शन का वैज्ञानिक प्रयोगशाला की भाँति विश्लेषण-प्रयोग हो-उसकी निर्मम शल्यक्रिया आवश्यक हो तो वह भी की जाय । गतानुगतिकता, पारम्परिकता को वे समाज के लिए घातक मानते हैं। भौतिकता की चरम उपलब्धियों की सम्भावना के बीच भी वे निर्लिप्त रहते हैं। भौतिक सुविधाओं के उपभोग अथवा ग्रहण की तनिक भी लालसा आपके व्यवहार से नहीं टपकती। यही कारण है कि सभी सम्प्रदाय वालों के मन में आपके प्रति अविरोधमूलक समादर का भाव है । समयचक्र तेजी से घूम रहा है । वह किसी का इन्तजार नहीं करता । हम देखें-देखें तब तक तो
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तुलसी प्रशा