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THE HINDI JAIN ENCYCLOPÆDIA.
VOL.I.
B. I. Jais, "Ohaitanya', c. I.
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ricer of The Way!Treasury of Sans llindi Grammatiaz Teriniziolong, together with Poetical, Bletwrical,
Dramatic & Misicai Techaicalities, Author of more than Cariv other 'Treasiye
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Vak 1982, AD. 1925
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स्वल्पार्घ ज्ञानरत्नमाला का द्वितीय रत्न ।
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श्रयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधारयेत् । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥
प्रथम अवयव
| हिन्दी साहित्य-अभिधान
ISI
प्रथम खण्ड
श्री वृहत जैन शब्दार्णव
सम्पादक:
B.L. Jain,Chaitanya.
बी० यल जैन, चैतन्य (बुलन्दशहरी) प्रथमावृति ) श्रीवीरनि०सं०२४५१ ( स्वल्पार्घ ज्ञानरत्नमाला के स्थायी
शुद्ध घीर नि० संवत् ग्राहकोंको २॥) में औरसजिल्द३०)में मूल्य ३), सजिल्द ४) ) Printed by Badri Prasada Shukl at the Desh Bandhu Press,
Bara Banki.
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हिन्दी जैन गजट
कलकला, शुकवार, पौष कृ०८वीर नि० सं०२४५१, ता०१६ दिसम्बर १९२४,वर्ष ३०, अङ्क १०
समालोचना।
वृहत् जैन शब्दार्णव ।। रचयिता-श्रीयुत बा० बिहारीलाल जी जैन बुलन्दशहर निवासी । प्रकाशक-या० शांतिचन्द्र जैन, बारावती । आकार बड़ा, काराज़ छपाई सफ़ाई आदि सभी उत्तम ।।
यह बहुत बड़ा जैनशब्द कोष अकरादि क्रम से लिखा जा रहा है। हमें समालोचनार्थ । अभी प्रारम्भ से २०८ पृष्ट तक प्राप्त हुआ है । इनमें केवल अकार पूर्वक शब्दों का ही उल्लेख है। २०८ चे पृष्ठ में 'अज्ञान-परीषह' शब्द आया है। जिस विवेचना शैली और विषदनिरूपण । से इस ग्रन्थ का प्रारम्भ दीख रहा है उसे देख कर अनुमान होता है कि अभी केवल अकार | निर्दिष्ट शब्द ही कई सौ पृष्ठ तक और जायँगे। फिर आकार, इकार आदि निर्दिष्ट शब्दों की बारी भी उसी विस्तार क्रम से आवेगी।
इस अकार निर्दिष्ट शब्द रचना से ही बहुत कुछ जैन शास्त्रों का रहस्य सुगमता से जाना जा सकता है ! अक्षर स्वरूप, पदध्यान, अलौकिक गणित, इतिहास, कर्मस्वरूप निदः र्शन, श्रु तविस्तार, द्वादशांग रचना, स्वर्गादि लोक रचना, गुणस्थान निरूपण, पर्यों की तिथियों के भेद विस्तार, चक्षदर्शनादि उपयोग, अशीणादि ऋद्धियां इत्यादि अनेक पदार्थों का स्वरूप आदि केवल एक 'अ' नियोजित शब्दसे जाने जाते हैं । आगे जैसे २ इस महानाथ की रचना होगी उससे बहुत कुछ जैनधर्म निर्दिष्ट पदार्थों से एवं पुरातत्व विषयों का सूक्ष्म दृष्टि से परिज्ञान हो सकेगा।
इस प्रकार के अन्य को जैन साहित्य में बड़ी भारी कमी थी जिसकी पूर्ति श्रीयुत मा स्टर बिहारीलाल जी अपने असीम श्रम एवं बुद्धि विकास से कर रहे हैं । यह रचना मास्टर साहब के अनेक वर्षों के मननपूर्वक स्वाध्याय का परिणाम है । इस महती कृति के लिये लेखक महोदय अतीव प्रशंसा के पात्र हैं। उनकी यह कृति जैनसमाज में तो आदर की दृष्टि से देखी ही जायगी साथ ही जैनेतर समाज भी उसले जैनधर्म का रहस्य समझने में बहुत बड़ी सहायता लेगा।
समस्त जैन बन्धुओं को चाहिये कि वे इस कोष को अवश्य मँगावें । हर एक भाई | के लिये यह बड़े काम की वस्तु है।
-सहायक सम्पादक.
श्री हिन्दी साहित्याभिधान . द्वितीयावयव
संस्कृत-हिंदी व्याकरण-शब्दरत्नाकर (संक्षिप्तपद्यरचना व काव्यरचनासहित) मु०१), स्वल्पार्धशालरलमाला के । स्थायी ग्राहकों को बिना मुख्य
। श्री हिन्दी साहित्याभिधान
तृतीयावयव , श्री वृहत् हिन्दी शब्दार्थ महासागर
प्रथम खण्ड । मू०१), स्वल्पार्घ ज्ञानरत्नमाला के
स्थायी ग्राहकों को॥) में
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कोष लेखक का संक्षिप्त परिचय।
(१) जन्म-श्रीमान का जन्म संयुक्त प्रान्त आगरा व आम की मेरठ कनिहतरी के । बुलन्दशहर स्थान में जो कालो नदी के काएँ तर पर एक सुप्रसिद्ध नगर है शुभ मिती श्रावण शुक्ला १४ वि० सं० १९२४, बोर निर्वाण सं० २३९.३ (शुद्ध चीर नि० सं० २४१२ ), ता. १५ अगस्त सर १८ ६७ ई०, क १४. रवी उस्त नो सन् १२८३: हिजरी, दिन बुधवार की रात्रि को, श्रवण नक्षत्रोपरान्त धनिष्ठा नक्षत्र के प्रथम चरण के प्रारंभ में, कर्काकै मतांश २९ पर कर्क लम्न में इष्टकाल घड़ी ५८ ॥ २५ ॥ १५ फर शुभ मुहूर्त में हुआ।
कोषकार की जन्म कुंडली।
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(२) कुल-आपका जन्म सूर्यवंशान्तर्गत अग्रवालवंश के मित्तल गोत्र में श्रीयुत ला० हज़ारीमल के पौत्र और लाला मंगतराय के सुपुत्र श्रीयुत लाला देवीदास जी की धर्मपत्नी श्रीमती रामदेवी जी के गर्भ से हुआ।
नोट-आप अपने पिता के इकलौते पुत्र थे। आपकी एक बड़ी बहन श्रीमती भगवती देवी' नामक अपने प्रिय पुत्र लाला पूर्णचन्द्र सहित भारतवर्ष की. राजधानी देहली में निवास करती हैं। आपकी एक पुत्रो श्रीमती कपूरी देवी हैं जो दिहली निवासी श्रीयुत ला सनेही लाल जी के लघु पुत्र श्रीयुत लाला बाछ राम जी क्लर्क म्यूनिसिपल बोर्ड, म्यूनिसिपल
ऑफ़िस देहली के साथ विवाही गई हैं और दिहली ही में निवास करती हैं । आपको एक बड़ी पुत्री स्वर्गीय श्रीमती बसन्ती देवी की एक पुत्री ज्ञानवती और दौहित्री मीनावती अर्थात् आपकी दौहित्री और दौहित्री की पुत्री भी आजकल दिहली ही में निवास करती हैं। आपके एक फुफेरे भाई श्रीयुत लाला ज्ञान चंद्र जी जो दिहली निवासी स्वर्गीय लto 1 जुगल किशोर जी के प्रिय पुत्र हैं अपने पुत्र पौत्रो ला0 अंमल सेना आदि सहित आजकल. पहाड़ी धीरज, दिहली ही में बजाज़े का व्यापार करते हैं । आपके प्रियपुत्र मुझ शान्तीशचन्द्र का विवाह संस्कार बिजनौर निवासी श्रीयुत लाला बद्रीदास जी जैन (भूतपूर्व पील। अदालत ) की पितृष्य सुता ( चचेरी बहिन ) के साथ हुआ है।
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बंशवृक्ष
| श्रीयुत लाला जटमल्ल जी (१)।
पाला०सादागरमलजी
१.का. मुन्नोलालजी २. ला० गोविन्दरामजी ।३. ला• हज़ारीमल्लजी (शा. ला० गोपालदासजी ५. ला. जहांगीरी मलजी ६.ला०सौदागरमलजा
ला० नौबतरायजी
ला सालिगराम
१. ला० फकीरचन्द्र (कवि) २. लाभीखामल
|
ला.ज्वालाप्रसाद
(२) ला मोतीराम
(१) ला कानजीमल (२) ला दौलतराम (३)ला०मिट्ठनलाल (४)लागिरधारीलाल ला० मटरूमल
(५) ला० शिवलाल
(१) लान्यादरमेल
ला० अमोलकबन्द
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( 8 )
ला. नोनकचन्द्र (गोद).
(१) लाO औरातीलाल (२) ला० गुरुचरण
१. ला०प्रभानन्द २. ला निर्मलानन्द ३. ला०भीमानन्द
(१) ला० महाबीरप्रसाद (२) ला० जयप्रकाश
(१) ला० रामदयाल
.(२) ला० रामकृष्ण ला० भगवतीप्रसाद ।
(१) ला० बाबराम (२) ला० रन्हैयालाल |
| ला० मंगतराय जी (३)
(१) ला० शम्भनाथ
(२) ला०मोहनलाल
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| ला० मंगतराय जी (३)।
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४. ला० चिम्मनलाल
१. लो० दुर्गादास २. ला० कल्याणदास | ३. श्रीयुत ला० देबीदासजी (४)।
श्रीयुत ला० बिहारीलालजी सी. टी.
बी.यल. जैन, चैतन्य) (५)
ला० लक्ष्मी चन्द
(१) ला० अमींचन्द्र (२) लाबेनीप्रसाद लाराधेकृष्ण |
ला० तुलाराम
शान्तीशचन्द्र (ऐस. सी. जैन)(६)|
(१) ला० मलकचन्द (२) ला० होतीलाल (३) ला० मुरारीलाल (४) ला० नानक चन्द्र |
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| (R) चि. यतीशचन्द्र ।
| (२) चि. लक्ष्मीशचन्द्र
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(३)विद्याध्ययन-श्रीमान् का विद्याध्ययन जन्म से पंचमवर्ष में शुभ मिती माघ शुक्ला ५ वि० सं० २६२८ से प्रारम्भ हुआ। सन् १८८४ ई० में उर्दू मिडिल पास किया। इसी वर्ष में श्रीमान् के पूज्य पिता जी का स्वर्गवास हो गया जिससे पैतृक धनादि के सर्वथा अभाव के कारण आगे के लिये विद्याध्ययन में बहुत कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। तौ भी अपने पितामहके एक चचेरे भ्राता कविवरला०फकीरचन्द्रजी की कुछ सहायतासे तथाउर्दू मिडिल पास करने के उपलक्ष में मिले हुए गवन्मेंट स्कालरशिप और कुछ प्राइवेट ठ्य शन की आय से अपना और अपनी पूज्य माता जी का पालन पोषण करते हुए जिस प्रकार बना बुलन्दशहर हाईस्कूल से सन् १८८९ ई० में अंग्रेज़ी मिडिल, और सन् १८९१ ई० में फ़ारसी भाषा के साथ ऐंट्स पास कर लिया।
उन दिनों सर्कारी स्कूलों में आज कल की समान उर्दू हिन्दी दोनों भाषाएँ साथ २ न पढ़ाई जाने के कारण ऐंट्रन्स पाल करने तक आपको हिन्दी भाषा में कुछ अभ्यास न था। धार्मिक रुचि अधिक होने और नित्यप्रति बाल्यावस्था ही से धर्मशास्त्र श्रवण करते रहने में दत्तचित्त रहने से हिन्दी भाषा सीखने की अभिलाषा होने पर भी ऐंट्रेन्स पास कर चकने तक उसे सीखने का शुभ अवसर प्राप्त न हो सका । वरन् पेट्रन्स पास करके अवसर मिलते ही थोड़े ही काल में हिन्दी भाषा में भी यथा आवश्यक स्वयम् ही अभ्यास करके मई सन् १८६२ से नित्यप्रति नियम पूर्वक शास्त्राध्ययन और शास्त्रस्वाध्याय का कार्य प्रारंभ कर दिया और तभी से यह भी प्रतिज्ञा कर ली कि “पर्याप्त योग्यता प्राप्त करने और अब. सर मिलने पर अपनी मातृभाषा हिन्दी की सेवा जो कुछ बन पड़ेगी अवश्य करूँगा"। (४) गवन्मेंटसर्विस--सन् १८६१ ई० में ऐंट्स पास करने के पश्चात् लगभग दो वर्ष तक कलक्टरी के अङ्गरेज़ी दफ्तर में तथा नहर गंग के व डिस्ट्रिक्ट एंजिनियर के ऑ. फ़िसों में अवैतनिक व सवैतनिक कार्य करके अन्त में शिक्षक विभाग को अपने लिये अधिक उपयोगी और उत्कोच आदि दोषों से मुक्त तथा विद्योन्नति व आत्मोत्कर्ष में अधिक सहायक समझ कर ५ सितम्बर सन् १८९३ ई० मे गवन्मेंट हाईस्कूल बुलन्दशहर में केवल १२) मासिक के वेतन पर अध्यापकी का कार्य प्रारम्भ कर दिया जहां से लगभग १० वर्ष के प. श्चात् वेतनवृद्धि पर सन् १६०३ में ता०३१ अक्तूबर को मुरादाबाद जिले के अमरोहा गवन्मट हाईस्कूल को बदली हो गई । इसी स्कूल से ता० १ जूलाई सन् १९०४ से ३० अप्रैल सन् १९०५ ई० तक १० मास के लिये डियट होकर गवमैंट सैंट्रल ट्रेनिंग कालिज, इलाहाबाद से अप्रैल सन् १६०५में शिक्षा विभाग का ट्रोनिंग पास करके और फिर इसी सन् के मई मास में स्पेशल वने क्यूलर (हिन्दी उर्दू) में पास करके १० जूलाई सन् १९१७ तक लगभग १३ वर्ष तक उपरोक्त अमरोहा ग० हाईस्कूल में सहायक अध्यापिकी का कार्य २०) के वेता से ६०) के वेतन तक पर किया । पश्चात् ता० १० जूलाई सन् १९१७ को अवध प्रान्त के बाराबङ्की ग० हाईस्कूल को समान वेतन पर बदली हुई जहां कई बार वेतनवृद्धि होकर अब १२०) के वेतन पर इसी स्कूल में सहायक अध्यापकी का कार्य कररहे हैं । और अब केवल ३मास और रह कर ता०३० जुलाई सन् १९२५ से पेंशनर होकर गवन्मेन्ट सर्विस के कार्य से मुक्त हो जायेंगे। (५) विवाहसंस्कार---उर्दू मिडिल पास करने के कुछ मास पश्चात् कस्वा जेवर
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( ७
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निवासी श्रीयुत का० रामभरोसे की सुपुत्री श्रीमती सूर्य्यकला के साथ अक्तूबर सन् १८८४ में बाकूदान होकर फ़रवरी सन् १८८६ में लगभग २१ ॥ वर्ष की वय में शुभ मुहूर्त्त में श्रीमान् का विवाह संस्कार हुआ और ऍटून्स की परीक्षा दे चुकने पर सन् १८९९ ई० में द्विरागमन संस्कार हुआ जिससे लगभग २४ वर्षकी वय तक आपको अपना अखण्ड ब्रह्मचर्य - व्रत पालन करने में किसी प्रकार की बाधा न पड़ी ।
६. सन्तान - ( १ ) प्रथम पुत्री श्रीमती बसन्ती देवी का जन्म पौष शुक्ला १३ वि० सं० १६५०, जनवरी सन् १८६४ में (२) द्वितीय पुत्री श्रीमती कपूरी देवी का जन्म आषाढ़ शुक्ला ११ वि० सं० १६५३ में ( ३ ) तृतीय पुत्री श्रीमती चन्द्रावती का जन्म पौष कृ० ५ सं० १६५५ में ( ४ ) प्रथम पुत्र दयाचंद्र का जन्म भाद्रपद कृष्ण ३ सं० १९५८ में (५) द्वितीय पुत्र शा न्तीशचंद्र का जन्म वैशाख कृ० १२ सं० १६६० में, और ( ६ ) तृतीय पुत्र नेमचन्द्र का जन्म भाद्रपद कृ० ६ सं० १६६३ में हुआ, जिनमें से द्वितीय पुत्री और द्वितीय ही पुत्र इस समय विद्यमान हैं। शेष का यथा समय स्वर्गारोहण हो चुका। ७. माता, पिता व धर्मपत्नी का स्वर्गारोहण- 1-पिता का स्वर्गारोहण उर्दू मिडिल पास करते ही विवाह संस्कार से भी कई वर्ष पूर्व मिती श्रावण शुक्ला ५ वि० सं० १९४१ ही में हो गया और मातृ-श्री का स्वर्गवास उनकी लगभग ८० वर्ष की बय में मिती बैशाख शुक्ल ५ सं० १९७६ ता० २ मई सन् १६२२ में हुआ । धर्मपत्नी का स्वर्गारोहण केवल ३२ वर्ष की वय में चैत्रमास वि० सं० १६६४ (मार्च सन् १६०७ ई० ) में हुआ जबकि श्रीमान् की वय ४० वर्ष से भी कुछ कम थी। इतनी थोड़ी वय में ही धर्मपत्नी का स्वर्गवास हो जाने पर भी श्रीमान् ने अपनी शेष आयु भर अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने के विचार से अपना द्वितीय विवाद न किया ।
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८. ग्रन्थ रचना - जिस समय तक आप ने उर्दू मिडिल पास भी नहीं किया था तभी से आप के पवित्र हृदय की रुचि ग्रन्थ रचना की ओर थी और इसलिये स्कूली शिक्षा प्राप्त करते समय जो कुछ आप सीखते थे उसे यथा रुचि, आवश्कीय नोटों द्वारा सुरक्षित रखते थे । आप की चित्रावृत्ति बाल्यावस्था ही से गणित की ओर अधिक आकर्षित रहने से इस विद्या में आप ने अधिक कुशलता प्राप्त कर ली थी। इस लिए हाईस्कूल में अंगरेज़ी भाषा सीखते हुए आप ने रेखा गणित और क्षेत्र गणित सम्बन्धी एक ग्रन्थ प्रकाशित कराने के विचार से पर्याप्त सामग्री संग्रहीत कर ली और ऐंट्स की परीक्षा देने से ढाई तीन मास के अन्दर ही आप ने प्रेस में देने योग्य अपना सब से पहिला 'क्षेत्र गणित' संबन्धी तशरीडुल 'मसाइत' नामक एक अपूर्व और महत्वपूर्ण प्रन्थ उर्दू में लिख कर तैयार कर लिया जिसे द्रव्याभाव के कारण स्वयं न छपा सकने से एक मित्र द्वारा सन १८६१ ई० में ही प्रेस को दे दिया जिसका प्रथम भाग बड़े साइज़ के १६६ पृष्ठ में छपकर सन् १६६२ ई० में तईयार हो गया और मित्र द्वारा प्रयत्न किये जाने पर नॉग्मल स्कूलों में शिक्षा के लिये तथा हाईस्कूल आदि के पुस्तकालयों के लिये "यू० पी० की टैक्स्ट बुक कमेटी ( Text Book Committee, U. P. Allahabad.) से स्वीकृत भी हो गया ।
इसके पश्चात् शिक्षा विभाग में गवन्मेंट सर्विस मिलते ही से आप ने पहिले उर्दू में
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और फिर कुछ वर्ष पश्चात् हिन्दी में भी प्रन्थ लिखना और यथा अवसर निज द्रव्य ही से प्रकाशित कराना प्रारंभ कर दिया जिनकी सूची निम्न लिखित है:-- (क) आपके रचित व स्वप्रकाशित उर्द प्रन्थ-- १. तशरीहुलमसाहत (प्रथमभाग)--रेखागणित व वीजगणित के प्रमाणों सहित एक
क्षेत्रगणित सम्बन्धी अपूर्व प्रन्थ । निर्माण काल वि० सं० १९४८, मुद्रणकाल १६४६ । २. दीवाखा हनुमानचरित्र नाविल-निर्माणकाल वि० सं० १६४६, मुद्रणकाल १६५० । ३,४,५. हनुमानचरित्र नाँविल ( तीन भाग)-हनुमान जी की जन्मकुण्डली व वंशावली
आदि सहित अलंकृत गद्य में लगभग ४०० पृष्ठ का एक चित्ताकर्षक ऐतिहासिक उपन्यास । निर्माण काल वम०काल १९५४,५५, ५६,५७। ६,७,८. हफ्तजवाहर (तीन भाग)-वैद्यक, गणित, योग, सांख्य, आदि के कुछ सिद्धान्तों
का पठनीय संग्रह लगभग १५० पृष्ठों में । निर्माण काल व मुद्रण काल वि० सं० १९५४, ५५, ५६, ५७। ६. रोमन उद(प्रथम भाग)-बिना शिक्षक की सहायता के अपनी मातृभाषा उद __ हिन्दी आदि को अंग्रेजी अक्षरों में लिखना पढ़ना सिखाने वाली एक बड़ी उपयोगी
पुस्तक । निर्माण व मुद्रण काल वि० सं० १९५६, ५७। .. १०. अन्मोलबूटी--एक ही सुप्रसिद्ध सुगम प्राप्य बूटी द्वारा अनेकानेक रोगों की
चिकित्सा आदि सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण वैद्यक प्रन्थ । निर्माण काल वि० सं० १९५६,
मुद्रण काल १६५७, ५६, ६० । ( ४ संस्करण) ११. दवामीजंत्री--त्रिकालवर्ती अङ्गरेज़ी तारीखो के दिन और दिनों की तारीख बताने वाली
जंत्री। निर्माण व मु० काल वि० से १९४८ व ५७ । १२. स्त्र लासा फनेजुराअत--कृषि विद्या सम्बन्धी एक संक्षिप्त ट्रैक्ट । निर्माण व मुद्रण
काल वि० सं० १९५७, ५८। १३. अन्मोलक़ायदा नं० १--त्रिकालवर्ती किसी अंग्रेजी ज्ञात तारीख का दिन या ज्ञात
दिन की तारीख अर्द्धमिनट से भी कम में बड़ी सुगम रीति से जिह्वान निकाल लेने की
अपूर्व विधि । आविष्कार काल वि० सं० १९४८, मुद्रण काल १४५८ । १४. हकीम अफलातून--यनान देश के प्रसिद्ध विद्वान् 'अफलातून' का जीवनचरित्र उस ___ की अनेक मौलिक शिक्षाओं सहित । निर्माण व मुद्रण काल वि० सं० १९५९ । १५. फादेज़हर (प्रथम भाग)--साँप, बिच्छू, बाघला कुत्ता, आदि विषीले प्राणियों के
काटने, डंक मारने आदि की पीड़ाओं को दूर करने के सहज उपाय । निर्माण काल
१६५८, मुद्रण काल १६५८, व ६६ ( दो संस्करण) १६. फादेज़हर (भाग ३ ३)-अफयन, कुचला, भिलावा,आदि बनस्पतियों और संखिया,
हड़ताल, पारा आदि धातुओं के विषीले प्रभाव का उतार आदि । निर्माण काल
वि० सं० १६५६, मुद्रण काल १९६० ।। १७. ज़मीमा अन्मोल बूटी--निर्माण काल व मुद्रण काल वि० सं० १६६० ।
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१८. भोज प्रबन्ध नाटक (प्रथम भाग)--राजनीति और धर्मनीति का शिक्षक, अलंकृत ___ गधपद्यात्मक ड्रामा । निर्माणकाल व मुद्रणकाल वि० सं० १९६० । १९. गंजीनए मालूमात--सैकड़ों प्रकीर्णक ज्ञातव्य बातों का संग्रह । निर्माण व मुद्रण काल
वि० सं० १६६०। २०. इलाजुल अमराज़-कुछ वैद्यक आदि सम्बन्धी चुटकुलो से अलंकृत एक पुस्तिका ___निर्माण व मुद्रण काल वि० सं० १६६० । २१. हकीम अरस्तू-यूनान देश के प्रसिद्ध विद्वान् 'अरस्तू' (सिकन्दर महान का गुरु )
का जीवनचरित्र उसको अमूल्य शिक्षाओं सहित । निर्माण व मुद्रण काल वि० सं०
१६६१ । २२. नशीली ची -मदिरा, अहिफेन, भंग, चरस, तमाकू आदि अनेक माधक दूषित
पदार्थों के गुण दोष और हानि लाभादि । निर्माण व मुद्रण काल वि० सं० १९७२,७३ । २३. मोडर्न मेंटल अरिथमेटिक (प्रथम भाग)--नवीन शैली पर बालकों को शिक्षा देने
वालो गणित सम्बन्धी एक साधारण पुस्तक । निर्माण व मुद्रण काल वि०सं० १९७३ । २४. अन्पोल कायदा नं० २--त्रिकालवी किसी हिन्दी माल की ज्ञात मिती का नक्षत्र या
चन्द्रमा की राशि जिह्वागू निकाल लेने की सुगम विधि । (ख) आपके स्वरचित व अद्यापि अप्रकाशित उर्दू गन्यः
१. अग्रवाल इतिहास--सूर्यवंश की एक शाखा अग्रवंश या अप्रवाल जाति का ७००० __ वर्ष पूर्व रो आज तक का एक प्रमाणिक इतिहास । निर्माण काल वि० सं० १९८० । (ग) आपके स्वअनुवादित व स्वप्रकाशित उर्दू व अंग्रेजी ग्रन्थ ।
१. भर्तृहरि नीतिशतक--अनुवाद व मुद्रण काल वि० सं० १९५५ । २. भर्तृहरि वैराग्यशतक--अनुवाद काल वि० सं० १६५५, मुद्रणकाल १६५५, १६६० ।
(दो संस्करण) ३. जैन वैराग्यशतक--अनुवाद काल वि० सं० १९५६, मुद्रण काल वि० सं० १९५६,
१९६० । (दो संस्करण) ४. सीताजी का बारहमासा--यति नैन सुखदास कृत बारहमासा उर्दू गद्य अनुवाद स. __ हित । अनुवाद व मुद्रण काल वि० सं० १९५६ । ५. योगसार--योगेन्द्राचार्य कृत 'योगसार' ( ब्रह्मज्ञान को सार ) का गद्य अनुवाद अनेक उर्दू फ़ारसी पद्यों से अलंकृत । अनुवाद काल वि० सं० १६५५, मुद्रण काल १९५६,
१९.८० । (दो बार) ६. चाणक्यनीति दर्पण--दोनों भाग का एक नौतिपूर्ण शिक्षाप्रद अनुवाद । अनुवाद काल
वि० सं० १९५७ व मुद्रण काल १६५७, १६६० । (दो संस्करण) ७. प्रश्नोत्तरी स्वामी शंकराचार्य--शिक्षाप्रद साधारण अनुवाद । अनुवाद व मुद्रण काल - वि० सं० १९५५ १६१०। (यो बार)
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८. जैन वैराग्यशतक (अंग्रेज़ो)--अनुबाद काल वि० सं० १९६१, मुद्रणकाल १६६७ । (घ) भापके स्वप्रकाशित अन्य उर्दू ग्रन्थः१. सुदामाचरित्र-उर्दू पद्य में । मुद्रण काल वि० सं० १९५४ । २. ३.. ४. मिथ्यात्व नाशक नाटक (३ भाग)-गद्यात्मक उर्दू भाषा में एक बड़े ही मनो- रंजक अदालती मुकदमे के ढंग पर जैन, आर्य, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई आदि मत मता.
न्तरों के सत्यासत्य सिद्धान्तों का निर्णय । मुद्रण काल वि० सं० १६५६, ५७, ५८ । ५. वैगग्य कुतूहल नाटक ( २ भाग)-संसार की असारता दिखाने वाला एक हृदय गाही
दृश्य। मुद्रण काल वि० सं० १९५८, १६६२ ।। ७. रामचरित्र-सारी जैन रामायण का सारांश रूप एक ऐतिहासिक उपन्यास । मुद्रण
काल वि० सं० १९६२ (ङ) स्वरचित व स्वप्रकाशित हिन्दी गन्धः१. हनुमान चरित्र नविल भूमिका ( निज रचित उर्दू पुस्तक का हिन्दी अनुवाद)-इसमें
वानर वंश और राक्षसघंश की उत्पत्ति और उनका संक्षिप्त इतिहास, बानरवंश के वंशवृक्ष व कई ऐतिहासिक .फुटनोटों सहित है। हिन्दी अनुवाद काळ वि० सं० १९५२,
मुद्रणकाल १६५३ २. अन्मोल बटी (निज रचित उर्दू भाषा की पुस्तक का हिन्दी लिपि में उल्था )-यह
एक बड़ा उपयोगी वैद्यक प्रन्थ है। हिन्दी अनुवाद व मुद्रण काल विक्रम - संवत् १९७१। ३. उपयोगी नियम ( शीट )-इस में सर्व साधारणोपयोगी हरदम कंठान रखने योग्य
चुने हुये ५७ धार्मिक तथा वैद्यक नियमों का संग्रह है। निर्माण व मुद्रणकाल वि०
सं० १६७८ ४. २४ तीर्थङ्करों के पञ्च कल्याणको की शुद्ध तिथियों का तिथिक्रम से नक्षत्रों सहित
शुद्ध तिथि कोष्ठ । निर्माण व मुद्रणकाल वि० सं० १६७८ | ५. अन्मोल विधि नं०१-त्रिकालवर्ती किसी अङ्रेजी ज्ञात तारीख का दिन या शात दिन की तारीख अद्ध मिनट से भी कम में बड़ी सुगम रीति से जिह्वान निकाल लेने
की अपूर्व विधि। आविष्कार काल वि० सं० १६४८, मुद्रणकाल १६८० । ६. अन्मोल विधि नं० २--त्रिकालवर्ती किसी हिन्दो मास की मिती का नक्षत्र या चन्द्रमा
की राशि जिह्वान निकाल लेने की सुगम विधि । मुद्रणकाल वि० सं० १६८० । ७. चतुर्विशतिजिन पंचकल्याणक पाठ (एक प्राचीन सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि, पं. वृन्दावनजी की कृति का कल्याणक क्रम से सम्पादन )--सम्पादन काल वि० सं० १९८०
मुद्रणकाल १६८१ ___८. अग्रवाल इतिहास-सूर्यवंश की शाखा अग्रवंश या अग्रवाल जाति का ७००० वर्ष पूर्व
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से आज तक का एक प्रमाणिक इतिहास । निर्माण काल वि० सं० १६७८, मुद्रण काल
१६८१ ।
६. हिन्दी साहित्य अभिधान, प्रथमाषयव, 'वृहत् जैन शब्दार्णव' (जैन लाइफ्लो पीडिया (Jain Cyclopædia) प्रथम खंड – जैन पारिभाषिक व ऐतिहासिक आदि.. सर्वप्रकार के शब्दों का अर्थ उनकी व्याख्या आदि सहित बताने वाला महान कोष ! निर्माणकाल का प्रारम्भ मिती ज्येष्ठ शु० ५ ( श्रुत पंचमी ) विक्रम संवत् १६५६, मुद्रणकाल सं० १९८२ ।
१०. हिन्दी साहित्य अभिधान, द्वितीय अवयव, "संस्कृत-हिन्दी व्याकरणशब्दरत्नाकर" ( संक्षिप्त पद्य रचना व कात्र्य रचना सहित ) -- सिद्धान्तकौमुदी, लघुकौमुदी, शाकटायन, जैनेन्द्र व्याकरण आदि संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ, बहुतसे हिन्दी व्याकरण ग्रन्थ, और छन्द प्रभाकर, वाग्भटालंकार, नाट्यशास्त्र, संगीतसुदर्शन, आदि अनेक छन्दालंकार आदि गूथों के आधार पर उनके पारिभाषिक शब्दोंकी सरल परिभाषा उदाहरणादि व अङ्गरेजी पर्यायवाची शब्दों सहित का एक अपूर्व संग्रह | निर्माणकाल वि० सं० १६८१, मुद्रणकाल वि० सं० १६८२
११. हिन्दी साहित्य अभिधान, तृतीयावयव, "बृहत् हिन्दी शब्दार्थमहासागर”, प्रथम खण्ड हिन्दी भाषा में प्रयुक्त होने वाले सर्व शब्दों के पर्याय वाची संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी, अरबी, अङ्गरेज़ी शब्दों और उनका अर्थ व शब्दभेद ? आदि बताने वाला अकारादि क्रम से लिखा हुआ सर्वोपयोगी एक अपूर्व और महानकोष । निर्माणकाल वि० सं० १६८१, मुद्रणकाल वि० सं० १९८२ ।
आपके स्वसंपादित व जैनधर्म संरक्षिणी सभा अमरोहा द्वारा प्रकाशित हिन्दी ग्रन्थः
१. जैनधर्म के विषय में अजैन विद्वानों की सम्मतियां प्रथमा भाग- सम्पादन काळ व मुद्रण काल वि० सं० १९७१
२. जैनधर्म के विषय में अजैन विद्वानों की सम्मतियां द्वितीयः भाग -- सम्पादन काल व मुद्रण काल वि० सं० १६७६
(छ) आपके स्वरचितं, अनुवादित और अद्यापि अप्रकाशित हिन्दी ग्रन्थः
१. प्रकीर्णक कविता संग्रह-निर्माण काल वि० सं० १९७०-७१....
२. जैन विवाह पद्धति (भाषा विधि आदि सहित ) -- निर्माण काल वि० सं० १६७१ ३. जम्बू कुमार नाटक--- वैराग्य रसपूर्ण स्टेज पर खेलने योग्य गद्यपद्यात्मक एक बड़ा मनोरंजक ऐतिहासिक नाटक । निर्माण काल वि० सं० १९७२, ७३
४. आश्चर्यजनकं स्मरणशक्ति--ता० २२ मई सन् १६०१ ई० के सुप्रसिद्ध दैनिक पत्र
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( १२ )
पायोनियर ( Pioneer ) के इंडियंस ऑव टुडे ( Indians of Today ) अर्थात् " आजकल के भारतवासी" शीर्षक लेख और स्वर्गीय मि. वीरचन्द गान्धी लिखित "स्मरणशक्ति के अद्भुत करतच " ( Wonderful Feats of Memory ) शीर्षक लेख का हिन्दी अनुवाद | अनुवाद काल वि० सं० १६७६ ।
( ज ) आपके स्वरचित व अद्यापि अपूर्ण हिन्दी ग्रन्थ :
१. विज्ञानार्कोदय नाटक -- ज्ञान सूर्योदय या प्रबोधचन्द्रोदय के ढंग का एक आध्यात्मिक नाटक | निर्माण काल का प्रारंभ वि० सं० १६७२ ।
३. हिन्दी साहित्य अभिधान, चतुर्थावयव, "बृहत् विश्व चरितार्णव " -- अकारादि क्रमसे पृथ्वीभर के प्राचीन व अर्वाचीन प्रसिद्ध स्त्री पुरुषों (तीर्थकरों, अवतारों, ऋषिमुनियों, भाचार्यों व सन्तों, पैराम्बरों, इमामों, हकीमों, फ़िलॉसफ़रों, ज्योतिर्विदों, कवियों, गणितज्ञों, देशभक्तों व चक्रवर्ती, अर्द्धचक्री आदि राजाओं व दानवीरों आदि ) का संक्षिप्त परिचय दिलाने वाला एक ऐतिहासिक कोष । निर्माण काल का प्रारंभ वि० सं० १९७५ ।
३. हिन्दी साहित्य अभियान, पञ्चमावयव, "लघु स्थानांगार्णव' - विश्वभर के अगणित पदार्थों, तत्वों, द्रव्यों या वस्तुओं की गणना और उनके नामादि को एक एक, दो दो, तीन तीन, चार चार, इत्यादि संख्यानुक्रम से बताने वाला एक अपूर्व कोष । निर्माण काल का प्रारंभ वि० सं० १९७८ ।
४. विश्वावलोकन -- दुनिया भरके सप्ताश्चर्यादि अनेकानेक आश्चर्योत्पादक और विस्मय में डालने वाले प्राचीन या नवीन ज्ञातव्य पदार्थों का संग्रह । निर्माण काल का प्रारंभ वि० सं० १६७९ ।
१. रचनाओं के कुछ नमूने --
१..
(१) पद्यात्मक हिन्दी रचना
सप्त दिवस की सम्पदा, अवगुण लावे सात । काम क्रोध सद लोभ छल, तथा बैर अरु घात ॥
पर यदि परउपकार में, धन खर्चे मन खील । सप्त गुणनकर युक्त जो, सो नर रत्न अमोल || क्षमा दया औदार्य अरु, मार्दव मनसन्तोष । चेनत आर्यव शान्ती सहितको वह निर्दोष ॥
नाते
२.
'प्रकीर्णक कविता संग्रह' से -
अशुभ कर्म अँधियार में, साथ देय कुछ नाँहि ।
चेतन छाया मनुष को, तजे अँधेरे माँहि !!
३. कड़े वचन तिहुँकाल में, सज्जनः बोलत नाँहि । खेतनयाँ विधना रचे, हाड़ न जिह्वा गाँदि । ४. बहु वो कम बोवो यह है परम विवेक । चेतन यो विधिने रचे, कानदोय जिभ एक
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जन्म समय सब कुटम्ब जन, तुहि रोवत लख वीर। ।
हर्षित हो फूले फिरें, होय न कछु दिलगीर । तिनके अनुचित कार्यका, क्यों नहिं बदला लेछु । मरण समन्य अवसर मिलै, ऐसे काम करेहु ॥
चेतन पर उपकार से, बांशे सबको आज । जाओ हंसते स्वर्ग को, रोता छोड़ समाज ॥ वस्तु नशीली हैं जिती, सबही हैं दुख मूल ।
चेतन इनको त्याग कर, सब पर डालो धूल ॥ | ७. रे मन ढंढे क्यों ना, तेरे इस घट में बोलता है कौन ॥ टेक ॥
जाकू तू ढंढत फिरै रे, वह नहीं है कहुँ और। वहतो तेरे उर बसै रे, क्यों नहीं करता और ॥ रे मन हुँदै......॥१॥ नगर ढंढोरा ते दियो रे, बगल में छोरा नोर। .. फिर क्यों तू भटकत फिरत रे, तुझ में तेरा चीर ॥रे मन हूँ'दै...... ॥२॥ . मन्दिर मसजिद तीर्थ सब रे, नित नित ढढत जाय । तन मन्दिर नहीं एक दिन रे, खोजा चित्त लगाय ॥रे मन ढलै......॥ ३ ॥ बन जङ्गल परबत उदध रे, बचा न कोई एक । पता न प्यारे को लगा रे, थक रहा बिना विवेक ॥ रे मन दू......॥४॥
चेतन चित. इत लाय कर रे, घट के पट अब खोल। निश्चय दर्शन होयगा रे, जो मन करे अडोल ॥रे मन है......॥५॥ (ख) 'विज्ञानार्कोदय नाटक से
' 'त्रिभुवन'नामक देश इक, जिसका पार न पार ।
राज्य करे चेतन पुरुष, ताही देश मैंझार ॥ चौरासी लख जाति के, नगर बसें विस देश ।
सदा सैर तिनकी करे, सुख दुख गिनै न लेश ॥ निज रजवानी 'मुकपुर' दीनी ताहि बिसार । काया तम्ब तान के, जाने निज आमार ।
'पुद्गल' रमणी रमण से, पुत्र हुआ 'मन' एक । . 'सुमति! 'कुमति' दोउ नारि सँग, कौतुक करै अनेक ॥ ....कभी सुमति संग रमत है, कभी कुमति के सँग ।
विषयवासना उर खसी, नित चित चाव उमंग ।। चार पुत्र 'सुमती' जने, प्रबोधादि गुणखान । 'कुमती' मोहादिक जने, पांच पुत्र अज्ञान ॥
(ग) जम्बूकुमार नाटक से६. ज़माना रङ्ग बदलता है ॥ टेक ॥
जिस घर प्रातःकाल युवतियां गारहीं मंगलचार । "सायंकाल उसी घर में बहती अॅसवन की धार ।
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कर्म की यही कुटिरता है। किसी का वश नहीं चलता है। ज़माना रंग बदलता है ॥१॥
कल जिनको हम प्रेम रष्टि से, समझे थे सुखकार ।
आज उन्हींसे प्रेम सोड़कर, जान लिये दुखभार । मन की कैसी चंचलता है, विचलता कभी सम्हलता है। जमावा रंग बदलला है ॥२॥
की काम के वश में फंस कर सकें पराई नार।
कमी प्रबल अरि कामदेव को जीत तजें निज दार ॥ आज मनकी दुर्बलता है, कल्ह चित की उजलता है ॥ ज़माना रंग बदलता है॥३॥
कोई पराये धनके लालच, मुसे पराया माल ।
कोई अपन धन दौलत को भी, जानें जी जंजाल ॥ लोभ में चित फिसलता है, साथ कुछ भी नहीं चलता है ॥ जामाना रंग बदलता है॥४॥
तन धन सब चेतन हैं चंचल, एक अटल जिन नाम ।
कुछ दिन का जीवन जगमें है, शीघ्र करो निज काम ॥ मनुषभक यही सफलता है । मौतका समय न टलता है ॥ ज़माना रंग बदलता है ॥५॥ (१०) जम्बूकुमार की एक स्त्री--
मम प्रीतम प्यारे प्राणाधारे, जरा तो इधर नज़र कर देख । . .
हम रूपवती, लावण्यवती, तुम प्राणपती दिल भरकर देख ॥ जम्बृकुमारकौन है साथी किसका जममें, दारा सुत मित सबही ठग हैं, सेठ दुलारी चित धर देख ।। तन धन यौवन सब आसार है, बिजली का सा चमत्कार है, अय बेखबर समझ कर देख ॥ दूसरी स्त्री--
क्यों हमको छोड़ो मुंह को मोड़ो, दया को चित में धर कर देख । लेश न दुख है भोगन सुख है, निश्चय नहीं तो कर कर देख ॥ मम प्रीतम प्यारे प्राणाधारे, ज़रा तो इधर नज़र कर देख ।
हम रूपवती लावण्यवती तुम प्राणपती दिल भर कर देख ॥ जम्बकुपार
भोग विलासों में क्या रस है, क्षण २ निकसे तन का कस है, चित में ज़र ज़बर कर देख । विषय भोग सब कड़े रोग हैं, त्याग करें बुध सो निरोग हैं, निश्चय नहीं तो कर कर देख ॥ कोन है साथी किसका जगमें, दारा सुत मित सब ही ठग हैं, सेठ दुलारी चित धर देख ।
तन धन यौवन सब असार है, बिजली का सा चमत्कार है, अय बेखबर समझ कर देख ॥ तीसरी स्त्रीबन में जाओ दुःख उठाओ फिर पछताओ समझ कर देख । बन की ठोकर झेलो क्योंकर दिल को ज़रा पकड़ कर देख ॥ मम प्रीतम प्यारे......॥ जम्बकुपार- ..... मात पिता सुत सुन्दर नारी, अन्त समय कुछ साथन जारी,चारों ओर नजारकर देख ।
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यह जग सब सुपने की माया) सुख सम्पति सब तरघर छाया,इसको हिरदय धरकर देख ॥
कौन. है साथी......॥ ११. एक चोर (जम्बकुमार की माता को दुखी देखकर)--
ग़म खायना, घबरायना, तेरा हम से लखा दुख जायना । क्यों रोवै, जलावे, सतावे जिया, गम खायना, घबरायना ॥ तेरा०॥ ज़र दौलत, धन सम्पत, इस पै लानत, हमको इसकी तनक अव चाह ना, परवाय ना, गम खाय ना, घबराय ना, तेरा हमले लखा दुख जाय ना ॥
माता मत देर करो चलके दिखादो हमको । चलके उस पुत्र से अब भेंट करादो हमको ॥ मुझको आशा है कि मन फेर सकंगा उनका ।
जो न मानेगें तो मैं साथी बनूगा उनका ॥ दुख पायना, गम खायना, तू मन में तनक घबरायना ॥ तेरा०॥
(२) गद्यात्मक हिन्दी रचना (क) जम्बकुमार नाटक से१. सूत्रधार (स्वयं)-अहोभाग्य है आज हमारा । उठत उमंग तरंग अपारा॥
. देख देख मन हर्षित होई । ज्ञानी गुनि सजन अवलोई ॥ अहाहा ! आज इस मंडप में कैली शोभा छा रही है , वाह वा ! कैसी बहार आरहो है। यहाँ आज कैसे कैसे विद्वान् , शानी और महान पुरुषों का समूह सुशोभित है, जिन का अपने अपने स्थान पर सुयोग्य रीति से आसन जमाये बैठना भी, अहा ! कैसा यथाचित है।
( उपस्थित मंडली से)-महाशयगण ! आप जानते हैं यह संसार असार है। इस का घार है न पार है। यहाँ सदा मौत का गर्म बाज़ार है। फिर इसमें अधिक जी उल. झाना निपट बेकार है । जो इसमें जी उलझाते हैं, मनुष्य आयु को बेकार गंवाते हैं । पीछे पछताते हैं और अन्त समय इस दुनिया से यू ही हाथ पसारे चले जाते हैं। सभ्यगण ! लक्ष्मी स्वभाव ही से चंचल है । इसके स्थिर रहने का भरोसा घड़ी है न एक पल है। संसार में भला कौन साहस के साथ कह सकता है कि यह अटल है । यह इन्द्रियों के विषय भोग भोगते समय तो कहने मात्र रसीले हैं । पर निश्चय आनिये अपनी तासीर दिखाने में काले नाग से भी कहीं अधिक विषीलेहैं ॥ जीतध्य पानी के बुलबुलेके समान है। जिसको इस रहस्य का यथार्थ ज्ञान है उसी का निरन्तर परमात्मा से ध्यान है। वास्तव में ऐसे ही महान पुरुषों का फिर सदा के लिये कल्याण है। ___ मान्यवर महाशयो! आपने नाटक तो बहुत से देखे होंगे पर पाप मोल लेकर दाम व्यर्थ ही फेंके होंगे। किन्तु इस समय जो नाटक आपको दिखाया जायगा, आशा है कि उससे आप में से हर व्यक्ति परम आनन्द उठायगा । संसार की अलारता और लक्ष्मी आदि की क्षणकता जो इस समय थोड़े से शब्दों में आपको दर्शाई है उसी की हू बहू तसवीर खींचकर इस अमूल्य नाटक में दिखाई है जिसमें आपका खर्च एक पैसा है न पाई है। कहिये महाशयगण ! कैसी उपयोगी बात आपको सुनाई है।
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| २. चोर--माता जी, क्या बताऊं ! मैं एक चोर हूँ नामी, कभी देखी नहीं ना कामी ।
विद्य तचोर मेरा नाम है, चोरी करना मेरा काम है। धन की चाह से यहां आया, पर
अभाग्यवश अवसर न पाया । इसीलिये निराश हो पीछे क़दम हटाया। । जिनमती (बड़ी उदासी से )--अरे ! यह बहुतेरी पड़ी है माया, इसे मत जाल, __ माल पराया । जितनो उठाया जाय उठा ले, मन खूब ही रिझाले, ले जाकर चैन
उड़ा ले। चोर-माता जी ! तुम क्यों मुझे बनाती हो, मुझे क्यों शरमाती हो। जिनमती-नहीं नहीं बेटा ! मुझे यह धन दौलत और मालमता अच्छो नहीं लगता।
मेरे सब कुछ पास है, पर मन इस से उदास है। चोर (अचम्भे से )-क्यों, आपका मन क्यों इतना हिरास है। में भी बहुत देर से
खड़ा देख रहा हूँ कि आपका दिल सचमुच हैरान परेशान और बदहवास हैं।......... ३. जम्बूकुमार-मान्यवर मामा जी, आप भूलते हैं । जरा विचार कर तौ देखिये कि यह सर्व सांसारिक विभव और मन लुभावने भोग विलास के दिन के सुहाग हैं। शानियों की दृष्टि में तो यह सचमुच काले नाग हैं । दुनिया की यह सुखसम्पत्ति, यह मनोहर रागरंग, यह अटूट धनसम्पदा, यह जवानी की उमंगे, यह · देवांगनाओं की समान स्त्रियों के भोगविलास, यह सारा कुटम्ब परिवार केवल दो चार दिन की | बहार है । बिजुली का सा चमत्कार है । वास्तव में सब असार बल्कि दुखों का भण्डार। है। स्वपने को सी माया है, जिसने इसमें मन लगाया है, दिल उलझाया है उसने कभी
चैन न पाया है। उल्टा धोखा ही खाया और पीछे पछताया है। विद्यतचोर-कुंवरजी ! तुमने जो कुछ बताया वह वास्तव में ठीक समझाया है।
पर यह तो बताओ कि इसके त्याग में भी किसी ने कब सुख उठाया है ?...... (ख) भोजपबंध नाटक से-- (१) बस यही इक्कास उमूर हैं जिन पर अमल करना शाहानेगेती को पुरज़रूर है । यही | . रुमूज़े सल्तनत की जान हैं, यही जिबेतौकोरोशान हैं, और यही वसीलए आरामो
आसायशेहरदोजहान हैं...... (२) पंज-वत्सराज, उस काम का बस तुम ही पर सारा दारोमदार है। वत्सराज-महाराज, इस खादिम के लायक जो काम हो उससे इसे क्या इन्कार है ।
खादिम तो आपका हर दम ताबेदार व फ़र्माबरदार है। मन-हां बेशक, मैं जानता हूं कि तू ही मेरा मुहिब्बेगमगुसार है । तू ही हर रंजो-।
राहत में मेरा शरोक व राणादार है। वत्सराज-हां हां, जो काम इस नियाज़मन्द के लायक हो बिलाताम्मुल इरशाद
फरमाइये । यह खादिम तो हरदम आपका साथी व मददगार है।...... (३) मुन--क्यों क्या सोच विचार है ? वत्सराज-महाराज, भोज ऐसा क्या खतावार है?
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( १७ ) मंज--बस यही कि वह बड़ा होनहार है। मुमकिन है कि किसी वक्त सल्तनत का
दावेदार बन कर मुकाबिले के लिये तैयार हो जाय । मेरे लिये यह क्या कुछ कम
खार है ? वत्सराज महाराज, वह तो अभी महज़ एक तिम्ले नातजुरबेकार है । उस के पास न !
कोई लश्करेजर्रार है और न उस का कोई हामी व मददगार है। फिर आप का दिल
इतना क्यों बेक़रार है ?...... (४) भोज ( वत्सराज के हाथ में नंगी तलवार देख कर )--अरे अरे मरदूद ! यह ___ क्या गुस्ताखी है । क्या तेरी अक्ल में कुछ फितूर है ? वत्सराज--(अफसोसनाक लहजे में )--हुज़र ! यह नमकण्वार महज़ बेकसूर है। __ राजा के हुक्म से मजबर है। भोज--क्यों, राजा को क्या मंजूर है ? वत्सराज-- आप को होनहार पाकर राजा का दिल बदी से भरपूर है। आप को कत्ल
कराना चाहते हैं । इसी में उनकी तबीअत को सुरूर है। भोज (कमाल इस्तिकलाल व तहम्मुल से)--हीं अगर हमारे चचा साहिय को यही मंजूर है तो फिलहक़ीक़त तू बेक़सूर है । मुंशिये फ़ज़ा व कद्र ने कलमे कदरत से जिस के सुफ़हए पेशानी में जो कुछ लिख दिया है उसी का यह सब ज़हर है। उसका मिटाना इमकानेवशरी तो क्या, फ़रिश्तों की ताकत से भी दूर है । इसलिये अय वत्सराज जो कुछ फ़रमानेशाही है उसका बजा लाना ही इस व.क तुम्हारे
लिये पुर ज़रूर है।...... (ग) हनुमानचरित्र नॉविल ( उर्द) से--
(१) इस मुकाम का सीन इस वक्त. देखने वालों की नज़र को बहिश्त का धोखा दे रहा है । वह देखिये ना, मन्दिरों में लोगबाग कैसी भक्ति और प्रेम के साथ पाको साफ अशयाय हश्तगाना ( अष्टद्रव्य ) से भगवत्पूजन में मसरूफ़ हैं। कोई आवेमुकत्तर और गंगाजल नुकरई व तिलाई झारियों में लिये हुए संस्कृत नाम में (पद्य में ) बुलंद आवाज़ से अजीब दिलकश लहजे के साथ परमात्मा की स्तुति करते हुए प्रार्थना कर रहे हैं कि "अय परमात्मा ! आप हमारे नापाक दिलों को वैसा ही पाक और पवित्र कीजिये जैसा यह जल पाक व शफाफ है।" कोई मलियागिरि सन्दल सुफे.द......।
(२) मेघपुर के बाहर एक वसीअ मैदान में जहां थोड़ी देर पहिले सन्नाटा छाया हुआ था अब गज़ब ही का हैबतनाक सीन नज़र आ रहा है । एक जानिब राक्षसों की फौज के दल के दल छाये पड़े हैं जिनके बक़सिफत घोड़ों की रग रग में भरी हुई तेज़ी उन्हें चुपचाप नहीं खड़ा होने देती । बेचैन होहो कर उछलते कूदते और कनौतियां बदल रहे हैं। मस्त हाथियों की कतारें दुश्मनों को अपने एक ही रेले में रौंद डालने और उन की जानों का खातमा करने के इन्तिजार में खड़ी हैं जिन पर मेज़ाबरदार बैठे हुए अपने जाँ सिताँ नेजे और ख बहा भाले हवा में चमका रहे हैं । सुबह के आफ़ताब की तिरछी किरने
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( १८ ) इन चमकते हुए. नेज़ों और विची हुई तलवारों पर कुछ घबरा घबराकर पड़ती और परे. शान हो होकर इधर उधर फैल जाती हैं। दूसरी जानिब झौजी लोग ज़राबक्तर पहिने और हथियार बांधे......।
(३ ) असाढ़ का महीना है और बरसात का आगाज़ । शाम का वक्त है और मानसरोवर को किनारा । हर चहार तरफ़ कु.दरती सब्ज़ा लहलहा रहा है और रंगबरंगे फल विल रहे हैं। ठंडी ठंडी हवाओं के झोंके अजीब मस्ताना अन्दाज़ से झम झम कर चलते और नाजुक २फलों की भीनी भीनी खुशबओं में बसकर कुछ ऐसे अठलाते फिरते हैं कि ज़मीन पर पाउँ तक नहीं रखते । मानसरोवर का पानी हवा के झोंको से हिलकोरे ले लेकर लहरें मार रहा है। कोयले ऊँचे २ दरख्तों पर बैठी हुई कुहक कुहक कर कूक रही हैं। जुगनू (खद्योत) इधर उधर चमकते फिरते और इस मौसिम के कु.दरती चौकीदार झींगर और मेंढक खुशी में आ आ कर अपनी भरी हुई आवाजें निकाल रहे हैं।......
(४) रात के आखिरी हिस्ले का वह सुहाना ३ वक्त. है जब कि नसीमेसहर की। ठंडी २ सनक से बेअक्ल दुनिया दोर लोग तो और भी ऐंड २ कर सोते हैं मगर जो लोग इस रूह अफ़ज़ा ( चित्तोल्लासक) वक्त की ज़ाहिरी व बातिनी खूबियों से कुछ भी वाकिफ हैं वह इस येशबहो (भमूल्य ) वक्त, को गनीमत जान कर फौरनं आँखें मलते हुए उठ बैठते हैं
और मायदेहकीकी ( परम पूज्य ) की याद में अपने अपने मज़हबी अकीदे के मुआफिक कुछ न कुछ देर के लिये जुरूर मसरूफ हो जाते है, बल्कि जिन्हों ने दुनिया की उल्फतों (मोहममता ) को दिल से निकालकर हुसूले-मारफत (आत्मरमण प्राप्ति ) के लिये गोशःगुज़ीनी (एकान्तवास ) इख्तियार करली है उनका तो कछ हाल ही न पूछिये । उन से तो नींद की खुमारी तक भी कोसों दूर भाग जाती है ।.......
(५) इस वक्त रातकी तारीकी ( अँधेरी) बानरबंशियों की पस्तहिम्मती की तरह दुनिया से रुखसत हो रही है । आफ़ताब (सूर्य) जिसके नूरानी चिहरे पर कल शाम न मालूम किस खौफनाक खयाल से ज़रदी छा गई थी और जिसने अपनी गर्दन अहसान फरा. मोशों (कृतनियों) की तरह नीचे झुकाकर दामनेमगरिब (पश्चिम दिशा) में अपना मुंह छिपा लिया था रात ही रात में आज सारी दुनिया का तवाफ (परिक्रमा) करके अपनी गर्दन मुतकविबराना (अभिमानयुक्त )ऊँची उठाए हुए आगे बढ़ा आरहा है ।
(१०) अन्यान्य विशेष ज्ञातव्य बातें-- १. आप जैन समाज में एक सुप्रसिद्ध और प्रतिष्ठित विद्वान् हैं । जैनधर्म संरक्षिणी सभा
अमरोहा ज़िला मुरादाबाद के लगभग १२ वर्ष तक (जब तक अमरोहा रहे ), और जैनसभा, बाराबती के १ वर्ष तक आप स्थायी सभापति के पद पर भी नियुक्त रह चुके हैं। २. आप 'श्री ज्ञानवर्द्धक जैन पाठशाला' और 'बी० यल० परोपकारक
जैन औषधालय' अमरोहा के और 'जैन औषधालय' बाराबड़ी के मूल संस्थापक हैं, “परोपकारक जैन औषधालय, अमरोहा" के लिये आप ने
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( १६ ) ५००) रु० स्वयं देकर और लगभग ५००) रु० का अन्य भ्रातृगण से चन्दा एकत्रित करके उसके एक स्थायी खाते की नीव डाली और आगे को स्थायी फण्ड बढ़ते रहने तथा उसे सुयोग्य रीति से चलते रहने का भी अच्छा प्रबन्ध कर दियो। आप जब तक अमरोहा रहे तब तक वहां की पाठशाला और औषधालय दोनों केभानरेरी संचालक व प्रबन्धक रहे । और बाराबङ्की आते ही से यहां की पाठशाला के भी अब से ३ मास पूर्वतक(६वर्ष)आनरेरी प्रबन्धक रहे । और यहांक जैनऔषधालय
को स्थापित करके उसके अभी तक भी आनरेरी संचालक और प्रबन्धक हैं। ३. आप हिन्दी, उर्दू, फारसी, और अँगरेज़ी, इन चारों भाषाओं का अच्छा. परिशान
रखते हैं। ४. आप जैन धर्मावलम्बी होने पर भी न केवल जैन ग्रन्थों ही के अच्छे मर्मज्ञ और अ. भ्यासी हैं किन्तु वैदिक, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई, आदि अनेक धर्मों और व्याकरण, गणित, ज्योतिष, वैद्यक आदि कई विद्याओं सम्बन्धी सैकड़ों सहस्रो ग्रन्थों का भी मिज द्रव्य व्यय से संग्रह कर उनका यथाशक्ति कुछ न कुछ ज्ञान प्राप्त करते रहे हैं। जिससे लगभग ६ हज़ार छोटे बड़े सर्व प्रकार के ग्रन्थों का अच्छा संग्रह होकर इस समय आपका एक ज्ञानप्रचारक'नामक बड़ा उपयोगी निज पुस्तकालय अमरोहा में विद्यमान है। ५. लगभग ५८ वर्ष के वयोवृद्ध होने पर भी आप अब भी बड़े ही उद्यमशील और परि
श्रमी हैं। गवर्मेंट सर्विस में रहते हुए भी रात्रि दिवश हिन्दी साहित्य वद्धि के लिये जी तोड़ परिश्रम करनाही आपका मुख्यध्येय है। उनकेअनेकानेकविषयों सम्बन्धी शान और अटूट परिश्रम का प्रमाण इनके लिखे ५० से अधिक हिन्दी, उर्दू प्रन्थ और मुख्यतः हिन्दी साहित्याभिधान के प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, अवयव 'वृहत जैन शब्दार्णव' (जो लगभग १०, १२ सहस्र से भी अधिक बड़े साइज के पृष्ठों में पूर्ण होगा ) और "संस्कृत-हिन्दी व्याकरण शब्द-रत्नाकर” आदि ग्रन्थ हैं। [ नं० (ङ) ६, १० ११, (ज) २, ३, पृ० ११, १२ ] ६. आप सन् १८६७ से १६०५ तक ( आठ नव वर्ष तक) बुलन्दशहर से प्रकाशित होने बाले एक उर्दू मासिक-पत्र के सम्पादक और उस के अधिपति भी रह
७. आप केवल हिन्दी उर्दू के लेवक या कवि ही नहीं हैं किन्तु ज्योतिष, वैद्यक, रमल,
यंत्र-मंत्र, आदि में भी थोड़ा थोड़ा और गणित में अच्छा अभ्यास रखते हैं। ८. बाराबङ्की हाईस्कूल को ट्रांस्फर होने पर लेखन सहायक पर्याप्त सामग्री (गून्थ आदि) यहां साश न लासकने के कारण आपने यहां केवल १ मास काम करने के पश्चात् ही दो वर्ष की फ़ौं ( Furlough ) छुट्टी ले ली और अमरोहा रह कर कोषादि लिखने का कार्य नित्यप्रति १५ या १६ घंटे से भी अधिक करते रहे। इस
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(२०) छुट्टी के अतिरिक्त और भी कई बार एक एक, दो दो, तीन तीन मास की छुट्टियां ले | लेकर अपना अधिक समय गन्धलेखन कार्य ही में व्यय करते रहे हैं । ९. आपने गन्थावलोकन और लेखन कार्य नित्यप्रति अधिक समय तक भले प्रकार कर
सकने की योग्यता प्राप्त करने के लिये २० या २१ वर्ष की घय से ही रसनेन्द्रिय को वश में रख कर थोड़ा और सात्विक भोजन करने का अभ्यास किया और २४ वर्ष की वय से पूर्व अपना द्विरागमन संस्कार भी न कराया । और पश्चात् भी बहुत ही परिमित रूप से रहे जिसका शुभ फल यह हुआ कि सन् १८९७-६८ ई. में सरकारी ड्य टी, और वेतन की कमी के कारण चार पांच घंटे नित्य का प्राइवेट व्य शन, तथा गृहस्थधर्म सम्बन्धी आवश्यक कार्यों के साथ साथ मासिक पत्र के सम्पादन आदि का अधिक कार्य बढ़ जाने से केवल डेढ़ दो घंटे ही नित्य निद्रा लेने पर भी परमात्मा की कृपा से कोई कष्ट आदि आप को न हुआ और अब
तक भी ४-५ घण्टे से अधिक निद्रा लेने की मावश्यकता नहीं पड़ती। १०. अनेक ग्रन्थावलोकन और प्रन्थलेखन कार्य के लिये अधिक से अधिक समय दे सकने के विचार से आपने अपमा सरकारी वेतन केवल ४०) १० मासिक हो जाने परही संतोष करके प्राइवेट ट्यूशन का कार्य कम कर दिया, अर्थात् तीन चार घंटे के स्थान में अब केवल घंटे सवाघंटे ही का रख लिया और उसी समय ( सन् १९ १३ ई० में) यह भी प्रतिज्ञा करली कि "६०) २० मासिक वेतन होजाने पर प्राइवेट ट्रयशन करना सर्वथा त्याग दिया जायगा" । अतः सन् १९१६ ई० से जबकि आपका वेतन ६०).रू होगया आपने निज प्रतिज्ञानुसार अपनी २००) रु० वार्षिक से अधिक
की प्राइवेट ट्यूशन की रही सही आय का भी मोह त्याग दिया। ११. कोष के संग्रहीत शब्दों की व्याख्या आदि लिखमा प्रारंभ करने के समय वि० सं० १९७६-८० ( सन् १६२३-२४ ई० ) में आप सात्विक वृत्ति अधिक बढ़ाने के वि. चारसे सपा वर्षसे अधिक तक केवल सेर सवासेर गोदुग्ध पर या केवल कुछ फलों पर नमक और अन्न आदि सन म्याग कर लर्कारी कार्य करते हुए शेष समय में कोष लिखने का कार्य भी भले प्रकार करते रहे । अब भी आपका भोजन छटाँक डेढ़ उटाँक अन्न और आध सेर तीन पाव दुध से अधिक नहीं है।
शान्तीशचन्द्र जैन ( बुलन्दशहरी)
बाराषङ्की । ता० २०, अप्रैल १९२५
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( २१ )
समपण
भगवन् ! यह संसार असार है। इसका कुछ बार है न पार है। इसमें निर्वाह करना असा. धारण कठिनाइयों को सहन करते हुए नाना प्रकार के स्पर्धायुक्त व्यवहारों की घुड़दौड़ में बाज़ी लगाना किसी साधारण बुद्धि का कार्य नहीं। जिसने अपने वास्तविक जीवनरहस्य को समझा और अपने आत्मबल से काम लिया वह मानों चारों पदार्थ पागया। सच पूछिये तो उसने बालू में से तेल निकाल लिया, गगनकुसुम को हस्तगत कर लिया और उसके लिये कुछ भी असंभव न रह गया । परन्तु यह कार्य कथन करने में जितनाही सरल और बोधगम्य है उतनाही कार्यरूप में परिणत होने पर कठिन तथा कष्टसाध्य सिद्ध होता है। इसके लिये तो आपके चरण कमल के संस्पर्श से पवित्र हुए मृदु-मन्द-मलयानिल के साथ गुंजार करने वाली मुनि भूमरावली के मधुर गुंजार का सहारा ही अपेक्षित है। अथवा आपके नखचन्द्र की अमल चन्द्रिका को प्राणपण से इकटक निहारने वाले चातका. चार्यों के बचनामृत ही एक अलौकिक जीवन का संचार कर सकते हैं। यही समझ कर इस अनुपम पंथ का
पान्थ बना, और विविध शास्त्र-पारीण उन ऋषि मुनियों की लगाई अनेक वाटिकाओं में जो आपके . निगूढ़ तत्वों के विविध प्रकार के नयनाभिराम पुष्पों से पुष्पित हैं--अनवरत विहार करने को प्रयाण कर दिया। इसीके फल स्वरूप यह "वृहत् जमशब्दार्णव" प्रस्ततु है। इसमें . मेरा निज का कुछ नहीं है। ज्ञानका औचित्यपूर्ण विशद भंडार ती सनातन से एक रस और समभाव से प्रप्तारित है। इसीलिये मैं कैसे : कहूँ कि मैंने एक नवीन कृति लोगों के सन्मुख रखी है । मुझे यह कहने का अधिकार नहीं. फिर भी आपकी विशिष्ट सृष्टि पुष्पावली में से जो कुछ पत्र पुष्प एकत्रित करके एक साधारण सी डाली सजाई है वह आदर पूर्वक किन्तु संकोच से आपके पावन पाद-पद्मोंमें परम श्रद्धा तथा भक्ति के साथ चढ़ाने
का साहस करता हूं। आप बीतराग हैं, आपके लिये इसकी कुछ भी आवश्यक्ता नहीं, परन्तु इस भक्त की ओर तनिक देखिये और उसके साथ नयन, प्रकम्पित शरीरऔर गद गद बाणीयुत साग्रह तथा सानुरोध प्रार्थनाहीकेनाते उसे अपनाइये । भगवन ! आपका पदार्थ आपको हीसमर्पित है। इसे आपहीअपने पवित्रहाथोसे अपने भक्तोंके सन्मुख उपस्थितकीजिये।
॥ इति ॥
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146 आपके चरणों का एक तुच्छ ।
भक्त घो० यल० जैन, चैतन्य
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( २२
हिन्दी जैन ग़ज़ट
[ १६ दिसम्बर सन् १६२४ ई०]
की
इसी वृहत् कोष की समालोचना पीछे इसी कोष के पृष्ठ २ पर देखें
वीर
इसी वर्ष के विशेषांक (अङ्क ११, १२ वर्ष २)
में
प्रकाशित
इस वृहत् कोष के सम्बन्ध
मैं
श्रीयुत मि० चम्पतराय जी वैरिस्टर-एट-ला, हरदोई
की सम्मति
1
" इस बहुमूल्य पुस्तक का पहिला भाग अभी छा है और उसे मैंने पढ़ा है । वास्तव में यह अपने ढंग का निराला कोष होगा जो सब बातों में परिपूर्ण ( Comprehensive and Exhaustive ) होगा । कमसे कम इसके विद्वान् लेखककी नीयत तो यही है कि इसे जैन ऐनसाइक्लोपीडिया ( Jain Encyclopædia, विश्वकोष ) बनाया जावे । लेखक की हिम्मत, विषद उत्साह, परिश्रम, खोज और ख़ूबी की प्रशंसा करना वृथा है; स्वयं इस शब्दार्णव के पृष्ठ उनकी प्रशंसा पूर्णतयः कर रहे हैं ! मैंने दो एक विषयों को परीक्षा की दृष्टि से देखा । लेख को गुंजतक तथा पेचीदगी से रहित पाया । उसमें मुझे दिखावे के पांडित्य की नहीं प्रत्युत वास्तविक पांडित्य ही की झलक नज़र आई । यह कोष श्रीयुत मास्टर बिहारीलाल जी की उम्र भर की मिहनतका फल है। यूं तो उन्होंने और भी बहुत से ट्रैक्ट लिखे हैं परन्तु प्रस्तुत कृति अपने ढँगमें अपूर्व है ।"
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( २३ )
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कोषकार का वक्तव्य
मौर नम्र निवेदन
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इस कोष जैसे महान कार्य को हाथ में लैना यद्यपि मुझ जैसे अति अल्पक्ष और अल्पबुद्धी साधारण व्यक्ति के लिये मानो महासमुद्र को निज बाहुबल से तिरने का दुःसाहस करना है तथापि जैन समाज में अतीव आवश्यक होने पर भी ऐसे कोष का अभाव देख कर
और यह विचार कर कि "मैं अपने जीवन भर में कम से कम यदि शब्द-संग्रह करके उन्हें अकारादि क्रम से लिखदेने का कार्य ही कर लूँगा तो अपने लिये तो अनेक ग्रन्थों की स्वाध्याय का परम लाभ होगा और शब्द संग्रह अकारादि क्रम से हो जाने पर जैन समाज के कोई न कोई धुरन्धर विद्वान् महानुभाव उन शब्दों का अर्थ आदि लिख कर इसकी चिरवाञ्छनीय आवश्यक्ता की पूर्ति कर देंगे”, मैंने शब्द संग्रह करने का कार्य प्रत्येक विषय के अनेकानेक जैन ग्रन्थों की स्वाध्याय द्वारा शुभ मिती ज्येष्ठ शु०५ (श्रुत पंचमी ) श्री धीरनि० सं० २४२५ (शुद्ध वीर नि० सं० २४४४ ) वि० सं० १९५६ से प्रारम्भ कर दिया । और जैन प्रन्थों का पर्याप्त भण्डार संग्रह करने में बहुत सा धन व्यय करके रात दिन के अट्ट परिश्रम द्वारा लगभग पांच सहस्र जैन पारिभाषिक शब्द और लगभग डेढ़ सहस्र जैन ऐतिहासिक शब्द संग्रह करके और उन्हें अंग्रेजी | कोषों के ढंग पर अकारादि क्रम से लिख कर मैंने इसकी एक सूचना जैन मित्र में प्रकाशनार्थ भेज दी जो ता० १६ नवम्बर सन् १९२२ ६० के जैनमित्र वर्ष २४ अङ्क ३ के पृष्ठ ४०, ४१, ४२ पर प्रकाशित हो चुकी है, जिसमें मैंने अपनी नितान्त अयोग्यता प्रकट करते हुए जैन विद्वन् मण्डली से सविनय प्रार्थना की थी कि वह इस महान कार्यको अर्थात् संग्रहीत शब्दों का अर्थ और व्याख्यादि लिखने के कार्य को अब अपने हाथ में लेकर उसे शीघ्र पूर्ण करने या कराने का कोई सुप्रबन्ध करे । इस प्रार्थना में मैंने यह भी प्रकट कर दिया था कि मैंने यह कार्य पारमार्थिक दृष्टि से स्वपरोपकारार्थ किया है, अतः मैं अपने सर्व परिश्रम और आर्थिक व्यय का कोई किसी प्रकार का बदला, पुरुस्कार या पारितोषिक आदि पाने का लेशमात्र भी अभिलाषी नहीं हूं। केवल यही अभिलाषा है कि किसी न किसी प्रकार मेरे जीवनही में यह कार्य पूर्ण होजाय तो अच्छा है। उस लेखमें मैंने इस कोष की तैयारी के लिये शब्दार्थ आदि लिखे जाने की एक संक्षिप्त “स्कीम"[Scheme]अपनी बुद्धधनुसार दे दी। थी। मुझे आशा थी कि जैन विद्वान् मण्डली, या किसी संस्था अथवा दानवीर सेठों में से किसी न किसी की ओर से मुझे शीघ्र ही यथोचित कोई उत्तर मिलेगा जिसके लिये मैं कई
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मास तक बड़ा उत्कंठित रहा किन्तु शोक के साथ लिखना पड़ता है कि मेरी इस प्रार्थना पर किसी ने तनिक भी ध्यान न दिया । तब निराश होकर नितान्त अयोग्य होने पर भी मैंने ही इस कार्य को भी यह विचार कर प्रारम्भ कर दिया कि अपनी योग्यतानुसार जितना और जैसा कुछ मुझ से बन पड़े अब मुझे ही कर डालना चाहिए । शक्ति भर उद्योग करने और सात्विक वृत्ति के साथ पूर्ण सावधानी रखते हुए भी बुद्धि की मन्दता, और ज्ञान की हीनता से इसमें, जो कुछ त्रुटियां और किसी प्रकार के दोषादि रह जायेंगे उन सब को विशेष विद्वान् महानुभाव स्वयं सुधार लेंगे तथा वृद्धावस्था जन्य शारीरिक व मानसिक बल की क्षीणता और आयु की अल्पता आदि कारणों से इस महान कार्य की समाप्ति में जितने भाग की कमी रह जायगी उसे भी वे अवश्य पूर्ण कर देंगे। इधर मुझे भी अपने जीवन के अन्तिम भाग में ग्रन्थ स्वाध्याय और उनके अध्ययन व मनन करने का विशेष सौभाग्य प्राप्त होगा जिससे मुझे आत्मकल्याण में महती सहायता मिलेगी ।
अतः सज्जन माननीय विद्वानों की सेवा में प्रत्यक्ष व परोक्षरूप है कि:
(१) वे मेरी अति अल्पक्षता को ध्यान में रख कर इसमें रहे हुए दोषों को न केवल क्षमादृष्टि से हीं अवलोकन करें किन्तु उन्हें प्रन्थ में सुधार लेने और मुझ सेवक को भी उन से सूचित कर देने का कष्ट उठा कर कृतज्ञ और आभारी बनाएँ, जिससे कि मैं इसके अगले संस्करण में (यदि मुझे अपने जीवन में इसके अगले संस्करण का सौभाग्य प्राप्त हो ) यथा शक्ति और यथा आवश्यक उन्हें दूर कर सकूँ । और
·
(२) इस प्रारम्भ किये हुए विशाल कार्य का जितना भाग मेरे इस अल्प मनुष्य जीवन में शेष रह जाय उसे भी जैसे बने पूर्ण कर देने का कोई न कोई सुयोग्य प्रबन्ध कर देने की उदारता दिखावें ।
नोट- मुद्रित होने के पूर्व कोष के इस भाग की प्रेस कापियों को श्रीयुत जैनधर्मभूषण धर्म दिवाकर ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी ने भी एक बार देख लेने में अपना अमूल्य समय देकर उनमें आवश्यक संशोधन कर देने की सुयोग्य सम्मति प्रदान की है जिसके अनुकूल यथा आवश्यक सुधार कर दिया गया है । मैं इस कष्ट के लिये उनका हार्दिक कृतज्ञ हूँ ।
मेरा नम्र निवेदन
बाराबङ्की (अवध)
ता० २५ जून सन् १६२५ ई०
हिन्दी साहित्य प्रेमियों का सेवक, हिन्दी साहित्य सेवी,
बिहारीलाल जैन, “चैतन्य" सी. टी.,
( बुलन्द शहरी)
असिस्टेन्ट मास्टर, गवन्मेंट हाईस्कूल,
बाराबङ्की (अवध)
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( २५ )
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भूमिका
( PREFACE ) जैनधर्म का साहित्य बहुत विशाल है। इसमें न्याय, व्याकरण, काव्य, छन्द, इतिहास, पुराण,दर्शन, गणित, ज्योति आदि सर्वही विषयों के ग्रन्थ उपलब्ध हैं। तथा प्रचलित संस्कृत प्राकृत तथा हिन्दी के शब्दों से विलक्षण लाखों पारिभाषिक शब्द हैं जिनको अर्थ समझने के लिये सैंकड़ों जैन ग्रन्थों के पढ़ने की आवश्यकता है। उन सर्व शब्दों को अकारादि के क्रम से कोषरूप में संग्रह करने की और अनेक ग्रन्थों में प्रसारित एक शब्द सम्बन्धी शान को एकत्र करने की बहुत बड़ी ज़रूरत थी। इस वृहद् कोष में इसही बात की पूर्ति की गई है। इससे जैन और अजैन सभीको यह एक बड़ा सुभीता होगा कि किसी भी स्थल पर जब कोई पारिभाषिक शब्द आवेगा वे उसी समय इस कोष को देख कर उसका पूर्ण अर्थ मालूम कर सकेंगे। यह गून्थ आगामी सन्तानों के लिये सहस्रों वर्षों तक उपयोगी सिद्ध होगा। गून्यकर्ता ने अपने जीवन का बहुत सा अमूल्य समय इस कार्य में व्यय करके अपने समय को सच्चे परोपकार के अर्थ सफल किया है। इन के इस महत्वपूर्ण कार्य का ऋण कोई चुका नहीं सकता।
जितना गम्भीर जैन साहित्य है उतना प्रयास इसके प्रचार का इसके अनुया. यियों ने इस काल में अब तक नहीं किया है इसी से इसके शानरूपीरत्न गुप्त ही पड़े हुए हैं। वास्तव में जैन साहित्य एक सर्वोपयोगी अमौलिक रत्न है।
____एक बड़ा भारी महत्व इस साहित्य में यह है कि इसमें एक पदार्थ के भिन्न भिन्न स्वभावों को भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से वर्णन किया गया है जिसको समझ लेने से जो मत! ऐसे हैं कि जिन्होंने पदार्थ का एक ही स्वभाव माना है दूसरा नहीं माना व किसी ने दूसरे स्वभाव को मान कर पहिले के माने हुये स्वभाव को नहीं माना है और इस लिये इन दोनों मतोंमें परस्पर विरोध है वह विरोध जैन सिद्धान्त के अनेकान्तवाद से बिल्कुल मिट जाता है।
और सर्व मतों के अन्तरङ्ग रहस्य को समझने की सची कुंजी हाथ में आजाती है। इसी को 'स्यावाद नय' या 'अनेकान्त मत' कहते हैं-इस जैन दर्शन के परमागम का यह स्याद्वाद बीज है। कहा है--
परमागमस्य बीजं निषिद्ध जन्मांध सिंधुर विधानं । सकल नय विलसितानां विरोध मथनं नमाम्यनेकान्तं ॥
भावार्थ-मैं उस अनेकान्त को नमस्कार करता हूं जो परमागम का बीज है। और जिसने अन्धों के हाथी के एक अंश को पूर्ण हाथी मानने के भ्रम को दूर कर दिया है, अर्थात् जो सर्व अंश रूप पदार्थ है उसके एक अंश को पूर्ण पदार्थ मानने की भूल को मिटा दिया
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( २६ )
है । इसी लिये यह अनेकान्त सिद्धान्त भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से भिन्न भिन्न बात को मानने बालों के विरोध को मेटने वाला है ।
जैन साहित्य में दूसरा विलक्षण गुण ग्रह है कि इसमें आत्मा के साथ पुण्य पाप रूप कर्मों के बन्धन का विस्तार से विधान है जिसको समझ लेने पर एक शांता यह सहज में जान सकता है कि जो मेरे यह भाव हैं इनसे किस किस तरह का कर्मबंध मैं करूँगा व कौनसा कर्म का बन्ध किस प्रकार का अपना फल दिखा रहा है। तथा कौन से भाव मैं करू जिनके बल से मैं पूर्व बाँधे हुए कर्मों को उनके फल देनेसे पहिले ही अपने से अलग कर दूँ । जैन साहित्य में इतिहास का विवरण भी विशाल व जानने योग्य है जिससे पूर्णतः यह पता चलता है कि भारतवर्ष की सभ्यता बहुत प्राचीन है ।
ऐसे महत्वपूर्ण अनेक विषयों से भरपूर यह जैन साहित्य है जिसके सर्व ही प्रकार के शब्दों का समावेश इस कोष में हुआ है। अतः यह कोष क्या है अनेक जैन शास्त्रों के रहस्य को दिखाने के लिये दर्पण के समान है। इसका आदर हर एक विद्वान को करना चाहिये तथा इसका उपयोग बढ़ाना चाहिये ।
० सीतलप्रसाद,
आ० सम्पादक जैनमिश्र - सूरत
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M
( 20 ) INTRODUCTION
( WHIT)
AIS
DE
We are told that "The Jains possess and sedulously guard extensive Libraries full of valuable literary material as yet very imper. fectly explored, and their books are specially rich in historical and semi-historical matters. ', * It is true to a word, though the science and inethods have advanced far lavishly by now, but to our regret the conditions with the Jain Literature have turned out to be no better at all even in this 20th Century. The existiny Jain Libraries of even a single province have not been fully explored yet: then what to think of a systeinetic publication of sacred Jain Canons ! Even today we cannot hope for a uniform publication of the whole canonical col. lections. We have had a ray of hope in the sincere & sucred efforts, in this connection of memorable late Kumar Devendra Prasada Jain of Arrah. But to our unfathomable sorrow he kicked away his bucket of life quite untimely and with him the 'ray' disappeared. The atmosphere of Jain Literature in one way again plunged in quite dark oblivion. There was no projection or improvement seen in this direction after him, and it was little hoped that the Jain Literature would get again such enthusiustic champions as he was whose efforts might bear sacred fruits for the upheaval of Jainism, and we might get Jain authorititive books in all languages --gpecially in English and Hindi- in the near future. But the rosy tine dawned and we have the occasion to hear a hopeful sound raised for the sacred cause from the far suth. It was welcomed all amongst the Jains. Consequently Mr. C. S. Mallinath, the new chain pion, has been successful in establishing "The Devendra Printing & Publishing Co., Madras", for bringing out the Jain sacred books on the same lines as sacred books of the East. We only wait now for its ripe fruits. Along with this, another inore enthusiastio cha in pion for the selfsame cause has appeared in the self of Mr. BIHARI LAL Jain (Chaitanya) of Bulandshahr, Assistant Master, Govt High School, Barabanki , who was working hard single banded for years in quite seclusion. His untiring zeal & enthusiasm have resulted now in the shape of a comprehensive and exhaustive JAIN ENCYCLOPÆDIA. The first volume of this is now being placed in the hands of general readers. Such a work was need. ed badly. So, to the author is rightly due the credit of the charm and admiration of the work which is the only existing one of its kind.
# Late Sir Vincent A. Smith, M. A., M. R. A. S., F. R. N. 3, 'A Special Appeal to Jains'.
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However our English-knowing readers may grudge and complain for, or feel the want of, an English Edition of this work. But knowing the present conditions in India we would congratulate our author for bringing out this valuable work in Hindi - "The would be Lingua Franca of India. We grant that an English edition would have served greatly for the cause of Jainism, but like a patriot, our author is bent on enriching the Sahitya of his Mother Tongue-the Rash. triya Bhasha of dear Bharatvarsha. So we are sure that everybody shall hail this well-planned and quite indispensable work on Jainisio with all his heart. As for an English edition of it, we should wait anxiously for a future scholars' unbounding zeal for the cause.
Anyhow it is needless to point out the necessity of such a work, when we know that the wants and the nature of human beings naturally change, as the time flays on smoothly on its wings The languages, too, automatically change along with the same. She lis. tory of any language prevailing in any corner of the world will support it. We know how in India the ancient Vedic Sanskrit has assumed at present many forms prevailing in various parts of India, e.g. Hindi, Marathi, eto. The game is the cage with the languages, of Europe. Mr. A. C. Woolner M. A. asserts it and says:
“An interesting parallel to the history of the Indo Aryan Languages is shown by that of the Romance Languages in Europe. Of several old Italic dialects, that of the Latin tribe prevailed, and Latin became the dominant language of Italy, and then of the Roman Empire. It became the language of the largest Christian Church of the middle ages, and thence the language of Science and Philosophy until the modern languages of Europe asserted their inde pen. dent existence."
(The Introduction to Prakrit, page 10 ) So it is natural that phonetic and othor changes may remain appearing in any language, in accordance with the timely revolutions among its votaries Hence it is not easy for a person of latter days to read a work of the days of yore, and to grasp its meaning in full. Consequently an Encyclopædia acquaints them with that lan: guage & makes them familiar with its literary and other iinportance. This necessity has been felt by enterprising foreigners in the very early days of this century. As a result, many foreign languages have their own Cyclopædias. In Hindi, too, we have an Encyclopædia Indica, which is being published from Calcutta. Another such Hindi work was published sometime ago by the Nagri Pracharini Sabha of Benares. In both these works the explanation of a very few Jain technioal terms of both seots- the Digambaras and Swetambarasis given, but it is not cainprehensive and somewhere not to the
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P&
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point. Amongst the Jains we can make mention of Shatavadhani's "Ardh Magadhi Kosh”, which gives a very short explanation, in Gujrati, Hindi and English, of Ardh Magadhi words only from the Swetambara Shastras. While in the present work we see a glimpse of such completion, at least from the Digambaras' point of view, and we may style it a Key? to open the treasuries of hidden Jain Siddhanta. Magtering the 'Key', we shall be able to examine their precious contents.
Besides, available Jain books and lyrics have a testative character through the impossibility of exainining the whole collection. So this work would be of a great help to future studies and editions on Jainism. By studying this work, a reader would learn about every branch of Jainology. Really it is a boon to those Hindi readers who are interested in studying the various branches of Indology. The method applied for giving and defining the meaning of every word is very expressive and exhaustive altogether, the style of narration quite definite and authoritative, and the language is, also, simple and comprehensible to all. The author has not kept him reserved to the support of Jain Shastras, but has made use of other non-Jain and research works as far as possible. He has not forgotten to quote the authorities in his favour, but on certain occasions he has failed to do so. However one thing will surely be a cause for the dissension of a reader that the author has omitted all those Hindi words which have no connection with Jainism. If he would have done likewise, the value of the work would have increased much. But this was not easy for a single person to complete such a comprehensive work all alone. Already it is a matter of curiosity and gratification that the author has completed all himself the present big work. Its historical treatises are also worth reading. The first volume covers in its 280 odd pages the words beginning with the Vowel '37', -"3TUOT's being the last. This means that it will get completed in no less than 12000 pages. In short, its perusal will surely enlighten the reader on various topics of Philosophy, History, Geography, Astronomy, etc. in a quite extra-ordinary way. Really the work when published completely shall serve various useful purposes and be of great interest to the students of Religion and History. Of course, 1 think, this is the right way to Propagate interest in the mighty religion of the Jains. I extend my sincere thanks again to the author and wish every success to his future undertakings for the sacred cause.
JASIVANTNAGARC ETAWAH] 11th.MAY, 1925.
K. PJAIN HONOURARY SUB-EDITOR VIRA, BIJNOR.
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प्रस्तावना
( EXORDIUM) १. कोष-ग्रन्थों की भावश्यकता
जब हम अपने नगर की पाठशाला की किसी निम्न श्रेणी में बैठकर 'उर्दू भाषा' का अध्ययन करते थे तब किली पुस्तक में पढ़ा था:
ज़माना नाम है मेरा तो मैं सब को दिखा दूंगा।
कि जो तालीम से भागेंगे नाम उनका मिटा दूंगा ॥ किन्तु बाल्यावस्था की स्वाभाविक निन्दता, बुद्धि अपरिपक्वता और अग्रशोचादि उपयोगी गुणों के नितांत ही संकुचित होने के कारण, कभी इसके अन्तस्तल में छिपे हुये उपदेश को न तो अपेक्षा ही की दृष्टि ले देखा, और न उसकी उपेक्षा ही की। अब ज्योंही गहस्थ जीवनरूपी-रथका चक्र घूमा, नमक तेल लकड़ीकी चिन्ता व्यापी, और आवश्यकताओं का अपार बोझ शिर को दबाने लगा त्योही उपरोक्त शेर साक्षात् शेर वन कर मस्तिष्क क्षेत्र को अपनी क्रीडा का रजस्थल बनाने लगा। होश ठिकाने आये और आंखें खुली। नज़र उठा कर देखा तो ज्ञात हुआ कि वास्तव में वर्तमान काल अशिक्षितों के लिये विनिष्टकारी काल ही है। बिना शिक्षित हुए आज कल दाल गलना ज़रा टेढ़ी खीर है । हमारे पूर्वजों ने अपनी सर्वव्यापनी दृष्टि से इस बात का अनुभव बहुत पहिले ही से कर लिया था। हमारी शिक्षापूर्ण सामग्री अपने अनुभवों की अभतपूर्व ज्ञानलमृद्धिराशि, तथा विविध शुद्ध सिद्धान्तों और नियमों के संग्रह को पुस्तक भंडार रूप में हमारे उपकारार्थ छोड़ दिया था । यद्यपि कुटिल काल की कुटिलता के कारण हमारा उपयुक्त भंडार प्रायः नष्ट हो चुका है किन्तु फिर भी जो कुछ बचा खुत्रा है कम नहीं है। सच पूछिये तो हम जैसे कूदमरज़ तथा कुंठित बुद्धि वालोंके लिये तो यह अवशिष्ट रत्न-भण्डागार भी कुवेर का सम्पत्ति से कुछ कम नहीं हैं। इस अपूर्व भंडारमें बनीहुई अनेक अनुपम कोठरियों और उन कोठरियों में रक्खे हुये अगणित संदूकों के तालों के खोलने के लिये बुद्धिरूपी तालियों का होना परमाघश्यक है । जबतक हमारे पास उन भंडारोंतक पहुँचनेका यथेष्ट मार्गही नहीं है तो उसमें रक्खी हुई अमूल्य वस्तुओं का दिग्दर्शन कैसे कर सकते हैं। हमारे कुछ दयालुचित्त पूर्वजों का ध्यान इस बात परभी गये बिना न रहा । उन्होंने इसी कमीको पूरा करने के लिये 'कोषप्रन्यो' की रचना की। किन्तु यह किसी पर अप्रगट नहीं कि संसार परिवर्तन शील है । उसकी भाषा तथा भाव सभी कुछ परिवर्तित होते रहते हैं। जब भाषा बदलती है तो उससे प्रथम के सिद्धान्तादि आवश्यक विषयों से सम्बन्ध रखने वाले शब्दों के परिज्ञान का मार्ग भी पलट जाता है और उनको जानने के नियम भी दूसरे ही हो जाते हैं वर्तमान काल न तो वैदिक काल है, न दर्शन तथा सूत्रकाल और न पौराणिक काल ही है। यही कारण है कि अब उस समय सम्बन्धी भाषाओंके समझने वाले भी नहीं रहे हैं । इसके अतिरिक्त हम अपने पूर्वजों के विविधकालीन अनन्त अनुभवों को उपेक्षा की दृष्टिले देखने में भी अपना अकल्याण ही समझते हैं अतः आवश्यक है कि संस्कृतादि पूर्व राष्ट्र भाषाओं में सुरक्षित उन विचारों,
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( ३१ ) को क्रमशः वर्तमान राष्ट्र तथा अपनी मातृ भाषा हिन्दी में लाने का सतत उद्योग करे।। राष्ट्रभाषा हिन्दी' द्वारा ही हमारा कल्याण होना संभव है अतः आज कल हिन्दी में बने हुए कोष ही हमारे ऋषि मुनियों के प्रगट किये हुये रहस्य को समझाने के लिये प्रशस्त मार्ग प्रस्तुत कर सकते हैं । इस प्रकार निर्मित किये गये कोषों द्वारा कितना आनन्द प्राप्त होगा, इस बात को सहृदय पाठक ही समझ सकते हैं । यह आनन्द बिहारी के इस दोहे--
रे गन्धी मति अन्ध तू, अतर सुघावत काहि ।
करि फुलेल को आचमन, मीठो कहत सराहि ॥ के अनुसार किसी मर्मशता विहीन व्यक्ति को प्राप्त नहीं हो सकता और इसीलिये उस से युक्त मार्मिक रचना भी सम्मानित नहीं हो सकती।
"कद्रे गौहर शाह दानद या बिदामद जौहरी" अर्थात् मुक्ता का सम्मान ( उस के गुणों को समझ कर ) या तो जौहरी (पारखी) ही कर सकता है या फिर उस से विभूषित होने वाला नृपतिही कर सकता है। सच पूछिये तो यह कोषग्रन्थ'ही हमारेलिये वास्तविक कसौटी हैं। किसी जिज्ञासुको जौहरी अथवा बादशाह की पदवी प्राप्त कराने की क्षमता उनमें है। भाषा विज्ञान और शब्द विज्ञानके वास्तविक रहस्य को जिसने समझ लिया, मानो त्रैलोक्य की सम्पत्ति पर उसका अधिकार हो गया। इस आगाध-रत्नाकर के अगणित रत्नों के रङ्ग रूप का पहचानना तनिक कष्ट साध्य है शब्दरत्न में अन्य रलों से एक विशिष्ट गुण यह भी है कि उस में अपना रङ्ग ढंग पलटने की सामर्थ्य है। वे बहुरूपिया की उपाधि से विभूषित किये जा सकते हैं। देखिये, शब्द-शक्ति की बिलक्षणता-"आप की कृपा से मैं सकुशल हूं", "आपकी कृपा से आज मुझे रोटी तक नसीब नहीं हुई"इन दोनों वाक्यों में एक ही शब्द 'कृपा' अपने २ प्रयोग के अनुसार भाव रखता है । इसी प्रकार केवल एक ही शब्द के अनेक प्रयोग होते हैं। उन्हें हम बिना कोष के किसी प्रकार भी नहीं समझ सकते । वस्तुतः कोष हमारे लिये बड़े ही लाभदायक हैं । किसी कवि ने ठीक कहा है--कोशश्चैव महीपानाम् कोशश्च विदुषामपि।
उपयोगो महानेष क्ल शस्तेन विना भवेत् ।। वास्तव में महत्वाकांक्षी राजाओं के लिये जितनी आवश्यकता कोश (खजाना) की। है उतनी ही आवश्यकता सकीाभिलाषी विद्वानों को कोश (शब्द भंडार ) की है। २. वत्तेमान गन्थ की आवश्यकता
नागरी-प्रचारिणी सभा काशी को प्राचीन हस्तलिखित हिन्दी साहित्य का अन्वेषणसम्बन्धी कार्य करते हुए मुझे हिन्दी भाषा के जैन साहित्य को अवलोकन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । मैं समझता हूँ यदि उस ओर हमारे मातृ भाषा प्रेमी जैन तथा जैनेतर विद्वानों का ध्यान आकर्षित हो और निष्पक्ष भाव से पारस्परिक सहयोग किया जाय तो हिन्दी के इतिहास पर किसी विशेष प्रभाव के पड़ने की सम्भावना है। प्राकृत तथा संस्कृत से किये गये अनेक अनुवादित ग्रन्थों के अतिरिक्त, हिन्दी भाषा के मौलिक गद्य तथा पद्य ग्रन्थों की भी वहां (हिंदी जैन साहित्य में ) कमी नहीं है। किन्तु खेद यही है कि अब तक जैन साहित्य के पारिभाषिक तथा ऐतिहासिक शब्दों का सरलता से परिचय कराने के लिये
।
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( ३२ )
कोई भी कोष ग्रन्थ न था । पर अब बड़े हर्ष की बात है कि इस चिरबाँछनीय आवश्यकताको श्रीयुत मास्टर बिहारीलाल जी जैन बुलन्दशहरी ने इस 'वृहद् जैन शब्दार्णव कोप' को वढेही परिश्रम और खोज के साथ लिख कर बहुतांश में पूर्ण कर दिया है ।
इस 'वृहत् जैन शब्दार्णय' का अवतीर्ण होना न केवल जैन बांधवों के ही लिये सौभा ग्य की बात है वरन् समस्त हिन्दी संसार के लिये भी एक बड़ा उपकार है । प्राकृत में तो एक श्वेताम्बरी मुनि द्वारा बनवाये गये ऐसे कोष का होना बताया भी जाता है परन्तु हिंदी में उसका पूर्णतयः अभावही था। इस अभाव की पूर्ति करके श्रीयुत मास्टर साहिब ने हिन्दी जगत को चिर ऋणी बना दिया है । हिन्दी में इस समय कलकत्ता के विश्वकोश कार्यालय और काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के कार्यालय से निकले हुए दोनों कोषों में भी जैन वि द्वानों के मत से उनके धार्मिक ग्रन्थों में आये हुए बहुत ही थोड़े शब्दों का -- कुछ नहीं के बराबर -- समावेश हुआ है । अथवा जो कुछ शब्द लिये भी गये हैं तो उनका यथोचित भाष समझाने में प्रायः कुछ न कुछ त्रुटी या अशुद्धि रहगई है । अतः इस कोश के निर्माण होने की बड़ी आवश्यकता थी ।
३. प्रस्तुत कोष के गुणों का संक्षिप्त परिचय ---
(१) इस महान कोश की रचना अँगरेजी के 'एनसाइक्लोपीडिया (Encyclopædia) के नवीन ढंग पर की गई है । जिस शैली से इस ग्रन्थरन का सम्पादन हो रहा है, उससे तो यह अनुमान होता है कि दश बारह सहस्र पृष्ठों से कम में उसका पूर्ण होना संभव नहीं । मेरा विचार तो यह है कि एक सहस्र पृष्ठ तो उसका हस्व अकार सम्बन्धी प्रथम भाग ही ले लेगा । वर्त्तमान ग्रन्थ, प्रथम भाग का प्रथम खंड है जो बड़े साइज़ के लगभग ३५० पृष्ठों में पूर्ण हुआ है । इसका अन्तिम शब्द 'अण्ण' है । बस ! समझ लीजिये कि प्रत्येक बात को समझाने के लिये कितना परिश्रम किया गया होगा ।
(२) इसे देखने से पाठकों को ज्ञात हो जायगा कि किसी शब्द की व्याख्या करने और उसको समझाने का ढंग कितना उत्तम है । भाषा अत्यन्त सरल किन्तु रौचक है । नागरी का साधारण बोध रखने वाले सज्जन भी इससे यथोचित लाभ उठा सकेंगे ।
(३) जिज्ञासुओं की तुलनात्मक रुचि को पूर्ण करने के लिये चतुर सम्पादक ने विविध ग्रन्थों की नामावली सहित स्थान स्थान पर प्रमाण भी उद्धृत कर दिये हैं। किसी शब्द की व्याख्या करने में इतनी गवेषणा की गई है कि फिर उसको पढ़ कर किसी प्रकार का भ्रम नहीं रह जाता । यथा सम्भव सभी ज्ञातव्य विषयों का बोध हो जाता है । व्याख्या करते समय केवल धार्मिक ग्रन्थों ही को आधारस्तम्भ नहीं माना, और न केवल भारतवर्षीय वैद्यकादि सिद्धान्तों का समादर कर एकदेशीयता का ही समावेश होने दिया है, किन्तु समयानुसार
कारने अनुमान और अनुभवशीलता का भी सदुपयोग किया है और पाश्चात्य विद्वानों के मत को भी यथा आवश्यक समाहृत किया है । स्थान स्थान पर धार्मिक तथा वैद्यक सि द्धान्तों को भी बड़े अपूर्व ढंग से मिलाया है और यह सिद्ध कर दिया है कि भारतवर्ष के क्षुद्र से क्षुद्र धार्मिक विश्वास भी बड़ी सुदृढ़ नीव पर स्थिर हैं। जहां तक विचारा जासकता है, यह कहना अत्युक्ति न समझा जावेगा कि ग्रन्थकार ने इस कोष के संग्रह करने में किसी
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भी प्रकार का प्रमाद नहीं किया है। आचार्यों के मत भेदों को भी फ़टनोटों द्वारा प्रकट कर दिया है। यथा अवसर जैनधर्म के गून्थों के अतिरिक्त, बौद्धों, वैदिकों, और पौराणिको के मत भी प्रकट किये गए हैं । उदाहरण के लिये पृ० ३८ अक्षरलिपि के तथा इसी प्रकार के अन्य कितने ही नोट दृष्टव्य हैं.. 'ललितविस्तार' (बौद्धप्रन्थ), तथा 'नन्दिसूत्र' (जैन ग्रन्थ) के अनुसार लिपियों के ६४व १८ भेदों की गणना कराके उलसे आगे के नोट में 'ब्राह्यी' लिपि से निकली हुई कोई चालीस से भी अधिक नामों की नामावली अङ्कित करके तथा इसी प्रकार अन्य कितनी ही खोज सम्ब. न्धी बातें लिख कर अन्धेषकों के काम की बहुत सी सामग्री एक ही स्थान पर एकत्रित कर दी है। पृष्ठ २७१ पर अणु शब्द और पृष्ठ २७६ पर अण्डज शब्द की व्याख्या भी खोज से ही सम्बन्ध रखती है।
(४) अङ्कविद्या,और अङ्कगणना-लौकिक तथा अलौकिक गणना-पर प्रभावशाली बड़ी ज़ोरदार बहस करके भारत के प्राचीन गणित गौरव का अच्छा दिग्दर्शन कराया है । इसके साथ ही पृ० ८६ व ८७ की टिप्पणी में सम्पादक ने लीलावती और सिद्धान्त श्रीमणि आदि ग्रन्थों के रचयिता श्री भास्कराचार्य से लगभग ३०० वर्ष पूर्व के श्री महावीर आचार्य रचित एक महत्वपूर्ण 'गणितसार संग्रह' नामक संस्कृत श्लोकबद्ध ग्रन्थ का भी जिसका अङ्गरेज़ी अनुवाद मूल सहित सन् १९१२ ई० में मदरास गवन्मेंट ने प्रकाशित कराया है ज़िक्र किया है (यह ग्रन्थ लेखक की कृपा से हमें भी देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वास्तव में बड़े ही महत्व का ग्रन्थ है) और उसके मिलने का पता इत्यादि सब कुछ दे दिया है जिससे ज्ञात हो सकता है कि उन्हें अपने पाठकों को लाभ पहुँचाने का कितना ध्यान रहा हैं।
(५) 'अङ्कदिद्या' शब्द की व्याख्याके अन्तर्गत नोटों द्वारा क्षेत्रमान में परमाण से लेकर महास्कंध (त्रैलोक्य रचना या सम्पूर्ण ब्रह्मांड ) तक की माप सूची ( Table ) और कालमान में काल के छोटे से छोटे अंश से लेकर ब्रह्म कल्प से और भी आगे तक की मापसूची बड़ी गवेषणा पूर्ण लिखी गई है जो सर्व ही गणित प्रेमियों के लिये ज्ञातव्य है।
(६) इस में भौगोलिक विषय सम्बन्धी प्राचीन स्थितियों का भी अच्छा विवरण दिया गया है।
(७) जिस प्रकार छन्द शास्त्र में छन्दों की सर्व संख्या, सर्व रूप, इष्टसंख्या, इष्टरूप इत्यादि जानने के लिये ६ या १० प्रकार के प्रत्यय (सूची, प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट, आदि हैं उसी प्रकार किसी वस्तु या गुण आदि की संख्या आदि जानने के लिये सूची, प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट आदि को 'अजीवगत हिंसा' शब्द की व्याख्यान्तर्गत नोटो द्वारा बड़ी उत्तम रीति से सविस्तार दिया है जो जैनेतर विद्वानों के लिये भी बड़ी ही उपयोगी वस्तु है।
(८) न्याय दर्शनादि अन्य और भी कितने ही विषय ऐसे हैं जो सब ही को लाभ पहुँचा सकेंगे। .. ४. वर्तमान कोष का ऐतिहासिक अंग
यहां तक तो जैन पारिभाषिक शब्द कोष विषयक बात चीत हुई । इसी प्रन्थ का दूसरा अंग इतिहास-कोष है । अब उस पर भी विचार कर लेना चाहिये--
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। ३४ ) (१) इस अङ्ग को प्रन्थकार ने बहुत ही रुचिकर बनाया है । उन्हें जैन पुराणों के जितने स्त्री पुरुष मिले हैं सब ही का सूक्ष्म परिचय दिलाया है।
(२) कितने ही प्राचीन तथा नवीन जैन प्रन्यकारों की जीवनी उनके निर्माण किये हुये। गयों की नामावली सहित इस एक ही गन्थ में मिल सकेगी।
(३) कितने ही व्यक्तियों के इतिहास इस उत्तमताले लिखे गये हैं कि उन से इतिहासवेत्ता जैनेतर महानुभाव भी बहुत कुछ लाभ उठा सकेंगे। क्योंकि इस खोज में निजानुभव के साथ ही साथ अन्य देशीय विद्वानों को सम्मतियों का भी उचित आदर किया | गया है-उदाहरण के लिये 'अजयपाल' शब्द के अन्तर्गत 'कमारपाल' तथा 'अजितनाथ' तीर्थकर सम्बन्धी इतिहास ज्ञातव्य विषय हैं । इन इतिहासों को सम्गदक ने सर्वांगपूर्ण बना-| ने का पूर्ण प्रयत्न किया है। इनमें से पहिले सज्जन के चरित्र का चित्रण करने के लिये 'बलर' साहिब की 'मरहट्टा कथा' के अनुसार उसके ४० वर्ष पीछे होने वाले जगडूशाह के समय का दिग्दर्शन खोज से सम्बन्ध रखता है।
(४) प्रधान राजवंशों का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करने के लिये ग्रन्थ में स्थान २ पर ऐसी सारणियां दे दी गई हैं जो क्रमानुसार एक के पीछे दूसरे राजाके समयादि का परिचय दिला सकेंगी। उदाहरण के लिये पृष्ठ १६६ पर 'मगध देश' इत्यादि के राजाओं की सारिणी उपस्थित की जा सकती है। ५. वर्तमान कोष की उपयोगिता
उपर्युक गुणों पर ध्यान देने से हम समझ सकते हैं कि यह महान कोष जैन और अजैन सर्व ही को लाभ पहुँचा सकता है। (क) जैन पाठकों को होने वाले लाभ
(१) इसमें चारों ही अनुयोग--प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरण नुयोग, और द्रव्यानुयोग-के सैकड़ों सहस्रों जैन ग्रन्थों में आये हुए सर्व प्रकार के शब्दों का अर्थ सविस्तर व्याख्या आदि सहित है। अतः जो महाशय किन्हीं विशेष कारणों से पृथक् पृथक् गून्योंका | अध्ययन नहीं कर सकते वे इस एक ही गून्थ की स्वाध्याय से सर्व प्रकार के जैन गन्धों के अध्ययन का बहुत कुछ लाभ उठा सकेंगे।
(२) इसमें सर्व शब्द अकारादि क्रमबद्ध हैं अतः किसी भी जैन ग्रन्थ की स्वाध्याय करते समय जिस शब्द का अर्थ आदि जानने की आवश्यकता हो वह अकारादि क्रम से ढंढने पर तुरन्त ही इस में मिल जायगा । इधर उधर अन्य कहीं ढूँढने का कष्ट न उठाना पड़ेगा।
(३) सर्व प्रकार के व्रतोपवास और व्रतोद्यापन आदि की सविस्तर विधि तथा अनेक प्रकार के मंत्र और उनके जपने की रीति आदि भी इसी में यथास्थान मिलेंगी। इत्यादि ।। (ख) जैने तर सज्जनों को होने वाले लाभ
(१) जिन लोगों को जैनधर्म का कुछ ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा हो और उसको वि. शेष गून्थों के देखने का अवसर न मिला हो उनको यह बहुत कुछ लाभ पहुँचा सकता है
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(
३५
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उदाहरण के लिये 'भगारी' शब्द की व्याख्या के अन्तर्गत एक 'श्रावक' शब्द को ही ले लीजिये । हमें तो इस साब्द के विषय में यह ज्ञात था कि यह 'जैनी' शब्द का पर्यायवाची शब्द है और जैनी जैनधर्मानुयायी व्यक्ति को कहते हैं । कोषकार महोदय इसके विषय में हमें सूचना देते हैं कि उसमें १४ लक्षण, ५३ क्रियायें, १६ संस्कार, ६३ गुण, ५० दोषत्याग,
मूलगुण, ११ प्रतिमायें या श्रेणियां, २१ उत्तरगुण,१७ नित्यनियम, ७ सप्तमौन, ४४भोजनअन्तराय, १२ व्रत, २२ अभक्ष्यत्याग, और ३ शल्यत्यागों का वर्णन उससे संबद्ध है। जिनके नामों का अलग अलग विवरण भी इसी शब्द की व्याख्या में दे दिया है।
(२) एकही नियम पर अपने तथा जैनधर्म के सम्बन्ध ऐक्य और विपर्यय का परिचय प्रात होता है जिस से तर्कनाशक्ति की वृद्धि हो कर सत्यासत्य के निर्णय करने में अच्छा बोध होसकेगा।
(३) लिपियों तथा न्याय, इतिहास, गणितादि कई विषयों पर की दुई व्याख्या सभी के लिये समान लाभकारी है। ६. कोष के इस खण्ड की विशेष उपयोगिता
कोष के इसी खंडान्तर्गत निर्दिष्ट अन्यान्य उपयोगी शब्दों की भी अकारादि क्रम युक्त एक सूची लगा दीगई है जिसने सोने में सुगन्धि का कार्य किया है। इसके द्वारा केवल "अ" नियोजित "अण्ण" शब्द तक के ही शब्दों का नहीं वरन् 'अ' से 'ह' तक के भी लगभग बा. रह सौ.( १२०० ) अन्य शब्दों के अर्थ आदि का भी बोध इसी छोटे से प्रथमखण्ड से ही हो सकेगा । अतः यह कहना अनुचित न होगा कि यह अपूर्ण कोष अर्थात् प्रथमखंड ही बहुतांश में एक संक्षिप्त पूर्ण कोष का सा ही लाभ पहुँचा सकेगा। . ७. उपसंहार. इसमें सन्देह नहीं कि यह कोष बहुत ही काम की वस्तु है। ऐसा उत्तम कोष सम्पादन करने के उपलक्ष में मैं श्रीयुत कोषकार महोदय को साधुवाद देता हुआ आशा करता हूं कि जैन धर्मावलम्बी महानुभाव तो इस अपूर्व और महत्वपूर्ण गून्थ को अपने मन्दिरों, पाठशालाओं, पुस्तकालयों और घरों में स्थान देंगे ही पर जैनेतर विद्याप्रेमी तथा हिन्दी साहित्य वृद्धि के अभिलाषी महानुभाव भी कम से कम अपने निजी व पब्लिक पुस्तकालयों और विद्यालयों में इसे अवश्य स्थान देकर अपने उदार हृदय का परिचय देंगे जिससे इस महत्वपूर्ण और अपने ढंग के अपूर्व गून्थका प्रचार कस्तूरीगन्ध सदृश फैल कर हिन्दी संसार को एकदम सौरभान्वित करदे । किंबहुना ॥
भवदीय बारावङ्की (अवध)
( बाबुराम बित्थरिया, साहित्यरत्न,
*सिरसागंज जि० मैनपुरी निघासी, रामनवमी, वि० सं० १९८२ ) साहित्य अन्वेषक नागरी प्र० स०, काशी।
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---SEMAN'SE--
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शब्दानुक्रमणिका
पृष्ठ
शब्द
पृष्ठ ।
शब्द
पृष्ठ
शब्द
पृष्ठ ।
.. पूजा २३
१ | अकलङ्कसंहिता १२ | अकृति २० अक्ष माला २६ अइरा २ | अकलङ्कस्तोत्र १२ | अकृतिअङ्क , अक्ष बात(अक्षवाशु), अइलक अकलङ्काष्टक
अकृतिधारा
, अक्षमृक्षण अकच्छ .. ४ अकल्प . १३ अकृति मातृकअङ्क२१ अक्ष संक्रम २८ अकंडुकशयन अकल्पस्थित १३ | अकृति मातृकधारा, अक्ष संचार , अकंड्यक अकल्पित अकृत्रिम
अक्षय अनन्त अकतिसंचित
अकषाय १३ अकृत्रिमचैत्य , अक्षय तृतीया , अकम्पन
अकषाय घेदनीय १३ अकृत्रिमचैत्यपूजा २२ | अक्षय तृतीयावत २६ अकर्ण.
अकस्मात भय १३ अकृत्रिम चैत्यालय, अक्षय दशमी अकर्मन्
अकाम १३ अकृत्रिमचैत्यालय | अक्षयदशमी व्रत , अकर्म भूमि
अकामनिर्जरा १४ अकृत्रिमजिन पूजा २४ अक्षयदशमीव्रतकथा , अकर्माश अकामिक १५ अकृत्रिम जिन- अक्षय निधिवत ,
प्रतिमा, अकलङ्क. अकामुकदेव
अक्षयपद
अकत्रिम जिनअकलङ्क कथा ११ अकाय
भवन, अक्षयपदाधिकारी ,
अकृत्स्न स्कन्ध्र अकलङ्कवन्द्र अकारणदोष
अक्षयबड़
अकृत्स्ना अकलङ्कचरित ११ अकारिमदेव
अक्षय श्रीमाल , अकलङ्कदेव
अक्रियावाद अकारु
अक्षय सप्तमी अकलङ्कदेव भट्ट ११
अक्रियावादी अकालमृत्यु
अक्षर अकलङ्कदेवभट्टारक११
अकर २५
अक्षर मातृका ३४ अकलङ्कदेव स्वामी११
अरष्टि अकिञ्चन
अक्षरमातृकाध्यान ३५ अकलङ्क प्रतिष्ठापाठ११/
अक्रोश अकिञ्चित्कर
अक्षर लिपि ३७ अकलङ्कप्रतिष्ठा पाठ कल्प १२ अकिञ्चित्कर
अक्षर विद्या ३९ । अकलङ्कप्रतिष्टा __ हेत्वाभास ,अक्ष दन्त विधिरूपा १२
अक्षर समास अकलङ्कप्रायश्चित १२ | अकुशलमूला
| अक्षधर
अक्षरसमाल ज्ञान ४० अकलङ्क भट्ट १२ | अकुशलमूलानिर्जरा . अक्ष परिवर्तन
अकालवर्ष
"
अक्ष
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शब्द
अक्षरात्मक
आगनवाहन
..
"
चश्मा
( ३७ ) पृष्ठ | शब्द पृष्ठ | शब्द पृष्ठ | शब्द . पृष्ठ अक्षरज्ञान अगद ऋद्धि
अम्गलुदेव ५५ | अग्निल . ६५ अगमिक
अग्नि ५६ अग्निला , अक्षरात्मक तज्ञान४१ अगस्ति
अग्निकाय
अग्निवाहन अक्षरात्मक शान ४१ / अगाढ़
अग्निकायिक ५६ अग्निवेग . ६५ अक्षरावली - ४१ | अगाढ़ सम्यग्दर्शन५० अग्निकायिकजीव ५७ | अग्निवेश्म अक्षौटी ४२ | अगार ५१ अग्निकुमार . ५८ | अग्निवेश्यायन , अक्षिप्र
अगारी . ५१ अग्निगति अग्निशिख . .. अक्षिप्र मतिज्ञान , अगीत . ५४ अग्निगुप्त
अग्निशिखा ६७ अक्षीण , अगीतार्थ ५४ अग्निजीव
अग्निशिखाचारण
ऋद्धि , अक्षीणऋद्धि
अग्निजीविका , अग्निशिखी अक्षीणमहानसऋद्धि४३ अगुप्तभय ५४ अग्निज्वाल
अग्निशिखेन्द्र अक्षीण महानसिक४३ | अगुप्ति
अग्निदत्त
अग्निशुद्धि अक्षीण महानसा ४३ | अगुरु
अग्निदेव
अग्निशेखर अक्षीणमहालयऋद्धि४३ अगुरुक
अग्निनाथ
अग्निशौच अभीरमधुसर्पिष्क ४३ | अगुरुलघु
अग्निपुत्र
अग्निषेण अक्षोभ अगुरुलधुक ५४ अग्निप्रभ
अग्निसह अक्षोभ्य | अगुरुलघु चतुष्क ५४ अग्निप्रभा
अग्निसिंह अक्षोहिणी अगुरुलघुत्व ५४ अग्निबेग
अग्निसेन अखयतीज
| अगुरुलघुत्व गुण ५४ अग्निभानु अग्न्याभ अखयबड़ | अगुरुलघुत्व प्रति- अग्निभूति
अग्र जीवा गुण ५५ अखाद्य ४४ अगृह अग्निमंडल
अग्रचित्ता अखिलविद्याजलनिधि४६ अग्रहीत
अग्निमानव | अग्रदत्त अगदत्त | अगृहीत मिथ्यात्व५५ । अग्निमित्र भगणप्रतिबद्ध ४६ | अगृहीत मिथ्यादृष्टी५५ अगदीन मियादृष्टी५५ अग्निमित्रा
, ६४ | अगूनाथ अगणितगुणमिलय५० | अगृहीतार्थ ५५ | अग्निमुक्त अगूनिवृत्ति अगदु ५० भग्गल ५५ । अग्निर
५५ । अग्निर ६५ ' अगूनिवृत्ति किया ,,
अगूदेवी..
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, अजवाडा
अचल
अगोदक
अघ
( ३८ ) | शब्द पृ० शब्द पृ०1 शब्द पृ० शब्द पृष्ठ | अगूभानु
अङ्कगणना | अङ्ग प्राप्ति १२८ अङ्घि,क्षालन १३५ अश्रु त स्कन्ध , अङ्कगणित १०३ , अङ्ग रक्षक १२६ अचक्षु १३६ | अगूसेन , | अङ्कनाथपुर १०३ अङ्गधती अचक्षुदर्शन , अगूसोच(अगूशीच)७२ अङ्कप्रभ १०४ अङ्गघाह्य अचक्षुदर्शनावरण , अगृहण , अङ्कमुख | अङ्गवाह्यश्रु त ज्ञान ,, | अचक्षुदर्शनि , अगृहीत मिथ्यात्व ,, | अङ्कलेश्वर १०४ अङ्गस्पर्शन दोष १३१ अचङ्कारितभट्टा , अगृहीतार्थ अङ्कषिद्या | अङ्गामर्श दोष १३१ अचर १३७ अगायणी पूर्व , | अङ्क संदृष्टि ११३ | अङ्गार
अचरम १३७ अग्राह्य धर्मणा ७५ | अङ्का ११४ अङ्गारक १३२
अङ्कावतंसक " अङ्गार दोष अचलकीर्ति १३९ अग्लानि शुद्धि ७६ | अङ्कावती ११५ | अङ्गार मर्दक १३३ अचलगढ़ अङ्कुरारोपण , अङ्गारवती
अचलग्राम १४० अघकारीक्रिया , अङ्करारोपणविधान ,, | अङ्गारिणी , अचल द्रव्य अघटित ब्रह्म अङ्कुश , अङ्गिर
अचल पद
अङ्गल अघन अंकुशा ११६
अचलपुर अघनधारा | अङ्कुशित दोष , | अंगुलि चालनदोष ,, अचल भ्राता ११
| अंगुलि दोष
अचलमेरु अघनमातृक धारा ,, अङ्ग चूलिका १९७ | अंगुलि भ्रमणदोष , अचलस्तोक अङ्गज अंगुलिभ्र दोष ,
अचला अघातिया ७६ अङ्गजित , | अंगुष्ठ प्रदेशन १३५ अचलावती.
(अबला). अघातिया कर्म , अङ्गद " अंगुष्ठ प्रश्न अचलित कर्म अघोर . ५ अङ्गन्यासक्रिया , अंगुष्ठ प्रसेन अचाम्ल
(आचाम्ल), अघोग्गुण ब्रह्मचर्य ,, | अङ्गपण्णत्ती ११८ | अंगुष्टिक
(आचाम्लवद्धनतप),, अघोरगुण ब्रह्मचर्य- | अङ्गपाहु , | अंगेरियक
अचित १४२ ऋद्धि, अघोरगुणब्रह्मचारी | अङ्गप्रविष्ट ११६ | अङ्गोपाल अचितउष्णविवृत , अङ्क ८५ | अङ्गप्रविष्टश्रु तशान ,,' अङ्गोस्थित अचितउष्णसंवृत ,
आल पृथकत्व १३४
अघनपान
.. ७८
अघमी
अचाम्ल तप.
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पृ.]
शब्द
शब्द
पृ० शब्द पृष्ठ | शब्द पृष्ठ । अचितउष्णसंवत. अञ्चण्ण १५१ | अजितम्जय १८२ अजीवकायअसंयम१६१.
विकृत१४२ (आधण्ण) भचितक्रीत , | अच्च तावतंसक , अजितदेव १८४ अजीवकाय
- असमारम्भ १९२ अचितक्रीतदोष , अच्छ
अजितनाथ
अजीवकाय आरम्म, अधित जल , अच्छवि
अजितनाथपुराण , अजीवकाय संघम अचित द्रव्य १४३ | अच्छिद्र
अजितनामि अजीव क्रिया , अचित द्रव्य पूजा , अच्छुत्ता
अजितन्धर
अजीवगत हिंसा ,
(जितन्धर) १८५ अचितपरिगृह १४४ अच्छे दोष अजितपुराण अजीव तत्व २०३
(आच्छेद्यदोष) १५२ अचितफल अच्यवन
अजितब्रह्म अजीव द्रव्य अचित योनि , अच्यवन लब्धि , अजितब्रह्मचारी १८७ अजीव धष्टिका , अचितशीतविघृत१४६ अच्युत अजितवीर्य , अजीव देश : अचितशीतसंवृत , | अच्युत कल्प १५८ | अजितशत्रु १८७ | अजीव नि:श्रित । अचितशीतोष्ण- अच्युतस्वर्ग , अजितषेणाचार्य , अजीव निःसृत २०४
. विवत अचितशीतोष्ण- ." अच्युता अजितसागरस्वामी , अजीवपद् . .
संवृत " अचिरा
अच्युतावतंसक , अजितसेन . , | अजीष पदार्थ , (अइरा, ऐरा)
अच्युतेन्द्र अजितसेनआचार्य१८८ अजीव परिणाम , अचेतन अज
अजितसेनचक्री १८६ अजीव पर्यव , अचेल
अजय १५६ अजितसेनभट्टारक १६० अजीव पृष्टिका , अचेलक अजयपाल
अजितसेना अजीव प्रदेश ५ अचेलक व्रत १४७
अजरपद १६३ | अजिता , अजीव प्रज्ञापना , अचैलक्य(आचेलक्य), अजाखुरी
अजीव १९१ | अजीव प्रातीतिको , अचौर्य
अजात कल्प १६५ अजीव अप्रत्या- अजीयमाद्ध अचौर्य अणुवत ,
ख्यानक्रिया , अजात शत्रु
अजीव-अभिगम, अजीव भाव अचौर्य महाधून १४९
१७० अजीव-आनायनी , भजीवभावकरण , अचौर्यव्रत १५० अजानफल
अजीव-आरम्भिका , अजीपमिश्रिता , अचौर्यव्रतोपवास , अजित
अजीवआशापनिका, अजीव राशि , अचौर्याणुघूत १५१
| अजितकेशवलि१८१. अजीवकाय , अजीव विचय
अजाता
।
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शब्द पृष्ठ | शब्द पृष्ठ । शब्द पृष्ठ | शब्द · पृष्ठ । अजीव विभक्ति २०५ अजनक २१२ अट्ठाईस इन्द्रिय- अठारहजमरण२४१
विषय २२२ अजीववैक्रयणिका , अञ्जनगिरि , अट्ठाईस इंद्रिय अठारह जीव
विषयनिरोध , समास २५२ अजीववैचारणिका , अञ्जनचोर २
अट्ठाईसनक्षत्र , अठारह दोष अजीववैतारणिका , अञ्जनपुलाक २१४
अट्ठाईसनक्षत्राधिप ,, | अठारह द्रव्यच तअजीववैदारणिका ,, अञ्जनप्रभ
भेद २४३
अट्ठाईस प्ररूपणा२२३ अजीवसामन्तोप- अञ्जनमूल
अठारह नाते , . निपातकी ,
अट्ठाईसभाव २२४ अजनमूलिका ,
अठारह पाप २४५॥ अजीव स्पृष्टिका
अट्ठाईसमतिज्ञान(अजीवपृष्टिका) , अजनरिष्ट
भेद २२५ अठारह बुद्धिद्धि ,
अट्ठाईसमूलगुण २२६ अजीवस्वाहस्तिका, अजनवर
अठारह मिश्रभाव ,, ___(अजनक )२१५ अट्ठाईस मोहनीयअजीवाधिकरण- अजना(अजनी) ,, कर्मप्रकृति २२७ अठारह श्रेणी आस्तव ,
अट्ठाईसश्रेणीबद्धअजीवाभिगम २०६ अन्जनाचरित्र २१८ मुख्य बिल २२८ अठारहश्रेणीपति२४६
अट्ठानवे जीवअजैन - अंजनात्मा
समास २२8 अठारह श्रेणीशूद्र ,,
अट्ठावनवन्धयोग्यअजैन विद्वानों अञ्जनाद्रि - २१६ कर्मप्रकृतियां २३० अठारहसहस्रपदकी सम्मतियां
अठत्तरजीवविपाकी- विहितआचाराग, अजैर्यष्टव्यं
अञ्जना नाटक , कर्मप्रकृतियां २३२ | अठारहसहस्तमैथुनकर्म। (अजैहोतव्यं) २०७
अठत्तर विदेहनदी , अजोग २०८ अञ्जना पवनञ्जय
अठारह सहस्त्र. नाटक ,, । अठाई कथा २३३
शील २४६ अज्जुका अंजनासुंदरीनाटक,
अठारह स्थान २५९।
अठाई पर्व , अज्ञान अजिनी
अठासी ग्रह ,
अठाई पूजा , अज्ञानजय अभिजकजय
अड़तालीसअंतरद्वीप (पवनजय) अठाई रासा २३६ (लवणसमुद्रमें)३२३ अज्ञानतप अन्जुका
अड़तालीसअंतरद्वीप
अठाई व्रत , | (कालोदकसनुद्र में, अज्ञानपरीषह अजू
अठाईव्रतउद्यापन२३६ | अड़तालीस दीक्षाअशानपरीपहजय २०९ अटट
त्वयक्रिया,
अठाईव्रतकथा , अड़तालीसप्रशस्त-" अशानमिथ्यात्व " अटटाङ्ग
कर्मप्रकृति ,
अठाईव्रतोद्यापन २४० | अड़तालीस मति-" अज्ञान-वाद अट्टन (अट्टण)
ज्ञानभेद,
अठाईब्रतोद्यागन- अड़तालीसव्यंजनाअज्ञानवादी २११ अट्ठकवि (अर्हद्दास),
विधि २४१ वग्रहमतिज्ञानभेद२५४।
अठारह कूट " अञ्चलमत अट्ठमत २२१
अड़तीसजीवसमास, अट्ठाईसअनुमोना- अठारह क्षायोप- अड़सठ क्रिया अञ्जन
भास , शमिकभाव, (६८ क्रियाकल्प),
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________________
पृष्ठ २७४ २७६
शब्द पृष्ठ । शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ। शब्द अड़सठ पुण्य- | अढ़ाईद्वीप पाठ- अणीयल
अणुव्रत प्रकृतियां२५४ (अढ़ाईद्वीपपूजन)२५९ अड़सठ श्रेणीबद्ध
अणु
अणुव्रती विमान (शतार अणिमा २७०
अण्डज सहस्रारयुगलमें),
अणुवर्गणा २७४
अण्डय्य अणिमाऋद्धि २७१ अढ़ाईद्वीप सार्द्धद्वय
अणवीची भाषण अण्डर द्वीप,ढाईद्वीप) २५५ । अणिमा विद्या ,, (अनुषीचीभाषण),, अण्ण
રહe २७६
कोष के इसी खंडान्तर्गत निर्दिष्टि अन्यान्य उपयोगी शब्दों
की
अकारादि क्रमयुक्त सूची
नोट-कोष के इस खंड में उपर्युक्त सूची के शब्दों के अतिरिक्त यद्यपि बहुत से अ. न्यान्य जैन पारिभाषिक शब्द तथा सैकड़ों जैन ग्रन्थों, सैकड़ों जैन अजैन ऋषि,मुनि,आचार्यों, सैकड़ों ग्रन्थ लेखक या अनुवादक पण्डितो व अन्य व्यक्तियों और सहस्रों अन्यान्य वस्तुओं के नाम आदि स्थान स्थान पर उनके अर्थ या कुछ विवरण आदि सहित आये हैं जिन सर्व का परिचय तो सम्पूर्ण खंड को पढ़ने ही से मिलेगा, तथापि उनमें से कुछ मुख्य मुख्य या अधिक उपयोगी शब्दों का परिचय प्राप्त करने के लिये निम्न लिखित सूची विशेष सहायक होगी जिसके द्वारा केवल अनियोजित शब्दों का, और वह भी लगभग एक तिहाई भाग ही का नहीं वरन् प्रकार से हकार तक के भी बहुत से शब्दों के अर्थ आदि का परिज्ञान इसी छोटे से प्रथमखंड से प्राप्त हो सकेगा। अर्थात् इस सूची की सहायता से यह अपूर्ण कोष ही एक छोटे से संक्षिप्त पूर्णकोष का भी कुछ न कुछ अंशों में काम दे सकेगा। - शब्द पृष्ठ । कालम
पृष्ठ। कोलम अद्भुत संख्याएँ, नोट ५ १०१।२
अधिगमज मिथ्यात्व ५,३६३, नोट२ २५१ अतिचार (लक्षण), नोट १४ । २ ।
अनक्षरात्मक शब्द जन्यविद्या, ३९।२, अतिचार २५ (पंचाणुव्रत के) २७५ । १,२
: मोट१ १०५। १. अतितुच्छ फल (व्याख्या), नं०२० ४६ । १ | अनक्षरात्मक श्र तज्ञान २ ... ४०।२. अतीचार, नोट १४८।२ अननुज्ञापन
१४६।२ अत्तिमन्बे १८६।२ अननुवीचि सेवन
१५९ । २ अथाना (व्याख्या), नं०६ ४६ । २ . अनुरक्षा भय
१३।२
| अनाचार (लक्षण), नोट : १४८।२ अदत्तादान विरति(अचौर्या गुप्त) १४७ । १
अनायतन ६
१४। १,२ अद्धा पल्योपमकाल १०७ । १,१११।२ अनिन्द्रिय विषय
२२२ । १ अद्धा सागरोपमकाल. १०८ ॥ १,११२। १ अनु (अणु), नोट ३
२७४।९...
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________________
१४ार १५०१
( ४२ ) शब्द पृष्ठ । कालम | शब्द
पृष्ठ । कालम अनुजीवी गुण
५५। | अभक्ष्य २२ ( अखाद्य ), नोट ४४१,2 ५२४ अनुरारोपपादिक दशांग १२२॥१ अभयकुमार २५। २,१२३११ नोट अनुपगूहन
अभिचन्द्र
४३12 अनुपरोधा करण
अम्भोधि
४४।१ अनुपस्थापन प्रायश्चित
५०१ अनुव्रत
अभ्यन्तर तप ६, नोट ३
२७४।2 अनुभय वचन
१२६ । १ अयाज
१४९। 2 अनुमानाभास
२२१११ अर्ककीर्ति . .
२७12 अनैकान्तिक हेत्वाभास
२०११ अर्जुन (पूर्वभव) अन्तःकृत् केवली, नोट २ १२२।१ | अर्थपद
४०।१ अन्तःकृदशांग
१२१॥2
अर्थ प्रकाशिका अन्तरंग धर्मध्यान २०४, अर्थावग्रह
४२ । १, २२६।१ अन्तरंग तप ६, नोट ३
१३४, अर्हद्दास कवि
- २२० 1 2 अन्तर द्वीप ४८
२५३११ अर्हन्त (अर्थ), नोट २ १७४ । १ अन्तर द्वीप ४५४१९५४, २५८/१,२,२५६।१,2 | अर्हन्त पासा केवली . २४।१ अन्तरमार्गण २२३॥2 अलौकिक गणित 8०।१, १०६।१
8०।१, अन्तराय ( भोजन ) ४,४४ ५३,, अवर्ग .
२०१३ अन्तरीक्ष निमित शान, नोट ४ २५३।१,२ | अवर्गधारा
२०१२ अन्धक वृष्णि
४३.2
अवर्गमूल अग्धपिक, नोट २ १२४६१ अवात्सल्य
१४१ अन्यदृष्टी प्रशंसा १४॥2 । अविद्धि, नोट
१२४॥ अन्यदृष्टी संस्तव
| अविनाशी पद
३०१ अन्वय दृष्टान्ताभास २२१, अविपाक निर्जरा
२०१२ अपघात १५.१ अशुद्ध प्रशस्त निदान
६९/2 अपरोपरोधाकरण १४६१ अष्ट अगद ऋद्धि
५०११,२ अपवर्तनघात
१६॥2
अष्ट अप देवियों ( इन्द्र की ) १५७११ अपहृत संयम
२८१ अष्ट अङ्ग (शरीर के)
८०२ अपायविचय धर्मध्यान
३५॥2 अष्ट अङ्ग (निमित्त शान) . १९७१ अपिंड प्रकृति २८
अष्ट अंग (गणित)
१०३२ अप्रभावना સ્કાર অg অন মাথা
२२३३२ अप्रशस्तकर्म
अष्ट उपामलोकोत्तरमान १०६।१,२ अप्रशस्त निदान विटामा अष्ट ऋद्धि (नाम)
४२२२ अप्राप्यकारी इन्द्रियां २२६।१ अष्ट गन्धर्व विद्या
१५-१ अबुद्धिपूर्वा निर्जरा • २०12 | अष्ट गुण (सिद्धों के)
પૂજાર
१४,
८४।१
.
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________________
-
( ४३ )
शब्द
पृष्ठ । कालम
शब्द
पृष्ठ । कालम
भा
१४॥"
५२,
३५३२
२४६,
अष्ट चत्वारिंशत मूलगुण अष्ट चारण ऋद्धि
६७१ आकार योनि भेद
२४५।१ अष्ट दिक्पाल (नाम)
५६।२ आक्षेपिणी कथा, नोट
१२२२२ अष्ट दैत्य विद्या, नोट १
१५८ आखातीज
२८२ अष्ट दूषण (नाम ), नोट १, २ १४।१,२
आगमवाधितअकिञ्चितकरहेत्वाभास २०११ अष्ट द्वीप, नोट २
२३३।१ आगम शतक
२३३२ अष्ट निमित्त शान
१२७१ आग्रायणीयपूर्व
१२४१ अष्ट परिकर्माष्टक
१०५२ आचाम्लतप
१४१।१ अष्ट मद (नाम), नोट १, २
आचाम्लवद्धन तप ।
१४१।१ अष्ट मूलगुण
आवारांग
१२०११ अष्ट शती
१०११
आज्ञाषिचय अष्ट शुद्धि (लौकिक)
आत्मघात
१५॥१ अष्ट शुद्धि (संयम)
२८।१ आत्मपरतः नास्तिवाद ।
૨૪૨ अष्ट स्पर्शनेन्द्रिय विषय
२२२११
आत्मवादपूर्व अष्टमधरा ( अष्टम भमि) १५३।२
आत्म स्वतः मास्तिवाद
२४॥२ अष्टाक्षरी मंत्र
३६, आत्मांगुल
१३३१२ अष्टादश सहस्त मैथुन
आदि पुराण
* १०२ अष्टादश सहन मैथुन (प्रस्तार) - २४८
आध्यात्मिक धर्मध्यान
२०४२ अष्टादश सहन शील
२४६।३ आभ्यंतर धर्मध्यान
२०४१३ अष्टादश सहन शीलांग कोष्ठ
२५०
आभ्यंतर धर्मध्यान के भेद ... २०५१ अष्टान्हिका कथा
२३६१
आयुकर्म अष्टान्हिका पूजा
२३३१२ आर्तध्यान ४
.६६।२ अष्टान्हिका व्रत
२३६, आश्वलायन
१२४।१ अष्टान्हिका व्रत उद्यापन
आस्रव
२०५ । २ अष्टान्हिका वृत्तफल
आहार दोष ७, ४६
१३२ । २ अष्टान्हिका व्रतपालक पुराण प्रसिद्ध
आहार शुद्धि २१, १५० । १ पुरुष, नं० १२ २३८२ असंख्यात लोक प्रमाण, नोट१ २७६२ असत्य वचन
१२६१ | इक्कीस औदयिक भाव... २२१।१ असिद्ध हेत्वाभास
२०६१ इकोस उत्तर गुण (श्रावक के) अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व
१२४॥२ इकीस गुणयोनि भेद १४५। अस्तेयाणु व्रत ।
१४७१ | इक्कीस संख्या लोकोत्तर मान 80-६७ अस्थितिकरण .
. . १४।१ । इज्या (पूजाभेद)
२३३ । २ अहिंसा व्रतोपवाल, नोट . . १५०३ इन्द्रक बिल ४९
२२८।१,२
२३७,, २३८,,
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________________
(४४ )
-
-
शब्द
पृष्ठ । कालम
शब्द
पृष्ठ । कालम
इन्द्रक विमान, नोट४ १५४। 2 | उपशम भाव
२२५।१ इन्द्रध्वज पूजा
उपासकाध्ययनांग
१२१ । 2 इन्द्रति गौत्तम ६०12, ६१ । १,2 उप्पादज
२७६। 2 इन्द्रिय ५७। 2 उमास्वामी
१०।१ इन्द्रिय विषय २८ २२२ । १ / उलूक
१२४ । १ इन्द्रिय विषय निरोध २८
ऊ . इप्वाकार पर्वत ४
२५७।१ | ऊमर
४७।१ इहलोक भय
१३12
ऊर्जयन्तगिरि ( गिरिनार तीर्थ). १६३ । १
ईर्यापथ शुद्धि ।
ऋजुदास , नोट
११२।१ ईशान तत्व
ऋद्धि ६४
४२। 2 ईश्वर परतः नास्तिवाद
२४12 ऋषभदेव के गणधर८४ ईश्वर स्वतः नास्तिवाद ईषत् कषाय
एकट्ठी
३५। १,१०१। 2 ईषत् प्राग्भार ...१५३। ,
| एक त्रिंशत्यक्षरीमंत्र
३७ । १ एक सप्तत्यक्षरी मंत्र
३७।१ उत्तर कर्म प्रकृतियां.. २३१ । 2 | एकाक्षरी मंत्र
३६ । १ उत्तर गुण (श्रावक के) २१, १५ ५३ । १, एकादश प्रतिमा
५२ 1 2 . १४ । २, नोट ३ एकादशाक्षरी मंत्र
३६।, उत्तर पुराण १७। 2 एकान्तमिथ्यात्व
२५ । १ उत्तराध्ययन
१. १३०12 एकान्तवाद
२४ । १,2 उत्तरेन्द्र ६.. ३०१२,१५५12,2 एकान्तवाद ३६३
१२३ । 2 उत्तरेन्द्र पट्टदेवी ८
७०।१
| एकान्त वादियों के प्रसिद्ध आचार्य १२४ । १ उत्पादपूर्व
एकाशन
१४२ । १ उत्संख्यक गणना ८७12 एकीभाव स्त्रोत्र
१३।१ उत्सर्पिणी काल
११२।१ एकेन्द्रिय जीव ५
५७। 2 उत्सेधांगुल १३३ । 2 एकोपवास
१४२।१ उदराग्नि प्रशमन भिक्षा- ...२८।१ एलापुत्र, नोट
१२४ । १ उद्गमदोष .
१४२ । उन्य आदि सप्त भ्राता ४४।१ ऐन्द्रदरा, नोट
१२४।१ उद्धार सागरोपम
१०७ 12 ऐरादेवी उपमन्यु
१२४ । १ ऐलक ( अइलक) उपमाळोकोत्तर मान ८ १०६ । 2 | ऐश्वर्यमद
१४।१।
१२४।१
-
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________________
(४५ )
प्रहाकालम
प्रो
१४१ ५१
• १३१२
१६६१ १२१ २४१
२४.१. १४०१
१४१ २५२,१६५/२
पृष्ठ । काळम | शब्द
कांक्षा ३६१
काय, नोट १ . ३६१
कायशुद्धि कायोत्सर्ग दोष ३२
कास ॐनमःऋषभाय
२९।१ ॐ नमो नेमनाथाय
२६२
कार्तिकेय, नोट ॐ श्री ऋषभायनमः
कालमास्तिवाद
२६१ ॐ श्री नेमनाथाय नमः
काल परतः नास्तिवाद
२६/२ * हीं अष्टमहाविभूति संशाय नमः २३७।२
काल लोकोत्तरमान औ
काल स्वतः नास्तिवाद औदयिक भाव २१ २४।१,२, २२५।१
कुगुरु अनायतन
कुगुरु पूजक अनायतन औपशमिकभाव
२२५।१
कुणिक औषधि ऋद्धि ८
५०२
कुंड ४५० क
कुथुमि कठ, नोट
२४११
कुदेवअनायतन कण्ठी, नोट
१२४ार
कुदेवपूजक अनायतन । कदलीघात
११२
कुधर्म अनायतन कन्दमूल
कुधर्मपूजक अनायतन कपिल, नोट
१२४१ करणानुयोग, नोट
१२२१२ कणेन्द्रिय विषय ७
कुन्दकुन्दाचार्य २२२११
कुमारपाल कर्मप्रवाद पूर्व
१२६/२
कुम्भनऋषि कर्म भूमि
२५६१
कुक, नोट ८ कल्की (प्रथम.)
१८३।१
कुलभेद कल्की (अन्तिम)
१८३।२
कुलमद कल्पकाल
११२।१
कुलाचळ ३०+१२५० कल्पकाल ( अन्यमत) . २१२२
कूट (शिखर) कल्पवासी देवों के भेद ११, नोट
कृतिअंक कल्पवृक्ष भेद १०
२५६२
कृतिकर्म कल्प व्यवहार
१३०१२
कृत्रिम व्यवहार कल्पाकल्प
कृष्ण, नोट २ कल्पित तीर्थकर
१८२१
| कृष्ण की पटरानियां द कल्याणवाद पूर्व
१२००१ | कौत्कल, नोट काकुस्थ चरित
१३।१' कौशिक, नोट
४७/२
कुन्ती
१२४१ १४१ १४१ १४।१ १४१
४३३२ ११।१२ १६०१
५०१२ ५८१ ५७१ १४१ :५७१ १०४१
२०१२ १३०१२ १४८
१२६१
१३१।१
१२४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
क्रिय ऋद्धि २
क्रिया ५३
क्रिया
क्रिया ४८
क्रिया ६८
क्रिया १०८
क्रिया २५
क्रिया ७
क्रियावाद
क्रियाविशाल पूर्व
क्रीतदोष
क्रूर
क्रौं
क्लीं
क्ल
क्षायिकभाव
क्षायोपशमिक भाव
क्षां क्षीं क्षू क्षः क्षीरकदम्ब, नोट २
क्षुभित वारिध
क्षेत्रऋद्धि
क्षेत्रपाल ४ (श्री ऋषभदेव के) क्षेत्रविपाकी कर्मप्रकृति ४
क्षेत्र लोकोत्तर मान
खरकर्म १५
गजकुमार गजपंथा सिद्धक्षेत्र
गति
गति ४
ख
ग
शब्द
६७|१| गन्धर्वसेना
५३ १.७०१२,७१११ | गन्धदस्ती महाभाष्य गन्धिनी
गर्त्त पूर्ण वृत्ति
गर्त्तपूर्णी भिक्षा गर्भज
गणधर (श्री ऋषभदेव के ) ८४
गणधर (श्री महावीर के ) ११
गणितसार संग्रह
( ४६ )
पृष्ठ | कालम
७१ । ३
७१ २ २५३ २
२५४१९
२५४/२
७६/२ | गर्भज जीव ३
२५४ । १ | गान्धारी
२४|१ | गार्ग्य, नोट गिरिनार तीर्थ
१२७/२
१४२।२ | गुण
२५|२| गुण (द्रव्य के ) २७६
३६/१ गुणभद्राचार्य
३६/१ गुणयोनि भेद
३६।१ | गुणवत ३
२२५/१ गुण (सम्यग्दृष्टी के ) ६३
गुण (सिद्धों के ) ८, नोट ३ गुणस्थान १४
"
४२/२
१५६१ गोचरी भिक्षावृत्ति
८५११
गोत्रकर्म
२०६२
गोम्मटराय (चामुंडराय )
गौत्तम गणधर
गौरी
५९/२
२५/२
२१३/२
પૂટાર
1912
८६।१
પૂર
95
३६/१
२०८|१ | गुरु मूढ़ता
१४।१
४४।२ गृहीत मिथ्यात्व २४/१,२,२५/१,२०९ / २:२११/१ गोवरी भिक्षा,
२७/२
घन, घनांक घनमातृकधारा
पृष्ठ | कालम
२५/२
१०/१
२५/२
२.८/१
ग्यारह गणधर ( श्री महावीर के )
ग्यारह स्थान चन्दोवा
ग्यारह प्रतिमा
ग्यारह हेत्वाभास
ग्रह ८८
For Personal & Private Use Only
घ
19
२७६१२
५७.२, २७६/२,
१६५/२
१२४।१
१६३।१
२४/२
५५/१
१७/२
१४५।१, २
५२/२
१४/२
પૃષ્ઠાર
२२३/१,२
"3
८३।१
१८९/१
७२,६०/२
१६५/२
७२
५३/२
५२/२
२२११२
२५१/२
७७ १,२
७८/२
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
घनमूल
घनांगुल
प्रतिकत्वे अप्रशस्त निदान
घोरबहा
घोर ब्रह्मचर्य
चतुराक्षरी मंत्र
चतुर्थक उपवास,
चतुर्दश गुणस्थान चतुर्दश धारा
चतुर्दश पूर्व चतुर्दश पूर्वागप्रज्ञप्ति चतुर्दश प्रकीर्णक
चतुर्दश मार्गणा
चतुर्दश लक्षण ( श्रावक के )
चतुर्दश वस्तु चतुर्दशाक्षरी मंत्र
चतुर्मुख कल्की, नोट १
चतुर्विंशति यक्ष
चतुर्विंशति योगद्वार
चतुर्विशति शासन देवी
चन्दोवा स्थान ११ चन्द्र प्रज्ञप्ति
चन्द्रप्रभु तीर्थङ्कर के पूर्व भव
चन्द्रप्रभु पुराण
नोट २
चरणानुयोग, नोट
चरमासेरी, नोट २
चरमशरीरी पुरुष, नोट ३
चरमोत्तमशरीरी नोट २
चलितरस भोजन
चामुण्डराय
चार अन्वय दृष्टान्ताभास
चार दान
चार ध्यान
चार व्यतरेकदृष्टताभास
( ४७ )
पृष्ठ | कालम
७=१
१३४:१
७०।१
४४।२, ४५/१
=५/२
७२/२
३७/१
१८३।१
१८१/१
७३।१
१६० 12
५३.२
१३३।१
१८९/२, १६०११
५५/२
चूर्णी
- ३६।१ | धूलिका ( उपांग ) १४२/१ चूलिकाप्रकीर्णक प्रज्ञप्ति
२२३|१ | चेटक
१०६/२ चेलिनी (चेलना) ७|१, २५/२, १६५/२, १६७ २ ७३|१ | चौदद धारा (नाम )
१०६/२
१२८/२ चौरार्थ दान
१४८।१
१४८।१
१३०/१ चौराहृत ग्रह २२३।१
च्यावित शरीर
१६/२
५१/१
१२२/२
१६।२
"
शब्द
चार शिक्षाव्रत
चार हेत्वाभास
53
चारण ऋद्धि
चारित्र शुद्धि व्रतोपवास, नोट २ चिलाति पुत्र, नोट
४२/१
१८८२, १८६/१, २, २७६12
२२१12
छब्बीस संस्कार
छिन्न मस्तक महावीज
छ
ज
जगदूश ( धन कुबेर जगडूशाह )
जतुकर्ण, नोट २
जन्मविधि ३
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति
जयकुमार
जय धवल प्रन्थ
जरत्कुमार
पृष्ठ | कालम
५२/२
२०११
६७/१
१५०12
१२२११
१०/१
१२७/२
१२=12
For Personal & Private Use Only
७। १
५३।१
जा
जरायुत
जलगता ( चूलिका ) -
जलधि
जल मन्थन ( कल्की ), नोट २ ६५/१,१८३/२
जाति मद
५३।१
जाम्बवती
३५12 | जितशत्रु जिन, नोट
२२१12
३६/१
१६१।१
१२४/१
912
१२३।१
પાર
७५।१
२७/१
55
२७६/२ १२७/२
४४. १
१४।१
१६५।१
२५/२
२०६/१
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ । कालम
पृष्ट । कालम शब्द । जिनदास ब्रह्मचारी
२५६०३ तद्भव मोक्षगामी पुरुष जिनधर्म, नोट
२०६६१ तप १२ जिनसेनाचार्य
१०१२, १७२ तपोऋद्धि ७, नोट जिनेन्द्र कूट, नोट
१०४१ सारे संख्या जीवगतहिंसा ( १०८ भेद ) १९३६१ तीन करण जीवगत हिंसा (४३२ भेद) १९८, १६४ तीन गुणवत जीवविपाकी कर्मप्रकृति ३१,७८-८५।१,२३२११, तीन गुप्ति जोध समास ५८१, नोट ६, २२९/१, २४२११ तीन धर्मोपकरण, नौट १ जीवाधिकरण आस्रव
२०५।२ तीन पारिणामिक भाव जीवाधिकरण हिंसा
१६३१ तीन मकार जूनागढ़, नोट २, १६३६२,१६४।१नोट ४ तीन मृड़ता जैनधर्म
२०६१ तीन योग जैमिन्य, नोट २
१२४१ तीन रत ज्योतिषी देवों के भेद ९
१२हर तीन शल्य ज्ञातृधर्मकथांग
१२११२
| तीर्थकाल, नोट ज्ञानप्रवाद पूर्व
१३५।२ | तीस चौबीसी (नाम ७२०) शान लोचन, नोट २
१३।१ तेरहद्वीपपूजन ज्ञानेन्द्रिय, नोट ५ .
५७२ तेलाव्रत, नोट २ शानोपकरण, नोट १
१४६६१ त्यक्त शरीर
त्यक्त सेवा इवीं, नं० (४)
३६१ त्रयाक्षरी मंत्र
प्रयोदशाक्षरी मंत्र ठेकचन्द्र ( पंडित ), नोट २ २३११ त्रयोविंशत्यक्षरी मंत्र
मलकायिक जीव डालराम (पंडित) २३४।१ नोट २,२६०।२नं०४
निगुप्ति व्रतोपवास
त्रिम क्रिया ह
त्रिमकार ढाईद्वीप (अढ़ाईद्वीप)
२५५१
त्रिमूढ़ता
त्रिलोक बिन्दुसार पूर्व णमो अरहताणं
३६।२ त्रिलोकसार पूजा नमो सिद्धाणं ( इत्यादि) ३७.१ त्रिवर्ग, नं० (४)
त्रिशल्य सदाहृतादान
१४८१ तत्वार्थ राजवार्त्तिकालंकार १०।१ | दक्षणेन्द्र ६
१६.२ ३०१
५३३१ ८५।२ २५२।१ २५१११
५२.२ ५५११ १५९।१,२ २२५२ ५।२ १४॥२ २४७२ ५३१ ५२२
१२२१ २६५-२६६
२३३२ १४२१
१६२ १४६२ ३६१ ३७१
सवा
५७२ १५१३१ ५३१ ५२२ १४२ १२७१६ २३३२ ५१२ १४१
DARA
३०.२,१५५:१,२
-
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________________
..३६,
धमे
... (४६ ) पृष्ठ । कालम शब्द
पृष्ठ । कालम दक्षणेन्द्रों की पट्ट देवियां - ७०१ द्वादश भाग
१२५।२ दर्शन, नोट १३६६१ द्वादश व्रत
.....५२।१,२ दर्शन भेद ४, नोट .
१३६।१ | द्वादशाक्षरी मंत्र दर्शनावरणीय कर्म १३६२ | द्वादशांगपाठी, नोट ३
४१।१ दश अवस्था या करण (कर्म), नं०८ १२६।,, द्वादशांग प्रज्ञप्ति
१२८१ दंश कल्पवृक्ष २५६२ द्वारकापुरी, नोट ३
१६४ार वश काम ग २४७११ | द्वाविंशत्यक्षरी मंत्र
३७१ दश प्राणिसंयम २४६/२ | द्वितीय श्रु तस्कन्ध
७४|१.२ दश प्रायश्चित तप
५०१ | द्वितीय सिद्धान्त ग्रन्थ । दश मैथुनकर्म २४७१ द्विदल
કાર देश लक्षण धर्म २४६२ द्वीपसागर प्रज्ञप्ति
१२३३१ दश वैकालिक १३०, द्वीपीयन मुनि
७१ दश सत्य
१२६३१ दशाक्षरी मंत्र
३६२ धन्यकुमार, नोट
१२२१ दीक्षान्वय किया ४८ २५३१२
२०४०२ दुर्योधन
२७१ धर्मचर्चा
...३१०१ दुर्व्यसन ७
धर्मध्यान
सा२,२०४१२ दृढ़वत
४४.१ धर्मोपकरण, नोट १
१४६।१,२ दृष्टान्ताभासद
२३१२ धवल ग्रन्थ
७४।२,७५६१ दृष्टि वादांग
१२३३१ धारण
४३३२. देव मूढ़ता
१४.१ धारणा
१५०, देवागम स्तोत्र
२०११
धारणी देत्यकायन, नोट २
१२४१ धृतराष्ट्र
२७११ दो औपशमिक भाव
२२५३१ धृति
४३१२ दो घ्राणेन्द्रिय विषय
२२२११ दो वाल प्रयोगाभास दोष १८ (जो अर्हन्तदेव में नहीं होते) २४२२२
नकुल (पूर्व जन्म)
६२।१
२२२।१ दोष ४६ (आहार के), मोट १
नक्षत्र २८
१३२।२ दोष५० (सम्यक्त के)
२२२२२ नक्षत्राकार २८, नोट.. १४।१
नक्षत्राधिप २८ द्रव्यगुण २ ५५।१
२५७,,
नदी ४५०+ ८६६०००० द्रव्याक्षर ३१२
१२२।१ दुव्यानुयोग
नन्द, नोट १२२,
१२२११ होपदी (पूर्व भव)
नन्दन, नोट
६२।१ दश अंग ६०२, १९७४१,२, ११६२ नन्दश्री
३६१ मा तए .
.. ५३।१ । नन्दीश्वर पूजा (अठाई पूजा) २३३२२,२३४११
५२।२
..
.:-- - ४४१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
(५०)
......
...
..
..A
IRATRI
Howin
।
शब्द
पृष्ठ । कोलम
शब्द
पृष्ठ । कालम
पंच अणुव्रत
नन्दीश्वर व्रत (अठाई व्रत) २३६।२ न्याय कुमुदचन्द्र, ने०८, . १०१ नन्दीश्वर ब्रत मंत्र २३७,, न्याय चूलिका, नं०५ .
१०१ नेमि, नोट १
१२१, | न्याय विनिश्चयालंकार, नं०७ १०१ नमोकार पच्चीसी
२४१ नमोकार मंत्र, नं० २१
३७११ पक्षाभास ७
२२१॥ नरक ७, नोट २
२१६१ नरक बिल, नोट
पंगुसेना (अन्तिम श्राविका) नोट २ १८३१,, २२८12
पचास दोष नरलोक (अढ़ाईद्वीप) २५५१
१४१ पंच अक्षरी मंत्र
३६॥2 नव क्षायिक भाष
२२५१ नवधा भक्ति
पंच अचल द्रव्य
१४०, १३६१
२७४११,२७५।१,2 नवमकारी सेना
४४१ पंच अतिचार (अहिंसा)
२७५/१ नवाक्षरी मंत्र
३६॥2 पंच अतिचार (सत्य)
२७५12 नागवर्म कवि
१८८,,
पंच अतिचार (अचौर्य)१४७१२,१४९।२,५७५ नामकर्म ( व्याख्या)
८०१
पंच अतिचार नास्तिवाद १३
२४११,2
पंच अतिचार ( परिग्रह परिमाण) निकल पद
३०११ पंच अरूपी द्रव्य
१४012 निगोद शरीर .
२७६१ निज अनुभूति
३०११
पंच इन्द्रियनिरोध नित्य नियम १७
५३॥2 पच उदम्बरफड, नं०७-११ ४७१ 'नित्यनियम पूजा १३।१ पंच कल्याणक पूजा
२३.2 निदान चिन्ता ५
६४ा
पंच कुमार पूजा निमित्तज्ञान ८, २०१०
१२७।१ पंच त्रिंशत्यक्षरी मंत्र
३७१ বিল
१५।१,२०११,2 पंचदश खरकर्म
५६२ निर्वाण गमन (नियम) १८०/फटनोट निर्वाण पद
३०१ पंचदशाक्षरी मंत्र
३७१ निर्धाण पदाधिकारी(अक्षयपदाधिकारी)३०१ | पंच निदान चिन्ता
६६२ नित्यक्षर
| पंच नेत्रेन्द्रिय विषय
२२२१ निवैजनी कथा, नोट. १२२॥2 पंच परमेष्ठी पूजा
२३।२ निषिद्धिका
पंच पाप
२७४, निसर्गज मिथ्यात्व (नैसर्गिकमिथ्यात्व) २५।१,
पंच भाव, नोट ३
२५११ २०९।2,२१११ नेमनाथ का ब्याहला
पंच भिक्षावृत्ति
२७१२ २४१ नैसर्गिकमिथ्यात्व(निसर्गजमिथ्यात्व) २१०१ | पंच महाव्रत
२२६, मोकषाय
१३॥2 | पंच मुनिभेद (संघके आधारभत) ६०१
१२६
१३११
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________________
शब्द
पंच मेरु
पंच रसनेन्द्रिय विषय
पंचविशति मलदोष पंचविंशत्यक्षरी मंत्र
पंडित लालचन्द्र पंडित विनोदीलाल पंडित सदासुख
पण्णी ( पणट्टी ) पदज्ञान, नोट १
पदस्थध्यान
पद्मावती
( ५१ )
पृष्ठ | कालम
१३९/१,२५५२ नं १
२२२।१
१४ १
३७/१
१२५/२
५२.१ पांडु
पंच शब्दोच्चारण प्रयत्न
पंच शून पंच समिति
पंच समिति व्रतोपवास
पंच संयमी मुनि भेद
पटल ( प्रतर )
पंडित चैनसुख
पंडित जवाहरलाल
पंडित टेकचन्द्र
२३४।१
पंडित डालूराम २३४/१ नोट २, २६०/ २नं०४
पंडित द्यानतराय
२३४/१
पंडित नाथूलाल दोसी
२४०/१
पालम्बष्ठ, नोट १
१२१12
पंडित नेमकुमार
२४|१
पिंड प्रकृति १४,६५ ( नामकर्म की ) ८०|१,२ २३४|१ | पिंडस्थ ध्यान
पंडित भविलाल
२३/२
पुण्डरीक, नं०१२
पुण्यपुरुष १६९
33 १३/१
पुण्य प्रकृति ६८
१०१२ | पुद्गल परमाणु राशि
४०/२ पुद्गलविपाकी कर्म प्रकृतियां ६२
२२६/२
१५१।१
४।१
१५४/२
રા
२६०/२नं ५
शब्द
परीषह २२
पल्य (पल्योपम काल )
पाँच सौ महाविद्या
पांडव ५ ( पूर्वभव) पांडित्य मद
३५/२ नोट, पृ० ३६, ३७
१६५।२
१८५/२, १८६/१
पाप ५
२७४,,
पाप १८
२४५।१
पाप प्रकृति ( अप्रशस्त प्रकृति ) ५३ ८४।१
पारण ( पारणा ), नोट १
पाराशर, नोट २
पारिणामिक भाव
पार्श्वनाथ चरित
पार्श्वनाथ निर्वाण काव्य
पार्श्वनाथ (पूर्वभव ) 8
पूरण पूर्वगत
पृथ्वीदेवी
पम्प कवि ( पंप)
परम औदारिक शरीर
१४४ । १
परमाणु, नोट १
२७२ ।१
परमावधिज्ञानी (अक्षय पदाधिकारी ) ३०|१
परिकर्म
१२३।१
परिकर्माष्टक =
१०५/२
१५१।१
परिग्रहत्याग व्रतोपवास परिग्रह परिमाण व्रतोपवास परिहार प्रायश्चित २, ३
१५१।१ प्रकीर्णक विमान
५०११ | प्रज्ञापनीय पदार्थ, मोट ४
पृष्ठ । कालम
२०६१९
१०६/२
२७१/१
पेय पदार्थ ६
पैप्पलायन, नोट २
पोचाम्बिका
६२।१
१४/१
४३२
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पोतज
पौन्मकवि
प्रकीर्णक १४ ( अंगवाद्यश्र ुतज्ञान )
१५०/२
१२४/१
२२५/२
१३।१
१३।१
६६/१
३५/२
१३१४१
१८५/१
८४
२८|2
८५/१
४३ २
७३|१,१२४/१, नं०४
२६/2
७७।१
१२४/१
५५|2
३७६],,
१८५,,
१३०/१
१५४/२
४१,,
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५२ )
२३०,
११११
५२१,
- शब्द पृष्ठ । कालम शब्द
पृष्ठ । कालमा प्रणव मंत्र, नं० (२) ३६१ फूलमाल पश्चीसी
२४.१ प्रणवाद्य मंत्र
२१ प्रतर (पटल ), नोट ४
१५४२
बन्ध व्युच्छित्ति, नोट २ . . २३१।२ प्रतरांगुल
१३४।१
बन्धयोग्य कर्मप्रकृतियां प्रतिक्रमण, नं०४
१३०११ बलदेव, नोट २
२७०११ प्रतिजीवी गुण, नोट १
५५।१ प्रतिमा
बहु बीजा, नं० (४)
४६६१ ५२२
बाईस परीषद प्रतिरूपक व्यवहार १४८,
२०६१
बाड्बलि, नोद प्रतिष्ठाकल्प
१२४१
बादाल प्रतिष्ठापना शुद्धि
१०१।२ २८१ प्रतिष्ठाविधिरूपा
बारह व्रत
१०12 प्रत्यक्ष वाधित विषय अकिंचित्कर हेत्वाभास
बावन अवतार
६, बीस तीर्थंकर
२०११ प्रत्याख्यान पूर्व
१२६४२ बुद्धिऋद्धि १८ ..
२४५।१ प्रत्येक बनस्पति जीव राशि
बुद्धि तत्व २०
३६१ प्रथम श्र तस्कंध
७३/३,७४।१,२ बुद्धिपूर्वा निर्जरा
२०१२ प्रथम सिद्धान्त गून्य
बेलावत
१४२२१ प्रथमानुयोग १२२।२,१२४।३ ब्रह्मचर्य व्रतोपवास
१५.११ प्रभाचन्द्र
| ब्रह्मचारी जिनदास प्रमाणपद
४०.१ ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद २३४।१ प्रमाणांगुल १३३१२ ब्रह्मतत्व
३६१ प्रमाद ( लक्षण, भेद ) १९२१,, ब्रह्माशिव, में (२)
५६।१ प्ररूपणा २८ १२३,२२५ ब्राह्मि
३१२ प्रशस्तकर्म प्रकृति
८४.१२
ब्राझि लिपि ३१४२, ३८।१,३९।१ नोट ३ प्रशस्त निदान
७०११ प्रश्न व्याकरणांग १२२.१ भक्तामर चरित, नोट २
२३॥2 प्रश्नोत्तर रत्नमाला १७।१० भक्ष्य पदार्थ ४, नोट २
७७१ प्रसिद्ध सती १६ १६७।२ भगवज्जिनसेनाचार्य
१७२ प्राण १९२।३ भगवती आराधनासार
१३।१ प्राणप्रवाद क्रिया पूर्व
१२७१ भगवद्गुणभद्राचार्य
१७.२ प्राप्यकारी इन्द्रियां
२२६।१ । भट्टाकलंक प्रायश्ति तप १०
भट्टारक कनककीर्ति २३५/२,२४०॥2 प्रियकारिणी
७।१:२६१ भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति
२३५/,, भट्टारक धर्म कीर्ति
२४०।२ | फल्गुसेना (अन्तिम श्राविका),नोट२ १८३॥2 | भट्टारक प्रभाचन्द्र ::
११॥2॥
१०१
.२५९/२
१०),
५०१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
-
२४०
२८,
शब्द पृष्ठ । कालम शब्द
पृष्ठ । कालम भट्टारक ब्रह्मज्ञान सागर २४०११ महा नदियां ४५०
२५७/२ भट्टारक विनय कीर्ति २३६।,, महा पुण्डरीक, नं०१३
१३१११ भट्टारक विश्वभूषण
महापुराण
१०२ भट्टारक श्र तसागर
२३९.३,२४०,, महा वन १५
२५६२ भट्टारक सकल कीर्ति
२३५/२, २४१,,
महाविद्या ३६६१, नं० (४), २७११ भट्टारक हरिषेण
२४०,,
महावत ५ १४९।२ नोट २,२२६।२, २७४।२ भय ७
१४,
महावीर ( तीर्थङ्कर,पूर्व भव) ६८।१,२ भवनवासी देव ११, नोट
१२६1 महा हृद १३०
२५७१२ भवविपाकी कर्मप्रकृति ४
महेश्वर तत्व
३६।१ भाव २४॥२, २५।१, २२४॥२, २२५।१
माठर, नोट २
१२४, भावना २५ (पंचाणु व्रत की) २७५।१,२
माध्यन्दिन, नोट २
१२४, भावना (अर्थ), नोट ३ .२७६।१
मानार्थ अप्रशस्त निदान
७०11, भावशुद्धि
मानुषोत्तर पर्वत
२५५।१,२ भावाक्षर
३११२ मानोन्मान वैपरीत्य
१४८।१ भाषा१२
१२५२ मायागता.
१२८,, भाषामंजरी
१००१,२ मायाबीज, नं०(३)
३६,, भिक्षावृत्ति
२८१ मायावर्ण, नं० (३)
३६,, भिक्षाशुद्धि
मार्गणा १४
२२३०१,२ भोगार्थ अप्रशस्तनिदान
७०११ मिथ्यात्व
२०९।२ भैक्ष्यशुद्धि
१५०, मिथ्यात्वभाव
२४।१,२५॥१२१०१२ भोगभूमि ( अढाईद्वीप) २५६।१,२
मुकुटबन्ध राजा
२४५।२,२४६।१ भ्रमराहार वृत्ति
२८१ मुक्तिपद ( अक्षय पद)
३०१, भ्रमराहारी भिक्षा
२८१ मुक्ति पदाधिकारी
३०1, मुक्ति शिला
१५३३२ .' म .. मुंड, नोट २
१२४।१ मगधदेश के राजवंश, नोट ४ १६७२। मुनि भेद २, ४, ५, १० मतङ्ग, नोट १
.१४।१,२ मतिज्ञान ३३६ ४२।२,२२५।२
१४१ मद -
१४.२
| मूलगुण (मुनियों के ) २८ ४ २,२२६।२
४३१२ मूलगुण (श्रावक के ) ८,४८ १४॥२, ५२।२। मध्यम पद ४०११ मृत्युमहोत्सव
१३३१ मनुष्य क्षेत्र ( अढ़ाईद्वीप)
२५५ मेघकुमार, नं० (३)
२५२ मनुष्य संख्या ( पर्याप्त), नं०१६ १०१२
मेघनाद
३१।३ मंत्राधिप
३६१ मेघेश्वर
५/२ मरीचि, नोट २
१२४
मैथुनकर्म १८००० - मलदोष २५
२४६२ કાર महाकल्प
मोक्षमार्गी
१११ ११२।१,२, १३१।१नं० ११ महाकुंड ( मुख्यकुण्ड ) ४५० २५७।२
मोहनीय कर्म २८.
२२७११,२ महाक्षेत्र ३५ . ૨૫૫૨ मोह पराजय
१५६२ महाचूर्णी १०१ मौद्गलायन, नोट २
१२४।१ महाधवल प्रन्थ ७५,, । मौन
५३।२
१२१॥२ मूढ़ता ३
| मूढ़दृष्टि
मद्री
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--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
य
यक्ष २४ (२४ तीर्थंकरों के), नोट ३ १८१।१ यशोत्पत्ति (अजैर्यष्ट्रव्यं )
रघुवंश
रत्नकरंड श्रावकाचार रन्न ( कविरत्न )
राजर्षि, नोट १ त्रिभुत्याग व्रतोपवास रात्रि भोजन
रामपुत्र, नोट
राष्ट्रकूट वंशावळी
रुक्मिणी
रूपगता
यमलिक, नोट १
यशोधर काव्य यशोधर चरित
युग्माक्षरी मंत्र
योनि (८४ लक्ष ) ५७/१,५८११, १४५।१नोट,
रूपस्थध्यान
रुपातीतध्यान
रोमश, नोट
रोमहर्षण, नोट २
लक्ष्मणा लघीयत्रयी
लब्ध्यक्षर
लवकुश
ळवण ( अनंगलवण )
लवण समुद्र लिङ्ग, नोट ४
लिङ्गजन्य विद्या
ल
लोकमूढ़ता
लोकान्तिक देव
( ५४ )
पृष्ठ | कालम
लोकान्तिकदेव कुल २४
लोकोत्तर अंकविद्या, नोट ३ लोकोत्तर गणना २१
२०७१,
१२१/२
१३/१
१३,
३६।„
१५६१
१३,
१८६।१, १८८।,,
४२/२
१५१।१
४५/१,२
१२१।२
१६
१६५।१
१२८,
३५/२
३५/२
१२४|१
१२४'
५७/२
३६ २
लिपि ५,१८,३६,४०, ६४, नोट १,२,३ ३८, ३६
लोकपाल
२६/१
शब्द
लौकिक अङ्कविद्या लौकिक गणना
लौकिक मान ६
वच
वचन भेद ४
वन्दना (निर्युक्ति दोष ३२ )
चन्दना (प्रकीर्णक श्र ुत ज्ञान )
वरदत्त वर्गणा२३
वर्णमातृका ध्यान
वलिक, नोट १
वल्कल, नोट २
वशिष्ठ, नोट २
वसु, नोट १
वसुदेव
वामदेव
वायुभूति
१६५/२ । वारांग चरित
वारिषेण
१०/१ ४०/२
वाल प्रयोगाभास २
११५१२ वाल्मीकि, नोट २ ११५२ विकृताहार
वाक्यशुद्धि वाग्मटालंकार
वादरायण, नोट २
वादाल
वादिराज कवि
वादिराज सूरि
वाधितविषय अकिंचित्कर हेत्वाभास
९९/२,१००,१०१ विक्रमादित्य
विजय
विजयसेना
.
विक्रिया ऋद्धि ११ भेद, नोट १ विक्षेपिणी कथा
१४, विदल ६६, विदेह क्ष ेत्र १६, विदेह देश ३२,१६० १०५/२ | विदेह नदी ६०/१
विद्यमान तीर्थकर २०
For Personal & Private Use Only
पृष्ठ | कालम
१०५।२
८६/२
१०५/२
કાર્
१२६।,, ११६/२
१३०/१
२९।”
७५।२
३५।२
१२१/२
१२४/१
१५४१,
२०७२
४३/२
२८ १
१३,
१२४ ।,,
१०१/२
१३।१
१३।,,
२०%"
४४,
६०/२
२३/२
२५/२, १२२।१ नोट
२२२।१
१२४।,,
१४२ ।,,
११६,,
२.७०
१२२।२
४३।२
२५/२
२५/२, ४४.२ १८७/१ १८७११, २६१,२६३ २३२।१,२ २६४
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
विद्या ( भेद )
विद्या (नाम ) विद्यानन्दस्वामी विद्यानुवाद पूर्व विनयशुद्धि
विपाक प्रज्ञप्ति
विपाक विचय
विपाक सूत्रांग विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानी
विमलनाथ पुरोण विमोचितावास विम्बसार श्रोणिक
विरुद्ध राज्य व्यतिक्रम विरुष्ट्र राज्यातिक्रम विरुद्ध हेत्वाभास
विशुद्ध प्रशस्त निदान विश्वसेन
विकम्बल, नोट
वीजाक्षर तत्व
वीर्यानुवाद पूर्व
वेद, नोट ४ वेदनाभय वेदनीय कर्म वैकयिक ऋद्धि
वैयिक शक्ति
वैनयिक (प्रकीर्णक तज्ञान)
वैनयिकवाद
व्यंजनाप्रह
व्यतरे की दृष्टान्त ४ व्यन्तरदेव ६, नोट १
१४८/२,१५०।१
२५/२,१६५/२,
१६७/१ नोट १,२७०/१ नोट १
१४८/१ १४८,
व्यसन ७
व्याख्याप्रज्ञप्ति
व्याघूभूति, नोट २ व्यास, नोट २
व्युत्सर्ग तप, नोट ३
व्रत १२
व्रत (लक्षण)
शङ्कादि मलदोष २५
( ५५ )
पृष्ठ | कालम
१०४/२
१५८/१,२, २७१।१
१०,
१२७],,
२८',”
श
शब्द
शब्दजन्य विद्या
शब्दानुशासन शब्दोच्चारण के प्रयत्नपू
शब्दोच्चारण के स्थान ८ शयनासन शुद्धि
१२१/२
शल्यत्रय (३ शल्य)
३५/२
शाकल्य, नोट २.
१२२.२
शान्तीश
३०११ शालिभद्र, नोट २३२ | शिक्षावत ४ शिखर, नोट
शिखर विलास
शिवतत्व
शिशुनागवंश शिशुपाल, नोट १ शील १८०००
२०%,,
६६।२
३१/१
१२१/२
३६/१ शूद्र १८
१२४/२
५७/२
१३/२
८३/२
२७०/१,२
२७०/२
१३०/२
२४/१
शीलांग कोष्ठ
शुङ्गवंश
शुद्धि ८
१२४,
१३४/२ ५२/१,२, ५३।१, २७५।१ २७४/२
शून्यागारवास शौचोपकरण
श्रावक गुण ६३
श्रावक चन्दोषा स्थान ११ श्रावक-दोष ५०
श्रावक-धर्म
४२/२,२२६,
२२१२
श्रावक नित्य नियम १७ श्रावक प्रतिमा ११
१२९/१
१४, श्रावक-प्रायश्चित ( प्रन्थ)
१२१/२, १२३२ | श्रावक मौन ७
१२४/१
દાર
२८/१, ६७/२
२४६/१ १४८/२,१५०१,,
१४६१२
श्रावक अभक्ष्य २२
४४/२,५२/२
श्रावक - उत्तरगुण २१, १५... ५३।१, १४/२ नोट३ श्रावक-क्रिया ५३, २६
श्रावक भोजनान्तराय ४४ श्रावक मूलगुण ४८, ८ श्रावक लक्षण १४ श्रावक व्रत १२
श्रावक-शल्य ३ श्रावक-संस्कार २६
१४|१ | श्रां श्रीं श्र
पृष्ठ | कालम
હાર
१०/१
१२५/२
- १२५/२
ટાર્
For Personal & Private Use Only
१४/१,५२/२
१२४|१
५५/२
१२२।१
५२/२
१०४/१
२३।२
३६/१
१६८| M
१८३ ।,,
२४९/९
२५०
५३।१,७१।१
१४/२, ५३।,,
५३/२
१४/१
५१, ५२, ५३
५३/२
५२/२
१०/२
५३/२
પરાર
१४/२,५२२ ५१११ ५२/१, २, ५३ १, २७४/२
६२/२ ५३/१
३६|
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--------------------------------------------------------------------------
________________
६६०२
शब्द पृष्ठ । कालम | शब्द
पृष्ठ । फालम श्री आर्यमंक्ष, नोट ४
७४.१,२ श्रुतकेवली, नोट ३ श्री आर्यसेन १८८११, १८९०१ श्र त ज्ञान,भेद २०
४०१२ श्री इन्द्रराज, नोट२
१८३२ श्रेणिक (बिम्बसार ), २५१२, १६५।२, श्री उच्चारण आचार्य
७४१२
१६७११ नोट१, २७०११ नोट? श्री उमास्वामी
११८।२ श्री कुन्दकुन्दाचार्य ७४।२,११८।१,२
षट अग्निकायिक जीव
५७११ श्री कृष्ण के पुत्र २६ श्री गुणधर आचार्य
७३।२ षट अचितयोनि
१४४२ श्री गुणभद्राचार्य
१७२ षटअनायतन
१४।१,२ श्री चन्द्राचार्य, नोट २
१८३१२
षट अन्तरगतप (प्रायश्चितादि) ५३।१,१३४।२ श्री जिनचन्द्रस्वामी १९८२ षट आवश्यक
२२६२ श्री जिनसेनाचार्य १७१२ षट आवश्यक नियुक्ति
१३४२ श्री तुम्बुलर आचार्य ७४।१.२ षटकर्म
२३३०२ श्री देवसेन (यतिवृषम) ७५.१ षटकर्मोपदेश रत्नमाला
२३१२ श्रीधरसेन आचार्य ७३।२ षटकायिक जीव
५७२ श्री नागहस्ति
.७४ा१,२ षट कारण आहार-ग्रहण १५५२,१६२ श्री नेमचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ७४ा२,१८६२, | षटखंड सूत्र, नोट ३
७३।२ १८८२,२८०।१ | षट द्रव्यगुण (सामान्य)
५५।१ श्री नेमनाथ १६३।१,२ षट पेय पदार्थ
७७, श्री पद्ममुनि ७५०१ | षट मान (परिमाण)
१०५।२ श्री पार्श्वनाथ (पूर्व जन्मादि)
षट वाह्यतप ( अनशन आदि) ५३११ श्री भद्रबाहु ५६२ षट वेदांग
११६०२ श्री मल्लिषणाचार्य १८८५१ षटसप्तत्यक्षरी मंत्र
३७२ श्री महावीर ७१,२ व फ़टनोट, २६६१, षडाक्षरी मंत्र
३६२ ६८।१,२ षष्ठक व्रत
१४२११ श्री यतिवृषभ
पोड़श सतियां
१६७।२ श्री वप्पदेव गुरु
७४।१,७२।१ षोड़श स्वप्न
१७०१२ श्री विजयकीर्ति, नोट १
१२८०२ षोड़शाक्षरी मंत्र
३७१ श्री विद्यानन्द स्वामी
१०११ श्री विष्णुकुमार
६२ श्री वीरनन्दि
५६१ सकलसिद्ध विद्या श्री वीरसेनाचार्य ७४ा२,७५, सकलीकरण विधान
११८१,, श्री वीराजद (अन्तिम मुनि), नोट २ १८३।२ | सकुशलमला मिर्जरा
२०१२ श्री शुभङ्कर
२६२ सक्षय अनन्तानन्त श्री शुभचन्द्र १२८।२ नोट १, २६०१
| संख्यामान २१
8०।१ श्री श्यामकंड आचार्य ७४॥२ संघ के आधारभूत मुनि ५
६०,, श्री श्रुतकीर्ति
संचितद्रव्य, नोट
१४३॥ श्री समन्त भद्राचार्य १०११, ७११
सदसठ अज्ञानवाद २०६२,२१०, श्री सिंह नन्दि
११०२, १८, सत्य १० श्री सुरेन्द्र भूषण
२६०१२ लत्यमुनि, नोट २
१२४1, श्री हेमचन्द्राचार्य . १५६२,१६०११, १८४०१ | सत्यप्रवाद
६६,
ला
२८२
१२६,
१२५।२
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________________
शब्द
सत्यभामा सत्यव्रतोपवास्त
सत्याणुव्रत की भावना ५
सदासुख जी ( पंडित )
सम्म विसंवाद
सन्धाना
सप्त आहार दोष सप्तकर्णेन्द्रिय विषय
सप्त क्रिया ( परमस्थान )
सप्ततपऋद्धि सप्तदश नियम
सप्त नरक
सप्त पक्षाभास
सप्त प्रकारी देव सेना
सप्त प्रतिक्रमण
सप्त सेनापति
सप्त भय ( सप्त भीत ) सप्त मौन
'सप्तविंशत्यधिक शताक्षरी मंत्र
सप्त व्यसन सप्त शील
सप्त सेना
सप्त सेनानायक
संप्त स्वर (कर्णेन्द्रिय विषय)
सप्ताक्षरी मंत्र
समन्तभद्राचार्य
समवशरण पूजा समवायांग
समय परीक्षा
समुद्रविजय आदि १० भ्राता सम्मूर्च्छन जीव सम्यक्त अतिचार २
सम्यक्त कौमुदी
सम्यक्त- उत्तरगुण १५
सम्यक्त गुण ६३
सम्यक्त-दोष ५०
सम्यक्त-मलदोष २५
सम्यक्त- मूलगुण ४८
सम्यक्त-लक्षण ८.
सम्यग्दर्शन भेद३ संयमोपकरण
(५७)
पृष्ठ | कालम
शब्द
१६५।१ सर्व तत्वनायक
१५१,,
सर्व व्यापी तत्व
૨૭૪૪૨, ૨૭૫ાર
सर्वश्री (अन्तिम आर्यिका ), नोट २ सर्वार्थसिद्धि
१३१
१४६।१,१५०१,
सर्वावधिज्ञानी सविपाक निर्जरा
કાર
१३२।२
संवेजनी कथा, नोट
२२२११
संस्कार २६
२५४।”
संस्थानविचय
८५|२| सहदेव (पूर्वभव)
५३।२
२१६/१
२२१/२
१५६।१
१३०/१,२ १५६/१
१३१२, १४,
ધાર ३७/२
१४।१५२।२
५२।१, २२७५।१
१५६,,
१५६।„
२२२,,
३६/२
१०।१
રાર. १२०/१
५७/२; २७६/२, २७७ १,२
सागर (सागरोपमकाल)
सात नरक (नाम)
साधारण वनस्पति
सामायिक
साम्प्रायिक आस्रव
सार्व
सिद्धकूट सिद्धक्षेत्र
सिद्धालय
सुकुमाल ( पूर्व जन्म )
सुकौशल (पूर्वजन्म )
सिद्ध गुण ८
सिद्धपद सिद्धराशि
सिद्ध शिला
. सिद्धसाधन अकिंचित्करहेत्वाभास
सिद्धार्थ
सुग्रीव
सुदर्शन, मोट २
५,६,,
४३।२ सुनक्षत्र, नोट १
सुसीमा
(१४।२ |सूच्याङ्ग ल २३।२ सूत्र
सूत्रकृतांग
१४/२
१४२ | सूर्यप्रक्षभि १४|१ | सोमादेवी
१४१,
१४/२
१४।२
૫૦ાર १४६।२
सोमिल, नोट १
सोलह प्रसिद्ध सतियां
सोलह स्वप्न
स्तवन
स्तिमितसागर
पृष्ठ । कालम
३६।१ ३६,,
१८३।२
१५३/२
.३०/१
२०/२
१२२/२
५३।१
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•
પાર
६२।१
१०७/२, १०८,
२१६।,,
२६२
१३०।१
७६।२
३६+१
१०४ ।"
१५३२
પૂકાર
३०/१
૨૮ાર
१५३।२
२०११
७११,२६,,
१५४,
६२/२
६२/२
સ્પર
१२११२
१२२/१
१६५/२
१०८१,१३४।१
१२३/२
१२०११
१२३।”
२५/२
१२१/२
१६७/२
१७०१२
१३०।१
३।२४
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________________
(५८)
शब्द पृष्ठ । कालम शब्द
पृष्ठ। कालम स्तनप्रयोग
१४८।१ | स्वर सप्तक ( कर्णेन्द्रियविषय) २२२॥१ हतेय त्यागानुव्रत
१४७, ३६,
हनुमान ( जन्म कुंडली) २१५२ स्थलगता
१२७।२ हरि तत्व
३६१ स्थानांग
१२०११ हरिवंशपुराण
१०, स्थापनाक्षर
४१, हरिश्मश्रु , नोट २
१२४६१ स्थावरकायिक जीव ५ . ५७२
२५/२ स्थूल निगोद शरीर संख्या, नोट २, २७६२
हस्तिमल्लकवि
१९६१ स्पर्शनेन्द्रिय
५८।१ हारीत, नोट२
१२४, स्याद्वादरत्नाकर (श्वेताम्बर ग्रन्थ ) १८४, हिमवान
४३३२ स्वकल्क २५।२ हिंसा
१६२१,२ स्वभाव परतः नास्तिवाद
२४२ | हीनाधिक मानोन्मान, नं० (४) १४८१ स्वभाव स्वतः नास्तिवाद २४॥२ | होनाधिक मानतुला, नं० (४) . १४८, स्वर्ग १६, नोट ५ १५४।२ | हेत्वाभास ११ नं० २
२२११२ स्ववचनवाधित अकिंचित्करहेत्वाभास २००१ | हां ही हं ह्रीं ह्रः .. ३६१
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(५६)
इस कोष में प्रयुक्तसंकेताक्षरों का विवरण
| धर्म.
अ.
पर्व
अना.
A. 93
पुराण
उत्तर.
प्रो.
वही, ऊपर का
धर्मसंग्रह श्रावकाचार (अर्थात्यह चिह्न जिस शब्दके नीचे | नं० नम्बर दिया जाता है वहां उसी ऊपर | नि. निर्वाण लिखे शब्द का काम देता है)। न्या. न्यायदीएिका अध्याय
प. अ. मा. अर्द्धमागधी कोष
पद्मपुराण अनागार धर्मामृत
परीक्षामुख आदि. आदि पुराण ईस्वीसम्
पृष्ठ उक्तंच
पंचास्तिकाय उत्तर पुराण
प्रकरण कर्णाटक जैन कवि
प्राकृत कृष्ण पक्ष
भगवती. भगवती आराधनासार क्षपणासार
मूलाचार गाथा क्षेपक
या. द. यात्रा दर्पण गाथा
रत्नकरंड श्रावकाचार
राजवार्तिक गो. क. ___ गोम्मटसार कर्मकांड
लब्धिसार ____ गोम्मटसार जीवकांड वि. सं. विक्रम सम्वत् प्रन्थ
वृ. वि.च. घृहत् विश्वचरितार्णव चर्चाशतक
व्या. व्याख्या चन्द्रप्रभु चरित्र
श. शब्द चा. चारित्रसार
शुक्लपक्ष त, सार तत्वार्थसार
धा. श्रावकधर्म संग्रह त. सू. तत्वार्थसूत्र ...
श्लो . श्लोक तत्वा. तत्वार्थ राजवार्तिक
सर्वार्थ. 'सर्वार्थसिद्धि
सागारधर्मामृत त्रिलोकसार गाथा
स्था.
स्थानांगार्णव तीर्थ. द. तीर्थ दर्शक दि. प्र. दिगम्बर जैन प्रन्यकर्ता और | सं.. सम्वत् उनके गन्थ
ज्ञानार्णव द्रव्यसंग्रह
हरिवंशपुराण
गृहस्थ धर्म
X
.
च.
सा.
-
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________________
(६०)
उत्थानिका (PREAMBLE)
* श्री जिनायनमः * बिध्न हरण मंगल करण, अजर अमर पद दाय । हाथ माथ धर ऋषभजिन, यजन करूँ शिरनाय ॥ १ ॥ रीझ रीझ पर वस्तु पै, निज सत् पद विसराय । लालन पालन तन मलिन, करत असत् अपनाय ॥२॥ शान्ति हेतु अब शान्ति जिन, बन्दू बारम्बार । चन्द्र प्रभू के पद कमल, नमू न शत बार ॥ ३॥ यती-पूज्य प्रभु नाम जप, साहस कीन गहीर । शब्दार्णव के तरण को, शरण लेय महाबीर ॥४॥ चन्द्रसूर्य निकसत मुदत, आय बीतत जाय । जिन पच रत मम चित रहै, प्रतिक्षण हे जिनराय ॥ ५॥
अनुपम, अगम, अगाध भाव जल राशि भस्यो है। शब्द अर्थ जल जन्तु आदि सो जटिल खरयो है॥ अलंकार व्याकरण तरंगन विकट करन्यो है। साहित-सागर अखिल नरन को कठिन परयो है ॥ 'चेतन' शब्दार्णव तरन, ग्रन्थ सुभग नौका अहै। भवि-समूह सेवन करै, अघस रतन अगणित लहै ॥
-
पूर्वाचार्यों का मत है कि किसी प्रन्थ के लिखने में ग्रन्थलेखक ग्रन्थ निर्माण सम्बन्धी | “अनुबन्ध-चतुष्टय" और निम्न लिखित “षडाङ्गों" को भी प्रकट कर दे।
"मगल निमित्तंफलं परिमाणं नाम कर्तारमिति षडपिव्याकृत्याचार्याः पश्चाच्छास्त्रं व्याकुर्वतु ॥
__इति वचनात्
१. अनुबन्ध चतुष्टय १. अधिकारी-जैन साहित्य के सर्वोपयोगी अटूट भंडार से परिचित होकर लौकिक और लोकोत्तर ज्ञान प्राप्त करने और पारमार्थिक लाभ उठाने के इच्छुक महानुभाष | इसके पठन पाठन के मुख्याधिकारी हैं।
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२. सम्बन्ध-इस गून्थरत्न का मुख्य सम्बन्ध जैन साहित्य रत्नाकर से है ।
३. विषय-जैन साहित्य रत्नाकर के अणित शब्द रत्नों का परिक्षान इसका मुख्य विषय है।
४.प्रयोजन(निमित्त)-अगणित जैन ग्रन्थों में आए हुए पारिभाषिक व ऐतिहासिक आदि सर्व प्रकार के शब्दों के अर्थ और वस्तु स्वरूप आदि का यथार्थ ज्ञान इस एक ही महान ग्रन्थ की सहायता से प्राप्त हो सके, तथा जिस शब्द का अर्थ आदि ज्ञानना अभीष्ट हो वह अकारादि कम से ढूँढने पर तुरन्त बड़ी सुगमता से इसमें मिल जाय, यही इसका मुख्य प्रयोजन है॥
२. षड़ांग १. मङ्गल ( मंगलाचरण)-- (१) शब्दार्थ-मपाप, दोष, मलीनता, इत्यादि।
गल = गलाने वाला, नष्ट करने या घातने वाला, इत्यादि । अथवा-मंग=पुप्य, सुख सम्पत्ति, लाभ, इत्यादि। ल लाने वाला, आदान या गृहण या संग्रह करने वाला, प्रकाश डालने
वाला, इत्यादि । (२) भावार्थ-स्वेदादि वाह्य द्रव्यमल, ज्ञानावरणादि अष्टकर्म रूप अन्तरंग द्रव्यमल तथा
अज्ञान या मिथ्याज्ञानादि भावमल को जो नष्ट करे, अथवा जो पुण्य और सर्व प्रकार की सुख सम्पत्ति आदि को ग्रहण करावे उसे मंगल कहते हैं । मंगल की व्यव.
हृति को "मंगलाचरण' कहते हैं। (३) भेद--१. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. क्षेत्र, ५. काल, ६. भाक, यह छह मंगल के ।
१. नाम मंगल--परमब्रह्म परमात्मा का नाम, अथवा पंच परमेष्ठि वाचक ॐकार या।
अर्हन्त, सिद्ध आदि के नाम को 'नाममंगल' कहते हैं। २. स्थापना मंगल-परमब्रह्म परमात्मा की अथवा पंच परमेष्ठि की कृत्रिम या अकृ
त्रिम तदाकार या अतदाकार प्रतिमा या प्रतिबिम्ब को "स्थापनामंगलं" कहते हैं। ३. द्रव्य मंगल-अर्हन्त, आचार्य, आदि पूज्य पुरुषों के चरणादि पौद्गलिक शरीर को
'द्रव्य मंगल' कहते हैं। ४. क्षेत्रमंगल-पूज्य पुरुषों के तप आदि कल्याणकों की पवित्र भूमि, कैलाश,सम्मेद।
शिखर, गिरिनार, आदि सर्व तीर्थ स्थानों को "क्षेत्र मंगल" कहते हैं। ५. काल मंगल-पूज्य पुरुषों के तपश्चरण आदि के पर्व काल को व अष्टान्हिक आदि
पर्व तिथियों को "कालमंगल" कहते हैं। ६. भावमंगल-उपर्युक्त पांचों मांगलिक द्रव्यों में भक्तिरूप भाव को अथवा भक्तियुत
आत्मद्रव्य या चेतन द्रव्य को भी "भाव मंगल" कहते हैं। (४) हेतु-१. निर्विघ्नता से ग्रन्थ की समाप्ति २.नास्तिकता का परिहार ३.शिष्टाचार
पालन.४. उपकारस्मरण । इन चार मुख्य हेतुओं से प्रत्येक ग्रन्थकार को ग्रन्थ की आदि में, या आदि और अन्त में, अथवा आदि, मध्य और अन्त में परमात्मा या अपने
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-
इष्टदेव की भक्ति, स्तुति, व बन्दना अथवा स्मरण व चिन्तवन प्रकट या अप्रकट
रूप अवश्य करना उचित है। इसीको "मंगलाचरण" कहते हैं। (५) फल-मंगल ग्रन्थ की आदि में किया हुआ मंगलकर्ता को अल्प काल में अज्ञानता
से मुक्त करता है, मध्य में किया हुआ विद्याध्ययन के व्युच्छेद से उसे बचाता है और अन्त में किया हुआ आगे को विद्याध्ययन में पड़ सकने वाले अनेक विनों से उसे
सुरक्षित रखता है। (६) रीति--१.नमस्कारात्मक २.वस्तुनिर्देशात्मक ३.आशीर्वादात्मक या इष्ट-प्रार्थनास्मक । इनमें पहिली रीति श्रेष्ठ है।
इस ग्रन्थ की आदि में "बिन बिनाशक ऋषभ को ........." इत्यादि दो दोहों में, अथवा इस उत्थानिका के प्रारम्भ में 'विन हरण......' इत्यादि ५ दोहों में जो
मंगलाचरण किया गया है वह पहिली व अन्तिम रीति का है। २. निमित्त-प्रन्थ निर्माण के प्रयोजन को 'निमित्त' कहते हैं।
इस ग्रन्थ के लिखने का मुख्य निमित्त या प्रयोजन उपरोक्त है जो 'अनुबन्ध चतुष्टय' में बताया गया है। ३. फल-किसी गन्थ के निर्माण या पठन पाठन व मनन से जो लाभ प्राप्त होता है उसे
'फल' कहते हैं। (१) प्रत्यक्ष फल:-- (क) साक्षात प्रत्यक्ष--लेखक व पाठक रौनों के रिये कुछ न कुछ अंशों में अज्ञान का
विनाश और ज्ञानावर्णीय कर्म की निर्जरा, इसके साक्षात प्रत्यक्ष फलं हैं। परम्परा प्रत्यक्ष--ग्रन्थ में निरूपित वस्तुओं सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त हो जाने से कुछ
न कुछ लोकप्रतिष्ठा या कीर्ति तथा इच्छा होनेपर शिष्य प्रतिशिष्यों द्वारा किसी .. न किसी रीति से आर्थिक लाभादि उस परम्परा प्रत्यक्षकल हैं। (२) परोक्षफल:--. (क) अभ्युदयरूप फल--इस गून्थ के लिखने व पढ़ने में अज्ञान की कमी होने और
अपने समय का कुछ न कुछ भाग शुभोपयोग में बीतने से सातावेदनीय रूप पुण्यबन्ध होकर जन्मान्तर में स्वर्ग या राज्य वैभव आदि किसी शुभ फल की
प्राप्ति होना अम्युदय रूप परोक्ष फल है। (ख).निश्रय स्वरूप फल--बिना किसी लौकिक प्रयोजन सिद्धि की इच्छा के निष्काम
भावयुक्त इस गन्थ को केवल 'ज्ञान प्राप्ति' और 'अज्ञान निवृत्ति' की अभिलाषा
से लिखना या पठन पाठन व मनन करना मोक्ष प्राप्तिका भी परम्परा कारण है। ४. परिमाण--प्रन्थ के इस प्रस्तुत प्रथम खंड का प.रेमाण लगभग १० सहस्र श्लोक
(अनुष्टुप छन्द परिमाण ) या इस से कुछ अधिक है। ५. नाम-श्री वृहत् जैन शब्दार्णव ('श्री हिन्दी साहित्य अभिधान' का प्रथम अवयत्र )
इस गून्थरत्न का नाम है ६. कता---
(१) अर्थ कर्त्ता या भाषगून्य कर्ता अथवा मूलग्रन्थ कर्ता--श्री अरहन्त देव हैं।
(२) गन्थकर्ता व उत्तर गन्धकर्ता--श्रीगणधर देव व अन्य पूर्वाचार्य आदि अनेक | . व्यक्ति हैं।
(३) संगृह कर्ता या लेखक-एक अति अल्पक्ष 'चैतन्य' है।
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*
ॐ*
श्री जिनाय नमः ॥ * वृहत् जैन शब्दार्णव र
- **--- बिघ्न विनाशक वृषभ को, हाथ जोड़ शिर नाय।। रीति गिरा ज्ञाता गणप, लागू तिन के पाय ॥
लघु बल अति पर बाहुबल, शब्दार्णव गम्भीर । • तरण हेतु साहस कियो, शरण लेय महावीर ॥
vvv.....uvvvvv
६. सादृश्य वाचक, जैसे “अब्राह्मण"
(ब्राह्मण सदृश अन्य द्विज वर्ण, अ-( १ ) अक्षर-प्राकृत संस्कृत व इनसे क्षत्रिय या वैश्य ); निकली हुई प्रायः सर्व ही भाषाओं ७. दुर्व्यवहारवाचक, जैसे अनाचार" की वर्णमाला का यह पहिला अक्षर | (दुराचार )॥ है । यह स्वर वर्ण का प्रथम अक्षर है।
नोट-यह अक्षर जब किसी स्वर से (२) अव्यय- १. अभाव वाचक, जैसे प्रारम्भ होने वाले शब्द के पहिले लगाया जाता 'अलोक' (लोक का अभाव ); है तो "अन्” हो जाता है जैसे 'उदरी' के २. विरोधवाचक, जैसे 'अधर्म' ( धर्म |
पहिले 'अ' लगाने से 'अन्-उदरी' - अनुदरी विरुद्ध पाप);
होगया, ऐसे ही 'आचार' 'अन्-आचार'=
अनाचार इत्यादि । ३. अन्यपदार्थवाचक, जैसे 'अघट' (घट के अतिरिक्त अन्य कोई
(३) संकेत-१. अर्हन्त अर्थात् सकल पदार्थ );
परमात्मा, जीवनमुक्त आत्मा, परम-पूज्य
या परम-स्तुत्य आत्मा, परम आराधनाय ४. अल्पतावाचक, जैसे 'अनुदरी'
आत्मा; २. अशरीर अर्थात् सिद्व या विदेह (अल्पोदरी, जिस का उदर अल्प
मुक्त या निकल परमात्मा या अजरामर अर्थात् छोटा हो);
परम-शुद्ध आत्मा; ३. अनन्त कर ५. अप्रशस्त्यवाचक, जैसे 'अकाल' | अङ्क ५ ब्रह्म, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, शि, (अयोग्य काल या अशुभ काल); | रक्षक, पोषक, वायु, वैश्वानर, मेव, सृष्टि,
com
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वृहत् जैन शब्दार्णव
अइलक
ललाट, कण्ठ इत्यादि शब्दों का बोधक ___अर्थ--- जो चित्त लगाकर आनन्द से 'अ' यह 'अ' अक्षर है॥
अक्षर का पाँचसौ ( ५०० ) बार जप करता नोट--- 'अ' अक्षर वास्तव में तो अर्हन्त,'
है वह एक उपवास के निर्जरा रूप फल को
प्राप्त होता है। अशरीर, अजर, अमर, अखंड, अभय, अबन्ध, अमल, अक्षय, अनन्त, अधिपति एतद्धि कथितं शास्त्र, रुचिमात्र प्रसाधकम् । आदि शब्दों का प्रथम या आदि अक्षर किन्त्वमीषांफलंसम्यक् स्वर्गमोक्षकलक्षणम्५४ होने के कारण केवल इन ही शब्दों का
अर्थ-यह जो शास्त्रों में जप का एक उपसांकेतिक अक्षर है, परन्तु यह शब्द जिन जिन
वास रूप फल कहा है सो केवल मंत्र जपने अन्य अनेक शब्दों के पर्यायवाची हैं प्रायः
की रुचि कराने के लिए है। किन्तु वास्तव उन सर्व ही के लिये 'अ'अक्षर का यथा
में उसका फल स्वर्ग और मोक्ष ही है। आवश्यक प्रयोग किया जाता है ।
(आगेदेखो श. “अक्षरमातृका" और उस | (४) पर्गय----प्रणवाद्य अर्थात् ॐकार |
का नोट)॥ .. काआदि अक्षर,वागीश, अक्षराधिप, आद्य
| इरा (ऐरा, अचिरा )--श्री शान्तिनाथ क्षर, प्रथमाक्षर आदि शब्द 'अ' अक्षर के
तीर्थकर की माता का नाम । (आगे देखो पर्यायवाची हैं ।
श. "ऐरा")। (५) मंत्र--"अ" अक्षर प्रणव ॐ ) की समान एकाक्षरी मंत्र भी है जिसका जपना
| आइजक ( अईलक, अहिलक, ऐलक, पूर्वाचार्योंने ध्यानकी सिद्धि और स्वर्ग मोक्ष | ऐलुक)--सर्वोत्कृष्ट श्रावक अर्थात् सर्व से के साधन कलिये बड़ा उपयोगी बताया है। ऊँचे दर्जे की धर्मात्मा गृहस्थी। किसी किसी आचार्य का मत है कि मन
'उद्दिष्ट-त्याग' नामक १६वीं प्रतिमाधारी को वशीभूत करने के लिए मुमुक्षु को अपने
(प्रतिज्ञाधारी, कक्षारूढ़) श्रावक के 'क्षुल्लक' अभ्यास की पूर्वावस्था में अरहन्तादि पञ्च
और अइलक' इन दो भेदों में से यह द्वितीय परमेष्ठी वाचक, प्रणव (ॐ ) का जाप न
भेदह । इसे द्वितीयोद्दिष्ट-विरतधारीश्रावक करकं पहिले प्रणवाद्य अर्थात् 'अ' अक्षर ही
भी कहते हैं और दोनोप्रकार के रवींप्रतिमा का जाप और ध्यान विधि पूर्वक करना
(प्रतिशा या कक्षा) धारी श्रावकों को 'अपचाहिये । इस मंत्रकी उपयोगिता का मह व
वाद लिङ्गी, या बानप्रस्थ आश्रम' तथा श्री शुभचन्द्राचार्य'अपने "ज्ञानार्णव' ग्रन्थ
उद्दिष्टत्यागी-श्रावक, उदिष्ट वर्जी श्रावक, में पदस्थ ध्यान सम्बन्धी ३८ वें प्रकरण के
उहिष्ट विनिवृत-श्रावक, उद्दिष्ट विरतनिम्न श्लोकों द्वारा प्रदर्शित करते हैं:-प्रावणेश्य
श्रावक,त्यक्तोद्दिष्ट श्रावक,उद्दिष्टाहारविरत'-अवर्षस्य सहस्राद्ध, जपानन्द संभृतः । श्रावक,उद्दिष्टपिंडविरत-श्रावक, एक वस्त्रप्राप्नोत्येकोपाधासस्य,निर्जरांनिर्जिताशयः५३ | धारी या एक शाटक पारी श्रावक, खंड
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aruaranweenimamsuman
| अइलक
वृहत् जन शब्दाणव
अइलक
वस्त्र धारी या चेल खंडधारी-श्रावक, गृह करै, गत्रि को नियम पूर्वक प्रतिमा-योग त्यागी या अगृहस्थ-श्रावक, और उत्कृष्ट धारण कर (नग्न होकर) यथा शक्ति आत्म श्रावक भी कहते हैं । यह दोनों ही अपने स्वरूप चिन्तवन, परमात्मविचार आदि उद्देश्य से बने हुए भोजन के त्यागी होते धर्म ध्यान करैः हैं। इसी लिये 'उहिष्ट-त्यागी' कहलाते हैं। 'अइलक'वह विरक्त आर्यहै जोनीचे लिखे
(६) सन्मुख आये उपसर्ग पारिषह ( उपनियाका भलेप्रकार दृढ़तासे पालनकरे:
द्रव, विपत्ति या कष्ट) को वीरता और
साहस के साथ जीते, कायर न बने, जान (१) स्वेत * कोपीन (लङ्गोटो) के अति- बूझ कर किसी उपसर्ग परीषद के सन्मुख न रिक्त सर्व वस्त्रादि परिग्रह का त्यागी हो;
जाय; अति कठिन आखिड़ी (प्रतिशा) न (२) दया निमित्त केवल एक पिच्छिका ले और न मुनिब्रत धारण किये बिना त्रिकाल (मयूर पीछी) और शौच निमित्त केवल योग अर्थात् ग्रोप्म, वर्षा, और शीत ऋतु एक काठ का 'कमण्डल' सदा साध रखे;
की परीषह (पीड़ा) जीतने के सम्मुख हो; (३) डाढ़ी, मूछ और मस्तक के केशों का
(७) मुनिव्रत धारण करने का सदा लौंच (अपने हाथों से बाल उखाड़ना) अभिलाषी रहे, निरन्तर इसी को लक्ष्य हर दो तीन या चार माल में करता रहे
बनाकर निज कक्षा सम्बन्धी नियमों का (४) भोजन को ईर्यापथ-शुद्धि' पूर्वक
पालन नि:कषाय, निःशल्य और विषय जाय, गृहस्थके आँगन तक जहाँतक किसी
वासना रहित विरक्त भाव से करै; के लिये रोक टोक न हो जाय; 'अक्षयदान'
(८) उपर्युक्त नियमों के अतिरिक्त प्रथम या 'धर्मलाभ' कहै; गृहस्थ यथा योग्य
प्रतिमा ( कक्षा ) से दशम तक के तथा भक्ति व श्रद्धा सहित विधि पूर्वक पड़गाहे
११वीं 'प्रथमोदिष्टविरत' (क्षुल्लक व्रत) अर्थात् आहार देने को उद्यत हो तो यथा
सम्बन्धी व्रत नियमादि भी यथा योग्य स्थान बैठ कर और अन्तराय टाल कर
पालन करै ॥ 'करपात्र' में शुद्ध भोजन करै, नहीं तो अन्य गृह चला जाय; पाँच घर से अधिक न | नोट १.-ऐलक को 'कर पात्र-मोजीजाय; एक दिन में एक ही घर का आहार | श्रावक', 'कोपीन मात्र-धारी श्रावक', सर्वकेवल एक ही बार ले, यदि अन्तराय हो| | त्कृष्ट श्रावक' तथा 'आर्य' और 'यती' मा जाय तो उस दिन निर्जल उपवास करैः । कहते है ॥ __(५) हर मास में दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी के दिन विधिपूर्वक प्रोषधोपवास
____ नोट २.-आगे देखो शब्द 'एकादश
प्रतिमा' और 'अगारी' ॥ ... * किसी किसी आचार्य की सम्मति में | लाल कोपीन भी ग्राह्य है।
(सागार ध० अ०७ श्लोक ३७-४६)
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अकस्छ
वृहत् जैन शब्दार्णव .
अकण्डुकशयन
अकच्छ.-कच्छरहित, लंगोटरहित, नि- |
शरीर संस्काराभाव, और (४) मयूर
पिच्छिका (मोर-पीछी),यह चार मुख्य वाह्य ग्रन्थ-मुनि, दिगम्बरसाधु, अकिञ्चन,
चिन्ह या लिङ्ग है ॥ जिन-लिङ्गी-भिक्षुक या उत्सगीलगी भिक्षुक, अनगारी, अचेलवती, महाव्रती,
यह सर्व ही निम्रन्थ मुनि पंच महाव्रत, संयमी, अपरिग्रही. श्रमण, भिक्षुकाश्रमी
पंच समिति, पंच इन्द्रिय-निरोध, षट या सन्यस्था मी, इत्यादि ।
आवश्यक, केशलुश्च आचेलक्य, अस्नान,
भूमि शयन, अदन्तघर्षण, स्थितिभोजन, व्रती पुरुषों के दो भेदो-१) देशवती
और एक-भक्त एकाहार ), इन अष्टाया अनुव्रती ( अणुव्रती ) और ( २ )
विंशति (२८, अट्ठाईस ) मूलगुणों के महावती-में से दूसरे व्रती पुरुषों को |
धारक और यथा शक्ति अष्टादश-सहस्र 'अकच्छ' कहते हैं । यह शुद्ध संयम में हीनाधिक्यता की अपेक्षा या व्रतों में अती
( १८ हज़ार ) शील, और चतुरशीति लक्ष
(८४ लाख) उत्तर गुणों के पालक होते घारादि दोष लगने न लगने की अपेक्षा ५
हैं । इन शील और गुणों की पूर्णता सर्वोप्रकार के होते हैं-(१) पुलाक (२) वकुश
स्कृष्ट ‘अर्ह-त" पदमें पहुँचने पर होती है । (३) कुशील (४) निर्ग्रन्थ और (५) स्नातक । इन के पगेपकारादि की हीनाधि
यह सर्व ही साधु अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शन, क्यता की अपेक्षा (१) अर्हन्त (:)
अष्टाङ्गसम्यग्ज्ञान, त्रयोदश-सम्यक्-चारित्र, आचार्य (३) उपाध्याय और (४) साधु
पंचाचार द्वादशतप, द्वाविंशतिपरीषहजय, यह ४ भेद हैं; कषायों की मन्दता से
दश लक्षणधर्म, द्वादशानुप्रेक्षा-चिन्तवन, आत्म-शक्तियों की प्राप्ति की अपेक्षा (१)
इत्यादि को यथा विधि और यथा अवसर यति, (२) साधु, (३) ऋषि (-राजर्षि,
बड़े उत्साह के साथ त्रिशल्य रहित धारण देवर्षि. ब्रह्मर्षि, परमर्षि ) और ( ४ ) मुनि,
करतेहुए अनादि कर्मबन्ध से मुक्त होने के यह चार भेद हैं; सम्यक्त की तथा वाह्या- लिये निरन्तर प्रयत्न करते हैं । न्तरङ्ग शुद्धि की अपेक्षा (१) द्रव्यलिंगी नोट - उपयुक्त मुनि भेदों और उनके मूल
और (२) भावलिंगी, यह दो भेद हैं । | गुण आदि के नाम व स्वरूपादि व्याख्या गुणस्थान अपेक्षा छठे गुणस्थान से तेरह | सहित इसी कोष में यथा स्थान देखें । ( आगे तक आउभेद हैं। अन्य अपेक्षा से आचार्य, | देखो श. "अठारहसहस्र-शील" ) ॥ उपाध्याय, वृद्ध, गणरक्ष, प्रवर्तक, शैक्ष्य,
मुलाचार,चारित्रसार, भगवति-) तपस्वी, संघ, गण, ग्लान, यह १० भेद
आराधनासार, धर्म संग्रह हैं । इत्यादि इस पदस्थ के अनेक भेद
श्रावकाचार आदि । उपभेद हैं।
इनमें से छठे गुणस्थान वाले प्रत्येक मुनि कण्डुक.शयन-'अकण्डुक' शब्द काअर्थ | के (१) वस्त्र त्याग, (२) केशलुश्च (३) है 'खाज रोग रहित' । अतः 'अकण्डुक
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अकण्डूयक
वृहत् जैन शब्दार्णव
अकम्पन
शयन' इस प्रकार सोने को कहते हैं कि सोते समय शरीर में खाज उठने पर भी न खुजलाया जावे॥
नोट १-यह अकण्डुक-शयन'वाह्यतपके षटभेदोंमें से पंचम 'काय क्लश' नामक तपके अन्तर्गत 'शयन-काय क्लश' का एक भेद है जिसे शरीर ममत्व त्यागी निम्रन्थ मुनि कर्मनिर्जरार्थ पालन करते हैं ।
नोट २-इच्छाओंके घटाने या दूर करने को तथा इच्छाओं और क्रोधादि सब कषायों या मनोविकारों को नष्ट करनेकी विधि विशेष को 'तप' कहते हैं। अकण्डूयक-शरीर में खाज उठने पर
भी न खुजाने वाला; नखुजाने की प्रतिज्ञालेने वाला साधु ॥ अकतिसंचित-अगणित, एकत्रित; एक | समय में अनन्त उत्पन्न होने वाले जीवों का समूह (अ०मा०)॥
जाँगल ) देशके दूसरे महा मंडलेश्वर राजा 'सोमप्रभ' के पुत्र 'जयकुमार' (मेघेश्वर ) को स्वयम्बर में अपना पति स्वीकृत किया । और दूसरीछोटी पुत्री 'अक्षमाला' श्री ऋषभदेव के पौत्र 'अर्ककीर्ति' को, जी भरत चक्रवर्ती का सबसे बड़ा पुत्र था और जिस से 'अर्कवंश' अर्थात् “सूर्यवंश" का प्रारम्भ हुआ, व्याही गई । वर्तमान अव. सर्पिणी कालमें "स्वयम्बर" की पद्धति सब से पहिले इसी राजा अकम्पन' ने चलाई । इसके चार मंत्री (१) श्रृतार्थ (२) सिद्धार्थ १३; सर्वार्थ और (४) सुमति थे. जो बड़े ही योग्य और गुणी थे। 'भरत' चक्री इस राजा को पिता की समान बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे । अन्त में इस राजा ने अपने बड़े पुत्र हेमाङ्गदत्त' को राज्य देकर मुनिव्रत लेतपोबन को पयान किया। बहुत काल तक उग्रोग्र तपश्चरण कर सर्व कर्मों की निर्जरा की और निर्वाणपद प्राप्तकर सांसारिक दुःखों से मुक्ति प्राप्त की।
अकम्पन-इस नाम के निम्नलिखित कई इतिहास प्रसिद्ध पुरुष हुए:
(१)काशी देश के एक महा मंडलेश्वर | राजा-यह वर्तमान कल्प के वर्तमान अवसर्पिणीय विभागान्तर्गत दुःखम सुखम नामक गतचतुर्थ काल के प्रारम्भ में प्रथम तीर्थकर “श्रीऋषभ देव" के समयमें हुए । नाभिपुत्र श्रीऋषभदेव ने इसे एक सहस्र मुकुटबन्ध राजाओं का अधिपति बनाया जिससे "नाथवंश" की उत्पत्ति हुई। इसकी • एक बड़ी सुपुत्री 'सुलोचना' ने कुरु ( कुरु |
(२) 'उत्पल-खेट' नगर के राजा 'बज़जंघ' (श्री ऋषभदेव का अष्टम पूर्व भवधारी पुरुष जो बीच में ६ जन्म और धारण कर अष्टम जन्म में 'श्री ऋषभदेव' तीर्थकर हुआ) का सेनापात-यह इसी राजा के पूर्व सेनापति 'अपराजित' का पुत्र था जो अपराजित की धर्म पत्नी 'अर्यवा' के उदर से जन्मा था। जिस समय 'वजूजङ्घ', अपने मातुल तथा श्वसुर 'वजूदन्त' चक्री के मुनि दीक्षा धारण करने के समा चार मिलने पर,उसको राजधानी "पुण्डरी किणी" नगरी की ओर स्व-स्त्री (वजूदन्त
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अकम्पन
( ६ वृहत् जैन शब्दार्णव
की पुत्री ) श्रीमती व अन्य परिवारजन आदि सहित जा रहा था तो यह सेनापति 'अकम्पन्' भी साथ था । मार्ग में किसी वन में ठहरने पर जब 'बज्रजङ्घ' और श्रीमती' नेअपने लघु युगल पुत्रों 'दम्बरपेण' और 'सागरषेण' को जो कुछ दिन पूर्व पिता से आज्ञा लेकर मुनिपद ग्रहण कर चुके थे और जो उस समय अचानक वहां विचरते आ निकले थे, बड़ी भक्ति से यथाविधि अन्तराय रहित शुद्ध आहार दान दिया तब इस अकम्पन ने भी शुद्ध हृदय से इस दान की बड़ी अनुमोदना की जिससे इसे भी महान पुण्य बंध हुआ । "वज्रजङ्घ" और "श्रीमती' के शरीर त्याग पश्चात् 'श्री. दृढ़ धर्म स्वामी' दिगम्बराचार्य से 'अकम्पन' ने दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण की और उग्र तपश्चरण करके शरीर त्याग कर प्रथम वैक में जन्म ले अहमेन्द्र पद पाया । यही 'अकम्पन ' अहमेन्द्र पद के पश्चात् दो जन्म और लेकर पाँचवें जन्म में श्री ऋषभदेव का पुत्र 'बाहुबली' प्रथम कामदेव पदवी धारी पुरुष हुआ ।
( ३ ) एक प्रसिद्ध जैनाचार्य - यह नवे चक्रवर्ती राजा महापद्म के समय में विद्य मान थे । यह १६ वें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ और बीसवें तीर्थंकर श्रीमुनिसुव्रतनाथ के अन्तराल काल में अष्टम बलभद्र नारायण श्रीरामचन्द्र लक्षमण के समय से पूर्व हुए जिसे आज से लगभग १२ या १३ लाख वर्ष व्यतीत होगये । यह महा मुनि समस्त श्रुत के ज्ञाता श्रुतकेवली ७०० शिष्य मुनियों के नायक थे । हस्तिनापुर
अकम्पन
के कुरुवंशी राजा पद्मरथ ( महापद्म के पुत्र ) के "बलि" नामकमंत्री ने राजा को बचनवद्ध करके और७दिन का राज्य उससे लेकर पूर्व विरोध के कारण ७०० शिष्यों सहित इन ही अकम्पनाचार्य पर "नरमेधयज्ञ" रच कर भारी उपसर्ग किया जिसे वैक्रियिक ऋद्धि धारक "श्री विष्णुकुमार" मुनि ने, जो हस्तिनापुर नरेश पद्मरथ के लघु भ्राता थे और पिता के साथ ही गृहस्थपद त्याग तपस्वी दिगम्बरमुनि हो गये थे, अपनी वैक्रियिक ऋद्धि के बल से ५२ अंगुल का अपना शरीर बना बावनरूप धारण कर निवारण किया था । उस दिन तिथि श्रावण शुक्ला १५ और नक्षत्र श्रवण था । श्री विष्णुकुमार का यह बावनरूप ही " बावन अवतार" के नाम से लोक प्रसिद्ध है। रक्षाबन्धन (सलूनों ) का त्योहार उसी दिन से प्रचलित हुआ है ।
( ४ ) लङ्कापति रावण का एक सेनापति - राम रावण युद्ध में यह श्री हनुमान के हाथ से मारा गया था । प्रहस्त और धूम्राक्ष इस के यह दो भाई और थे जिन में से प्रहस्त भी रावण की सेना का एक वीर अधिपति था। यह रावण की माता केकसी का लघुभ्राता अर्थात् रावण का मातुल ( मामा ) था ॥
(५) नवम नारायण या वासुदेव श्री कृष्णचन्द्र का ज्येष्ठ पितृव्य- पुत्र ( तयेरा भाई ) - यह श्रीकृष्णचन्द्र के पिता वसुदेव के ज्येष्ठ भ्राता विजय के छह पुत्रों में से सब से बड़ा पुत्र था । इस के ५ लघुभ्राता १ बलि, २ युगन्त, ३ केशरी ४. धी
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अकम्पन
( ७ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
मान् और ५. लम्बूब थ े ॥
( ६ ) श्रीकृष्णचन्द्र के अनेक पुत्रों में से एक पुत्र ॥
(७) महाभारत युद्ध के समय से पूर्व का एक राजा - इसे एक बार जब युद्ध शत्रुओं ने घेर कर पकड़ लिया तो इसके पुत्र हरि ने, जो बड़ा पराक्रमी और वीर था, छुड़ाया था ॥
(८) विहार प्रान्तस्थ वैशाली नगर के लिच्छवि वंशी राजा 'चेटक' का एक पुत्र - यह हरिवंशी काश्यप कुलोत्पन्न अन्तिम तीर्थङ्कर 'श्री महावीर स्वामी” ( जिनका जन्म सन् ईस्वी के प्रारम्भ से ६१७ वर्ष पूर्व और निर्वाण ५४५* वर्ष पूर्व हुआ) की माता श्रीमती 'प्रिय कारिणी त्रिशला " का लघुभ्राता अर्थात् श्री महावीर का मातुल ( मामा ) था । इसके छह ज्येष्ठ भ्राता १. धनदत्त, २. दत्तभद्र, २. उपेन्द्र, ४. सुदत्त, ५. सिंहभद्र, और ६. सुकम्भोज, और तीन लघुभ्राता १. सुपतङ्ग, २. प्रभञ्जन, और २. प्रभास थे । इसकी ७ बहनें १. प्रियकारिणी त्रिशला, २. मृगावती, ३. सुप्रभा ४ प्रभावती ( शीलवती ), ५. चेलिनी, ६. ज्येष्ठा, और ७. चन्दना थीं। इन ७ बहनों में से पहिली विदेहदेश ( विहार प्रान्त) के कुंडपुराधीश हरिवंशी ( नाथवंश की एक शाखा ) महाराज " सिद्धार्थ " को विवाही गई जिसके गर्भ से श्री महावीर तीर्थङ्कर का जन्म हुआ, दूसरी वत्सदेश के कौशाम्बा नगरा
धीश चन्द्रवंशी राजा शतानीक को, तीसरी दशार्ण देश के हर कच्छ नगराधीश सूर्यवंशी राजा दशरथ को चौथी कच्छ देश के रोरुक नगर- नरेश उदयन को और पांचवीं बहन चेलिनी मगधदेश के राजगृही नगराधिपति श्रेणिक ( बिम्बसार ) को विवाही गई थीं। शेष दो बहनें ज्येष्ठा और चन्दना ने विवाह न कराकर और आर्यिका पद में दीक्षित होकर उग्र तपश्चरण किया ।
अकम्पन
( ६ ) श्री महावीर स्वामी के ११ गणघरों में से अष्टम गणधर - यह सप्तऋद्धिधारी महा मुनि सवा छहसौ शिष्य मुनियों के गुरु ब्राह्मण वर्ण के थे। इनका जन्म सन् ईस्वी के प्रारम्भ से लगभग ६०० वर्ष पूर्व और शरीरोत्सर्ग ७८ वर्ष की वय में हुआ ॥
नोट १ - श्रीमहावीर स्वामी के अष्टम गणधर “श्री अकम्पन" का नाम कहीं कहीं " अकम्पित" और "अकस्पिक" भी लिखा मिलता है । इनके जिनदीक्षा ग्रहण करने से पूर्व ३०० शिष्य थे जिन्होंने अपने गुरु के साथ ही दिगम्बरी दीक्षा धारण की थी ॥
नोट२- श्रीमहावीर तीर्थकर के ११ गणघर निम्नलिखित थे:--
१. इन्द्रभूति गोत्तम २, अग्निभूति ३. वायुभूति
ये तीनों गौर्वर ग्राम निवासी वसुभूति (शां डिल्य ) ब्राह्मणकी स्त्री "पृथ्वी" (स्थिंडिला) और "केशरी" के गर्भ से जन्मे । [ आगे देखो शब्द "अग्निभूति (१) " ] ॥
के सम्बन्ध में कुछ ऐतिहासश विद्वानों के पक
* श्री महाबीर तीर्थङ्कर के निर्वाण काल | दूसरे के विरुद्ध कई अलग अलग मत हैं जो 'जैन हितैषी', वर्ष ११, अङ्क १, २ के पृष्ठ ४४
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अकम्पन
वृहत् जन शब्दार्णव
अकम्पन
४. व्यक्त (अव्यक्त)-ये "कोल्लाग-सन्नि- ६. धवल (अचल भ्राता -ये कोशला. वेश" निवासी “धनुमित्र" ब्राह्मण की | पुरी निवासी “वसु" नामक ब्राह्मण की "वारुणी" नामक स्त्री के गर्भ से जन्मे। स्त्री "नन्दा" के उदर से जन्मे ॥
५. सुधर्म-ये "कोल्लागसन्निवेश" निवा- १०. मैत्रेय ( मेतार्य )-ये वत्सदेशस्थ | सी "धम्मिल' ब्राह्मण की “भद्रिलाभव" तुगिकाख्य निवासी "दत्त" ब्राह्मण कीस्त्री! नामक स्त्री के पुत्र थे ।
"करुणा" के गर्भ से जन्मे ॥ ६ मौंड मंडिक ) ये मौर्याख्य देश
११. प्रभास-ये राजगृही निवासी निवासी "धनदेव" ब्राह्मण की "विजया.
"बल" नामक ब्राह्मण की पत्नी 'भद्रा" देवी" स्त्री के ग से जन्मे ॥
की कुक्षि से जन्मे ॥ ७ मौर्यपुत्र-ये मौर्याख्यदेश निवासी 'मोर्यक" ब्राह्मण के पुत्र थे॥
इन ११ गणधरों की आयु क्रम से ६२, ८ अकम्पन (अकम्पित)-येमिथिला- २४, ७०, ८०, १००, ८३, ६५, ७८, ७२, ६०, पुरी निवासी “देव" नामक ब्राह्मण की ४० वर्ष की हुई । यह सर्व ही वेद वेदांग "जयन्ती” नामक स्त्री के उदर से जन्मे ॥ आदि शास्त्री के पारगामी और उच्च कुली से ५६ तक पर सविस्तर प्रकाशित हो चुके हैं । तथा "भारत के प्राचीन राजवंश" नामक ग्रन्थ के द्वितीय भाग की प्रथमा वृत्ति के पृ० ४२, ४३ पर भी 'जैन हितैषी भाग १३, अङ्क
प्र०५३३ के हवाले से इस के सम्बन्ध में एक संक्षिप्त लेख है । इन सर्व लेखों को गम्भीर विचार पूर्वक पढ़ने और श्री त्रैलोक्यसार की गा० ८५०, वसुनन्दी श्रावकाचार, कई प्राचीन पट्टावलियों और कलकत्ते से प्रकाशित श्री हरिवंशपुराण की प्रस्तावना के पृ० १२ की पंक्ति २२से २६ तक, तथा सूरत से महट्टी भाषा में प्रकाशित श्री कुन्द कुन्दाचार्य चरित्र की प्रथमावृत्ति के पृ० २५, पंक्ति ६, इत्यादि से श्री वीर निर्वाण काल विक्रमजन्म से ४७० वर्ष पूर्व और विक्रम सम्बत् के प्रारम्भ से ४८८ वर्ष ५ मास पूर्व का 'अर्थात् सन् ईस्वी के प्रारम्भ से ५४५ (४८८५५७) वर्ष दो मास पूर्व का नि:शङ्क भले प्रकार सिद्ध हाता है । आजकल जैन पंचाग या जैन समाचार पत्रों आदि में जो वीरनिर्वाण सम्वत् लिखा जाता है वह विक्रम सम्वत् से ४६६ वर्ष ५ मास पूर्व और सन् ईस्वी से लगभग ५२६ वर्ष दो मास पूर्व मानकर प्रचलित हो रहा है जिसमें वास्तविक सम्वत् से १६ वर्ष का अन्तर पड़ गया है । इस कोष के सम्पादक के कई लेख जैनमित्र वर्ष २२ अङ्क ३३ पृ. ५१३, ५१४; अहिंसा, वर्ष १ अङ्क २० पृ० १०; दिगम्बरजैन वर्ष १४ अङ्क ६ पृ० २५ से २८ तक, इत्यादि कई जैन समाचार पत्रों में इस सम्बत् के निर्णयार्थ प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें कई दृढ़ प्रमाणों द्वारा यही सिद्ध किया गया है कि श्री वीर निर्वाण काल शक शालिवाहन के जन्म से ६०५ वर्ष ५ मास पूर्व और शाका सम्वत् से ६२३ वर्ष ५ मास पूर्व अर्थात् विक्रम सम्वत् से ४८८ वर्ष मास पूर्व का है जिससे जैनधर्मभूषण ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी, स्वर्गीय ब्रह्मचारी झानानन्दजी आदि कई जैन विद्वान पूर्णतयः सहमत हैं और इसके विरुद्ध किसी महानुभाव का कोई लेख किसी समाचार पत्र में आज तक प्रकाशित हुआ नहीं देखने में आया है अतः इस कोष के लेखक की सम्मति में यही समय ठीक जान पड़ता है ॥
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अकर्ण
वृहत् जैन शब्दार्णव
अकलङ्क
ब्राह्मणों के देशप्रसिद्ध परम विद्वान् पुत्र थे | जो क्रम से ५००, ५००, ५००, ५००, ५००, ३५०, ३५०, ३००,३००.३००,३०० विद्यार्थियों के गुरू थे।
(हरि. पु., महाचर पु, वर्द्ध च.) अकर्ण-लवण समुद्र में समुद्र तट से ७०० योजन की दूरी पर काL १७वां अन्तरद्वीप; इस अन्तरद्वीप में रहने वाले मनुष्य ।
(अ० मा०) अकर्मन्-कर्मरहित, फर्मास्रवरहित(अ.मा.)
अकर्मभूमि-भोगभूमि; असि, मसि, कृषि आदि षटकर्म वर्जितभूमि; कल्पवृक्षोत्पादक भूमि । ( आगे देखो शब्द "भोग भूमि" ) अकांश-कर्मरजरहित,घातियाकर्मरहित, स्नातक, केवली अरहन्त (भमा०) ॥
नगरके राष्ट्रकूटवंशीय कर्कराज-पुत्र साहस. तुङ्ग' (कृष्णराज अकालवर्षशुभतुङ्ग ) के मन्त्रः 'पुरुषोत्तम' के बड़े पुत्र थे। इनकी माता का नाम पद्मावती और लघु भ्राता का नाम 'निःकलङ्क' था । यह दोनों भाई बालब्रह्मचारी थे और विद्याध्ययन कर छोटी अवस्थाहीमें अद्वितीय विद्वानहोगए। इन्होंने पटने में जाकर कुछ दिन तक बौद्धधर्म की शिक्षा भी प्राप्त की थी। यह अकलङ्क देवस्वामी "एकसंस्थ"थे अर्थात् इन्हें कठिन सेकठिन श्लोक आदि केवल एक ही बार सुन लेने पर याद हो जाते थे। इसी प्रकार इनका लघु भ्राता "द्विसंस्थ" था । एकदा बौद्धों के हाथ से अपने छोटे भाई के मारे | जाने के पश्चात् वोर नि० सं० १४०० । सन् ८५५ ई.) में इन्होंने कांची या कलिङ्गके ( उड़ीसा के दक्षिण, मदरास प्रान्त में गोदावरी नदी के मुहाने के आस पास का देश) देशान्तर्गत 'रत्नसश्चयपुर' के बौद्ध धर्मी राजा "हिमशील" की राज सभा में बौद्धों के एक प्रधान आचार्य 'संघश्री' को अनेक बौद्ध पंडितों और अन्य विद्वानों की उपस्थिति में ६ मास तक नित्य प्रति शास्त्रार्थ कर कं परास्त किया
और बौद्धों की बढ़ती हुई शक्ति को अपने पांडित्यबल से लगभग सारे भारत देश में निर्बल कर दिया । यह भट्टाकलङ्क देव थे तो सर्व ही विषयों के पारंगत विद्वान, पर न्याय के अद्वितीय पंडित थे जिसका प्रमाण इनके रचे निम्नलिखित ग्रन्थों से भले प्रकार मिल जाता है:(१) वृहत्रयी (वृद्धत्रयी)
अकलङ्कः-इस नाम के भी निम्नलिखित कई इतिहास-प्रसिद्ध पुरुष हुए:(१) 'अकलङ्कदेव स्वामी या 'भट्टाकलङ्कदेव' नाम से प्रसिद्ध एक जैनाचार्य-यह अब से लग भग ग्यारह सौ (११००) वर्ष पूर्व वीर निर्वाण की चौदह्रीं शताब्दी में तथा धिक्रम की नवीं शताब्दी में देव-संघ में हुए । यह कर्णाटक और महाराष्ट्र देशों की प्राचीन गजधानी 'मान्यखेट' (जिसे आज कल 'मलखेड़' कहते हैं, और जो हैदराबाद रेलवे लाइन पर मलखेड़रोडस्टेशन से ४ या मील दूरी पर है )
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अकलङ्क
अकलङ्क
वृहत् जैन शब्दार्णव
(२ लघीयत्रयी (लघुत्रयो ) "हरिवंशपुराण" के रचयिता "श्रीजिनसेना
चार्य" तथा महापुराण के पूर्व भाग “श्री (३) चूर्णी
आदि-पुराण' के रचयिता "श्रीभगवजिन(४) महाचूर्णो
सेनाचार्य" के समकालीन थे। (५ : न्याय-चूलिका
(२) भट्टाकलङ्क नाम से प्रसिद्ध एक जैन (६) तत्त्वार्थ राजवार्तिकालङ्कार ( श्री. विद्वान-यह अब से लगभग ७५० वर्ष
मद्भगवत् “उमास्वामी” विरचित पूर्व वीर निर्वाण सम्वत् १७०० में (विक्रम 'तत्त्वार्थसूत्र' की संस्कृत टीका, १६ की तेरहीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ) बम्बई सहस्र श्लोकपरिमाण)
प्रान्त के 'गोकरण' तीर्थ के पास कनारा देश
के 'भटकल' नगरमें हुए । यह नगर पहिले (७) न्याय-विनिश्चयालङ्कार
'मणिपुर' नाम से प्रसिद्ध था जिसकी (८) न्याय कुमुदचन्द्र प्रभाचन्द्ररचित | पैरादेवी रानी ने, जो इन परम विद्वान
इसको एकवृत्ति न्याय कुमुदचन्द्रो- महात्मा की अनन्य भक्त थी, इनकी प्रसिदय' है)
द्धि के लिये इनके नाम पर अपने नगर का (६) शब्दानुशासन कनड़ो भाषा का
नाम बदल कर 'भट्टाकलङ्क' नगर रखा व्याकरण संस्कृत भाषा में)
(भट्ट संस्कृत में “परम विद्वान" तथा ब्रह्म
शानी को कहते हैं)। यह नाम अपभ्रंश (१० अष्टशती ( उपर्युक्त 'तत्त्वार्थसूत्र'
हो कर "भटकलनगर" या 'भटकल' कहकी स्वामी “समन्त भद्र" आचार्य
लाने लगा । इन्होंने 'श्रावक-प्रायश्चित्' कृत ८४ सहस्र श्लोक परिमाण
नामक ग्रन्थ रचकर आषाढ़ शु० १४ को संस्कृतटीका "गंधहस्तीमहाभाष्य"
वि० सं० १२५६. वीर निर्वाण सम्वत् नामक के मङ्गलाचरण 'देवागम
१७४४में समाप्त किया। 'अकलङ्क संहिता' स्तोत्र" का संस्कृत भाष्य ८००
या 'प्रतिष्ठाविधिरूपा' ८ सहस्र श्लोक श्लोकों में)
परिमाण और भाषा मारी आदि अन्य कई (११) अकलङ्क प्रायश्चित
ग्रन्थ भी इन्होंने रचे। (१२) अकलङ्काष्टक स्तोत्र
(३) “अकलङ्क चन्द्र" नाम से प्रसिद्ध (१३) भाषामारी (२४०० श्लोक); आदि
एक दिगम्बर भट्टारक- यह ग्वालेर (ग्वालिअनेक महान ग्रन्थों के रचयिता यह
यर) की गही के दशवे पट्टाधीश थे । इन
का जन्म आषाढ़ शु० १४ वीर निर्वाण आवार्य हैं।
सम्बत् १६६७, विक्रम सम्बत् १२०६ में इन ही श्री अकलङ्क देव के शिष्य "श्री हुआ। १४ वर्ष की वय में दिगम्बरी दीक्षा प्रभावन्द्र" और "विद्यानन्द स्वामी' थे जी धारण की । ३३ वर्ष पश्चात् पूरे ४७ वर्ष
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( १ ) वृहत् जैन शब्दार्णव
अकलङ्क
अकलङ्कप्रतिष्ठा पाठ
की वय में मिती आषाढ़ शु० १४ को
अकलक कथा-प्रथमानुयोग के एक जैन 'धर्द्धमान' जी भट्टारक के स्वर्गवास होने
कथा-ग्रन्थ का नाम है जिसमें श्री "अकलङ्क पर उनसे तीन दिन पीछे उनकी गद्दी के
देव स्वामी' की कथा वर्णित है । इस नाम पट्टाधीश हुए । यह एक वर्ष ३ मास और
की एक कथा भट्टारक "प्रभाचन " द्वितीय २४ दिन पट्टाधीश रह कर ४८ वर्ष ३ मास |
की रचित है जो विक्रम सम्वत् १५७१ में और २४ दिन की वय में मिती कार्तिक
विद्यमान थे। दूसरी इली नाम की कथा शु० . ८ वीर निर्वाण सम्वत् १७४६,
श्री “सिंहनन्दि". जा कृत है जो श्री विक्रम सम्बत् १२५७ में स्वर्गवासी
आराधना कथा कोश, नेमनाथ पुराण आदि हुए । जाति के यह “अठसाखा पोर
कई ग्रन्थों के रचयिता हैं । श्री गुणकीर्ति वाल" थे॥
जी के शिष्य यशःकीर्ति जी की रचित भी (४) "अकलङ्क चन्द्र" नाम से प्रसिद्ध इस नाम की एक कथा है । एक घनधारी भट्टारक-यह अब से साढ़े चार सौ (४५० ) वर्ष पहिले वीर निर्वाण | अकलङ्क चन्द्र देखो शब्द “अकलङ्क" ॥ सम्वत् २००० के लगभग विक्रम की १६
अकलङ्क चरित-यह सुजानगढ़ निवासी वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुए । “अक
पं० पन्नालाल बाकलीवाल रचित 'स्वामी लङ्कप्रतिष्ठापाठ" या 'प्रतिष्ठाकल्प' नामक अन्ध इनही का रचित व संग्रहीत है ॥
भट्टाकलङ्क देव' का एक चरित्र हिन्दीभाषा
में है जो अकलङ्क स्तोत्र मूल और भाषा ( देखो ग्रन्थ 'वृ० वि चरितार्णव' )
गद्य व पद्य सहित बम्बई से प्रकाशित हो (५) धातकीखंड द्वीप में विजयमेरु चुका है। के दक्षिण भरत क्षेत्रान्तर्गत आर्यखंड की अतीत चौबीसी के चतुर्थ तीर्थङ्कर का नाम
| अकलङ्कदेव-पीछे देखो शब्द “अकलङ्क" भी श्री अकलङ्क था । ( आगे देखो शब्द अकल देव भट्ट-देखोशब्द "अकलङ्क" "अढ़ाई द्वीप पाठ" के नोट ४ का कोष्ठ ३)॥
अकलकादेव भट्टारक-पीछे देखो शब्द (६ ) पुष्कराद्ध द्वीप की पूर्व दिशा में | "अकलङ्क" ॥ मन्दर मेरु के दक्षिण भरतक्षेत्र के अन्तर्गत अकल देव स्वामी-पीछे देखो शब्द आर्यखंड के वर्तमान अवसर्पिणी काल की चौबीसी के २१ वें तीर्थङ्कर का नाम
'अकलङ्क" || जो "मृगाङ्क" नाम से भी प्रसिद्ध थे। अकलङ्क प्रतिष्ठापाठ-यह विक्रम की १६ ( आगेदेखो श० "अढाई द्वीप पाठ' के नोट वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में हुए अकलंक भट्ट ४ का कोष्ठ ३)॥
रचित एक संस्कृत ग्रन्थ है जिसका विषय
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अकलंकप्रतिष्ठापाठकल्प
वृहत् जैन शब्दार्णव
अकलकाष्टक
नाम ही से प्रकट है। (पीछे देखी शब्द रचित "प्रतिष्ठाविधिरूपा' नाम से प्रसिद्ध "अकलङ्क" )॥
८००० श्लोक का एक ग्रन्थ है ॥ अकलप्रतिष्ठापाठकल्प-यह “अकलंक अकनङ्ग स्तोत्र-इसी का नाम 'अकलं. प्रतिष्ठापाठ' का ही नाम है ।।
काटक' भीहै जिसे "श्रीभट्टाकलं कस्वामी"
ने संस्कृत पद्य में रचा है । इसमें सब केवल अकलङ्कप्रतिष्ठाविधिरूपा-यह विक्रम १२ शार्दूलविक्रीड़ित और ४ अन्य छन्द की तेरहीं शताब्दी में हुए अकलङ्क देव श्री अरहन्त देव की स्तुति में हैं। इसे पं० भट्टारक' रचित ८००० श्लोक का एक नाथूराम प्रेमी ने हिन्दी भाषा के वीर छन्द ग्रन्थ है । इसी का नाम अकलङ्क संहिता" या आल्ह छन्द नामक ३१ मात्रा के १६ भी है । (पीछे देखो शब्द “अकलङ्क" ) ॥
सम-मात्रिक छन्दों में भी रचा है ॥ अकलङ्कप्रायश्चित- यह श्री "अकलङ्क
नोट १-श्रीमान् पं० पन्नालाल वाकलो
वाल ने अपने भाषा अकलङ्कचरित्र के साथ | देवभट्ट" रचित एक संस्कृत प्रायश्चित ग्रन्थ
यह मूल स्तोत्र भाषाटीका सहित तथा है जो ८७ अनुष्टुप छन्दों और एक अन्य
पं. नाथूरामजी रचित भाषा छन्दों सहित छन्द, सर्व ८८ छन्दों में पूर्ण हुआ है । इस
"कर्णाटक प्रिंटिङ्ग प्रेस २० ७, बम्बई" में में केवल श्रावकों के प्रायश्चित का वर्णन
प्रकाशित करा दिया है। है । इसकी रचना शैली से अनुमान किया जाता है कि यह ग्रन्थ विक्रम की १६वीं नोट २--इस स्तोत्र के छन्द १५, १६ के | शताब्दी के पूर्वाद्ध में हुए "अकलंकभट्ट' देखने से ऐसा जाना जाता है कि या तो | नामक भट्टारक रचित है जिनका रचा यह स्तोत्र श्री अकलङ्क स्वामी का बनाया "अकलंकप्रतिष्ठापाठ' नामक ग्रन्थ है। हुआ नहीं किन्तु उनके किसी शिप्यादि का ऐसा भी अनुमान किया जाता है कि बनाया हुआ है (जिसके सम्बन्ध में अन्य विक्रम की १३वीं शताब्दी में हुए अकलंक- कई विद्वानों की भी यही सम्मति है) या देव भट्ट ने जो "श्रावकप्रायश्चित" नामक | श्री भट्टाकलङ्क स्वामी रचित छन्द केवल ग्रन्थ रचकर विक्रम सम्वत् १२५६ के ८ या ६ हों जैसा कि इसके अपर नाम "अक. आषाढ़ शु० १४ को समाप्त किया था वह | लङ्काष्टक" से ज्ञात होता है, और शेष छन्द यही "अकलंक प्रायश्चित" नामक ग्रन्थ है। उनके शिष्यादि में से किसी ने बढ़ा दिये।
हो॥ अकलङ्कर भद्र-देखो शब्द "अकलङ्क" ॥
अकलङ्गाष्टक-अकलङ्क स्तोत्र ही का नाम अकलङ्क संहिता-यह विक्रम की १३वीं अकलङ्काष्टक भी है ( पीछे देखो शब्द शताब्दी में हुए अकलंक देव भट्टारक | "अकलङ्कस्तोत्र" नोटो सहित)
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( १३ ) वृहत् जैन शब्दार्णव
अकल्प
अकस्मात्भय
___ यह भाषा बचनिका ( हिन्दी गद्य ) में | कल्प रहित, स्वेताम्बराम्नाय के अनुकूल पं० सदासुख जी खंडेलवाल, काशलीवाल, बीचके२२ तीर्थङ्करों के साधु जो वस्त्र त्याग जयपुर निवासी रचित भी है जो कि वि० आदि १० प्रकारके कल्प रहितथे (अ० मा०)। सं० १६१५ में रचा गया था जब कि इनकी वय ६३ वर्ष की थी।
अकल्पित-यह महाभारत युद्ध में सम्मि नोट १-पं. सदासुख जी रचित अन्य
लित होने वाले राजाओं में से पाण्डवों के
पक्ष का एक बड़ा पराक्रमी राजा था जिसे | प्रन्थ निम्न लिखित हैं:
अन्य कई गजाओं सहित गरुड़ ब्यूह, (१) भगवती आराधनासार कीष्टीका
रचते समय श्रीकृष्णचन्द्र के पिता "श्रीवसुबचनिका १८००० श्लोक प्रमाण, भाद्रपद देव" ने अपने कुल की रक्षा पर नियत शु०२ वि० सम्बत् १६०८ (२) तत्त्वार्थ | किया था। (देखो ग्रन्थ "वृ०वि० च०') सूत्र की लघु टीका २००० श्लोक प्रमाण, फाल्गुण शु० १० वि० सं० १६१० (३) अकषाय-कषायरहित,तीव्र-कषायरहित, तत्वार्थ सूत्र की ११००० श्लोक प्रमाण ईषत् ( अल्प या किञ्चित ) कषाय अर्थात् 'अर्थ प्रकाशिका टीका', वैशाख शु. १० अल्प या थोड़ी कषाय, मन्द कषाय । जो रविवार, वि० सं० १६१४ (४) रत्नकरंड आत्मा की कषै, क्लोषित करे, उसे कषाय श्रावकाचार की टीका, १६००० श्लोक कहते हैं । कषाय के विशेष स्वरूप व भेदादि प्रमाण, चैत्र कृ० १४ वि० सं० १९२० (५) जानने के लिये देखो शब्द "कषाय" नित्य नियम पूजा टीका, वि० सं० १९२१ (६) मृत्यु महोत्सव घचनिका ॥ अकषायवेदनीय चारित्र मोहनीय कर्म नोट २-इस अकलंकाष्टक की एक |
के दो भेदों ( कषाय वेदनीय,अकषाय वेदसंस्कृत दीका भी है जो एकी-भाव स्तोत्र,
नीय ) में से एक भेद जिसके हास्य, रति, यशोधर चरित, पार्श्वनाथ चरित और
अरति, शोक, भय, जुगुप्सा,स्त्री-वेद, पुरुषकाकुस्थ चरित आदि ग्रन्थों के रचयिता "श्री वेद, नपुसक वेद, यह नव भेद हैं। इनको वादिराज सूरि" ने अथवा वाग्भट्टालंकार की
'ईषत्-कषाय" वा "नो कषाय' भी संस्कृत टीका, शानलोचन, यशोधरकाव्य
कहते हैं। और पार्श्वनाथ निर्वाण काव्य आदि ग्रन्थों
अकस्मात् भय-अचानक किसी आपत्ति के कर्ता 'श्रीवादिराज" कवि ने बनाई है।
के आपड़ने का भय ; सप्त भय अथवा प्रकल्प-साधु के न ग्रहण करने योग्य सप्त भीत-इहलोक भय , परलोक मय, . (अ० मा०)।
वेदना भय, मरण भय, अनरक्षा भय,
अगुप्त भय और अकस्मात् भय में से प्रकल्पस्थित-अचेलकादि १० प्रकार के
एक प्रकार का भय । सम्यक्त को बिगाड़ने
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अकस्मात् भय
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वृहत् जैन शब्दार्णव
अकाम निर्जरा
व मलीन करने वाले ५० दोषों या दूषणों में | ६ अभक्ष्य-(१) मधु (२) ऊमर फल से एक दोष यह अकस्मात् भय' है और (३) कठूमर फल (४) पाकर फल सम्यक्ती जीव के ६३ गुणों में से अक- ५) बड़फल ( ६ ) पीपल फल ॥ स्मात् भय--रहितपना" एक गुण है ॥ २ अतिचार--(१) अन्वदृष्टि प्रशंसा (२) नोट १-५० दोष निम्न प्रकार हैं:
अन्य दृष्टि संस्तव ॥ २५ मलदोष-१) शंका (२) कांक्षा (३. ५० जोड़
विचिकित्सा (४) मूढदृष्टि ( ५ ) अनुप | नोट २-उपर्युक्त २५ मलदोषों मेंले आदि गूहन ( ६ ) अस्थितिकरण (७) अवा- के आठ "अष्टदूषण" इनसे अगले आठ अष्ट त्सल्य (८ , अप्रभावना; (६) जातिमद | | मद, इनसे अगले ३ "त्रिमूढ़ता” और इनसे (१०) कुलमद (११) धनमद या लाभमद अगले अर्थात् अन्तिम छह षट अनायतन' (१२)रूपमद (१३) बलमद (१४ विद्या या | कहलाते हैं । पांडित्य मद ( १५ ) अधिकार या ऐश्वर्य
नोट ३–सम्यक्ती के ४८ मूलगुण और मद (१६) तप मदः (१७) देवमूढ़ता
१५ उत्तरगुण सर्व ६३ गुण होते हैं जो इस ( १८ ) गुरुमूढ़ता (१६) लोक मूढ़ता;
प्रकार हैं-२५ मलदोष रहितपना, ८ संवेगा(२०) कुदेव- अनायतन-संगति (२१)
दि लक्षण, ५ अतीचार रहितपना, ७ मय कुगुरु अनायतन-संगति ( २२ ) कुधर्म
रहितपना और ३ शल्य रहितपना, यह ४८ अनायतन-संगति (२३) कुदेव-पूजक
मूलगुण । और ५ उदम्बर फलत्याग, ३ अनायतन-संगति (२४) कुगुरु-पूजक अना
मकार त्याग और ७ व्यसन त्याग, यह १५ यतन-संगति (२५) कुधर्म-पूजक-अना
उत्तर गुण ॥ यतन-संगति ॥ ७ व्यसन-(१) द्यूत क्रीड़ा(जुआ खेलना) __ नोट ४-उपर्युक्त प्रत्येकपारिमाषिक शब्द (२) वेश्या सेवन (३) पर-स्त्री रमण (४) का अर्थ आदि यथा स्थान देखें ।। चौर्य कर्म (५) मांस भक्षण (६) मद्य पान ( शराब पीना ) (७) मृगया
अकाम-कामना या इच्छारहित, अनिच्छा; (शिकार खेलना)॥
सर्व इच्छाओं का अभावरूप मोक्ष ॥ ३ शल्य- १) माया शल्य ( २ ) मिथ्या अकामनिर्जरा-बिना कामना या बिन शल्य ( ३) निदान शल्य ॥
इच्छा होने वाली निर्जरा; अपनी इच्छा बिना ७ भय-(१) इह लोक भय (२) पर- केवल पराधीनता से निज भोगोपभोग का
लोक भप (३) वेदना भय (४) मरण निरोध होने और तीव्र कषाय रहित भूख, भय (५) अनरक्षा भय (६) अगुप्त प्यास,मारन, ताड़न रोगादिकष्टसहन करने भय (७) अकस्मात् भय ॥
से या प्राण हरण होजाने से, तथा मिथ्या
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mmamra
manoono
।
( १५ ) अकामिक वृहत् जैन शब्दार्णव
अकारण दोष श्रद्धान के कारण मन्दकषाय युक्त धर्म- अकामुकदेव-धातकीखंड द्वीप को पूर्व | बुद्धि सहित (धार्मिक-अन्धश्रद्धा से )
__ दिशामें विजयमेरुके दक्षिण भरतक्षेत्रान्तर्गत स्वयम् पर्वतादि से गिरना, बर्फ़ में गलना,
आर्यखंड में भविष्य उत्सर्पिणी काल में | तीर्थजल में डूबना, अग्नि में जलना, अन्न
होने वाली चौबीसी के ११वें तीर्थकर । जल त्यागना, इत्यादि धर्मार्थ या धर्मरक्षार्थ
( आगे देखो शब्द “अढाई द्वीप पाठ" | सहर्ष कष्ट सहन करने से जो कर्मों की
के नोट ४ का कोष्ठ ३)॥ निर्जरा (हीनता, व्योग, नाश, काट-छाँट, या सम्बन्धरहितपना) हो उसे "अकाम |
| अकाय-कायरहित, बिन शरीर, बिना निर्जरा" कहते हैं ।
धड़, राहुग्रह (ज्योतिषी लोग 'राहु' का
आकार मनुष्य के कंठ के नीचे के सम्पूर्ण ( तत्वार्थ राजवार्तिक अ० ६, ।
शरीर अर्थात् धडरहित केवल गर्दन २ . सूत्र २० की व्याख्या |
सहित मस्तक के आकार का मानते हैं । नोट-क्रोधादि कषाय वश यदि स्व धड़ के आकार का 'केतु' ग्रह माना जाता शरीर को कोई कष्ट दिया जाय या किसी है। दोनो ग्रहों का शरीर मिलकर मनुष्या. उपाय द्वारा प्राण त्याग किए जांय तो इससे कार हो जाता है ); निराकार ब्रह्म, कायअकाम निर्जरा नहीं होती किन्तु दुर्गत का
रहित शुद्ध जीव, विदेहमुक्त जीव, निकल कारण तीब्र पापबन्ध होता है और ऐसे प्राण- परमात्मा या सिद्ध परमेष्ठी; षट् द्रव्य में त्याग को 'अपघात' या 'आत्मघात' कहते
से रूपी द्रव्य 'पुद्गल' को छोड़कर अन्य हैं जो तीब्र पापबन्ध का कारण होने के |
पाँचद्रव्य-जीवद्रव्य,धर्मद्रव्य,अधर्मद्रव्य, अतिरिक्त राज्य-दंड पाने योग्य तीव्र अप- || आकाशद्रव्य, और कालद्रव्य; षट द्रव्य में राध भी है ॥
से पञ्चास्तिकाय अर्थात् जीव.पुद्गल,धर्म,
अधर्म, और आकाश को छोड़कर केवल अकामिक-(१)पुष्कराद्ध द्वीप के विद्युन्मा. एक "कालद्रव्य" ॥
ली मेरु के दक्षिण भरत-क्षेत्रान्तर्गत आर्य अकारण दोष-कारण रहित या अप्रशस्त खंड की वर्तमान चौबीसी के २२वें
अथवा अयोग्य कारण सहित दोष । आहार तीर्थङ्कर । कविवर वृन्दावन जी ने इन्हें
सम्बन्धी एक प्रकार का दोष जिस से २१ वे तीर्थङ्कर लिखा है ॥
निग्रन्थ दिगम्बर मुनि सदैव बचते हैं। (२) पुष्कराद्ध द्वीप के विद्युन्माली नीचे लिखे ६ कारण बिना केवल शरीर मेरु के उत्तर ऐरावत-क्षेत्रान्तर्गत आर्य | पुष्टि या विषय-सेवनार्थ या जिह्वा की खण्ड की वर्तमान चौबीसी के १८३ लम्पटता आदि अप्रशस्त कारणों से जो तीर्थकर ( आगे देखो शब्द "अढ़ाई द्वीप भोजन करना है वह “अकारण दोष वाला पाठ" के नोट ४ का कोष्ठ ३)॥
भोजन" है॥
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( १६ ) वृहत जैन शब्दार्णव
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अकारिम देव
अकाल मृत्यु
(१) क्षुधा वेदना के उपशम को (२) अकाल मृत्य-कुसमय कीया योग्य समय योगीश्वरों की वैयावृत्य के लिये (३ ) षट
से पहिले की मृत्यु, बे समय की मौत, आवश्यक कर्म की पूर्णता के अर्थ (४)
अपक्क मौत । जो मौत आयुकर्म की संयम की स्थिति के अर्थ ( ५ ' धर्म-ध्यान
स्थिति पूर्ण होने से पहिले ही विष, अग्नि के अर्थ । ६) प्राण रक्षार्थ ॥
या शस्त्रादि के घात का वाह्य निमित्त अकारिम देव-पुष्करार्द्ध द्वीपकी पूर्व दिशा पाकर आयु कर्म के शेष निष्यकों के खिर में मन्दर मेरु के उत्तर ऐरावत-क्षेत्रान्तर्गत जाने से हो । देव गति व नरक गति के आर्यखण्ड की अतीत चौबीसी में हुए किसी भी जीव की और मनुष्य गति में २३ वें तीर्थङ्कर का नाम। (आगे देखो शब्द भोगभूमि के मनुष्यों व चरमोत्तम शरीरी
"अढ़ाई द्वीप पाठ के नोट ४ का कोष्ट३)॥ अर्थात् १६६ पुण्य पुरुषों में से तद्भव मोक्ष अकारु-शुद्र वर्ण के 'कार' , 'अकारु' गामी पुरुषों की और तिर्यश्च गति में केवल इन दो मूल भेदों में से एक वह भोग भूमि के जीवों की अकाल मृत्यु भेद जो किसी प्रकार की शिल्पकारी या
नहीं होती। अन्य सर्वत्र अकाल मृत्यु हो कारीगरी का कार्य न करता हो। इसके | सकती है । इस मृत्यु का नाम “अपवर्तन दो भेद हैं ( १) स्पर्ध्य अकारु, जैसे | घात" व "कदलीघात" भी है। नाई, धोबी, माली, आदि (२) अस्पर्य |
नोट १- 'कदली घात" से छूटने वाला अकारु, जैसे भंगी, चांडाल आदि ॥ शरीर यदि समाधि मरण रहित छूटा हो तो
नोट १-कारु के भी दो ही भेद है (१) उसे "च्यावित शरीर" और यदि समाधि स्पर्ध्य कारु, जैसे सुनार, लुहार, कुम्हार, |
| मरण सहित छूटा हो तो उसे "त्यक्त शरीर" चित्रकार, बढ़ई आदि (२) अस्प_कारु,
कहते हैं । जैसे चमार आदि । ( आगे देखो शब्द "अठारह श्रेणी शुद्र")॥
नोट २-तद्भव मोक्षगामी सर्व पुरुषों नोट २-चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, | को “चरम शरीरी" और १६६ पुण्य-पुरुषों में वैश्य, शूद्र-में से अन्तिम तीन वर्ण उनकी तद्भव मोक्षगामी पुरुषों को चरमोत्तम शरीरी" आजीविका के कार्यानुसार प्रथम तीर्थङ्कर कहते है ॥ "श्रीऋषभदेव" ने कृतयुग या कर्मभूमि की नोट ३–१४ कुलकर (मनु), २४ तीर्थआदि में स्थापन किये और आवश्यक्ता जान कर, ४८ तीर्थंकरों के माता पिता, २४ कामकर पहिला वर्ण उनके पुत्र "भरत” चक्रवर्ती | देव, १२ चक्रवर्ती, ११ रुद्र, ६ बलभद्र, ६ ने स्थापन किया । इन चारों वर्गों के कई कई नारायण, ६ प्रतिनारायण, ६ नारद, यह सर्व भेद उपभेद भी उनकी आजीविका के अनुसार १६६ पुण्य पुरुष हैं जिनमें २४ तीर्थङ्कर सर्व उसी समय स्थापन होगए थे और अन्य कई ही तद्भव मोक्षगामी हैं; १४ कुलकर, ११ रुद्र, कई भेद यथा अवसर पीछे उत्पन्न हुए। नारायण, ६ प्रतिनारायण, ६ नारद, यह ५२
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( १७ )
अकालवर्ष . वृहत जैन शब्दार्णव
अकालवर्ष पुण्य पुरुष तद्भव मोक्षगामी नहीं हैं; शेष ६३ में होगया है । इस अकालवर्ष के देहोत्सर्ग में से कुछ तद्भव मोक्षगामी हैं; और अन्य | के समय उत्तर भारत में ‘इन्द्रायुध' दक्षिण सर्व ही पुण्य पुरुष नियम से कुछ जन्म धारण में इसी कृष्णराज-अकालवर्षकापुत्र गोबिन्द कर निर्वाण पद शीघ्र ही प्राप्त करेंगे ॥ श्रीवल्लभ", पूर्व में गौड़' व अवन्तिपति अकाल वर्ष-इस नाम के मान्यखेट नगरा
"वत्सराज" और पश्चिम मेंसौराष्ट्राधिपति
"वीरवराह" शासन करते थे। इलोरा की धीश राष्ट्रकूटवंशीय अर्थात् राठौर-वंश
पहाड़ी पर कैलाश नामक मन्दिर को के कई एक इतिहास प्रसिद्ध जैनधर्म
पत्थर काटकर इसी 'अकालवर्ष' ने बनश्रद्धालु दक्षिण देशीय निम्न लिखित
वाया था। राजा हुए:--
(१) अकाल वर्ष प्रथम,अर्थात् “कृष्ण- (२) अकालवर्ष द्वितीय-यह 'अकालराज-अकालवर्ष शुभतुङ्ग"या"साहसतुङ्ग" वर्ष प्रथम" के लघु पुत्र "ध्रुवकलिवल्लभनाम से प्रसिद्ध -यह राठौरवंशी प्रथम धारावर्ष-निरुपम' के पौत्र 'शर्वदेवमहाराजराजा 'कर्कराज' का लघु पुत्र राष्ट्रकूटवन्श | अमोघवर्ष-नृपतुङ्ग" का पुत्र राष्ट्रकूटवंश का पाँचवाँ राजा था । इसने अपने बड़े | का १० वा राजा था । इसने अपने पिता भाई “इन्द्र" के पुत्रों 'खङ्गावलोक' और के पश्चात वीर नि.सं०१४१८ से १४५६ 'दन्तिदुर्ग' के शरीर त्यागने परवीर निर्वाण (वि० सं० ६३० से ६७१) तक ‘कृष्णसम्वत् १२६८ ( वि० सं० ८१० ) में दक्षिण अकालवर्ष शुभतुङ्ग द्वितीय" के नाम से देशीय राजगद्दी पाई। इसकी राजधानी | ४१ वर्ष राज्य किया इसका पुत्र जगत् 'मान्यखेट' नगरी थी जिसे आजकल मल- तुंग अपने पिता के राज्यकाल ही में मृत्यु खेड़ कहते हैं । सुप्रसिद्ध जैनाचार्य "श्री | को प्राप्त होचुका था । अतः इस अकालभट्टाकलङ्कस्वामी" इसी “अकालवर्ष-शुभ- वर्ष के पीछे इसके ज्येष्ठ पौत्र ( पोता ) तुङ्ग' के मन्त्री 'पुरुषोत्तम' के ज्येष्ठ पुत्र "इन्द्रराज-नित्यवर्ष' को राजगद्दी मिली ॥ थे । इस राजा ने ३० वर्ष राज्य भोगकर ___ महापुराण के पूर्व भाग श्री आदिपुराण वि० सं० ८४० ( शक सं० ७.५ ) में | के रचयिता "भगवजिनसेनाचार्य' के शरीरोत्सर्ग किया और इसकी जगह इस | शिष्य"भगवद्गुणभद्राचाय्य"जिन्होंनेमहाका पुत्र राजगद्दीपर आरूढ़ होकर "गोबिन्द- पुराण के उत्तर भाग "श्री उत्तरपुराण' को श्रीबल्लभ-अमोघवर्ष' नाम से प्रसिद्ध हुआ | रचा, इसी "अकालवर्ष द्वितीय' के सभजो श्री आदिपुराण के रचयिता "भगवजिन कालीन थे । इस अकालवर्ष के पिता सेनाचार्य” का परम भक्त शिष्य और "अमोघवर्ष-नृपतुङ्ग" ने वि० सं० ६३० में "प्रश्नोत्तर रत्नमाला" का रचयिता था। राज्यपद त्याग कर अपने दो ढाई वर्ष के इस प्रश्नोत्तर रत्नमाला का एक तिब्बती- बालक पुत्र को तो राज्यतिलक किया और भाषानुवाद भी ईसा की ११ वीं शताब्दी अपने लघुभ्राता “इन्द्रराज" को अपने पुत्र
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अकालवर्ष
वृहत् जैन शब्दार्णव
अकालवर्ष
का संरक्षक बनाकर स्वयम् "उदासीन- ८६६, ईस्वी सन् ९७४ ) तक राज्य किया। श्रावक" हो आयु के अन्त तक वर्ष एकांत और अपने पवित्र राष्टकट या राठौरवंश वास किया । अकालवर्ष ने पन्द्रह सोलह की दक्षिण देशीय मान्यखेट की महान वर्ष पश्चात् सारा राज्य कार्य अपने पितृव्य | गद्दी का १८ वा अन्तिम राजा हुआ जिसे 'इन्द्रराज' से अपने हाथ में ले लिया। "चौलुक्य तैलप द्वितीय" ने विक्रम सम्वत् यह अपने पिता की समान बड़ा पराक्रमी १.३१ में जीतकर "कल्याणी" के पश्चिमी
और बीर राजा था। गुर्जर, गौड़, द्वार- चौलुक्यों की शाखा स्थापित की। समुद्र, कलिङ्ग, गङ्ग, अङ्ग, मगध आदि | (४) अकालघर्षशुभतुझ-यह राष्ट्रकूटदेशों के राजा इसके वशवीय होगए थे । वंशीय गुर्जर शाखा का पाँचवा राजा
(३) अकालवर्ष तृतीय-"यह अकालवर्ष हुआ जो “अकालवर्ष प्रथम' के लघु पुत्र द्वितीय' के लघु पौत्र “वद्दिग अमोघवर्ष" 'ध्रुवकलिवलभधारावर्ष-निरुपम' के छोटे का ज्येष्ठ पुत्र राठौर या राष्ट्रकूटवंश का पुत्र 'इन्द्रराज' का प्रपौत्र था। यह विक्रम १५ वाँ राजा था। इसने अपने प्रपितामह की दशवीं शताब्दी में गुजरात देश में ही के नाम पर "कृष्ण अकालवर्ष-शुभ- राज्य करता था। इस वंश की इस गुर्जर तुङ्ग” नाम से वीर नि० सं० १४८४ से शाखा का प्रारम्भ “इन्द्रराज" से हुआ १५०५ ( वि० सं० ६६६ से १०१७ ) तक जिसे इसके बड़े भाई "गोविन्द श्रीवल्लभ" २१ वर्ष राज्य किया। इसके तीन लघु ने, जो राष्ट्रकूटबंश का आठवाँ राजा था भ्राता "जगततुङ्ग," "खोट्टिग-नित्यवर्ष" और जिसका राज्य उस समय मालवा
और "कक्कअमोघवर्ष नृपतुङ्ग” थे। इसके देश की सीमा तक पहुँच चुका था, पश्चात् इसका तीसरा भाई ‘खोट्टिगनित्य- लाटदेश ( भड़ोंच ) को भी विक्रम सम्वत् वर्ष' राज्याधिकारी हुआ जिसके पश्चात् ८६० के लगभग जीतकर यह देश दे इसके चौथे भाई “कक्कअमोघवर्ष नृपतुग" दिया था। ने राजगद्दी पाकर वीर निर्वाण सम्वत् ___ इस वंश की वंशावली अगले पृष्ठ १५१६ (वि० सं० १०३१, शक सम्वत् पर देखें।
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अकालवर्ष
( १६ )
वृहत् जैम शब्दार्णव
( २ ) इन्द्र
( ३, ४ ) खङ्गावलोक. दन्तिदुर्ग
राष्ट्रकूट वंश की वंशावली
( १ ) कर्कराज
( ६ ) गोबिन्द श्रीबल्लभ अमोघवर्ष
(८) गोविन्द श्रीवल्लभ प्रभूतवर्ष जगततुङ्ग ( ६ ) शर्व महाराज अमोघवर्ष नृपतुङ्ग (१०) कृष्ण अकालवर्ष शुभतुङ्ग
(१) इन्द्रराज नित्यवर्ष
1
( ५ : कृष्णराज अकालवर्ष शुभ्
(७) ध्रुवकलिवल्लभधारावर्ष निरूपम
जगततुङ्ग (पिता के जीवित मृत्यु हो गई)
(१२) अमोघवर्ष (१३) गोविन्द प्रभूतवर्ष नृपतुङ्ग
इन्द्रराज ( गुर्जर शाखा ) (१)
कर्कराज सुवर्णवर्ष (२) गोविन्दप्रभूतवर्ष (३) ध्रुवधारावर्ष निरूपम (४) अकालवर्ष शुभतुङ्ग (५) ध्रुवधारावर्ष निरुपम (६)
अकालवर्ष
(१४) वद्दिग अमोघवर्ष
(१५) कृष्ण अकालवर्ष शुभतुङ्ग (१६) जगततुङ्ग (१७) खोट्टिग नित्त्यवर्ष
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(१८) कक्क अमोघवर्ष नृपतुङ्ग
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अकिञ्चन
वृहत् जैन शब्दार्णव
अकृतिधारा
m entumacarrwasnamanesaman
अकिञ्चन-निष्परिग्रही, सर्व सांसारिक होती रहती है। इसी को 'सविपाकपदार्थों से मोह ममता त्यागने वाला, दिग
निर्जरा' तथा 'अबुद्धिपूर्वा-निर्जरा' भी
कहते हैं । म्बर साधु । (पीछे देखो शब्द "अकच्छ”)
नोट-कर्म-निर्जरा के दो भेद “अकुशल अकिञ्चित्कर-किश्चित्मात्र भी न कर सकने मूला" और 'सकुशलमूला” या “सविपाक" वाला, असमर्थ, निष्प्रयोजन, निष्फल, और "अविपाक" या "अबुद्धिपूर्वा" और निर्मूल; न्याय की परिभाषा में हेत्वाभास
"बुद्धि पूर्वा” हैं। के ४ भेदों में से एक भेद जो साध्य की अकृति-कृति रहित, निकम्मा, मूर्ख, वक्र, सिद्धि करने में असमर्थ हो॥
साधन रहित; अवर्ग, गणित की परिभाषा नोट-हेत्वाभास के ४ भेद.-(१) में एक प्रकार का अङ्क जो किसी पूर्णाङ्क असिद्ध (२) विरुद्ध (३) अनैकान्तिक (४) का वर्ग न हो॥ अकिश्चित्कर ।
| अकृति अङ्क ( अवर्ग अङ्क )-वह अङ्क अकिञ्चित्कर हेत्वाभास-वह हेतु जो |
जो किली पूर्णाङ्क का वर्ग न हो अर्थात् साध्य की सिद्धि करने में असमर्थ या अना
जिस का वर्गमूल कोई पूर्णाङ्क न हो, वश्यक हो । इस के दो भेद हैं ( १ ) सिद्ध
जैसे २, ३, ५. ६, ७, ८, १०, ११, १२, साधन-अकिञ्चित्कर-हेत्वाभास (२) वा.
___ १३, १४, १५, १७ इत्यादि । धित-विषय-अकिञ्चित्कर-हेत्वाभास, जिस नोट १--- शेष अङ्क १, ४, ६, १६, २५, के प्रत्यक्षवाधित, अनुमानवाधित, आगम-३६ आदि जो किसी न किसी अङ्क का वाधित, स्वबचन-वाधित आदि कई
वर्ग हैं “कृति अङ्क" कहलाते हैं । भेद हैं । (प्रत्येक भेद का स्वरूपादि यथा
__ नोट २-किसी अङ्क को जब उसी अङ्क
से एक बार गुणें तो गुणनफल को उस स्थान इसी कोष में देखें)॥
मूल अङ्कका वर्ग' कहते हैं और उस मूल अकुशजम्ना-जिसकी जड़ कुशल रहित
| अङ्क को इस गुणन फल का 'वर्गमूल' कहते
हैं। जैसे ३ को ३ ही में गुणे तो गुणनफल या कल्याण रहित हो, निष्प्रयोजन,
६ प्राप्त हुआ। यह १ का अङ्क ३ का वर्ग है अकार्यकारी, बेकार, बेमतलब, कर्म-निर्जरा और ३ का अङ्क ६ का वर्गमूल है ॥ का एक भेद ॥
अकृति धारा (अवर्गधारा)-- अङ्कगणित अकुशनमूना-निर्जरा-निर्जरा के दो
की चौदह धाराओं में से एक धारा का मूल भेदों में से एक का नाम; वह निर्जरा नाम,सर्व अकृति अङ्कों का समूह, सर्व अङ्कों (आत्मा से कुछ कर्मों का सम्बंध टूटना ) अर्थात् १, २, ३, ४, ५, ६. आदि उत्कृष्ट जो बिना किसी उपाय के अबुद्धि पूर्वक अनन्तानन्त तक की पूर्ण संख्या में से वे कर्मों के उदय आने पर कर्म फल के विपाक सर्व अङ्क जिनका वर्ग मूल कोई पूर्ण अङ्क या भोग से संसारी जीवों के स्वयमेव | न हो अर्थात् संख्यामान की "सर्वधारा"
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प्रकृतिमातृक अङ्क
वृहत् जैन शब्दार्णव
अकृत्रिमचैत्य
में से कृतिधारा के अङ्कों को छोड़कर अकृतिमातकधारा-(अवर्गमातक धारा ( १, ४, ६, १६, २५, ३६, ४६, ६४, ८१,
या अवर्गमूल धारा)-अङ्कगणित सम्ब१००, १२१ आदि को छोड़कर ) अन्य
न्धी १४ धाराओं में से एक धारा का सर्व अङ्क २, ३, ५, ६, ७, ८, १० आदि
नाम, सर्वधारा अर्थात् १, २, ३, ४, ५, ६, एक कम उत्कृष्ट-अनन्तानन्त तक । इस
७, ८, आदि उत्कृष्ट अनन्तानन्त तक की धारा का प्रथम अङ्क या प्रथम स्थान २ है
पूर्ण संख्या ( गिनती ) में से केवल वे सर्व और अन्तिम अङ्क (अन्तिम स्थान )
अंक जिनका वर्ग कोई अङ्क न हो अर्थात् उत्कृष्ट अनन्तानन्तसे१ कम है। 'सर्वधारा'
एक के अङ्क से उत्कृष्टअनन्तानन्त के वर्गके अङ्कों की स्थान संख्या अर्थात् उत्कृष्ट
मूल तक के सर्वधारा के समस्त अङ्कों की अनन्तानन्त में से 'कृतिधारा' के अङ्कों की
(जो कृतिमातृक या वर्गमातृक या वर्गस्थान संख्या ( उत्कृष्ट अनन्तानन्त का
मूल धारा के अङ्क हैं ) छोड़ कर सर्व धारा वर्गमूल ) घटा देने से जो संख्या प्राप्त
के शेष समस्त अङ्क । इस धारा का प्रथम होगी वह इस 'अकृतिधारा' के अङ्कों की
अङ्क (प्रथम स्थान ) उत्कृष्ट अनन्तानन्त स्थान-संख्या है । ( आगे देखो शब्द
के वर्ग मूल से १ अधिक है । और अन्तिम "अङ्कविद्या" और "चतुर्दश धारा” ।
अङ्क ( अन्तिम स्थान ) उत्कृष्ट अनन्ताप्रकृतिमातृक अङ्क (अवर्गमूल अङ्क)
नन्त है । उत्कृष्ट अनन्तानन्त में से उसका वह अङ्क जो किसी का वर्गमूल न हो, । अर्थात् जिस का वर्ग उत्कृष्ट अनन्तानन्त
वर्गमूल घटा देने से जो सङ्ख्या प्राप्त । की संख्या से बढ़ जाय जो असंभव है । होगी वही इस 'अकृतिमातृक-धारा' के
प्रत्येक अकृतिमातृक अङ्क उत्कृष्ट अनन्ता- अङ्कों की स्थान-संख्या है। नन्त के वर्गमूल के अङ्क से बड़ा होता नोट १-अकृतिधारा और अकृतिमातृक । है अर्थात् उत्कृष्ट अनन्तानन्त के वर्गमूल में धारा के अङ्कों की स्थान-संख्या समान है। । १ जोड़ने से जो अङ्कप्राप्त होगावह प्रथम या नोट २-खर्व अकृतिमातृक अङ्कों का सप से छोटा या जघन्य "अकृतिमातृक- समूह ही "अकृतिमातृक धारा" है । (देखो अङ्क" है । इसके आगे एक एक जोड़ते | शब्द "अकृतिमातृक अङ्क) जाने से जो उत्कृष्ट अनन्तानन्त तक अङ्क प्राप्त होंगे वे सर्व ही "अकृतिमातक | अकृत्रिम-अजन्य, प्राकृतिक, स्वाभाविक, अङ्क" हैं जिनमें उत्कृष्ट अनन्तानन्त की बिना बनाया हुआ, जो किसी मनुष्यादि संख्या "उत्कृष्ट अकृतिमातृक अङ्क" है॥
प्राणी द्वारा बुद्धि पूर्वकन बनाया गया हो, नोट १–अकृतिमातृक-अङ्क यद्यपि अपने
अनादिअनिधन ॥ स्तविक रूप में तो केवल कैवल्यशान गम्य हैं तथापि मन की काल्पनिक शक्ति द्वारा अकृत्रिमचैत्य-अकृत्रिम प्रतिमा, अकृत्रिम का विचार और निर्णय उद्मस्थ (अल्पज्ञ)
देवप्रतिमा, अजन्य देवमूर्ति, अनादिनिधन णितज्ञ भी कर सकते हैं। [ नोट २-आगे देखो शब्द 'अङ्क', 'अङ्कग- |
दिगम्बर मनुष्याकार शान्ति-मुद्रा धारी ना', 'अङ्क गणित', 'अङ्कषिद्या' ॥
प्रतिमा, अकृत्रिम जिनबिम्ब ॥
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( २२ ) अकृत्रिमचैत्य-पूजा वृहत् जैन शब्दार्णव
अकृत्रिमचैत्यालय नोट-अष्ट प्रकार व्यन्तर देवों और पञ्च एक मानुषोत्तर पर्वत पर चार......४ प्रकार ज्योतिषी देवों के स्थानों में अकृत्रिम
पाँच मेरु सम्बन्धी पाँच शालमली चैत्य असंख्यात हैं॥ त्रिलोक के शेष सब स्थानों में जहाँ कहीं अकृत्रिम जिनप्रतिमा हैं
बृक्षों में से प्रत्येक पर एक एक (५४१,...५ उन सर्व की संख्या नौ सौ पच्चीस करोड़ पाँच मेरु सम्बन्धी एक जम्बू, दो त्रिपन लाख सत्ताइस हजार नौ सौ अड़ता. धातकी, दो पुष्कर वृक्षों में से प्रत्येक पर लीस ( ६२५५३२७६४८ ) है ॥ (देखो शब्द
एक एक (kx१)..... ............. "अकृत्रिम चैत्यालय" का नोट २)॥
हर मेरु सम्बन्धी बत्तील २ विदेहों अकृत्रिमचैत्य-पूजा-जयपुर निवासी पं०
और एक भरतवएक ऐरावत क्षेत्रों से हर चैनसुख जी रचित पूजन के एक भाषा
एक के एक एक विजया या वैताढ्य ग्रन्थ का नाम जिसमें त्रैलोक की अकृत्रिम
पर्वत पर एक एक (५४३४४१)......१७० जिनप्रतिमाओं का पूजन है।
कुल जोड़ ३६८ अकृत्रिमचैत्यालय-अकृत्रिम देवायतन,
इस प्रकार अढ़ाई द्वीप में कुल ३६८ अकृत्रिम देवालय, अकृत्रिम देवमन्दिर। ।
अकृत्रिम चैत्यालय हैं । "नन्दीश्वर"नामक नोट १- अष्ट प्रकार के व्यन्तरों और
अष्टम द्वीप की चार दिशाओं में से हरएक पञ्च प्रकार के ज्योतिषी देवों के स्थानों में में एक 'अजनगिरि' चार 'दधिमुख' और असंख्यात अकृत्रिम जिनमन्दिर हैं। त्रिलोक आठ 'रतिकर' नामक पर्वतहैं और हर पर्वत के शेष स्थानों के अकृत्रिम जिनमन्दिरों की पर एक एक अकृत्रिम चैत्यालय है। इस संख्या निम्न प्रकार है:
प्रकार हर दिशा के १३और चारों दिशाओं __ अढ़ाईद्वीप (मनुष्य लोक ) के ५
के सर्व ( १३४४ ) ५२ अकृत्रिम चैत्यालय मेरु में से प्रत्येक पर सोलह सोलह
हैं। "कुण्डलवर" नामक ग्यारह द्वीप में (१६४५ ).........................८०
इसी नाम के पर्वत पर४,और "रुचकवर" प्रत्येक मेरु सम्बन्धी छह छह कुला
नामक तेरह द्वीप में भी इसी नाम के पर्वत चलों में से हर कुलाचल पर एक एक
पर ४ अकृत्रिम चैत्यालय हैं । (५४६४१)........................... प्रत्येक मेरु सम्बन्धी सोलह सोलह
इस प्रकार मध्य लोक में सर्व वक्षारगिरों में से हर वक्षारगिर पर एक
(३६८१५२+४+४)४५८ अकृत्रिमचैत्यालयहैं। एक (५४१६४१)..................
पाताल लोक में । भवनवासी देवों के प्रत्येक मेरु सम्बन्धी चार चार गज
भवनों में चित्रा पृथ्वी से नीचे ) सर्व दन्तों में से हर गजदन्त पर एक एक
७७२००००० सात करोड़ बहत्तर लाख (५४४४१)....................
अकृत्रिम चैत्यालय हैं । चार इष्वाकार (इषु-आकार अर्थात् __ऊद्ध लोक में (प्रथम स्वर्ग से सर्वार्थतीर के आकार पर्वत) में से हरएक पर सिद्धि-विमान तक)सर्व८४६७०२३चौरासी एक एक (४४१).....""........."४ लाख ६७ हजार तेईस अकृत्रिम चैत्यालयहैं।
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( २३ )
armanamavasamue
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अकृत्रिम चैत्यालय
वृहत् जैन शब्दार्णव
अकृत्रिम चैत्यालय पूजा
no
___ इस प्रकार त्रिलोक के सर्व अ-| कोश की है। ऐसे चैत्यालय विजिया त्रिम चैत्यालय, व्यन्तरों और ज्यो- गिरि, जम्बुवृक्ष शालमली वृक्ष के हैं । तिषी देवों के स्थानों के असंख्य चैत्या- (५) अविशेषणिक-इनकी लम्बाई लयों के अतिरिक्त (४५८+७७२०००००+ आदि अनियत है । ऐसे चैत्यालय अवशेष २४६७०.३) ८५६६७४८२ आठ करोड़ सर्व भवनवासी, व्यन्तर आदि के भवनों छप्पन लाख सत्तानवे हज़ार चार सौ इक्यासी हैं ॥
(त्रि. गा.५६१,५६२,२०६,४५१, है नोट २-हर चैत्यालय में १०८ अकृत्रिम र १०१६,६८६,६७८-९८२) चैत्य है। इस लिये कुल अकृत्रिम चैत्य या अकत्रिम चैत्यालय पजा-यह हिन्दी जिन प्रतिमाओं की संख्या चैत्यालयों की अकृत्रिम चत्यालय पुजा-यह हिन्दी उपर्युक्त संख्या ८५६६७४८ को १०८ से |
___ भाषा के एक पूजन ग्रन्थ का नाम है जो गुणन करने से ६२५५३२७६६८ प्राप्त होगी॥ | निम्न लिखित कवियों द्वारा रचित कई ___ नोट:-हर पर्वत या द्वीप या लोक के प्रकार का उपलब्ध है:उपर्युक्त चैत्यालयों की अलग अलग संख्याओं को १०८ में अलग अलग गुणन करने से हर
१ सांगानेर निवासी पं० लालचन्दरचित एक के अकृत्रिम जिन बिम्बों की अलग-अलग
भाषा पूजो। संख्या निकल आवेगी।
नोट १-इन कवि के रचे अन्य ग्रन्थ ___ नोट ४-परिमाण अपेक्षा सर्व अकृत्रिमः | निम्न लिखित हैं:जिन चैत्यालय उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य, लघु और अविशेषणिक भेद से निम्न लिखित पाँच
(१) षट् कर्मोपदेश रत्नमाला ( वि० प्रकार के हैं:--
सं० १८१० में ), ( २ ) वारांग चरित्र (१) उत्कृष्ट-इनकी लम्बाई, चौड़ाई, | छन्दोवद्ध ( वि० सं० १८२७ में , (३)| ऊँचाई क्रम से १००, ५०, ७५ महायोजन | विमलनाथ पुराण छन्दोबद्ध ( वि० सं० है। ऐसे चैत्यालय भद्रशालबन, नन्दन | १८३७), (४) शिखर बिलास छन्दोबद्ध वन, नंदीश्वर द्वीप और ऊर्द्ध लोक के हैं। (वि० सि. १८४२ ). (५) इन्द्रध्वज पूजा
(२) मध्यम-इनकी लम्बाई, चौड़ाई, । (६) सम्यक्त कौमुदी छन्दोबद्ध (७) ऊँचाई, क्रम से ५०, २५, ३७॥ महा योजन आगम शतक छन्दोबद्ध (८) पञ्च परमेष्ठी है। ऐसे चैत्यालय सौमनसवन,रुचकगिरि, | पूजा ( ६ ) समवशरण पूजा { १०) त्रिलोकुंडलगिरि, वक्षारगिरि, गजदन्त, इष्वाकार, | कसार पूजा( ११ ) तेरह द्वीप पूजा (१२) मानुषोत्तर और षट कुलाचलों के हैं। पञ्च कल्याणक पूजा (१३ ) पञ्च कुमार
(३) जघन्य - इनकी लम्बाई चौड़ाई पूजा। क्रम से २५, १२॥ १॥महायोजन है। २. दरिगह मल्ल के पुत्र पं० विनोदीलाल ऐसे चैत्यालय पांडुक बन के हैं। रचित भाषा पूजा।
(४) लघु-इनकी लम्बाई, चौड़ाई, नोट २-इन कवि के रचे अन्य ग्रन्थः-- ऊँचाई क्रम से केवल एक, अर्द्ध और पौन (१) भक्ताम्मर चरित्र छन्दोबद्ध (२) नेम
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(
२४
)
अकृत्रिमजिनपूजा
वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्रियावाद
नाथ का व्याहला (३) नमोकार पञ्चीसी स्वतःनास्तिवाद (1) ईश्वरपरतः नास्ति(४) फूलमाल पच्चीसी (५) अरहन्त पासा
वाद (७) आत्मास्वतः नास्तिवाद (८) केवली ( संस्कृत), इत्यादि ॥
आत्मापरतः नास्तिवाद (६) नियतिस्वतः ३. पं. नेमकुमार रचित पूजन ।
नास्तिवाद (१० ) नियति परतः नास्ति४. पं० चन सुख जी खंडेलवाल जयपुर
वाद ( ११ ) स्वभावस्वतः नास्तिवाद निवासी रचित पूजा।
(१२) स्वभावपरतः नास्तिवाद । यह १२ अकृत्रिमजिनपूजा-देखो शब्द “अकृ- | मूल भेद हैं। इन १२ को जीव, अजीव, त्रिम चत्य पूजा"।
आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, अकृत्रिम-जिन-प्रतिमा-देखो शब्द
इन तत्वों में से हर एक के साथ अलग २
लगाने से हर तत्त्व सम्बन्धी बारह बारह __ "अकृत्रिम चैत्य"।
भेद हो कर कुल १२४७ ( १२ गुणित ७) अकृत्रिम-जिन-भवन-देखो शब्द “अकृ- अर्थात् ८४ भेद हो जाते हैं । त्रिम चैत्यालय'।
नोट १-'भाव' शब्द का अर्थ है अभिअकृत्स्नस्कन्ध-अपरिपूर्ण स्कन्ध, दो | प्राय, विचार, चेष्टा, मानसविकार, सत्ता, परमाणुओं से लेकर एक परमाणु कम अन
मानस क्रिया, स्वभाव । शास्त्रीय परिभाषा
में 'भाव' मन की उस 'क्रिया' या चेष्टा' को न्त परमाणुओं तक से बने हुए सर्व प्रकार
अथवा उस “आत्मस्वभाव" या "आत्मसत्ता" के स्कन्ध (अ० मा० अकसिण स्कन्ध )। को कहते हैं जो अपने प्रति पक्षी कर्मों के उप
| शम या क्षयादि होने पर उत्पन्न होती है और अकृत्स्ना -प्रायश्चित का एक भेद जिसमें
जिससे जीव का अस्तित्व पहिचाना जाता अधिक तप का समावेश हो सके । अ० है । इस “भाव' की 'गुण' संज्ञा भी है । मा० अकसिणा)।
___ भाव के ५ मूल भेदों में से एक 'औदप्रक्रियावाद-“औदयिक भाव" के २१ भेदों यिक भाव' है जिसके २१ भेद निम्नलिखित में से एक 'मिथ्यात्व भाव' जन्य 'गृहीत
हैं जो जीव में कर्म के उदय से उत्पन्न मिथ्यात्व' के अन्तर्गत जो 'एकान्तवाद'
होते हैं:है उस के ४ मूल भेदों-क्रियावाद, (१) देवगति जन्य भाव, (२) मनुष्य गति अक्रियावाद, अज्ञानवाद और वैनयिक- जन्य भाव, ३) तिर्यश्च गति जन्य भाव, बाद में से दूसरा भेद । इस अक्रियावाद (४) नरकगति जन्य भाव, (५) पुल्लिङ्ग जन्य के निम्न लिखित मूलभेद १२ और भाव, (६)स्त्रीलिंगजन्य भाव, (७) नपुंसकविशेष भेद ८४ हैं:
लिङ्गजन्यभाव,(८)क्रोध कषायजन्यभाव,(६ (१) कालनास्तिवाद (२.) नियत- | मान कषाय जन्य भाव, (१०) माया कषाय नास्तिवाद (३) कालस्वतः नास्तिवाद जन्य भाव, (११) लोभ कषाय जन्य भाव, (४) कालपरतःनास्तिवाद (५) ईश्वर- (१२) मिथ्यात्व जन्य भाव, (१३) कृष्ण
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nagee
अक्रियावाद
वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्रूर
लेश्या जन्य भाव. (१४) नील लेश्या जन्य प्रक्रियावादी–अक्रियावाद के ८४भेदों में भाव, (१५) कापोत लेश्या जन्य भाव.
से किसी एक या अनेक भेदों का पक्ष(१६) पीत लेश्या जन्य भाव, (१७) पद्म
पाती वा श्रद्धानी व्यक्ति ॥ लेश्या जन्य भाव, (१८) शुक्ल लेश्या जन्य
(पीछे देखो शब्द "अक्रियावाद") भाव,(१६)असिद्धत्व जन्य भाव, (२०) असं. यम जन्य भाव, (२१) अज्ञान जन्य भाव । अकर-इस नाम के निम्नलिखित कई
नोट २ - उपर्युक्त २१ भेदों में से १२ वें| प्रसिद्ध पुरुष हुए:मिथ्यात्व जन्य-भाव के मूल भेद दो हैं- (१) अक्रूरडष्टि-श्रीकृष्णचन्द्र का (१) अगृहीत या निसर्गज मिथ्यात्वजन्य भाव
एक मुसेरा बड़ा भ्राता । बल और वीरता और (२) गृहीत या अधिगमज मिथ्यात्व
के कारण इसे "अर्द्ध-रथी" का पद प्राप्त जन्य भाव । इन दो में से दूसरे गृहीत मिथ्यात्व जन्य भाव के मूल भेद ५ हैं -(१) एकांत
था। यह श्रीकृष्णचन्द्र ( नवम नारायण ) (२) विपरीत (३) विनय (४) संशय और के पिता श्री वसुदेव (२० वे कामदेव) की (५) अज्ञान-इन ५ में से पहिले भेद “एका- सबसे पहिली स्त्री गन्धर्वसेना ( द्वितीय न्त मिथ्यात्व" के जो शेष चारों मिथ्यात्व का नाम विजयसेना) से पैदा हुआ था। मूल है और जिसकी झलक प्रायः शेष चारों
'सोमादेवी' इसकी माता की बड़ी बहन थी। में भी दिखाई देती है उसके (१) क्रियावाद (२) अक्रियावाद (३) अज्ञानवाद और (४)वैन
और विजयखेट नगर का एक प्रसिद्ध यिकवाद, यह चार मूल भेद और उनके क्रमसे | गन्धर्वाचार्य “सुप्रीव' नामक इसका १८०, ८४, ६७, और ३२ एवं सर्व ३६३ विशेष नाना था। एक "ऋर" नामक इसका। भेद हैं। इन में से अक्रियावाद के उपर्युक्त ८४
लघु भ्राता था ॥ भेद हैं जिनमें से प्रत्येक का अभिप्राय है कि आत्मस्वरूप जानने या दुःख-निवृत्ति के लिये
(२) श्रीकृष्णचन्द्र का एक पितृन्य। किसी प्रकार की क्रिया कलाप के संकट में | (चचा)-इसके पिता का नाम 'स्वफल्क' । फँसना ब्यर्थ है जिसकी पुष्टी इन उपर्युक्त और माता का नाम 'गान्धिनी' (गान्दिनी) ६४ वादों में से किसी न किसी एक या था जो काशी नरेश की पुत्री थी। यह | अधिक से एकान्त पक्ष के साथ बिना किसी
अक्रूरादि १२ भाई थे। अपेक्षा के की जाती है, जिससे ऐसा ही एकान्त विचार हृदयस्थ हो जाता है।
(३) मगधाधीश राजा श्रेणिक (विम्ब___ नोट ३-भाव के ५ मूल भेद यह हैं- सार ) का एक पुत्र-इसका नाम 'कुणिक' (१) औपशमिक (२) क्षायिक (३) मिश्र और "अजातशत्रु' भी था । अक्रूर, (४) औदयिक (५) पारिणामिक । इनके वारिषेण, हल्ल, विदल, जितशत्रु, गजउत्तर-भेद क्रम से २, ६, १८, २१, ३. एवं
कुमार ( दन्तिकुमार ), मेघकुमार, यह सर्व ५३ हैं। (आगेदेखो शब्द "अट्ठाईसभाव" का नोट)॥ .
सात भाई थे जो श्रेणिक की “चेलनी" (गो. क. गा. ८८४, ८५,'
नामक रानी से उत्पन्न हुए थे । इन सातों १८१२, ८१३, ८१८, .... से बड़ा इन का एक मुसेरा भाई "अभय
तामा
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MAINTAMIL
अकर
वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्ष
कुमार" था जो श्रेणिक की पहिली रानी और पुत्र को राज्य सिंहासन देकर संयमी नन्दश्री ( सेठ इन्द्रदत्त की पुत्री ) से अपने होगया ॥ ननिहाल में पैदा हुआ था। श्रीमहाबीर (आगे देखो श० अजातशत्रु नोटों सहित ) ( अन्तिम २४ वें तीर्थङ्कर ) राजा श्रेणिक अकर दृष्टि-पीछे देखो शब्द "अक्रूर (१)" की स्त्री "चेलिनी" को सबसे बड़ी बहन "प्रियकारिणी" जो कुंडपुर (वैशाली या अक्रोश-साधु के चौमासा न करने योग्य वसाढ़ जि० मुज़फ्फरपुर के निकट ) नरेश स्थान जिसकी एक दो या तीनों ओर नदी "सिद्धार्थ' की पटरानी थी उसके पुत्र पहाड़ या हिंसक पशु हो ( अ० मा० ) ॥ अर्थात् इस "अक्रूर" के मुसेरे भाई थे। अक्ष-१. धुरा, धुरी, पहिया, कील, गाड़ी, इसका पिता श्रेणिक पहिले बहुत काल
रथ, तराज़ की डंडी, अभियोग (मुकद्दमा), तक बौद्धधर्मी रहा, पश्चात् उसे त्याग
चौसर, चौसर खेलने का पासा, कर्ष कर जिन धम्म का पक्का श्रद्धानी होगया
अर्थात् १६ माशे को एक तोल, जन्मान्ध, परन्तु अक्रूर (कुणिक ) ने अज्ञानवश इसे
ध्रुव तारा, तूतिया, नीला थोथा, सुहागा, वन्दीगृह में डालकर बड़ा कष्ट पहुँचाया
आमला, बहेड़ा, रुद्राक्ष, सर्प, गरुड़, और स्वयम् राज्यालन ग्रहण कर लिया
आँख, इन्द्रिय, आत्मा, रचना भेद, चार और "अजात शत्रु' नाम से प्रसिद्ध हुआ।
हाथ की लम्बाई (एक धनुष ). प्रस्तार माता चेलिनी के अनेक प्रकार से बारम्बार
रचना में कोई अभीष्ठ भंग॥ . समझाते रहने पर जब एक दिन इसे कुछ
२. ज्योतिष चक्र सम्बन्धी ८८ ग्रहों में समझ आई और अपने इस दुष्कर्म पर
से एक का नाम; ८८ ग्रहों में से २७ वां पश्चाताप करता हुआ पिता को बन्धन
ग्रह, राशि चक्र के अवयव; ग्रहा के भ्रमण मुक्त करने के विचार से उसके पास को
करने का पथ । (देखो शब्द "अघ” कानोट) जा रहा था तो दुःखी श्रेणिक ने यह समझ
.. ३. “मन्दोदरी" के उदर से उत्पन्न लङ्काकर कि न जाने क्या और कितना कष्ट
पति “रावण' के एक पुत्र का नाम भी और देने के लिये यह इधर आ रहा है
"अक्ष' था । यह अठारवें कामदेव बानर तुरन्त अपघात कर लिया जिससे "अक्रूर" वंशोत्पन्न 'पवनञ्जय' के पुत्र हनुमान के को भारी शोक हुआ और कुछ ही मास हाथ से, जब वह 'सीता' महाराणी का पीछे वारिषेण आदि अन्य भाइयों की पता लगाने के लिये लङ्का गया था, मृत्युसमान राज्य लक्ष्मी को क्षणिक और दुःख- प्राप्त हुआ । इसे "अक्षकुमार' और मूल जान उससे विरक्त हो अपने एक "अक्षयकुमार" नाम से भी बोलते थे।। छोटे भाई 'अजितशत्रु' को जिसका मन इसी नाम का काशमीर देश का भी एक | इन्द्रिय भोगौसे अभी तृप्त नहीं हुआथाअपने प्रसिद्ध नरेश था जो कामशास्त्र रचयिता लोकपाल नामक पुत्र का संरक्षक बनाकर काशमीर नरेश “वसुनन्दि" का पौत्र और
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अक्षदन्त
"नर द्वितीय" का पुत्र था ॥ ( देखो ग्रन्थ " वृहत् विश्व चरितार्णव " अक्षदन्त-दुर्योधनादिकौरवों के पिता
( २७ }
वृहत् जैन शब्दार्णव
धृतराष्ट्र के वंश का एक राजा - यह महाभारत युद्ध के पश्चात् दक्षिण देश के एक " हस्तिवप्र " नामक नगर में राज्य करता था और यादवों व पाण्डवों से शत्रुता का भाव हृदय में रखता था । द्वारिकापुरी "द्वीपायन" मुनि की क्रोधाग्नि द्वारा भस्म हो जाने के पीछे जब श्रीकृष्ण नारायण और श्रीबलदेव बलभद्र दोनों भाई दक्षिण मथुरा ( मदुरा ) की ओर पाण्डवों के पास को जा रहे थे तो मार्ग में 'हस्तिवप्र' नगर के बाहर विजय नामक उपबन (बाग़ ) में यह ठहरे। बड़े भाई श्रीबलदेवजी भोजन सामग्री लेने नगर में गये, तभी ज्ञात हो जाने पर इस राजा "अक्षदन्त" ने इन्हें पकड़ लेने के लिये एक बड़ी सैना भेजी । दोनों भ्राताओं ने बड़ी चतुरता और वीरता के साथ लड़कर सारी सैना को भगा दिया और शीघ्रता से तुरन्त दक्षिण मथुरा की और फिर गमन किया । "कौ शाम्बी" नामक वन में पहुँचकर श्रीकृष्ण " जरा" ( यादववंशी जरत्कुमार ) नामक व्याध के तीर से मृग के धोखे में प्राणान्त हुए । (देखो ग्रन्थ " वृहत्विश्वचरितार्णव ") अक्षधर - आगे देखो रा० “अक्षोभ ( ३ )”
अक्ष परिवर्तन
[-अक्ष का अदल बदल, किसी प्रस्तार में पदार्थादि के किसी भेद या भङ्ग को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाना या लौट फेर करना । इसी को
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I
'अक्षसञ्चार' और अक्षसंक्रम या अक्षसंक्रमण भी कहते हैं । किसी पदार्थ के भेद आदि जानने की क्रिया विशेष के यह ५ अङ्ग या वस्तु हैं - (१) संख्या (२) प्रस्तार (३) अक्षसंचार ( ४ ) नष्ट (५) उद्दिष्ट | ( आगे देखो श० "अजीवगत हिंसा" का नोट १० ) ॥
( मू. गा. १०३४, गो. जी. गा. ३५) क्षमाला - नाथवंश के स्थापक काशी देश के महामंडलेश्वर राजा " अकम्पन" की लघु पुत्री - इसकी एक बड़ी बहन 'सुलोचना' थी जिसके स्वयम्बर के समय इसका विवाह श्रीऋषभदेव ( प्रथम तीर्थङ्कर ) के पौत्र अर्थात् भरत चक्रवर्ती के ज्येष्ठ पुत्र "अर्क कीर्त्ति" के साथ किया गया था । इसका पति 'अर्ककीर्त्ति', अर्कवंश (सूर्य्यवंश) का प्रथम राजा था जो अपने पिता भरत चक्रवर्ती के पश्चात् अयोध्या की गद्दी पर बैठा और सम्पूर्ण भारत देश और उसके आस पास के कई देशों का अधिपति बना । ( देखो प्र० "वृ वि० च०" ) अक्षबात ( अक्षवाशु ) -- पुष्करार्द्ध द्वीप के पूर्वीय ऐरावत क्षेत्र की वर्त्तमान चौबीसी के द्वितीय तीर्थङ्कर । ( आगे देखो शब्द "अढ़ाई द्वीप पाठ" के नोट ४का कोष्ठ ३) अक्षमृक्षण- - धुरी को बांगना, गाड़ी के पहिये की धुरी को घी आदि चिकनाई लगा कर ऊँघना ॥
२. एक प्रकार की 'भिक्षावृत्ति' या 'भिक्षाशुद्धि', निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनियों की पञ्च प्रकारी भिक्षावृत्ति - ( १ ) गोचरी ( गो
अक्षमृक्षण
2
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A
अक्षसंक्रम
वृहत् जैन शब्दार्णव
. अक्षयतृतीया
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चार ) (२) अक्षमृक्षण (३) उदराग्नि- दो भेदों “सक्षय अनन्तानन्त” और “अक्षयप्रशमन, (४) भ्रमराहार और ( ५ ) गर्त अनन्तानन्त' में का दूसरा भेद यह पूर्ण (श्वभ्रपूर्ण )-में से एक वृत्ति का "अक्षय अनन्त" है यह वह राशि या नाम; तथा 'अपहृत संयम' सम्बन्धी 'अष्ट संख्या है जिसमें नवीन वृद्धि न होने पर शुद्धि'-(१) भाव शुद्धि (२) काय भी कुछ न कुछ व्यय होते होते कभी जिस शुद्धि (३) विनय शुद्धि (४) ईर्यापथ- का अन्त न हो । इसके विरुद्ध "सक्षयशुद्धि (५) भिक्षाशुद्धि (६) प्रतिष्ठापना अनन्त' या 'सक्षय-अनन्तानन्त" वह शुद्धि (७) शयनासन शुद्धि (८) वाक्य मध्यम अनन्तानन्त राशि या संख्या है शुद्धि-एक भेद "मिक्षाशुद्धि' के जिस में नवीन वृद्धि न होने पर यदि उस उपर्युक्त पाँच भेदों में से एक भेद का नाम; में से लगातार कुछ न कुछ व्यय होता रहे अर्थात् 'अक्षमृक्षण' यह 'भिक्षावृत्ति' या तो कभी न कभी भविष्यकाल में उस का 'भिक्षाशुद्धि' है जिस में भिक्षुक सुरस | अन्त हो जाय ॥ विरस भोजन के विचार रहित केवल इस | नोट १.-"उत्कृष्ट अनन्तानन्त" संख्याअभिप्राय से शुद्ध और अल्प भोजन
मान के २१ भेदों में से अतिम २५ वां भेद है। ग्रहण करे कि जिस प्रकार गाड़ीवान
जो कैवल्यज्ञान की बराबर है और सर्वोत्कृष्ट
"अक्षय अनन्त' है ॥ अपनी इष्टवस्तु से भरी गाड़ी को उस की
नोट २-( १) सिद्धिराशि (२) धुरी घृत से बांग कर देशान्तर को अपने प्रत्येकबनस्पति-जीवराशि, (३) साधारण वांछित स्थान तक ले जाता है। उसी बनस्पति जीवराशि या निगोदराशि (४) प्रकार मुझे भी धर्म रूपी रत्नों से भरी इस पुद्गल परमाणु राशि (५) भूत, भविष्यत् शरीर रूपी गाड़ी को उस का उदर रूपी
और बर्तमानतीनोंकाल के समय और (६) अक्ष (धुरा) भोजन रूपी घृत से बांग
सर्व आकाश-लोकालोक-के प्रदेश, यह छहों कर अपने समाधिमरण रूपी इष्ट स्थान
महाराशि "अक्षय अनंत" हैं । इन में से प्रत्येक
राशि अक्षय अनन्त होने पर भी पहिली राशि तक ले जाना है ॥
से दूसरी, दूसरी से तीसरी, तीसरी से
चौथी और चौथी से पांचवों और छटी राशि अक्षसंक्रम-पीछेदेखोशब्द अक्षपरिवर्तन”
अनन्त अनन्त गुणी बड़ी हैं । अक्षसञ्चार-पीछेदेखो शब्द'अक्षपरिवर्तन'
___ नोट ३-आगे देखो शब्द "अङ्कगणना" ॥
अक्षय तृतीया-अक्षय तीज, अखय तीज, प्रक्षयअनन्त (अक्षयअनन्तानन्त)-क्षय आखा तीज, बैसाख शु० ३, सतयुग के
और अन्त रहित, जिस का न कभी आरम्भ का दिन । कृत्तिका या रोहिणी बिनाश हो और न कमी अन्त हो; __ नक्षत्र का योग यदिइस तिथि (बैसाख शु० अलौकिक संख्या मान के २१ भेदों में का ३) को हो तो अति उत्तम और शुभ है। एक भेद जो मध्यम अनन्तानन्त है उसके इसी तिथी को हस्तिनापुर के राजा |
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अक्षयतृतीयावत वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्षयनिधिबत "श्रेयाँस' ने "श्रीऋषभदेव" जी को इक्षुरस | शु. १० को हर वर्ष १० वर्ष तक यथाका निरन्तराय आहार दे कर प्रथम पारणा विधि उत्तम. मध्यम या जघन्य एक कराया जिसके सातिशय पुन्य से उसी एक उपवास या प्रोषधोपवास. किया समय उस के यहां देवोंकृत पञ्चाश्चर्य हुए जाता है । ब्रत के दिन “ॐ नमो नेमऔर उसके रसोई गृह में उस दिन के लिये नाथाय" या "ॐ श्री नेमनाथाय नमः" अक्षय अर्थात् अटूट भोजन हो गया जिस इन में से किसी एक मंत्र की कम से कम । से इस तिथी का नाम "अक्षयतृतीया" १० जाप की जाती हैं और दश वर्ष के प्रसिद्ध हुआ॥
पश्चात् देवार्चन पूर्वक यथाशक्ति १० अक्षय तृतीया व्रत-इस व्रत में बैशाख
प्रकार को एक एक या दश दश उपयोगी शु•३ को केवल एक एक उत्तम मध्यम या
वस्तु (शास्त्र, धोती, दुपट्टा, थाली, लोटा जघन्य उपवास ३ वर्ष तक यथा-विधि
इत्यादि) एक या दश देवस्थानों में चढ़ाई। किया जाता है। ब्रत के दिन “ॐ नमः
जातो हैं या गरीब विद्यार्थियों या अन्य ऋषभाय" या "ॐ श्रीऋषभायनमः' इस
दुखित भुक्षित या अपाहजों को दी जाती मंत्र की कम से कम ३ जाप की जाती हैं ।
हैं तथा इसके अतिरिक्त सम दान के रूप में | ब्रत का सम्पूर्ण समय सर्व गृहारम्भ त्याग
साधर्मी पुरुषों में भी हर्ष पूर्वक बांटी।
जाती हैं । उद्यापन की शक्ति न हो तो! कर शास्त्र स्वाध्याय, देवार्चन, धर्म चर्चा, मंत्र जाप, स्तोत्र पाठ आदि धर्मध्यान के |
दूने व्रत किये जाते है ॥ कार्यों में व्यतीत किया जाता है । ३ वर्ष | अक्षय दशमी व्रत कथा-इस कथा के | के पश्चात् यथा विधिऔर यथाशक्ति व्रतो.
सम्बन्ध में लिखा है कि श्रीशुभङ्कर नामक द्यापन किया जाता है या दूने व्रत कर दिये
एक अवधि ज्ञानी मुनि के उपदेश से एक जाते हैं।
राजगृही नगर नरेश "मेघनाद" और | अक्षय दशमी-श्रावण शु० १०;श्रीनेमनाथ उसकी स्त्री "पृथ्वी देवी” ने दश वर्ष | तीर्थङ्कर ने श्रावण शु० ६ को दीक्षा ग्रहण तक यह व्रत विधि पूर्वक किया; व्रत पूर्ण की उसके ३ दिन पीछे इसी मिती को होने पर यथा विधि बड़े उत्साह के साथ | द्वारिकापुरी महाराज "वरदत्त" के हस्तसे उसका उद्यापन किया जिसके महात्म्य से , प्रथम पारणा किया था जिस के पुण्योदय | उन पुत्र बिहीन दम्पति के कई पुत्र पुत्रियां या माहात्म्य से राजा के रसोई गृह में उस | हुई और अन्त में समाधि मरण से शरीर दिन के लिये अटूट भोजन हो गया। इसी
त्याग कर प्रथम स्वर्ग में जा जन्म लिया ॥ कारण इस तिथि का यह नाम प्रसिद्ध | अक्षयनिधिव्रत-एक व्रत है जिसमें श्रावण हुआ॥
शु० १० को यथाविधि "प्रोषधोपवास," अक्षय दशमी व्रत-इस व्रत में श्रावण | फिर श्रावण शक्का ११ से भाद्रपद कृ.
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अक्षयपद
वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्षयपदाधिकारी
तक नित्यप्रति “एकाशना", फिर भाद्रपद कृ० १० को 'प्रोषधोपवास किया जाता है। इसी प्रकार १० वर्ष तक हर वर्ष करने के पश्चात् यथा शक्ति उद्यापन पूर्वक पूर्ण हो
जाता है । अक्षयपद--अविनाशीपद, मुक्तिपद, निर्वाण
पद, सिद्धपद, शुद्धात्मपद, निकल पर मात्म पद॥
यह महान सर्वोत्कृष्ट पद तपोबल से (जिस के द्वारा सर्व प्रकार की इच्छाओं के निरोध पूर्वक आत्मा के सर्व वैभाविक भावों और विकारों को पूर्णतयः दूर करने का निरन्तर प्रयत्न किया जाता है ) सर्व सश्चित कर्मों को क्षय करके आत्मा को पूर्ण निर्मल कर लेने पर प्राप्त होता है । यह पवित्र निर्मल पद ही आत्मदेव का“निज स्वाभाविकपद" या "निज अनुभूति" है जो अनन्तानन्त ज्ञानादि शक्तियों का अक्षय अनन्त भंडार है और जिसे यह अनादिकर्म बन्धके प्रवाह में रुलता हुआ संसारी जीव भूल रहा है ॥ अक्षयपदाधिकारी-मुक्ति पद प्राप्त करने के अधिकारी, अर्थात् जो अवश्य मोक्ष पद प्राप्त करें। इस अधिकार सम्बन्धी नियम निम्न प्रकार हैं:
१. तद्भव-सर्व तीर्थङ्कर, सर्व केवली, अष्टम या इससे उच्च गुण स्थानी क्षायक सम्यक-दृष्टि, विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी, परमावधिज्ञानी, सर्वावधिज्ञानी ॥
२. द्वितीय भव में प्रथम स्वर्ग का "सौधर्म इन्द्र", प्रथम स्वर्ग के इन्द्र की शची "इन्द्राणी", इसी के "चारोंलोकपाल'' -सोम, वरुण, कुवेर, यम-तीसर, पाँचवें,
नवे, तेरह, और प. द्रढे स्वर्गों के सनत्कुमार, ब्रह्म,शुक्र, आनत, और आरण नामक 'सर्व दक्षणेन्द्र" ; “सर्व लोकान्तिकदेव" ; "सर्व सर्वार्थ सिद्धि के देव" ; "क्षायक सम्यक्ती नारको जीव'' या देव पर्यायी जीव जो १६ कारण भावना से तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध करें।
३. तृतीय भव में-जो मुनि १६ कारण भावना से तीर्थङ्कर गोत्र बाँधे ॥ - ४. द्वितीय या चतुर्थ भवमे-पञ्च अनुत्तर में से विजय, वैजयन्त, जयन्त, और अपराजित इन चार विमान तथा नव अनुदिश विमानवासी देव ।। ५. चतुर्थ भव तक-क्षायिक सम्यक्ती ॥ ६. अष्टम भव तक-समाधि मरण करने वाले भावलिङ्गी मुनि ॥
७. अधिक से अधिक बार उपशमश्रेणी चढ चुकने वाला उपशम सम्यम्दृष्टी और अधिक से अधिक ३२ बार सकल संयम को धारण करने वाला जीव अन्तिम बार अवश्य मोक्ष पद प्राप्त कर लेता है। ___८. मोक्ष पदाधिकारी अन्य जीव-सर्व निकट भव्य और दूर भव्य जीव, उपशम सम्यग्दृष्टी, क्षायोपशमिक-सम्यग्दृष्टी,चक्री, बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण, कुलकर, तीथङ्करों के माता पिता, कामदेव, रुद्र, नारद, यह पदवीधारक पुरुष सर्व मोक्ष पदाधिकारी हैं जो आगे पीछे कभी न कभी नियम से मोक्ष पद प्राप्त कर लेते हैं ।
त्रि. ५४८, गो.क ५२५,६१६, तत्वा.) | अ. ४ सू०. २६, मूला. ११८, ल. गा.१६४, धर्मः सं० श्लो७४ पृ. ८०, गो. जी.६४५, क्षे. गा. १, इत्यादि ।
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अक्षयबड़
वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्षर
अक्षयबड़-वह बटवृक्ष जिसके नीचे प्रथम अक्षर-(१) स्थिर, नाश रहित, अच्युत तीर्थङ्कर "श्रीऋषभदेव" ने "प्रयागनगर" नित्य, आकाश, मोक्ष, परमात्मा, ब्रह्म,धर्म, के बन में जाकर दिगम्बरी दीक्षा धारण धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य, कालद्रव्य,तर, जल॥ की थी जिसके सहस्रों वर्ष पश्चात् नष्ट (२) अकारादि वर्ण ॥ होजाने पर भी लोग किसी न किसी रूप __ अकारादि अक्षरों के मूल भेद दो हैंमें उस स्थान को आज तक पूज्य मान भावाक्षर और द्रव्याक्षर। भावाक्षर अनादिकर पूजते चले आते हैं । प्रयागराज जिस निधन अकृत्रिम हैं जिनसे व्याक्षरों की का प्रसिद्ध नाम आज कल 'इलाहाबाद' है रचना कालविशेष तथा क्षेत्रविशेष में उसके किले में एक नक़ली बट वृक्ष त्रिवेणी अनेक प्रकार से अनेक आकारों में यथा(गङ्गा यमुना का सङ्गम ) के निकट अब आवश्यक होती रहती है । वर्तमान कल्प भी विद्यमान है । जिसे लोग "अखय- काल के वर्तमान अवसर्पिणी विभाग में वट" के नाम से पूजते हैं॥
द्रव्याक्षरों की रचना सर्व से प्रथम श्री नोट-गया” में भो एक वटवृक्ष है जो ऋषभदेव ने अयोध्यापुरी में की । और सहस्रों वर्ष पुराना होने से 'अक्षयवट' सर्व से पहिले अपनी बड़ी पुत्री "ब्राह्मी" | कहाता है । जगन्नाथपुरी में भी इस नाम का को यह अक्षरावली सिखाई । इसी लिये
एक वृक्ष होने का लेख मिलता है परन्तु अब इस 'अक्षरावली' का नाम "ब्राह्मीलिपि" | वहां इस नाम का कोई वृक्ष नहीं है । दक्षिण प्रसिद्ध हुआ । इस लिपी में ६४ मूल वर्ण भारत में नर्मदा नदी के निकट और सीलौन और एक कम एकट्ठी अर्थात् १८४४६७ (लङ्का ) टापू में भी अति प्रचीन और बहुत ४४०७३७०६५५१६१५ मूल वर्णों सहित बड़े एक एक वट वृक्ष हैं॥
संयोगीव की संख्याहै जिनके अलग अलग अक्षय श्रीमाल-ढुढारी भाषा भाषी एक
आकार नियत किये गये हैं । ६४ मूलाक्षर
निम्न प्रकार हैं:स्वर्गीय साधारण जैन विद्वान्-इन्होंने एक
३३ व्यञ्जनाक्षर जिनके उच्चारण में अर्द्ध"धर्मचर्चा" ग्रन्थ ढुढारी भाषा वचनिका
मात्रा-काल लगता है- क् ख् ग् घ् ङ् । च | (गद्य) में लिखा । ( देखो ग्रन्थ “वृहत्
छ् ज् झ् ञ । ट् ठ् ड् द् ण् । त् थ् द् धू विश्वचरितार्णव')
न् । प् फ् ब् भ् म् । य र ल व् । श्ष् अक्षयसप्तमी-भादों कृ० ७, इसे अक्षय
स् ह॥ ललिता भी कहते हैं । सोल्हवें तीर्थङ्कर ___ ह्रस्व स्वर जिनके उच्चारण में एकश्रीशान्तिनाथ इसी तिथि को भरणी नक्षत्र मात्रा-काल लगता है-अ इ उ क ल । ए में हस्तिनापुर के राजा "विश्वसैन" की ऐ ओ औ॥ रानी “ऐरादेवी के गर्भ में सर्वार्थसिद्धि ___६ दीर्घ स्वर जिनके उच्चारण में दोविमान से चयकर अवतरे ॥ .
मात्रा-काल लगता है-आई ऊ ऋ ल ।
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अक्षर
( ३२ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
२ ऐरुओ२ औ २ ॥
६ प्लुत स्वर जिनके उच्चारण में तीन मात्रा- काल लगता है- - आ ३ ई ३ऊ ३ ॠ ३ ल ३ | ए ३ ऐ ३ ओ ३ औ ३ ॥ -
४ योगवाह जिनका उच्चारण किसी दूसरे अक्षर के योग से ही होता है— . (अनुस्वार - यह चिन्ह किसी स्वर या व्यंजन के ऊपर यथा आवश्यक लगाया जाता है ), : (विसर्ग - यह चिन्ह किसी व्यञ्जन के आगे यथा आवश्यक लगाया जाता है), (जिह्वामूलीय -यह चिन्ह 'क, ख' के पूर्व यथाआवश्यक लगाया जाता है), X (उपध्मानीय - यह चिन्ह 'पफ' के पूर्व यथाआवश्यक लगाया जाता है), इस प्रकार ३३ व्यञ्जन, २७स्वर, और ४ योगवाह, यह सर्व ६४ मूल अक्षर हैं।
( गो० जी० गा० ३५१ - ३५३)
1
अक्षर
नोट १ -- अन्य अपेक्षा से अक्षर के ३ भेद भी हैं - (१) लब्ध्यक्षर (२) निर्वृत्यक्षर और (३) स्थापनाक्षर । ( आगे देखो शब्द "अक्षरज्ञान" का नोट १ ) ॥
नोट २ - उपर्युक्त ६४ मूलाक्षरों से जो मूल वर्णों सहित एक कम एकट्टी अर्थात् १८४४६७४४०७३७०६५५१६१५ असंयोगी (६४ मूलाक्षर ), द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी, चतुः संयोगी, पंच संयोगी आदि ६४ संयोगी तक के अक्षर बनते हैं उनके जानने की प्रक्रिया निम्न प्रकार हैं:
उदाहरण के लिये क् ख् ग् घ् ङ्, इन ५ मूल अक्षरों से असंयोगी और संयोगी सर्व रूप कितने और किस प्रकार बन सकते हैं यह बात नीचे दिये कोष्ठ से पहिले भली प्रकार समझ लेनी चाहिये:
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अक्षर
वृहत् जैन शब्दार्णव
roneमारणात
मूलअक्षर
| मूलाक्षरों से बने हुए सर्व असं| योगी और संयोगी रूप या भंग
मूलाक्षर संख्या
असंयोगो अक्षरों की संख्या . द्विसंयोगीअक्षरों की संख्या . त्रिसंयोगी अक्षरों की संख्या
चतुःसंयोगोअक्षरों की सं०
पंच संयोगी अक्षरों की सं० » ! सर्व अक्षरों का जोड़ . .
Aarmananewaaaaaaaaaaaaaaaaaaaando
२ | क्. स्व.
क् , खू, कर.
२ | १
. ०
।
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३ | क्. स्त्र, ग. | क्, ख, ग,
ख,
ग, खग, | ३ | ३ | १ | ०
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..
खग.
४ | क, ख, ग,
क, ख. ग, घ ,
ख, ग, धु, | ४ | ६
४
१
०
१५
| खग, ख्घ , ग्धू , कम्वग् कवघ् ,
कगघ, खगघ, कखगघ.
व, ना
| क्
ख, ग घ, ङ, कम्व, ग, घ,
५ | १० | १० | ५ | ? | ३.!
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| कङ, खग, खु, ख, ग, गङ्
ध्व
२० कग,
ग्, घ, ङ्क्ग् , २१ २२ २३ घ, खगघ, खगङ,
खघङ, गघङ, कखगघ, कखगङ,
२८ कखघङ, कगघङ, खगघङ,
३१ कखगघङ ॥
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| अक्षर
वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्षरमातृका
६४
(१) उपर्युक्त कोष्ठ से प्रकट है कि एक | (४) उपर्युक्त करण सूत्र के अनुकूल अक्षर से केवल एक ही असंयोगी भंग, | १ अक्षर की भंग-संख्या... . ... . २-१=१ दो अक्षरों से सर्व ३ भंग, तीन अक्षरों से | २ अक्षरों की भंग-संख्या २४ २-१ सात, चार अक्षरों से १५ और पांच अक्षरों
=२-१४-१% से ३१ भंग प्राप्त होते हैं।
३ अक्षरों की भंग-संख्या २x२x२-१ (२) भंगों को क्रम से बढ़ती हुई इस
=२-१८-१७ संख्या पर दृष्टि डालने से यह जाना जाता है कि भंगों की प्रत्येक अगली अगली
१. अक्षरों की भंग-संख्या २x२x२x२-१ संख्या अपनी निकट पूर्व-संख्या से द्विगुण से एक अधिक है; इसी नियमानुकूल छह | ५ अक्षरों की भंग-संख्या अक्षरों से प्राप्त भंग-संख्या ३१ के द्विगुण २x२x२x२x२-१-२-१=३२-१=३१ से एक अधिक अर्थात् ६३, सात अक्षरों | ६ अक्षरों की भंग-संख्या से प्राप्त भंग-संख्या ६३ के द्विगण से एक
२x२x२x२x२x२-१-२-१६४-१६३ अधिक अर्थात् १२७, आठ अक्षरों से
इत्यादि प्राप्त भंग-संख्या २५५, नौ अक्षरों से प्राप्त भंग-संख्या ५११, दश अक्षरों से १०२३,
अतः ६४ मूलाक्षरों की भंग-संख्या=२-१ इत्यादि । इसी रीति से द्विगुण द्विगुण कर
=एकट्टी-१-१८४४६७४४०७३७०६५५१६१५ के एक एक जोड़ते जाने से ६४ अक्षरों से
. नोट ३-६४ मूलाक्षरों से असंयोगी, प्राप्त भंग-संख्या अर्थात् सर्व असंयोगी
द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि ६४ संयोगी तक
के जो सर्व एक कम एकट्ठी प्रमाण अक्षर और संयोगी अक्षरों की संख्या उपर्युक्त एक
बनते हैं उनके जानने की प्रक्रिया दूसरे प्रकार कम एकट्ठी प्रमाण प्राप्त होगी।
| सेदूसरे प्रकार के कोष्ठ सहित "श्रीगोमट्टसार" (३) अतः उपर्युक्त नियम से १, २,
जीवकांड की गा० ३५२. ३५३, ३५५ की ३, ४, ५, ६ आदि चाहे जितने मूलाक्षरों
श्रीमान् पं. टोडरमल जो कृत व्याख्या में
द्रित ग्रन्थ का पृ. ७५४) अथवा से प्राप्त होने वाली सवं असंयोगी और
| इसी की प्रति-लिपि रूप "श्रीभगवती आरासंयोगी अक्षरों की संख्या जानने के लिए धनासार" की गा० ५.५ की व्याख्या में देखें निम्न लिखित 'करणसूत्र' या 'गुर' की (कोल्हापुर जैनेन्द्र-प्रेस की प्रथमावृति के उत्पत्ति होती है:
मुद्रित ग्रन्थ का पत्र १६६) जितनी मूलाक्षर संख्या हो उतनी जगह | अक्षरमातृका-सर्व अक्षरों का समूह । २ का अङ्क रख कर परस्पर उन्हें गुणे और इस के पर्यायवाचक (अन्य एकार्थ बोधक गुणन फल से एक कम कर दें। शेष संख्या नाम)अक्षरमाला, अक्षरश्रेणी, अक्षरावली, असंयोगो, द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि वर्णमाला, अक्षरमालिका, वर्णमातृका, सर्व अक्षरा की जोड़ संख्या होगी। । अक्षरसमाम्नाय, इत्यादि हैं।
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भक्षरमातृकाध्यान
वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्षरमातृकाध्यान
प्राकृतभाषा की वर्णमाला में ३३ व्यञ्जन, हुए चिन्तये । कमल को प्रफुल्लित और २७ स्वर और ४ योगवाह, सर्व ६४ मूल आकाशमुख चिन्तवन करै।इसस्वरावलीको अक्षर हैं और इनके परस्पर के संयोग से जो प्रत्येक पत्र पर चक्राकार घूमता हुआ ध्यान मूलाक्षरीसहितसंयोगीअक्षरबनतेहैं उनकी करै । "हृदय-स्थान" पर २४ दल कमल संख्याएककम एकट्ठी अर्थात् १८४४६७४४० कर्णिका सहित का चिन्तवन करै । कर्णिका ७३७०६५५१६१५ ( एक सौ चौरासी संख, और २४ पत्रों पर क्रमसे क ख ग घ आदि छयालीसपद्म, चौहत्तरनील, चालीसखर्ब, म तकके २५ व्यञ्जन चिन्तवे। इस कमल का तिहत्तर अर्ब, सत्तर कोटि, पिचान लक्ष,
मुख नाभि कमल की ओरको पाताल मुख इक्यावन सहस्र, छह सौ पन्द्रह ) है ॥ चिन्तवन करै।फिर अष्टदल "मुखकमल" का
संस्कृत भाषा की अक्षरमाला में ३३ व्य- चिन्तवनकरै और "नाभिकमल"के समान अन, २२ स्वर (५हस्व, दीर्घ और प्लुत),
इसके प्रत्येक पत्र पर य र आदि ह तक के ४ योगवाह और ४ यम अर्थात् युग्माक्षर, आठ अक्षर क्रम से चक्राकार घूमते हुए सर्व ६३ मूलाक्षर हैं।
ध्यान करै। इस प्रकार स्थिर चित्तसे किये गये हिन्दी भाषा की देवनागरी अक्षरावली इस अक्षरावली के ध्यानको "अक्षर-मातृका" में ३३व्यञ्जन, १६ स्वर और ३युग्माक्षर सर्व या "वर्णमातृका” ध्यान कहते हैं । इस ५२ अक्षर हैं । उर्दू भाषा में सर्व ३८, अरबी |
ध्यान से ध्याता कुछ काल में पूर्ण श्रुत-- भाषामें २८, अंग्रेज़ी भाषा में २६, फ़ारसी शान का पारगामी हो सकता है, तथा भाषा में २४, फ़िनिक भाषा में केवल २० क्षयरोग, अरुचिपना, अग्निमन्दता, कुष्ठ, अक्षर हैं । इसीप्रकार जितनी अन्य भाषाएँ उदर रोग, और कास श्वास आदि रोगों देश देशान्तरों में देशभेद व कालभेद से को जीतता है और वचनसिद्धता, महान उत्पन्न हो हो कर नष्ट हो चुकीया अब प्रच- पुरुषों से पूजा और परलोक में श्रेष्ठ गति लित हो रही हैं उनमें से हरेक की वर्णमाला प्राप्त करता है। में यथा आवश्यक भिन्न भिन्न अक्षर-संख्या (शा. प्र० ३८, श्लो०२-६, उ० १, २)
नोट-जिसध्यान में एकया अनेक अक्षरों अक्षरमातका-ध्यान-"पदस्थध्यान" | से बने हुए मंत्री या पदों का यापदों के आश्रय
उन के वाच्य देवी देवताओं का या शुद्धात्मके अनेक भेदों में से एक का नाम । यह
तत्व या परमात्म-तत्व का विधिपूर्वक चिन्तध्यान इस प्रकार किया जाताहै:- ध्याता | वन किया जाय उसे “पदस्थ-ध्यान" कहते अपने "नाभि मंडल" पर पहिले १६ पंखड़ी हैं। धर्म ध्यान के चार भेदों अर्थात् (१) आज्ञा के कमल का दृढ़ चिन्तवन करै। प्रत्येक
विचय, (२) अपाय विचय, (३ विपाक विचय,
और (४) संस्थान विनय में से चतुर्थ भेद पाँखड़ी पर स्वरावली के १६ स्वरों अर्थात्
"संस्थान विचय" के अन्तर्गत (१) पिंडस्थ, अ आ इ ई उ ऊ ऋ क ल ल ए ऐ ओ | (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ और (४) रूपातीत, औ अं अः में से एक एक क्रम से स्थित यह जो चार प्रकार के ध्यान हैं इनमें से दूसरे
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( ३६ )
अक्षरमातृकाध्यान
वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्षरमातृकाध्यान
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प्रकार का ध्यान 'पदस्थ ध्यान" है। इस भ्यः, इत्यादि। पदस्थध्यान सम्बन्धी निम्न लिखित अनेक
|५. पञ्चाक्षरी-(१) अ. सि. आ. उ. सा. "मंत्र" हैं जिनका सविस्तर स्वरूप, जपने की विधि और फल आदि इसी ग्रन्थ में
(.) ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं हः (३) अर्हन्त सिद्ध "पदस्थ ध्यान" शब्द की व्याख्या में यथा (४) णमोसिद्धाणं (५) नमो सिद्ध भ्यः स्थान मिलेंगेः
(६) नमोअर्हते (७) नमो अभ्यः (८) ॐ १. एकाक्षरी-(१) , यह मंत्रराज या आचार्येभ्यः, इत्यादि । मंत्राधिप नाम से प्रसिद्ध सर्व तत्वनायक
६. षडाक्षरी-(१) अरहन्त सिद्ध (१) नमो या बीजाक्षरतत्व है। इसे कोई बुद्धि तत्व,
अरहते (३) ॐ ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं हुः (४) ॐ कोई हरि, ब्रह्मा, महेश्वर या शिव तत्व,
नमो अर्हते (५) ॐ नमो अhः (६) और कोई सार्व. सर्वव्यापी या ईशान
ह्रीं ॐ ॐ ह्रीं हंसः (७) ॐ नमः सिद्ध तत्व, इत्यादि अनेक नामों से नामाङ्कित
भ्यः, इत्यादि। करते हैं।
७. सताक्षरी-(१) णमो अरहंताणं (२) ॐ (२) ॐ या ओ ओ३म्), यह "प्रणव" |
ह्रीं श्री अहं नमः (३) णमो आइरियाणं नाम से प्रसिद्ध मंत्र अर्हन्त, अशरीर (४) णमो उवज्झायाणं (५) नमो उपा(सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय, और
ध्यायेभ्यः (६) नमः सर्व सिद्ध भ्यः मुनि (साधु), इन पंच परमेष्ठीवाचक है ।
(७) ॐ श्री जिनायनमः, इत्यादि । कोई कोई इसे रेफ युक्त इस प्रकार | अष्टाक्षरी-(९) ॐ णमो अरहताणं २) (ग) भी लिखते हैं।
ॐ णमो आइरियाणं (३ ॐ नमो उपा. (३) ह्रीं, इसमंत्रका नाम "मायावर्ण"
ध्यायेभ्यः (४) ॐ णमो उवझायाणं, या 'मायावीज" है।
इत्यादि। (४) इवीं, इस मंत्र का नाम सकल-६. नवाक्षरी-(१) णमो लोए सच साहूगं सिद्ध विद्या" या "महाविद्या" है।
(२) अरहंत सिद्ध भ्यो नमः, इत्यादि । (५) स्त्रीं, इस मंत्र का नाम “छिन्न- १०. दशाक्षरी-(:.) ॐ णमी लोए सन्य मस्तक महावीज" है।
| . साहणं (.) ॐ अरहन्त सिद्ध भ्यो नमः, (३) अ, हां ह्री,ह, ह्रौं, हः क्लीं क्ल, इन्यादि। क्रौं, श्रां, श्री, श्रृं. क्षा, क्षी, क्षं. क्षः, | ११. एकादशाक्षरो-(१) ॐ ह्रां ह्रीं ह ह्रौं हः इत्यादि अनेक एकाक्षरी मंत्र हैं।
अ सि आ उ सा (२) ॐ श्री अरहन्त युग्माक्षरी-१) अर्ह, (२) सिद्ध, (३) सिद्ध भ्योनमः, इत्यादि। साधु (४) ॐ ह्रीं, इत्यादि।
१२. द्वादशाक्षरी-(१)हां ह्रीं ह्रौं हःअ सि । ३. त्रयाक्षरी-(१ अर्हत (२) ॐ अर्ह (३)
आ उ सा नमः (२) ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं हः ॐ सिद्धं, इत्यादि।
असि आ उ सा स्वाहा (३) अर्हत्सिद्ध ४. चतुराक्षरी-(१) अरहन्त (२) ॐ सिद्ध सयोग केवलि स्वाहा, इत्यादि ।
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( ३७ ) वृहत् जैन शब्दार्णव
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अक्षरमातृकाध्यान
अक्षरलिपि
१३. त्रयोदशाक्षरी-(१) ॐ ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं हः | २३. षटसप्तत्यक्षरी-ॐ नमोऽहते केवलिने
अ सि आ उ सा नमः (२) ॐ ह्रां ह्रीं परम योगिनेऽनन्त शुद्धि परिणाम विहूँ ह्रौं हः अ सि आ उ सा स्वाहा (३) स्फुरदुरुशुक्लध्यानाग्निनिर्दग्ध कर्मवीजाॐ अर्हत्सिद्ध सयोग केवलि साहा, य प्रासानन्त चतुष्टयाय सौम्याय शान्ताइत्यादि।
य मंगलाय वरदाय अष्टादश दोष रहिता-1 १५. चतुर्दशाक्षरी--(१) ॐ ह्रीं स्वहँ नमो य स्वाहा ॥
नमोऽहताणं ह्रीं नमः (२) श्रीमद्वषमादि | २४. सप्तविंशत्यधिकशताक्षरी-चत्तारिमंगलं | वर्चमानान्तेभ्यो नमः, इत्यादि ।
अरहन्तमंगलं सिद्धमंगलं साहूमंगलं १५. पञ्चदशाक्षरी-ॐ श्रीमदृषभादिवर्द्धमा- केवलिपण्णत्तोधम्मो मंगलं, चत्तारि. नान्तेभ्यो नमः, इत्यादि।
लोगुत्तमा अरहंतलीगुत्तमा सिद्धलो१६. षोड़शाक्षरी-अहत्सिद्धाचार्योपाध्याय
गुत्तमा साहूलोगुत्तमा केवलिपण्णत्तोसर्वसाधुभ्यानमः, इत्यादि ।,
धम्मो लोगुत्तमा, चत्तारिसरणं पवजा१७. द्वाविंशत्यक्षरी-ॐ ह्रां ह्रीं ह्र' ह्रौं ः अह- मि अरहन्तसरणं पव्व जामि सिद्धसरणं
सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः, पवजामि साहूसरणं पव्वज्जामि केवालइत्यादि।
पण्णत्तोधम्मोसरणं पञ्चज्जामि ॥ १८. त्रयोविंशत्यक्षरी-ॐ ह्रां ह्रीं हूँ हौं ह्रः
इत्यादि इत्यादि अनेकानेक मंत्र हैं जो
यथाविधि जपने से सांसारिक या पारलौ. असि आ उ सा अई सर्व शान्तिं कुरुः
किक कार्य सिद्धि के लिए तथा आत्मकुरुः स्वाहा, इत्यादि।
कल्याणार्थ बड़े उपयोगी हैं । ( विधि १६. पञ्चविंशत्यक्षरी-ॐ जोग्गे मग्गे तच्चे
और फलादि जानने के लिए देखो शब्द । भूदे भन्ने भविस्से अक्खे पक्खे जिन
'पदस्थध्यान" और ग्रन्थ 'ज्ञानार्णव' पारिस्से स्वाहा, इत्यादि ।
प्र०३८)॥ २२०. एकत्रिंश यक्षरी-ॐ सम्यग्दर्शनाय नमः | अक्षरलिपि-अक्षरोकी बनावट यालिखा। सम्यग्नानायनमः सम्यक् चारित्रायनमः
वट । इसके पर्यायवाची ( अर्थावबोधक ) सम्यक् तपसे नमः, इ यादि।
नाम अक्षरन्यास, वर्णन्यास, अक्षरविन्यास, २९१, पञ्चत्रिंशत्यक्षरी--मोअरहंताणं णमो
अक्षरसंस्थान, अक्षगंटी, अक्षरलेख सिद्धाणंणमोआइरियागंणमोउवायाणं
इत्यादि हैं। णमो लोए सव्वसाहणं. इत्यादि ।
अक्षरलिपि देश भेद से अनेक प्रकार की २२. एक सप्तत्यक्षरी-ॐ अर्हन्मुखकमलवा- प्रचलित हैं जिनकी उत्पत्ति और विनाश !
सिनि पापात्मक्षयंकरिश्रतज्ञान ज्वाला देश और काल भेद से कर्मभूमि या कृतः सहस्रप्रज्वलितेसरस्वति मम पाए हन युग की आदि से ही सदैव होता रहा है इन दह दह क्षां क्षों क्षं क्षौं क्षः क्षीर वर और होता रहेगा । वर्तमान कल्प के वर्त्तधवले अमृत सम्भवे वं वं हूं हूं स्वाहा । मान अवसर्पिणी विभाग में सर्व से
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अक्षरलिपि
वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्षरलिपि
पहिली अक्षरलिपि का नाम "ब्राह्मीलिपि" है जिसे वर्तमान कृतयुग के प्रारम्भ से कुछ पहिले श्रीऋषभदेव ( आदि देव या आदि- ब्रह्मा ) ने अयोध्यापुरी में रची और सर्व | से पहिले अपनी बड़ी पुत्री "ब्राह्मी" को | लिखाई । आज कल की देवनागरी लिपि उसी का एक रूपान्तर है । तथा अन्यान्य जितनी लिपियों का आज कल प्रचार है उनमें से अधिकतर उसी का न्यूनाधिक रूपान्तर है अथवा उसी से कुछ न कुछ सहायता लेकर रची गई हैं । उस “ब्राह्मी” | नामक मूल अक्षरलिपि की ६४ अक्षरों की अक्षरावली को "सिद्ध मातृका" भी कहते हैं । इस लिए कि श्रीऋषभदेव स्वयम्भू भगवान ने जो “स्वायंभुव" व्याकरण की सर्व से प्रथम रचना की उसमें प्रथम "ॐ नमः सिद्धम्" लिखकर "अक्षरावली" का प्रारम्भ किया जो समस्त "श्रुतशान" या शास्त्र ज्ञान सिद्ध कर
नोट १-अक्षरलिपि के मूल भेद ५ हैं(१) लेखनी आश्रित, जो लेखनी से लिखी जाय (२) मुद्राङ्कित, जो मुहर या अंगुष्टादि से छापी जाय ( ३) शिल्पान्वित, जो चित्र. कारी से सम्बन्धित हो (४) गुण्डिका, जो | तन्दुलादि के चूर्ण से बनाई जाय (५) घृणाक्षर, जो धुन कीड़े की बनाई रेखाओं के | समान हो जैसे हथेली की रेखाएं या अंग्रेज़ी "शौर्ट हैंड" को लिपि ॥
नोट २-प्राचीन बौद्ध और जैन ग्रन्थों में कहीं ६४ प्रकार की और कहीं कहीं १८ या ३६ प्रकार को भारत वर्ष में प्रचलित निम्न लिखित लिपियों का उल्लेख पाया जाता है:
६४ लिपियों के नाम ("ललित विस्तार" | में जो सन् ई० से कुछ अधिक १०० वर्ष
पूर्व का संग्रहीत बौद्ध प्रन्थ है )-(१) ब्राह्मी ( २ ) खरोष्ठी (३) पुष्करसारी (४) अंग (५) बंग (६) मगध (७) मांगल्य (८) मनुष्य (6) अंगुलीय (१०)। शकारि ( ११ ) ब्रह्मवल्ली ( १२ ) द्राविड़ (१३) कनारी (१४) दक्षिण (१५) उग्र (१६) संख्या (१७) अनुलोम (१८) अर्द्धधनु (१६) दरद (२०) खास्य (२१) चीन ( २२ ) हूण, (२३)। मध्याक्षर विस्तर (२४) पुष्प (२५)। देव (२६) नाग (२७) यक्ष (२८), गन्धर्व (२६) किन्नर (३०) महोरग (३१) असुर (३२) गरुड़ (३३) मृगचक्र (३४) चक्र (३५) वायु मरुत् (३६) भीमदेव (३७) अन्तरीक्ष देव (३८) उत्तर कुरु द्वीप (३६) अपरगौड़ादि (४०) पूर्व विदेह (४१) उत्क्षेप (४२) निक्षेप (४३) विक्षेप, (४४) प्रक्षेप (४५) सागर (४६ ) वजू (४७) लेख प्रति लेख (४८) अनुद्र त (४६) शास्त्रावर्त (५०) गणनावत (५१) उत्क्षेपावत(५२) विक्षेपावर्त (५३) पाद लिखित (५४ ) द्विरुत्तरपद सन्धि (५५) दशोत्तर पद सन्धि (५६) अध्याहारिणी ( ५७ ) सर्वभूतसंग्रहणी (५८) विद्यानुलोम (५६) विमिश्रित । ६० ) ऋषितपस्तप्ता (६१) धरणी प्रेक्षण (६२) सर्वौषधि निष्यन्दा (६३) सर्व सार संग्रहणी और (६४) सर्वभूत रुतप्रहणी।
१८ लिपिओं के नाम (५ वीं शताब्दी ईस्वी में लिखे गये जैन ग्रन्थ 'नन्दी सूत्र' में)-(१) हंस (२) भूत ( ३)यक्ष (४)
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( ३६ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्षरलिपि
राक्षस ( ५ ) उड्डी ( ६ ) यावनी ( ७ ) तुरुष्की (८) कोरी ( ६ ) द्राविड़ी (१०) सैन्धवी ( ११ ) मालवी ( १२ ) नड़ी ( १३ ) नागरी ( १४ ) पारसी (१५) लाटी (१६ ) अनमित्त ( १७ ) चाणक्यी और (१८) मौलदेवी ॥
१८ लिपियों के नाम ( 'नन्दी सूत्र' ही में अन्य प्रकार से ) -- (१) लाटो ( २ ) चीड़ी (३) डाइली (४) काणड़ी ( ५ ) गुजरी (६) सोरठी (७) मरहठी ( ८ ) कङ्कणी ( ६ ) खुरासानी ( १० ) मागधी ( ११ ) सैंहली ( १२ ) हाड़ी (१३) कीरी ( १४ ) इम्बीरी ( १५ ) परतीरी (६) मसी (७) मालवी और (८) महायोधी ।
१८ लिपियाँ ( सन् ई. से लगभग ४५० वर्ष पीछे के जैन ग्रन्थ समवाय सूत्र और प्रज्ञापना सूत्र में ) - (१) ब्राह्मी (२) यवनानी ( ३ ) दशोत्तरिका (४) खरोष्ट्रिका ( ५ ) पुष्कर सारिका (६) पार्श्वतिका (७) उत्तरकुरुका ( = ) अक्षर पुस्तिका ( ६ ) भौमवहिका (१०) विक्षेपिका (११) निक्षेपिका ( १२ ) अङ्क ( ३ ) गणित ( २४ ) गन्धर्व (१५) आदर्शक (१६) माहेश्वर ( ७ द्राविड़ी और (१८) बोलिदी ।
५
नीट ३ – ब्राह्मी लिपी से निकली भारत वर्ष की वर्त्तमान लिपियां निम्न लिखित हैं जो अकारादि क्रम से दी जाती हैं: ( १ ) अरौरा (सिन्धु प्रदेश में ) ( २ ) असमीया (३) उड़िया ( 3 ) ओझा ( विहार के ब्राह्मणों में ) ( ५ ) कणाड़ी ( ६ ) कराढ़ी (७) कायथी (८) गुजराती (६) गुरुमुखी ( पञ्जाब में सिक्खों के बीच ) (१०) ग्रन्थम् (तामिल ब्राह्मणों के मध्य ) ( ११ ) तामिल तुलू ( मंगलूर में ) ( १२ ) तेलगू
अक्षर समास
( २३ ) थल ( पञ्जाब के डेराजात में ) ( ४ ) दोगरी ( काश्मीर में ) ( ५ ) देवनागरी ( १६ ) निमारी ( मध्य प्रदेश में ) ( १७ ) नेपाली (१०) पराची ( भेरे में ) ( १६ ) पहाड़ी (कुमायूँ और गढ़वाल में ) ( २० ) बणिया ( सिरसा और हिसार में ) (२१) बंगला ( २२ ) भावलपुरी (६३) बिसाती ( २४ ) बड़िया (२५) मणिपुरा (२६) मलयालम् (२७) मराठी ( २८ ) मारवाड़ी (२६) (३२) रोरी ( पञ्जाब में ) ( ३३ ) मुलतानी (३०) मैथिली (३१) मोड़ी २) लामावासी ( ३४ ) लुण्डी (स्यालकोट में ) ( ३५ ) शराकी या श्रावकी (पश्चिम के बनियों में ) ( ३६ ) सारिका पञ्जाब के डेरा जात में ) (३७) सिंहली ( ३६ ) शिकारपुरी और (४०) सईसी : उत्तर पश्चिम के भृत्यों में ) ( ३ ) सिन्धी । इन्हें छोड़ भारत के अनुद्वीपों में बम्र्मी, श्याम, लेयस, काम्बोज, पेगुयान और यवद्वीप और फिलिपाइन में भी नाना प्रकार की लिपियाँ चलती हैं ॥ अक्षरविद्या - विद्या के मुख्य भेद दो हैं:
( १ ) शब्द जन्य विद्या और ( २ ) लिंग जम्य - विद्या । इनमें से पहिली शब्द-जन्य विद्या के भी दो भेद हैं- अक्षरात्मक शब्द जन्य - विद्या और अनक्षरात्मक शब्द-जन्य विद्या; इन दो में से पहिली "अक्षरा त्मक - शब्दजन्य विद्या" ही का नाम लाघव के लिए " अक्षर विद्या" भी है। कोष, ज्याकरण, छन्द, अलङ्कार आदि सर्व विद्याएँ जिनसे किसी भाषा ज्ञान या साहित्य-ज्ञान की पूर्णता होती है इस " अक्षर विद्या" गर्भित हैं ॥
अक्षरसमास-अक्षरों का मेल; एक अक्षर से अधिक और एक 'मध्यमपद' से कम अक्षरों का समूह ॥
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अक्षरसमासज्ञान
वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्षरज्ञान
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नोट १-पद के ३ भेद हैं-(१) अर्थ- | का है जो पर्यायसमासज्ञान से कुछ अधिक पद (२) प्रमाणपद (३) मध्यमपद ॥
नोट २-किसी अर्थ विशेष के बोधक | नोट ३-श्रतज्ञान के भेद यह हैं - किसी छोटे बड़े अनियत अक्षरों के समूह | (१) पर्याय ज्ञान (२) पर्यायसमास शान (1) रूप वाक्य को अर्थपद कहते हैं; किसी छन्द | अक्षरज्ञान (४) अक्षरसमास ज्ञान (५) पदज्ञान के एक चरण या पाद को जिसमें छन्दशास्त्र | (६) पदसमास ज्ञान (७) संघात ज्ञान (८) के नियमानुकूल अक्षरों की गणना छन्द भेद | संघातसमास ज्ञान (8) प्रतिपत्तिक ज्ञान (१०) अपेक्षा न्यूनाधिक होती है प्रमाणपद कहते | प्रतिपत्तिकसमास ज्ञान (१ अनुयोगज्ञान है; और १६३४८३०५८८: नियत अक्षरों के | () अनुयोगसमास ज्ञान (९३) प्राभृतप्राभृतसमूह को मध्यमपद कहते हैं ॥ ( गो० जी. कशान (१४)प्राभृतप्राभृतकसमास शान (१५) गा। ३३५)॥
प्राभृत ज्ञान (१६) प्राभृतसमास ज्ञान (२७) नोट ३---आगे देखो शब्द 'अक्षरसमास- | वस्तुशान (१८) वस्तुसमास शाम (१६) पूर्वज्ञान" का नोट ॥
ज्ञान (२०) पूर्वसमास ज्ञान ॥ . अक्षरसभासज्ञान-'श्रुतज्ञान' के .
इनमें से प्रथम दो भेद अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान
के हैं और शेष १८ भेद अक्षरात्मक के हैं। भेदों में से एक चौथे भेद का नाम; यह |
(गो० जी० गा० ३१७, ३२७, ३४८ ) ज्ञान जो कम से कम दो अक्षरों का और
नोट ४ - श्रुतज्ञान के उपर्युक्त २० भेद अधिक से अधिक एक "मध्यमपद' से
| 'भावश्रुत' अपेक्षा हैं; द्रव्यश्रुत अपेक्षा अङ्गएक अक्षर कम का हो । एक "मध्यमपद" प्रविष्ट और अङ्गवाह्य, यह दो मूल भेद हैं ॥ के अक्षरों की संख्या से दो कम इस ज्ञान
अक्षरज्ञान-श्रुतशान के २० भेदों में से के स्थान या भेद हैं ॥ (गो. जी. गा.
एक तीसरे भेद का नाम; वह ज्ञान जो ___ नोट १-एक मध्यम पद के अक्षरों की
केवल एक मूलाक्षर या संयोगी अक्षर संख्या१६३४८१.७१८है अतः 'अक्षरसमास
सम्बन्धी हो। इसी को 'अर्थाक्षर ज्ञान' ज्ञान' के १६३४८३०७८८६ स्थान या भेद है। भी कहते हैं। यह श्रुतज्ञान के २० भेदो अर्थात् २ अक्षरज्ञान, ' अक्षरज्ञान, " अक्षर- में से जो दूसरा भेद "पर्याय समास ज्ञान" शान, इत्यादि के एक एक अक्षर बढ़ाकर
है उसके उत्कृष्ट भेद से अनन्त गुणा है ॥ ३४.३०७... अक्षरशान पर्यन्त में से प्रत्येक को "अक्षरसमासज्ञान" कहते हैं। इस
__ (देखो 'अक्षर समास ज्ञान' का नोट ३) का प्रथम स्थान या जघन्यभेद "दो अक्षर
नोट?--अक्षर के निम्न लिखित ३ भेद शान' है। इससे कम एक अक्षर के ज्ञान को | हैं:--- "अक्षरशान" कहते हैं और अन्तिम स्थान | (१) लब्धि-अक्षर ( लब्ध्यक्षर )या उत्कृष्ट भेद, १६३४.३०७८५७ अक्षरों का शान है। इससे एक अक्षर अधिक के शानको
अक्षरज्ञान की उत्पत्ति का कारण भावन्द्रिय "पदशान" कहते हैं।
रूप “आत्मशक्ति' का उस अक्षय लब्धि ... नोट २–यहांअक्षर से अभिप्राय द्रव्या- (प्राप्ति ) को लब्ध्यक्षर कहते हैं जा पर्यायक्षर का नहीं है किन्तु भावाक्षररूप-श्रुतशान शानावरण से लेकर श्रुत-केवल-शानावर्ण
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(४१ )
पवन
अक्षरात्मक
-
वृहत् जन शब्दाणव
अक्षरावली
तक के अर्थात् पूर्ण श्रुतज्ञानावरण के कर्म- सूक्ष्म पदाथों का उनकी असंख्य पर्यायों क्षयोपशम से हुई हो ॥
सहित परोक्ष रूप ज्ञान होता है, जिसका (२) निवृत्ति-अक्षर (निर्वत्यक्षर)- प्रादुर्भाव किसी निर्ग्रन्थ भाव-लिङ्गी मुनि की मुखोत्पन्न उच्चारण रूप कोई स्वर या व्यञ्जनादि
| पवित्र आत्मा में महान तपोबल से होजाता है। मूल वर्ण या संयोगी वर्ण ॥
पूर्ण 'श्रतज्ञानी' और 'कैवल्यज्ञानी' के ज्ञान
में केवल इतनाही अन्तर रहता है कि कैवल्य(३) स्थापना-अक्षर (स्थापनाक्षर)--
ज्ञानआत्म-प्रत्यक्ष और पूर्ण विशद होता है किसी देश कालादि की प्रवृति के अनुकूल किसी प्रकार की लिपि में स्थापित (लिखित)
और श्रुतज्ञान परोक्ष । वह ज्ञानावरणी, दर्शना
वरणी कर्म प्रकृतियों के क्षय से होता है और कोई अक्षर ॥
यह उनके क्षयोपशम से अर्थात् केवलज्ञान अक्षरात्मक--अक्षर जन्य, अक्षरों से बना क्षायिक ज्ञान है और श्रुतज्ञान क्षायोपशमिक
हुआ॥ अक्षरात्मकश्रतज्ञान (अक्षरात्मक ज्ञान)
नाट ४-कैवल्यज्ञानियों के पूर्ण प्रत्यक्ष वह शान जो एक या अनेक अक्षरों की ज्ञान में जिन लोकालोकवर्ती सम्पूर्ण सूक्ष्म या सहायता से हो; श्रुतज्ञान के मूळ दो स्थूल पदार्थों और उनकी भूत भविष्यत् वर्त. भेदों, अर्थात् 'अक्षरात्मक' और 'अन- मान तीनों काल सम्बन्धी अनन्तानन्त पर्यायों क्षरात्मक' में से एक पहिला भेद; वह का ज्ञान होता है उनके अनन्तवें भाग प्रशाप-. शान जो कम से कम एक अक्षर सम्बन्धी नीय पदार्थ ( बचन द्वारा कहे जाने योग्य हो और अधिक से अधिक श्रुतकान के पदार्थ ) हैं । और जितने पदार्थ बचन द्वारा समस्त अक्षरों सम्बन्धी हो अर्थात् पूर्ण निरूपण किये जा सकते हैं उनका अनन्तयाँ अक्षरात्मक श्रुतज्ञान हो । यह पूर्ण अक्षरा- भाग मात्र सम्पूर्ण द्रव्यश्रत या अक्षरात्मक त्मक श्रुतज्ञान (१) अङ्गप्रविष्ट और श्रुतज्ञान में निरूपित है । तो भी सम्पूर्ण (२) अङ्गवाह, इन दो विभागों में विभा. अक्षरात्मक श्रुतज्ञान में उपर्युक्त एक कम जित है।
एकट्ठी तो अपुनरुक्त मूल और संयोगी अक्षर __ नोट १-यह शान 'पर्याय समास ज्ञान" | हैं। उसमें पुनरुक्त अक्षरों की संख्या उनसे से अधिक सम्पूर्ण "अक्षरात्मक-श्रतज्ञान" | भी कई गुणी अधिक है। यह पूर्ण "अक्षरातक है॥
स्मक श्रुतज्ञान" इतना अधिक है कि इसे पूर्ण __ नोट २-पूर्ण अक्षरात्मक-श्रुतज्ञान के |
ही रूप लिखना यदि असम्भव नहीं तो अत्यन्त | समस्त अपुनरुक्त मूल और संयोगी अक्षरों
कठिन अवश्य है । इसी लिये आज तक कभी की संख्या एक कम एकट्ठी अर्थात् १८४४६७
लेखनी-वद्ध नहीं हुआ। केवल मुख द्वारा ४४०७३७०६५५६१६१५ है । अतः अक्षरात्मक
ही इसका निरूपण होता रहा । लेखनो द्वारा श्रुतशान के स्थान या भेद एक कम एकट्ठी
तो यथा आवश्यक कुछ कुछ भाग ही कभी
कभी लिखा जाता रहा है ॥ नोट ३–पूर्ण श्रुतज्ञानी को "श्रुतकेवली" अक्षरात्मक ज्ञान-देखो शब्द "अक्षरा या "द्वादशांगपाठी" भी कहते हैं। ऐसे ज्ञानी
त्मक श्रुतज्ञान" ॥ को भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीतों |
तका |काल सम्बन्धी त्रिलोक के समस्त स्थूत व अक्षरावली-देखो शब्द "अक्षरमाला'।
है॥
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अक्षरौटी
वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्षीणऋद्धि
ज्ञान ।
अक्षरौटी-देखो शब्द “अक्षर लिपि ॥ मनेन्द्रिय जन्य अर्थधारणा ज्ञान ॥
२. व्यञ्जन (अप्रकट पदार्थ) सम्बन्धी अक्षिप्र-मन्द, विलम्ब, एक मुहूर्त के अक्षिप्र मतिज्ञान । यह निम्न लिखित ४ सोल्हवें भाग से कुछ हीनाधिक समय ॥
प्रकार का है:
(१) स्पर्शनेन्द्रिय जन्य व्यञ्जनावग्रह | अक्षिप्र-मतिज्ञान--मन्दगत व्यक्तया अव्य
शान (२) रसनेन्द्रिय जन्य व्यञ्जनावग्रह | क्त पदार्थ सम्बन्धी मति-ज्ञान; पाँचों
शान (३) घ्राणेन्द्रिय जन्य व्यञ्जनावग्रह | इन्द्रिय और मन, इन छह में से किसी के ज्ञान (५) 'श्रोत्रेन्द्रिय जन्य व्यञ्जनावग्रह द्वारा किसी मन्दगत प्रकट या अप्रकट पदार्थ का अवग्रहादि,अर्थात् अवग्रह,ईहा,
नोट-जिस प्रकार यह उपर्युक्त २८ भेद । अवाय और धारणा रूप ज्ञान “अक्षिप्र
"अक्षिप्र-मतिज्ञान" के हैं ठीक उसी प्रकार मतिज्ञान" कहलाता है । इसके :निम्न
यही २८, २८ भेद (१) एक (२) बहु लिखित मूल भेद दो और उत्तर भेद
(३) एक विध (४) बहु विध (५)
क्षिप्र (६ ) निःसृत (७) अनिःसृत (८)| ३. अर्थ ( प्रकट पदार्थ ) सम्बन्धी | उक्त (६) अनुक्त (१०). अध्रुव (११) अक्षिप्र मतिज्ञान । यह निम्न लिखित २४ | ध्रुव, इन ११ प्रकार के प्रकट या अप्रक प्रकार का है:
पदार्थों सम्बन्धी मतिज्ञान के भी हैं । अतः (१) स्पर्शनेन्द्रिय जन्य अर्थावग्रह (२)
मतिज्ञान के सर्व भेद या विकल्प २८ को १२ | रसनेन्द्रिय जन्य अर्थावग्रह (३) घ्राणेन्द्रिय
| गुणा करने से ३३६ होते हैं ( देखो शब्द !
"मतिज्ञान") ॥ जन्य अर्थावग्रह (४) चक्षुरेन्द्रिय जन्य अर्थावग्रह (५) कर्णेन्द्रिय जन्य अर्था- अक्षीण-क्षीणता रहित, न घटने यान कम || वग्रह (६) मनेन्द्रिय जन्य अर्थावग्रह
होने वाला। (७) स्पर्शनेन्द्रिय जन्य अर्थीहा ज्ञान
| अक्षीणऋद्धि-अष्ट ऋद्धियों में से एक (८) रसनेन्द्रिय जन्य अर्थीहा ज्ञान (8) घ्राणेन्द्रिय जन्य अर्थीहा ज्ञान (१०) चक्षु
का नाम; क्षेत्र ऋद्धि का अपर नाम; इसके रेन्द्रिय जन्य अर्थीहा ज्ञान (१.) श्रोत्रे
| दो भेद है-(१) अक्षीण महानस ऋद्धि न्द्रिय जन्य अर्थीहा ज्ञान (२२) मनेन्द्रिय
(२) अक्षीण महालय ऋद्धि। जन्य अर्थीदा ज्ञान (१३) स्पर्शनेन्द्रिय
नोट १-- इस ऋद्धि व विक्रिया ऋद्धि जन्य अर्थावाय ज्ञान (४) रसनेन्द्रिय | के धारक ऋषि "गजर्षि' कहलाते हैं। जन्य अर्थावाय ज्ञान (१५) घ्राणेन्द्रिय नोट २-अष्ट ऋद्धि--(१) बुद्धिः ऋद्धि जन्य अर्थावाय शान (१६) चक्षुरेन्द्रिय जाय। (२ ) क्रिया ऋद्धि (३) विक्रिया ऋद्धि अर्थावाय शान (१७) श्रोत्रेन्द्रिय जन्य | (४) तपो ऋद्धि (५) बल ऋद्धि (६)|| अर्थावाय ज्ञान (१८) मनेन्द्रिय जन्य अर्था- | औषध ऋद्धि (७) रस ऋद्धि (८) क्षेत्र वाय शान ५६ स्पर्शनेन्द्रिय जन्यअर्थधारणा | ऋद्धि या अक्षीण ऋदि । शान (२.)रसनेन्द्रिय जन्य अर्थ धारणा ज्ञान इन में बुद्धि ऋद्धि आदिक्रम से १८ या | ( २ ) घ्राणेन्द्रिय जन्य अर्थधारणा ज्ञान | २५, २, ११, ७, ३, ८, ६. और २ प्रकार (२२ ) चक्षुरेन्द्रिय जन्यअर्थ धारणाज्ञान की हैं । अतः आठ ऋद्धियों के विशेष (२३) श्रोत्रेन्द्रिय जन्य अर्थधारणा शान (२४ भेद ५७ या ६४ हैं । इनके कई अन्यान्य
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अक्षीण महानस ऋद्धि
वृहत् जैन शब्दार्णव
अक्षोभ्य
उपभेद भी जाड़ लेने से इनकी संख्या और | __ 'विजयाद्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी की ६० भी बढ़ जाती है । ( देखो शब्द 'ऋद्धि' )॥ नगरियों में से एक नगरी का नाम जो अक्षीण महानस ऋद्धि-(अक्षीणमहा
उस विजयाद्ध के पश्चिम भाग से ४८ वीं
और पूर्व भाग से १३ वीं है। देखो शब्द नसर्द्धि)-क्षेत्र ऋद्धि या अक्षीण ऋद्धि के
"विजयाद्ध पर्वत" ॥ दो भेदा में से एक भेद; महान तपोबल से "लाभान्तराय कर्म" के क्षयोपशम को
(३) स्वेताम्बराम्नायी अन्तगड़ सूत्र के आधिक्यता होने पर प्रकट हई तपस्वियों।
प्रथम वर्ग के ८ वें अध्याय का नाम का वह 'आत्मशक्ति" जिसके होते हुए
(अ. मा.)॥ यदि वह महा तपस्वी किसी गृहस्थ के (४) पुष्करार्द्धद्वीप का पश्चिम दिशा में घर भोजन करै तो उस गृहस्थ ने जिस विद्युन्माली मेरु के दक्षिण भरतक्षेत्रान्तर्गत पात्र से निकाल कर भाजन उन्हें दिया हो आर्यखंड की वर्तमान काल में हुई चौबीसी उस पात्र (वर्तन या बासन या भाजन) के १६ वें तीर्थंकर का नाम । यह श्री में इतना अटूट भोज्य पदार्थ हो जाय कि अक्षोभ अक्षधर के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उस दिन उस पात्र में चाहे चक्रवर्ती राजा कषिवर वृन्दावन जी ने अपने ३० चौपीसी के समस्त दल को जिमा दिया जावे तो भी | पाठ में इन्हें १८ वें तीर्थकर १६३ की वह पात्र रीता न हो।
जगह लिखा है । ( आगे देखो शब्द अक्षीण महानसिक--अक्षीण महानस |
"अढ़ाईद्वीप पाठ" के नोट ४ का ऋद्धि प्राप्त मुनि ॥
कोष्ठ ३)॥ प्रक्षीणमहानसी-अक्षीणमहानस लब्धि॥ अक्षोभ्य-(१) अचंचल, स्थिर, गम्भीर ।।
(२) नवमनारायण श्रीकृष्ण चन्द्र के ज्येष्ठ अक्षोण महालयऋद्धि- (अक्षीण महा
पितृव्य और २२ वें तीर्थङ्कर श्री नेमनाथ लयद्धि)-क्षेत्र ऋद्धि के दो भेदों में से
(अरिष्ट नेमि) के लघ पितृव्य (चचा)एक का नाम; उग्र तप के प्रभाव से
यह यादव वंशी शौर्यपुर नेरश 'अन्धकप्रकट हुई तपस्वियों की वह आत्म शक्ति
वृष्णि' की महारानी 'सुभद्रा' से उत्पन्न जिसके होने से इस ऋद्धि का धारक दश भाई थे-(१) समुद्र विजय (२) ऋषि जिस स्थान में स्थित हो वहाँ चाहे
अक्षोभ (३) स्तिमित सागर (४) जितने प्राणी आजावें उन सर्व ही को
हिमवान (५) विजय (६) अचल ] बिना किसी रुकावट के स्थान मिल जाय॥
(७) धारण (८) पूरण (8) अभिप्रक्षेमधसकि -दूध घी आदि गोरस | चन्द्र (१०) वसुदेव । इनमें से सब से का त्यागी साधु (अ. मा.) ।
बड़े भ्राता “समुद्र विजय" के पुत्र
श्री नेमनाथ आदि और सब से छोटे प्रक्षोभ-(१) क्षोभ रहित, चंचलता रहित,
वसुदेव के पुत्र श्री बलदेव और श्रीकृष्ण अक्रोधित, न घबड़ाया हुआ, क्षोभ का चन्द्र आदि थे । इन दशों भाइयों की : अभाव, शान्ति, दृढ़ता, हाथी बांधने का 'कुन्ती' और 'मद्री' यह दो बहनें थीं जो खूटा।
हस्तिनापुर नरेश पाण्डु" को व्याही गई ( २ ) जम्बूद्वीप के 'भरत' और | थीं जिन से युधिष्ठरादि ५ पाण्डव उत्पन्न 'ऐरावत' क्षेत्रों में से हर एक के | हुए। इस 'अक्षोभ्य' के उसकी "धृति"
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aumma
Nam
अक्षोहिणी
वृहत् जैन शब्दार्णव
अखाद्य
नामक धर्मपत्नी के उदर से (१) उद्धव, | अवय बड-देखो शब्द “अक्षयबड़" (२) वच (३) क्षुभितवारिधि (४) अम्भोधि (५) जलधि (६) वाम देव | अखाद्य-अभक्ष, न खाने योग्य; वह पदार्थ और (७) दृढ़ व्रत, यह सात पुत्र थे॥ - या वस्तु जिसके खाने से शारीरिक या
(देखो ग्रन्थ "वृ०वि० च०')| मानसिक अथवा आत्मिक बल में कोई न (३) अन्धकवृष्णि की दूसरी रानी |
कोई हानि पहुँचे, जो बुद्धि को मलीन करे धारणी का एक पुत्र भी "अक्षीभ्य" था या स्थूल बनावे अथवा चित्त में कोई जिसने श्रीनेमिनाथ स्वामो से दीक्षा ले विकार (क्रोध, मान, माया, लोभ आदि) कर और गुणरत्न नामक तप करके तथा
उत्पन्न करे और जिसमें जीवघात १६ वर्ष तक इसी अवस्था में रहकर अन्त
अधिक हो॥ में १ मास का अनशन तप किया और नोट-ऐसे हानिकारक मुख्य पदार्थ शत्रुजय पर्वत से निर्वाण पद पाया | निम्न लिखित २२ हैं:(अ. मा.)॥
(१) इन्द्रोपल या ओला-जमे हुए अक्षोहिणी-( अक्षौहिणी, अक्षौहिनी ) जल के टुकड़े । यह जल-वर्षा के साथ साथ
कभी कभी आकाश से पाषाण के टुकड़े एक बड़ी सैना जिसमें १० अनीकिनी दल
जैसे बरसते हैं । यह गुण में अति शीत युक्त हो अर्थात् जिस में २१८७० रथ, इतने ही
शुष्क हैं । दाँतों की जड़ों को बहुत हाथी, रथों से तिगुने ६५६१० घोड़े और
हानिकारक और बातरोग उत्पादक हैं। पचगुने १०९३५० प्यादे ( पैदल ) हो।
शीत प्रकृति के मनुष्यों की अंतड़ियों को नोट१.-हर रथ में एक रथसवार और
हानि पहुँचाते हैं ॥ एक रथवान (स्थवाहक) और हर हाथी
(२) घोर बड़ा, या दही मठा मिश्रित पर एक हाथी-सवार और एक हाथीवान | द्विदल-जिस अन्न या अनाज की दो दाल होते हैं और हर घोड़े पर केवल एक घुड़
होती हैं, जैसे चना, मटर, उड़द, मूंग, सवार होता है।
मोठ, मसूर, रमास, लोभिया, अरहड़ नोट २.–पूर्वकाल में सैना के निम्न
आदि, इन्हें द्विदल या विदल या दलहन लिखित : भेद माने जाते थे:
कहते हैं । ऐसे कच्चे या पके या भुने या (१) पत्ति-जिसमें एक रथ, एक उबाले या पिसे किसी भी प्रकार के अन्न हाथी, ३ घोड़े और ५ प्यादे हो।
को कच्चे दही या तक्र, महा या छाछ के (२) सेना-जिस में ३ पत्तिदल हों। साथ खाने से मुँह की लार मिलते ही अगणित | ( ३) सेनामुख-जिसमें ३सेनादल हो।
सूक्ष्म पञ्चेन्द्रिय जीव (जन्तु) उत्पन्न हो । (४)गुल्म-जिसमें ३ सेनामुखादल हों। जाते हैं जो खाते खाते मुख ही में मरते | (५) वाहिनी-जिसमें ३ गुल्मदल हो। और नवीन नवीन उत्पन्न होते रहते हैं। (६) प्रतना-जिलमें३वाहिनीदल हो।
जिससे न केवल हिंसा का ही दोष लगता (७) चम्-जिसमें ३ प्रतनादल हो। है किन्त बद्धिबळ और आत्म शक्ति को भी। (८) अनीकिनी-जिसमे ३ चमूदल हों।
| हानि पहुँचती है। ( 8 )अक्षोहिणी-जिसमें १० अनीकिनी |
राई, नमक, हींग आदि मिश्रित जल में | दलहों।
उड़द, मूग आदि की पीठी के बड़े डाल अखय तीज-देखो शब्द "अक्षय तृतीया" | कर जो एक दो दिन या इस से भी
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KamsuAIKAILEDURROR
अखाद्य
वृहत् जैन शब्दार्णव
अखाद्य
अधिक समय तक तुर्शी या खटास समान दोषों के अतिरिक्त निम्न लिखित उत्पन्न करने के लिये रख छोड़े जाते हैं कई एक अन्य दोष भी बहुत ही हानिउन्हें "घोर बड़ा" कहते हैं। जिस प्रकार कारक है:जल मिश्रित अन्न के किसी भी कच्चे या १--वैद्यक सिद्धान्त के सर्वथा विरुद्ध अधपके पदार्थों में शीघ्र ही और पूर्ण पके है क्योंकि पदार्थों में एक दो दिन या कुछ अधिक हर २४ घंटे में रात्रि को लगभग दिनों में असंख्य सूक्ष्म जीव पड़ कर और ७या घंटे सोना, खाना पच जाने से उन्हीं में मर कर अप्राकृतिक खटास पहिले निद्रा न लेना और न काम सेवन उत्पन हो जाती है उसी प्रकार "घोर
या मैथुन कर्म करना (जिसके लिये लग. बड़ो" में भी अगणित जीव उत्पन्न हो कर
भग ३ घंटे बिताने की आवश्यकता है), और मर कर खटास आजाती है । यह
सायंकाल के पश्चात् अधिक रात तक न खटास यद्यपि जिह्वालम्पटि मनुष्यों को
जागना अर्थात् शीघ्र सो जाना और प्रातः स्वादिष्ट लगती है परन्तु वीर्य को तथा |
काल सूर्योदय से कम से कम दो घड़ी पूर्व स्मरण शक्ति को प्राकृतिक खटाई से भी
जागना, यह चारों बातें सदैव स्वास्थ्य सहस्रों गुणी हानिकारक है। मस्तिष्क
ठीक रखने और निरोग रहने तथा बुद्धि को ( दिमाग, मज, भेजा) में खराब रतूबत निर्मल और मन को प्रसन्न रखने के लिये पैदा करके बुद्धि बल और आत्म शक्तियों को
वैद्यक शास्त्र का सर्वतन्त्र और सर्व मान्य हानि पहुँचाती है ॥
सिद्धान्त मानी जाती हैं । रात्रि में खाने इसी प्रकार आटे का खमीर उठा कर |
| पीने वालों से इन चारों बहुमूल्य सिद्धान्तों जो जलेबी या रोटी आदि पदार्थ बनाये का पालन कदापि नहीं हो सकता, कोई जाते हैं वे वाह्य दृष्टि में यद्यपि शरीर को न कोई अवश्य तोड़ना ही पड़ेगा । और कोई हानि नहीं पहुँचाते किन्तु कई अव- रात्रि भोजन का त्यागी इन चारों का स्थाओं में कुछ न कुछ लाभ भी पहुँचाते पालन बड़ी सुगमता से कर सकता और हैं तथापि आटे के सड़ने और इसी लिये पूर्ण स्वास्थ्य लाभ उठा सकता है। आत्मोन्नति में बाधक होने से यह पदार्थ २-रात्रि के समय मुख्यतः वर्षाऋतु में भी "अभक्ष्य" है ॥
| बड़ी सावधानी और यत्न के साथ भी (३) रात्रि भोजन..रात्रि में किसी भी खाने पीने या भोजन बनाने में साधारण प्रकार का अन्न जल आदि खाना पीना, या
जीव जन्तुओं के अतिरिक्त किसी न किसी रात्रि में बनाया हुआ कोई भी भोज्य पदार्थ
ऐसे विषैले कीड़े मकौड़े के पड़जाने की
| भी अधिक सम्भावना है जो खाने वाले दिन में भक्षण करना “रात्रि भोजन"कहलाता है । दिन में भी जब कभी या जहाँ कहीं सूर्य
के स्वास्थ्य को तुरन्त या शीघ्र ही बिगाड़ का पर्याप्त उजाला न हो तथा प्रातः काल
दे। जैसे सूर्योदय से पीछे की दो घड़ो या कम से (क) मकड़ी पड़ जाने से रुधिर विकार कम एक घड़ी के अन्दर और सायंकाल सूर्या- उत्पन्न हो जाता है। स्त से पूर्व की दो घड़ी या कम से कम एक (ख) तेलनी मक्षिका पड जाने से वीर्य दक्षित घड़ी के अन्दर कोई वस्तु खाना पीना भी होकर प्रमेह रोग हो जाता है जो प्रायः 'रात्रि-भोजन' की समान दृक्षित है। रात्रि- असाध्य होता है। भोजन में जीव-हिंसा और मांस-भक्षण (ग) एक प्रकार की चींटी या पिपीलिका
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अखाद्य
वृहत् जैन शब्दार्णव
अखाद्य
ऐसी विषैली होती है जिसके पड़जाने फल पोस्ता, जिसके दानों या बीजों को खशसे कंठमाला का तीव्र रोग पैदा हो । खाश या खशखश बोलते हैं, अरंड खरव्रज़ा जाता है।
या अरंडकाकड़ी, तिजारा, इत्यादि फल (घ) जूं पड़जाने से पेट में जलोदर रोग हो 'बहुवीजा' कहलाते हैं । इस प्रकार के जाता है।
सर्व ही फल मानसिक शक्तियों को बहुत ही (ङ) साधारण मक्षिका पड़ जाने से तुरन्त | हानिकारक हैं ॥ उलटी ( कय या वमन ) हो जाती है ।
(५) वृन्ताकया बैंगन (भट्टा या भाँटा)(च) बाभनी नामक कीड़ा कोढ़ उत्पन्न करता | यह एक प्रसिद्ध फल है । यह पित्तबर्द्धक
और बातरोगोत्पादक है । इसका शिर घिस(छ) शिर का घाल कंठरोग ( गला बैठना कर बवासीर के मस्सों पर लगाना यद्यपि
आदि) उत्पन्न करता या वमन का लाभदायक है परन्तु इसका खाना बवातार कारण होता और शरीर के अभ्यन्तर
रोगोत्पादक और बवासीर के रोगी तथा अंगों को हानि पहुँबाता है।
पित्तप्रकृति वाले को अधिक हानिकारक (ज) विच्छू फेफड़ों को हानि पहुंचाता है।
है। उदरशूल (वातशूल, पित्तशूल या दर्द (झ) बीर बहोटी नामक बरसाती रक्तवर्ण
कूलंज या कालिक पेन Colic pain) का कीड़ा गर्भपात करता है।
कारण है। आत्मोन्नति में बाधक और छह
मानसिकबल को हानिकारक है ॥ (अ) कंखजूरा शीघ्र प्राण नाशक है । (ट) खटमल मतली रोगोत्पादक है।
६) अथान (अथाना, सधान,संधाना,
अचार )-आम, नींबू, करोंदा, आमला, (3) झींगुर उदर पीड़ा उत्पन्न करता है।
करेला आदि कच्च या उबाले पदार्थों में यथा (ड) डांस मच्छर पिस्सू और पतङ्ग (परवाना) | विधि नमक, मिर्च, राई, तैल आदि डालकर
आदि पाचन शक्ति को विगाड़ते हैं जिन्हें तैयार करते और कई दिनों, महीनों तथा कई प्रकार के उदरविकार उत्पन्न या वर्षों तक रख छोड़ते और खाते रहते हैं करते हैं।
उन्हें 'अथाना' या 'अचार' कहते हैं। किसी (ढ) दीपक के उजाले पर आने वाले कीड़ों किसी की सम्मति में सर्व प्रकार के मुरब्बे
में से कई जाति के कोड़े ऐसे भी होते और गुलकन्द, शर्वत आदि भी 'अथाना' ही हैं जो भोज्य पदार्थों में पड़कर स्मरण हैं। यदि यह पदार्थ तईयारी के दिन ही ताजे शक्ति को बिगाड़ते और बुद्धि को मलीन | ताज़े खाये जावें तो इनकी गणना 'अथाने
में नहीं है। इन सर्व ही में शीघ्र ही त्रस (ण) कई प्रकार के वबाई रोगोत्पादक भी जीवोत्पत्ति का प्रारम्भ हो जाता है। और
बहुधा किसी न किसी प्रकार के कीड़े किसी किसी में तो मुख्यत: जिनमें पानी का ही होते हैं।
अंश अधिक होता है तईयारी से २४ घंटे इत्यादि, इत्यादि
पीछे से या तईयारी के दिन ही सूर्यास्त के (४) बहुबोजा-- जिस फल के एक ही पश्चात् से सूक्ष्म त्रस जीवोत्पत्ति होने लगती कोष्ठ में या कई कोष्ठ हो तो प्रत्येक कोष्ठ में है जिसकी संख्या कुछ ही दिन में किसी गूदे से अलिप्त कई कई बीज हो और जो उस किसी में तो इतनी बढ़ जाती है कि यदि फल को तोड़ने पर स्वयम् अलग गिर जायें, अथाने को हिला जुलाकर उलट पलट न जैसे अहिफेन ( अफ़ीम या अफ़यून) का किया जाय तो स्वेत या पीत फूलन या जाले
करते हैं।
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( ४७ ) अखाद्य वृहत् जैन शब्दार्णव
अखाद्य के से आकार में प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होने | इस के खाने में हानि पहुँचने की सम्भा-1 लगती है जो यथार्थ में निरन्तर जीवन मरण | वना है ॥ करते रहने वाले उन्हीं अगणित सूक्ष्म जीवों के | (१३)कन्दमूल-आलू , कचालू, रतालू, कलेवरों का पिंड होती है । इसके अतिरिक्त | पिंडालू, कसेरू, अदरक, हलदी, अरुई, या लगभग सर्व ही प्रकार के अथाने, मुख्यतः | अरवी ( घुईयाँ ), शकरकन्दी, ज़मीकन्द, जो तैल से तईयार किये जाते हैं और जिनमें | इत्यादि जिनका कंद या पिंङ ही बीज है खटास होती है, वीर्य को कुछ न कुछ दूषित ! और जो पृथ्वी के अभ्यन्तर ही उत्पन्न करते, बुद्धि और स्मरण शक्ति को हानि पहुँः होते और बढ़ते हैं उन्हें “कन्द" कहते चाते और मस्तिष्क को बलहीन करते हैं। | हैं। और मूली, गाजर, शलजम, प्याज़, गांठइसी लिये आत्मोन्नति में भी बाधक हैं। | गोभी, इत्यादि जिनका बीज होता है और इन्हें जितना अधिक सेवन किया जाता है जिन पर फूल लगकर फली लगती हैं और उतना ही यह मनुष्य को अधिक जिह्वा | प्रायः जिनकी जड़ें ही खाने में आती हैं लम्पटी और थोड़ी असावधानी से ही शरी
| उन्हें “मूल' कहते हैं । यह कन्द और मूल सङ्गों को शीघ्र रोग ग्रहण कर लेने के योग्य भी | दोनों ही प्रायः कामोद्दीपन करते और बना देते है ।इनमल बिषयलम्पटता को बढ़ाकर आत्मोन्नति और
(७-११) रक्तपदा या यक्षावास अर्थात् | धार्मिक कार्यों में बाधा डालते हैं । इन में बड़-फल या बड़बट्टा; अश्वत्थ फल या | सूक्ष्म निगोद जीवों की उत्पत्ति भी अधिक कुंजराशन-फल अर्थात् पिप्पल-फल या | होती है। गेपलो; यक्षांग या हेमदुग्ध अर्थात् ऊमर या (१४ ) मृत्तिका (मिट्टी) आँतों में कीड़े घटुम्बर या जन्तुफल या गूलर; वनप्रियाल | | उत्पन्न करती और मस्तिष्क को निर्बल गमलाय या फल्ग अर्थात जंगली अंजीर | बनाती है॥ । कठिया गूलर या कठूमर; और प्लक्ष या |
(१५) विष या ज़हर-यह साधाभांडक या पर्कटी फल अर्थात् पिलखन
रणतः प्राणान्त करने वाला पदार्थ है। और पाकर या पकरिया फल; इन पांचों ही वृक्षों | यदि इसे वैद्यक शास्त्र के नियमानुकूल यथा फल काठ फोड़कर बिना फूल आये उत्पन्न | विधि भी भक्षण किया जाय तो कामोहीपन ते हैं और इन सर्व ही में प्रत्यक्ष रूप से त्रस करता और विषय लम्पटी बनाता है । वों की उत्पत्ति अधिक होती है । यद्यपि
अतः आत्मोन्नति के इच्छुकों को यह त्याज्य धेना फूल ओये काठ फोड़कर निकलने वाले पर्व ही फल बुद्धि को कुछ न कुछ स्थूल
(१६) पिशित या पल या पलल या रते और मस्तिष्क को हानि पहुँचा कर
आमिष अर्थात् मांस-त्रस जीवों अर्थात् त्मोन्नति में बाधा डालते हैं तथापि यह पांचों
द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के सर्व जीवों के |धिक हानिकारक होने से २२ मुख्य अभक्ष्य
कलेवर की "माँस" संज्ञा है। इसके भक्षण दार्थों में गिनाये गये हैं।
में निम्नलिखित बहुत से दूषण हैं:(१२) अजान फल-जिसके नाम और | १. स जीव मुख्यतः पंचेन्द्रिय जीव ण आदि से हम अनभिज्ञ हैं तथा जिसे | घात, जो स्वयम् एक महा पाप है। मने अन्य मनुष्यों को खाता हुआ भी कभी | २. प्राणान्त होते ही से माँस सड़ने लगता हीं देखा हो उसे 'अजानफल' कहते हैं । है अर्थात् उसमें प्रति समय अगणित प्रस से अभक्ष्य में इस लिये गिनाया है कि जीव उत्पन्न हो हो कर मरते रहते हैं जिससे
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अखाद्य
वृहत् जैन शब्दार्णव
अखाद्य
उस मांस में प्रति समय दुर्गन्धि बढ़ती ही | और फिर उसे निचोड़ कर मधु प्राप्त जाती है। जिह्वा लम्पटी और मांस लोलुपो | करने में मक्खियां के सर्व अंडे बच्चे और इसको दुर्गन्धि दूर करने और स्वादिष्ट बनाने | कुछ न कुछ मक्खियां भी उसी के साथ के लिये इसमें नमक मिर्च मसाला आदि | निचोड़ ली जाती हैं जिससे उनके शरीर डालकर पकाकर या भूनकर खाते हैं तथापि का मांस और रुधिर भी मधु में सम्मिलत जीवीत्पत्तिमरण इसमें प्रत्येक अवस्था में | हो जाता है। बना ही रहता है जिससे खाने वाले को
४. छत्ता तोड़ कर लाने और लाकर अगणित त्रस हिंसा का महापाप लगता है।
दुकानदारों के हाथ मधु बेचने वाले मनुष्य ३. यदि किसी पंचेन्द्रिय प्राणों को प्रायः निर्दय चित्त और ऐसी नीच जाति बिना मारे स्वयम् प्राणान्त हुए प्राणी का | के मनुष्य होते हैं जिनके हाथ का द्रव मांस ग्रहण किया जाय तो यह मॉस और भी पदार्थ उच्च जाति के मनुष्य खाना अस्वीअधिक शीघ्रतासे सड़ता है और यद्यपि जिस | कृत करते हैं। प्राणी का मांस ग्रहण किया गया है उसके
५. उगाल होने के कारण मुख की लार मारने का दोष तो नहीं लगता है तथापि
उस में मिल जाने और सर्व अण्डों बच्चों व इसके भक्षण में अनन्तानन्त त्रस प्राणियों
कुछ मक्खियों का मांस रुधिर युक्त कलेवर के घात का और भी अधिक पाप है।
सम्मिलत हो जाने से उसमें उसी जाति के ४. हर प्रकार का मांस विषय वास- मधु के वर्ण सदृश अगणित सूक्ष्म जीवों की नाओं को बढ़ाता, दयालुता को हरता,
उत्पत्ति निरन्तर होती रहती है और इस क्रोधादि कषायों की ओर आत्मा को
लिए मांस समान दूषित है। आकर्षित करता और इस प्रकार आत्मोनति के वास्तविक मार्ग से सर्वथा हटा
६. कुछ रोगों में लाभ दायक होने पर
भी यह वात-रोगोत्पादक और मस्तिष्क देता है।
को हानिकारक है । कभी कभी मस्तक (१७) सारघ या क्षौद्र अर्थात् माक्षिक
| शूल भी उत्पन्न करता है। या मधु (शहद )-मुमाखियाँ जो कई
७. विषैली मक्खियों का या विषेले फूलों प्रकार के फूलों का रस चूस कर लातीं
से लाये हुए रस का मधु (जिसका पहिचाऔर लाकर अपने छत्त में उगल उगल |
नना कठिन है ) लाभ के स्थान में बहुत हानि कर संग्रह करती हैं उसे 'मधु कहते हैं। यह निम्न लिखित कारणों से अभक्ष्य है:
भी पहुँचाता है।
८. कोई कोई प्रकार का मधु ऐसा भी १. मक्खियों के मुँह का उगाल है।
| होता है जिसे अनजाने खा लेने से कुछ २. लाखों मक्खियों की बड़े कष्ट से | संग्रह की हुई जान से अधिक प्रिय अमूल्य |
| बेहोशी या राशी उत्पन्न हो जाती और सम्पत्ति है जिसे बलात् छोन लेना घोर |
| ठंढा पसीना शरीर पर आजाता है। पाप है जिसके लिये धर्म ग्रन्थों का बच्चन | बुद्धि भा कुछ नष्ट सा हो जाता है॥ है कि एक मधु छत्ते को तोड़ने या उसमें | (१८) हैयङ्गवीन या सरज या मन्थन से चुआ चुआ कर मधु ग्रहण कर लेने का | अर्थात् नवनीत ( नयनी घी या मक्खन )पाप एक सौ ग्राम फूक देने के पाप से | ताज़ा मक्खन कामोद्दीपक, मन्दाग्नि कारक भी कहीं अधिक है।
और चर्बी या मजा वर्द्धक है जिससे अना३. मक्खियों को उड़ाकर छत्ता तोड़ने | वश्यक मुटापा उत्पन्न होकर शरीर भारी |
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अखाद्य
वृहत् जैन शब्दार्णव
अगणप्रतिबद्ध
और धर्म सेवन में बाधा डालने वाला हो हानियां पहुँचाने से सांसारिक व पारमार्थिक जाता है। मस्तिष्क में स्थूलता आजाने से | कार्यों में बाधा डालते हैं । आत्मविचार में रुकावट पड़ जाती है ।। नोट २-इन २२ अभक्ष्य पदार्थों के कञ्चे दुग्ध या दही में से निकालने के दो सम्बन्ध में विशेष जानने के लिये देखो शब्द घड़ी पश्चात् से इसमें सूक्ष्म त्रस जीव अग- | "अभक्ष्य" ॥ णित उत्पन्न हो हो कर मरने लगते हैं। इसी लिये कुछ घंटों में या एक दो दिन में ही
अखिलविद्याजलनिधि-विद्यारूपी जल जध अनन्तानन्त जीवों का कलेवर उस में
का पूर्ण समुद्र; यह उपाधि किसी संग्रहीत हो जाता है तो प्रत्यक्ष उस में
असाधारण विद्वान कवि को राजा की ओर दुर्गन्धि आने लगती है। वर्ण और स्वाद
से दी जाती है । 'खगेन्द्रमणिदर्पण' नामक भी बहुत कुछ बदल जाता है । अतः इसे
वैद्यक ग्रन्थ के रचयिता जैन महाकवि खाने में मांस समान दोष उत्पन्न होजाते हैं ।
'मंगराज प्रथम' को यह श्रेष्ठ उपाधि विजय
नगराधीश "हरिहर" से मिली थी। यह (१६) वारुणी या शुण्डा अर्थात् मद्य
कर्णाटक देश निवासी कवि विक्रम की या सुरा (मदिरा या शराब )---यह प्रत्यक्ष
छटी शताब्दी के सुप्रसिद्ध आचार्य रूप से अगणित जीवों के कलेवरों के रसयुक्त, दुर्गन्धित, बुद्धि-विनाशक, स्मरणशक्ति
"श्रीपूज्यपाद यतीन्द्र" का, जो तत्वार्थघातक, कामोद्दीपक, विषयवासनावद्धक
सूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका के कर्ता हैं, और परमार्थवाधक है।
एक शिष्य था। इसे सुललितकविपिक(२०) अति तुच्छ फल ( अपनी मर्यादा
वसन्त, विधुवंशललाम, कविजनैकमित्र, से बहुत छोटा फल जिसमें अभी बढ़ने की
अगणित गुणनिलय, पंचगुरुपदाम्बुज भृग, शक्ति विद्यमान है)-यह साधारण निगोद
इत्यादि अन्यान्य उपाधियां भी प्राप्त थीं। राशि का घर होने से मस्तिष्क को हानि
यह कर्णाटक देशस्थ देवलगे प्रान्त के मुख्य
पत्तन "मुगुलेयपुर" का स्वामी था। इस कारक, मनोविकारवर्द्धक और आत्मोन्नति
की धर्मपत्नी का नाम कामलता था जिस में वाधक होते हैं।
के उदर से तीन पुत्र जन्मे थे। (देखो ग्रन्थ (२१) प्रालेय या तुहिन अर्थात तुषार
'वृ. वि. च०' में शब्द 'मंगराज') या हिम (पाला या बर्फ़ )-यह इन्द्रोपल या ओले की समान दूषित है।
अगडदत्त-शंखपुर नरेश “सुन्दर" की (२२) चलितरस-मर्यादावाह्य होजाने
सुलसा रानी का एक पुत्र जो अपनी स्त्री से या किसी प्रकार की असावधानी आदि ।
का दुश्चरित्र देख कर सांसारिक विषय से मर्यादा से पूर्व भी जिन पदार्थों का स्वाद ।
भोगों से विरक्त हो गया था । (अम्मा०)॥ बिगड़ जाता है उन्हें 'चलितरस' कहते हैं। अगणप्रतिबद्ध-अन्तरङ्ग तप के ६ भेदों ऐसे खाने पीने के सर्व ही पदार्थों में सूक्ष्मत्रस में से 'प्रायश्चित' नामक प्रथम भेद का जीवों की उत्पत्ति और मरण का प्रारम्भ हो एक उपभेद अर्थात् वह प्रायश्चित जिसके जाता है जिससे शीघ्र ही उनमें खटास,जाला, अनुसार किसी अपराध के दंड में गुरु की फूली, तार बंधना, रंग बदल जाना, इत्यादि | आशानुसार कुछ नियत काल तक मुनि को किसी न किसी एक या अधिक प्रकार का | संघ से अलग रह कर किसी ऐसे देश के परिवर्तन हो जाता है । ऐसे पदार्थ शारीरिक | बन में श्रद्धा पूर्वक मौन सहित तप करना और मानसिक दोनों ही प्रकार की अनेक पड़े जहां के मनुष्य धर्म से अनभिज्ञ हो।।
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1 अगणितगुणनिलय
वृहत् जैन शब्दार्णव
अगाढसम्यग्दर्शन
नोट-प्रायश्चित तप के दशभेद यह हैं:-- ___ इस ऋद्धि के ८ भेद हैं-(१) आमर्श (१) आलोचना (२) प्रतिक्रमण (३) आलो- (२) वेल (३) जल्ल ( ४ ) मल (५ ) चना-प्रतिक्रमण (४) विवेक (५) व्युत्सर्ग | _ विट (६) सर्वोषधि (७) आस्याविष (६) तप (७) छेद (क) मूल या उपस्थापना (८) दृष्टिविष । (देखो शब्द"अक्षीणऋद्धि" या छेदोपस्थापना (६) परिहार (१०) | का नोट २) श्रद्धान॥
अगमिक-वह श्रुत जिसके पाठ, गाथा इन दश में से अन्तिम भेद 'श्रद्धान'
आदि परस्पर समान न हो; आचारांगादि नामक प्रायश्चित को अनावश्यक जानकर किसी किसी आचार्य ने प्रायश्चित तप के
कालिकश्रुत । (अ० मा० अगमिय)॥ केवल ६ ही भेद बताये हैं ॥
अगस्ति (अगत्यि, अगस्त्य )-(१) इन दश में से 'परिहार'प्रायश्चित के ग्रहों में से ४५ वें 'रुद्र' नामक ग्रह का (१) गण प्रतिबद्ध और (२) अगणप्रतिबद्ध, नाम॥ यह २ भेद हैं ।
(२) एक तारे का नाम जो आश्विन किसी किसी आचार्य ने इस परि- मास के प्रारम्भ में उदय होता है। हार प्रायश्चित के (१) अनुपस्थापन और (३) एक पौराणिक ऋषि का नाम जो (२) पारंचिक, यह दो भेद करके "अनुप- 'कुम्भज' ऋषि के नाम से भी प्रसिद्ध थे। स्थापन" के भी दो भेद ( १ ) निज गुणानु- यह 'मित्रावरुण' के पुत्र थे । इनका पहिला पस्थापन और (२) परगुणानुपस्थापन किये
नाम "मान" था। दक्षिण भारत के एक हैं ॥ ( उपर्युक्त सर्व भेदों का स्वरूप आदि पर्वत की चोटी का नाम 'गस्तिकूट' यथास्थान देखें)॥
इन ही के नाम से प्रसिद्ध है जिससे अगणितगुणनिलय-अपार गुणों का
"तामूपर्णी" नदी निकलती है ॥
(४) अगस्त्य का पुत्र; बक वृक्ष, मौलस्थान; यह एक विरदावली जैन महा
सिरी; दक्षिण दिशा ॥ कवि "मंगराज प्रथम" की थी (देखोशब्द "अखिलविद्याजलनिधि"और"मंगराज")॥
अगाट-अस्थिर,स्थिर न रहने वाला, चला. अगद-रोग रहित, निरोगी, स्वस्थ्य; रोग
यमान, अदृढ़. दृढ़ता रहित ॥
अगाढ़ सम्यग्दशन-वेदक या क्षायोदूर करने वाली वस्तु अर्थात् औषधि;अकथक मुँह चुप्पा; दैवशक्ति सम्पन्न रत्न
पशमिक सम्यग्दर्शन के ३ भेदों (१) चलविशेष; नदी विशेष ॥
सम्यग्दर्शन (२) मलिन सम्यग्दर्शन (३)
अगाढ़ सम्यग्दर्शन में से तीसरे भेद का अगद ऋद्धि-औषध ऋद्धि का दूसरा नाम, जिसमें आत्मा के परिणाम या भाव नाम | वह ऋद्धि (आत्मशक्ति) जिस के | अकम्प न रह कर सांसारिक पदार्थों में प्राप्त होजाने पर इस ऋद्धि का स्वामी ममत्व, परत्व रूप भ्रम का कुछ न कुछ ऋषि अपने मलादि तक से रोगियों के सद्भाव हो॥ असाध्य रोग तक को भी दूर कर सकता। नोट-सम्यग्दर्शन के मूल भेद ३ हैं (१) है । अथवा उस ऋषि के शरीर का कोई औपशमिक (२) क्षायिक और (३) क्षायो। मैल आदि या उसके शरीर से स्पर्श हुई पशमिक । इन में से तीसरे का एक भेद वायु या जलादि भी सर्व प्रकार के कठिन | उपर्युक्त "अगाढ सम्यग्दर्शन" है । इस का से कठिन शारीरिक रोगों को दूर करसकें। स्थिति-काल जघन्य एक अन्तर्मुहूर्त ( दो घड़ी
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अगार वृहत् जैन शब्दार्णव
अगारी से कम ) और उत्कृष्ट ६६ सागरोपम है। (२) सद्गुण-गुरुपूजक-सदाचार, स्वजिस व्यक्ति को जिस प्रकार का सम्यग्दर्शन | परोपकार, दया, शील, क्षमा आदि सद्गुणों प्राप्त होता है उसे उसीप्रकार का "सम्यग्दृष्टी" | और उनके धारक पुरुषों तथा माता पिता या "सम्यक्ती" या "तत्त्वज्ञानी" या आत्म- | आदि में भक्ति रखने वाला। शानी" या "मोक्षमार्गी" कहते है । (देखो (३) सद्गी-सत्य, मधुर और हित मित शब्द "अकस्मात् भय" के नोट १, २, ३, और बचन बोलने वाला ॥ पृ. १३, १४ शब्द "सम्यग्दर्शन" आदि ) ॥ो (४) त्रिवर्गसाधक --धर्म, अर्थ, काम, अगार-आगार, सदन, गृह, घर, मकान | इन तीनों पुरुषार्थों को परस्पर विरोध रहित गृहस्थाश्रम, श्रावकधर्म; बन्धन रहित, 1 धर्म
धर्म की मुख्यता पूर्वक साधन करने वाला ॥ | मुक्त, विवन्ध रोग, समुद्र ॥ .
(५) गृहिणीस्थानालयी-सुशीलापति
व्रता स्त्री सहित ऐसे नगर, ग्राम, घर में अगारी ( अगारि)-गृहस्थी, घर में |
| निवास करने वाला गृहस्थी जहां त्रिवर्ग रहने या बसने वाला, कुटुम्ब परिवार | साधन में किसी प्रकार की बाधा न पड़े ॥ सहित रहन सहन करने वाला; ब्रती (६) हीमय-लज्जावन्त, निर्लज्जता मनुष्य के दो भेदों अर्थात् 'अगारी' और | रहित । 'अनगारा' अथवा 'आगारी' और 'अना- (७) युक्ताहारविहारी-जिस का खान गारी' में से एक पहिले भेद का नाम; सप्त | पान, गमनागमन, बैठ उठ आदि सर्व क्रिया व्यसन त्यागी और अष्ट मूलगुणधारी योग्य और शास्त्रानुकूल हो। गृहस्थी; अणुव्रती गृहस्थ,देशव्रती श्रावक, (८) सुसंगी-सदाचारी सज्जन पुरुषों वह गृहस्थ जिसने सम्यग्दर्शन पूर्वक ५ पापों की संगति में रहने वाला और कुसंग त्यागी॥ अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन या (6) प्राश-बुद्धिमानी से हर कार्य के अब्रह्म, और परिग्रह का एकदेश (अपूर्ण)| गुणावगुण विचार कर दूर दर्शिता पूर्वक त्याग किया हो; वह गृहस्थ जो त्रिशल्य- काम करने वाला ॥ रहित अर्थात् माया, मिथ्या,निदान रहित (१०) कृतज्ञ-पराये किये उपकार को ५ अणुव्रत ( अहिंसाणुब्रत, सत्याणुव्रत, | कभी न भूलने वाला और सदा प्रति उप. अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, और परिग्रह | कार का अभिलाषी ॥ परिमाणाणुब्रत ) का धारक हो, तथा जो (११) वशी ( जितेन्द्रिय)-इन्द्रियाधीन सप्तशील अर्थात् ३ गुणव्रत और ४शिक्षा- | न रहकर मन को वश में रखने वाला ॥ व्रत को भी पञ्चाणुव्रत की रक्षार्थपालताहो |. (१२) धर्मविधि श्रोता-धर्मसाधन के
और अन्त में सल्लेखना अर्थात् समाधि | कारणों को सदा श्रवण करने वाला ॥ मरण सहित शरीर छोडे । इन सर्व व्रतों (१३) दयाल - दया को धर्म का मल को अतिचार रहित पालन करने वाले | जान कर दुःखी, दरिद्री, दोनों पर दया गृहस्थी को पूर्ण सागारधर्मी अर्थात् भाव रखने वाला ॥ सागार धर्म को पूर्णतयः पालन करने वाला (१४) अघमी ( पाप भीरु )-दुराः श्रावक कहते हैं ।
चरणों से सदा भय भीत रहने वाला ॥ नोट १-ऐसे श्रावक के नीचे लिखे १४ | इन १४ लक्षणों या गुणों को धारण करने लक्षण या गुण हैं:
वाला पुरुष पूर्ण सागारधर्मी ( अगारी या (१) न्यायोपार्जित-धन-ग्राही-न्याय आगारी) बनने के योग्य होता है। ऐसा पुरुष पूर्वक धन कमा कर भोगने वाला। उपयुक्त गुणों की रक्षार्थ निम्न लिखित नियमों
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अगारी
वृहत् जैन शब्दार्णव
अगारी
का यथा शक्ति पालन करता, आदर्शआगारी प्रातःकाल जागते समय नित्य प्रति करता बनने के लिये प्रयत्न करता और अनागारी और यथा आवश्यक दोषों का प्रायश्चित्त भी बनने के लिये अभ्यास बढ़ाता है:
लेता है। (१) उपर्युक्त ५ अनुव्रत (अणुव्रत ),७ ऐसा योग्य पुरुष यदि संसारदेह-भोगादि शील ( ३ गुणब्रत और ४ शिक्षाबत )और से विरक्त होकर मोक्ष-प्राप्ति की उत्कट अभिअन्त-सल्लेखनामरण, इन १३ में से प्रत्येक के लाषा रखता हो तो अवसर पाकर यथा द्र ५, ५ अतिचार दोषों को भी बचाता और क्षेत्र कालं भाव या तो तुरन्त अनागारी ५, ५ भावनाओं को ध्यान में रखता है। (महाव्रती मुनि) बन जाता है या अपनी
(२) सप्त-दुर्व्यसन-त्याग, अष्टमूलगुण योग्यता व शक्ति अनुसार श्रावकधर्म की ग्रहण और त्रिशल्य वर्जन को भी अतीवार | निम्न लिखित ११ प्रतिमाओं (प्रतिक्षा, कक्षा | ढोषों से बचाकर पालन करने में प्रयत्न | या श्रेणी) में से कोई एक धारण करके शील रहता है।
उदासीन वृत्ति के साथ ऊपर को चढ़ता हुआ (३) २२ प्रकार के अभक्ष्य पदार्थों के यथा अवसर मुनिव्रत धारण करलेता है । भक्षण से बचता है ॥
वे ११ प्रतिमा यह है:-(१) दर्शन (२) (४) गृहस्थ धर्मसन्बम्धी ५३ क्रियाओं| व्रत (३) सामाथिक (8) प्रोषधोपवास (५) को यथा योग्य और यथा आवश्यक अपने | सचितत्याग (६) रात्रि भोजन त्याग (७) पद के अनुकूल पालता है।
ब्रह्मचर्य (८) आरंभ त्याग (6) परिग्रह त्याग (५) गर्भाधानादि २६ संस्कारों को शास्त्रा- (१०) अनुमति त्याग (११) उद्दिष्ट त्याग । नुकूल करने कराने का उद्यम रखता है। नोट :-२
(६) सम्यक्त को बिगाड़ने या मलीन ३ गुणवत-दिगब्रत, अनर्थदंडत्याग | करने वाले ५० दोषों को बचाता और ६३ | व्रत, और भोगोपभोगपरिमाण व्रत ॥ गुणों को अवधारण करता है।
४ शिक्षाव्रत-देशावकाशिक, सामा(७) श्रावक के २१ उत्तर गुणों का यिक, प्रोषधोपवास और अतिथि संविभाग। पालक और १७ नियमों का धारक बनता है। ७ दुर्व्यसन-जुआ, चोरी, वेश्या गमन,
(७ अवसरों पर मौन धारण करता| मद्यपान, मांसभक्षण, पर-स्त्री-रमण और और भोजन के समय के ४ प्रकार के ४४
मृगया ॥ अन्तरा-यों को बचाता है ॥
___८ मूलगुण-५ उदम्बर फल और ३ पंचशन अर्थात चल्हा. चौका, | मकार त्याग अर्थात बह फल, पीपल फल.
घा नित्य | ऊमर फल ( गूलर) कठूमर फल जंगली प्रति की घर की क्रियाएँ बड़ी शुद्धता से | अंजीर ), पाकर फल ( पिलखन या यथाविधि कराता और ऊपर से कोई जीव | पकरिया ), मधु, मांस,मद्य, इन अष्ट वस्तुओं जन्तु न पड़े इस अभिप्राय से पूजनस्थान के खाने का त्याग अथवा (१) पञ्च उदम्बर आदि ११ स्थानों में चन्दोवे लगाता है॥ फल त्याग (२) मधु त्याग (३) मांस त्याग
(१०) अपनी दिनचर्या और रात्रिचर्या (४) मद्य त्याग (५) देव बन्दना ( ६ ) शास्त्रानुकूल बनाता है।
जीवदया (७) दुहरे उजल निर्मल वस्त्र से (११) दिनभर के किये कार्यों की सम्हा- छना जलपान (८) रात्रि भोजन त्याग ॥ ल और उनकी आलोचना व प्रतिक्रमण ३ शल्य-माया, मिथ्या. निदान ॥ रात्रि को सोते समय और रात्रि के कार्यों की __२२ अभक्ष्य-ओला, घोर बड़ा (द्विदल), सम्हाल और उनकी आलोचना व प्रतिक्रमण | निश भोजन, बहुवीजा, बैंगन, सन्धान
मकार त्याग अथात् बड़ फल, पीपल फल
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अगारी
वृहत् जैन शब्दार्णव
अगारी
(अचार), बड़ फल, पीपल फल, ऊमर, १७ नित्यनियम श्रावक के-षटरस कठूमर, पाकर फल, अजान फल, कन्द मूल, भोजन, कुमकुमादि विलेपन, पुष्पमाला, मट्टी, विष, मांस, मधु, मद्य, माखन, | ताम्बूल, गीतश्रवण, नृत्यावलोकन, मैथुन, अति तुच्छ फल, तुषार, चलित रस ॥ स्नान, आभूषण, वस्त्र वाहन, शयनासन, ___५३ क्रिया-उपर्युक्त १२ ब्रत (५अणुव्रत,
सचित वस्तु, दिशा गमन, औषध, गृहारम्भ, ३गुणवत.४ शिक्षाबत), मूलगुण, ११ प्रतिमा
और संग्राम, इन १७ का यथाआवश्यक (प्रतिज्ञा ), १२ तप ( अनशन, ऊनोदर, व्रत
और यथाशक्ति नित्यप्रति परिमाण स्थिर परिसंख्यान,रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन,
करना ॥ कायक्लश, प्रायश्चित, विनय, वैयावत,
७ मौन-देवपूजा, सामयिक, भोजन, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान), ४ दान
| वमन, स्नान, मैथुन, मलमूत्रत्याग, यह, ( ज्ञान दान, अभय दान, आहार दान
अवसर मौन के हैं। औषधि दान), ३ रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन,
| ४ प्रकार के ४४ अन्तराय भोजन सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र ), रात्रि भोजन | समय केत्याग, शद जल पान. और समता भाव ॥ (१) ८ राष्ट सम्बन्धी । जस, हाड़, मास. (आगे देखो शब्द " अग्रनिवति क्रिया" रक्त, गीला चाम, विष्टा, जीवहिसा पृ०७० और "क्रिया")॥
___ इत्यादि दृष्टिगोचर होने पर ॥ ___२६ संस्कार-गर्भाधान, प्रीति क्रिया, |
| (२) २० स्पर्श सम्बन्धी । जैसे बिल्ली, कुत्ता
आदि पञ्चेन्द्रियपशु, चाम, ऋतुवती सुप्रीति क्रिया, धृति क्रिया, मोद क्रिया, | प्रियोद्भव क्रिया, नाम कर्म, बहिर्यान क्रिया, |
स्त्री, नीच स्त्री पुरुष, रोम, नख, पक्ष
(पंख) आदि के भोजन से छू जाने पर ॥ निषद्या क्रिया, अन्नप्राशन क्रिया, व्युष्टि क्रया अथवा वर्षवर्द्धन क्रिया, चौल क्रिया (३) १० श्रवण सन्बन्धी । जैसे देवमति अथवा केशवाय क्रिया, लिपिसंख्यान क्रिया, |
भङ्ग होना, गुरु पर कष्ट या धर्म कार्य में उपनीति क्रिया. ब्रतचर्या. बतावतार क्रिया,
विघ्न, हिंसक क्रूर वचन, रोने पीटने के वेवाह क्रिया, वर्णलाभ क्रिया, कुलचर्या
शब्द,अग्निदाह या अन्यान्य उत्पात सूचक क्रेया, गृहीसिता क्रिया प्रशान्तता क्रिया,
बचन सुनने पर। हत्याग क्रिया. दीक्षाद्य क्रिया. जिनरूपता (४) ६ मनोविकार या स्मरण सम्बंधी । ऋया, मौनाध्ययन व तत्व क्रिया, समाधि मांसादि ग्लानि दिलाने वाले पदार्थों के रण या मरण की क्रिया।
स्मरणहोआनेपर याभूलसेकोई त्यागीहुई ५० दोष सम्यक्त को मलीन करने वाले
वस्तु खाने पर स्मरण आते ही। इत्यादि। और सम्यक्ती के ६३ गुण ( देखो शब्द “अकः | ११ स्थान चन्दोवा लगाने के-(१) मात् भय" के नोट १२.३, पृ. १३,१४)॥ पूजन स्थान (२) सामायिक स्थान (३) स्वा२१ उत्तरगुण श्रावक के-लज्जावत, |
ध्याय या धर्म चर्चा स्थान (४) चूल्हा (५) यावन्त, प्रसन्नचित्त, प्रतीतिवन्त, पर दोषा- | चक्की (६) पन्हेड़ा (७) उखली () भोजन छादक परोपकारी, सौम्यदृष्टि, गुणग्राही, स्थान (6) शय्या (१०) आटा छानने का पष्टवादी, दोघविचारी, दानी, शोलवन्त, | स्थान ( १) व्यापार-स्थान ॥ तज्ञ, तत्त्वज्ञ, धर्मज्ञ, मिथ्यात्व त्यागी,संतोषी, नोट३-उपर्युक्त ११ प्रतिमा व १४ लक्षण, पादवाद भाषी, अभक्ष्य त्यागी, षटकर्म | ५३ क्रिया आदि का अलग अलग स्वरूप वीण ॥
यथा स्थान देखें।
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अगीत
( ५४ >
वृहत् जैन शब्दार्ण
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अगीत
शास्त्रार रहित, जिनवाणी ो न 'समझने वाला अ० मा०
गीतार्थ अगी, अगत्य ) || अगुप्त - त्रिगुप्ति रहित; मनोगुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति, इन तीनों या कोई एक गुप्ति रहित पुरुष, मन बचन काय को दोषों से रक्षित या अपने वश में न रखने वाला, अरक्षित; जो गुप्त अर्थात् छिपा हुआ न हो, प्रत्यक्ष ॥
गुप्तभय - प्रत्यक्ष भय; प्रकट भय; वह भय जो गुप्त अर्थात् छिपा नहो; सात प्रकारके भयों में से एक छठे प्रकार के भय का नाम जिसमें धन माल के लुटने या चोरी जाने आदि का भय रहता है। ( पीछे देखो शब्द "अकस्मात भय” नोटों सहित पृ० १३ ) ॥ अगुप्ति - त्रिगुप्ति रहित पना, त्रिगुप्तिका
अभाव ॥
अगुरु-गुरुतारहित, भारीपनरहित, हलका गौरवशून्य; गुरुरहित, बिन उपदेशक; अगरु चन्दन, कालागरु; शीशम; लघुवर्ण, वह वर्ण या अक्षर जो अनुस्वार विसर्ग यादीर्घस्वर से युक्त, अथवा संयुक्त वर्ण से पूर्व न हो ।
अगुरुक - अगुरुलघु नामकर्म ( अ०मा० अगुरुअ ) ॥
अगुरुलघु - (१) गुरुता और लघुता रहित न भारी न हलका |
( २ ) नामकर्म की ४२ अथवा अवान्तर भेदों सहित १३ उत्तर प्रकृतियों में से एक प्रकृति का नाम जिसके उदय से किसी संसारी जीव का शरीर न अति भारी हो और न अति दलका हो ।
नोट- देखो शब्द "अघातिया कर्म" के अन्तर्गत " नामकर्म" ।
अगुरुलत्वघुगुण
अगुरुलघुक-वे द्रव्य गुण, या पर्याय जिन में भारीपन या हलकापन नहीं है । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, काल, जीव यह ५ द्रव्य और चडफालियापुद्गल अर्थात् भाषा मन, और कर्म योग्य द्रव्य, भाव लेश्या, दृष्टि दर्शन, ज्ञान, अज्ञान, संज्ञा, मनोयोग, बचनयोग, साकार उपयोग, अनाकारउपयोग, यह सर्व अगुरुलघुक है । ( अ० मा० अगुरुलघुग, अगुरुलड्डु ) ॥
उपघात:
अगुरुलघु चतुष्क- अगुरुलघु, परघात, उच्छ्रवास, यह ४ नामकर्म की प्रकृतियाँ | ( अ० मा० ) ॥ अगुरुलघुत्व - ( १ ) गुरुता और लघुता का अभाव, भारीपन और हलकेपन का न होना ॥
(२) सिद्धों अर्थात् कर्मबन्धरहित मुक्तात्माओं के मुख्य अष्टगुणों में से एक गुण जो गोत्र कर्म के नष्ट होने से प्रकट होता है ॥
नोट - सिद्धों के मुख्य अष्टगुण - ( १ ) क्षायिक सम्यक्त ( २ ) अनन्त दर्शन ( ३ ) अनन्तज्ञान (४) अमन्तवीर्य ( ५ ) सुक्ष्मत्व (६) अवगाहनत्व (७) अगुरुलघुत्व ( ८ )
अध्यावधित्व ॥
अगुरुलघुत्व गुण - पटद्रव्यों मेंसे हर द्रव्य के छह सामान्य गुणोंमें का वह सामान्य गुण या शक्ति जिस के निमित्त से हर द्रव्य का द्रव्यत्व बना रहता है अर्थात् एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप नहीं हो जाता और न एक
दूसरे गुण रूप होता है और न द्वयं के अनन्त गुण कभी बिखर कर अलग होते हैं, अथवा जिसशक्ति के निमित्त से द्रव्यं की अनन्त शक्तियां एक पिंडरूप रहती है तथा एक शक्ति दूसरी शक्ति रूप नहीं परिणमन करती या एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप
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| अगुरुलघुत्वप्रतिजीवीगुण
वृहत् जैन शब्दार्णव
अग्गलदेव
नहीं बदलता उसे "अगुरुलघुत्व गुण" | मिथ्यात्व" ) ॥ कहते हैं ।
अगृहीतार्थ-वह मुनि जो एकाविहारी न नोट-षट द्रव्यों के ६ सामान्य गुण यह हैं:-(१) अस्तित्व (२) वस्तुत्व (३)
__ हो किन्तु दूसरे मुनियों के साथही विचरै ।। द्रव्यत्व (४) प्रमेयत्व (५) अगुरुलघुत्व | अग्गल (अर्गल)-(१) आगल, सांकल, (६) प्रदेशत्व ॥
हुड़का, बैंडा या चटकनी जो किवाड़ बन्द अगुरुलघुत्वप्रतिजीवी गुण-जीव या| करने में लगाई जाती है ॥
(२) ८८ ग्रहों में से एक ग्रह का नाम अजीव के अनेक 'प्रतिजीवी' गुणों में से | वह गण जिस से उसके भारीपन व हल
(अ० मा.) के पनके अभाव का अथवा उस की उच्चता | अगलदेव ( अर्गलदेव )-(१) कर्णाटक व नीचता के अभाव का बोध हो॥ देशवासी एक सुप्रसिद्ध जैनाचार्य-इनका
नोट १-द्रव्य के अनुजीवी और प्रति-| जन्म स्थान “इङ्गलेवर ग्राम" और समय जीवी, यह दो प्रकार के गुण होते हैं। भाव वीर नि० सं० १६३४, वि. सं० ११४६ स्वरूप गुणों को अनुजीवी गुण कहते हैं, जैसे और ईस्वी सन् १०८६ है। पिता का नाम सम्यक्त्व. सुख, चेतना, स्पर्श, रस, गन्ध 'शान्तीश', माता का नाम 'पोचाम्बिका' आदि और अभाव स्वरूप गुणों को प्रतिजीवी और गुरु का नाम 'श्रुतकीर्तित्रैविद्य देव' गुण कहते हैं, जैसे नास्तित्व, अमूर्त्तत्व, अचेत- था। यह अपनी गृहस्थावस्था में किसी नत्व, अगुरुलघुत्व आदि ।
राजदर्बार के प्रसिद्ध कवि थे। इनके रचे अगृह-गृहहीन, घररहित; घर त्यागी
ग्रन्थों मेंसे आजकल केवल एक कर्णाटकीय
भाषा का 'चन्द्रप्रभपुराण' ही मिलता है वानप्रस्थ; गृहत्यागी मुनि (पीछे देखो
जिसकी रचना शक सं० २०११ (वि.सं. शब्द "अकच्छ", पृ०४)॥
११४६ ) में हुई थी । इस ग्रन्थ की भाषा प्रगृहीत (अग्रहीत)-न ग्रहण किया हुआ ॥ बहुत ही प्रौढ़, प्रवीणतायुक्त और संस्कृतप्रगृहीत मिथ्यात्व-न ग्रहण किया हुआ
पदवहुल है। इसमें १६ आश्वास अर्थात्
अध्याय है । जैनजनमनोहरचरित, कवि मिथ्यात्व; वह असत्य भाव और असत्य
कुलकलभत्रातयूथाधिनाथ,कान्यकरणधार, श्रद्धान जो किसी मिथ्या शास्त्र या मिथ्या
भारतीबालनेत्र, साहित्यविद्याविनोद, श्रद्धानी गुरु आदि के उपदेशादि से न ग्रहण
जिमसमयसरस्सारकेलमराल, और सुल. किया गया हो किन्तु आत्मा में स्वयम् उस
लितकवितानर्तकीनृत्यरङ्ग आदि अनेक की मलीनता के कारण पूर्वोपार्जित"मिथ्या
इनके विरद अर्थात् प्रशंसा वाचक नाम त्व कर्म' के उदय से अनादि काल से
या पदवी हैं जिनसे इन की विद्वता और सन्तान दर सन्तान प्रवाहरूप चला आया हो। इसी को "निसर्गज मिथ्यात्व"
योग्यता का ठीक पता लग जाता है।
आश्चण्णदेवकवि, अण्डय्य, कमलभव, भी कहते हैं। यह मिथ्यात्व ३ प्रकार के
बाहुबलि और पार्श्व आदि अनेक बड़े बड़े मिथ्यात्वों-अगृहीत, गृहीत, सांशयिकमें से एक है ॥
कवियों ने अपने अपने ग्रन्थों में इनकी
बड़ी प्रशंसा की है । यह आचार्य मलसंघ, गृहीतमिथ्यादृष्टी-अगृहीत मिथ्यात्व- देशीयगण, पुस्तकगच्छ, और कुन्दकुन्द प्रसित जीव । (ऊपर देखोशब्द "अगृहीत- आम्नाय में हुए हैं।
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अग्नि
(२) कर्नाटक देशीय वत्सगोत्री एक सुप्रसिद्ध ब्राह्मण का नाम भी "अग्गलदेव " था जिसके पुत्र "ब्रह्माशिव" ने वैदिक मत त्याग कर पहिले तो लिंगायत मत ग्रहण किया और फिर लिंगायत मत को भी निःसार जान कर “मेघचन्द्रत्रैविद्यदेव" के "श्रीवीरनान्द " मुनि के उपदेश से पुत्र जैनधर्म को स्वीकृत किया और समयपरीक्षा" नामक ग्रन्थ रचा जिसमें शैव वैष्णवादिक मतों के पुराण ग्रन्थों तथा आचारों में दोष दिखा कर जैनधर्म की प्रशंसा की है । यह सुप्रसिद्ध महाकवि उभय भाषा ( संस्कृत और कनड़ी ) का अच्छा विद्वान था । इसका समय ईस्वी सन् १९२५ के लगभग का है ॥ अग्नि - (१) आग, वहि, वैश्वानर, धनञ्जय, बीत होत्र, कृपीटियोनि, ज्वलन, पावक, अनल, अमरजिह्न, सप्तजिह्न, हुत, भुज, हुताशन, दद्दन, वायुख, हव्यवाहन, शुक्र, शुचि, इत्यादि साठ सत्तर से अधिक इसके पर्याय बाचक नाम है ।
( ५-६ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
नोट- वर्तमान कल्पकाल के इस अवसर्पिणी विभाग में "अग्नि" का प्रादुर्भाव ( प्रकट होना ) श्री ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर के समय में हुआ जब कि भोजनादि सामग्री देने वाले 'कल्पवृक्ष' नष्ट होजाने पर अन्नआदि उत्पन्न करने और उन्हें पका कर खाने की आवश्यकता पड़ी।
आवश्यक्ता पड़ने पर पहिले पहल श्री ऋषभदेव ( आदि ब्रह्मा ) ने अग्नि उत्पन्न करने की निम्नलिखित तीन विधियां सिखाई':
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अग्निकायिक
२. सूर्यकान्तमणि (आतशी शीशा ) बना कर और उसे सूर्य के सन्मुख करके अग्नि उत्पन्न करना ॥
३. (१) वह्निप्रस्थर ( चकमक पत्थर ) की पहिचान बताकर और उसके टुकड़ों को बलपूर्वक टकराकर अग्नि निकालना ॥
(२) चित्रकवृक्ष, स्वर्णधातु, पित्त, चिन्ता, कोप, शोक, ज्ञान, राज, गुल, भिलावा, नीव बृक्ष, ३ का अङ्क, तृतीयातिथि, कृत्तिका नक्षत्र ॥
(३) कृत्तिका नक्षत्र के अधिदेवता का नाम पूर्व और दक्षिण दिशाओं के मध्य की विदिशाओं के अधिपति देव का नाम तथा उसी विदिशा का भी नाम ॥
आठों दिशा विदिशाओं के अधिपति देव अष्ट दिक्पाल - इन्द्र (सोम), अग्नि, यम, नैऋत्य, वरुण, वायव्य, कुवेर, ईशान ॥
नोट २ -- कृत्तिका नक्षत्र के अधिदेव का नाम "अग्नि" होने से ही "अग्नि" शब्द " कृत्तिका " नक्षत्र का भी वाचक है । तथा यह नक्षत्र 'अश्विनी' नामक प्रथम नक्षत्र से तीसरा होने के कारण ३ के अङ्क का और तृतीया तिथि का वाचक भी यह "अग्नि" शब्द है ॥
अग्निकाय
१. अरणि, गनियारी, अनन्ता, अग्निशिखा आदि कई प्रकार के काष्ठ विशेष के नाम और उनकी पहिचान आदि बता
अग्नि का शरीर; पाँच प्रकार के एक इन्द्रिय अर्थात् स्थावर कायिक जीवों में से एक अग्निकायिक जीवों का शरीर ॥
और उनके सुखे टुकड़ों को रगड़ कर अग्निकायिक- अग्नि काय वाला, जिस
अग्नि निकालना ।
प्राणी का शरीर अग्नि हो ।
(४) नाक से आने जाने वाले श्वास के तीन मल भेदड़ा, पिंगला, और सुष्मणा में से तीसरे स्वर का भी नाम "अग्नि" है । इस स्वर को 'सरस्वती स्वर, भी कहते हैं जिस प्रकार 'ईड़ा' का नाम 'चन्द्र' और 'यमुना', और पिंगला का नाम 'सूर्य' और 'गङ्गा' भी है । . ( देखो शब्द प्राणायाम ) ॥
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अग्निकायिकजीव अग्निकायिक जीव-६ काय के जीवों
नोट २ - गति नामकर्म के उदय से जीव की मारकादि पर्याय को 'गति' कहते हैं । नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, और देवगति, यह चार गति हैं, जिन में से तिर्यच गति के जीवों के अतिरिक्त शेष तीनों गतियों के जीव सर्व ही 'त्रस जीव' हैं और तिर्यच गति के जीव त्रस और स्थावर दौनों प्रकार के हैं ॥
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में से एक काय का जीवः ४ गति में से तिर्यञ्च गति का एक भेद: ५ स्थावर जीवों मैं से एक; यह सम्मूर्च्छन जन्मी, नपुंसक लिंगी, एक-इन्द्रिय अर्थात् केवल स्पर्शन इन्द्रिय धारक स्थावर- कायिक वह जीव है जिसका शरीर अग्निरूप हो। इस को तेजकायिक जीव भी कहते हैं । अग्निकायिक जीवों का शरीर निगोदिया जीवों से अप्रतिष्ठित होता है अर्थात् इस में निगोदिया जीव नहीं होते। इस प्रकार के जीवों के शरीर का आकर सुइयों के समूह की समान सूक्ष्म आकार का होता है जो नेत्र इन्द्रिय से दिखाई नहीं पड़ता । इस की उत्कृष्ट आयु ३ दिन की होती है। ८४ लक्ष योनि भेदों में से अग्निकायिक जीवों के ७ लक्ष भेद हैं ( देखो शब्द " योनि " ) । जीव समास के ५७ अथवा ६८ भेदों में से इस के ६ भेद हैं - ( १ ) सूक्ष्मपर्याप्त ( २ ) सूक्ष्मनिवृत्यपर्याप्त (३) सूक्ष्मलभ्य पर्याप्त ( ४ ) स्थूलपर्याप्त (५) स्थूल निवृत्यपर्याप्त ( ६ ) स्थूल लध्यपर्याप्त (देखो शब्द "जीव समास" ); १६७॥ लक्ष कोटि "कुल" के भेदों में इस काय के जीवों के ३ लक्ष कोटि ( ३०००००, ) भेद हैं। (देखो शब्द “कुल” ) ( गो० जी० गा० ७३-८०, า
०००००००
( ५७ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
८६, ११३, ११६, १६६, २००,०० नोट १ - जाति नाम कर्म के अविनाभावी स और स्थाबर नामकर्म के उदय से होने वाली आत्मा की "पर्याय" को 'काय' कहते हैं । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बनस्पतिकायिक, यह पांच
अग्निकायिकजीब
प्रकार के जीव एकेन्द्रिय जीव हैं अर्थात् यह केवल एक स्पर्शन-इन्द्रिय रखने वाले जीव हैं । यही स्थावर-जीव या स्थावर -कायिकजीव कहलाते हैं। शेष द्विन्द्रिय आदि जीव “बस" या प्रसकायिक जीव कहलाते हैं । पांच स्थावरकायिक और एक त्रसकायिक यह छह " षटकायिक" जीव हैं।
।
नोट ३ - सर्व ही संसारी जीवों का जन्म ( १ ) गर्भज (जेलज, अंडज, पोतज ) ( २ ) उपपादज और ( ३ ) सम्मूर्छन ( स्वेदज, उद्भिज आदि ), इन तीन प्रकार का होता है जिन में से सम्मूर्च्छन क्षम्मी वह जीव कहलाते हैं जिन के शरीर की उत्पत्ति किसी बाह्य निमित्त के संयोग से हो उस शरीर के योग्य पुद्गल-स्कन्धोंके एकत्रितहो जानेसे होती है ॥
नोट ४- अङ्गोपांग-नामकर्म के उदय से उत्पन्न शरीर के आकर या चिन्ह विशेष को लिङ्ग या वेद कहते हैं । इसके पुरुष लिङ्ग स्त्रलिङ्ग और नपुंसक लिङ्ग यह तीन भेद हैं जिनमें से पूर्व के दो लिङ्गों से रहित जीव को f 'नपुंसक लिंगी' जीव कहते हैं ॥
नोट ५-जो अपने अपने विषयों का अनुभव करने में इन्द्र की समान स्वतन्त्र हों उन्हें "इन्द्रिय" कहते हैं । स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, यह पांच वाह्य द्रव्यइन्द्रियां हैं इनही को "ज्ञानेन्द्रिय" भी कहते
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( ५८ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अग्निकुमार
हैं । इन में से शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न उन शरीराङ्गों को, जिनके द्वारा आत्मा को शीत, उष्ण, कोमल, कठिन आदि का स्पर्शयोग्य विषयों का ज्ञान हो, " स्पर्शन इन्द्रिय" कहते हैं ॥
नोट ६-- जिन धर्मोके द्वारा अनेक जीव तथा उनकी अनेक प्रकारकी जाति जानी जाय उन्हें अनेक पदार्थों का संग्रह करने वाला होने से "जीव समास" कहते हैं !
नोट ७ - जीवों के शरीर की उत्पत्ति के आधार को "योति” कहते हैं ।
नोट -- अलगर शरीर की उत्पत्ति के कारणभूत नोकर्म वर्गणा के भेदों को “कुल' कहते हैं ॥
मो० जी० गा० ७०, ७४, =४, १४५, १६३, १७४, १८०, ...
· अग्निकुमार - ( १ ) एक क्षुधावर्द्धक औधि; महादेवजी के ज्येष्ठ पुत्र " कार्त्तिकेय " का दूसरा नाम; भवनवासी देवों के १० भेों या कुलों में से एक कुल का नाम ॥ (२) भवनवासी देवों के “अग्निकुमार" नामक कुल में 'अग्निशिखी' और 'अग्निवाहन' नामक दो इन्द्र और इनमें से हरेक के एक एक प्रतीन्द्र हैं । इन के मुकुटों, ध्वजाओं और चैत्यवृक्षों में 'कलश' का चिन्ह है । इनका चैत्यवृक्ष 'पलाश वृक्ष' है जिसके मूल भाग प्रत्येक दिशा में पाँच २ चैत्य अर्थात् दिगम्बर प्रतिमाएँ पर्यकासन स्थित हैं। हर प्रतिमा के सामने एक एक मानस्तम्भ है जिन के उपरिम भाग ७ प्रतिमाएँ हैं । उपर्युक्त दो इन्द्रों में से प्रथम दक्षिणेन्द्र है और दूसरा रा उत्तरेन्द्र है। प्रथम के ४० लक्ष और द्वितीय के ३६लक्ष भुवन हैं । यह भुवन रत्न - पृथ्वी के भाग में चित्राभूमि से
अग्निगुप्त
बहुत नीचे हैं । हर भवन के मध्य भाग में एक एक पर्वत और हर पर्वत पर एक एक अकृत्रिम चैत्यालय है । आयु दक्षिणेन्द्र की डेढ़ पल्योयम, उत्तरेन्द्रकी कुछ अधिक डेढ़ पल्योयम, इन की देवांगनाओं की ३ कोड़ि वर्ष और अन्य अग्निकुमार कुल के देवोंकी उत्कृष्ट आयु १॥ पल्योपम ओर जघन्य ५० सहस्र वर्ष है। देवांगनाओं की उत्कृष्ट आयु तीन कोटि वर्ष और जघन्य १ सहस्र वर्ष है। अग्निकुमार देवों की शरीर की ऊंचाई १० धनुष अर्थात् ४० हाथ की है । इनका श्वासोश्वास ७ | मुहूर्त्त अर्थात् १५ घटिका (घड़ी) के अन्तर से और कंठामृत आहार साढ़ेसात दिनके अन्तर से होता है ।
अग्निगति - प्रज्ञप्ति, रोहिणी आदि अनेक दिव्य विद्याओं में से एकका नाम । (देखो शब्द "अच्युता" का नोट १ ) । अग्निगुप्त - श्रीऋषभदेव (प्रथम तीर्थङ्कर) के ८४ गणधरों या गणेशों में से १४ व गणधर का नाम । यह महामुनि कई सौ मुनियों के नायक ऋद्धिधारी ऋषी थे । इन्होंने श्रीऋषभदेव के निर्वाण प्राप्त करने के पश्चात् उग्रोग्र तपश्चरण के बल से कैवल्यज्ञान - निरावरण अनेन्द्रिय अनन्तज्ञान प्राप्त किया और निर्वाण पद पाया ॥
नोट- श्री ऋषभदेव के ८४ गणधरोंके नाम (१) वृषभसेन ( २ ) ढढरथ ( ३ ) सत्यम्बर ( ४ ) देवशर्मा ( ५ ) भावदेव ( ६ ) नन्दन (७) सोमदत्त ( ८ ) सुरदत्त ( ६ ) वायु (१०) शर्मा ( ११ ) यशोवा हु ( १२ ) देवानि ( १३ ) अग्निदेव (१४) अग्निगुप्त (१५) अग्निमित्र (१६) महीधर ( १७ ) महेन्द्र ( १८ )वसुदेव ( १९ ) वसुन्धरा ( २० ) अचल ( २१) मेरु (२२) मेरुधन ( २३ ) मेरुभूति ( २४ )
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Karnation
अग्निजीव बृहत् जैन शब्दार्णव
अग्निदत्त सर्वयश (२५) सर्वयज्ञ (२६) सर्वगुप्त (२७)| हलवाई, रिश्तपज़ ( ईट पकाने वाला) सर्वप्रिय (२८) सर्वदेव. २९)सर्वविजय ३०) आहक-गर ( न्यूना बनाने वाला ).कुम्हार, विजयगुप्त ( ३१ ) विजयमित्र ( ३२ )विजयल लुहार, सुनार, रसोइया आदि की अजी(३३) अपराजित (३४) वसुमित्र (३५) विका॥ विश्वलेन (३६) साधुसेन ( ३७) सत्यदेव (२) भोगोपभोगपरिमाण नामक गुणवत ( ३८ ) देवसत्य ( ३१) सत्यगुप्त-(४०) स- के ५ मूल अतिचारोंके अतिरिक्त कुछ वि. त्यभित्र (४१) सताम्ज्येष्ठ (४२) निर्मल शेष अतिचारों में से एक "खरकर्म' नामक (४३) विनीत (४४) संवर (४५) मुनिगुप्त अतिवार सम्बन्धी १५ स्थूल भेदोंके अंतर (४६) मुनिदत्त (४७) मुनियश (४८) देव- गत यह "अग्निजीविका'' है। मुनि ( ४६ ) यशगुप्त (५०) सप्त-गुप्त (५१) नोट-"खरकर्म" के १५ स्थल भेद यह | सत्यमि (५२ ) मित्रयश (५३) स्वयम्भू हैं:-(१) धनजीविका (२) अग्निजीविका (५४ ) भगदेव (५५) भगदत्त (५६) भग- (३) अनोजीविका (४) स्फोटजीविका फल्गु (५७) गुप्तफल्गु (५८).मित्रफल्गु (५) भाटकजीषिका (६) यंत्रपीडिन (७) (५६) प्रजापति (६०) सत्संग (६१) व- निलांच्छन (८) असतीपोष (६) सर-शोष रुण (६२) धनपाल (६३) मघवान (६४) (१०) दवप्रद (११) विषवाणिज्य (१२) तेजोराशि (६५) महावीर (६६) महारथ लाक्षावाणिज्य (१३) दन्तवाणिज्य (१४) (६७) विशाल नेत्र (६८) महावाल (६९) केशवाणिज्य (१५) रसवाणिज्य । (प्रत्येक
सुविशाल (७०) वजू (७१) जयकुमार | का स्वरूप यथा स्थान देखें)। | (७२) वजूसार (७३) चन्द्रचूल (७४) म
अग्निज्वाल-(१) अग्नि ज्वाला, आगी हारस (७५) कच्छ (७६) महाकच्छ (७७)
लपट, आंवले का वृक्ष, जल पिप्पली, कुअनुच्छ (७८) नमि (७६) विनमि (८०) बळ (८१) अतिबल (८३) भद्रबल ( ८३)
सुम, धाये के फूल ।
| (२ ) ज्योतिष चक्र सम्बन्धी - ग्रहों में से नन्दी ( ८५ ) नन्दिमित्र ॥
एक ७५ वे ग्रह का नाम । (देखो शब्द ___ (देखो ग्रन्थ "वृ० वि० च०')
“अघ'' का नोट )॥
. भग्निजीव-अग्निकीट, अग्नि में रहने वाले (३) जम्बुद्वीपके 'भरत' और 'ऐरावत'क्षेत्रों जीप, अर्थात् वह बस जीव जो बहुत समय में से हर एक के मध्य में जो 'विजियार्द्ध' तक प्रज्वलित रहने वाली अग्नि में पैदा हो पर्वतहै उसकी उत्तर श्रेणीके ६० नगरों में जाते हैं जिन्हें ' अग्निकीट' और फ़ारसी| से एक नगर का नाम जो हर 'विजियार्द्ध' भाषा में 'समन्दिर' कहते हैं । तथा वह | . के पश्चिम भाग से ३६ वां और पूर्व भागसे जीव जो अग्निकाय में जन्म लेने के लिये २२ वाँ है । (देखो शब्द'विजियार्द्ध पर्वत')॥ जाता हुआ विग्रह गति में हो॥
अग्निदत्त-१. श्री भद्रवाह स्वामी (वतंभग्निजीविका-(१) आग के व्यापार मान पंचम काल के पंचम और अन्तिम से होने वाली आजीविका, जैसे भड़भेजा, श्र तकेवली जिन्होंने वीर निर्वाण सं०
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( ६० )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अग्निदेव
अग्निभूति
१६२ में अर्थात् विक्रम जन्म से ३०८ वर्ष पूर्व और विक्रमाब्द के प्रारम्भसे ३२६ वर्ष
नोट- आगे देखो शब्द " अढाईद्वीपपाठ" के नोट ४ में कोष्ठ ३ ॥
पूर्व शरीर परित्याग कर स्वर्ग प्राप्त किया) अग्निपुत्र - पीछे देखो शब्द “अग्निदत्त २”
का नोट (अ० मा० ) ॥
के ४ मुख्य शिष्य स्थविरों - ( १ ) गोद्रास, ( २ ) अग्निदत्त, ( ३ ) यज्ञदन्त, ( ४ ) सोमदत्त—में से द्वितीय स्थविर का
अग्निप्रभ - वर्त्तमान अवसर्पिणी में जम्बू
नाम ॥
नोट - संघ के आधार भूत ( १ ) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) प्रवर्तक, (४) 'स्थघिर' या बृद्ध और ( ५ ) गणधर या गणरस, अग्निप्रभा - श्री वासुपूज्य १२ वें तीर्थंकर के
द्वीप के ऐरावत क्षेत्र में हुए २२वें तीर्थंकरका नाम । (आगे देखो शब्द "अढाईद्वीपपाठ " के नोट ४ का कोष्ठ ३) ॥
यह ५ प्रकार के मुनि होते हैं । ( प्रत्येक का लक्षण व स्वरूपादि यथा स्थान देखें ) ॥ (मूलाचार १५५ ) २. जम्बूद्वीप सम्बन्धी ऐरावत क्षेत्र की वर्त
तपकल्याणक के समयकी पालकी का नाम जिसका दूसरा नाम 'पुष्पाभा' भी था ( अ०म० ) ॥
मान चौबीसी में से २३ वें तीर्थंकर का | अग्निबेग-आगे देखो शब्द "अग्निवेग” ॥
अग्निभानु-आगे देखो शब्द “अग्रभानु”॥
नाम भी अग्निदत्त है। (आगे देखो शब्द "अदाईद्वीपपाठ" के नोट ४ का कोष्ठ३ ) । नोट - " श्रीअग्निदत्त" तीर्थंकर का नाम कहीं कहीं "श्रीअप्रदत्त' और कहीं 'अग्निपुत्रः भी लिखा पाया जाता है ।
प्रग्निभूति - --इस नाम के निम्निलिखित कई इतिहास प्रसिद्ध पुरुष हुए हैं:
३. जम्बुद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में होने वाली अनागत चोबीसी के अन्तिम तीर्थंकर का नामभी यही 'अग्निदत्त' होगा । (आगे देखो शब्द अढाईद्वीप पाठके नोट ४का कोष्ट३) ॥ अग्निदेव - श्री ऋषभदेव के ८४ गणधरों
में से १३ वॅ गणाधीश का नाम । यह भी " अग्निगुप्त" की समान कई सौ मुनियों के नायक ऋषि थे और श्री ऋषभदेव के पश्चात् तपोबल से कर्म बन्धन तोड़ संसार से 'मुक्त हुए |
(देखो ग्रन्थ "वृ० वि० च० ' )
अग्निनाथ
२४ तीर्थङ्करों में से दशों का नाम ॥
-गत उत्सर्पिणी काल में हुए
I
(१) श्री महावीर अन्तिम तीर्थङ्करके ११ गणाधीशों से द्वितीय गणधर । यह प्रथम गणधर "श्री इन्द्रभूति गोतम'' के (जो "श्री गोतम स्वामी" या "श्री गोतम" के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं) लघु भ्राता थे । इनके एक लघु भ्राता 'वायुभूति' थे । अर्थात् इन्द्रभूति, अग्निभूर्ति और वायुभूति यह तीन सगे भाई थे जो गृहस्थाश्रम त्यागने के पश्चात् क्रम से गौत्तम, गार्ग्य और भार्गव नान से भी प्रसिद्ध हुए । इन का पिता गोत्तम गोत्री - ब्राह्मण “वसुभूति” (शांडिल्य) मगधदेश प्रास्तु के " गौर्वर-ग्राम का रहने वाला एक सुप्रसिद्ध धनाढ्य प्रतिष्ठित विद्वान, और अपने ग्राम का मु खियाथा | वसुभूति (शांडिल्य ) की 'पृथ्वी'
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( ६१ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अग्निभूति
(स्थिंडिला ) नामक पण्डिता, सुशीला और सुलक्षणा स्त्रीके उदरसे तो दो बड़े भाइयोंका जन्म सन् ईस्वी के प्रारम्भसे क्रमसे ६२५ वर्ष और ५६= वर्ष पहिले हुआ और तीसरे छोटे भाई 'वायुभूति' का जन्म उस की दूसरी बुद्धिमति, विदुषी स्त्री 'केशरी' नामक के उदर से ३ वर्ष पश्चात् अर्थात् सन् ईस्वी से ५९५ वर्ष पूर्व हुआ । गौर्वरग्राम में प्रायः उस समय ब्राह्मण वर्ग के लोग ही बसते थे और उन ब्राह्मणों में गौत्तमी ब्राह्मण बल, वैभव, ऐश्वर्य और विद्वत्ता आदि के कारण अधिक प्रतिष्ठित गिने जाते थे । इसी लिये इस ग्राम का नाम 'ब्राह्मण' या 'ब्राह्मपुरी' तथा 'गौत्तमपुरी' भी प्रसिद्ध होगया था । पिता ने इन तीनों ही प्रिय पुत्रों को विद्याध्ययन कराने में कोई कमी नहीं की जिस से थोड़ी ही वय में यह कोष, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार, तर्क, ज्योतिष, सामुद्विक, वैद्यक, और वेद वेदांगादि पढ़ कर विद्या निपुण हो गए। इन की विद्वता, बुद्धिपटुता और चातुर्यता लोक प्रसिद्ध हो गई और इस लिये दूर दूर तक के विद्यार्थी विद्याध्ययन करने के लिये इनके पास आने लगे जिससे थोड़े ही समय में कई कई सौ विद्यार्थी इनके शिष्य हो गए ॥
सन् ई० से ५७५ वर्ष पूर्व मिती श्रावण कृ० २ को जब 'अग्निभूति' (गार्ग्य) के जेठ भ्राता इन्द्रभूति अपनी लग भग ५० वर्ष की वय में श्री महाबीर तीर्थङ्कर से, जिन्हें इसी मगध देशान्तरगत ऋजुकूटी नदी के पास इस मिती मे ६६ दिन पूर्व मिती वैशाख शु० १० को तपो बल से ज्ञानावरणादि ४ घातिया कर्म
अग्निभूति
मल दूर होकर कैवल्यज्ञान (असीम, आवरणादि रहित ज्ञान या त्रिकालज्ञता ) प्राप्त हो चुका था शास्त्रार्थ करने के विचार से उनके पास पहुँवे और उनके तप, तेज और ज्ञान शक्ति से प्रवाहित होकर तुरन्त गृहस्थाश्रम त्याग मुनि दीक्षा ग्रहण करली तो उसी दिन 'अग्निभूति' ने भी लगभग २३ वर्ष की वय में अपने लघु भ्राता और प्रत्येक भाई के कई कई शिष्यों सहित सहर्ष दीक्षा स्वीकृत की और यह तीनों ही भाई श्री वीर बर्द्धमान जिन (महावीर तीर्थङ्कर ) के क्रम से प्रथम, द्वितीय और तृतीय गणाधीश अर्थात् अनेक अन्य मुनि गण के अधिपत बने ।
अग्निभूति गणधर दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् थोड़े ही दिनों में अन्य गणधरों की समान तपोबल, मनः शुद्धि और आत्मसंयम से अनेक ऋद्धियां प्राप्त कर शीघ्र ही द्वादशांग - ( १ ) आचाराङ्ग, ( २ ) सूत्रकृतांग, ( ३ ) स्थानांग, (४) समवायाङ्ग, ( ५ ) व्याख्या प्रज्ञप्ति, (६) शातृधर्मकथा, (७) उपासकाध्ययनांग, (८) अन्तःकृद्दशांग, अनुत्तरोष्पादिकदशांगल (१०) प्रश्नव्याकरणांग, (११) विपाकसूर्भाग, ( १२ ) दृष्टिवादाङ्ग, जिसके अन्तरगत अनेक भेदोपभेद हैं-केपाठी पूर्ण श्रुतज्ञानी बन गये और केवल २४ वर्ष कुछ मास की युवावस्था ही में जड़ शरीर को परित्याग कर उत्तम देव गति को प्राप्त हुए । इन के शिष्य मुनि सब २१३० थे। जिन दीक्षा ग्रहण करने से पहले इन के शिष्य लग भग ५०० थे । [ पीछे देखो शब्द अकम्पन (६) और उसका नोट ] ॥
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( ६२ ) अग्निभूति वृहत् जैन शब्दार्णव
अग्निभूति (२) अग्निला ब्राह्मणी का पति- प्राप्त किया और अग्निमग्दिर" नामक इस अग्निमति की 'अग्निला" पत्नी से पर्वत से निर्वाण पद पापा ॥ उत्पन्न तीन पुत्रियां (१) धनश्री, सोम
इस अग्निभूति ब्राह्मण का लघु भ्राता श्री ( मित्रश्री ) और नागधी इसकी वुआ (पितृस्वसू, पितृभगनी, पिता की बहन,
'चायुभूति' जिसने अपने परम उपकारी
और विद्या-गुरु मातुल "सूर्य-मित्र" से फूफी ) केतीन पुत्रों (१) सोमदत्त ( २)
दोष कर उदम्ब र कोढ़ से शरीर छोड़, तीन सोमिल और (३) सोमभूतिको चम्पापुरी में विवाहो गई थीं जो कई जन्मान्तरमें क्रम
बार क्षुद्र पशु योनि धारण कर पांचवें
जन्म में जन्मान्ध चाँडाल-पुत्री का जन्म से नकुल सहदेव और द्रोपदी हुई और
पाया और जिसने इस पाँचवें जन्म में उनके पति सोमदत्त आदि कमसे युधिष्ठिर,
अपने पूर्व जन्म के ज्येष्ठ भ्राता और परम भीम और अर्ज न हुए ॥
दयालु श्री “ अग्निभूति " मुनि से जो (३) कौशाम्बी नगरी (आज कल
विचसे हुए इधर आ निकले थे धर्मोपदेश प्रयाग के पास उसके उत्तर-पश्चिम की
सुन और मुनि के बताये हुए व्रतोपचास ओर ३० मील पर कोसम नाम की प्रसिद्ध
को प्रहण कर मृत्यु सना शुभ ध्यान से नगरी) निवासी 'सोमशर्मा' नामक राजः
शरीर छोड़ा, चम्पापुरी में "चन्द्रयाहन', पुरोहित का पुत्र-इस अग्निभूिन का एक
राजा के पुरोहित "नागशर्मा' की "नागलघु भ्राता वायुभूति था। इस समय
श्री'' नामक पुत्री हुई जिसने अपने पूर्व कौशाम्बी में राजा अतिबल का राज था
जन्म के मातुल “ सूर्गमित्र मुनि" से इन दोनों भाइयों की माता "काश्यपी"
धर्मोपदेश सुन, देहभोगों को क्षण स्थायी एक सुशीला और विदुषी स्त्री थी। दोनों
और दुखदाई जान, गृहस्थधर्म से विरक्त भाइयों ने अपने मातुल (मामा) 'सूर्य
हो आर्यका के व्रत ग्रहण कर लिये और मित्र' के पास मगध देश की राजधानी
आयु के अन्त में धर्मध्यान पूर्वक शरीर राजगृह नगर में विद्याध्ययन कर के अपने
परित्याग कर १६ दें देव लोक के उत्कृष्ट पिता के पश्चात् कौशाम्बी नरेशले राज
सुष भोग अवन्ति देश की राजधानी पुरोहित पद पाया। अपने मातल "सूर्य
उज्जैन नगरी में सुरेन्द्रदत्त" श्रेष्ठीकी यशोमित्र' के दिगम्बर मुनि हो जाने के पश्चात् भद्रा सेठानी के उदर से पुराण प्रसिद्ध यह ‘अग्निभति' भी अपने मामा के पास " सुकुमाल” नामक पुत्र हुआ । और ही इन्द्रिय भोगों से विरक्त हो पञ्चमहा- फिर इन्द्रिय-विषयों को विष तुल्य और व्रत धोरी, त्रयोदश चारित्र पालक और शारीरिक भोगों को रोग सम जाम, अष्टाविंशति मूलगुणसम्पन्न दिगम्बर | इनसे उदासीन हो, महावती संयमी बन, मुनि हो गया । तपोवल से वाराणसी शरीरत्याग, सर्वार्थसिद्धि पद पाया जहां (बनारस नगरी) के उद्यान में गुरु शिष्य का आध्यात्मिक सुख चिरकाल भोग अयोदोनों ही ने त्रैलोक्यव्यापी कैवल्यज्ञान ध्या में सुकौशल नामक राजपुत्र हो अपने
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( ६३ ) अग्निभूति वृहत् जैन शब्दार्णव
अग्निमित्र पूर्व जन्म के भाई अग्निमित्र की समान | अर्थात् जो सहोदर भाई बहन थे वही पति त्रैलोक्य-पूज्य मुक्ति-पद प्राप्त किया ॥ पत्नी हो गये। (आगे देखो शब्द "अठारह
(४) अग्निसह (अग्निविप्र) ब्राह्मण का | नाते")॥ पिता॥
अग्निमंडल (तेजोमंडल या वह्निमंडल)इस अग्निभूति का पुत्र 'अग्निसद्द'
नासिका द्वारा निकलने वाले श्वास के जिसका दूसरा नाम “अग्निविप्र' भी
मूल वार भेदों ( मंडलचतुष्क या मंडल था अनेक बार देव मनुष्यादि योनियों
चतुष्टय ) में से एक प्रकार का श्वास जो में जन्म धारण कर अन्त में 'श्री महावीर'
यथाविधि प्राणायाम का अभ्यास करने तीर्थङ्कर हुआ॥
वाले व्यक्ति को (१) उदय होते हुये सूर्य (५) उज्जयनी निवासी एक “सोम शर्मा' नामक ब्राह्मणकी "कायपि" नामक
की समान रक्तवर्ण या अग्नि के फुलिङ्गों स्त्री के गर्भ से उत्पन्न एक पुत्र जिसके लघ
के समान पिङ्गलवर्ण (२) अति उष्ण बाताकानाम सोमभूतिथा। एकदा जब यह
( ३ ) चार अंगुल तक बाहर आता हुआ दोनों विद्याध्ययन करके अपने घरको आरहे |
(४) आवर्ती सहित उर्द्धगामी (५) स्वाथे तो मार्ग में एक "जिनदत्त" मुनि को
स्तिक सहित त्रिकोणाकार (६) वह्नि अपनी माता जिनमती नामक आयिका
बीज से मंडित, दृष्टिगोचर होता है । इस से शरीर समाधान पूछते देखकर दोनों
प्रकार का पवन सामान्यतयः वंश्य (वभाइयों ने श्री मुनिराज की हंसी उड़ाई कि
शीकरण ) आदि कार्यों में शुभ है । भय, देखो विथना ने इस तरुण पुरुष की इस
शोक, पीड़ा, विघ्नादि का सूचक है ॥ वृद्धा स्त्री के साथ कैसी जोड़ी मिलाई है ।
(देखो शब्द "प्राणायाम'')॥ फिर एकदा “एकजिनभद्र'' मुनिको अपनी अग्निमानव-दक्षिण दिशा के अग्निकुमार पुत्रवधु सुभद्रा नामक आर्यिका से शरीर- | देवों का एक इन्द्र (अ० मा०)॥ समाधान पूछते देख कर हास्य की कि |
अग्निमित्र-(१) श्रीऋषभदेव के ८४ गण दैवने इस वृद्ध पुरुष की जोड़ी इस तरुणी |
धरों में से १५ वे का नाम ॥ के साथ कैसी मिळाई है। इस प्रकार दो बार अखंड ब्रह्मचारी सुशोल मुनियों की अशात
यह अन्य प्रत्येक गणधर देवकी समान भाव से हास्य करने के पाप से इन दोनों
ऋद्धिधारी दिगम्बर मुनि द्वादशाँग श्रुतभाइयों ने आय के अन्त में शरीर छोड़कर
ज्ञान के पाठी कई सौ शिप्य मुनियों के इसी उज्जयनी नगर में एक सुदत्त नामक
अधिपति थे ॥ सेठ के वीर्य से और बसन्ततिलका नामक
(२) मन्दिर नगर निवासी गौत्तम नामक वेश्या के गर्भ से एक साथ जन्म लिया ब्राह्मण का पुत्र-इस “अग्निमित्र" की जिनका पालन पोषण देशान्तर में दो वणि- माता कौशाम्बी'' बड़ी चतुर, सुशीला को के घर अलग अलग होने से अज्ञात | और अनेक गुण सम्पन्न विदुषी थी। अवस्था में परस्पर विवाह सम्बन्ध होगया। यह 'अग्निमित्र' उपर्युक्त “अग्निभूति (४)"
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__(६४ ) अग्निमित्र . वृहत् जैन शब्दार्णव
अग्निमुक्त के पुत्र 'अग्निसह' (अग्निविप्र) का तृतीय | मगध का राज्य पाया और इस प्रकार १४० जन्म धारी व्यक्ति है अर्थात् 'अग्निसह' के | वर्ष के राज्य के पश्चात् मौर्यवंश का अन्त जीव ने बीच में एक पर्याय स्वर्ग की पा- |
हुआ।
. कर "गौत्तम'' ब्राह्मण के घर उसकी स्त्री
नोट २-इसी शुङ्गवंश में निम्न लिखित कौशाम्बी के उदर से जन्म लिया और राजाओं ने मगध का राज्य कियाःयही अन्य बहु जन्म धारण कर अन्त
(१) पुष्पमित्र ने वीर नि० सं० ३६० से में "श्री महाबीर बर्द्धमान"तीर्थकर हुआ।
३७५ तक अर्थात् वि० सं० के प्रारम्भ से देखो शब्द “अग्निसह" और ग्र० "०वि.
१२८ वर्ष पूर्वसे ११३ वर्ष पूर्व तक या सन् च.")॥
ईस्वी के प्रारम्भ से १८५ वर्ष पूर्व से १७० (३) मगधदेशका एक प्रसिद्ध राजा।
वर्ष पूर्व तक, १५ वर्ष । यह अग्निमित्र शुङ्गबंशी राजा पुष्पमित्र का
( २) वसुमित्र ने ( अपने पिता पुष्पमित्र लघ पुत्र था जो अपने पिता के राज्यकाल
के संरक्षण में ) १५ वर्ष तक। में उसके राज्य के दक्षिणी भाग का अधि
(३) अग्निमित्र ने (अपने पिता पुष्पमित्र पति रहा । जब वीर नि०सं० ३७५ में (वि०
के संरक्षण में)६ वर्ष तक और पश्चात् सं० से ११३ वर्ष पूर्व ) "खारवेल महामेघ
म वर्ष तक, सर्व १४ वर्ष तक। बाहन" नामक एक जैन राजा ने इस के पिता 'पुष्पमित्र' को युद्ध में हरा कर म.
(४) वसुमित्र( द्वितीय या सु-ज्येष्ठ वलु) थुरा की ओर भगा दिया तो १५ वर्ष तक
से देवभूति तक ८ राजाओं ने ६८ वर्ष
तक। मगध की गद्दी पर इस के ज्येष्ठ भ्राता वसुमित्र ने और फिर ६ वर्ष तक अग्नि
इस प्रकार शुङ्गवंशी ११ राजाओं ने मित्र ने खारबेल की आज्ञा में रह कर और
मगध की गद्दी पर वीर नि० सं० ३६० से अपने पिता को अपना संरक्षक बना कर
४७२ तक अर्थात् वि० सं० के प्रारम्भ से राज्य किया । फिर पिता की मृत्यु के प
१६ वर्ष पूर्व तक या सन् ईस्वी से ७३ वर्ष श्वात् ८ वर्ष और राज्य करके अग्निमित्रने
पूर्व तक, सब ११२ वर्ष राज्य किया। अपने पुत्र सुज्येष्ठ वसुमित्र (वसुमित्र द्वि.
( आगे देखो शब्द “अजातशत्रु" का तीय ) को अपना राज्याधिकारी बनाया।
नोट ५)॥ प्रसिद्ध कवि कालिदास रचित 'मा
भग्निमित्रा-गोशाला के शिष्य पोलसपुर लविकाग्निमित्र" नामक नाटक में इसी अग्निमित्र और मालविका के प्रेम का व.
निवासी शकदाल कुम्हार की स्त्रीका नाम । र्णन है॥
(अ० मा० ) नोट.१-इस अग्निमित्र का पिता पुष्प- अग्निमुक्त-यह वर्तमान अवसर्पणी मित्र मौर्यवंशी अन्तिम राजा पुरूदरथ ( घृ- काल के गत-चतुर्थ भाग में हुये २४ कामहद्रथ ) का मेनापति था जिसने राजा के ८ देव पदवी धारक पुराण प्रसिद्ध महत् वर्ष के राज्य काल के पश्चात् मारे जाने पर पुरुषों में से ७ वे कामदेव हुये । इन का
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( ६५ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अग्निर
समय १६ वें तीर्थङ्कर श्रीशान्तिनाथ से पूर्व का है । (देखो शब्द " कामदेव " ) अग्निर (अङ्गिर) - तीर्थङ्कर पदवी धारक म
हान् पुरुषों की अतीत चौबीसी में से यह ९ वां तीर्थङ्कर पदवी धारक पुरुष था ॥ (देखो शब्द "अतीत तीर्थङ्कर" ) ॥ अग्निल (अर्गल ) - वर्तमान अवसर्पिणी
काल के वर्त्तमान दुःखम काल नामक पञ्चम विभाग के अन्त में अब से लगभग साढ़े अठारह हज़ार (१८५०० ) वर्ष पश्चात् इस नाम का एक धर्मात्मा गृहस्थी उत्पन्न होगा और उस समय के " जलमन्थन" नामक कल्की राजा के उपद्रव से ३ दिनरात निराहार भगवद्भजन में बिताकर कार्त्तिक कृ०३० (अमावस्या ) वीर निर्वाण संवत् २१००० ( विक्रम सम्बत् २०५१२ ) के दिन पूर्वान्ह काल स्वाति नक्षत्र में शरीर परित्याग कर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक (स्वर्ग) में जा जन्म लेगा |
अग्निवेग
की अनुपस्थिति में "अक्षीण महानस् ऋद्धि" धारी श्री 'वरदत्त' नामक एक दिगम्बर मुनि को जो विचरते उधर आनिकले थे, नवधा भक्ति से निरन्तराय आहारदान देकर महान् पुण्यबंध किया । पतिदेव जो स्वभाव के क्रोधी थे, उसके इस कार्य से बहुत अप्रसन्न हुए । अतः वह धर्मज्ञ विदुषी बहुत ही अपमानित और तिरस्कृत होकर गिरिनगर के समीप के गिरिनार पर्वत पर उन ही 'श्रीवरदत्त' मुनि के पास शरीर भोगों से विरक्त हो आर्यिका ( साध्वी ) के व्रत धारण करने के विचार से अपने दो पुत्रों शुभङ्कर और प्रभङ्कर सहित पहुँची । परन्तु श्री गुरु ने इसे पति की आज्ञा बिना क्रोधवश आई जान तुरंत दीक्षा नहीं दी । पश्चात् पतिदेव के भय से यह पर्वत से गिर कर प्राण त्याग अष्ट प्रकारी - व्यन्तर जाति की देव योनि में यक्षिणी देवी हुई और दोनों पुत्र पिता की मृत्यु के पश्चात् जितेन्द्रिय दिगम्बरं मुनियों के पक्के श्रद्धालु और परम भक्त हो गए और अन्त में श्री कृष्णचन्द्र के ज्येष्ठ- पितृव्य“श्री नेमिनाथ" ( अरिष्टनेमि ) २२ वें पुत्र तीर्थङ्कर के समवशरण में जाकर दिगम्बर मुनि हो, उग्र तपश्चरण कर सर्वोत्कृष्ट सिद्धपद प्राप्त किया ॥
(देखो ग्र०वृ० वि० च० ) अग्निला - ( १ ) एक पुराण प्रसिद्ध अग्निभूति ब्राह्मण की धर्मपत्नी ( देखो यूर्वोक्त व्यक्ति "अग्निभूति" ) ॥
(२) सौराष्ट्र देश (गुजरात) के गिरिनगर में रहनेवाले एक "सोमशर्मा" नामक प्रसिद्ध धनी ब्राह्मण की धर्मपत्नी - यह 'अग्निला' ब्राह्मणी बड़ी धर्मात्मा, सुशीला, और दयालु हृदय थी । अतिथियों का सत्कार करना और विरक पुरुषों को पूज्य दृष्टि से देखना इस का स्वभाव था । यह नवम नारायण श्रीकृष्णचन्द्र के समय
(देखो प्र० वृ० वि० च० ) अग्निवाहन (अग्निवेश्म ) -- भवनवासी देवों के अग्निकुमार नामक एक कुल के दो इन्द्रों में से एक इन्द्रको नाम । ( देखो शब्द "अग्निकुमार " ) ॥
में विद्यमान थी । इसने एक बार पति | अग्निवेग ( रश्मिवेग ) - श्री पार्श्वनाथ
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अग्निवेग वृहत् जैन शब्दार्णव
अग्निशिख तीर्थङ्कर के एक पूर्व भव का मनुष्य । स्वर्ग में देव (६) वजूनाभ चकूवर्ती (७)
यह अग्निवेग जम्बूद्वीपस्थ पूर्व विदेह के मध्य वेयकत्रिक के 'सुभद्र' नामक ! पुष्कलावती देश में 'त्रिलोकोत्तम' नामक मध्यम विमान में "अहमेन्द्र" (८) इक्ष्वाकुनगर के विद्याधर राजा 'विद्यद्गति' की | वंशी अयोध्यापति 'आनन्द' नामक महा रानी 'विद्युन्माला' के गर्भ से उत्पन्न मांडिलिक नरेश (E) १३ वें स्वर्गमें 'आनतेन्द्र', हुआ था । यह बड़ा सौम्यस्वभावी | फिर इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री वाराणसी
और धर्मज्ञ था। यह यवावस्था के प्रारम्भ | नरेश 'विश्वसेन' की महारानी 'ब्राह्मदत्ताही से सांसारिक विषय भोगों से विरक्त | वामादेवी' के गर्भ से जन्म लेकर २३ ।। और बाल ब्रह्मचारी रहा। श्री 'समाधिगुप्त| तीर्थकर हो मोक्षपद पाया ॥ मुनि से दिगम्बरीदीक्षा लेकर उग्रोग्र तप
(पार्श्वनाथ चरित्र) करने लगा। अन्त में अब एक दिन हिमालय नोट२--श्री त्रिलोकसार ग्रन्थी गाथा पर्वत की एक गुहा में यह मुनि ध्यानारूढ़ ८११ के अनुकूल "श्री पार्श्वनाथ" ने श्री .थे तो एक अजगर जाति के सर्प ने जो इनके वीरनिर्वाण से २४६ वर्ष ३ मास १५ दिन पूर्व पूर्व जन्म का भ्राता और शत्रु कमठ का | निर्वाणपद प्राप्त किया । जीव था इन्हें काट लिया, जिस से शुभ- अग्निवेश्म ( प्रा० अग्गिवेस ) चतुर्दशी भ्यान पूर्वक शरीर छोड़ कर यह 'अच्युत', तिथि का नाम । दिन के २२ दें मुहूर्त का नामक १६ वें स्वर्ग के पुष्कर नामक विमान नाम। कृत्तिका नक्षत्र का गोत्र (अ० म०) के अधिपति हुए । वहां की आयु पूर्ण कर | । (देखो शब्द 'अग्निवाहन')॥ बीच में ४ जन्म और धारण करने के |
अग्निवेश्यायन (प्रा० अग्गिवेसायण)पश्चात् अन्त में काशी देश की वाराणसी' नगरी में श्री पार्श्वनाथ नामक २३ वें
__ गोशाला के ५ वें दिशाचर साधु; दिन के तीर्थकर हो श्री वीरनिर्वाण से २४६ वर्ष |
२३ मुहर्स का नाम, सुधर्मा स्वामी का २ मास २३ दिन पूर्व शुभ मिती श्रावण
गोत्र; सुधर्मा स्वामी के गोत्र में उत्पन्न शु० ७ को विशाखा नक्षत्र में सायंकाल
होनेवाला पुरुष ( अ० मा०)॥ के समय विहार देशस्थ श्री सम्मेदशिखर अग्निशिख-नवे नारायण श्रीकृष्ण के के 'सुवर्णभद्र' कूट (श्री पार्श्वनाथ हिल)
अनेक पुत्रों में से एक का नाम । ( देखो वृ० से ६६ वर्ष ७ मास ११ दिन की वय में
वि० च०) निर्वाण पद पाया ॥
भानु, सुभानु, भीम, महाभानु, ___ नोट १-श्री पार्श्वनाथ के ९ पूर्व जन्मों सुभानुक, वृहद्रथ, विष्णु, संजय, अकम्पन, के नाम क्रम से निम्न लिखित हैं:-(१) महासेम, धीर, गम्भीर, उदधि, गोत्तम, ब्राह्मणपुत्र-मरुभूत (२) वजूघोष हाथी । वसुधर्म, प्रसेनजित, सूर्य, चन्द्रवर्मा, चारु(३) १२वें स्वर्ग में 'शशिप्रभ' देव (४) कृष्ण, सुचारु, देवदत्त, भरत, शंख, प्रद्युम्न, विद्याधर कुमार 'अग्निवेग' (५) १६ वें और शंबु आदि श्रीकृष्णके अन्य पुत्र थे॥
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( ६७ )
जैन शब्दार्णव
अग्निशिखा
अग्निशिखा - [१] अग्निज्वाला, प्रज्व लितअग्नि का ऊपरी भाग [२] चारणऋद्धि के ८ भेदों में से एक का नाम । अग्निशिखा वारणऋद्धि-क्रियऋद्धिका एक उपभेद । क्रियऋद्धि के मूलभेद [१] चारणऋद्धि और [२] आकाशगामिनीऋद्धि, यह दो हैं । इनमें से पहिली चारणऋद्धि के [१] जलचारण [२] जंघाचारण [३] पुष्पचारण [४] फलचारण [५] पत्रचारण [६] लताचारण [७] तन्तुचारण और [८] अग्निशिखाचारण, यह आठ भेद हैं। इन आठ में से अष्टम 'अग्निशिखा-' चारणऋद्धि' वह ऋद्धि या. आत्मशक्ति है जो किसी किसी ऋषि मुनि में तपोबल से व्यक्त होजाती है जिसके प्रकट होने पर इस ऋद्धिके धारक ऋषि अग्नि की शिखा ऊपर स्वयम् को या अग्निकायिक जीवों को किसी प्रकार की बाधा पहुँचाये बिना गमन कर सकते हैं ॥
वृहत्
(देखो शब्द "अक्षीणऋद्धि” का नोट २ ) । अग्निशिखी - भवनवासी देवोंके १० कुलों
या भेदों में से "अग्निकुमार " कुल के जो दो इन्द्र अग्निशिखी और अग्निवाहन हैं उनमें से पहिला इन्द्र ॥
नोट- देखो शब्द "अग्निकुमार (२) " अग्निशिखेन्द्र - " अग्नि शिखी" नामक
इन्द्र ॥
अग्निशुद्धि (अग्निशौच) – लौकिकशुद्धि के आठ भेदों (अष्ट शुद्धि) में से एक प्रकारकी शद्धि जो किसी अशुद्ध वस्तु को अग्नि संस्कार से अर्थात् अग्नि में तपाने आदि से मानी जाती है जिससे उस वस्तु में किसी अपवित्र मनुष्यादि के स्पर्श आदि से प्रविष्ट हुए अपवित्र परमाण
अग्निषेण
वाप्प के रूप में अलग हो जाते हैं ॥ नोट -- लौकिक अष्ट शुद्धि के नाम - ( २ ) कालशुद्धि ( २ ) अग्निशुद्धि (३) भस्मशुद्धि ( ४ ) मृत्तिकाशुद्धि ( ५ ) गोमयशुद्धि ( ६ ) जलशुद्धि ( ७ ) ज्ञानशुद्धि ( 5 ) अग्लानि शुद्धि ॥ अग्निशेखर - यह काशी देश के एक इक्ष्वाकुवंशी राजाथे। वाराणसी (बनारस) इनकी राजधानी थी । इनका समय १९ बें तीर्थकर "श्री मल्लिनाथ" का तीर्थ काल है जिसे आज से १२ लाख से कुछ अधिक वर्ष व्यतीत हो गये, अर्थात् यह राजा त्रेतायुग में रामावतार से कुछ वर्ष पूर्व हुए हैं जब कि मनुष्यों की आयु लगभग ३० या ३२ सहस्र वर्षों की होती थी ॥
सप्तम बलभद्र 'नन्दिमित्र' इन ही काशी नरेश की महारानी "केशवती" के गर्भ से और सप्तम नारायण 'दत्त' इनकी दूसरी महारानी 'अपराजिता' के उदरसे पैदा हुए थे । इन दोनों भाइयों प्रतिनारायण पदवी धारक अपने शत्रु "बलिन्द्र" को, जो उस समय का त्रिखंडी विद्याधर राजा था और जिसकी राजधानी 'बिजयार्द्ध' पर्वतकी दक्षिण श्र ेणी में 'मन्दार पुरी' थी, भारी युद्ध में मार कर स्वयम् त्रिखंडी (अर्द्ध चक्रवर्ती) राज्य - वैभव प्राप्त किया || (देखो ग्रन्थ " वृ०वि०च० " ) अग्निशौच - देखो शब्द “अग्निशुद्धि” ॥ अग्निषेण वर्त्तमान अवसर्पिणी में हुए . जम्बुद्वीप के ऐरावत क्षेत्रके तीसरे तीर्थंकर का नाम । ( अ० मा०-अग्गिसेण; आगे देखो शब्द " अढ़ाई - द्वीप-पाठ" के नोट ४ का कोष्ठ ३) ॥
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.
( ६८ )
Mar
अग्निसह ___ वृहत् जैन शब्दार्णव
अग्न्यिाभ अग्निसह-यह 'श्वेतिक' नगर निवासी | "अग्निसह' के जीव ने जो अन्तिम १६ भव "अग्निभूति'' नामक ब्राह्मण की स्त्री 'गो- धारण कर २० वें भव निर्वाणपद प्राप्त किया त्तमी' के उदर से उत्पन्न हुआ था । परि
उनके नामःब्राजक संन्यासी होकर उग्रतपोबल से |
(१) 'शांडिल्य' ब्राह्मण का पुत्र इसने देवायु का बन्ध किया और शरीर 'स्थावर'(२) ब्रह्म स्वर्ग में देव (३) विश्वभति' परित्याग करने के पश्चात् सनत्कुमार ना
| राजा का पुत्र 'विश्वनन्दी' (४) 'महाशुक्र' नामक तृतीय स्वर्ग सन्म लिया। चिरकाल मक १० वा स्वर्ग में देव (५) प्रजापति राजा स्वर्गसुख भोगकर "मन्दिर, नगरमें एक का पुत्र 'त्रिपृष्ठ' नारायण (६) महातमप्रभा "गौत्तम"नामक ब्राह्मणका पुत्र ‘अग्निमित्र' | या माधवी नामक सप्तम पृथ्वी (नरक ) में हुआ । त्रिदंडी सन्यस्थपद में दीक्षित हो
नारकी (७) सिंह (पशु) (८) रत्नप्रभा या| कर और घोर तप कर आय के अन्त में घमा नामक प्रथम पृथ्वी (नरक) में नारकी शरीर छोड़ 'महेन्द्र' नामक चतुर्थस्वर्ग में
(६) सिंह (पशु) (१०) सोधर्म स्वर्ग में देव ऋद्धिधारी देव हुआ। पश्चात् अनेक जन्म
(११) 'कनकपुंख' राजा का पुत्र ‘कनकोज्वल' धारण कर अन्त में श्री महावीर तीर्थडर | (१२) लन्तिव नामक सप्तम स्वर्ग में देव (१३) हुआ ॥
'बजूसेन' राजा का पुत्र ‘हरिषेण' (१४) महानोट-अग्निसह के कुछ पूर्वभव और
शुक्र स्वर्ग में देव (१५) 'सुमित्र' राजा का
पुत्र 'प्रियमित्र' चक्री, (१६) सहस्रार नामक ५ आगामी भय, तथा निर्वाण प्राप्त तक के २० अन्तिमभवः- (१) 'पुरूरवा' नामक भीलराज
१२ वें स्वर्ग में देव (१७) 'नन्दिवर्द्धन' राजाका (२) सौधर्म नामक प्रथम स्वर्ग में देव (३) प्र
पुत्र नन्द (१८) 'अच्युत' नामक १६ वें स्वर्ग थम तीर्थंकर "श्रीऋषभदेव" का पौत्र और
में अच्युतेन्द्र(१६) श्री वर्द्धमान महावीर तीर्थभरत चक्रवर्ती का पुत्र 'मरीचि (४) ब्रह्म नामक
कर (२०) निर्वीण । (देखो शब्द 'अग्निमित्र'
और प्रत्येक का अलग अलग चरित्र जानने के पंचम स्थान में देव (५) कपिल नामक ब्राह्मण
लिये देखो ग्रन्थ “वृ० वि० च०")॥ का पुत्र ‘जटिल' (६) प्रथम स्वर्ग में देव (७)
अग्निसिंह(प्रा० अग्गिसीह)-वर्तमान 'भारद्वाज' ब्राह्मण का पुत्र 'पुष्पमित्र' (८) प्रथम स्वर्ग में देव () 'अग्निभूति' ब्राह्मण की
अवसर्पिणी में भरतक्षेत्र में हुये ७. वें 'गौत्तमी' नामक स्त्री से उत्पन्न 'अग्निसह'
बलभद्र और नारायण के पिता का नाम ।
(अ० मा०)॥ नामक पुत्र (१०) सनत्कुमार नामक तृतीय स्वर्ग में देव (११) 'गौत्तम' ब्राह्मण का पुत्र
अग्निसेन-पीछे देखो शब्द “अग्निषेण" 'अग्निमित्र'(१२)महेन्द्र नामक चतुर्थ स्वर्ग में अग्न्यिाभ-१६ स्वर्गों में से ५ वे स्वर्ग देव (१३) 'सालंकायन' ब्राह्मण का पुत्र 'भार- (ब्रह्मस्वर्ग या ब्रह्मलोक ) के लौकान्तिक । द्वाज'(१४) 'ब्रह्म' नामक पंचम स्वर्ग में देव ॥ नामक उपरिस्थ अन्तिम भाग में बसने
ब्रह्म स्वर्ग की आयु पूर्ण करने के पश्चात् | वाले लौकान्तिक देवों का एक कुल जो अनेक भवान्तरों में जन्म मरण करने पर इसी । पूर्व दिशा और ईशान कोन के बीच के
w
ari
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( ६६ ) अग्न्यिाभ वृहत् जैन शब्दार्णव
अगूचिन्ता अन्तर कोन में रहता है। इस कुल में सर्व समान होने से यह "देवऋषि" कहलाते ७००७ देव हैं। इस कुल के देव जिस और अन्य इन्द्रादिक देवों कर पूज्य होते हैं । विमान में बसते हैं उस विमान का नाम | सर्व ही ११ अंग १४ पूर्व के पाठी श्रु तकेवली भी "अग्न्याभ'' है। इस कुल के देवां की समान शान के धारक होते हैं। तीर्थङ्करों के आयु लगभग : सागरोपम वर्ष प्रमाणहै। तपकल्याणक के समय उन्हें वैराग्य में दृढ
नोट ?--ब्रह्मलोक के लौकान्तिक पाड़े | करने और उत्साह बढ़ाने के लिये जाने के में बसने वाले लौकान्तिक देवोंके सर्व २४ कल अतिरिक्त यह सर्व लौकान्तिक देव अपने निम्न प्रकार हैं:
स्थान से बाहर कहीं भी अपने जीवन भर (१) ईशान कोन में सारस्वत (२) पूर्व
| कभी जाते आते नहीं ॥ इन में अरिष्ट कुल के दिशा में आदित्य (३) अग्निकोन में वह्नि
| देवों की आयु ६ सागरोपम वर्ष प्रमाण और (ो दक्षिण में
अन्य २३ कुलके देवोंकी आयु = सागरोपम गर्दतोय (६) पश्चिम में तुषित (७) वायव्य
वर्षकी होतीहै । इनके शरीरकी ऊंचाई ५ हाथ कोन में अव्यायाध (८) उत्तरमें अरिष्ट (६,१०)
प्रमाण है ॥ ईशान व पूर्व के अन्तरकोनमें अग्न्याभ व सूर्याभ
[त्रि० गा० ५३४-५४०] (११,१२ ) पूर्व व अग्निकोन के अन्तर कोन में | अग्र-(१) अगला, प्रथम, प्रधान, अगुआ, चन्द्राभ व सत्याभ (१३, १४) अग्नि व दक्षिण | मुखिया, श्रेष्ठ, नोक, किनारा, वजन, तोल के अन्तर कोनमें श्रेयस्कर व क्षेमङ्कर(१५,१६) माप, रत्न ॥ दक्षिण व नैऋत्य के अन्तरकोन में वृषभेष्ट व | (२) अघातियाकर्म (अ. मा. 'अग्ग")॥ कामधर (१७,१८) नैऋत्य व पश्चिम के जयचिन्ता--आगे की चिन्ता; आध्यान अन्तरकोन में निर्माणरजा व दिगन्तरक्षित |
के ४ भेदों-इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, (१६,२०) पश्चिम व वायव्य के अन्तरकोन
पीड़ा चिन्तवन और निदानचिन्ता'-मेसे में आत्मरक्षित व सबरक्षित ( २१,२२)
चतुर्थ भेद का अन्य नाम जिसे 'अग्रशोच' वायव्य व उत्तर के अन्तरफोन में महत व
या 'अग्रसोच' भी कहते हैं । तप संयमादि वसु (२३.२४) उत्तर व ईशान के अन्तर कोन
द्वारा वा बिना इनके भी किसी इष्ट में अश्व व विश्व ।
फल की प्राप्ति की आकाँक्षा व इच्छा यह २४ कुल जिन २ विमानों में यसते | करना ॥ इसके अर्थात् “अग्रचिन्ता" या हैं उन विमानों के नाम भी अपने अपने कुल निदान चिन्ताके निम्न लिखित ५ भेद हैं:के नाम पर ही बोले जाते हैं।
(१) विशुद्ध प्रशस्त (मौक्तिक )= ___ नोट २-इन सर्च कुलों के लौकान्तिकः | समस्त कर्मों को शीघ्र क्षय कर के मोक्ष देव “एकाभवतारी" अर्थात् एक ही बार प्राप्त करने की अभिलाषा ॥ मनुष्य जन्म लेकर निर्वाण पद पाने वाले होते (२) अशुद्ध प्रशस्त (शुभसांसारिक) = हैं। यह पूर्ण ब्रह्मचारी होते और सर्व विषयों इस जन्म या आगामी जन्मों में जिनधर्म से विरक्त रहते हैं । सर्व देवगण में ऋषि (पूर्ण जितेन्द्रिय पुरुषों कर उपदिष्ट
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( ७० )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अग्रदत्त
अनिवृत्तिक्रिया
मार्ग) की सिद्धि व वृद्धि के लिये उत्तम
शरीर आदि की प्राप्ति की आकाँक्षा ॥
इन अग्रदेवियों के अतिरिक्त हर इन्द्र कुल, सुसंगत, निर्मल बुद्धि, आरोग्य | की बहुत २ सो परिवार देवियां हैं जिनके दो भेद हैं- ( १ ) बल्लभिका देवियां (२) सामान्य देवियां ॥ इन देवाङ्गनाओं की आयु जघन्य १ पल्योयम वर्ष से कुछ अधिक और उत्कृष्ट ५५ पल्योयम वर्ष की है ॥ अगूनाथ ( अद्वितीयनाथ, अपरनाथ ) -- धातकीद्वीप की पूर्व दिशा में विजयमेरु के दक्षिण भरतक्षेत्र के आर्यखंड में अनागत उत्सर्पिणी काल में होने वाली चौबीसी के आठवें तीर्थंकर का नाम । ( आगे देखो शब्द " अढाईद्वीपपाठ" के नोट ४ का कोष्ठ ३ ) ॥
अगूनिवृत्ति-आगे के लिये छूट जाना, विश्राम, बन्धनमुक्ति, सर्वोच्च सुख प्राप्ति, निर्वाण प्राप्ति ॥
(३) भोगार्थ अप्रशस्त = अनेक प्रकार के भोगोपभोग प्राप्ति के लिये इस जन्म या आगामी जन्मों में धन सम्पदादि ष स्वर्गादि विभव प्राप्ति की कामना ॥
( ४ ) मानार्थ अप्रशस्त = इसजन्म या परजन्म में मान कषाय पोषणार्थ दूसरों को नीचा दिखाने आदि अशुभ कार्यों के लिये ऊँचे २ अधिकार व बलादि पाने की इच्छा ॥
( ५ ) घातकत्व अप्रशस्त = इस जन्म
या परजन्म में क्रोधवश द्वेश भाव से किसी अन्य प्राणी को कष्ट पहुँचाने वा मार डालने की दुर्वासना ॥
नोट - अग्रचित्ता या निदान के मूल भेद तो दो ही हैं - प्रशस्त और अप्रशस्त । इन दो में से प्रशस्त के दो और अप्रशस्तके तीन, एवं सर्व पांच उपर्युक्त भेद हैं ॥
अग्रदत्त - पीछे देखो शब्द "अग्निदत्त" २ का नोट, (अ० मा० "अग्गदत्त " ) ॥ अग्रदेवी- -पट्ट देवी, महादेवी, इन्द्रानी ॥ नोट - १६ स्वर्गों के १२ इन्द्रों में से हरेक की आठ आठ अग्रदेवी हैं इन में से ६ दक्षणेंद्रों में से हर एक की आठ अग्रदेवियों के नाम (१) शची ( २ ) पद्मा (३) शिवा (४). श्यामा (५) कालिन्दी (६)सुलसा (७) अज्जुका (८) भानुरिति हैं | और ६ उत्तरेन्द्रों में से हर एक की आठ = अग्रदेवियों के नाम (१) श्रीमती (२) रामा (३) सुसीमा (४) प्रभावती (५) जयसेना (६) सुषेणा (७) वसुमित्रा (८) वसुन्धरा हैं ॥
अनिवृत्ति क्रिया - गर्भाधानादि ५३ गर्भान्वय क्रियाओं तथा अवतारादि ४८ क्रियाओं में से अन्तिम क्रिया जो 'कैवल्यज्ञान' प्राप्ति के पश्चात् चौधवें गुणस्थान में पहुँच कर शेष अघातिया कर्म निर्जरार्थ ( कर्म क्षयार्थ ) की जाती है और जिस के अनन्तरही नियमसे मोक्षपदकी प्राप्ति होती है | यह क्रिया आत्मस्वभावरूप है जो सर्व कर्मों के क्षय से आत्मा में स्वयम् प्रकट होती है । अतः इस क्रिया सम्बन्धी मंत्रादि का कोई विशेष विधान नहीं है ॥
नोट १ - संसार भ्रमण के दुखों से छूटने और शीघ्र अनादि कर्म बंध तोड़कर मुक्तिपद प्राप्त कर लेने का सरल मार्ग प्राप्त करनेके लिये निम्न लिखित गर्भान्वय नामक ५३ क्रियाएं या संस्कार हैं जिन्हें भले प्रकार साधन करने से इस लोक
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अनिवृत्तिकिया वृहत् जैन शब्दार्णध
अग्रसेन परलोक के सुख सम्पत्ति और आनन्द को (१) अवतारक्रिया (२) व्रतलाभक्यिा (३) भोगते हुए नियम से अति शीघ्र ही स्थानलाभक्रिया (४) गणगृहक्रिया (५) अभीष्टफल (मुक्ति सुख) की प्राप्ति होतीहैः- पूजाराध्यक्रिया ( ६ ) पुण्ययज्ञक्रिया (७)
(१) गर्भाधान क्रिया, (२) प्रति दृदचर्याक्रिया (८) उपयोगिताक्रिया, (६-४८) क्रिया, (३) सुप्रीति क्रिया, (४) धृति 'उपनीति' या 'यज्ञोपवीत' आदि अग्रनिवृत्ति' क्रिया, (५) मोद क्रिया, (६) प्रियोद्भव पर्यन्त उपयुक्त ५३ कियाओंमें की अन्तिम क्रिया, (७) नाम कर्म, (८) बहिर्यान क्रिया ४० क्रियायें (नं० १४ से ५३ तक)। (आगे (६) निषद्या क्रिया, (१०) अन्न प्राशन(११) देखो शब्द 'अड़सठ क्रिया')॥ व्युष्टि या वर्षवर्द्धन, (१२) चौलि या केश आदि पु० पर्व ३८, श्लोक५४-३०६, । वाय या मुंडन, (१३) लिपी संख्यान (१४)
पर्व ३६, श्लोक १-१९६६ उप ति या यज्ञोपवीत [ जनेऊ ] ( १५ ) नोट ३-इन ५३ गर्भान्वय और ४८ व्रतचर्या (१६) व्रतावतरण (१७ ) विवाह| दीक्षान्वय क्रियाओं या संस्कारों में से (१८) वर्णलाभ (१९) कुल चर्या (२०) प्रत्येक का अर्थ व स्वरूप मंत्रों और व्यागृहीशिता ( गृहस्थाचार्यपद ) (२१) ख्यादि सहित यथास्थान देखें (देखो शब्द | प्रशान्ति ( २२) गृहत्याग ( २३ दीक्षा "क्रिया" और शब्द "अगारि" के नोट १ में (२४) जिन रूपिता (२५) मौनाध्ययन वृत्ति
अन्य प्रकार की ५३ क्रियाओं के नाम ) (२६) तीर्थङ्कर पदोत्पादक भावना ( २७ ) |
अगभानु ( अग्निभानु, अग्रभावी )गुरुस्थापनाभ्युपगम (२८) गणोपग्रहण पुष्करार्द्धद्वीप की पश्चिम दिशामें विद्यन्भा(२६) स्वगुरुस्थान संक्रान्ति (३०) निः लीमेरु के दक्षिण भरतक्षेत्रान्तर्गत आर्यखंड संगत्वात्म भावना (३१) योगनिर्वाण की अतीत चौबीसी में हुए १६ वें तीर्थंकर सम्प्राप्ति (३२) योग निर्वाण साधन (३३) का नाम । (आगे देखो शब्द “अढ़ाईद्वीपइन्द्रोपपाद ( ३४ ) इन्द्राभिषेक (३५) विधि पाठ" के नोट ४ का कोष्ठ ३)॥ दान (३६) सुखोदय ( ३७ ) इन्द्र पद त्याग भग्रश्रुतस्कन्ध (प्रथम श्रु तस्कन्ध, अग्र(३८) गर्भावतार ( ३६ ) हिरण्यगर्भ (४०) | सिद्धान्त ग्रन्थ )-षटखंडसूत्र और मन्दरेन्द्राभिषेक (४१) गुरुपूजन (४२) उनकी सर्व टीका, वृत्ति, और व्याख्या यौवराज (४३) स्वराज्य (४४) चक्रलाभ धवल, महाधवल, जयधवल, गोमट्टसार, (४५) दिशाञ्जय (४६) चक्राभिषेक (४७) लब्धिसार, क्षपणासार आदि, इन सर्व साम्राज्य (४८) निष्कान्ति (४६) योग प्रन्थ समूह को “अन श्रु तस्कन्ध" या "प्रसंग्रह (५०) आर्हन्त्य (५१) विहार (५२)
थम सिद्धान्त रन्थ" कहते हैं । योगत्याग (५३) अगनिवृत्ति ॥
नोट-इसके सम्बन्ध में विशेष जानने नोट २-किसी अजैन को जैनधर्म में दीक्षित करने के लिये जो आठ विशेष
| के लिये देखो शब्द "अग्रायणीपूर्व" ॥ क्रियाएँ और ४० साधारण क्रियायें हैं उन्हें अगसेन-सूर्यवंशी महाराजा "महीधर" 'दीक्षान्वय क्रिया' कहते हैं। वे यह हैं- का पुत्र ॥
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( ७२ ) अग्रसेन वृहत् जैन शब्दार्णव
अप्रायणीपूर्व - इस अग्रसेन ने सुप्रसिद्ध अयोध्यापति | वाल इतिहास" नामक ग्रन्थ देखें ॥ महाराजा "मानधाता" की लगभग ५२वीं अगसोच- देखो शब्द"अग्रचिन्ता" ॥ पीढ़ी में वीर निर्वाण से ४६८१ वर्ष पूर्व |
अग्रहण-(प्रा०अगहण)-(१) अग्राह्य, नग श्री नेमिनाथ तीर्थकर के तीर्थकाल में
हण करने योग्य, अस्वीकृत, अस्वीकार । (द्वापरयुग के अन्तिम चरण में ) जन्म
(२) वह पुद्गल वर्गणा जिसका औदारिलिया था। अपने पिता महीधर के लगभग २०० वर्ष की वय में राज्य त्याग कर
कावि शरीररूप से गृहण न होसके कुलाम्नाय के अनुसार दिगम्बरी दीक्षा
(अ. मा.)। धारण करने के पश्चात् ३५ वर्ष की वय में
(३) मार्गशिर मास का नाम जो वीरनिर्वाण से ४६४६ वर्ष पूर्व राजकुमार
अगवंश के मूल सूर्यबंशी महाराजा अग्रसेनको राजगद्दी मिली यह राजा ४२५
"अगसेन" के राज्याभिषेक का अगमास वर्ष राज्य सुख भोगकर ४६० वर्षकी वयमें अर्थात् प्रथम मास होने से तथा उन्हीं के वीर नि० से ४५२१ वर्ष पूर्व मिश्रदेश के
नाम पर विक्रम सं० से ४.३० वर्ष पूर्व से जैनधर्मी राजा “कुरुषविन्दु” के साथ युद्ध
"अगृहण" नाम से प्रसिद्ध हुआ। में बड़ी वीरता से लड़ कर मारा गया। अगहीत मिथ्यात्व-देखो शब्द "अगृ___ सारे अग्रवंशी या अग्रवाल जाति के हीत मिथ्यात्व" ॥ . लोग इसी राजा के १८ सुपुत्रों की सन्तान | अगहीतार्थ-देखो शब्द"अगृहीतार्थ" ॥ | हैं । इस राजा ने पिता से राजगद्दी पाने अगायणी पूर्व (आग्रायणीय पर्व )-- के पश्चात् “पातञ्जलि" नामक एक वेदा
श्रु तज्ञान के १२ मूल भेदों या अङ्गों मेंसे नुयायी संन्यासी महानुभाव की संगति
अन्तिम भेद के अर्थात् बारह अंग "दृष्टि से अपने कुलधर्म को त्याग कर वैदिक
वाद' के चतुर्थ भेद “पूर्वगत' के जो धर्म को ग्रहण कर लिया था जो बहुत
१४ भेद हैं उनमें से दूसरे भेद का नाम पीढ़ियों तक इस की सन्तान में पालन
"आग्रायणीय पूर्व" है ॥ किया जाता रहा । पश्चात् अगरोहापति
- इस पूर्व में ७०० सुनय व दुर्नय, पञ्चाराजा "दिवाकरदेव" के राज्य में वीर नि०
स्तिकाय, षटद्रव्य, सप्ततत्व, नव पदार्थ सं० ५१५ के पश्चात् और ५६५ के पूर्व
आदि का सविस्तर वर्णन है । इस पूर्व में | (विक्रम सं० २७ और ७७ के अन्तर्गत )
(१) पूर्वान्त (२) अपरान्त (३) ध्रुव (४) | सप्ताङ्गपाठी दिगम्बराचार्य श्री लोहाचार्य
अध्रुव (५) अच्यवनलब्धि (६) अध्रुव जी' के उपदेश से जैनधर्म फिर इस वंश में
संप्रणधि (७) कल्प (E) अर्थ (९) भौमाराजधर्म बन गया जिसे बहुत से अग्रवाल
वय (१०) सर्वार्थ कल्पक (११) निर्वाण जातीय लोग आजतक पालन कर रहे हैं ।
(१२) अतीतानागत (१३) सिद्ध (१४)। नोट-महाराजा अग्रसेन और उस उपाध्याय,इन १४ वस्तुओं का सविस्तार की सन्तान का सविस्तार इतिहास जानने कथन है । इन १४ वस्तु में से पश्चम 'वस्तु' के लिये इस कोष के लेखक लिखित "अग्र- "अच्यवनलब्धि में २० पाहुड़ [प्राभत हैं,
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अगायणी-पूर्व . वृहत् जैन शब्दार्णव
अगायणी-पूर्व जिन में से “कर्म प्रकृति” नामक चौथे | ६७२० पाहुडांग अर्थात् प्राभृतप्रभृत या पाहुड़ अर्थात् प्राभूत में (१) कृति (२) योनद्वार नामक अधिकार हैं । वेदना (३) स्पर्श (४) कर्म (५) प्रकृति
____ नोट २--इस 'आगायणीयपूर्व' सम्बंधी (६) बन्धन (७) निवन्धन (८) प्रक्रम (९) पूर्वोक्त १४वस्तु में से 'अच्यवन'नामक पञ्चम उपकूम (१०) उदय (११) मोक्ष (१२) वस्तु के जो उपयुक्त २० प्राभृत हैं उन में से संवम (३३) लेश्या (१४) लेश्याकर्म (१५) 'कर्म प्राभृत' नामक चतुर्थ प्राभृतके चौबीसों लेश्या-परिणाम (१६) सातासात (१७) |
योगद्वारों के अन्तिम पूर्ण ज्ञाता मुनि 'श्रीदीर्घढस्व (१८) भवधारण (१६) पुदग-धरसेन' थे जो प्रथम अङ्ग 'आचारांग'के पाठी लात्मा (२०) निधत्तानिधत्तक (२१) १६वर्ष रह कर वीर नि०सं० ६३३ में गिरनार सनिकाचित (२२) अनिकाचित (२३) पर्वत की चंद्रगुहा से स्वर्गवासी हुए। कमस्थिति (२४) स्कन्ध, यह २४ अपनी आयु के अन्तिम भाग में इन्होंने यह "योगद्वार" है ।।
| 'कर्मप्राभूत' 'श्री पुष्पदंत' और 'भतवलि' इस पूर्व में ६६ लक्ष मध्यम पद हैं । एक शिष्योंको पढ़ायां जो शुभ मिती आषाढ़ शु० मध्यम पद १६३४८३०७EEE अपुनरुक्त | ११ को समाप्त हुआ। इन्होंने इस प्राभूत का अक्षरों का होता है।
| उपसंहार करके (१) जीवस्थान (२) क्षुल्लकनोट १–“पूर्वगत" के चौदह भेद (१) |
| बंध (३) वन्धस्वामित्व (४). भाववेदना उत्पाद (२) आग्रायणीय (३) वीर्यानुप्रवाद
(५) वर्गणा (६) महावन्ध, इन छह खंडों में (४) अस्तिनास्तिप्रवाद (५) शानप्रवाद (६)
उसे रचकर लिपिवद्ध किया और उसकी सत्यप्रवाद (७) आत्मप्रवाद (E) कर्मप्रवाद
ज्येष्ठ शक्ल ५ को चतुर्विधसंघ सहित वेष्ठनादि (९) प्रत्याख्यान (१०) विद्यानुवाद (११)
में वैष्ठित कर यथा विधि पूजा की। इसी कल्याणवाद (१२) प्राणानुवाद (१३) क्रिया-'
| लिये यह शुभ तिथि उसी दिन से 'श्रु त विशाल (१४) लोकविन्दुस्सार । इन में क्रम |
। पञ्चमी' कहलाती है। से १०. १४, ८, १८, १२, १२, १६, २०, ३०, नोट ३-उपयुक्त छह खंडों में से १५. १०, १०, १०, १०, सर्व १९५ वस्तु पहिले पांच खंड ६००० (छह सहस्न ) सूत्रोंमें नामक अधिकार हैं। हर वस्तु नामक अधि- और छटा खंड ३०००० ( तोस सहन ) सूत्रों कार में बोस बीस प्राभृत या पाहुड़ नामक में रचे गये । यह छहों खंड मिलकर 'षटअधिकार हैं जिन सर्व की गणना ३६०० है। खंडसूत्र' के नाम से तथा 'कर्मप्राभृत' के हर प्रामृत या पाहुड़ में चौबीस २ 'प्राभूत- नाम से भी प्रसिद्ध है । इन्हीं को प्रथम श्र त प्राभृत या पाहुडाङ्ग या योगद्वार नामक स्कंध' या 'प्रथमसिद्धांतग्रन्थ' भी कहते हैं । अधिकार हैं । जिन सर्व की संख्या ६३६०० है नोट४- उपर्युक्त श्रीधरसेन आचार्य अर्थात् “पूर्वगत" के चौदही भेदों में सर्व के ही लगभग काल में एक 'श्री गुणधर' । ६३६००पाहुडाङ्ग या प्राभृतप्राभत या योगद्वार आचार्य थे जिन्हें उपयुक्त १४ पूर्वी में से ५ वें नामक अधिकार है और केवल आग्रायणीय- 'ज्ञानप्रवाद' पूर्वके अन्तरगत जो १२ वस्तु हैं पर्व' में १४ वस्तु के सर्व २८० पाहुड़ या | उनमें से दसवीं वस्तुके तीसरे कषाय-प्राभूत'
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( ७४ )
जगायणी-पूर्व वृहत् जैन शब्दार्णव
अगायणी पूर्व या 'कषायपाहड़' का पूर्ण ज्ञान था । इन्होंने । लिखी॥ इस प्राभृत का सारांश १८३ मूल गाथाओं (५) चित्रकूट पुर निवासी सिद्धान्त में और ५३ विवरण रूप गाथाओं में रचकर | तत्वज्ञाता 'श्री पलाचार्य' के शिष्य श्री वीर
और १५महा अधिकारोंमें विभाजित करके श्री सेनाचार्य' ने पूर्व खंडों पर १८ अधिकारों में नागहस्ति' और 'आर्यमंक्ष' मुनियोको व्या- "सत्कर्म" नामक ग्रन्थ लिखा फिर छहाँ खंडों ख्या सहित सुनाया जिन्होंने उसे लिपिबद्ध पर ७२ हजार श्लोक परिमित संस्कृत प्राकृत भी करदिया। यह 'कषायप्राभृत'का सारांश- भाषा मिश्रित “धवल" नाम की टीका रची॥ रूप कथन 'दोष-प्राभृत' या 'कषायप्राभूत' (६) पश्चात् श्री नेमचन्द्रसिद्धान्तचक्रदोनो नामों से प्रसिद्ध है। इसी को द्वितीय- वर्ती ने उपयुक्त सिद्धान्त ग्रन्थों का साररूप श्र तस्कंध' या 'द्वितीयसिद्धान्तग्रन्थ' भी “गोम्मटसार" “लधिसार" "क्षपणासार" कहते हैं।
आदि ग्रन्थ रचे ॥ नोट ५-पश्चात् 'प्रथम श्र तस्कंध' "द्वितीय श्रु तस्कन्ध" पर निम्न लिखित को जो जो प्राकृत, संस्कृत, या कर्णाटकीय | टीका आदि लिखी गई:भाषाओं में टीकाएँ या वृत्तियां आदि रची (१) उपर्युक्त “श्रीनागहस्ति" और गई वे भी “प्रथमश्र तस्कंध' या प्रथम आर्यमंक्ष' मुनियों से "श्रीयतिवृषभ" सिद्धान्तग्रन्थ ही कहलाई । इसी प्रकार (यतिनायक ) मुनि ने “दोषप्राभृत" द्वितीय 'द्वितीय तस्कन्ध' की टीका आदि भी श्रु तस्कन्ध के सूत्रों का अध्ययन करके उसकी "द्वितीय श्रु त स्कन्ध'' या “द्वितीयसिद्धान्त- "चूर्णवृत्ति' ६००० (छह हजार ) श्लोक प्रन्थ' की कोटि ही में गिनी गई॥ | प्रमाण सूत्ररूप बनाई ॥
"प्रथम श्रु तस्कन्ध'' पर निम्म लिखित (२) "श्री उच्चारण" (श्री समुद्धरण) टीका आदि लिखी गई:
| आचार्य ने,१२००० श्लोक प्रमाण “उच्चारण(१) "श्री पद्ममुनि" ने पहिले ३ खंडों वृत्ति' नामक एक विस्तृत टीका रची जिसे की १२ हजार श्लोक प्रमाण टीका रची॥ | श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने गुरु "श्रीजिन
(२) "श्री तुम्बुलर' आचार्य (श्रीवर्य चन्द्राचार्य' से पढ़कर नाटक.त्रय (समयसार, देव) ने छठे खंड की ७ हजार श्लोक प्रमाण पंचास्तिकाय, प्रवचनसार ) और ८४ पाछुड़ कर्णाटकीय भाषा में "पंजिकाटीका” रची ॥ | आदि ग्रन्थ रचे । यह अपने गुरुश्रीजिनचन्द्रा
(३) तार्किकसूर्य "श्री स्वामी समन्त- चार्य के पश्चात वीर नि. सं. ६७२ से ७२४ भद्र आचार्य' ने पहिले पाँच खंडोंकी संस्कृत (शाका ४६ से १०१) तक उनके पट्टाधीश टीका ४८ हज़ार श्लोकों में रची ॥ रहे ॥
(४) श्री वप्पदेव गुरुने पहिले प्रथम के (३) "श्री श्यामकुंड'' आचार्य ने प्रथम ५ खंडों पर “व्याख्याप्रज्ञप्ति" नामक व्या- थ तस्कन्ध के केवल छटे खंड को छोड़कर ख्या लिखी, जिस में छठे खंड का संक्षेप दोनों श्र तस्कन्धों पर १२००० श्लोक प्रमाण कथन भी सम्मिलित कर दिया, पश्चात् छठे टीका रची॥ . खंड पर भी ८००५ श्लोक प्रमाण व्याख्या (४) उपर्युक्त "तुम्बुलूर'' नामक आ
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( ७५ ) अग्राह्यवर्गणा वृहत् जैन शब्दार्णव
अगोदक चार्य ने भी पहिले तो प्रथम श्र तस्कन्ध के यक होती है। छटे खंड को छोड़कर शेप दोनों श्रु तस्कन्धों .. ( २ ) अग्राह्य-तैजस वर्गणा-जो पर कर्णाटकीय भाषा में ८४००० श्लोक "गायतैजसवर्गणा” की समान तेजसप्रमाण "चूड़ामणि" नामक व्याख्या रची। शरीर तो नहीं बनती किन्तु 'गायतैजसपश्चात् छठे खंड परभी ७००० श्लोक प्रमाण वर्गणा' को तैजसशरीर बनने में कुछ न । टीका लिखी॥
कुछ सहायक होती है। (५) उपयुक्त 'श्रीवापदेव गुरु' ने प्राकृत (३) अगाय-भाषावर्गणा-जो वचनभाषा में ६०००० (साठ हजार ) श्लोक रूप परिणवाने में "गाह्य-भाषाधणा" प्रमाण द्वितीय श्रु तस्कन्धकी व्याख्या रची। की सहायक तो होती है किन्तु स्वयम् ।
(६) उपर्युक्त 'धवल' नामक टीका के वचनरूप नहीं परिणवती रवयिता 'श्रीवीरसेनाचार्य ने कषायप्राभूत (४) अग्राह्य-मनोवर्गणा-जो हृदयकी चारों विभक्तियों पर 'जयधवल' नामक स्थ द्रव्यमन के बनने में “गाड-मनोटीका २० हजार श्लोकों में रचकर स्वर्गा- वर्गणा” को सहायता तो देती है किन्तु । रोहण किया । अतः उनके प्रिय शिप्य 'श्री स्क्यम् द्रव्यमन नहीं यनती जयसेनगुरु' ने ४०००० लोक और बनाकर नोट-२३ वर्गणाओं के नाम निम्न इसे पूरे साठ हजार श्लोकों में पूर्णकर दिया। लिखित हैं:__ नोट ६-उपरोक्त 'श्रीधवल' और 'जय- (१) अणुवर्गणा (२) संख्याताणुवर्गणा धवल' नामक टीकाओं का ( या दोनों श्रु त- (३) असंख्याताणुवर्गणा (४) अनन्ताणुस्कन्धों का) सारभूत एक 'महाधवल' नामक वर्गणा (५) ग्राह्याहारवर्गणा (६) अग्राह्याहार४०००० ( चालीस सहस्र ) श्लोक प्रमाण वर्गणा (७) ग्राह्यतैजसघर्गणा (८) अग्राह्यग्रन्थ 'श्री देवसेनस्वामी ने रचा ॥ (परिष जसवर्गणा (8) ग्राह्य भाषावर्गणा (१०)
नोट७-उपयुक्त आचार्यों का चरित्र | अग्राह्य भाषावर्गणा शाह्य मनोवर्गणा और समय आदि जानने के लिए देखो 'गून्य (१२) अग्राह्य मनोवर्गणा (१३) कार्मणवर्गणा बृहत् विश्व चरितार्णव' ॥
(१४) ध्रुववर्गणा (१५) सान्तरनिरन्तरवणा अग्राह्य वर्गणा-परमाणु से लेकर महा- (१६) सान्तरनिरन्तर शू यवर्गणा (१७) स्कन्ध पर्यन्त पुद्गल द्रव्य की जो २३ प्रत्येकशरीरवर्गणा (१८) ध्रुव शन्यवर्गणा वर्गणा हैं उनमें से नीचे लिखी चार प्रकार | (१६) वादर निगोदवर्गणा (२०) वादर निकी वर्गणाऐं, 'अग्राह्यवर्गणा' हैं:- गोदशन्यवर्गणा (२१) सूक्ष्म निगोदवर्गणा
( १ ) अग्राह्य-आहार-वर्गणा-जो (२२) नभोवर्गणा (२३) महास्कन्धवर्गणा ॥ आहारयोग्य होने पर भी "गाह्य आहार- . (गो. जी. गा. ५६३-६०७ इत्यादि ) वर्गणा” की समान औदारिकशरीर, वै- अग्रोदक ( प्रा० अग्गोदय )-लवणक्रियिकशरीर और आहारकशरीर का समुद्र के मध्यभाम की दो क्रोश ऊँची कोई अंश नहीं वनती, किन्तु उनके बनने | शिखा जो जल के उतार चढ़ाव से न्यूनामें ग्राह्यआहारक वर्गणा की केवल सहा- | धिक होती रहती है । ( अ० मा०)॥
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mero
अग्लानिशुद्धि वृहत् जैन शब्दार्णव
তাঘল अग्लानिराद्धि-अष्ट लौकिक शुद्धियों में स्रव होताहै उसे साम्प्रायिक आस्रव कहींहैं ।
से एक प्रकार की शद्धि जो किसी अप-' यही आत्रत्र संसार परिभ्रमण का मूल कारण वित्र वस्तु के सम्बंध में ग्लानि न करने ही है। इसके मूल भेद (१) ५इन्द्रिय [स्पर्शन, रसन, से या किसी साधारण उपाय द्वारा मन |
घ्राण, चक्ष, श्रोत्र] (२) ४ कपाय [कोव, मान, ! से ग्लानि दूर हो जाने पर लोक-मान्य हो;
माया, लोभ ] (३) ५ अनल अर्थात् हिंसा, जैसे शर्करा (जाँड, चीनी ) जिसके बनने अमृत [असत्य]. स्सेय [चोग]. कु.शील या। में असंच अगणित छोटे-बड़े त्रस ( जगम) • अब्रह्म, परिग्रह और (४) २५ किया, यह सर्व जीवों का घात हो कर उनका कलेवर
३४ हैं । २५ क्रिया निम्न लिखित है:उसी में सम्मिलित हो जाने पर भी तथा (१) सम्यक्त्ववईनी क्रिया (२) मिथ्यात्व चमारादि अस्पर्य शूद्रों द्वारा पददलित पुष्टकारिणी क्रिया (३) प्रयोग किया या होने पर भी उसे अशुद्ध नहीं माना जाता; असयमवर्द्धनी क्रिया (४) समादान क्रिया म्लेच्छ स्पर्शित दुग्ध, या मत्स्यजीवी । (५) ईर्यापथ क्रिया (६) प्रादोषिक क्रिया मांसाहारी धीवर ( कहार, महरा) का (७) कायिक क्रिया (८) अधिकरण किया छुआ जल; अस्पय-अकारू से छू जाने (अघकारी क्रिया).(९) पारितापिक क्रिया पर सुवर्णस्पर्शित जल से छिड़कना, रोगी (१०) प्राणातिपातिक क्रिया (११) दर्शन रजस्वला स्त्री को या जन्म मरण सम्बंधी क्रिया (१२) स्पर्शन किया (१३) प्रात्ययिक लगे सतक वाले रोगी मनुष्य को जिसे किया (२४) समन्तानुपात पिया (१५) वैद्यक-शास्त्रानुकल स्नान वर्जित हो कोई अनाभोग किया (१६) स्वहस्त किया (१७) निरोगी मनुष्य यथानियम कई बार छू छु निसर्ग किया (१८) विदारण किया (१६) कर स्नान करे तो वह रोगी शुद्ध हुआमाशायापादिक किया (२० ) अनाकांक्षा माना जाता है ।शवादि ॥
किया (२१) प्रारम्भ किया (२२) पारिअघ-पाप, व्यसन, दुश्व, अधर्म ॥
ग्राहिक किया (२३) माया किया (२४) ज्योतिषचक्र सम्बंधी ८८
मिथ्यादर्शन किया (२५) अप्रत्याख्यान ७६ चे ग्रह का नाम ॥
किया ॥ नोट-८८ पहों के नाम जानने के लिये नोट ३-प्रत्येक किया का स्वरूप यथाआगे दे वो शब्द “अठासीग्रह" ॥
स्थान देखें ॥ (त्रि. गा० ३६३-३७०) अघटितब्रह्म (परमब्रह्म, ब्राह्मदेव)--पुष्क | अघकारीक्रिया ( अघकारिणी क्रिया, रार्द्ध द्वीपकी पूर्वदिशा में मन्दरमेश के अधिकरण किया)-पापोत्पादक किया, हिं- दक्षिण-भरतक्षेत्रान्तर्गत आर्यवण्ड की सा के उपकरण शस्त्रादि ग्रहण करने का अनागत चौबीसी में होने वाले चौथे कार्य करना, साम्परायिक आस्रव सम्बन्धी तीर्थकर का नाम । (आगे देखो शब्द ३५ कियाओं में से आठवीं किया का नाम ॥ 'अढाईद्वीपपाठ' के नोट ४ का कोष्ठ ३)॥ नोट १-कषाय सहित जीवों के जो कर्मा-अघन--[१] अघनपान, पतला, पेय अर्थात्
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अघन
( ७७ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
पीने योग्य । पेय पदार्थों के घन, अघन, लेपी, अलंपी, ससिक्थ, असिवथ इन ६ भेदों में से दूसरे प्रकार का पदार्थ जो दही आदि की समान गाढ़ा न हो ॥
नोट १ - दही आदि पीने योग्य गाढ़े पदाथों को 'घ' और नारंगी, अनार आदि फलों के रस को व दुग्ध, जल आदि पतले पेय पदार्थों को ''अवन'; हथेली पर चिपकने वाले पेय पदार्थों को 'लेपी' और न चिपकने वालों को 'अलेपी'; भात के कण सहित मांड को तथा सागूदाना आदि अन्य पदार्थों के कण सहित पके जल को अथवा fare पेय पदार्थो को 'सक्थि' और बिना कण के माँड ( कांजी ) को तथा औषधि आदि के पके जल को अथवा जो पेय पदार्थ स्निग्ध न हों उनको 'असिक्थ' कहते हैं ॥
नोट :- सर्वभक्ष्य पदार्थ ४ भेदों में विभाजित हैं- (१) खाद्य (२) स्वाद्य (३) लेह्य ( ४ ) पेय, इनमें से 'पेय' के उपर्युक्त ६ भेद हैं ॥
[2] गणित की परिभाषा में 'अघन' वह अङ्क है ओ किसी पूर्णाङ्क का घन न हो अर्थात् जो किसी अङ्क को ३ जगह रख कर परस्पर गुणन करने से प्राप्त नहीं हुआ हो ॥
नोट ३- किसी अङ्क को तीन जगह रख कर उन्हें परस्पर गुणन करने से जो अङ्क प्राप्त हो उसे उस प्रथम अङ्क का 'घन' कहते हैं, जैसे १ का घन (१ x १ x १ = १) एक है, अर्थात् एकके अङ्क को तीन जगह रखकर जब परस्पर गुणन किया तो एक ही प्राप्त हुआ; अतः १ का घन १ ही है । इसी प्रकार २ का घन (२x२x२= ८) आठ है अर्थात् दो के अङ्क को तीन जगह रख कर परस्पर गुणन करनेसे
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अघनधारा
( दो दुगुण ४ और ४ दुगुण ८) आठका अङ्क प्राप्त हुआ; अतः २ का घन = है। ऐसे ही ३ का घन (३ x ३ x ३ = २७ अर्थात् तीनतिये ६ और तिये २७) सत्ताईसका अङ्क है । ४का घन ४ x ४ x ४ = ६४ है; ५ का घन १२५, ६ का घन २१६, ७ का घन ३४३, ८ का घन ५१२,
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६ का घन ७३६, १० का घन १०००, ११ का घन १३३१ इत्यादि । यहां उपर्युक्त अङ्क १, ८, २७, ६४, १२५, २१६, ३४३, ५१२, ७२९, १०००, १३३१ आदि घनाङ्क हैं जो क्रम से १, २, ३ आदि अङ्कों के 'घन' हैं । अतः जो अङ्क किसी अन्य अङ्कका घन न हो उसे अघन कहते हैं अर्थात् उपर्युक्त घनाङ्कों को छोड़ कर शेष सर्व अङ्क २, ३, ४, ५, ६, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १६, २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २८, २६, ३० आदिमें से 'प्रत्येक अङ्क अघनाङ्क' है ॥ अघनधारा -लोकोत्तर गणित सम्बन्धी १४ धाराओं में से उस धारा का नाम जिसका हर अङ्ग 'अघन' हो । “सर्वधारा" में से 'घनधारा' के सर्व अङ्कों को छोड़ कर जो शेष अङ्क रहें वे सर्व' 'अघनधारा' के अ हैं अर्थात् १ से प्रारम्भ करके उत्कृष्ट अनन्तानन्त तककी पूर्ण संख्या ( सर्वधारा ) के अङ्कों में से घनधारा के सर्व अङ्क १, ८,
२७, ६४, १२५, २१६, ३४३, ५१२, ७२६, १०००, १३३१ आदि छोड़ देने से जो २, ३, ४, ५, ६, ७, ९, १०, १२, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २८, २९, ३० आदि उत्कृष्ट अनन्तानन्त तक शेष अङ्क हैं उन सर्व के समूह को "अघनधारा" कहते हैं ॥
इस धारा का प्रथम अङ्क २ है और अन्तिम अङ्क "उत्कृष्ट अनन्तानन्त" हैं
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( ७८ )
अघनपान
अघभी
जिसकी संख्या अङ्कों द्वारा प्रकट किये जाने योग्य नहीं है केवल सर्वज्ञ शानगम्य ही है । इस धारा के मध्य के अङ्क ३, ४, ५, ६, ७, ६, १०, ११ आदि एक कम उकृष्ट अनन्तानन्त पर्यंत अनन्तानन्त हैं। उत्कृष्ट अनन्तानन्त में से "घनधारा" के अङ्कों की 'स्थान - संख्या' घटा देने से जो संख्या प्राप्त होगी वह इस 'अघनधारा' के अों की "स्थान संख्या" है । ( देखो शब्द 'अङ्कगणना' तथा 'अङ्कविद्या' और उसका नोट ५) ॥ अवनपान-देखो शब्द " अघन" ॥
आदि उत्कृष्ट अनन्तानन्त तक के सर्व अङ्क 'सर्वधारा' के अङ्क हैं । १, २, ३, आदि उत्कृष्ट अनन्तानन्त के 'आसन्न - घनमूल' तकके सर्व अङ्क “घनमातृकधारा" के अङ्क हैं। इससे आगे के उत्कृष्ट अनन्तानन्त तक के सर्व अङ्क "अघनमातृकधारा" के अङ्क हैं । अतः इस धारा का प्रथम अङ्क ( प्रथम स्थान ) उत्कृष्ट अनन्तानन्त के "आसन्न घनमूल से १ अधिक है और अन्तिम अङ्क ( अन्तिम स्थान ) " उत्कृष्ट अनन्तानन्त" है । सर्व धारा की स्थानसंख्या ( उत्कृष्ट अनन्तानन्त ) में से 'घनमातृकधारा" की स्थान संख्या (घनमातृक धारा का अन्तिम अङ्क ) घटा देने से जो संख्या प्राप्त हो वह इस अघनमातृकधारा के अङ्कों की अङ्कसंख्या या " स्थान संख्या" है । (देखो शब्द 'अङ्कविद्या का नोट ५ ) ॥
।
अघनमातृकधारा - इसको “अघनमूल
धारा' भी कहते हैं । अलोकिक अङ्कगणित या लोकोत्तर संख्यामान सम्बन्धी १४ धाराओं में से वह धारा जिसका कोई अङ्क किसी अन्य अङ्क का 'घनमूल' न हो ॥
नोट २ - " आसन्न " शब्द का अर्थ है 'निकट' | उत्कृष्ट अनन्तानन्त की संख्या सर्वधारा के अङ्कों में से घनमातृक (घ- घमधारा का अङ्क नहीं है अर्थात् वह स्वयम् नमूल ) धारा के सर्व अङ्क छोड़ने से जो किसी भी अङ्क का घन नहीं हैं अतः उससे शेष अङ्क रहें उन सर्व के समूह को पूर्व उसके निकट से निकट जो अङ्क किसी “अघनमातृकधारा'' कहते हैं । अर्थात् अन्य अङ्क का घन हो वही अङ्क उस घन की जिस अङ्क का घन उत्कृष्ट अनन्तानन्त अपेक्षा अनन्तानन्त की संख्या का "आसन्नका आसन्न अङ्क है उससे आगे के उत्कृष्ट | अङ्क" कहिलायगा और वह अन्य अङ्क उ अनन्तानन्त तक के सर्व ही अङ्क 'अघनमातृकधारा' के अङ्क हैं ।
का 'आसन्न घनमूल ' कहिलायगा । जैसे १२८ की संख्या स्वयम् किसी अङ्क का घन नहीं है किन्तु उससे पूर्व निकट से निकट १२५ का अङ्क ५ का घन है। अतः यहां १२५ को १२८ का आसन्न अङ्क और ५ को १२८ का "आसन्न घनमूल" कहेंगे ॥ अभी - पापभीरु, पापों से भयभीत ॥
वृहत् जैन शब्दार्णव
नोट १ – किसी अङ्क को तीन जगह रख कर परस्पर गुणन करने से जो अङ्क प्राप्त हो वह अङ्क पूर्व अङ्क का 'घन' कहलाता है और वह पूर्व अङ्क उत्तर अङ्क का " घनमूल” या "घनमातृक" कहलाता है । जैसे २ का घन ८ है और ८ का घनमूल २ है, ३ का घन २७ है और २७ का घनमूल ३ है ॥
१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११,
गृहस्थधर्म को सुयोग्यरीति से पालन करने योग्य पुरुष के १४. मुख्य गुणों में से उस गुण को धारण करने वाला मनुष्य |
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अघातिया वृहत् जैन शब्दार्णव
अघातियाकर्म जिस से वह सर्व प्रकार के पापों से डरता | उत्कृष्ट स्थित ३ पल्योयम काल प्रमाण
है । देव. मनुष्य और नारकी जीवों (देखो शब्द “अगारी")॥
के अतिरिक्त शेष सर्व संसारी प्राणियों अघातिया-न घात करने वाला, चोटादि
, को तिर्यञ्च कहते हैं । ( एक अन्तर दुःख न पहुँचाने वाला,नष्ट न करने वाला, |
मुहर्त्त दो घड़ी या ४८ मिनट से कुछ कम कर्म प्रकृतियों के दो मूल भेदों-घातिया,
काल को कहते हैं। जघन्य अन्तरमहर्त अघातिया-में से एक का नाम ॥ एक आवली से एक समय अधिक और अघातियाकर्म-वह कर्म प्रकृति जो उत्कृष्ट अन्तरमुहूर्त दो घड़ी से एक जीव के अनुजीवी गुण को न घाते, किन्तु समय कम का होता है । मध्य के भेद जीव के लिये वाह्य शरीरादि का सम्बन्ध एक आघली से दो समय अधिक, ३ मिलावे॥
समय अधिक इत्यादि दो समय कम दो ___ इस कर्म के मूलभेद चार (९) आयुकर्म | घड़ी तक असंख्यात हैं)। [ देखो शब्द अङ्क (२) नामकर्म (३) गोत्रकर्म (४) घेदनीयकर्म | विद्या'' का नोट ८ ] ॥ हैं और उत्तर भेद १०१ अथवा १११३ हैं ॥ (ग) जिस कर्म के निमित्त से जीव
(१)आयुकर्म-जो कर्म जीयको किसो मनुष्य पर्याय में स्थित रहे उसे "मनुष्यायु पर्याय धारण कराने के लिये निमित्त कर्म" कहते हैं । इस कर्म की जघन्य व कारण है उसे आयुकर्म कहते हैं । इस उत्कृष्ट स्थित "तिर्यञ्चायु कर्म" की स्थित कर्म का स्वभाव लोहे की साँकल या के समान है ॥ काठ के यंत्र की समान है जिससे राजा (घ) जिस कर्म के निमित्त से जीव आदि किसी. अपराधी को नियत स्थान | देव पर्याय में स्थित रहे उसे “देवायु वर्म" में रख कर अन्य स्थान में जाने से रोके | कहते हैं । इस कर्म की जघन्य व उत्कृष्ट रखते हैं । इस कर्म के (क) नरकायु (ख) स्थिति "नरकायु कर्म' की स्थिति के तिर्यञ्चायु (ग) मनुष्यायु और (घ) देवायु, । समान है। यह ४ भेद हैं ।
____सामान्यतयः आयुकर्म की जघन्य (क) जिस कर्म के निमित्त से जीव
स्थित एक स्वास (बाल स्वासोच्छ्वास) नरक पर्याय ( नरकशरीर ) में स्थित के १८ वै भागमात्र अंतरमुहूर्त काल है और रहे उसे "नरकायुकर्म" कहते हैं । इस | उत्कृष्ठ ३३ सागरोपम काल है ॥ तत्काल कर्म की जघन्य स्थिति १० सहस्न वर्ष के उत्पन्न हुए स्वस्थ बालक के स्वासो
और उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपमकाल च्छ्वासको 'बाल-स्वासोच्छ्वास' कहते प्रमाण है।
हैं जो युवा स्वस्थ पुरुष के स्वासोच्छ्वास (ख ) जिसकर्म के निमित्तसे जीव तिर्यंच | का ५ वाँ भाग मात्र और एक मुहूर्त का मा पर्याय (तिर्य शरीर ) में स्थित रहे उसे | ३७७३ वां भाग होता है। स्वस्थ पुरुष की
"तिर्यञ्चायु कर्म" कहते हैं । इस कर्म की | नाड़ी भी एक मुहूर्त में (दो घड़ी या ४८ जघन्य स्थित अन्तरमहूर्त काल और मिनट में ) ३७७३ बार फड़कती है ॥
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अघातिया कर्म
विशेष - नरकायु और देवायु की उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपम और जघन्य १० सहस्र वर्ष है । मनुष्य और तिर्यञ्च की उत्कृष्ट स्थिति ३ पल्योपम और जघन्य अन्तरमुत्तं काल है । उत्कृष्ट स्थिति केवल संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव ही की बँधती है । नरका की उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट संलेश परिणामों से केवल मिथ्यादृष्टी मनु• प्य व तिर्यञ्च ही कै बँधती है । देव आयु की उत्कृष्ट स्थिति जघन्य संक्लेश परिणामों से केवल सम्यग्दृष्टो मनुष्य ही सातवें गुणस्थान चढ़ने को सन्मुख छरे गुणस्थान वाला ही वांधता है । शेष तिर्यञ्च और मनुष्य आयु को उत्कृष्ट स्थिति जघन्य संक्लेश परिणाम वाला मिथ्यादृष्टी जीव ही बांधता है ॥ 7 ( २ ) नामकर्म – नरक, तिर्यञ्च, मनुप्य और देव, इन चारों पर्यायों सम्बंधी सर्व प्रकार के शरीरों की अनेक प्रकार की रचना के लिये जो कर्म निमित्त कारण है उसे "नामकर्म" कहते हैं । इस कर्म का स्वभाव चितेरे (चित्रकार ) की समान है जो अनेक प्रकार के चित्राम् बनाता है । इस कर्म के २ या ४२ या ९३ अथवा १०३ भेद हैं :
२ भेद - ( १ ) पिण्ड प्रकृति, अर्थात् कई २ भेद वाली प्रकृति ( २ ) अपिण्ड प्रकृति, अर्थात् अभेद वाली प्रकृति ॥ ४२ भेद - १४ पिण्ड प्रकृतियां और २८ अपिण्ड प्रकृतियां ॥ ६३ भेद
-- ६५ भेद चौदह पिण्डप्रकृतियों के और २८ अपिण्ड प्रकृतियां ॥
( ८० )
वृहत् जेन शब्दार्णव
-:
अघातिया कर्म
१०३ भेद - - ७५ भेद चौदह पिण्ड
प्रकृतियों के और २८ अपिण्ड प्रकृतियां ॥
चौदह पिंड प्रकृतियां अपने ६५ भेदों सहित निम्न प्रकार हैं:--
要 ( १ ) गति ४ -- नरकगति, तिर्यज गति, मनुष्यगति, देवगति ॥
( २ ) जाति -- ए केन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रियजाति ॥
( ३ ) शरीर ५-- औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर, कार्माणशरीर ॥
* ( ४ ) अंगोपांग ३--औदारिकआंगोपांग, वैक्रियिक आंगोपांग, आहारकआंगोपांग ॥
नोट -- दो जंघा, दो भजा, नितम्ब, पीठ, हृदय, शिर, यह आठ अङ्ग कहलाते हैं और इन अंगों के अङ्ग या अवयव कान नाक, आँख, कंठ, नाभि, अँगुली, आदि उपांग कहलाते हैं ॥
( ५ ) बन्धन ५ - औदारिकशरीर बन्धन वैक्रियिकशरीर बंधन, आहारकशरीर बन्धन, तैजसशरीर बन्धन, कार्माणशरीर
बन्धन ॥
(६) संघात५ -- औदारिकशरीर संघात, वैकि किशरीर संघात, आहारकशरीर संघात, तैजसशरीर संघात, कार्माणशरीर संघात |
(७) संस्थान ६ -- समचतुरस्र संस्थान, न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, स्वातिकूसंस्थान, कुब्जक संस्थान, वामनसंस्थान, हुण्डक संस्थान |
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( ८१ ) अघातियाकर्म वृहत् जैन शब्दार्णव
अघातियाकर्म ( = ) संहनन ६--वज़वृषभनाराच | ७वीं निर्माण प्रकृति के भी दो भेद(१) स्थानसंहनन, वजूनाराच संहनन, नाराच संहनन, | निर्माण और (२) प्रमाणनिर्माण माने जाते अर्द्धनाराव संहनन, कीलक संहनन, | हैं जिससे पिंडप्रकृतियों की संख्या १५ असंप्राप्तासृपाटिक संहनन, ॥
और अपिंडप्रकृतियों की २७ गिनी जाती है। (६) स्पर्श ८--कठोर, कोमल, गुरु | किसी किसी आचार्य ने निर्माण प्रकृतिको (धारी), लघु ( हलका ), रूक्ष, स्निग्ध, | पिंडप्रकृतियों में गिनाया है और विहायोशीत, उष्ण ॥
गति प्रकृति को जो उपयुक्त १४पिंड प्रकृतियों : . (१०) रस ५-तिक्त (चर्परा), कटु में गिनाई गई है अपिंड में गिनाया है, अर्थात् ( कड़वा ), कषायल, आम्ल ( खट्टा ), | निर्माण प्रकृति और विहायोगति प्रकृति को मधुर (मीठा)॥
परस्पर एक दूसरे के स्थान में परिवर्तित (११) गन्ध२-सुगन्ध, दुर्गन्ध ॥ | करके गिनाया है ॥ .
(१२) वर्ण ५- कृष्ण (काला), नील, | चौदह पिंडप्रकृतियों में शरीर पिंडप्रकृति पीत, पद्म( लाळ ), शुक्ल (स्वेत)। के जो उपयुक्त ५ भेदहैं उनके निम्नलिखित
(१३) आनुपूर्वी ४-नरकगत्यानुपूर्वी, | १० संयोगी भेद और हैं जिससे १४ पिंडतिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देव- प्रकृतियों के ६५ के स्थान में ७५ भेद हो गत्यानुपूर्वी ॥
जाते हैं:(१४) विहायोगति३-प्रशस्त विहायो- (१) औदारिकतैजस (२) औदारिकगति, अप्रशस्त विहायोगति ॥ . कार्माण (३) औदारिकतैजसकार्माण (४)
अट्ठाईस अपिंड प्रकृतियां:-- वैक्रियिकजस (५) वैक्रियिककार्माण (६) (१) अगुरुङ (२) उपघात (३) परघात वैक्रियिकतैजसकार्माण (७) आहारकतैजस (४) आतप (५) उद्योत (६) उच्छ्वास (७) (E) आहारककार्माण (8) आहारकतैजसनिर्माण (८) प्रत्येक (E) साधारण (१०) कार्माण (१०) तैजसकार्माण ॥ प्रस (११) स्थावर (१२) सुभग (१३) दुर्भग | इस प्रकार नामकर्म की उपयुक्त ६३ (१४) सुस्वर (१५) दुःस्वर (१६) शुभ | प्रकृतियों में यह दश प्रकृतियां जोड़ देने से (१७) अशुभ (१८) सूक्ष्म (१६) स्थूल (२०) नामकर्म की सर्व ६३ प्रकृतियों के स्थानमें पर्याप्त (२१) अपर्याप्त (२२) स्थिर (२३), १०३ प्रकृतियां भी गिनी जाती हैं । अस्थिर (२४) आदेय (२५) अनादेय | नामकर्म की जधन्य स्थिति ८ मुहूर्त (२६) यशःीति, (२७) अयशःौति (२८) और उत्कृष्ट स्थिति ३० कोडाकोडी साग-1 तीर्थङ्कर ॥
रोपमकाल प्रमाण है। इस प्रकार नामकर्मकी उपयुक्त चौदह विशेष-नामकर्मकीजघन्य स्थिति केवल पिंडप्रकृतियों की ६५ प्रकृतियां और २८ | यशःकीर्ति की = मुहूर्त की १० चे सूक्ष्मअपिंड प्रकृतियां सर्व मिला कर ६३ | साम्पराय गुणस्थान ही में बँधती है । उ
स्कृष्ट स्थिति २० कोड़ाकोड़ी सागरोपम की नोट२--इन २८ अपिंड प्रकृतियों में से | हुण्डक संस्थान और असंप्राप्तामृपाटिक
प्रकृतियां हैं।
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( ८२ ) अघातियाकम वृहत् जैन शब्दार्णव
अघातियाकर्म संहनन की धुंधती है । बामनसंस्थान और | कोटि से अधिक और एक कोटाकोटि से कीलक संहनन की १८ कोडाकोड़ी साग- कम) सागरोपम है। और मनुष्यगति और रोपम की; कुब्जक संस्थान और अई- मनुष्यगत्यानुपूर्वी की उत्कृष्ट स्थिति १५ नाराच संहनन की १६ कोडाकोड़ी साग- फोड़ाकोड़ी सागरोपम है । इस प्रकार रोपम को; स्वातिक संस्थान और नागच बंधयोग्य नामकर्म की सर्व ६७ प्रकृतियों का संहनन फी १४ कोड़ाकोड़ी सागरोपम की; | उत्कृष्ट स्थिति बन्ध है ॥ न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान और वजू- नोट३-शरीर नामकर्मकी पांच प्रकृतियों नाराच संहनन की १२ कोडाकोड़ी साग- में अपनी अपनी बंधन नामकर्म की ५ और रोपम की और समचतुरस्र संस्थान और संघात नामकर्मकी ५ एवम् १० प्रकृतियों वजूवृषभनाराव संहनन को १० कोटा
का अविनाभाव है । तथा वर्ण, गन्ध, रस, कोटि सागरोपम की स्थिति बँधती है ।। | स्पर्श, इन ४ नामकर्म की पिंडप्रकृतियों के जाति नामकर्म में विकलत्रय (द्वीन्द्रिय, जो २० भेद हैं वह अभेदरूप बंध अपेक्षा श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) की और अपिंड ४ही गिनी जाती हैं । अतः बंधन और संघात प्रकृतियों में सूक्ष्म, अपर्याप्त और की १० और वर्णादि की यह १६ सर्व २६ साधारण, इन छह की १८ कोड़ाकोड़ी प्रकृतियाँ ९३ प्रकृतियों में से कम हो जाने से सागरोपम की; तिर्यञ्चगति, नरकगति. नामकर्म की बन्धयोग्य सर्व उपरोक्त ६७ तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, नरकगत्यानुपूर्वी, तैजस- प्रकृतियां ही होती हैं । शरीर, कार्माणशरीर, औदारिकशरीर, नोट ४-नामकर्म की सर्व बन्धयोग्य | वैक्रियिकशरीर, औदारिकअङ्गोपांग, वैकि- ६७ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यथा यिकमगोपांम, आतप, उद्योत, प्रस, स्थूल सम्भव उत्कृष्ट संक्लेश (कषायोहित ) परिणा(बादर), पर्यात, प्रत्येक, वर्ण ५, रस ५, मो से और जघन्य स्थितियन्ध जघन्य संक्लेश गंध २, स्पर्श =, अगुरलघ, उपघात, परघात, परिणामों से होता है। उच्छ्वास, एकेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, निर्माण,
नोट:-नामकर्म की बन्धयोग्य ६७ | स्थावर, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर,
प्रकृतियों में से आहारकशरीर, आहारकअशुभ, दुर्भा. दु स्वर, अनादेय,अयशःकीर्ति, अङ्गोपांग, और तीर्थङ्करत्व इन ३ प्रकृतियों की इन ३५ प्रतियों की उत्कृष्ट स्थिति २० उत्कृष्टस्थिति केवल सम्यग्दृष्टी जीव ही बाँधकोडाकोड़ी सागरोपम की बंधती है। स्थिर, ता है। शेष ६४ प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति, |
मिथ्यादृष्टी जीव बांधता है ॥ प्रशस्तविहायोगति, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी,
नोट ६-आहारकशरीर और आहाइन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति १० कोड़ा
रकअङ्गोपांग, इन दो की उत्कृष्ट स्थिति ७ ।। कोड़ी सागरोपम है।आहारक शरीर,आहारक
अप्रमत्त गुणस्थान वाला मनुष्य जो छठे गुणअलोपांग, तीर्थकरत्व, इन तीन प्रकृतियों की स्थान में उतरने को सन्मुख हो याँधता है। उत्कृष्ट स्थिति अन्तः कोड़ाकोड़ी ( एक | तीर्थकर नामक्रम की उत्कृष्ट स्थिति चौथे
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अघातियाकर्म वृहत् जैन शब्दार्णव
अघातियाकर्म गुणस्थान वाला अविरत सम्यग्दृष्टी मनुष्यही, सन्तान क्रम से उच्च या नीच आचरण ' जो सम्यक्त प्राप्त करने से पहिले नरकगतिबंध परिपाटीरूप चला आया हो उसे “गोत्र" कर चुकने से नरक में जाने के लिये सन्मुख | कहते हैं । किसी ऐसी उच्च या नाच हो, बांधता है। और शेष ६४ प्रकृतियों में से आचरण वाली पर्याय में प्राप्त कराने पैकियिकषट्क (अर्थात् देवगति, देवगत्यानु- वाली जो कर्मप्रकृति है उसे "गोत्रकर्म" पूर्वी, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, वैकूियिक- कहते हैं। इस कर्मप्रकृति का स्वभाव शरीर, वैकियिकआंगोपांग ), विकलत्रय कुंभकार (कुम्हार ) की समान है जो (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ) सूक्ष्म, अप- बढ़िया घटिया सर्व प्रकार के बासन र्याप्त, साधारण, इन १२ प्रकृतियों का उत्कृष्ट बनाता है। इस कर्म प्रकृति के (१) उरचस्थितिबन्ध मिथ्यादृष्टी मनुष्य और तिर्यश्च गोत्र और (२) नीचगोत्र, यह दो भेद हैं । ही करते हैं । और औदारिकशरीर, औदा
. (गो.. क. १३) ॥ रिकआंगोपांग, तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानु
इस कर्म की जघन्य व उत्कृष्टस्थिति पूर्वी, उद्योत, और असंप्राप्ता पाटिक संहनन,
|' 'नामकर्म' की समान है अर्थात् जघन्यइन छह प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध
स्थिति ८ मुहूर्त और उत्कृष्ट २० कोड़ामिथ्यादृष्टीदेव और नारकी ही करते हैं।
कोड़ी सागरोपमकाल प्रमाण है। यह एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर, इन तीन
जधन्य स्थिति उच्चगोत्र की और उत्कृष्ट ! प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यादृष्टी
स्थिति नीचगोत्र ही की बँधती है ॥ देव ही करते हैं। शेष ४३ प्रकृतियों की उ
विशेष-नीच गोत्रकर्म प्रकृति की त्कृष्ट स्थिति यथासम्भव उत्कृष्टसंक्लेश परि
उत्कृष्ट स्थिति २० कोडाकोड़ी सागरोपमणामी तथा ईपमध्यम ( मन्द और मध्यम )
काल और उश्चगोत्र की १० कोडाकोड़ी संक्लेशपरिणामी चारों ही गतियों के जीव
सागरोपमकाल केवल मिथ्यादृष्टीजीव ही घांधते हैं।
चारों गतियों में अजघन्य (उत्कृष्ट, मभ्यम्,
ईषत) संकेश परिणामों से बांधते हैं। तीर्थकरत्व, आहारकशरीर, आहारक
उच्चमोत्र की = मुहूर्त की जघन्य स्थिति आंगोपांग, इन तीन नामकर्म की प्रकृतियों
को १.वें सूक्ष्मसाम्प्राय गुणस्थान वाला की जघन्य स्थिति अन्तःकोडाकोड़ी सागर है जिसे ८वे अपूर्वकरण गुणस्थान वाला
मनुष्य ही बांधता है। क्षपकणी चढ़ता हुआ मनुष्य ही बांधता
___ (५) वेदनीय कर्म-इन्द्रियों को अपने है। वैकियिकषटक ( देवगति, देवगत्यानुपूर्वी,
स्पर्शादि विषयों का सुख दुःख रूप अनुनरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, वैकूियिकशरीर,
भव करने को 'वेदनीय' कहते हैं। ऐसे वैक्रियिकआंगोपांग ) की जघन्यस्थिति को
अनुभव को कराने वाली कर्मप्रकृति को असंशी पञ्चेन्द्रिय जीव यांधते हैं ।
'वेदनीयफर्म' कहते हैं। इस कर्म प्रकृति
का स्वभाव मधुलपेटी असिधारा (तल(३) मोत्रकर्म-लोकपूजित व लोक- | वार की धार) की समान है जिने मधुनिन्दित कुल को अथवा जिस कुल में स्थल से चखते समय प्रथम कुछ मुण
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puch.MPAN
अघातियाकर्म वृहत् जैन शब्दार्णव
अघातियाकर्म नुभव पश्चात जीभ कट जाने से अधिक प्रशस्तप्रकृतियां-(१) आयुकर्म की दुःखानुभव होता है और मधरहित स्थल | नरकायु छोड़ कर शेष............ ३ पर जीभ जा लगने से प्रथम ही दुःखाट- । (२) नामकर्म की मनुष्यगति, मनुष्यभव ही होता है। इस कर्मप्रकृति के (१) गत्यानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, सातावदनीय और (२) असातावेदनीय पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर आदि ५, यह दो भेद हैं।
बम्धन ५, संघात ५, आंगोपांग ३, समइस कर्म की जघन्यस्थिति १२ मुहूर्त चतुरस्रसंस्थान, ववृषभनाराच संहनन, और उत्कष्टस्थिति ३० कोडाकोड़ी साग- प्रशस्तविहायोगति, अगुरुलघु, परघात, रोपमकाल प्रमाण है ॥
आतप, उद्योत, उच्छ्वास, निर्माण, प्रस, विशेष-असाता वेदनीयको उत्कृष्ट | स्थूल, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, स्थिति ३० कोडाकोड़ी सागरोपमकाल सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति, तीर्थक और सातावदनीम की १५ कोडाकोडी | रत्व...........
.............."४३ सागरोपमकाल केवल मिथ्यादृष्टि जीव ही (३) गोत्रकर्म की उच्चगोत्र........ १ चारों गतियों में अजघन्य संक्लेश (कषाय- (४) वेदनीयकर्मकी सातावेदनीय १ युक्त ) परिणामों से बांधते हैं। साता- |
इस प्रकार सर्व................ ४८ वेदनीय की जघन्यस्थिति १२ मुहर्त की उभयपकृतियां-नामकर्म की स्पर्श ८, १०चे सुक्ष्मसारप्राय गुणस्थान वाला | रस ५, गन्ध २, वर्ण ५, एवं सर्व २० । मनुष्य ही बांयता है ।
प्रकृतियाँ................................... २० नोट ७-अघातियाकर्म की उपर्युक्त | अप्रशस्तप्रकृतियां-शेष ३३ .........३३ मूलप्रकृत्तियाँ ४ हैं और उत्तरप्रकृतियाँ जो १०१ या १११ हैं वह सत्ता की अपेक्षा से हैं। (उभयप्रकृति २० शुभ भी हैं और बन्ध और उदय की अपेक्षा से नामकर्म की अशुभ भी अतः दोनों ओर जोड़ लेने से उपर्युक ६७ और शेष तीन की ८, एवं सर्व प्रशस्तप्रकृतियाँ सर्व ६८ और अप्रशस्त७५ ही हैं।
प्रकृतियाँ सर्य ५३ हैं)॥ (गो. क. ३५, ३६ )॥
ट ७ में बन्धोदय की अनोट :-इस अघातियाकर्म की १०१ पेक्षा अघातियाकर्म की जो सर्व ७५ उत्तर उत्तर प्रकृतियों में से ४८ प्रकृतियाँ 'प्रशस्त' | प्रकृतियां बताई गई हैं उन में से प्रशस्त हैं जिन शुभप्रकृतियाँ' या 'पुण्यप्रकृतियाँ ३८, अप्रशस्त ३३, और उभय ४ हैं । यह भी कहते हैं। ३३ प्रकृतियां "अप्रशस्त" हैं | ४ दोनों ओर जोड़ देने से प्रशस्त सर्व जिन्हें 'अशुभप्रकृति' या 'पापप्रकृति' भी | ४२ और अप्रशस्त सर्व ३७ हैं ॥ कहते हैं । शेष २० प्रकृतियां उभयरूप अर्थात् नोट -अघातियाकर्म की सर्व १०१ "प्रशस्ताप्रशस्त' हैं । इनका विवरण निम्न | उत्तर प्रकृतियों में (१) पुद्गलविपाकी ६२, प्रकार है:
' (२) भवविपाकी ४, (३) क्षेत्रविपाकी ४, और
NRHESAVADMRESHARESH
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तिथी ।
( ८५ ) . अघोर वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्क (४) जीवविपाकी ३१ प्रकृतियाँ हैं जिनका | शिव, एक शैवीसम्प्रदाय, भादों कृ० १४ विवरण निम्न प्रकार है:
__(१) पुद्गल विपाकी ६२-शरीर ५, अघोरगुणब्रह्मचर्य( घोरब्रह्मचर्य )--१८ आङ्गोपांग ३, बन्धन ५, संघात ५, संस्थान
सहस्र दूषणरहित अखंडब्रह्मचर्य, जिस ६, संहनन ६, स्पर्श, रस ५, गन्ध २, वर्ण ५,
में शान्तिपूर्वक तपोबल से चारित्र मोहिअगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत,
नीयकर्म का उत्कृष्ट क्षयोपशम होकर कभी निर्माण, प्रत्येक, साधारण, शुभ, अशुभ,
स्वप्नदोष तक न हो और कामदेव को स्थिर, अस्थिर, यह सर्व ६२ प्रकृतियां नाम:
पूर्णतयः जीत लिया गया हो । यह अष्टकर्म की ६३ प्रकृतियों में से हैं ॥ .
ऋद्धियों में से चौथी 'तपोऋद्धि' के ७ भेदों (२) भवविपाकी ४--आयुकर्म की
में से अन्तिम भेद है । इस ऋद्धिका स्वामी चारों प्रकृतियां ॥
अपने "अखंडब्रह्मचर्यबल" से उप्रईति(३) क्षेत्रविपाकी ४--नामकर्म की
भीति, मरी, दुर्भिक्ष, रोग, आदि उपद्रवों प्रकृतियों में सें आनुपूर्वी चारों प्रकृतियां ॥
को अपनी इच्छामात्र से तुरन्त शान्त कर (४) जीवविपाकी ३१--नामकर्म की
सकता है। शेष २७ और गोत्रकर्म की दोनों, और वेद
नोट १--तपोऋद्धि के सात भेदः-- नीयकर्म की दोनों प्रकृतियां ॥
(१) उप्रतपोऋद्धि (२) दीप्ततपोऋद्धि (३) (घातियाकर्म की ४७ उत्तर प्रकृतियां
तप्ततपोऋद्धि (४) महातपोऋद्धि (५) घोरसर्व ही जीवविपाकी हैं । अतः सर्व १४८ |
तपोऋद्धि (६) घोरपराकमऋद्धि (७) घोरउत्तरप्रकृतियों में से ७ प्रकृतियां जीव- |
ब्रह्मचर्य या अघोरगुणब्रह्मचर्यऋद्धि ॥ वेपाकी हैं)॥
( देखो शब्द "अक्षीणऋद्धि'के नोट २ में नोट १०--जिन कर्म प्रकृतियों का फल |
| अष्टमूलऋद्धियों और उनके ६४ भेदों का IT उदय पौद्गलिक शरीर में होता है उन्हें |
विवरण )॥ पुद्गलविपाकी", जिनका उदय मनुष्यादि
नोट २--ब्रह्मचर्यव्रत सम्बन्धी १८ वों में होता है उन्हें "भवधिपाकी", जिनका
सहस्र दोषों का विवरण जानने के लिये दय जीव को परलोक गमन करते समय
| देखो शब्द "अठारहसहस्रमैथुन कर्म"। र्गक्षेत्र में होता है उन्हें "क्षेत्रविपाकी" और
अघोरगुण ब्रह्मचर्यऋद्धि-देखो शब्द नका उदय जीवकी नारक आदि पर्यायो |
'अघोरगुणब्रह्मचर्य' ॥ . । अवस्थाओं में होता है उन्हें 'जीवविपाकी'
अघोरगुणब्रह्मचारी-घह ब्रह्मचारी जिसे
'अघोरगुणब्रह्मचर्यऋद्धि' प्राप्त होगई हो ॥ गो. क. ६,११-१४,२१,४१-५१,८४,१२७, ।।
अङ्क (अंक)--(१) चिन्ह, संकेत, संख्या, १४७,त.सू.अ.८-तू.८,१०,११,१२,१४-२०
संख्या का चिन्ह, शून्य सहित १ से है घोर-शान्ति, सौम्यता, घ्रणा या ग्लानि तक संख्या, दाग, रेखा, लेख, अक्षर, नाटक त्याग, अतिघोर, अतिभयंकर, उग्रोप्र, | | का एक अंश या परिच्छेद, गोद, बार, अव
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अङ्क वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कगणना सर, समीप, स्थान, अपराध, पर्वत, एक अङ्कगणना-.संख्यामान, गणिमान, अङ्कों युद्धभूषण, दुःख, पाप, देह, एक प्रकार की गिन्ती शन्यसे उत्कृष्ट अनन्तानन्त तक ॥ की स्वेतमणि, एक रत्न, संचितभूमि ॥ | अङ्कगणना लौकिक और लोकोत्तर
(२) नवअनुदिश विमानों में से एक | भेदों से दो प्रकार की है। इन में से “लौविमान का नाम ॥
किक अङ्कगणना' तो यथा आवश्यक हम (३) प्रथम व द्वितीय स्वंग सौधर्म अनेक देशवासी संसारी मनुष्यों ने कुछ और ईशान के युग्म के ३१ इन्द्रकविमानों | अङ्को(स्थानों)तक अपनी आवश्यकताओं में से १७वे इन्द्रक विमान का नाम ॥ को ध्यान में रख कर अपनी अपनी बुद्धि
(त्रि. ४६५)। वा विचारानुसार अनेक प्रकारसे नियत (४) 'कुंडलवर' नामक ११वे द्वीप
की है। उदाहरण के लिये कुछ विद्वानों के मध्य के कुंडलगिरिपर्वत पर के २० फूटों की नियत संख्या निम्न प्रकार है:-- में से एक साधारण कूट का नाम अर्थात्
(१) अरबी फ़ारसी-इकाई, दहाई, पश्चिम दिशा के४कटों में से प्रथम कर सैकड़ा, हजार, दशहजार, लाख, दशलाख, जिसका निवासी 'स्थिरहृदय' नामक एक
केवल ७ अङ्क प्रमाण अर्थात् ७ स्थान तक पल्य की आयु पाला नागकुमारदेव है॥
(अरबी भाषा में अहाद, अशरात, मिआत, (५) 'रुचकवर' नामक १३वे द्वीप के अल्फ़, उलङ्ग, लक, लुकूक, और फारसी मध्य के 'रुचकगिरि' नामक पर्वत पर जो
भाषा में यक, दह, सद, हपाार, दहहपार, दिक्कुमारी देवियों के रहने के चारों दि.
लक, दहलक,)॥ शाओं में आठ २फट हैं. उनमें से उत्तर
(२) लीलावती-एक, दश, शत, दिशा का एक कूट जिसमें 'मिश्रकेशी'
सहस्र, अयुत, लक्ष, प्रयुत, कोटि, अर्बुद, नामक दिक्कुमारी देवी बसती है॥
अब्ज, खर्ब, निखर्ब, महापद्म, शंकु, जलधि, (६) सप्तनरकों में से प्रथम 'धर्मा'
अंत्यज, मध्य, परार्ध, १८ अङ्क प्रमाण या 'रत्नप्रभा' नामक पृथ्वी के खरभाग |
अर्थात् १८ स्थान तक॥ का अङ्करत्नमय सहस्र महायोजन मोटा
- (३) उर्दू हिन्दी-इकाई, दहाई, ११वां कांडक या उपभाग । (देखो शब्द
सैकड़ा, सहस्त्र, दशसहस्त्र,लक्ष, दशलक्ष,
कोटि, दशकोटि, अर्ब, दशअर्ब, खर्व, 'अङ्का')॥ (त्रि. गा० १४६-१४८)
दश खर्ब, नील, दशनील, पद्म, दशपम, __ नोट----स्वेताम्बराम्नाय के अनुकूल संख, दशशंख । १६ अङ्क प्रमाण ॥ 'अङ्क' खरकांड का १४वां भाग १०० योजन
(४) श्री महावीर जैनाचार्यकृत चौड़ा है (अ० मा० कोष )॥ .
'गणितसारसंग्रह' -एक,दश, शत,सहस्र, * गणकचक्रवर्ती श्री महावीराचार्य अपने समय के गणितविद्या के एक सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् थे । लीलावती और सिद्धान्त श्रीमणि आदि कई गणित व ज्योतिष ग्रन्थों के रचयिता गणकचक्रचूड़ामणि ज्योतिर्विद श्री भास्कराचार्य से, जिनका समय सन् १९१४-११८४ ई० है. यह श्री महावीराचार्य ३०० वर्ष पूर्व सन् ८१४--८७८ ई० में दक्षिण भारत में राष्ट्रकूटवंशी महाराजा 'अमोघवर्षनपतुंग' के शासनकाल में विद्यमान् थे।
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अङ्कगणना वृहत् जेन शब्दार्णव
अङ्कगणना दशलहन, लक्ष, दशलक्ष. कोटि, दश- ट्रिलियन, दशट्रिलियन, सौट्रिलियन, कोटि, शतकोटि, अर्बुद, न्यर्बुद, खर्व, | हज़ारट्रिलियन, दशहज़ार ट्रिलियन, महाखर्व, पद्म, महापद्म, क्षोणी, महाक्षोणी, | सौहज़ारट्रिलियन । २४ अङ्क प्रमाण है शंव, महाशंव, क्षित्य, महाशित्य, क्षोभ, जो आवश्यक्ता पड़ने पर क्वाड्रिलियन महाक्षोभ । २४ अङ्क प्रमाण ॥
आदि शब्दों द्वारा उपयुक्त रीति से छह (५) अंग्रेजी भाषा--इकाई, दहाई,
छह अङ्क प्रमाण २४ अङ्कों ( स्थानों ) से सैकड़ा, हजार, दशहज़ार, सौहजार,
कुछ आगे भी बड़ी सुगमता से बढ़ाई मिलियन, दशमिलियन, सौमिलियन,
जा सकती है ॥ हज़ारमिलियन, दशहजार मिलियन, सौहजार मिलियन; बिलियन, दशबि
(६) उत्संख्यक गणना-इस की लियन, सौबिलियन, हजारबिलियन, | इकाई दहाई १५० अङ्क प्रमाण ( डेढसौ दशहज़ार बिलियन, सौहजारबिलियन; स्थान ) से भी अधिक तकहै जो एक एक - श्री महावीराचार्य रचित ग्रन्थों में से एक "गणितसारसंग्रह" नामक गणित ग्रन्थ संस्कृत श्लोकवद्ध मूल अगरेजी अनुवाद सहित मद्रास सरकार की आज्ञा से मद्रास गवर्नमेंट प्रेस से सन् १९१२ में प्रकाशित हो चुका है। गणितविद्या का यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ जो प्राचीन महान जैनगणित गून्य का बड़ा उत्तम और उपयोगी सार है १९३१ संस्कृत छन्दों में संकलित है जो दो अङ्गरेशी भूमिकाओं और अगरेजी अनुवाद सहित तथा विषयसूची, कठिन पारिभाषिक शब्दों के अर्थ, अङ्क संदृष्टिवाचक शब्दों की व्याख्या और बहुत से फटनोटो आदि सहित २०४२६ साइजा के अटपेजी ५५० बड़े पृष्ठों पर सजिल्द प्रकाशित हुआ है। साइपा और ग्रन्थ परिमाण आदि को देखते हुये इसका मूल्य केवल २) बहुत कम रखा गया है। इसके अनुवादकर्ता है मि० रङ्गाचार्य ऐम० ए० रावबहादुर, जो मद्रास प्रेसीडेंसी कालिज के संस्कृत व दार्शनिक प्रोफेसर व पूर्वी हस्तलिखित ग्रन्थों के सरकारी गन्थालय के मुख्य ग्रन्थाध्यक्ष है। दो भमिका लेखकों में से एक तो यही प्रोफैसर महाशय . हैं और दूसरे डाक्टर डैविड यूजीनस्मिथ ( Dr. David Eugine Smith ) हैं, जो उत्तरी अमरीकान्तर्गत न्ययार्क की 'कोलम्बिया निवर्सिटी' सम्बन्धी अध्यापकाय-महाविद्यालय में गणित के प्रोफेसर हैं । यह दोनों महानुभाव इन २४ पृष्ठों में लिखी हुई सविस्तार दोनों ही भमिकाओं में श्री ब्रह्मगुप्तसिद्धान्त' के रचयिता थी ब्रह्मगुप्त, सूर्यसिद्धान्त के टीकाकार व अन्य कई गणित ज्योतिष ग्रन्थों के रचयिता श्री आर्यभट्ट, और सिद्धांतश्रोमणि आदि कई गन्थों के रचयिता श्री भास्कराचार्य आदि के समय आदि का निर्णय और उनके गन्थों की तुलना श्रीमहावीराचार्य रचित "गणितसारसाठ से करते हो कई स्थानों पर श्री महावीराचार्य के कार्य की अधिक सराहना करते और उदाहरण देदेकर गणित सम्पर्धा इनके कई वरण | को अधिक सुगम, अधिक सही और पूर्ण बतलाते हैं ॥
यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ निम्न लिखित एक अधिकार और आठ व्यवाहारों में | विभाजित है:
(१) संज्ञाधिकार [ Terminology ] इसमें मंगलाचरण, गणितशास्त्र प्रशंशा, संज्ञा, क्षेत्रपरिभाषा, कालपरिभाषा, धान्यपरिभाषा, इत्यादि १४ विभाग ७० इलोकों में हैं।
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अङ्कगणना वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्क गणना शब्द द्वारा छह छह स्थाल आगे बढ़ाई | सप्तम २० स्थान 'महानमहानसंख्य' के, जाने वाली अगरेजी की इकाई दहाई के अष्टम २० स्थान 'परमसंख्य' के, नवम २० समान संख्यावाचक एक एक ही शब्द स्थान 'महापरमसंख्य' के, दशम २० स्थान द्वारा बीस बीस स्थान बढ़ाकर १५० 'महामहापरमसङ्ख' के, एकादशम् २० स्थानों से भी बहुत आगे यथा आवश्यक स्थान 'महानपरमसङ्ख' के, द्वादशम २० बढ़ाई जा सकती है ॥
स्थान 'महामहानपरमसङ्ख' के, त्रयोदशम जिस प्रकार अगरेजी भाषा की इकाई २० स्थान 'महानमहानपरमसङ्ख' के, चदहाई के पहिले ६ स्थान “थाउजेंड्ज" | तुर्दशम २० स्थान 'ब्रह्मसङ्ख' के, पञ्चद(Thousands) के हैं, दूसरे ६ स्थान
शम२० स्थान'महाब्रह्मसाके, इत्यादि। 'मिलयन्ज' ( Millions ) के, तीसरे ६ इस 'उत्संख्यक' इकाई दहाई में पहिले स्थान 'बिलियन्ज' (Billions) के,चौथे ६ 'परार्द्ध' के २० स्थानों से २० अङ्क प्रमाण स्थान ट्रिलियन्ता'(Trillions) के, इत्यादि संख्या की गणना, दूसरे 'सङ्ख' के २० हैं । इसी प्रकार 'उत्संख्यक' इकाई दहाई
स्थानों से४० अङ्कप्रमाण संख्या की गणना के प्रथम २० स्थान 'परार्द्ध' के, द्वितीय तीसरे ‘महासङ्ख' के २० स्थानों से ६० २० स्थान 'संख्य' के, तृतीय २० स्थान अङ्क प्रमाण, चौथे 'महामहासङ्ख' के 'महासंख्य' के, चतुर्थ २० स्थान 'महामहा- २०स्थानों से८०अङ्क प्रमाण, पांचवें महान संख्य'के, पञ्चम २० स्थान 'महानसंख्य' | सङ्ख' के २० स्थानों से १०० अङ्क प्रमाण, के, षष्ठम २० स्थान 'महामहानसंख्य के, छठे 'महा महानस' के २० स्थानों से
(२) प्रथमः परिकर्म व्यवहार ( Arithmetical Operations )-इसमें प्रत्युत्पन्न, भागहार, वर्ग, वर्गमूल आदि ८ विभाग ११५ श्लोकों में हैं। * (३) द्वितीयः कलासवर्ण व्यवहार ( भिन्न परिकर्म Fractions)-इसमें भिन्न प्रत्युत्पन्न आदि ११ प्रकरण १४० श्लोकों में है ॥
(४) तृतीयः प्रकीर्णकव्यवहार [Miscellaneous Problems on fractions &c.]इसमें भागजाति, शेषजाति, मूलजाति, शेषमूलजाति, द्विरप्रशेषमूलजाति, आदि नव प्रकरण ७२ श्लोकों में हैं।
(५) चतुर्थः त्रैराशिक व्यवहार ( Rule of Three )-इसमें त्रैराशिक,व्यस्त त्रैपंचसप्तनवराशिक, गतिनिवृति, और पंचसप्तनवराशिकोद्देशक, यह ४ प्रकरण ४३ श्लोकोंमें हैं।
(६) पंचमः मिश्रकन्यवहार (Mixed Problems &c.)--इस में संक्रमणसूत्र, पंचराशिकवधि, दृद्धिविधान, प्रक्षेपकुट्टीकार, आदि १० प्रकरण ३३७॥ श्लोकों में हैं।
(७) षष्टः क्षेत्रगणितव्यवहार ( Measurement of Areas &c.)-इसमें व्यवहारिक गणित, सक्षमगणित, जन्यव्यवहार, और पैशाचिक व्यवहार, यह ४ प्रकरण २३२॥ श्लोकोंमें हैं।
(E) सप्तमः खातव्यवहार (Calculations regarding excavations.)-इसमें खातगणित, चितिगणित, और क्रकचिकाव्यवहार, यह ३ प्रकरण ६८॥ इलोकों में हैं।
(8) अष्टमः छायाव्यवहार ( Calculations relating to Shadows.)--इसमें एक प्रकरण ५२॥ श्लोकों में वर्णित है। इस प्रकार इस महान गणितग्रन्थ में सर्व ११३१ श्लोक अनुष्टप आदि कई प्रकार के छन्दों में हैं।
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( ८ह )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कगणना
१२० अङ्क प्रमाण संख्या की गणना बड़ीसुगमतासे की जा सकती है; इत्यादि बीस २ स्थान आगे को बढ़ते हुए सातवें, आठवें, नवें, दशवें आदि उपयुक्त बीस बीस स्थानों से कम से १४०,१६०, १८०, २०० इत्यादि अङ्कप्रमाण संख्या की गणना हो सकती है । इसकी इकाई दहाई निम्न लिखित है:
--
एक, दश, शत, सहस्र, दशसहस्र, लक्ष, दशलक्ष, कोटि, दशकोटि, अर्बुद, दशअबुद, खर्व, दशखर्व, नियल, दशनियल, पद्म, दशपद्म, परार्द्ध, दशपरार्द्ध, शतपरार्द्ध शङ्ख, दशशङ्ख, शतशङ्ख, सहस्त्रशङ्ख, दशसहस्रशङ्ख, लक्षशंख, दशलक्षसंख, कोटिशङ्ख, दशकोटिशङ्ख क. अबु दशंख, दशअबु दशंख, खर्व शङ्ख, दश वर्वशङ्ख, मियल शंख, दशनियलशंख. पद्मशङ्ख, दशपद्मशंख, परार्द्ध शङ्ख, दशपरार्द्धशंत्र, शत परार्द्धशंख; महाशङ्ख, दशमहाशङ्ख, शतमहाशङ्ख, सहस्रमहाशङ्ख, दश. सहस्रमहाशंव, लक्षमहाशंख, दशलक्षमहाशङ्ख कोटिमहाशङ्ख, दशकोटिमहाशङ्ख, अर्बुद महाशङ्ख, दशअबु दमहाशङ्ख, खर्व महाशङ्ख, दशवर्षमहाशङ्ख, नियलमहाशङ्ख. दशनियल महाशङ्ख, पद्ममहाशङ्ख, दशपद्ममहाशङ्ख, परार्द्धमहाशङ्ख, दशपरार्द्धमहा शङ्ख. शतपरार्द्ध महाशङ्खः महामहाशङ्ख, दशमहामहाशङ्ख, शतमहामहाशङ्ख, सहस्रमहामहाशङ्ख, दशसहस्रमहामहाशङ्ख, ल
क्षमहामहाशङ्ख, दशलक्षमहामहाशङ्ख, कोटि | ६६०४६६ ( ७६ अङ्क प्रमाण ) है |
महामहाशङ्ख, दशकोटिमहामहाशङ्ख, अबुदमहामहाशङ्ख, दशअबु दमहामहाशङ्ख, खर्वमहामहाशङ्ख, दशखर्वमहामहाशङ्ख, निय लमहामहाशङ्ख, दशनियलमहामहाशङ्ख, पद्ममहामहाशङ्ख, दशपद्ममहामहाशङ्ख, परार्द्धमहामहाशङ्ख, दशपरार्द्धमहामहाशंख, शतपरार्द्ध महामहाशंख; इत्यादि ॥
अङ्कगणना
इसी प्रकार अब महानशंख शब्द लिख कर आगे को इसके पूर्व दश, शत, सहस्र, दशसहस्र, लक्ष, दशलक्ष आदि शतपराद्ध तक के शब्द जोड़ देने से १०० अङ्क प्रमाण इकाई दहाई बन जायगी; फिर इसी प्रकार महामहानशंख शब्द लिखकर आगे को इसके पूर्व भी दश, शत, सहसू आदि शब्द जोड़ देने से १२० अङ्क प्रमाण, और फिर 'महानमहानशंख', 'परमशङ्ख', 'महापरमशङ्ख' आदि उपर्युक्त शब्दों के पूर्व भी वही दश, शत, सहस्रादि शब्द जोड़ते जाने से १४०, १६०, १८०, २००, २२०, इत्यादि अङ्क प्रमाण इकाई दहाई बड़ी सुगमता से लिखी जा सकती है और छोटी बड़ी सर्व प्रकार की संख्याओं या उत्संख्याओंका उवारण इस इकाई दहाई की सहायता से बड़ी सुगम रीति से किया जा सकता है ॥
उदाहरण के लिये निम्न लिखित "श्री ऋषभनिर्वाण सम्वत्" की ७६ अङ्क प्रमाण संख्या को इसी इकाई दहाई द्वारा पढ़ने या उच्चारण करनेकी रीति नीचे लिखी जाती है:
आज आश्विन मास विक्रम सम्वत् १९८१ और वीरनिर्वाण सम्वत् २४६६ में श्री ऋषभ निर्वाण संवत् ४१३४५२६३०३०८ २०३१७७७४६५१२१६१६६६६६६६६६६६६६६ EEEEEEEE६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६६
४ पद्म, १३ नियल, ४५ खर्व, २६ अर्बुद, ३० कोटि, ३० लक्ष, ८२ सहस्र और ०३१ 'महामहाशंख'; ७७७ परार्द्ध, ४६पद्म, ५१ नियल, २१ खर्व ६१ अर्बुद, ६६ कोटि, ९९ लक्ष, ९९ सहस्र, और ९९९ 'महाशंख', ९९९ परार्द्ध, ९९ पद्म, ६६ नियल, ९९ खर्च ६६
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(
80
)
सकता है।
अङ्कगणना कलम वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कगणना अर्बुद, ६ कोटि,९९सहस्र और ९९९ “शंख"; | का भाग देने अथवा एक को एक में गुणन REE परार्द्ध, ९९ पन्न, ६8 नियल, ६६ खर्व, | करने से कुछ भी हानि वृद्धि नहीं होती। ६६ अर्बुद, ९९ कोटि, ९९ लक्ष, ६० सहस्र | इस लिये अलौकिकगणना में संख्या का भौर ४६९॥
प्रारम्भ २ के अङ्क से ग्रहण किया जाता इस रीति से सर्व प्रकार की छोटी बड़ी | है । और १ के अङ्क को गणना शब्द का संख्याओं या उत्संख्याओं को गिना पढ़ा जा वावक माना जाता है। इस लिये जघन्य
संख्यात का अङ्क २ है॥ इस प्रकार “लौकिकअङ्कगणना" तो । (२) मध्यमसंख्यात–३, ४, ५, ६७, यथाआवश्यक अनेक प्रकार की कुछ नि- ८.६, १०, ११ इत्यादि एक कम उत्कृष्ट यत स्थानों तक रची गई है । परन्तु दूसरी संख्यात पर्यंत ॥ "लोकोत्तरअङ्कगणना" दो से अनन्तानन्त (३) उत्कृष्टसंख्यात-जघन्यपरीतातक अनन्तानन्त अङ्क प्रमाण है। | संख्यात से एक कम ॥
इस "लोकोत्तरअङ्कगणना'' के निम्न | (४) जघन्यपरीतासंख्यात-यद्यपि लिखित २१ विभाग है:
यह संख्या इतनी अधिक बड़ी है कि इसे [१] संख्यात ३ भेद-१जघन्यसंख्यात, | अङ्कों द्वारा लिख कर बताना तो नितान्त
२मध्यसंख्यात, ३उत्कृष्टसंख्यात; अशक्य है ( केवल अनेन्द्रिय ज्ञानगम्य है) 27 असंख्यात ९भेद-४जघन्यपरीतासं-| परन्तु तो भी इसका परिमाण हृदयाङ्कित
ख्यात, ५मध्यपरीतासंख्यात, उत्कृष्ट करने के लिये गणधरादि महाऋषियों परीतासंख्यात, जघन्ययुक्तासंख्यात, | ने जो एक कल्पित उपाय बताया है वह ८मध्ययुक्तासंख्यात, ९उत्कृष्टयुक्तासं- निम्न लिखित है जिसे भले प्रकार समझ ख्यात, १०जघन्यअसंख्यातासंख्यात, | कर हृदयाङ्कित कर लेने से अलौकिक ११मध्यअसंख्यातासंख्यात, १२उत्कृष्ट- | अङ्कगणना के शेष २० भेदों या विभागों असंख्यातासंख्यात;
को समझ लेना सुगम है:-- [३] अनन्त ६ भेद-१३जघन्यपरीतानन्त, कल्पना कीजियेकि (१)अन
१४मध्यपरीतानन्त, १५उत्कृष्टपरीतानन्त, वस्था (२) शलाका (३)प्रति१६जघन्ययुक्तानन्त, १७मध्ययुक्तानन्त,
शलाका और (४) महा१८उत्कृष्टयुक्तानन्त, १६जघन्यअनन्ता
शलाका नाम के चार गोल कुंड हैं नन्त, २०मध्यअनन्तानन्त, २१उत्कृष्ट
जिन में से प्रत्येक का व्यास ( गोल अनन्तानन्त॥
वस्तु की एक तट से दूसरे तट तक नोट १-लोकोत्तरअङ्कगणना के इन
की लम्बाई या चौड़ाई ) एक लक्षजघन्यसंख्यात आदि २१ विभागों या भेदों
महायोजन (४ कोश का १ योजन का स्वरूप निम्न प्रकार है:
और ५०० योजन या २००० क्रोश (१) जघन्यसंख्यात-एक में एक
का प्रमाण योजन या महायोजन),
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( १ ) अङ्कगणना वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कगणना और गहराई एक सहसू महायोजन द्वीप एक दूसरे की चारों ओर वलहै। इनमें से पहिले अनवस्थाकुंड को याकार स्थित मिन्ती में असंख्यात हैं। गोल सरसों के दानों से शिखाऊ
स्मरण रहे कि किसी द्वीप या ( पृथ्वी पर की अन्नराशि के समान समुद्र की परिधि ( गोलाई ) के एक शिखा बांध कर )भरें। गणितशास्त्र तट से दूसरे ठीक साम्हने की दिशा के नियमानुकूल हिसाब लगाने से के तट तक की चौड़ाई को "सूची" इस अनवस्थाकुंड में १६६७११२९३- कहते हैं । अतः. "जम्बूद्वीप" की ८४५१३१६३६३६३६३६३६३६३६३६- सूची तो उसका व्यास ही है जो एक ३६३६३६३६३६३६३६ (४६ अङ्कप्र- लक्ष महायोजन है और "लवणमाण ) सरसों के दाने समावेंगे। समुद्र" की सूची ५ लक्ष महा( गणितशास्त्रानुकूल इस संख्या को . योजन है। दूसरे द्वीप "धातकीखंड" निकालने की विधि जानने के लिये की सूची १३ लक्ष महायोजन की, देखो शब्द "अनवस्थाकुंड'' ).
दूसरे समुद्र “कालोद्ध” की सूची अब इस सरसोको क्या किया . २९ लक्ष महा योजनकी, तीसरे द्वीप जाय यह बताने से पहले यह बात "पुष्कर'' की सूची ६१ लक्ष महाध्यान में रख लीजिये कि तीनलोक योजनकी और तीसरे समुद्र “पुष्करके मध्य भाग को नाय "मध्यलोक" वर" की सूची १२५ लक्ष महायोजन है, और इस मध्यलोक के बीचों की है । इसी प्रकार अगले २ प्रत्येक बीच एक लक्ष महायोजन. के व्यास द्वीप या समुद्र की सूची अपने ३ पूर्व का स्थालीवत गोलाकार एक"जम्बू- . के समुद्र याद्वीप की सूची से ३ लक्ष द्वीप" है । इस द्वीप की चारों ओर
अधिक दूनी होती गई है। अतः अब बलयाकार ( कड़े के आकार ) दो यह भी भले प्रकार ध्यान में रखिये लक्ष महायोजन चौड़ा "लवणसमुद्र' कि जब गणित करनेसे 'पहिले द्वीप' है । इस लवणसमुद्र की चारों ओर की सूची केवल एक लक्ष होने पर ४ कक्ष महायोजन चौड़ा बलयाकार तीसरे ही द्वीप को सूची ६१ लक्ष दूसरा “धातकीखंडद्वीप” है। इस
और तीसरे समुद्रकी सूची १२५लक्ष द्वीप की चारों ओर वलयाकार ८
महायोजन की हो जाती है तो सैकलक्ष महायोजन चौड़ा दूसरा “का
डों, सहस्रों,लो, सङ्खों या असंखों लोदकसमुद्र" और इस समुद्र की
द्वीप समुद्र आगे बढ़कर उनकी सूची चारों ओर वलयाकार १६ लक्ष महा
प्रत्येक बार दूनी दूनी से भी अधिक योजन चौड़ा तीसरा "पुष्करद्वीप"
बढ़ती जाने से कितनी अधिक बड़ी है। इसी प्रकार आगे आगे को द्वीप
होजायगी॥ से दूना चौड़ा अगला समुद्र और
अब उपयुक्त दूसरे कुंड - फिर समुद्र से दूना चौड़ा अगला "शलाका"नामक में अन्य एक दाना
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( ६२ )
अङ्कमाणना वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कगणना सरसों का डाल कर 'अनवस्थाकुंड' समान व्यास वाला १००० महामें शिखाऊ भरी हुई उपरोक्त ४६ योजन गहरा अब “तीसरा · अनव. अङ्कप्रमाण सरसों में से एक दाना स्थाकंड" बना कर इसे भी पूर्ववत् सम्बद्धोप में, एक दाना 'लवण
सरसों से शिखाऊ भरिये और उपसमुद्र' में, एक दाना दूसरे"धातकी
रोक्त "शलाकाकुंड' में फिर एक खण्डद्वीप" में, एक दाना दूसरे “का
अन्य तीसरा दाना सरसों का डाल लोदक” समुद्र में डालिये और इसी
कर और तीसरे "अनवस्थाकुंड" प्रकार अगले २ द्वीपों और समुद्रों की सरसों भी निकाल कर अगले में से प्रत्येक में वहां तक एक २ दाना अगले प्रत्येक द्वीप और समुद्र में डालते जाइये जहां तक कि वह पूर्ववत् एक एक सरसों डालते "अनवस्थाकुंड'' रीता हो जाय । जाइये। सरसों का अन्तिम दाना किसो
जिस समुद्र या द्वीप पर यह समुद्र में (न कि जीप में ) गिराया सरसों भी समाप्त हो जाय उस सजायगा, क्योंकि सरसों की संख्या मुद्र या द्वीप की सूची बराबर व्यास का अङ्क 'सम' है 'विषम' नहीं ॥
वाला १००० महायोजन गहरा जिस अन्त के समुद्र में अन्तिम “चौथा अनवस्थाकुंड” फिर सदाना गिराया जाय, उस समुद्र की रसों से शिखाऊ भर कर एक अन्य सूची बरावर व्यास वाला १००० 'चोथादाना' सरसों का उपरोक्त महायोजन गहरा अब 'दूसरा अ- "शलाकाकुंड' में डालिये और पूर्व नवस्थाकुंड' बनाइये और उसे भी वत् इस चौथे 'अनवस्थाकुंड' को पूर्वोक्त प्रकार शिखाऊ सरसों से रीता कर दीजिये ॥ भरिये। अब एक और दूसरा दाना
पूर्वोक्त प्रकार एक से एक असरसों का उपरोक्त शलाकाकंड गला अगला संखों गुना अधिक २ में डाल कर इस दूसरे "अनवस्था- बड़ा नवीन नवीन "अनवस्थाकुंड" कुंड" में शिखाऊ भरी हुई सरसों बना बना कर और सरसों से शिको भी निकाल कर जिस समुद्र में खाऊ भर भर कर रीते करते जाइये पहिले "अनवस्थाकुंड' की सरसों और प्रतिवार "शलाकाकुंड" में समाप्त हुई थी उससे अगले द्वीप से एक एक सरसों छोड़ते जाइये जब प्रारम्भ करके एक एक सरसों प्रत्येक तक कि "शलाकाकुंड" भी एक एक द्वीप और समुद्र में पूर्ववत आगे सरसों पड़ कर शिखाऊ न भरे । आगे को डालते जाइये॥
इस रीति से जब "शलाकाकुंड" जिस समुद्र या द्वीप पर शिखाऊ पूर्ण भर जाय तब एक सरपहुँच कर यह सरसों भी समाप्त हो
सो तीसरेकंड 'प्रतिशलाका'नामक जाय उस समुद्र या द्वीप की सूची । में डालिये ॥
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( ६३ ) अङ्कगणना वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कगणना पूर्वोक्त प्रकार प्रत्येक अगले (७) जघन्ययुक्तासंख्यात-इस संख्या अगले अधिक २ बड़े अनवस्थाकुंड को का परिमाण जानने के लिये पहिले 'बल' | सरसों से भर भर कर रीता करते शब्द का निम्नलिखित अर्थ गणित शास्त्र समय एक एक सरसों अब 'दूसरे की परिभाषा में जान लैना आवश्यक है; नवीन उतनेही बड़े 'शलाकाकुंड' में 'बल' शब्द के लिये दूसरा पारिभाषिक शब्द फिर बार बार डालते जाइये । जब 'घात' भी हैं:फिर यह दूसरा शलाकाकुंड भी किसी अङ्क को २ जगह रख कर शिखाऊ भर जाय तब दूसरा दाना . परस्पर गुणन करने को उस अङ्क का सरसों का 'प्रतिशलाका' कुंड में 'द्वितीयबल' या उस अङ्क का 'वर्ग' डालिये। इसी प्रकार करते २ जब कहते है, ३ जगह रख कर परस्पर गुणन "प्रतिशलाकाकुंड" भी भर जाय करने को उस अङ्क का 'तृतीयबल' या तब एक सरसों चौथे कुंड ‘महाश- 'घन' कहते हैं, इसी प्रकार ४ जगह रख लाका' नामक में डालिये ॥
कर परस्पर गुणन करने को 'चतुर्थबल' . जिस क्रम से एक बार प्रति- ५ जगह रख कर परस्पर गुणन करने को शलाकाकुंड भरा गया है उसी कूम 'पञ्चमबल' कहते हैं, इत्यादि............. ॥ से जब दूसरा उतना ही बड़ा प्रति
जैसे २ को २ जगह रख कर परस्पर शलाकाकुंड भी भर जाय तब 'दूस- गुणन किया तो (२४२=४) ४ प्राप्त . रा दाना सरसों' का 'महाशलाका' हुआ अतः २ को द्वितीय बल ४ है। इसी कुंड में डालिये । इसी प्रकार जब
प्रकार २ का तृतीय बल २x२x२=4 एक एक सरसों पड़ कर महाश
है; २ का चतुर्थ बल २x२x२x२= १६ लाकाकुंड भी शिखाऊ भर जाय ।
है; २ का पञ्चम बल २x२x२x२x२ तष सर्व से बड़े अन्तिम अनवस्था
= ३२ है, इत्यादि । इसी प्रकार ३ का कुंड में जितनी सरसो समाई उसके
द्वितीयबल ३४३%D६; तृतीयबल ३४३ दानों की संख्या की बराबर "जघ
४३=२७, चतुर्थबल ३४३४ ३४३= न्यपरीतासंख्यात" का प्रमाण है ॥
८१, पञ्चमबल ३४३४३४३४३=२४३ - (त्रि. गा. २८-३५ ) ॥
| इत्यादि ॥ (५) मध्यपरीतासंख्यातं-जघन्यप- अङ्कसंदृष्टि में इसे इस प्रकार लिखते रीतासंख्यात से १ अधिक से लेकर उत्कृ- हैं कि मूलअङ्क के ऊपर कुछ सीधे हाथ ष्टपरीतासंख्यात से १ कम तक की संख्या की ओर को हट कर 'बल' सूचक अङ्क रग्व की जितनी संख्यायें हैं वे सर्व ही 'मध्यप- | देते हैं। जैसे २ का द्वितीयबल, तृतीयरीतासंख्यात' की संख्यायें हैं।
बल, चतुर्थबल, पञ्चमबल इत्यादि को (६) उत्कृष्टपरीतासंख्यात-"जघ- | क्रम से २२,२३,२०,२५, इत्यादि; और न्ययुक्तासंख्यात" की संख्या से १ कम ॥ ३ के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पञ्चमबल
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( ६४ ) अङ्कगणना वृहत् जैन शब्दाणव
अङ्कगणना इत्यादि को क्रम से ३२.३३,३४:३५. १०००००१००००० = १ के अङ्क पर इत्यादि।
५००000 शून्य अर्थात् ५0000१ पाँच उपयुक्त नियमानुकूल,
लक्ष एक अङ्क प्रमाण, इत्यादि ॥ २२=२x२= ४ (एक अङ्क प्रमाण)
उपयुक्त उदाहरणों में प्रत्येक अङ्क
का 'बल' उसी अङ्क प्रमाण लिया गया है। ३३ = ३ ४ ३ ४ ३= २७ ( दो अङ्कप्रमाण)
इन उदाहरणों पर साधारण ही दृष्टी डालने ४=४४४४४४४ = २५६ ( तीन अङ्क से यह भी प्रकट है कि प्रत्येक अङ्कः के उसी प्रमाण)।
अङ्क प्रमाण 'बल' की संख्या आगे २ को ५५=५४५४५४५४५= ३१:५(चार | कितनी २ अधिक बढ़ती जाती है. यहां तक अङ्क प्रमाण)।
कि केवल १०००00 (एक लाख ) ही का ६६=६४६४६४६४६४६=४६६५६ उसी प्रमाण 'बल' ५००००१ ( पाँच लाख (५ अङ्कप्रमाण)।
एक ) अङ्क प्रमाण हो जाता है, अर्थात् १०१० = १०x१० x १०x१०४ १०x | उपर्युक्त उदाहरणों की अन्तिम संख्या इतनी
अधिक बड़ी है कि उसे लिखने में १ के अङ्क १०x१०x१०x१०x१०=१००0000 ०००० (११ अङ्क प्रमाण)।
पर पाँच लाख शून्य रखने होंगे जो बहुत २०२० = १०४८५७६०००००००००००००
महीन महीन बनाने पर भी लग भग 'आई
मोल लम्बी जगह में समावेंगे॥ . ००००००० (२७ अङ्क प्रमाण)।
उपयुक्त रीति से 'बल' शब्द क १००१०० =१०००००००००००००००००
अर्थ और उसका बल ( शक्ति ) भले प्रकार हृदयाङ्कित कर लेने पर अब जघन्ययुक्ता
संख्यात की महान संख्या जो निम्नलिखित ००००००००००००००००००००००००००
प्रमाण है उसके महत्व की कुछ झलक हृदय
पर पड़ सकती है:००००००००००००००००००००००००००
जघन्य परीतासंख्यात की संख्या | 0000000000000000000000000000
का जघन्य परीता संख्यातकी संख्या प्रमाण (१ के अङ्क पर २०० शून्य अर्थात् २०१
अथात् २०१ बल = जघन्ययुक्तासंख्यात, जिसका अर्थ यह | अङ्कप्रमाण)।
है कि उपयुक्त 'जघन्यपरीतासंख्यात की | १०००१००० = १ के अङ्क पर ३०००
महानसंख्या' का 'जघन्यपरीतासंख्यात की। शून्य अर्थात् ३००१ तीन हजार एक अङ्क
संख्या' प्रमाण ही 'वल' लैने से (अर्थात् || प्रमाण ।
जघन्यपरीतासंख्यात की महान संख्या को १००००१०००० = १के अङ्क पर ४०००० | जघन्यपरीता संख्यात जगह अलग अलग| शून्य अर्थात् ४०००१ चालीस हज़ार |
| रखकर फिर परस्पर सब को गुणन किया। एक अङ्क प्रमाण ।
। जावे ) जो महामहानसंख्या प्राप्त होगी वह।
००००००००००००००००००००००००००
००००००००००००००००००००००००००
०००००, ००००००००००००००००००००
००००००००००००००००००००००००००
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( ५ ) अङ्कगणना वृहत् जेन शब्दार्णव
अङ्कगणना 'जघन्ययुक्तासंख्यात' की संख्या है। इस द्वितीय उत्तर प्रमाण फिर बल लें ।
(त्रि० गा० ३६)॥ इसी प्रकार प्रत्येक नवीन नवीन उत्तर नोट-इस जघन्ययुक्तासंख्यात ही की संख्याओं का उसी उसी प्रमाण बल को "आवली" भी कहते हैं, क्योंकि एक | इतनी बार लें जितनी 'जघन्यअसंख्याताआवली प्रमाण काल में जघन्य युक्तासंख्यात | संख्यात' की संख्या है। की संख्या प्रमाण समय होते हैं ।
इस प्रकार जो अन्तिम संख्या प्राप्त ( त्रि० गा० ३७)॥ | होगी वह अभी "असंख्यातासंख्यात' की (८) मध्य युक्तासंख्यात-'जघ- एक मध्यम संख्या ही है। अब 'असंख्यातान्ययुक्तासंख्यात की संख्या' से एक संख्यात' की इस मध्यम संख्या का इसी 'अधिक से लेकर 'उत्कृष्ट युक्तासंख्यात' की संख्या प्रमाण फिर 'बल' ले उत्तर में जो संख्या से १ कम तक की संख्या की जितनी
संख्या प्राप्त हो उसका इस उत्तर प्रमाण फिर संख्याएँ हैं वे सर्व मध्ययुक्तासंण्यांत की
बल लें । इसी प्रकार प्रत्येक नवीन नवीन संख्याएं हैं ॥
उत्तर की संख्या का उसी उसी प्रमाण बल (६) उत्कृष्ट युक्तासंख्यात–'जघन्य
इतनी बार लें जितनी उपयुक्त "मध्यमअ. असंख्यातासंख्यात' की संख्या से एक कम ॥
संख्यातासंख्यात" की संख्या है ॥ (१०) जघन्य अप्संख्यातासंख्यात- इस प्रकार कर चुकने पर जो अन्तिम (जघन्ययुक्तासंख्यात), अर्थात् 'जघन्ययुक्तासं
उत्तर प्राप्त होगा वह भी "मध्यमअसंख्याता
संख्यात" ही का एक भेद है । इस अन्तिम ख्यात' का 'द्वितीय बल या वर्ग' जो जघन्य
संख्या का फिर इस अन्तिम संख्या प्रमाण युक्तासंख्यात को 'जघन्ययकासंख्यात' ही में
ही 'चल' लें। और उपयुक्त रीति से हर नगुणन कर लेने से प्राप्त होता है ।।
वीन २ उत्तर का उसी २ प्रमाण इतनी बार (त्रि० गा० ३७)॥
बल लें जितनी द्वितीय चार प्राप्त हुई उपर्युक्त (११) मध्य असंख्यातासंख्यात--
"मध्यमअसंख्यातासंख्यात" की संख्या है। 'जघन्यअसंख्यातासंख्यात' से एक अधिक से
इस रीति से ३ बार उपयुक्त क्रिया लेकर “उत्कृष्ठअसंख्यातासंख्यात" से १ कम
कर चुकने पर भी जो अन्तिम संख्या प्राप्त तक की जितना संख्याएँ हैं वे सर्व ॥
होगी वह भी “मध्यमअसंख्यातासंख्यात" (१२) उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात
हो का एक भेद है । इस कूमानुसार तीन "जघन्य परीतानन्त" की संख्या से १ कम ॥
बार किये हुए गुणन विधान को “शला(१३) जघन्यपरीतानन्त--'जघन्यअ
कात्रयनिष्ठापन" कहते हैं । संख्यातासंख्यात' की उपयुक्त संख्या का
उपर्युक "शलाकोत्रयनिष्ठापन" वि'जघन्यअसंख्यातासंख्यात' की संख्या प्रमाण | धान से जो अन्तिमराशि प्राप्त हुई उसमें । 'बल' ल । उत्तर में जो संख्या प्राप्त हो नीचे लिखी छह राशियां और जोड़:-- उसका उसी उत्तर प्रमाण फिर "बल" | (१) लोकप्रमाण "धर्मद्रव्य" के असं लें । उत्तर में जो संख्या प्राप्त हो उस का | ख्यात प्रदेश,
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(१६ ) अङ्कगणना वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्क गणना (२) लोकप्रमाण "अधर्म द्रव्य" के | फल का फिर उपयुक्त विधि से"शलाकोत्रयअसंख्यात प्रदेश,
निष्ठापन" करें। उत्तर में जो अन्तिम 'महान(३) लोकप्रमाण एक "जीव द्रव्य" | राशि' प्राप्त होगी वही 'जघन्यपरीतानन्त' के असंख्यात प्रदेश,
| की संख्या है ॥ . (४) लोकप्रमाण "लोकाकाश"के असं
(त्रि० गा० ३८-४५) ॥ ख्यात प्रदेश,
(१४) मध्यपरीतानंत-अघन्य परीतानन्त (५) लोक से असंख्यातगुणा "अप्रति- से १ अधिक से लेकर 'उत्कृष्टपरीतानन्त' से ष्ठित प्रत्येकवनस्पतिकायिक जीवों' का १ कम तक की जितनी संख्यायें हैं वे सर्व ॥ प्रमाण,
(१५) उत्कृष्टपरीतानन्त-'जघन्ययुक्ता(६) असंख्यात लोक से असंख्यात
ति नन्त' की संख्या से १ कम ॥ लोक गुणा (सामान्यपने असंख्यात लोक
(१६) जघन्ययुक्तानन्त-(जघन्यपरीप्रमाण प्रतिष्ठत प्रत्येकवनस्पतिकायिक जीवों का प्रमाण,
तानन्त ) जघन्यपरीतानन्त,अर्थात् 'जघन्यइन सातों राशियों का जो कुछ जोड़
परीतानन्त' की संख्या का 'जघन्यपरीतानन्त' फल प्राप्त हो उस महाराशि का "शलाका
की संख्या प्रमाण बल (जघन्यपरीतामन्त प्रय निष्ठापन" उसी रीति से करें जिस प्रकार
की संख्या को जघन्यपरीतानन्त जगह अलग कि"जधन्यअसंख्यातासंख्यात" की संख्या का
अलग रख कर सर्व को परस्पर गुणन करें )। पहिले किया जा चुका है । तत्पश्चात इस
(त्रि० गा०४६॥ महाराशि में निम्न लिखित चार रशियां और
नोट-सर्व अभव्य जीवों की संख्या मिलावें:
| 'जघन्ययुक्तानन्त' प्रमाण है ॥ (१) २० कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण |
(त्रि. गा.४६)॥ एक "कल्पकाल" के समयों की संख्या,
__ (१७) मध्ययक्तानंत—'जघन्ययुक्तानन्त' (२) असंख्यात लोकप्रमाण "स्थिति- ।
| से १ अधिक से लेकर 'उत्कृष्टयुक्तानन्त' से १ वन्धाध्यवसाय स्थान" ( कर्म स्थितिवन्ध को |
कम तक की जितनी संख्यायें हैं वे सर्व ।।। कारणभूत आत्म-परिणाम ), (३) 'स्थिति बन्धाध्यवसाय' से असं
(१८)उत्कृष्टयक्तानंत-जघन्य अनन्ताख्यातगुणे ( सामान्यपने असंख्यात लोक
| नन्त' की संख्या से १ कम ॥ प्रमाण ) "अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान"
(१६) जघन्य अनंतानंत-( जघन्ययु(अनुभागबन्ध को कारण आत्म-परिणाम ),
तानन्त),अर्थात् 'जघन्ययुक्तानन्त' का वर्ग (४) अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान से
या द्वितीय बल (जघन्ययुक्तानन्त को जघन्य असंख्यातगुणे (सामान्यपने असंख्यातलोक
युक्तानन्त से गुणन करें)॥ प्रमाण ) मन-वचन-काय योगों के उत्कृष्ट अ
(त्रि. गा.४७)॥ विभाग-प्रतिच्छेद (गुणों के अंश)॥
(२०)मध्यअनन्तानन्त-'जघन्यअनं. इन पाँचों महान-राशियों के जोड़ तानन्त' से १ अधिक से लेकर 'उत्कृष्टअनन्ता
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(६७) अङ्कगणना वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कगणना नन्त' से १ कम तक की सर्व संख्याएँ॥
(१) धर्मद्रव्य के अगरुलघ गण के (२१) उत्कृष्ट अनन्तानन्त--'जघन्य अनन्तानन्त अविभागी प्रतिच्छेद, . अनन्तानन्त' कीसंख्या का उपयुक्त विधि से | (२) अधर्मद्रव्य के अगुरुलघु गुण के | 'शलाकात्रयनिष्ठापन'करें । ऐसा करने से जो अनन्तानन्त अविभागी प्रतिच्छेद ॥ एक महाराशि प्रात होगो वह 'मध्यअनन्ता इस योगफल का फिर 'शलाकात्रयनन्त' के अनन्तानन्त भेदों में से एक भेद है ॥ निष्ठापन' पूर्वोक्त विधि से करें । प्राप्त हुई यहां तक के मध्यअनन्तानन्त' को |
यह महाराशि भी 'मध्यअनन्तानन्त' 'सक्षाअनन्त' कहते हैं । इसपे आगे निम्न के अनन्तानन्त भेदों में का ही एक भेद है। लिखित 'मध्यअन्तानन्त' के सर्व भेदो इसे 'कैवल्यज्ञान' शक्ति के अविभागप्रति
और 'उत्कृटअनन्तानन्त' को 'अक्षयअनन्त' लेदों के समर पराशि में से घटावें कहते हैं। और इस प्रकार अनन्त के उप- और शेष में वही महाराशि ( जिसे घटाया युक्त ६ भेदों की जगह दूसरी अपेक्षा से गया है ) जोडदें । जो कुछ योगफल प्राप्त हो केवल यह दो ही सामान्य भेद हैं। (देखो वही 'उत्कृष्टअनन्तानन्त' का प्रमाण है, अर्थात् शब्द 'अक्षयअनन्त' )॥
'उत्कृष्टअनन्तानन्त' का परिमाण 'कैवल्यशान' अब उपरोक्त मध्यअनन्तानन्त (उत्कृष्ट शक्ति के भविभागप्रतिच्छेदों के परिमाण की सक्ष-अनन्त ) में निम्नोक्त छह 'अक्षय- बराबर ही है। जिसका महत्व हृदयाङ्कित अनन्त' राशियाँ जोड़ें:
करने के लिये उपयुक्त विधान से काम (१) जीवराशि के अनन्तवें भाग लिया गया है ॥ सिद्धराशि,
(त्रि. गा. ४८-५१) । (२) सिद्धराशि से अनन्तगुणी नि- नोटर-उपर्युक्त अङ्कगणना सम्बन्धी गोदराशि,
संख्यात के ३ भेद, असंख्यात के ६ भेद और (३) सिद्धराशि से अनन्तगुणी सर्व अनन्त के ९ भेद, एवम् २१ भेदों में से संख्यात वनस्पतिकायिक राशि,
की गणना तो 'श्र तज्ञान' का प्रत्यक्ष विषय, (४) सर्व जीवराशि से अनन्तगुणी असंख्यात की गणना 'अवधिज्ञान' का प्रपुद्गलराशि,
त्यक्ष विषय और अनन्त की गणना केवल (५) पुदगलराशिसे भी अनन्तानन्त 'कैवल्यज्ञान' ही का युगपत प्रत्यक्ष विषय गणी व्यवहारकाल के त्रिकालवर्ती समय, (६) सर्व अलोकाकाश के अनन्ता
(त्रि. ग.५२)। नन्त प्रदेश।
नोट३-अलौकिक अङ्कगणना (संख्या • इन उपर्युक्त सातों राशियोंका योग- लोकोत्तरमान ) सम्बन्धी १४ धारा हैं ॥ फल भी 'मध्यअनन्तानन्त' का ही एक (देखो शब्द 'अङ्कविद्या' का नोट ५ ) । भेद है। इस योगफल का फिर 'शलाका- नोट ४--अङ्कगणना सम्बन्धी विशेष प्रयनिष्ठापन' पूर्वोक्त रीति से करके उसमें स्मरणीय कुछ गणनाएं निम्न लिखित हैं निम्न लिखित दो महाराशि और मिलायें:- जिन के जान लेने की अधिक आवश्यक्ता
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( १८ ) अङ्कगणना वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कगणना 'गोमदृसादि' करणानुयोग के ग्रन्थों की 000000000000000 (४५ अङ्क प्रमाण, १४ स्वाध्याय में पड़ती है:--
अङ्क और ३१ शून्य) और शिखा की सरसों (१) जिनवाणी के एक मध्यम पद के १७९९२००८४५४५१६३६३६३६३६३६३६३६३६ । अपुनरुक्त अक्षरों की संख्या १६३४८३०७८८- ३६३६३६३६३६३६३६३६ (४६अङ्क प्रमाण) हे॥ ( ग्यारह अङ्क प्रमाण ) है ।
(७) जम्बद्धःप का क्षेत्रफल ७९०५६६४ (२) चौदह प्रकीर्णक सहित द्वादशांग १५० वर्ग महायोजन ( २० अङ्कः प्रमाण ) है ॥ जिनवाणी या पूर्ण 'द्रव्यच तज्ञान' के सर्व सूचना १--किसी गोल पदार्थ की पमध्यमपद १२२८३५८००५ ( दश अङ्कप्रमाण) रिधि (गोलाई ) उसके व्यास से तृगुणी से और अपुनरुक्त अक्षर ८०१०८२७५ ( आठ- कुछ अधिक होती है । जब किसी गोल अङ्क प्रमाण ) हैं । इन में से दश अङ्कप्रमाण | पदार्थ का क्षेत्रफल जानना हो तो वहां व्यास जो पदों की संख्या है वह तो द्वादशांग की और परिधि के इस पारस्परिक सम्बन्ध संख्या है और आठ अङ्कप्रमाण जो अपुनरुक्त (अनुपात) को जानने की आवश्यक्ता पड़ती अक्षरों की संख्या है वह १४ प्रकीर्णक ( अङ्ग- है । यह पारस्परिक सम्बन्ध १:३, या वाह्य) की संख्या है जो एक पद से कम है ॥ १:३ . या १:570या १:१९. या १:३ १६ (३) सम्पूर्ण जिनवाणी ( अङ्ग और
इन पांच प्रकार से गणितज्ञों ने नियत अङ्गवाह्य ) के अपुनरुक्त अक्षरों की संख्या
किया है। इन में से पहिला अत्यन्त स्थूल है १८४४६७४४,७७३७०६५५१६१५ बीस अङ्क प्र
और इससे अगला अगला अपने पूर्व पूर्व के से माण है।
सूक्ष्म है । अन्तिम अर्थात् १:३१% अत्यन्त (७) पर्याप्त मनुप्यों की संख्या ७९,
सूक्ष्म है और १ : १० मध्यम है। जहां जैसा २२,८१,६२५:१४२,६४,३३,७५,६३,५४,३६,५०, ३३६ ( २६ अङ्कप्रमाण ) है ॥
स्थूल या सूश्म क्षेत्रफल निकालने की आव(५) पल्य के रोमों की संख्या ४१३४५;
श्यकता होती है वहां गणितज्ञ उसी स्थूल २६३०३०८२०३,१७७७४६५१२१.१२0000000
या सूदभ सम्बन्ध से यथाआवश्यक कार्य ले 00000000000 (४५ अङ्क प्रमाण, २७ अङ्क और १८ शन्य ) है ।।
यहां जम्बद्वीप का क्षेत्र फल निका(६) जघन्यपरीतासङ्ख्यात का प्रमाण
| लने में मध्यम सम्बन्ध १:१० अर्थात् १:१० जानने के लिये बनाये गये १000 महायोजन
का वर्गमूल ( ३.१६२२७७६६०१६८३७९.") गहरे और जम्बूद्वीप समान गोल १ लक्ष
से काम लिया गया है । और पल्य महायोजन प्यास वाले प्रथम 'अनवस्था
के रोमों की संख्या निकालने के लिये जो कुण्ड' की शिखाऊ भरी हुई सरसों के दानों पल्य का खातफल ( घनफल ) लिया की संख्या १६६७२१,२६३८४५१३१६,३६३६ गया ह वा ११ इस सम्बन्ध आर ३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६ (४६ / वस्था कुंड' की सरसों की संख्या निकालने अङ्कप्रमाण ) है । इस में से कुण्ड की सरसों में अत्यन्त स्थूल सम्बन्ध १:३ से ही काम ११७६१२०६२६६६६८0000000000000000 | निकाला गया है।
A
WARA
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१०२४१६८३४८७महायोजन (.३३१२२०२७६० महायोजन है।
(E ) अङ्कगणना वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कगणना सूचना २-एक 'महायोजन' ही को दो लाख महायोजन, चौड़ाई है ) क्षेत्रफल 'प्रमाणयोजन' कहते हैं और यह साधारण जम्बूद्वीप के क्षेत्रफल से २४ गुणा, अर्थात् योजन से ५०० गुणा अर्थात् २००० कोश का १८६७३६६५६६०० वर्ग महायोजन ( १२ होता है।
स्थान प्रमाण ) है और इसका धनफल (= ) सर्व वातवलयों का घनफल या ग्वातफल (पातालगत्तों को छोड़ कर ) जगतप्रतर (अर्थात् ४६ वर्गराजू) गुणित उसी के क्षेत्र फल से ५३५ गुणा अर्थात् 8
..५८३६७ ६११७४६२९०००० (१४. स्थान प्रमाण) घन । १०९७६० या लगभग ९३३१२॥ प्रमाणयोजन ) है ॥
सूचना ३-लवणसमुद्र जम्बूद्वीप (त्रि. गा. १३६,१४० )॥ की चारों ओर वलयाकार है, समभूमि की | (९) एक कल्पकाल के 'सागरों' सौध में २ लाख महायोन और तलभाग | की संख्या २० कोड़ाकोड़ी अर्थात् २०००००० में केवल १० सहस्र महायोजन चौड़ा है। 000000000 (१६ अङ्क प्रमाण, दो पद्म) है ॥
| इसको गहराई. दोनों छोरों पर मक्षिका (१०) एक कल्पकाल के 'पल्योपमों' (माखी) के पक्ष (पंख ) की मुटाई की की संख्या सागरों की संख्यासे १०कोडाकोड़ी समान और क्रम से बढ़ती हुई मध्य भाग में गुणित, अर्थात् २,000000000,000000000 ( जहां का तल भाग १० सहस्र महायोजन 000000000000 (३१ अङ्क प्रमाण, एक अङ्क चौड़ा है) एक सहस्र महायोजन है, इसके और ३० शन्य ) है ॥
मध्य में चारों दिशाओं में एक एक पाताल . (११) एक व्यवहार पल्योपम के गर्दा प्रत्येक खड़े मृदंगाकार गोल मध्यभाग वर्षों की संख्या एक पल्य के उपर्युक रोमों में १ लाख महायोजन, तली में और शिरोकी संख्या से १०० गुणित अर्थात् ४१३४५२ | | भाग में १० सहस्र महायोजन व्यास का,और ६३०३०८२०३१७७७४९५१२१९२०00000000 रत्नप्रभा पृथ्वी के पङ्कभाग तक एक लाख 00000000000 (४७ अङ्क प्रमाण, २७ अङ्क महायोजन गहरा है, चारों विदिशाओं में और २० शन्य ) है ॥
एक एक पाताल गर्त प्रत्येक खड़े मृदंगाकार (१२) एक व्यवहार सागरोपम के
गोल, मध्यभाग में १० सहस्त्र महायोजन,
तलभाग और शिरोभाग में १ सहस्र महा'वर्षों' की संख्या उपयुक्त एक व्यवहार
योजन व्यास का, और १० सहस्र महायोजन पल्योपम के वर्षों की संख्या से १० कोडाकोड़ी
गहरा है और आठों दिशा विदिशाओं के गुणित अर्थात् ४१३४५२६३०३०८२०३१७७
बीच में सवा सवा सौ पाताल गर्त प्रत्येक ७४६५१२१६२००००००००००००००००००००
खड़े मृदंगाकार गोल, मध्यभाग में १ सहस्र ००००००००००००००० (६२ अङ्कप्रमाण, २७
महायोजन, तलभाग और शिरोभाग में अङ्क और ३५ शून्य ) है ॥
१०० महायोजन व्यास का, और १ सहस्र (१३) लवणसमुद्र की उपरिस्थ महायोजन गहरा है; ( यह सर्व १००० पाताधरातल का ( समभूमि की सीध में जहां लगर्त अपनी २ गहराई के नीचले तिहाई
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( १०० )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कगणना
भाग में वायु से, उपर के तिहाई भाग में जल से, और मध्य के तिहाई भाग में जल मिश्रित पवन से भरे रहते हैं ); इस का जल समभूमि से ११ सहस्र महायोजन ऊँचा उठा रहता है जो प्रत्येक मास में शुक्ल पक्ष की पढ़िवा तिथि से जब पाताल गत की पवन ऊपर को उठने लगती है क्रम से बढ़ कर पूर्णिमा को समभूमि से १६ सहल महायोजन ऊँचा हो जाता है और फिर कृष्णपक्ष की पड़िवा से जब पाताल गत्तों की पवन नीचे को दबने लगती है क्रम से घट कर अमावस्या को समभूमि से ११ सहस्र महायोजन ऊँचा ही पूर्ववत रह जाता है । इस उठे हुये जल की चौड़ाई समभूमि की सीध पर दो लाख महा योजन है जो दोनों ओर क्रम से घटती हुई ११ सहस्र योजन की ऊँचाई पर ६९३७५ महायोजन रह जाती और शुक्लपक्ष में जब जल ऊँचा उठता है तौ यह चौड़ाई क्रम और भी कम होती हुई पूर्णिमा को १६ सहस्र योजन की ऊँचाई पर केवल १० सहलू महायोजन रह जाती है।
लवण समुद्र के २००० छोटे पातालगर्यो में से प्रत्येक गर्त्तका खातफल ३९९२३ ७५५४५७५ ( अर्थात् ३६६२३७५५४ और एक योजन के एक सरस भागों में से ५७५ (भाग ) घन महायोजन है और सर्व १००० गत्तों का खातफल ३९२२३७/५८५७५ घन महायोजन है। चार विदिशा के पाताल गत में से प्रत्येक गर्त्त का खातफल ३६६२ ३७५५४५७५ घन महायोजन और चारों का २५६६९५०२१८३०० घन महायोजन है । और चार दिशाओं के पातालगत्तों में से प्रत्येक गर्भ का खातफल ३६६२३७५५४५७
अङ्कगणना
५००० घन महायोजन और चारों का खातफल १५६६६५०२१८३००००० घन महायोजन है । इन सर्व १००८ पातालगत का मिला कर खातफल १५६८६४६४०६०७२८ ७५ ( १६ अङ्क प्रमाण ) घन महायोजन है ॥
पूर्णिमा के दिन जब कि लवणसमुद्र का जल १६००० महायोजन ऊँचा उठा होना है प्रत्येक भाग के जल का प्रमाण निम्न लिखित है:
[१] १००८ पाताल कुंडों में के बचे हुए पवन मिश्रित जल का घनफल ५१५८४ ६५४३२८७५ ( १३ अङ्क प्रमाण ) घन महा योजन ॥
[ २ ] पाताल कुंडों को छोड़ कर समभूमि तक के लवणसमुद्र के जल का घनफल ६६६११७४६२६०००० ( १४ अङ्क प्रमाण ) घन महायोजन ॥
[३] समभूमि से ११००० महायोजन ऊँचे उठे हुए जल का घनफल १४० ५५३३५६८६६३१३५ (१६ अङ्क प्रमाम ) घन महायोजन ॥
[ ४ ] ११००० महायोजन ऊँचाई से ऊपर १६००० महायोजन ऊँचाई तक के अर्थात् शुद्धपक्ष में पाताल कुंडों से निकल कर ५००० महायोजन अधिक ऊँचा उठ जाने वाले जल का घन फल १८८२५४३४१६४६८७५ ( १५ अङ्क प्रमाण ) घन महा योजन ॥
[ ५ ] सर्व पाताल कुंडों के ओर बे उठे रहने वाले सर्व जल सहित लवणसमुद्र के सम्पूर्ण जल का घनफल या खातरूल १६६८५५८१५२३६२८७५ ( १६ अङ्क प्रमाण ) घन महायोजन |
(१४) पाताल कुंडों के और समभूमि से ऊपर उठे हुए जल को छोड़ कर
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( १०१ )
अङ्कगणना वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कगणना लवणसनुद्र में के सारे जल के यदि सरसों किया गया है । के दाने की बराबर के छोटे छोटे जलविन्दु (१६) २१६ या २५६२ अर्थात् २ किये जावे तो उन की संख्या उपयुक्त नं० का १६वां बल या २२६ का द्वितीय बल या (६) में वर्णित अनवस्था कुंड की सरसों की । २५६ का वर्ग ६५५३६ है । इसे 'पणट्ठी' या संख्या १६७६१२०६२६६६६८०००००००००००
'पण्णट्ठी' कहते हैं । यह द्विरूप वर्गधारा co००००००००००००००००००
| का चौथा स्थान है । पणट्ठी का वर्ग ४२९४ णित अर्थात् उसके ५ सयभागों में से ३
९६ ७२९६ है । यह संख्या २३२ अर्थात् २ का भाग अधिक १२ गुणी २४६३६६२३७१७६५९ | ३२वाँ बल है। इसे 'वादाल' कहते हैं। यह ६८ ००००००००००००००००००००००००००० | द्विरूप वर्गवारा का पाँचवां स्थान है। वा००० (४६ स्थान प्रमाण, १६ अङ्क और ३० | दाल का वर्ग १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ शून्य ) है और यदि पाताल कुंडों के और है। यह संख्या२६४ अर्थात् २ का ६४ वां समभूमि से ऊंवे उठे हुए जल सहित उस बल है । इसे 'एकट्ठी' कहते हैं । यह द्विरूप के सम्पूर्ण जल के ऐसे ही जलबिन्दु किये. वर्गधारा का छटा स्थान है। वादाल का घन जावे तो उनकी संख्या इस उपयुक्त संख्यासे | ७९२२८१६२५,१४२६४३३७५६३५४३९५०३३६ कुछ अधिक १७ गुणी होगी॥
( २६ अङ्क प्रमाण, अर्थात् उनासी करोड़, (१५) लवणसमुद्र के सम्पूर्ण जल की बाईस लाख, इक्यासी हजार, छह सौ पचीस तोल (१००८ पाताल कुंडों के और समभूमि | महासंख; एक सौ बयालीससंख, चौंसठ से ऊँचे उठे हुये जल सहित की.) १८३४४४२ | पद्म, तेतिस पील, पिछत्तर खर्व, तिरानवे ८०४५५१६ ०५०००००००००००००००००००० | अर्व, चब्वन करोड़, उन्तालीस लाख, पचास ०० ( १६ अङ्क और २२ शन्य, सर्व ३८ स्थान | हजार, तीन सौ छतीस ) है । यह संख्या प्रमाण ) मन है ॥
२६६ अर्थात् २ का ६६वां बल (घात) है ॥ सूचना ४-एक घनफट स्थान में ३० सेर | यह संख्या अढ़ाईद्वीप के सर्व पर्याप्त मनुष्यों ६ छटाँक नदी का जल और ३१ सेर ४ | की है ॥ छटाँक समुद्री खारी जल (लवण समुद्र का नोट ५-अङ्कगणना में कोई २ संख्या जल ) आता है; एक घनहस्त प्रमाण स्थान | बड़ी अद्भुत और 'आश्चर्योत्पादक' है, जैसे में २ मन २५ सेर ७॥ छटाँक, एक घन गज़ | (१) १४२८५७; यह ऐसी संख्या है कि (बीख या कि कु ) अर्थात् एक गज़ लम्बे, जिसे २,३,४,५ या ६ में अलग अलग गुणन एक गज़ चौड़े और एक गज गहरे स्थान में करने से जो 'गुणनफल' की संख्यायें २८५७ २१ मन ३॥ सेर और इसी रीति से एक घन | १४, ४२८५७१, ५७१४२८,७१४२८५,८५७१४२, महायोजन क्षेत्र में १०८०००००००००००००० प्राप्त होती हैं उनमें से प्रत्येक में गुण्य ०००००० ( १०८ पर २० शून्य ) मन जल अर्थात् मूलसंख्या" २८५७ के ही अङ्क समाता है । यहाँ ८० तोला ( ८० रुपये भर केवल स्थान बदल कर आजाते हैं, तिस पर का एक सेर और ४० सेर का एक मन ग्रहण भी विशेष आश्चर्य जनक बात यह है कि
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अङ्कगणना वृहत् जैन शब्दाणव
अङ्कगणना प्रत्येक गुणन फल की संख्या के अङ्क अपना १८,२७,३६,४५,५४,६३, ७३, ८१, ६०, प्रत्येक कमभंग भी नहीं करते ॥
ऐसी संख्या आती है जिसके अङ्कों को जोड़ उसी मूलसंख्या को यदि ७ से गुणन लैने से मूल अङ्क ६ ही प्राप्त होता है ॥ किया जाय तो गुणनफल EEEEEE में सर्व केवल इतना ही नहीं, १० से आगे की | अङ्क: ही आजाते हैं । और यदि उपर्युक्त भी उत्कृष्ट अनन्तान तककी चाहे जिस संख्या छहों गुणनफलों में से किसी ही गुणनफल को इससे गुणे प्रत्येक अवस्था में ऐसा ही को भी ७ से गुणन करें तो भी प्रत्येक नवीन गुणनफल प्राप्त होगा जिसके सर्व अङ्कों को गुणनफल १६६६६६८,२६६६६६७.३१९९९९६, | जोड़ने से ( यदि जोड़ की संख्या १ अङ्क से ४६६६६६५,५६६६६६४.६९९९९९३, में प्रथम अधिक अङ्कों की हो तो उसके अङ्कों को भी | और अन्तिम एक एक अङ्क के अतिरिक्त शेष | फिर जोड़ जोड़ लें जब तककि अन्तिम जोड़ सर्व ही अङ्क ही आते हैं और वह प्रथम एक अङ्क की संख्या न बन जाय ) वही मूल और अन्तिम अङ्क भी प्रत्येक गुणनफल में ऐसे अङ्क प्राप्त होगा। जैसे ५२७ को ६ गुणित आते हैं जिनका जोड़ भी ही होता है । किया तौ ४७ ४३ प्राप्त हुआ, इसके अङ्कों ३,
उसी मूळ संख्या को, या उसे २,३,४,४,७,४, को जोड़ने से १८, और फिर १८ के ५.६, से गुणन करके जो उपर्युक्त गुणनफल | अङ्को ८ और १ को जोड़ने से यहीं मूल अङ्क प्राप्त हो उनमें से किसी को ८ या ९ से गुणन प्राप्त हुआ। करें तौ भी प्रत्येक नवीन गुणनफल में ऐसे ७! इसके अतिरिक्त इस अद्भुत अङ्क ९ में अङ्क आजाते हैं कि यदि उनके केवल प्रथम अन्य भी कई निम्न लिखित 'आश्चर्यजनक' और अन्तिम अङ्कों को जोड़कर इकाई के गुण हैं:स्थान पर रखदें जिससे प्रत्येक संख्या ६ अङ्क! १. यदि १२३४५६७८९, इस संख्या को प्रमाण ही हो जावे तो भी मूलसख्या (जो १ से लेकर इतकके ,अङ्कों को क्रमवार के वे ही छहों अङ्क केवल अपना स्थान रखने से बनी है) ९ से गुणें तो गुणनफल ११ बदल कर बिना क्रमभंग किये हुये पूर्व ११११११०१ में सर्व अङ्क १ ही १ आजाते हैं, वत् ज्यों के त्यों आजाते हैं ।
केवल दहाई पर शन्य आता है। उसी संख्या और यदि मूलसंख्या और ७ के गुणन को यदि ९ के दूने १८, तिगुने २७, चोगुने३६, फल EEEEEE को २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, या पचगुने ४५, छह गुने ५४,सातगुने ६३, आठ६ में से किसी अङ्क से गुणन किया जाय तो गुने ७२, या नवगुने ८१ से गुणे तो भी प्रत्येक भी केवल प्रथम और अन्तिम अङ्क को जोड़ गुणनफल में सर्व ही अङ्क २ ही २, ३ ही ३, कर रख लेने से प्रत्येक गुणनफल में ही ६४ ही ४, इत्यादि एक ही प्रकार के आते हैं के अङ्क आजाते हैं।
| और दहाई पर प्रत्येक अवस्था में शन्य ___(२) ९ का अङ्क भी उपयुक्त संख्या १४२ आता है। ८५७ से कम “आश्चात्पादक" नहीं है । इसे २.यदि ६८७६५४३२१ इस संख्या को जो २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, में से किसी पूर्व संख्या की 'विलोमसंख्या' है या के ही असे गुणन करने से प्रत्येक गुणनफल | द्विगुण, त्रिगुण, चतुरगुण, आदिमें से किसी
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( १०३.) अङ्कगणित वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्क नाथपुर से गुणें तो भी प्रत्येक गुणनफल EEEEEEE अनुमान, यह ६ भेद हैं । इन ६ भेदों में से ८८६,१७७७७७७७७७८,२६६६६६६६६६७,३५५ तृतीभेद "गणिमान" अङ्कगणित का ५५५५५५५६, इत्यादि में सर्व अङ्क= ही ८, ७ मुख्य भेद है जिसके परिकर्माष्टक, शाताही ७, ६ही ६ त्यादि एक ही से आते हैं, ज्ञातराशिक, व्यवहारगणित, दर, व्याज केवल एक प्रथम अङ्क या प्रथम और अन्तिम आदिक अनेक भेद हैं । इन में से "परिएक एक अङ्क अन्य आते हैं। यह अन्य अङ्क कर्माष्टक" सर्व अन्य भेदों का मूल है । भी प्रत्येक गुणनफल में ऐसे आते हैं जिनका इसके (१) साधारणपरिकर्माप्टक (२)मिश्रओड़ भी ही है और पहिले गुणनफल में परिकर्माष्टक (३) भिन्नपरिकर्माष्टक (४) इकाई के स्थान पर जो अङ्क आता है वह शम्यपरिकर्माष्टक (५) दशमलवपरिकर्मास्वयम् ही है। प्रत्येक गुणनफल में केवल प्टक (६) श्रेढीबद्धपरिकर्माष्टक आदि कई इतनी ही बात नहीं है कि प्रथम और अन्तिम भेद हैं जिन में से प्रत्येक के आठ२ अङ्ग (१) अङ्क ऐसे आते हैं जिनका जोड़ है किन्तु संकलन अर्थात् जोड़ या योग (२) व्यवइतनी और विशेषता है कि वे दोनों अङ्क पास कलन अर्थात् बाक़ी या अन्तर (३) गुणा पास यथाक्रम रखने से वही संख्या बन जाती (४) भाग (५) वर्ग (६) वर्गमूल (७) धन है जो प्रत्येक गुणाकार में “गुणक"संख्या है। (८) घनमूल हैं । और ज्ञाताशातगशिक यदि गुणक संख्या दो अङ्को से अधिक है अ- के त्रैराशिक, पंचराशिक, सप्तराशिक, र्थात् 88 से बड़ी है तो भी गुण्य में मध्य के | आदि कई भेद हैं । इसी प्रकार व्यवहारसमान अकों के अतिरिक्त दोनों छोरों पर जो गणित, दर और व्याज के भी (१) साधाअङ्क आगे वे भी ऐले होंगे जो या तो रण (२) मिश्र, यह दो दो भेद हैं ॥ उपरोक्त नियमबद्ध होंगे या उनका अन्तिम ___नोट-देखो शब्द “अङ्कविद्या" नोटों जोड़फल यही अङ्क होगा जो मध्य के 'समान | सहित ॥ अङ्क' हैं ( देखो शब्द "अङ्कगणित" और | अङ्कनाथपुर-दक्षिण भारत के मैसूर रा“अङ्कविद्या" नोटों सहित ) ॥
ज्यान्तर्गत मन्दगिरि स्टेशन से १४ मील अङ्कगणित-अङ्कविद्या या गणितविद्या के | पर एक "श्रवणबेलगुल" ( जैनबद्री ) ग्राम कई विभागों में से वह विभाग जिसमें है जहां इसी नाम के पर्वत पर 'श्रीवाहुशून्य सहित १ से ६ तक के मूल १० अङ्कों बलो' या गोम्मटस्वामी' की बड़ी विशाल से तथा इन ही मूलअङ्को के संयौगिक प्रतिमा ६० फिट या ४० हस्त ऊंची खड़े अङ्कों से काम लिया जाता है । ( आगे| आसन ( उत्थितासन ) विरासमान है। देखो शब्द 'अङ्कविद्या')॥
इसी के निकट यह 'अङ्कनाथपुर' नामक इस अङ्कगणित के (१) मान (२) अ- एक ऊजड़ ग्राम है जो प्राचीन समय में वमान (३) गणिमान (४) प्रतिमान (५) गङ्गवंशीय जैन राजाओं के राज्य में जैनों तत्प्रतिमान (६) उन्मान, यह ६, या (१)। का एक प्रसिद्ध क्षेत्र था। यहां आजकल द्रव्यमान (२) क्षेत्रमान (३) गणिमान (8) 'अङ्कनाथेश्वर' नाम से प्रसिद्ध एक हिन्दू कालमान (५) तुलामान (६) उन्मान या मन्दिर है जिसकी कई छत्तों व सीढ़ी
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( १०४ ) अङ्कप्रभ वृहत् सेन शब्दार्णव
अङ्कविद्या आदि पर के लेखों को देखने से ज्ञात होता कल २० या २१ घर दिगम्बर जैनों के हैं है कि यह नवीन हिन्दू मन्दिर जैनियों के और ४ बड़े बड़े विशाल जैनमन्दिर हैं। १०वीं शताब्दी के बने मन्दिरों की सा- जिन में सहस्रों जिनप्रतिमा विराजमान | मग्री से बना है। इस मन्दिर के एक है। यहां एक भौंरे में चतुर्थकाल की प्रास्तम्भ पर कई छोटो छोटो जैनप्रतिमाएं चीन जिनप्रतिमा श्री पार्श्वनाथ तीर्थकर भी अभी तक विराजमान हैं।
की श्यामवर्ण बालरेत की बनी हुई बड़ीही अङ्कप्रभ-कुंडलगिरि नामक पर्वत पर के | मनोहर है जो 'चिन्तामणिपादनाथ' के पश्चिम दिशा के एक कूट का नाम, जिस नाम से सुप्रसिद्ध है। इसी लिये यह क्षेत्र का निवासो 'अङ्कप्रभ' या 'महाहृदय' ना- भी श्रीचिन्तामणिपार्श्वनाथ' ही के नाम | मक एक पल्योपम की आयुवाला नाग- से प्रसिद्ध है। यह भारतवर्ष के लगभग कुमार जाति का देव है।
५० जैन अतिशयक्षेत्रों में से एक अतिशय___ यह पर्वत 'कुंडलवर' नामक ११वें क्षेत्र और बम्बई इहाते के २४ या केवल द्वीप के मध्य में वलयाकार है । इस पर्वत गुजरात प्रान्त के १३ प्रसिद्ध जैनतीर्थक्षेत्रों की चारों दिशाओं में से प्रत्येक में चार २ में से एक तीर्थक्षेत्र है। ( देखो शब्द "असाधारणकूट और एक एक 'सिद्धकूट' या | तिशयक्षेत्र" और 'तीर्थक्षेत्र' ) ॥ 'जिनेन्द्रकूट' हैं ।
अङ्कविद्या-गणितविद्या । वह विद्या (त्रि. गा. ९४४, ९४५, ९४६, ९६०; ? जिसमें गणना के अङ्कों या रेवाओं या । हरि. सर्ग ५ श्लोक ६८४-६६४ ॥ कल्पित चिन्हों या अन्यान्य आकारों आदि नोट-किसी पर्वत की चोटी को
से काम लेकर अभीष्ट फल की प्राप्ति की| 'शिवर' या 'कूट" कहते हैं । जिस कूट पर
जाय ॥ कोई जिनचैत्यालय हो उसे "सिद्धकूट" या ____ नोट१-विद्या के दो मूल भेद हैं-(१) 'जिनेन्द्रकूट' कहते हैं ।
शब्दजन्य विद्या और ( २ ) लिङ्गजन्य विद्या।
इनमें से पहिली 'शब्दजन्य विद्या' अक्षरात्मक अङ्कमुख (अङ्कनुह)-पद्मासन का अग्र
शब्दजन्य और अनक्षत्मक शब्दजन्य इन भाग (अ० मा० )॥
दो भेद रूप है । और दूसरी 'लिङ्गजन्यविद्या' अङ्कलेश्वर -यह एक अतिशययुक जैन- केवल अनक्षरात्मक ही होती है ॥ तीर्थस्थान है जो बम्बई गुजरात प्रान्त | अक्षरात्मक शब्दजन्यविद्यामें व्याकरण, में सूरत रेलवे जङ्कशन से भरीच होती | कोष, छन्द, अलङ्कार तथा गणित, ज्योतिष, हुई बड़ौदा जाने वाली लाइन पर सूरत वैद्यक, इतिहास और गान आदि गर्भित से उत्तर और भरोंच से दक्षिण की ओर । हैं । जिनमें व्याकरणविद्या और गणित को है। भरोंच से लगभग ६ या ७ मील विद्या यह दो मुख्य हैं । 'गणितविद्या' का 'अङ्कलेश्वर' नामक रेलवे स्टेशन से १ मील ही नाम 'अङ्कविद्या' भी है । ( इस विद्या . पर यह एक प्रसिद्ध नगर है । यहां आज | में अक्षरों की मुख्यता न होने से इसे
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( १०५ ) अङ्कविद्या वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कविद्या लिङ्गजन्य या अनक्षरात्मक विद्या का भेद इत्यादि अनेक नामों से प्रसिद्ध हैं और जिन भी कह सकते हैं)॥
| के राज्यसमय को आज से साउन्तालीस _ 'अनक्षरात्मक शब्दजन्य विद्या' वह सहस्रवर्ष कम एक कोडाकोड़ी सागरोपमविद्या है जिस से अनक्षरात्मक शब्दों द्वारा काल से कुछ अधिक व्यतीत हो गया। कुछ ज्ञान प्राप्त हो । जैसे पश, पक्षियों (देबो 'अक्षर' और 'अक्षरविद्या' शब्द ) ॥ के शब्द, मनुष्य की खांसी, छींक, ताली नोट ३-यह "अङ्कविद्या" लौशिक बजाना, थपथपाना, कराहना, रोना आदि और लोकोत्तर (अलौकिक ) भेदों से दो प्रके शब्द, अनेक प्रकार के बाजों के शब्द, कार की है। इन में से प्रत्येक के (१) अङ्करइत्यादि से कोई शकुन या अपशकुन विधा- गणित. (२) वीजगणित, (३) क्षेत्रगणित, (४) रने या उनका कोई विशेष प्रयोजन रेखागणित. (५) तृकोणमिति, इत्यादि अनेक या फल या अर्थ पहचानना ।
| भेद हैं और प्रत्येक भेद के कई कई अङ्ग __ लिङ्गजन्यबिद्या'वह विद्या है जिससे बिना हैं । इन भेदों में से प्रथम भेद 'अङ्कगणित' के किसी अक्षरात्मक या अनक्षरात्मक शब्द के | निम्नलिखित कई अङ्ग और उपाङ्ग हैं:केवल किसी न किसी चिन्ह द्वारा ही कोई (क) परिकर्माष्टक अर्थात् (१) संकलन ज्ञान प्राप्त हो सके । जैले हाथ, अँगुली, आँख, (जोड़), (२) व्ववकलन ( अन्तर ), (३) पलक आदि के खोलने, बन्द करने, फैलाने, गुणा, (४) भाग, (५) वर्ग, (६) वर्गमूल, (७) सुकोड़ने, हिलाने आदि से बनी हुई भाषा | घन, (८) घनमूल; (गंगी या मूकभाषा ), या कर्णइन्द्रिय के | (ज) ज्ञाताशातराशिक अर्थात् त्रैराअतिरिक्त अन्य किसी इन्द्रिय द्वारा विशेष शिक, पञ्चराशिक आदि; ज्ञान प्राप्त करने की विद्या । सर्व प्रकार की । (ग)व्यवहारगणित साधारण व मिश्र, हस्तकला और तैरना, व कुश्ती लड़ना आदि भी इसी प्रकार की विद्या में गिनी जा
(घ) ब्याज साधारण व मिश्र या चक्रसकता हैं ॥
वृद्धि, दो प्रकार का; नोट २-उपर्युक्त दोनों प्रकार की । (ङ) दर साधारण व मिश्र; श्रेढीवद्ध मुख्यविद्या वर्तमान अवसर्पिणी काल में सर्व व्यवहार; से प्रथम पहिले तीर्थकर 'श्रीऋषभदेव' ने अ
इत्यादि अनेक अङ्ग और उपाङ्ग पनी दो पुत्रियों को पढ़ाई थीं-बड़ी पुत्री हैं जिन सर्व का मूल ‘परिकर्माष्टक' अङ्ग है। 'ब्राह्मी' को 'व्याकरणविद्या' और छोटी पुत्री और जिससे यथा आवश्यक 'बीजगणित' 'सुन्दरी' को 'अङ्कविद्या'-और अन्य अनेक आदि अन्य अङ्गों में भी कार्य लिया जाता विद्याएं यथा आवश्यक अन्यान्य व्यक्तियों है। (देखो शब्द 'अङ्कगणित')॥ को सिखाई। अतः वर्तमानकाल में इन दोनों | लौकिक 'अङ्कगणित' के मुख्य सहायक मूलघिद्याओं के तथा और भी बहुत सी अन्य निम्न लिखित ६ प्रकार के मान (परिमाण) विद्याओं के जन्मदाता 'श्रीऋषभदेव' ही हैं | हैं:जो श्री आदिदेव, आदिनाथ, आदिब्रह्मा, (२) द्रव्यमान-पाई, पैसा, अधन्ना,
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( १०६ )
वृहत् जैन शब्दार्णव अङ्क विद्या नोट ४ - प्रकारान्तर से अलौकिक ग णित सम्बन्धी केवल दो ही मान अर्थात् (१) संख्या लोकोत्तरमान और (२) उपमालोको रमान कहे जा सकते हैं जिन में से पहिले में
मुहूर्त्त प्रहर, इत्यादि ॥
(३) कालमान - विपल, पल, घटि, 'द्रव्यलोकोत्तरमान' और 'भाषलोकोत्तरमान' और दूसरे में 'काल लोकोत्तरमान' और 'क्षेत्रलोकोत्तरमान' गर्भित हैं ॥
(४) गणिमान - एक, दो, तीन आदि ॥ (५) तुलामान - चावल, रत्ती (चिमिटी), माशा, तोला, टंक, छँटाक, सेर आदि ।
अङ्कविद्या
इकन्नी, तुअन्नी, रुपया, मुहर, इत्यादि ॥
(२) क्षेत्रमान - अंगुल, पाद वितस्ति, हस्त, बीख, धनुष योजन आदि व गट्ठा, जरीब, बिस्वा, बीघा आदि ||
(६) अनुमान - बूंद, चुल्लू, चम्मच, मुष्टी आदि ॥
इसी प्रकार अलौकिक या लोकोत्तर गणित के सहायक निम्न लिखित चार मान (परिमाण) हैं: -
(१) द्रव्यलोकोत्तरमान
(क) २१ भेद युक्त संख्या लोकोत्तर( देखो 'अङ्कगणना' शब्द ) ॥ ( ख ) = भेद युक्त उपमालोकोत्तरमान - १. पल्य, २. सागर, ३. सूच्यंगुल, ४. प्रतरांगुल, ५. घनांगुल, ६. जगच्छू णी, ७. जगत्प्रतर, ८. जगत्धन अर्थात् लोक । (देखो आगे नोट ६ ) ॥
मान
(२) क्षेत्रलोकोत्तरमान - एक प्रदेश से लेकर लोक और अलोक के अनन्तानन्त प्रदेश समूह तक के सर्व भेद । (आगे देखो नोट७) ।
(३) काललोकोत्तरमान - एक समय से भूत, भविष्यत, वर्त्तमान, तीनों काल के अनन्तानन्त समय समूह तक के सर्व भेद । ( देखो आगे नोट ८ ) ॥
(४) भावलोकोत्तरमान - सूक्ष्मनिगोदिया लब्धि अपर्याप्तक जीवका लब्धि अक्षरज्ञान अर्थात् शक्तिके एक अविभाग प्रतिच्छेद | से पूर्णशक्ति 'केवलज्ञान' तक के सर्व भेद ॥
नोट ५ - संख्या लोकोत्तरमान के अन्तगत २१ प्रकार की लोकोत्तरअङ्कगणना ( देखो शब्द 'अङ्कगणना' ) के अतिरिक्त निम्न लिखित १४ धारा भी हैं:
(१) सर्वधारा (२) समधारा (३) वि. मधारा (४) कृत्तिधारा या वर्गधारा (५) अकृतिधारा या अवर्गधारा (६) घनधारा (७) अघनधारा (८) कृत्तिमातृकधारा या वर्गमातृकवारा (९) अकृतिमातृकधारा या अवर्गमातृकधारा (१०) घनमातृकधारा (११) अघनमातृकधारा (१) द्विरुपवर्गधारा या द्विरूपकृतिधारा (१३) द्विरूपघनधारा (१४) द्वि
रूपघनाघनधारा ।
स्थान
( इन में से प्रत्येक का स्वरूपादि यथा प्रत्येक शब्द के साथ देखें ) ॥ नोट ६ - उपमालोकोत्तरमान --- इसके निम्न लिखित ८ भेद हैं:--
[१] पल्य-पल्य शब्द का अर्थ है 'खलियान', 'खत्ता' या 'गढ़ा' जिसमें अनाज भरा जाता है । अतः वह परिमाण जो किसी पल्य विशेष की उपमा से नियत किया गया हो उसे 'पल्यउपमालोकोत्तरमान' या 'पल्योपमान' कहते हैं ।
पल्य के ३ भेद हैं- (१) व्यवहारपल्य (२) उद्धारपल्य (३) अड्डापत्य । इन में से प्रत्येक का स्वरूप निम्न लिखित है:
एक प्रमाण योजन ( एक प्रमाण
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( १०७ ) अङ्कविद्या वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कविद्या योजन या महायोजन २००० क्रोश का नितान्त असम्भव है। इसी लिये यहां साहोता है) गहरा और इतने ही व्यास मान्यसंज्ञा 'असंख्यात' का प्रयोग किया गया वाला कंए के आकार का एक गोल है। यहां इस असंख्यात शब्द से इतना अगर्त ( गढ़ा ) खोद कर उसे उत्तमभोग वश्य जान लेना चाहिये कि यह संख्या जघन्य भमि के मेढे के बालानों से पूर्णठोस भरें। असंख्यात से अधिक और जघन्यपरीतानन्त ( इस बालाग्र का परिमाण जानने के लिये से कम है । इसकी ठीक २ संख्या प्रत्यक्षशान देखो अगला नोट ७)॥
( अवधिशान, मनःपर्यशान और कैवल्यज्ञान) इस गढ़े में जितने बालाग्र या रोम गम्य ही है, परोक्षशान ( मतिज्ञान और श्र तसमागे उनकी संख्या गणितशास्त्र के नि- शान ) गम्य नहीं है ॥ यमानुसार गणित करने से ४१३४५२६३०३०
इन उपयुक्त तीन प्रकार के पल्यों में ८२०३१७७७४६५१२१९२०००००००००००००
से व्यवहारपल्य से तो संख्या या गणना ००००० (२७ अङ्क और १८ शन्य, सर्व ४५ बताने में, उद्धारपल्य से द्वीप या समुद्रों की अङ्कप्रमाण ) है ॥
संख्या बताने में और अद्धापल्य से कर्मों की इस गर्त के एक एक रोम को सौ सौ स्थिति आदि बताने में काम लिया जाता है। वर्ष में निकालने से जितने काल में वह गर्त
यहां इतना जान लेना और भी आवरीता हो जाय उस काल को एक 'व्यवहार- श्यक है कि यह उपयुक कथन सामान्य है। पल्योपमकाल' कहते हैं । अतः इस 'व्यवहा- इसमें विशेष इतना है कि अद्धापल्य से जो रपल्योपमकाल' के वर्षों की संख्या उपयुक्त | कर्मों की स्थिति बताई जाती है उसमें आयुरोमों की संख्या से सौगुणी ४७ अङ्कप्र- कर्म के अतिरिक्त शेष सर्व कर्मों की बताई माण है।
| जाती है। आयुकर्म की स्थिति और । उद्धारपल्य के रोमों की संख्या व्यवहार
काल या उसके विभागों का परिमाण व्यवपल्य के रोमों की संख्या से और 'उद्धारप- हारपल्य * से बताया गया है। ल्योपमकाल' के वर्षों की संख्या 'व्यवहारप
[२] सागर-यह भी पल्य की समान ल्योपमकाल' के वर्षों की संख्या से असंख्यात
तीन प्रकार का होता है, अर्थात् (१) व्यवकोटि गुणी है और अद्धापल्य के रोमों की हारसागर (३) उद्धारसागर (३) अद्धासासख्या उद्धारपल्य के रोमों की संख्या से और |
गर। इनमें से प्रत्येक का परिमाण निम्न 'भद्धापल्योपमकाल' के वर्षों की संख्या कित.. 'उद्धारपल्योपमकाल' के वर्षों की संख्या से १. दश कोडाकोड़ी (१० करोड़ का असंख्यात गुणी है ॥
करोड़ गुणा अर्थात् १ पद्म) व्यवहारपल्योयहां असंख्यात की संख्या 'मध्य- पमकाल का १ 'व्यवहारसागरोपमकाल' । असंख्यात' का कोई मुख्य भेद है जो कैवल्य- | २. दश कोडाकोड़ी उद्धारपल्योपमशान गम्य है । क्योंकि मध्यअसंख्यात के भेद -
* कई आचार्यों की सम्मति में आइतने अधिक (असंख्यात) हैं कि उन सर्व यकर्म और कल्पकाल का परिमाण भी अद्धाकी अलग २ संज्ञा शब्दद्वारा नियत करना पल्य ही से है ॥ .
।
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( १०८ ) अविद्या वृहत् जैन शब्दाणव
अङ्कविद्या काल का १ 'उद्धारसागरोपमकाल' ॥ आकाशप्रदेश एक 'सूच्यांगुल' लम्बाई में
३. दश कोडाकोड़ी अद्धापल्योपम- समादेंगे। काल का १ 'अद्धासागरोपमकाल'॥ .
( किसी संख्या को जितनी बार 'सागर' शब्द का अर्थ है समुद्र । अतः
आधा करते करते १ शेष रहे उसे उस मूलवह परिमाण जो किसी सागर ( समुद्र ) वि.
संख्या की 'अर्द्धच्छेदसंख्या' कहते हैं । जैसे शेष की उपमा रखता हो उसे 'सागरउपमा
१२८ का पहिला अर्द्ध ६४. दूसरा ३२, तीलोकोत्तरमान' या 'सागरोपममान' कहते हैं। सरा १६, चौथा ८, पांचवां ४, छटा २ और यहां इस मान को जिस सागर से उपमा दे
सातवाँ १ है, अतः १२८ के अर्द्धच्छेदों की कर इसका परिमाण नियत किया गया है वह संख्या ७ है)। देखो शब्द 'अर्द्धच्छेद' । 'लवणसमुद्र' है जिसके छठे भागाधिक चौ- [४] प्रतरांगुल-सूच्यांगुल के बर्ग गुणे की बराबर उसका परिमाण है, अर्थात् को, अर्थात् एक प्रमाणांगुल लम्बे, एक प्र-1 'लवणसमुद्र' के छटे भागाधिक चतुर्गुणे स- माणांगुल चौड़े और एक प्रदेशमात्र भोटे मुद्र का परिमाण या घनफल ( खातफल ) क्षेत्र को 'प्रतगंगुल' कहते हैं। 'प्रतरांगुल' ! उपयुक्त 'पल्य' के परिमाण या घनफल केवल लम्बाई चौड़ाई (धरातल ) का एक ( खातफल ) से पूरा दश कोडाकोड़ी गुणा 'मान' है जिसकी मुटाई नाममात्र केवल एक ही है॥
| प्रदेश है । इस धरातलक्षेत्र में उपयुक्त सूच्यां[३] सूच्यांगुल-एक प्रमाणांगुल गुल के प्रदेशों की संख्या के घर्गप्रमाण प्रदेश | (यच की मध्यमुटाई का १ उत्सेधांगुल और समावेगे । अतः इस वर्गप्रमाण संख्या को ५०० उत्सेधांगुल का १ प्रमाणांगुल-भरत
'प्रतरांगुलउपमालोकोत्तरमान' कहते हैं ॥ । चक्रवती का अंगुल ) लम्बे, एक प्रदेश चौड़े ५] घनांगुल-सूच्यांगुल के घन
और १ प्रदेश मोटे क्षेत्र को १ "सूच्यांगुल" | को, अर्थात् एक प्रमाणांगुल लम्बो, इतने ही। कहते हैं, अर्थात् सूच्यांगुल केवल लम्बाई चौड़े और इतने ही मोटे क्षेत्र को 'घनांगुल' (रेखा ) भाप का एक 'मान' है जिसकी कहते हैं । इसमें उपयुक्त सून्यांगुल के प्रचौडाई मोटाई नाममात्र १ प्रदेश है। इस ल- देशों की संख्या के घनप्रमाण प्रदेश समावेंगे। स्वाई में जितने आकाशप्रदेश समागे उतनी अतः इस घनप्रमाण संख्या को घनाल | संख्या को "सूयांगुलउपमालोकोत्तरमान' उपमालोकोत्तरमान' कहते हैं । कहते हैं।
(उपर्युक्त अन्तिम तीनों प्रकार के |
| 'मान' नियत करने में भरतचक्रयों के अंगुल अद्धापल्योपमकाल के जितने समय हैं उनकी संख्या का उनके अर्द्धग्छेदों की
को उपमा में ग्रहण किया गया है ) ॥ संख्याप्रमाण 'बल' (धात) लेने से (अद्धापल्य [६] जगच्छ्रेणी ( जगत्श्रेणी)के समयों की संख्या को उसके अर्द्धच्छेदों की लोकाकाश की अर्द्ध उँचाई को, अर्थात् ७ ॥ संख्याप्रमाण स्थानों में रख कर परस्पर उन्हें | राजू लम्बी रेखा को (जिसकी चौड़ाई और | गुणन करने से) जितनी संख्या प्राप्त हो उतने | मुटाई नाम मात्र केवल एक प्रदेश हो)।
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(. १०९ ) अङ्कविद्या वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कविद्या जगच्छ्रणी कहते हैं । घनांगुल के प्रदेशों की न्यमान १ प्रदेश है। आकाश के जितने क्षेत्र संख्या का अद्धापल्य की अर्द्धच्छेदों की संख्या को एक परमाणु घरे उतने अत्यन्त सूक्ष्मशेष के असंख्यातवें भागप्रमाण 'बल' (घात ) | को प्रदेश' कहते हैं । पुद्गलद्रव्य का ऐसा लेने से, अर्थात् घनांगुल के प्रदेशों की संख्या। छोटे से छोटा अंश जिसको कोई तीक्ष्ण से को अद्धापल्य की अर्द्धच्छेदसंख्या के असं- तीक्ष्ण शस्त्र या जल या अग्नि अथवा संसार ख्यातवें भाग प्रमाण स्थानों में रखकर परस्पर | भर की कोई प्राकृतिकशक्ति भी दो खंडों में गुणन करने से जितनी संख्या प्राप्त हो उतने विभाजित न कर सके उसे 'परमाणु कहते प्रदेश एक जगच्छणीप्रमाण लम्बाई में स- हैं। ऐसे अनन्तानन्त परमाणुओं का समूह मागे । अतः इस संख्या को "जगत्श्रेणी- रूप स्कन्ध एक “अवसन्नासन्न" नामक उपमालोकोत्तरमान" कहते हैं ।
स्कन्ध है।
= अवसन्नासन्न का १ सन्नासन्न । [७] जगत्पतर–जगच्छ्णी के वर्ग
८ सन्नासना का १ तृटरेणु को, अर्थात् ७ राजू लम्बे, ७ राजू चौड़े धरा.
- तृटरेणु का १ त्रसरेणु तक क्षेत्र को ( जिसकी मुटाई नाममात्र केवल
८ त्रसरेणु का १ रथरेणु १ प्रदेश हो ) "जगत्प्रतर'' कहते हैं । इसके
८ रथरेणु का १ उत्तम भोग भूमिया मेढ़ का प्रदेशों की संख्या 'जगच्छ्रेणी' के प्रदेशों की |
बालाग्र संख्या के वर्गप्रमाण है । अतः इस संख्या |
। इस सख्या = उत्तम भोगभूमिया मेढ़े के बालान का | प्रमाण राशि को “जगत्प्रतरउपमालोकोत्तर- |
१ मध्यम भोगभूमिया का बालान मान" कहते हैं ।
८ मध्यम भोगभूमिया के बालाग्र का ८] जगत्घन या लोक-जगच्छृणी १ जघन्य भोग भूमिया का बालान। के घन को, अर्थात् ७ राजू लम्बे,७ राजू चौड़े ८ जघन्य भोग भूमिया के बालागू का | और ७ राजू मोटे घनक्षेत्र को 'जगत्धन' कहते १ कर्म भूमिया का बालागू । हैं। इतना ही अर्थात् ७ राजू का घन ३४३ | ८ कर्म भूमिया के बालागू की १ लीख । घनराजू सर्व लोकाकाश या त्रिलोकरचना का | = लीख की मुटाई की १ सरसों या ज। घनफल ( खातफल ) है । अतः 'जगत्धन' को ८ सरसों की मुटाई की १ जौ (यव) के 'घनलोक' या 'लोक' भी कहते हैं । इसके मध्य भाग की मुटाई। प्रदेशों की संख्या जगच्छ्रेणी के प्रदेशों की = जौ की मुटाई का १ अगुल ( १ उत्सेधासंख्या के घनप्रमाण है। अतः इस संख्या गुल)। प्रमाण राशि को “जगत्यनउपमालोकोसर | ५०० उत्सेधाङ्गुल का १ प्रमाणागुल । मान" कहते हैं ॥ ...
६ उत्लेधाङ्गुल लम्बाई का १ पाद । ( उपर्युक्त अन्तिम तीनो प्रकार के २ पाद लम्बाई की १ वितस्ति (बालिश्त )। मान नियत करने में 'लोक' या जगत् से उ- | २ बितस्ति लम्बाई का १ हस्त । पमा दी गई है)।
२ हस्त लम्बाई का१बीख, या किकु (गज) नोट ७-'क्षेत्रलोकोत्तरमान' का जघ- | २ बीख लम्बाई का १ धनुष या दंड ।
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( ११० ) अङ्कविद्या वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कविद्या २००० धनुष लम्बाई का १ क्रोश ।
५३४ स्तोकया३७७३बालस्वासोच्छवास ४ क्रोश लम्बाई का १ योजन ।
(तत्काल के जन्मे स्वस्थ्य बालक को ५०० योजन लम्बाई का १ महायोजन या स्वासोच्छ्वास जो स्वस्थ्य युवा पुरुष के प्रमाण योजन ।
एक स्वासोच्छ्वास का एक पञ्चम भाग असंख्यात महायोजन लम्बाई का १ राजू । या जिसका काल स्वस्थ पुरुष की प्रत्येक ७ राजू लम्बाई की ? जगच्छूणी। . नाड़ो-गति या नाड़ी-फड़कन कालको ४६ वर्गराजू (७ रोजू लम्बा और ७ राजू समान है ) का १ मुहूर्त ।
चौड़ा क्षेत्र) का १ जगत्प्रतरक्षेत्र। १. समय कम १ मुहू का १ उत्कृष्ट अन्तर३४३ घनराजू (७ राजू लम्बा, ७ राजू मुहूर्त । चौड़ा और ७ राजू मोटा क्षेत्र ) का १२॥ घटिका या ६० मिनिट का १ घंटा। जगत्वन या लोक।
३ घंटा या ७॥ घटिका का १ प्रहर । अनन्तानन्त लोक का सर्व अलोक । ८ प्रहर या २४ घंटा या ६० घटिका का १ लोक और अलोक मिलकर लोकालोक। अहोरात्रि ( दिन रात्रि)।
नोट८-काल लोकोत्तर मान का ७ अहोरात्रि का १ सप्ताह । जघन्य मान १ समय है। जिस प्रकार पुद्गल १५ अहोरात्रि का १ पक्ष । के छोटे से छोटे अंश का नाम “परमाण" और २ पक्ष या ३० अहोरात्रि का १ मास (साधाआकाश क्षेत्र के छोटे से छोटे अंश का नाम रण )। "प्रदेश" है, इसी प्रकार काल के छोटे से २६।। अहोरात्रि का १ स्थूल चान्द्र मास । छोटे अंश का नाम समय है ॥
२९ अहोरात्रि, ३१ घटिका, ५० पल, ७ विपल * जघन्य युतासंख्यात संख्या प्रमाण (२९.५३०५८७६४६०७ अहोरात्रि ) का १ समय की १ आवली।
सूक्ष्म चान्द्र मास । एक समय अधेक १ आवली का १ जघन्य ३०॥ अहोरात्रि का १ स्थूल सौरमास । ___ अन्तरमुहूर्त।
३० अहोरात्रि, २६ घटिका, १७ पल, ३७॥ संख्यात् आवली का १ प्रतिविपलांश। विपल ( ३०.४३८२२९१६६६६ अहोरात्रि) ६० प्रतिविपलांश का १ प्रतिविपल । का १ सूक्ष्म सौरमास । ६० प्रतिविपल का १ विपल ।
२ माख (साधारण) की १ ऋतु । ६० विपल या २४ सैकंड का १ पल या ३ ऋतु का १ अयन । विनाड़ी।
२ अयन या १२ मास ( साधारण ) या ३६० ६० पल या २५ मिनिट की १ घटिका (घड़ी दिन का १ वर्ष साधारण )। या नाड़ी या नाली)
३५४॥ दिन का १ स्थूल चान्द्रवर्ष । २ घटिका या ४८ मिनट या ७७ लव या | ३५४ दिन, २२ घड़ी, १ पल, २४ विपल* जघन्य युक्तोसंख्यात की संख्या का
(३५४.३६७०५५३५२८४ दिन ) को १ परिमाण जानने के लिये देखो शब्द "अङ्क
सूक्ष्म चान्द्रवर्ष। गणना के नोट १ के अन्तर्गत (७)'। | ३६५। दिन का १ स्थूल सौरवर्ष ।
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1 १११ ) अङ्कविद्या वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्कविद्या ३६५ दिा, १५ घड़ी, ३१ पल, ३० विपल । ८४ लक्ष अटटांग का १ अटट ।
(३६५.२५८७५ दिन)का १ सूक्ष्म सौरवर्ष। ८४ लक्ष अटट का १ अममांग। ३६५ दिन, १५ घड़ी, २२ पल, ५४॥ विपल | ८४ लक्ष अममांग का १ अमम । ' .
का १ सूक्ष्म सौरवर्ष (नबीन खोजसे)। ८४ लक्ष अमम का १ ऊहांग। ३६५ दिन, १४ घड़ी, ३२ पल, ४। विपल या ८४ लक्ष ऊहांग का १ ऊह ।
३६५ दिन, १४ घड़ी, ३१ पल, ५६ विपळ ८४ लक्ष ऊह को १ लतांग। (३६५.२४२२४२ या ३६५.२४२२१८ दिन) ८४ लक्ष लांग की १ लता।
का १ ऋत्विक् वर्ष (फ़सली वर्ष)। । ८४ लक्ष लता का १ महालताँग। १२ वर्ष का १ युग (साधारण)। ८४ लक्ष महालतांग की १ महालता (काल१०० वर्ष की १ शताब्दी। . ।।
वस्तु)। ८४ सहस्र शताब्दी या ८४ लक्ष वर्ष का १
८४ लक्ष महालता का १ शिरप्रकम्पित ।
८४ लक्ष शिरःप्रकम्पित की १ हस्त प्रहेलिका। पूर्वाङ्ग। ८४ लक्ष पूर्वग का १ पूर्व ।।
८४ लक्ष हस्तप्रहेलिका का १ चर्चिक । ८४ लक्ष पूर्व का १ पर्वाग।
अतः ( ८४ लक्ष वर्ष ) अर्थात् ८४ ८४ लक्ष पौंग का १ पर्व ।
लाख का २९वां बल (घात ) प्रमाण वर्षों ८४ लक्ष पर्व का १ नियुतांग।
का एक चधिक काल होताहै। गणित फैलाने ८४ लक्ष नियुतांग का १ नियुत ।
से अर्थात ८४ लक्ष को २४ जगह रख कर ८४ लक्ष नियुत का १ कुमुदांग। . परस्पर गुणन करने से जो वर्षों की संख्या ८४ लक्ष कुमुदांग का १ कुमुद ।
प्राप्त होगी बह २०१ अङ्कः प्रमाण होगी। ८४ लक्ष कुमुद का १ पद्मांग।
अर्थात् उस संख्या में ५६ अङ्क और १४५ ८४ लक्ष पद्मांग का १ पद्म ।।
शून्य, २०१ स्थान होंगे॥ . ८४ लक्ष पद्म का १ नलिनांग
४१३४५२६, ३०३०-२०३१७७७४६५१२१६२.०
0000000000000000000 (२७ अङ्क (एक नलिनांग की वर्ष संख्या १४६
और २० शन्ध, सर्व ४७ अङ्क प्रमाण ) वर्ष ६१७०३२१६३४२३९७,०६१८४०००००००
का १ व्ययहार पल्योपम काल । ०००००००००००००००००००००००००० * असंख्यातकोटि व्यवहार पत्योपमकाल ००,०००००००००००००००००००० (२२ का १ उद्धार पल्योपमकाल। अङ्क और ५५ शून्य सर्व ७७ स्थान * असंख्यात उद्धार पल्योपमकाल का या ७७ अङ्क प्रमाण ) है ।
१ अद्धापल्योषमकाल । ८४ लक्ष नलिनांग का १ नलिन ।
१० कोडाकोड़ी (१ पद्म ) व्यवहार पस्योपम ८४ लक्ष नलिन का १ कमलांग (अक्षनिकुराङ्ग)। काल का १ व्यवहारसगरोपमकाल । ८४ लक्ष कमलांग का १ कमल(अक्षनिकुर)। १० कोडाकोड़ी (१ पन ) उद्धारपल्योपम । ८४ लक्ष कमल का १ बृत्यांग ।
काल का १ उद्धारसागरोपमकाल । १४ लक्ष त्रुत्यांग का १ श्रुत्य ।
• देखो उपयुक्त नोट६ में (१) 'पल्य' २४ लक्ष त्रुत्य का १ अटरांग।
की व्याख्या।
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( ११२ ) अविद्या वृहत् अन शब्दार्णव
अविद्या १० कोडाकोड़ी (१ पद्म )अद्धापल्योपमकाल | नोट १०-कई प्राचीन अन्य मताघका १ अद्धा सागरोपमकाल ।
लम्बी ज्योतिर्विद गणितज्ञों ने एक 'ब्रह्मकल्प' १० कोडाकोड़ी (१ पान ) * व्यवहारसागरो- का जो परिमाण निम्न लिखित रीति से
पमकाल का १ उत्सपिणा काल । बताया है उसके वर्षों की संख्या भी उप१० कोडाकोड़ी(१ पद्म) * व्यवहारसागरोपम युक्त नोट में दी हुई संख्या की समान पूरी
काल का १ अवसर्पिणीकाल । | ७७ अङ्कों ही में है:-- २० कोडाकोड़ी ( २ पद्म ) * व्यवहारसागरो
पदा व्यवहारसागरो ४३२००० वर्ष (सौरवर्ष) का १ कलियुग। पमकाल (या एक उत्सर्पिणी और एक ८६४००० वर्ष ( सौरवर्ष ) का १ द्वापरयुग ।
अवसर्पिणी दोनों) का १ कल्प काल ।। १२६६००० वर्ष ( सौरवर्ष ) का १ त्रेतायुग। २० कोड़ाकोड़ी (२ पन्न) अद्धासागरोग्म १७२८000 वर्ष (सौरवर्ष) का १ सत्ययुग।
काल ( या असंख्यात उत्सर्पिणीअव ४३२०००० वर्ष ( सौरवर्ष) की १ चतुर्युगी। . सर्पिणी) का १ महाकल्प काल । १००० चतुर्युगी का १ सामान्यकल्पकाल । अनन्तानन्त महाकल्पों का भूतकाल। १२ सामान्य कल्पकाल (१२००० चतुर्युगी) एक समय मात्र का वर्तमान काल । ___ का १ देवयुग। . अनन्तानन्त महाकल्पों का भविष्य काल। २००० देवयुग की १ ब्रह्मअहोरात्रि ।
भूत,भविष्यत, वर्तमान, इन तीनों के समूह ३६० ब्रह्मअहोरात्रि का १ ब्रह्मवर्ष । का त्रिकाल = कैवल्यज्ञान ।
४३२०००० ब्रह्मवर्ष की १ ब्रह्मचतुर्युगी। नोट :--उपयुक्त मान से गणना करने २००० ब्रह्मचतुर्युगी की १ विष्णुअहोरात्रि। पर १ उत्सर्पिणी या १ अबसर्पिणी काल में ३६० विष्णअहोरात्रि का १ विष्णवर्ष । वर्षों की संख्या ४१३४५२६३०३०८२०३१७,७७ | ४३२००00 विष्णुवर्ष की १ विष्णुचतुर्युगी। १९५१२१४२०000000000,000000000000 | २००० विष्ण चतुर्युगी की १ शिवअहोरात्रि । 00000000,00000000000000000000(२७ ३६० शिवअहोरात्रि का १ शिववर्ष । अङ्क और ५० शन्य, सर्व ७७ अङ्क प्रमाण) है॥ ४३२०००० शिववर्ष की १ शिवचतुर्युगी। ____अतः एक कल्प काल के वर्षों की संख्या २००० शिवचतुर्युगी की १ परमप्रलअहोरात्रि इस से दूनी अर्थात् ८२६६०५२६०६१६४० | ३६० परमब्रह्मअहोरात्रि का १ परमब्रह्मवर्ष । ६३५,५४६६०२४३८४००00000000,000000 ४३२०००० परमब्रह्मवर्ष की १ परमब्रह्मचतु00000000000000, 0000000000000000. युगी। 0000 ( २७ अङ्क और ५० शून्य, सर्व ७७ १००० परमब्रह्मचतुर्युगी का १ महाकल्प । अङ्कप्रमाण ) है ॥
१००० महाकल्प का १ महानकल्प । * कई आचार्यों की सम्मति में अद्धा १००००० महानकल्प का १ परमकल्प । सागरों से उत्सर्पिगी, अबसर्पिणी और कल्प १००००० परमकल्प का १ ब्रह्मकल्प। काल की गणना महाकल्प की गणना की उपयुक्त परिमाण के अनुकूल गणित समान है । (देखो इसी शब्द के नोट ६ में फैलाने पर १ "ब्रह्मकल्प" के वर्षों की संख्या शब्द 'पल्य' की व्याख्या)
। ४८५२१०२४६०४४१३३५७०१५०४०००००००००
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अङ्कसंदृष्टि
००००००००००००००००००००००००००००,००
०००००००००००००००००० (२२ अङ्कों पर ५५ शून्य, सर्व ७७ अङ्क प्रमाण ) है ॥
यह ज्योतिर्विद गणकों की रीति से निकाली हुई संख्या यद्यपि पूर्णतयः ज्यों की त्यों ही नहीं है जो नोट ६ में बताई हुई संख्या है तथापि अङ्कों की स्थानसंख्या' ७७ दोनों में समान होने से परस्पर कोई बड़ा अन्तर नहीं है ॥
संदृष्टि - अङ्क सहनानी, अङ्कसङ्केत ॥
किसी महान संख्या या द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि के परिमाण आदिक को सुगमता के लिये जिस सहनानी या संकेत या चिन्ह द्वारा प्रकट किया जाता है उसे 'संदृष्टि' कहते हैं । संदृष्टियां कोई अङ्करूप, कोई आकाररूप, कोई अक्षररूप, कोई किसी पंदार्थ के नामरूप, कोई अङ्क और आकार उभयरूप, कोई अङ्क और अक्षर उभयरूप, कोई आकार और अक्षर उभयरूप, इत्यादि कई प्रकार से नियत । इन में से अङ्क द्वारा प्रकट किये हुने संकेत को 'अङ्कसंदृष्टि और अन्य किसी प्रकार किये हुए संकेत को 'अर्थसंदृष्टि' कहते हैं ॥
प्रकट
संदृष्टियों के कुछ उदाहरणः
(१) अङ्करूप
जैसे जघन्यसंख्यात की संदृष्टि
२
१५
उत्कृटसंख्या की संदृष्टि जघन्यपरीता संख्यात की संदृष्टि. १६ जघन्यपरीतानन्त की संदृष्टि
૫૬ ६
घनांगुल की संदृष्टि
(२) आकाररूप
जैसे संख्यांत की संदृष्टि
( १९३ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
असंख्यात की संदृष्टि जगत्प्रतर की संदृष्टि
...
......
...
घनलोक की संदृष्टि
प्रभृत या इत्यादि की संदृष्टि संकलन की संदृष्टि व्यवकलन की संदृष्टि की दृष्टि गुणा भाग की संदृद्धि..
अन्तर की संदृष्टि
(३) अक्षररूप
जैसे लक्ष की दृष्टि
कोटि की संदृष्टि
जघन्य की संदृष्टि अनन्त की संदृष्टि
०
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...
(४) किसी पदार्थ के नामरूपजैसे
की संदृष्टि आकाश
.........
...
...
अङ्कसंदृष्टि
...
...
...
......
ज
ख
सूत्रांगुल के अर्द्धछेदों की संदृष्टि छेछे
""E
या
८.
+
१ की
२ की
३ की
संदृष्टि काल, लोक. गुप्ति: योग ४ की संदृष्टि कपाय, गति (५) अङ्क और आकार उभयरूप - जैसे ६५५३६ ( पणतूठी ) की
संदृष्टि ४२६४६६७२६६ (बादाल) की संदृष्टि १८४४६७४४० ७३७०६५५१६१६ ( एकठी) की संदृष्टि
रज्जु (राजू) की संदृष्टि
रज्जु प्रमाण प्रतरक्षेत्र की दृष्टि ४ (६) अङ्क और अक्षर उभय रूप -
जैसे सर्व पुद्गलराशि की संदृष्टि १६ख त्रिकाल समय की संदृष्टि १६खख आकाश प्रदेश की संदृष्टि. १६खखख प्रतरांगुल के अर्द्धछेदों की
संदृष्टि
...छेछे२
x
+
संदृष्टि विधु, इन्दु, चन्द्र संदृष्टि उपयोग
...
६५=.
···४२=.
१८= ·
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( ११४ ) अङ्का वृहत् जैन शब्दार्णव
अपारतंसक घनाङ्गुल के भईछेदोंकी
का नाम॥ संदृष्टि ... ... ... ... ३
घर्मा (घामा) अर्थात् रत्नप्रभा (७) आकार और अक्षर उभयरूप
नामक प्रथम नरक के खरभाग, पङ्क भाग! जैसे जघन्य की संदृष्टि
ज=. और अब्धहुल भाग । इन तीनों भागों में। पल्य के अर्द्ध छेदराशि के असंख्यातर्फे से सर्घ से ऊपर के "स्वरभाग' में (१) भाग की संदृष्टि ... ... ... ... चित्रा, (२) वजरा, (३) वैडर्या, (४) लोहि
तास्या, (५) असारकल्पा, (६) गोमेदा, घनलोक अधिक अनन्त की संदृष्टि ... (७) प्रयोला, (८) ज्योतिरसा, (६) अ
जना, (१०) अञ्जन मृलिका, (११) अङ्का ! किञ्चित अधिक अनन्त की संदृष्टि ... रख
(१२) स्फटिका, (१३) चन्दना, (१४) सर्वनिश्चित जन अनन्त की संधि ... ख
शंका, (१५) वकुला, (१६) शैला, यह १६ ॥ (:) आङ्कर, आकार और अक्षर, तीनों रूप
पृथ्वी हैं। यह सर्व क्रम से ऊपर से नीचे जैले एक अधिक कोटि की संदृष्टिको नीचे को प्रत्येक एक एक सहस्त्र महायोजन
मोटी हैं । इन में से ११वीं का नाम 'अङ्का एक कम कोटि की संदृष्टि ...को या को
है। इस में भवनयासी और व्यन्तर देवों के |
निवास स्थान है ॥ या को या को या को) या को ? नोट-प्रथम नरक सम्बन्धी १६ स-!
हस्त्र महायोजन मोटे 'खरभाग' की उपयुक्त
सर्व १६ पृथ्वीओं में तथा ८४ सहन महातीन कम अनन्त की संदृष्टि"ख या ख-३
योजन मो? “पङ्कभाग' में भवनवासी और
ध्यन्तरदेवों के निवास स्थान हैं और शेष ८० या ख या ख या ख) या या ख- -३
सहा मरे नीचे के तीसरे “अब्ब हुल भाग"
में नारकियों के उत्पन्न होने के “बिल' हैं । उत्कृष्ट परीतानन्त फी संदृष्टि"जजअ
(२) विदेहक्षेत्र के पूर्व भाग सम्बन्धी __ जो १६ विदेह देश उन में से सीतानदी
के दक्षिणतट पर के = विदेह देशों में से प्रतगंगुल के वर्गशलाका-१ १
पञ्चम "रम्या' नामक देश की राजधानी राशि की संदृष्टि
का नाम "अङ्का" है जो १२ योजन लम्बी नोट-अन्यान्य संदृष्टियाँ जानने के | ओर ६ योजन चौड़ी है। इस का नाम | लिये देखो शब्द “अर्थ संसृष्टि" ॥
"अङ्कायती" भी है। अङ्का (अङ्क)-(१) अधोलोक ( पाताल
(त्रि. गा. १४६-१४८,६८८,७१३)। लोक ) में की ७ पृथ्वीयों ( नरकों ) में से अङ्कावतंसक-ईशान इन्द्र के मुख्य सर्व से ऊपर के पहिले नरक के एक भाग विमान काम ( अ. मा.)।
२
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(
११५ )
अङ्कावती वृहत् जैन शब्दाणव
अंकुश प्रावती-(१) पूर्व विदेह के "रम्यादेश" | लवण ( "अनगालवण" ) इस का की राजधानी [ देवो शब्द 'अङ्का (२) ] ॥
ज्येष्ठ भ्राता था। यह दोनों भाई श्री राम(२) पश्चिम महाविदेह के दक्षिण
चन्द्र की पट्टरानी सीता के उदर से युगल खंड की पहिली विजय की सीमा पर का
(ोठडे ) उत्पन्न हुए थे । यह दोनों। वजारा ( वक्षार ) पर्वत । इसका दूसरा |
भाई ( अनललवण और मदनांकु.) नाम "श्रद्धावान" भी है ॥
लवणांकुश या "लवकुश" नाम से (अ. मा., त्रि. ६६८)
अधिक प्रसिद्ध हैं । इन का जन्म सीता
महारानी के बनवास के समय श्रावण अंकुरारोपण-बीज से नई उत्पन्न होने
शुक्ला १५ को श्रवण नक्षत्र में अयोध्या से वाली कोपल जो मट्टी को फाड़ कर नि
१६० योजन दक्षिण को राजा घजूजल की कले उसका स्थापन या रचन या एक
राजधानी “पुण्डरीकिणी" नगरी में हुआ स्थान से दूसरे स्थान में लगाना ॥
था। इन के विद्यागुरु एक "सिद्धार्थअंकुरारोपण विधान-वेदी प्रतिष्ठा व | वाल्मीकि'' नामक गृहत्यागी क्षुलुक थे। इन्द्रध्वज आदि पूजन विधानों के जो कृष्णा ( तमसा) नदी के तट पर। प्रारम्भ में योग्य मंत्रादि से "अंकुरारोपण"
अपना समय धर्मध्यान में तथा लवकुश करने की एक विशेष विधि ॥
को विद्याध्ययन कराने में बिताते थे । बड़े नोट-इस नाम का एक संस्कृत ग्रन्थ भाई 'लव' को 'बनजङ्घ' ने अपनी पुत्री । भी है जो विक्रम सं० १६० के लगभग "शशिभूता' अन्य ३२ पुत्रियों सहित "नन्दिसंघ" में होने वाले श्री “इन्द्र- विवाही और छोटे भाई 'कुश' को पृथ्वी नन्दी" नामक एक दिगम्बर मुनि रचित है पुरनरेश 'पृथु' को पुत्री "कनकमाला" जो शान्तिचक्र पूजा, मुनिप्रायश्चित, प्र
भारीयुद्ध में उसे नीचा दिखा कर और तिष्ठापाठ, पूजाकल्प, प्रतिमासंस्कारारोपण
इन दोनों वीरों के बल पराक्रम और उच्च पूजा, मातृकायंत्र पूजा, औषधिफरूप, कुल का प्रत्यक्ष परिचय दिलाकर विवाही भूमिकल्प, समयभूषण, नातिसार, और पश्चात् इन वीरों ने अपने बल से थोड़े | इन्द्रनन्दिसंहिता आदि ग्रन्थों के रचयिता
ही समय में दक्षिा देशीय अनेक राजाओं और श्री नेमचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के एक को परास्त कर के अपने आधीन किया गुरु थे।
और फिर अपने पूज्य पिता और पितृव्य (इ. द्रव्य०, प्रस्तावना) को उनके साथ गुप्त युद्ध कर के और अंकुश-(१) आँकड़ा, नियन्त्रण करने
इस प्रकार अपना बल पराक्रम दिखा कर वाला, दंड देने वाला, अधिकार में रखने उनके सम्मान-पात्र बने । इन की पज्य | वाला, वश में रखने वाला, हाथी को माता महाराणी सीता ने जब अपने पूज्य । वश में रखने का एक शस्त्र विशेष ॥ प्राणपति श्री रामचन्द्र की आशानुकूल
(२) अयोध्याधीश श्री रामचन्द्र का एक अपने पर्ण पतिवता होने की साक्षी सर्च पुत्र-इस का पूर्ण नाम मदनांकुश' था। अयोध्या वासियों को “अग्निपरीक्षा"
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अंकुशा
वृहत् जैन शब्दार्णव द्वारा देकर और फिर तुरन्त ही संसार | वश्यक कर्म में बन्दना नियुक्ति (कृशिस्वरूप धियार गृहस्थाश्रम से विरक्त हो । कर्म ) सम्बन्धी ३२ दोषों में से एक दोष कर "पृथ्वीमती" आर्यिका ( साध्वी ) के का नाम जो हाथ के अंगुष्ट फो अंकुश समीप आत्मकल्याणार्थ दीक्षा धारण समान मोड़ कर चन्दना करने से करली तो इन दोनों ही भाइयों को लगता है। मातृ-वियोग का कुछ दिन तक बड़ा नोट१–बन्दना-नियुक्ति सम्बन्धी ३२ शोक रहा । अन्त में जब माघ कृ. ३० दोष--(१) अनाहत (२) स्तब्ध (३) प्रविष्ट (अमावस्या ) को अपने पितृव्य लक्ष्मण (४) परिपाड़ित (५) दोलायित (६) अंकुशित के शरीर परित्याग करने पर अपने पिता (७) कच्छपरिणित (E) मत्स्योद्वर्त (९) मनोको प्रात-स्नेहवश अति शोकातुर देखा दुष्ट (0) वेदिकाबद्ध (११) भय (१२) विभ्य | तो इन दोनों ही भाइयों को इस असार (१३) ऋद्धिगौरव (१४) गौरव (१५) स्तेनित संलार के क्षणभंगुर विषय सुख अति (१६) प्रतिनीत (१७) प्रदुष्ट (१८) तर्जित (१६) विरस दिखाई पड़े। पिता से किसी न शब्द (२०) होलित (२१) त्रिवलित (२२) किसी प्रकार आशा लेकर और अयोध्या कुंचित (२३) इष्ट (२४) अदृष्ट (२५) संघकरके समीप ही के महेन्द्रोदय बन में जाकर मोचन (२६) आलब्ध (२७) अनालब्ध (२८) / "श्री अमृतस्वर” मुनि से दिगम्बरी हीन (२६) उत्तर चूलिका (३०) मूक (३१) | दीक्षा ग्रहण कर ली । चिरकाल उग्र ददुर (३२) चललित ॥ (प्रत्येक का स्वरूप तपस्चारण के बल ले त्रिकालदर्शी और आदि यथास्थान देखें)॥ प्रैलोक्य व्यापी, आत्मस्वभावी कैवल्य- नोट २-इस दोष के सम्यन्ध में ज्ञान का आविर्भावकर पाबागिरि से अन्य भी भिन्न भिन्न कई मत हैं--(१) रजोनिर्वाणपद प्राप्त किया । अयोध्या का हरण को अंकुश की समान दोनों हाथों में राज्य श्री रामचन्द्र के विरक्त होकर रखकर गुरु आदि को बन्दना करना (२) राज्य-विभव त्यागने पर लक्ष्मण के सोये हुए गुरु आदि को उनके वस्त्रादि खेंच ज्येष्ठ पुत्र 'अङ्गन्द' को दिया गया जो कर जगाना और फिर बन्दना करना (३) राजगदी पाकर “पृथ्वीचन्द्र' नाम से अंकुश लगाने से जैसे हाथी सिर ऊँचा नीचा प्रलिद्ध हुआ और युवराजपद अनंगलवण | करता है वैसे ही ऊंचा नीचा सिर बन्दना के • (लव ) के पुन को मिला ।।
समय करना (अ. मा.)॥ (३) महाशु नामक देवलोक के एक
अङ्ग-(१) शरीर या अन्य किसी वस्तु का विमान का नाम जहां १६ सागशेपम की
एक भाग, अवयव, शरीर, जोड़, मित्र, __ आय हे (अ. मा.)
उपाय, कर्म, प्रधानअवयव, एक प्रकार | अंकशा-चौदवें तीर्थकर 'श्री अनन्तनाथ' का वाक्यालङ्कार; की एक शासन देवी (अ. मा.)॥
(२) वेदाङ्ग अर्थात् शिक्षा, कल्प, व्या
करण, ज्योतिष, छन्द और निरुक्त; | अंकशित दोष-दिगम्बर मुनि के षटा- (३) एक देश (उत्तरी विहार) का।
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( ११७ ) अम्ल वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्गन्यासक्रिया नाम जो भारत वर्ष में गंगा और सरयू के (१०) प्रश्न व्याकरणाङ्ग (११) धिपाकसंगम के निकट संयुक्त प्रान्त और बंगाल सूत्राङ्ग (१२) दृष्टि वादाङ्ग। (देखो शब्द प्रान्त के मध्य है जिस की राजधानी भा- "अक्षरात्मक श्र तज्ञान" और 'अंग प्रविष्टगलपुर के निकट 'चम्पापुरी' थी॥ श्रु तशान'' और "अङ्गवाह्य श्रु तशान'') ।
(४) चम्पापुर नरेश “बलिराज" के अङ्गचलिका-द्वादशाङ्ग ग्रन्थों का परिएक क्षेत्रज पुत्र का नाम जो बलि की स्त्री |
शिष्ट भाग ( स्वेताम्बर ) ॥ "सुदेष्णा" के गर्भ से एक जन्मान्ध तपस्वी "दीर्घतमा" के वीर्य से जन्मा था। इसके अङ्गज-(१) पुत्र, पुत्री, रुधिर,केश, पीड़ा, चार सहोदर लघु भ्राता (१) बङ्ग (२) काम, मद, मोह, शरीर से उत्पन्न होने कलिङ्ग (३) पुंड और (४) सूक्ष थे।
वाली प्रत्येक वस्तु । ___ (५) श्री रामचन्द्र के मित्र बानरवंशी (२) आगामी उत्सर्पिणीय काल के किष्कन्धानरेश सुग्रीव' का बड़ा पुत्र जिस
तृतीय भाग “दुःखम सुखम" नामक में को लघमाता अङ्गद था। यह दोनों भाई होने वाले ११ रुद्रों में से अन्तिम रुद्र का
माम। सुग्रीव की रागी सुतारा के गर्भ से जन्मथे। श्री रामचन्द्र के राज्य-वैभव त्याग करने | (३) आगामी २४ काम देवों में से के समय 'अङ्ग' ने अपने पिता 'सुग्रीव' के 'एक कामदेव का नाम । साथ ही मुनि-दीक्षा ग्रहण करली और इस
(४) रामरावण युद्ध के समय लड़ने लिये किकन्धाधुरी का राज्य इसके छोटे |
___ वाले अनेक योद्धाओं में से राम की सेना भाई अङ्गद को दिया गया।
के एक वीर योद्धा का नाम ॥ (६) निमित्त शान के आठ भेदों अर्थात |
(देखो प्र. वृ. वि. च.) अन्तरीक्ष, भौम, अङ्ग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, | अङ्गमित्-एक गृहस्थ का नाम जिस ने व्यञ्जन, छिन्न, में से तीसरे भेद का नाम श्री पार्श्वनाथ के समीप दीक्षा ली थी। जिस से किसी के अंगोपांग देल कर या स्पर्श कर या कोई अंग फरकने को देखकर |
| अङ्गद-(१) बाजू, बाजूबन्द, बाहु-भूषण, उस के त्रिकाल सम्बन्धी सुख दुखादि
अङ्गदान करने वाला, दक्षिण दिशा के का ज्ञान हो जाय ॥
हाथी की हथनी ॥ (७) अक्षरात्मक श्र तज्ञान के आधा
(२) आठवें बलभद्र श्री रामचन्द्र के राङ्ग' आदि द्वादश भेदों में से प्रत्येक
मित्र वानर वंशी राजा "सुग्रीव" का
छोटा पुत्र जिस का बड़ा भाई अंग था। का नाम ।। ___ द्वादशांग के नाम-(१) आचाराङ्ग
इसनाम के अन्य भी कई पुराणप्रसिद्ध ! (२) सूत्रकृताङ्ग (३) स्थानाङ्ग (४) सम
.. पुरुष हुए हैं ( देखो ग्रन्थ "वृहत विश्वचायाङ्ग (५) व्याख्याप्रशन्त्याङ्ग (६) धर्म
चरितार्णव )। कथाङ्ग (७) उपासकाध्ययनाङ्ग (८) अन्तः | अङ्गन्यासक्रिया-तान्त्रिक क्रिया विकृशाङ्ग (8) अनुत्तरौपपादिकदशाङ्ग ) शेष; किसी देवता की आराधना या
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( ११८ ) अङ्गपण्णत्तो वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्गपाहुड़ उपास्ना में मंत्रों द्वारा अंग स्पर्श करना; | में हुआ। इन के पिता का नाम 'कुन्दश्रेष्ठि' दोनों हाथों की कनिष्ठा आदि अंगुलियों और माता का नाम कुन्दलता था । ११ वर्ष में पंच नमस्कार मंत्र का पाल कर के की वय में इन्होंने मुनिदीक्षा धारण की । ३३ दोनों हाथ जोड़ कर दोनों अंगूठों से वर्ष के उग्रतपश्चरण के पश्चात् ४४ वर्ष की ___ "ॐ ढां णमो अरहंताणं स्वाहा वय में मि० पौष कृ०८ विक्रमजन्म सम्वत् हृदये", यह मंत्र बोलकर हृदय स्थान में ४६ में अपने गुरु 'श्रीजिनचन्द्रस्वामि' के न्यास अर्थात स्पर्शन करे
स्वर्गारोहण के पश्चात् उन की गद्दी के पट्टा___ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा ललाटे', धीश हुए । ५१ वर्ष १० मास १० दिन पट्टायह मंत्र बोल कर ललाट स्थान में धीश रह कर और ५ दिन समाधिमरण में न्यास कर
| बिता कर ९५ वर्ष १०॥ मास की वय में मिती ___ "ॐ हूं णमो आइरियाणं स्याहा कार्तिक शुक्ला ८ विक्रमजन्म सम्बत् १०१ शिरसि दक्षिणे", यह मंत्र बोलकर शिर में स्वर्गारोहण किया। इसी दिन श्री 'उमाके दक्षिण भाग में न्यास करे;
स्वामि' इनके पट्टाधीश हुये । श्री कुन्दकुन्दा___ "ॐ ह्रीं णमो उक्झायाणं स्वाहा चार्य (१) पद्मनन्दि (२) एलाचार्य (३) गृद्धपश्चिमे", यह मंत्र बोलकर शिर के | | पिच्छ (४) वक्रग्रीव (५) कुन्दकुन्द, इन 4 नामों पश्चिम भाग में न्यास करे,
से प्रसिद्ध थे । यह जाति के पल्लीवाल थे। यह ___ “ॐ हुः णमो लोए सब्बसाहुणं स्वाहा नन्दिसंघ, पारिजातगच्छ और बलात्कारगण वामे", यह मंत्र बोल कर शिर के वाम में थे । इनके रचे (१) अंगपाहु (२) अष्टपाहुड भाग में न्यास करे।।
(३) आचार पाहुड (४) आलाप पाहुइ (५) इसप्रकार अंग स्पर्श करने को अंगन्यास- आहारणा पाहुड़(६) उघात पाहुड़(७)उत्पादक्रिया कहते हैं । यह क्रिया “सकली. पाहुड़ (८) एयंम पाहुड़ (8)कर्मविपाक पाहुड करण विधान'' का एक अंग है जो (१०)क्रम पाहुड़ (११) क्रियासार पाहुड(१२) देवाराधना आदि में विघ्नशान्ति के क्षपण पाहुड़ (१३) चरण पाहुड (१४) चूर्णीलिए किया जाता है। ( देखो शब्द पाहुइ (१५) चूली पाहुड (१६) जीव पाहुड "सकली करण विधान")॥
(१७) जोणीसार पाहुइ (१८) तत्वसार पाहुष्ट अंग रणात्ती-देखो शब्द 'अंगप्रशप्ति' ॥ (१६) दिव्य पाहुंड (२०) दृष्टि पाहुड़ (२१) द्र
व्य पाहुड़ (२२) नय पाहुड़(२३) निताय पाहुड़ अङ्गपाहुड़-श्री कुन्दकुन्दाचार्य रचित (२४) नियमसार पाहुड (२५) नोकर्म पाहुङ | ८४ पाहुप्रन्थों में से एक का नाम ॥ (२६) पञ्चवर्ग पाहुइ (२७)पञ्चास्तिकाय पाहुस, ___नो: १--श्री कुन्दकुन्दाचार्य तत्वार्थ- (२८) पयद्ध पाहुड (२०.) पुण्य पाष्टुड (३०)। सूत्र के रचयिता श्री ‘उमास्वामी' ( उमा- | प्रकृति पाहुड(३१) प्रमाण पाहुड़ (३२) प्रवचस्वाति ) के गुरु थे। इनका जन्म मालवादेश नसार पाहुड़ (३३) बन्ध पाहुड़ (३४) युद्धिमें बंदीकोटा के पास बारापुर स्थान में विक्रम- | पाहुड़ (३५) बोधि पाहुड़ (३६) भावसार पाजन्म से ५ वर्ष पीछे पीरनिर्वाण सम्वत् ४७५ हुड़ (३७) रत्नसार पाहुड़ (३८) लब्धि पाहुड़
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( ११६ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्गपाहुड़
अङ्गप्रविष्ट श्रुतज्ञान
|
(३६) लोक पाहुड़ (४०) वस्तु पाहुड़ (४१) विद्या पाहुड़ (४२) विहिया पाहुड (४३) शिक्षा पाहुड़ (४४) पट पाहुड़ (४५) पटदर्शन पाहुड़ (४६) समयसार पाहुड़ (४७) समवाय पाहुड (४८) संस्थान पाहुड़ (४९) साल्मी पाहुड़ (५०) सिद्धान्त पाहुड़ (५१) सूत्र पाहुड़ (५२) स्थानपाहुड़ इत्यादि ८४ पाहुड़ ग्रन्थ तथा द्वादशानुप्रेक्षा आदि अन्य कई ग्रन्थ प्राकृतभाषा में हैं। पाहुड़ को प्राभ्रत भी कहते हैं जिसका अर्थ 'अधिकार' है ।
और पवित्र जिनधर्म व जैनधर्मियों पर अनेक अत्याचार होते हुये देख कर इनका मन दुखित था । जब ११ वर्ष की वय में मुनिदीक्षा लेने के पश्चात् गुरु के सन्मुख यह भले प्रकार विद्याध्ययन कर चुके और उग्रोग्र तपश्चरण द्वारा इन्होंने आत्मबल बहुत उच्च श्र ेणी का प्राप्त कर लिया तो गुरुआशा लेकर शैवों तथा अन्य धर्मावलम्बियों से भी बड़े बड़े शास्त्रार्थ कर भारतवर्ष भर में अपनी विजयपताका फैरा दी । अन्यमती बड़े २ दिग्गज विद्वान इनकी विद्वता और तपोबल के चमत्कार को देख कर इन के चरणसेवक बन गये जिस से लुत सा होता हुआ पवित्र दयामय जिनधर्म प्राणीमात्र के भाग्योदय से फिर से सम्हल गया ॥
नोट २. - श्री कुन्दकुन्द स्वामि के जन्म के समय मालवादेश में जिसे उस स मय 'अवन्तिदेश' कहते थे शक्रवंशी जैनधर्मी राजा 'कुमुदचन्द्र' का राज्य था जिसे धारानगराधीश 'धार' के दौहित्र और 'गन्धर्वसेन' के पुत्र 'विक्रमादित्य' ने किसी न किसी प्रकार अवसर पाकर अपनी १८ वर्ष की वय में अपने अधिकार में कर लिया और उज्जैननगरी को अपनी राजधानी बना कर 'वीरवि क्रमादित्य शकारी' के नाम से अपना राज्याभिषेक कराया और इसी दिन से इस विजय की स्मृति में अपने नामका एक सम्वत् प्रचलित किया । पश्चात् थोड़े ही दिनों में इसने अपने बाहुबल से गुजरात, मगध, बंगाल, उडीसा आदि अनेक देशों को अपने राज्य में मिला कर बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त की और २२ वर्ष की वय में राजाधिराजपद प्राप्त कर लिया ।
यह पक्काशैवी और जैनधर्म का द्वेषी था । अतः इसके राज्य में शिवसम्प्रदाय का बल इतना अधिक बढ़ गया कि जैनधर्म प्रायः लुप्त सा दिखाई पड़ने लगा । इसके राज्य अभिषेक के | समय 'श्री कुन्दकुन्दाचार्य' की वय केवल १३ वर्ष की थी। शैवों का दल और बल अनौचित्त रीति से दिन प्रतिदिन बढ़ता हुआ
1
नोट ३ - श्री कुन्दकुन्दाचार्य या वीरविक्रमादित्यशकारी का विशेष चरित्र जानने के लिये देखो ग्रन्थ "बृहतविश्वचरितार्णव" ॥
अङ्गप्रविष्ट - अंग में प्रवेश पाया हुआ,
अंग के अन्तर्गत, द्वादशांग तज्ञान, अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के दो मूलभेदों में से एक भेद जो १२ 'अंगों' में विभाजित है ॥
अङ्गप्रविष्टश्रुतज्ञान- पूर्ण 'अक्षरात्मक
ज्ञान' के दो विभागों अर्थात् (१) अं प्रविष्ट और (२) अंगवाल में से प्रथम विभाग | ( जो शब्द "अक्षरात्मक श्रुतज्ञान” ) ॥
पूर्ण अक्षरात्मक श्र तज्ञान का यह वि भाग निम्न लिखित १२ अङ्गों में विभाजित है जिस में सर्व अपुनरुक्त अक्षरों की संख्या १८४४६७४४०७३६२६४४३४४० ( बीस अप्रमाण ) है जिस के ११२८३५८००५
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प्रविष्ट श्रुतज्ञान
う
( १२० )
वृहत् जेन शब्दार्णव
( दश अङ्क प्रमाण ) मध्यम्पद हैं । एक मध्यम्पद १६३४८३०७८८८ ( ग्यारह अङ्क प्रमाण ) अपुनरुक्तअक्षर होते हैं:-- [१] आचाराङ्ग – यह अंग १८००० मध्यमपदों में है । इस में 'अमागारधर्म' अर्थात् मुनिधर्म के २८ मूलगुण, ८४ लक्षउत्तरगुण आदि समस्त आचरण का सविस्तार पूर्ण वर्णन है ॥
-यह अङ्ग ३६०००
[२] सूत्रकृताङ्गमध्यमपदों में है । इस में 'ज्ञानविनय' आदि परमागम की निर्विघ्न अध्ययनक्रिया का तथा प्रज्ञापना, कल्पाकल्प, छेदोपस्थापना आदि व्यवहारधर्म्मक्रिया का और स्वसमय, परसमय आदि का स्वरूप सूत्रों द्वारा सविस्तार वर्णित है ॥
[३] स्थानाङ्ग- — यह अङ्ग ४२००० मध्यमपदों में है । इस में सर्व द्रव्यों के एक, दो, तीन, चार, पाँच इत्यादि असंख्य या अनन्त पर्यन्त जितने जितने विकल्प अनेक अपेक्षाओं या नयाँ उपनयों द्वारा हो सकते हैं उन सर्व विकल्पों का क्रम से एक एक स्थान बढ़ते हुये अलग अलग वर्णन है । यह 'अङ्ग' स्थानक्रम से निरूपण किये हुये सर्व द्रव्यों के एकादि अनेक विकल्पों या भेदों को बताने वाला एक प्रकार का " महानकोष" है । (देखो ग्रन्थ 'लघुस्थानाङ्गार्णवसार' ) ॥
[४] समवायाङ्ग -- यह १६४००० मध्यमपदों में है । इस में सम्पूर्ण द्रव्यों का वर्णन किसी अपेक्षा द्वारा परस्पर की समानता की मुख्यता से है। अर्थात् कौन कौन द्रव्य या पदार्थ किस २ द्रव्य या पदार्थ के साथ किन किन गुणों
अङ्गप्रविष्ट श्र ुतज्ञान
ु
या धर्मो में समानता रखता है, यह इस अङ्ग में वर्णित है। जैसे:
(क) द्रव्यतुल्यता-धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, लोकाकाश द्रव्य और एक जीव द्रव्य, ये प्रदेशों की संख्या में समान हैं ।
सामन्यतयः कर्मबन्ध की अपेक्षा सर्व संसारी जीव समान 111
बन्ध रहित होने की अपेक्षा सर्व सिद्धात्मा समान हैं ।
स्वाभाविक गुण अपेक्षा सर्व संसारी और सिद्ध जीव समान हैं | इत्यादि
(न) क्षेत्र तुल्यता-मध्यलोक में “अढाईद्वीप,” १६ स्वगों में से प्रथम स्वर्ग का 'ऋजुविमान', ७ नरकों में से प्रथम नरक के प्रथम पाथड़े का " सीमन्तक" इन्द्रक बिल, मुक्तशिला या सिद्ध क्षेत्र, यह सर्व क्षेत्र विस्तार में समान हैं ॥
सातवें नरक का अवधस्थान'" या "अप्रतिष्ठितस्थान' नामक इन्द्रकविल, जम्बूद्वीप और "सर्वार्थ सिद्धि" विमान, यहभी विस्तार में समान हैं ॥
मध्य के सुदर्शन मेरु को छोड़कर शेष चारों मेरु ऊँचाई में समान हैं ॥ इत्यादि
(ग) काल तुल्यता- उत्सर्पिणी काल और अप सर्पिणी काल, यह दौनों काल मर्यादा में समान हैं ॥
प्रथम नरक के नारकियों, भवनवासी और व्यन्तर देवों की जघन्य आयु समान है ॥
सप्तम नरक और सर्वार्थ सिद्धि की उ त्कृष्ट आयु समान हैं ।
उत्कृष्ट तथा जघन्य आयु स्थिति की
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SaaEECRETATISTICua4BIKASHANTDARSHAD
( १२.१ ) अङ्गप्रविष्ट श्रु तज्ञान
वृहत् जैन शब्दार्णव
- अङ्गप्रविष्ट श्र तज्ञान अपेक्षा नारकी और देव समान है तथा| [५] व्याख्याप्रशप्ति( विपाकप्रशप्ति)--यह मन्य और तिर्यश्च समान हैं।
अंग २२४००० मध्यम पदों में है। जीव __ इत्यादि...................
अस्ति है या नास्ति, एक है या अनेक नित्य । (घ) भाव तुल्यता-वस्यशान और कैवल्य- है या अनित्य, बक्तव्य है या अवक्तव्य, दर्श समान हैं।
इत्यादि ६० सहस्त्र प्रश्न उठाकर इनके उत्तर. इत्यादि....................
रूप सविस्तर व्याख्यान इस अज में है ॥ (ख) अन्यान्य तुल्यता-अरूपी गुणकी अपेक्षा [६] शातृधर्मकथाङ्ग-यह अङ्ग ५५६०००
एक पुदगल द्रव्य को छोड़ कर शेष द्रव्य मध्यम पदों में है। इसमें जीवादि द्रव्योका जीव, धन, अधर्म, आकाश और काल स्वभाव, तीर्थङ्करों का माहात्म्य, तीर्थङ्करों समान है।
की सहज स्वाभाविक दिव्यध्वनि का समय काय अपेक्षा एककाल द्रव्य को छोड़कर पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह, और अर्द्धशेष ५द्रय सकाय होने से समान हैं। रात्रि की छहछह घटिकाएँ रत्नत्रय व दशजसत्व गुण की अपेक्षा एक जीव द्रव्य लक्षण रूप धर्म का स्वरूप, तथा गणधर, को छोड़कर शेष ५ द्रव्य समान हैं। इन्द्र, चक्रवर्ती आदि शानी पुरुषों सम्बन्धी __ स्थावर होने की अपेक्षा पृथ्वोकायिक, | धर्म कथाओं का निरूपण है। जल कादिक, अग्निकायिक, वायुकायिक [७] उपासकाध्ययनाङ्ग-यह अंग ओर बनस्पतिकाथिक, यह पांचों प्रकार के ११७०००० मध्यमपदों में है । इस में जोव समान हैं ।
उपासकों अर्थात् श्रावकों या धार्मिक सपने की अपेक्षा दो इन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय,
गृहस्थों की सम्यग्दर्शनादि ११ प्रतिमाओं चतुरेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय, यह चारों प्रकार
(११ प्रकार की प्रतिज्ञारूप श्रेणियों) के जीव समान है ॥
सम्बन्धी व्रत, गुण, शील, आचार, क्रिया, ___ असंशोपने की अपेक्षा सर्व प्रकार के | मन्त्र आदि का सविस्तार प्ररूपण है॥ स्थावर, (या एकेन्द्रिय जीव ) और दो- [८] अन्तःकृद्दशांग- यह अग इन्द्रिय, विइन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय तथा २३२८००० मध्यमपदों में है। इसमें प्रत्येक अमनस्क-पञ्चेन्द्रिय जीव समान हैं। तीर्थकर के तीर्थकाल में जिन दश दश।
गति की अपेक्षा सातोही नरकों के मुनीश्वरों ने चार प्रकार का घोर उपसर्ग नारकी समान हैं; चारों निकाय के देव सहन करके कैवल्यशान प्राप्त कर सिद्ध समान है; आर्य व म्लेच्छ या भूमिगोचरी पद (मुक्तिपद ) प्रात किया उन सर्व का। व विद्याधर या स्त्री व पुरुष या राजा सविस्तार वर्णन है ॥ व रंक इत्यादि सर्व प्रकार के मनुष्य नोट१-अन्तिम तीर्थङ्कर श्री महावीर समान हैं; और सर्व प्रकार के पशु पक्षी, | स्वामी के तीर्थकालमें (१) नमि (२)मता (३)। कीड़े मकोड़े और बनस्पति आदि पञ्च | सोमिन (४) रामपुत्र (५) सुदर्शन (६) यमस्थापर, यह सर्व तिर्यंच जीव समान हैं । लिक (७ ) वलिक ( = ) विकम्बित इत्यादि इत्यादि........................ (किकम्बल) (६) पालम्बष्ट (१०) पुत्र, इन दश
स्या
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( १२२ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्गप्रविष्ट श्र तज्ञान
मुनीश्वरों मे तीव्र उपसर्ग सहन किया || ( भग० आ० पत्र २०३॥ ) नोट२ - जिन्हें घोर उपसर्ग सहन करते हुए कैवल्यज्ञान प्राप्त होता और तुरन्त ही अन्तर्मुहूर्त में मुक्ति पद मिल जाता है उन कैवल्य-शानियों को‘अन्तः कृत्केवली" कहते हैं ।
निरूपण है ॥
नोट- जिस कथा में तीर्थङ्करादि पुराण- पुरुषों का चरित्ररूप " प्रथमानुयोग", लोकालोक का तथा कर्मादि के स्वरूपादि का वर्णनरूप "करणानुयोग, "गृहस्थधर्म और मुनिधर्म का निरुपण रूप "चरणानुयोग", और पट द्रव्य, पञ्चास्तिकाय, सप्ततत्त्व, नव पार्थ आदि की व्याख्या रूप “द्रव्यानुयोग”, इन चार अनुयोगों का कथन सतमार्ग में प्रवृति और असत् मार्ग से निवृति करा देने वाला हो इसे "आक्षेपिणी कथा" कहते हैं ॥
|
नोट३ - एक तीर्थङ्कर के जन्मले अगले तीर्थङ्कर के जन्म तक के काल को पूर्व तीर्थङ्कर का "तीर्थकाल" कहते है |
|
[९] अनुत्तरौपपादिकदशांग - यह अङ्ग ९२४४००० मध्यम पदों में है। इस में प्रत्येक तीर्थङ्कर के तीर्थकाल में जिन दश दश सुनियों ने महा भयङ्कर उपसर्ग सहन कर और समाधि द्वारा प्राण त्याग कर "विजय" आदि पांच अनुत्तर विमानों में से किसी न किसी में जा जन्म धारण किया उन सर्वका विस्तार सहित वर्णन है ।
नोट- श्री महावीर स्वामी अन्तिम तीर्थङ्कर के तीर्थकाल में ( १ ) ऋजुदास ( २ ) धन्यकुमार ( ३ ) सुनक्षत्र (४) कार्त्तिकेय (५) नन्द ( ६ ) नन्दन ( ७ ) शालिभद्र (=) अभयकुमार (९) वारिषेण (१०) चिलाति पुत्र, इन दश ने दारुण उपसर्ग सहन किया ||
( भग० आ० पत्र २०४ ) [१०] प्रश्नव्याकरणाङ्ग - यह ३१ ६००० मध्यम पदों में है। इसमें नष्ट. मुष्टि, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन, मरण, बिस्ता, भय, जय, पराजय, आदि त्रिकाल सम्बन्धी अनेकानेक प्रकार के प्रश्नोंका उत्तर देने की विधि और उपाय बताने रूप व्याख्यान है, तथा प्रश्नानुसार आक्षेपिणी, विक्षेपणी, संवेजनी, निवेजनी, इन चार प्रकार की कथाओं का भी इसमें
अप्रविए थ तज्ञान
७
जिस कथन में गृहीतमिथ्यात्वजन्य भाव सम्बन्धी एकान्त वाद" के अन्तर्गत जो ३६३ मिथ्यात्व हैं उन का खंडन नय प्रमाान्वित दृढ़ युक्तियों द्वारा न्याय पद्धति से किया जाय उसे "विक्षेपिणी कथा" कहते हैं ॥
जिस कथा में यथार्थ धर्म और उसके उत्तम फल में अनुराग उत्पन्न करानेवाला कवन हो उसे "संवेजनी कथा" कहते हैं ॥
जिस कथा में सांसारिक भोगबिलासी और पञ्वेन्द्रियजन्य विषयों की असारता, क्षण मंतुरता, और अन्तिम अशुभ फल आदि निरूपण करके उप से विरकता उत्पन्न कराने वाला कथन हो उसे "निवेजनी कथा" कहते हैं ॥
[११] विपाकसूत्राङ्ग-यह अंग १८४००००० मध्यम पदों में है। इसमें सर्व प्रकार की शुभाशुभ कर्म प्रकृतियों के उदद्य, उदीरणा, सत्ता आदि का फल देने रूप विपाक का वर्णन तीव्र, मन्द, मध्यम अनुभाग के अनुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चतुष्टय की अपे क्षा से है ॥
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( १२३ ) अङ्गप्रविष्ट श्रु तज्ञान वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्गप्रविष्ट श्रु तज्ञान नोट-उपयुक्त ११ अङ्गों के सर्प निरूपण है ॥ मध्यम पदों का जोड ४१५०२००० है ॥ . ५. व्याख्या प्रशप्ति-यह विमाग ८४
[१२] दृष्टिवादाङ्ग-यह अंग १०८६ | ३६००० मध्यम पदों में है। इस में जीव ८५६००५ मध्यम पदों में है । इस अंग के
पुद्गलादि द्रव्यों की सविस्तार व्याख्या (१) परिकर्म (२) सूत्र ( ३) प्रथमानु- अनेकान्त अन से है ॥ योग (४) पूर्वगत और (५) चूलिका, नोट-इस रिकर्म' नामक उपाङ्ग के यह पांच उपांग हैं जिन में से प्रत्येक का | उपयुक्त पाँचा हा विभागों में यथास्थान और सामान्य वर्णन निम्न प्रकार है:- यथा आवश्यक गणित सम्बन्धी अनेकानेक
(३) परिकर्म-इसउपांगमें १८१०५००० "करणसूत्र" भी दिये गये हैं । मध्यम पद हैं।
(२) सूत्र-यह उपाङ्ग, ८८००००० यह उपांग निम्न लिखित ५ भागों में | मध्यमपदों में है। . विभाजित है:
इस में जीव अस्तिरूप ही है, १. चन्द्र प्राप्ति-यह विभाग ३६०
नास्तिरूप ही है, कर्ता ही है, अकर्ता ही है, ५००० मध्यम पदों में है । इसमें चन्द्रमा
बद्ध ही है, अबद्ध ही है, सगुण ही है, की आयु, गति, ऋद्धि, कला की हानि
निर्गुण ही है, स्वप्रकाशक ही है, पर वृद्धि, उस का विभव, परिवार, पूर्ण या
प्रकाशक ही है, इत्यादि कल्पनायुक्त अपूर्ण प्रहण, और उस सम्बन्धी विमान
सर्व पदार्थो के स्वरूपादि को एकान्त संख्या आदि का सविस्तार वर्णन है॥
पक्ष से मिथ्या श्रद्धान करने वाले १८० . २. सूर्य प्राप्ति-यह विभाग ५०३०००
क्रियावाद, ८४ अक्रियावाद,६७ अशानवाद, मध्यम पदों में है। इस में सूर्य की आयु,
और ३२ शिनयवाद सम्बन्धी ३६३ प्रकार गति, ऋद्धि, उस का विभव, परिवार, के एकान्तवादियों के स्वीकृत पक्ष और प्रहण, तेज, परिमाणादि का सविस्तार अपने पक्ष के साधन में उनकी सर्व वर्णन है॥
प्रकार की कुयुक्तयों आदि का सविस्तार ३. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति-यह विभाग निरूपण करके और फिर दृढ़ नय प्रमाणों ३२५००० मध्यम पदों में है । इस में जम्यू- द्वारा उनका मिथ्यापना भले प्रकार दिखा द्वीप सम्बन्धी नदी, पर्वत, हृद, क्षेत्र, खंड, कर कथञ्चित जीव अस्तिरूप भी है। बन, बेदी, व्यन्तरों के आवास आदि का - नास्तिरूप भी है, कर्ता भी है, अकर्ता | सविस्तार निरूपण है ॥
भी है, सबन्ध भी है, अबन्ध भी है, सगुण ४. द्वीप-सागर प्रज्ञप्ति-यह विभोग | भी है, निर्गुण भी है, स्वप्रकाशक भी है, ५२३६००० मध्यम पदों में है । इसमें मध्य- पर प्रकाशक भी है, एक भी है, अनेक भी लोक के सम्पूर्ण द्वीप-समुद्रो सम्बन्धी सर्व है, अल्पश भी है, सर्वज्ञ भी है, एक देशी प्रकार का कथन तथा समस्त ज्योतिष- | भी है, सर्व व्यापी भी है, जन्म मरण चक्र, ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनकासी | सहित भी है, जन्म मरण रहित भी है, देवों के आवास आदि का सविस्तार | इत्यादि अनेकान्तात्मक सर्व पदार्थों
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अप्रविष्ट श्र तज्ञान
७
( १२४ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
के स्वरूपादि का यथार्थ निरूपण है ॥ नोट १ - देखो शब्द "अक्रियावाद" नोट २ - १८० भेद युक्त क्रियावाद के प्रचारक प्रसिद्ध आचार्यों में कल, कण्ठी, अविद्धि, कौशिक, हरिश्मश्र अन्धपिक, रोमश, हारीत, मुंड, आश्वलायनीत्यादि हुए। ८४ भेद युक्त अक्रियावाद में प्रचारक प्रसिद्ध आचार्य मरीचि, कपिल, उलूक, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, बाड्वलि ( बालि), माठर, मौद्गलायन, इत्यादि हुए । ६७ भेद युक्त अज्ञानवाद के प्रचारक प्रसिद्ध आचार्य शाकल्य, वल्कल, कुथुमि, सत्यमुनि, नारायण, कठ, माध्यन्दिन, भोज (मौद), पैप्पलायन, वादरायण, स्विठिक्य, दैत्यकायन, वसु, जैमिन्य, इत्यादि हुए। और ३२ भेद शुक्त 'विनयवाद' के प्रचारक प्रसिद्ध आचार्य वसिष्ठ ( वशिष्ठ ), पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षणि, सत्वदत्त, व्यास, एलापुत्र, उपमन्यु, ऐन्द्रदत्त, अगस्ति इत्यादि हुए ॥
(३) प्रथमानुयोग -- यह उपांग ५००० मध्यमपदों में वर्णित है ।
इस में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती. नारायण, ६ वलभद्र, ६ प्रतिनारायण, इन ६३ शलाका पुरुषों के चरित्र का लपित्तारनिरूपण है ।।
(४) पूर्वगत -- यह उपांग १५५०००००५ मध्यमपद में वर्णित है ।
इसके निम्न लिखित १४ विभाग हैं:१. उत्पादपूर्व- - यह पूर्व १ करोड म ध्यमों में वर्णित है । इस में प्रत्येक द्रव्य के उत्पाद व्यय भोग्य और उन के अनेक संयोगी धर्मो का अनेक प्रकार नयधिवक्षा कर सविस्तार निरूपण है ॥
२. आग्रायणीयपूर्व- - यह पूर्व ९६
अनुप्रविष्ट शुतज्ञान
लाख मध्यमपदों में वर्णित है । इस में द्वादशांग का सारभूत पञ्चास्तिका, घरद्रव्य, सप्ततत्व, नवपदार्थ आदि का तथा ७०० सुनय और दुर्वय आदि के स्वरूप का सविस्तार निरूपण है ॥
नोट - इस पूर्व के सम्बन्ध में विशेष कथन जानने के लिये देखो शब्द "अमायणीपूर्व" ॥
३. वीर्यादवादपूर्व- - यह पूर्व ७०००००० ( सत्तर लाख ) मध्यमपदों में वर्णित है । इस में स्वदीर्य ( आत्मवीर्य ), परवीर्य ( फुद्गलादि अनात्सर्य ), उभयवीर्य, द्रव्यवीर्य, क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य, भादवीर्य,
वीर्य इत्यादि द्रव्य, गुण, पर्याय की शक्तिरूप अनेक प्रकार के वीर्थ (सामर्थ ) का निरूपण है ॥
(
४. अस्तिनास्तिवापूर्व - यह पूर्व ६० लाख मध्यमपदों में है। इस में प्रत्येक द्रव्य या वस्तु के अनेकान्तात्मक स्वरूप का साधन सप्तभंगी न्याय द्वारा अनेकानेक नयविवक्षा कर सात सात से किया गया है। यथा 'जीव' व्य, क्षेत्र, काल, भाव ) की अपेक्षा 'अस्तिरूप' है। परमुष्य की अपेक्षा 'वास्तिरूप' है, में अस्ति और नास्ति यह दोनों धर्म सापेक्ष पर उपस्थित है इस लिये वह शित् 'अस्तिनास्ति' रूप है; जीवद्रव्य का यथार्थ और पूर्ण स्वरूप बताना वचन अगोचर है--केवल स्वानुभवगम्य या शानगव्य ही है- --अतः वह कथञ्चित् अनिर्वचनीय या "अवक्तव्य' है; जीवद्रव्य में उपर्युक्त अलग अलग अपेक्षाओं से अस्तिपना और अवकव्यपना दोनों ही धर्मयुगपत्
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( १२५ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्गप्रविष्ट श्रमान
उपस्थित है, अतः वह कथञ्चित् 'अस्तिक है, इसी प्रकार नास्तिपमा और अचकव्यपना, यह दोनों धर्म भी युगपत् स में विद्यमान है, अतः वह कथञ्चित् 'नास्ति अवतव्य' है; इसी रीति से जीवद्रव्य में अस्तिपना, नास्विपना और अवकव्यपना, यह तीनों धर्म, अथवा अस्तिनास्तिपना और अवक्तव्यपना, यह दोनों धर्म सापेक्ष
पत् पाये जाते हैं, इस लिये वह सवचित् "अस्ति नास्ति अवतव्य" भी है ॥
अथवा अन्तिम तीन अंग निम्न लिखित अपेक्षाथों से भी कहे जा सकते
अप्रविष्ट तज्ञान
अनेकानेक भेदों में से प्रत्येक के यथार्थ स्वरूप का विरोधरहित निरूपण है |
५. ज्ञानप्रवादपूर्व -- यह पूर्व ६६६६६६६ ( एक कम करोड़ ) मध्यमपदों में है । इस मैं मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, और कै बल्य इन पांच भेद रूप यथार्थ या प्रामाण्यज्ञान, और कुमति, कुत और कुअवधि ( विभंगा ), इन तीन मिथ्या या अप्रामाप्यज्ञान, और इन आठोंमें से प्रत्येक के अनेकानेक भेदोपभेदों के स्वरूप, संख्या, विषय और फल आदि का न्यायपद्धति से पूर्ण रूप वर्णन है ।
६. सत्यप्रवादपूर्व -- यह पूर्व १००००००६ (छह अधिक करोड़ ) मध्यमपदों में है । इस में बच्चन संस्कार के २ कारण, शब्दोच्चारण के ८ स्थान, ५ प्रयत्न, २ बच्चन प्रयोग, १२ प्रकार भाषा, ४ वचन भेद, १० प्रकार सत्य वचन, ४ प्रकार तथा अनेक प्रकार असत्य वचन, ६ प्रकार अनुभयवचन, वचनगुप्ति, मौन, इत्यादि के लक्षण स्वरूपादि का सविस्तार निरूपण है ॥ नोट-बचन संस्कार के दो कारण
जब में स्ति और नास्ति यह दोनों धर्मवद्यपि सापेक्ष युगपत् उपस्थित है तथापि द्वारा युगपत् नहीं कहे जा सकते, कम से ही कहने में आ सकते हैं इस लिये कथंचित् नास्ति वक्तव्य होने के
(जीवद्रव्य) कथञ्चित् "अस्तिव्य" है और अस्तिवतव्य होने के समय कहि "नास्तिअवक्तव्य" है, (१) स्थान (२) प्रयत्न ||
दोनों धर्म परस्पर विरोधी होने से इन्हें युगपत् कहना अगोपर है, अतः जीव कथञ्चित् "अतिनास्तिअवकय" है ॥
इसी प्रकार एक अनेक, एकानेक, अवध, फाक्तव्य, अनेकवक्तव्य, और एकावेळावकल्य, यह सोत भंग हैं; ऐसे ही नित्य, अधिक नित्यानित्य, अबपाव्य, दिवाकय्य, अनिस्यावकव्य और नित्यादित्यापसव्य यह लात भंग, इत्यादि अनेकानेक प्रकार से जीवादि द्रव्यों और प्रत्येक
शब्दोच्चारण के ८ स्थान -- (१) हृदय (२) कण्ठ (३) मस्तक (४) जिल्हा का मूल (५) दन्त (६) तालु (७) नासिका (=) ओष्ठ ॥
शब्दोच्चारण के ५ प्रयत्न - (१) स्पृष्टतो (२) ईषत्स्पृष्टता (३) विवृतता (४) ईषद्विवृतता (५) संवृतता ॥
बचन प्रयोग २ -- ( १ ) शिष्ट प्रयोग (२) दुष्टप्रयोग ||
भाषा १२ प्रकार -- (१) अभ्याख्यानी (२) क्षा से किये गये | कलहकारिणी ( ३ ) पैशून्य (४) असम्बद्ध या
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अङ्गप्रविष्ट श्रु तज्ञान वृहत् जेन शब्दार्णव
अप्रविष्ट श्रुतज्ञान प्रलापयुक्त (५) रतिकारक (६) अरतिकारक | है, मूर्तीक है अमूर्तीक है, सक्त है असक्त (७). उपधि या परिग्रहवर्द्धक (E) निकृति है, जन्तु है अजन्तु है, कपाष युक्त है अक(8) अप्रणति (१०) मोषक (११) सम्यक् (१२) पायी है, रागद्वपी है वीजरागी है, इच्छुक मिथ्या॥
है निरिच्छुक है, योगी है अयोगी घवन भेद ४--(१) सत्य (२) असत्य है, संकुट है असंतुष्ट है, नारकी है, ।। (३) उभय (४) अनुभय ॥
तिर्यंच है, मानव है, देव , बहिरात्मा है . सत्य १० प्रकार-(१) जनपद सत्य (२) अन्तरात्मा है, परमात्मा है, रोदनमा सम्मति सत्य (३) स्थापना सत्य (४) नाम विष्णु है, शिव है, महेश है, स्वयंभ है। सत्य (५) रूप सत्य (६) प्रतीत्य सत्य था इत्यादि इत्यादि अपने असंख्य नैमितिक! आपेक्षिकसत्य(७)व्यवहार सत्य (८)संभाधना | या अनन्त स्वाभाविक गुणोंकी अपेक्षा से। सत्य (६) भाव सत्य (१०) उपमा सत्य ॥ आत्मा अनेकानेक रूप है। आत्मा के इन ____ अनुभयवचन प्रकार (१) आमन्त्रणी
सर्व धर्मों का निरूपण इस 'पूर्व में किया
गया है। (२) आज्ञापनी (३) याचनी (४) आच्छनी (५) प्रशापनी (१) प्रत्याख्यानी (७) संशय- ८. कर्मप्रवादपूर्व-यह पूर्व १ करोष वचनी (८) इच्छानुलोम्नी (६) अनक्षरात्मिका॥ ८० लाख मध्यम पदों में है । इस में द्रश्य___ असत्य धचन के चार भेद-(१) सद्भूत
कर्म, भावकर्म, द्रव्य कर्म की ८ मूलप्रकृति, निषेधक (२) असद्भूत विधायक (३) परि- १४८उत्सरप्रकृति और अनेकानेक उत्तरोत्तर वर्तित (४) गर्हित, जिस के अन्तर्गत किसी प्रकृति रूप भेदों सहित उनके बन्ध, उदय, को सताने या देशमें उपद्रव फैलाने वाले या उदीरणा, सत्त्व, उत्कर्षण, अपकर्षण, उपहिन्सोत्पादक आरम्भादि में फँसाने वाले शमन, संक्रमण, निधत्ति, मिःकाचम, इन सावध पवन, तथा कर्कश, कटुक, परुष,
दश कारणों या अवस्थाओं का और उम निष्ठुर, परकोपिनी, मध्यकृशा, अभिमानिनी, का १४ गुणस्थानों में यथासम्भय होने न अनयंकरी, छेदंकरी, भूतबन्धकरी, यह
होने का तथा गुणस्थान अपेक्षा कर्मों दश प्रकार की अथवा अनेक प्रकार की अ.
के बन्ध, उदय सत्ता को संख्या और उनकी प्रिय भाषा गर्भित है।
व्युच्छित्ति, इत्यादि इत्यादि कर्म सम्बन्धी ___७. आत्मप्रधादपूर्व-यह पूर्व २६ करोड़
सर्व ही बातों का सविस्तार निरूपण है॥ ' मध्यमपदों में है। आत्मा जीव है पुद्गल ९. प्रत्याख्यानपूर्व--यह पूर्व ८४ लाख
है, कर्ता है अकर्ता है, भोक्ता है, अभोक्ता | मध्यमपदों में है। इस में नाम, स्था-| है, प्राणी है अप्राणी है, बक्ता है अवक्ता है, पना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षा सर्वज्ञ है अल्पश है, शानी है अज्ञानी है, | मनुष्यों के बल और संहनन आदि के चेतन है अवेतन है, व्यापी है अव्यापी | अनुसार यावजीव या कालमर्यादा से , संसारी है सिद्ध है, शरीरी है अशरीरी (यम या नियमरूप) सर्व प्रकार की है, रूपी है अरूपी है, साकार है मिराकार सदोष वस्तुओं और क्रियाओं का त्याग, ।।
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अप्रविष्ट श्र तज्ञान
उपवास- विधि, उपवास ★ पञ्च समिति, तीनगुप्ति संविस्तार निरूपण है ॥
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वृहत् जैन शब्दार्णव
की भावना, आदि का
१०. विद्यानुवादपूर्व - यह पूर्व १ करोड १० लाख मध्यमपदों में है । इस में 'अंगुष्टप्रसेन' आदि ७०० अल्प विद्या और 'रोहिणी' आदि ५०० महाविद्याओं का स्वरूप, सामर्थ्य और उन के साधनभूत मंत्र, तंत्र, यंत्र, पूजा विधानादि का, तथा सिद्धविद्याओं के फल का और (९) अन्तरीक्ष (२) भौम (३) अङ्ग (४) स्वर (५) स्वप्न ( ६ ) लक्षण (७) व्यञ्जन (८) छिन्न, इत्र अप्रभेदयुक्त 'निमित्तज्ञान' का 'सविस्तार निरूपण है ॥
-Ap
११. कल्याणवादपूर्व-पूर्व २६करोड़ मध्यपदों में वर्णित है। इसमें तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, अर्द्धचक्री – बलभद्र, नरायण, प्रति नारायण, इन शलाका पुरुषों के गर्भ जन्मादि के महान् उत्सव और इन पदों की प्राप्ति के
कारणभत १६ भावना, तपश्चरण या विशेष किंवा आचरणादि का, तथा चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्रों के गमन, ग्रहण आदि से और शुभाशुभ शकुनों से फल निश्चित करने की अनेकानेक विधियों का सविस्वार वर्णन है |
१२. प्राणप्रवाक्रियापूर्व - यह पूर्व १३ करोड़ मध्यम पदों में है । इस में काय चिकित्सा आदि अटाङ्ग आयुर्वेद (वैद्यक); भूतादि व्यन्तरकृत व्याधि दूर करने के उपाय मन्त्र यंत्रादि सर्व प्रकार के विष को उतारने वाला जाङ्गलिक प्रतीकार; इड़ा, पिल्ला, सुषुम्ना नाड़ियों तथा स्वरों का साधन और उनकी हायता से त्रिकाल सम्बन्धी कुछ ज्ञान
अंगप्रविष्ट श्र तज्ञान
व शरीर को आरोग्य रखने के उपाय आदि; और गति के अनुसार १० प्रकार के प्राणों के उपकारक, अनुपकारक या अपकारक द्रव्यों का सविस्तार निरूपण है ॥
१३. क्रियाविशालपूर्व- - यह पूर्व ह करोड़ मध्यम पदों में है । इस में संगीत, छंद, अलङ्कारादि ७२ कला, स्त्रियों के ६४ गुण, शिल्प आदि विज्ञान, गर्भाधानादि
क्रिया, सम्यग्दर्शनादि १०८ क्रिया, देव बन्दना आदि २५ क्रिया, तथा अन्यान्य नित्य नैमित्तिक क्रियाओंका निरूपण है ॥ १४. त्रिलोकविन्दुसारपूर्व- - यह पूर्व १२ करोड ५० लाख मध्यम पदों में है । इस में तीन लोक का स्वरूप; २६ परिकर्म, अट व्यवहार, चार वीज, इत्यादि गणित; और मोक्ष का स्वरूप, मोक्ष गमन की कारणभूत क्रिया, मोक्ष सुख, इत्यादि क- कथन का निरूपण है ॥
नोट - देवो शब्द "अग्रायणी पूर्व" का नोट १ ॥
(५) चूलिका-- इस उपाङ्ग में १०४६४६००० मध्यमपद हैं ।
यह निम्न लिखित ५ विभागों में विभाजित है जिन में से प्रत्येक में मध्यमपदों की संख्या २०६ २०० है:
१. जलगता - इस में जलगमन, जलस्तम्भन, अनेक प्रकार के जलयान - रचन, जलयंत्र - निर्माण, तथा अग्नि-स्तम्भन, अग्नि भक्षण, अग्नि प्रवेश आदि की क्रियाएँ और उन में निर्भय होकर तैरने, चलने फिरने, बैठने आदि के उपाय, आसन, तथा मंत्र, तंत्र, यंत्र, तपश्चरण आदि का सविस्तार निरूपण है
॥
२. स्थलगता - इसमें अनेक प्रकार के
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१२८ )
RDASTI
mymarrNETRIENTATE
PEगा
মহদি
बृहत् जैन शब्दार्णव स्थल-यान-निर्माण तथा मेरु कुलाचल या | सार और उल के पदों की संख्या पाल समभूमि आदि पर शीघ्रगमन, शीघ्र उद. भाषा के ७४ आर्ग-उन्दों ( गन्दी ) न्तप्रेषण(संवाद, समाचार या सूचना आदि और तोच अनुमान है। भेजना ) आदि के उपाय, तथा मंत्र, तंत्र, तपश्चरणादि का सविस्तार निरूपण है ॥ में बारहें अंग को ५
३. मायागता-इसमें मायारूप इन्द्र- से पहिले ४ मा और कि जाल विद्या आदि अनेक प्रकार की में से प्रत्येक के फवार का सार पद आश्चर्योत्पादक विक्रिया अदि कर | की संस्था लक्षित ११७ माथा दो । दिखाने के अनेक उपाय, मन्त्र, यंत्र, तप
वर्णित है। श्चरणादि का वर्णन है ॥ .
___ (३) धूलिकामतकप्रशति:-- . ४. आकाशगता-इसमें अनेक प्रकार में बारह अबका पाना किया। के आकाश-यान--वायुयान या धिमान-- के पांचों विभागों और अंगवाला १४ प्रकीबनाने, बिना यान आकाश में गमना कों में से पाक के पाथन का सार उनको गमन करने, आकाश मार्ग से समाचारादि पदो या अक्षरों की संख्या सहित ५३ गाथा प्रेषण करने आदि के अनेक उपाय, मन्त्र,
छन्दों में वर्णित है॥ तंत्र, तपश्चरणादि का सविस्तार निक उपयुक्त छन्द संख्या के अतिरिक।
গালে হাৰ ন শোগাজী | ५. रूदगता--इस में अनेक प्रकार के ভল ই স লা নেতি কি তে ভাই | पशु पक्षी आदि के रूप में अपना रूप पल- के नाम भी यथास्थान गिनाये हैं तथा ! टने के उपाय, मंत्र,तंत्र,तपश्चरणादि तथा छरे पूर्व 'सत्यमवाद' और सातधे पूर्व अनेक प्रकार के चित्र खींचना या मृत्तिका, 'आत्मप्रवाद'की और सामायिक प्रकीर्णक पाषाण, काष्ठ आदि की मूर्ति बनाना, की यथा आयक छुछ व्याख्या भी गद्य उन के शुभाशुभ लक्षणादि बताना और प्राकृत में की गई है। धातुवाद, रसवाद, आदि रसायन आदि नोट १.--श्री विजय शिष्य का निरूपण है।
| श्री 'शुभचनाचार्य' विक्रम सं० १६०८ में .. नोट-देखो शब्द "अक्षरात्मक श्रुत- विद्यमान थे। विधिधिनियाधर' और 'पट । जान'' और "अंगवास श्रु तशान" ॥ भागाकधिया ' हा पी उपाधियां। अङ्गप्रज्ञाप्त-श्री 'शुभचन्द्र' आचार्य कृत यह आचार्य सुभाषितरमामली और जोरअनेक ग्रन्थों में से एक प्राकृत अन्य का
भारचरित्र, तत्वनिर्धाय, किस्तामणि (प्राकृतनाम ॥
व्याकरण ) आदि अनेक संरत प्रयो यह ग्रन्थ निम्न लिखित तीन भागों में | रचयिता और राहुइ. स्वामिका कियाविभाजित है:--
सुभेक्षा, पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका आदि अनेक ____ (१) द्वादशाङ्गप्रज्ञप्ति-इस भाग में ग्रन्थों के संस्कृत टोकायार थे। द्वादश अङ्गों में से प्रत्येक के कथन का श्री 'शानार्णव' (शोगाजीप ) ग्रन्थ के
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हैं
( १२६ ) अङ्गरक्षक वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्गवाह्य श्रु तशान रचयिता विक्रम की ११वीं शताब्दी के श्री में २००००० (७) नवम दशम में १६०००० 'शुभचन्द्र' आचार्य से तथा इन से पीछे (0) एकादशम् द्वादशम् में १२०००0 (8) विक्रम सं० १४५० में हुए इसो नाम के एक त्रयोदशम्. चतुर्दशम्, पञ्चदशम और षोड़-1 'अग्रवाल' जाति के भट्टारक से अङ्गप्रशप्ति | शम, इन ४ स्वर्गों में 20000, एवम् १६ के रचयिता श्री शुभचन्द्राचार्य भिन्न थे ॥ स्वर्गों में सर्व अङ्गरक्षक देव२०२४००० हैं। नोट २--श्री शुभचन्द्र नाम से प्रसिद्ध
(त्रि० ग० ४६४)। कई आचार्यों और भट्टारको का समय या
दश भवनवासी देवों के २० इन्द्रों में (१) उन की ग्रन्थ रचनादि जानने के लिये देखो
चमरेन्द्र के अङ्गरक्षक देव २५६००० (२) ग्रन्थ 'वृहत् विश्व धरितार्णव' ॥
धैरोचन के २४०००० (३) भूतानन्द के २२४ भङ्गरक्षक-शरीर की रक्षा करने वाला ॥ 000 और (४) शेष १७ इन्द्रों के २०००००,
कल्पवासी, ज्योतिषी, भवनवासी | एवम् सर्व ९२०००० हैं ॥ और व्यन्तर, इन चारों निकाय के देवों में
(त्रि० गा०२२७,२२८ )। से एक विशेष प्रकार के देव जो राजा के
___ अष्ट व्यन्तर देवों के १६ इन्द्रों में से प्रत्येक अङ्गरक्षकों की समान प्रत्येक इन्द्र के अङ्ग
| के अङ्गरक्षक देव १६०००, एवम् सर्व २५६००० रक्षक ( तनुरक्षक, आत्मरक्षक ) होते हैं । . नोट १--कल्पवासी अर्थात् १६ स्वर्ग
(त्रि० गा० २७९ )। वासी देवों के और भवनवासी देवों के, पदवी की अपेक्षा (१) इन्द्र (२) प्रतीन्द्र (३) दिक्पाल
ज्योतिषी देवों के २ इन्द्रों में से प्रत्येक के ( लोकपाल ) (४) त्रायत्रिंशत् (५) सामा
१६००० एवम् सर्व ३२००० अङ्गरक्षक हैं। निक (६) अंगरक्षक (७) पारिषद (अन्तःप
इन सर्व की आयु, काय, आवास आदि
जानने के लिये देखो ग्रन्थ “त्रिलोकसार' रिषद या समिति, मध्यपरिषद या चन्द्रा,
गाथा २४४, ५००, ५१८, ५३०, ५७५ ॥ वाह्यपरिषद या जतु ) (८) अनीक (६) प्रकीर्गक (१०) आभियोग्य (११) किल्विषिक, | अङ्गवती--चम्पापुरी के एक सेठ प्रियदत्त यह ११ भेद हैं । और व्यन्तर देवों और ज्यो- की सुशीला धर्मपत्नी । नारीरत्न धर्मपरायण तिथी देवों के भेद त्रायस्त्रिंशत् और लोक- सती “अनन्तमती" जिसने आजन्म कुमारी पाल, इन दो को छोड़ कर शेष ६ हैं ॥ . रहकर ब्रह्मचर्य व्रत का पूर्ण रीति से अखंड
(त्रि० गा० २२३, २२४, २२)। पालन किया इसी महिला 'अंगवती" की
नोट २--१६ कल्पों (स्वर्गों) और पुत्री थी॥ (देखो शब्द अनन्तमती')। भवत्रिक में अङ्गरक्षक देवों को संख्या निम्न
अङ्गवाह्य--अङ्ग से बाहर, द्वादशाङ्ग प्रकार है:-- ___ (१) प्रथम स्वर्ग में ३३६००० (२) द्वितीय
श्रु तज्ञान से बाहर, अक्षरात्मक श्रु तज्ञान के स्वर्ग में ३२०००० (३) त्रिीय में २८८०००
दो मूल भेदों में से एक भेद जो १४ प्रकीर्णक (४) चतुर्थ में २८००००(५) पञ्चम षष्ठम
नामक उपभेदों में विभाजित है युगल में २४०००० (६) सप्तम अष्टम युगल अङ्गवाह्य श्रुतज्ञान-पूर्ण अक्षरात्मक |
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( १३० ) अङ्गवाह्य श्रु तज्ञान वृहत् जैन शब्दाच
अङ्गवाह्य व तज्ञान श्रत शान के दो विभागों (अङ्गप्रविष्ट और चातुर्मासिक (५) साम्वत्सरिक (६) ऐर्याअनचाह्य) में से दूसरा विभाग।
पथिक और (७) उत्तमार्थ, इन सात प्र( देवो शब्द 'अङ्गप्रविष्ट') कार के प्रतिक्रमण का भरत आदि क्षेत्र । पूर्ण अक्षरात्मक श्र त ज्ञान का यह दुःवमा सुवमादि काल, वजू वृषभ आदि विभाग स्नि लिखित २४ उपविभागों में संहनन, इत्यादि अपेक्षासहित निरूपण है। विभाजित है, जिन्हें २४ प्रकीर्णक इस लिये ५. वैनयिक-इस प्रकीर्णक में सकहते हैं कि यह पूर्ण 'अक्षरा मक श्रुत- म्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सझान' के एक कम एकट्ठी १८४४६७४४०- म्यक्तप, इन चार का विनय और पांग्वयां ७३७०६५५१६१५ अक्षरों में से बने हुए उपचार विनय, इन पञ्च प्रकार विनय का अंगप्रविष्ट या द्वादशांगके ११२८३५८००५ सविस्तार वर्णन है॥ . मध्यमपदों के अतिरिक्त जो एक मध्यमपद ६. कृतिकर्म-इस प्रकीर्णक में अर. से कम शेष अक्षर ८०१०८१७५ रह जाते हन्त, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय, साधु हैं अर्थात् जिन से पूरा एक मध्यमपद जो आदि नव-देव-वन्दना के लिये तीन शुद्धता, १६३४-३०७८== अक्षरों का होता है नहीं तीन प्रदक्षिणा, दो साष्टांग नमस्कार, चार बन सकता, उन्हीं शेष अक्षरों की संख्या- शिरोनत्ति, १२ आवर्त का, तथा देवपुजन, प्रमाण 'अंगवाह्य' के यह नीचे लिखे १४ गुरुवन्दन, त्रिकालसामायिक, शास्त्रस्थाप्रकीर्णक या १४ फुटकर विभाग है:-- ध्याय, दान, संयम, आदि सर्व नित्य
१. सामायिक-इस में सर्व प्रकार नैमित्तिक क्रियाओं के विधान का निरूके मिथ्यात्व और विषय कषायों से चित्त पण है। को हटाने के लिये नाम, स्थापना, द्रव्य, ७. दशकालिक-इस प्रकीर्णक में क्षेत्र, काल, भाव, इन छह भेदों युक्त 'सा- १० प्रकार के विशेष अवसरों पर जिस ! मायिकः का सविस्तार वर्णन है। प्रकार साधुओं को अपने आचार और
२. स्तवन-इस प्रकीर्णक में तीर्थंकरों आहार आदि की शुद्धता रखनी व के ५ कल्याणक, ३४ अतिशय, = प्राति श्यक है उस की विधि आदि का निरू-| हार्य, परमौदारिक दिव्य देर, समवशरण- पण है । सभा, धर्मोपदेश, इत्यादि तीर्थकरत्व की
८. उत्तराध्ययन-इस प्रकीर्णक में महिमा का प्रकाशनरू। स्तबन का निरू- चार प्रकार का उपसर्ग, २२ परीषह आदि पण है॥
सहन करने का विधान और उन के फल ३. बन्दना-इस में किसी एक तीर्थ- का तथा श्री महावीर स्वामी के उपसर्ग ङ्कर के अवलम्बन कर चैत्यालय, प्रतिमा सहन और परीषहजय और मोक्षगमन आदि की स्तुति का निरूपण है ॥ का सविस्तार निरूपण है ॥ . ४. प्रतिक्रमण--इस में पूर्वकृत् प्र- ___६. कल्पव्यवहार-इस प्रकीर्णक में | माद घश लगे दोषों के निराकरणार्थ (१): मुनीश्वरों के योग्य आचरण का विधान देवसिक (२) रात्रिक (३) पाक्षिक (४) और अयोग्य सेवन से लगे दोषों को दूर
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अङ्गस्पर्शनदोष वृहत् जैन शब्दार्गव
अङ्गार करने के लिये द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावा- | प्रकार अन्तरंग तप का जो पांचवा भेद नुसार यथा योग्य प्रायश्चित् देने की विधि "व्युत्सर्ग' नामक तप है उसके अन्तर्गत आदि का सविस्तार निरूपण है।
"कायोत्सर्म तप'' सम्बन्धी ३२ दोषों में से । १०. कल्पाकल्प-इस प्रकीर्णक में। अन्तिम दोष का नाम "अंगस्पर्शन" या। दल्य, क्षेत्र, काल, भाय के अनुकूल सा- 'अंगामर्श (कायोत्सर्ग तप के समय शरीर | धुओं के लिये योग्य और अयोग्य दोनों के किसी अंगको छूना या मसलना) है ॥ प्रकार के आचार का वर्णन है।
नोट--कायोत्सर्ग के ३२ दोष यह है११. महाकल्प--इस प्रकीर्णक में उत्कृष्ट (१) घोटकपाद (२) लतावक (३) स्तंभाषभ संहनन आदि युक्त जिनकल्पी महा मुनियों (४) कुडियाश्रित (५) मालिकोबहन (६) के योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावानुकूल शवरी गुह्य गृहन (७) खलित (८)लंवित उत्कृष्ट आचार, वृतचर्या, कायक्लेशतप- (२) उत्तरित (१०)स्तन दृष्टि (११) काकालोकन प्रतिमा योग, आतापन योग, अभ्रावकाश, (१२) खलीनित (१३) युगकन्धर (१४)। त्रिकालयोग--इत्यादि, तथा,स्थविरकल्पी | कपित्थ मुष्टि (१५) शीर्ष प्रकम्पित (१६)। मुनियोंकी दीक्षा, शिक्षा, संघ या गण- मूक संज्ञा (१७ )अंगुलि पालन (१८) भ्र क्षेप पोषण,यथा योग्य शरीर-समाधान या आ- (१६) उन्मत्त (२०) पिशाच (२१-२८) स्मसंस्कार, सल्लेखना, उत्कृष्ट स्थानगत | पूर्व, अग्नि, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, या उत्तमार्थ स्थान प्राप्ति, उत्तम आराधना | उत्तर, ईषान, यह अष्ट दिशावलोकन (२६)[ आदि का निरूपण है ।।
प्रीवोन्नमन (३०) प्रीवावनमन (३१) .. १२.पुण्डरीक--इस प्रकीर्णक में भवन-निष्ठीवन और ( ३२) अङ्गस्पर्शन ॥ वासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पवासी देवों (देखो शब्द" अंगुलिचालन दोष" और उस के विमानों में जन्म धारण करने के प्रथक | के नोट २, ३) . प्रथक कारणों--दान, पूजा, तप, संयम, अंगामर्शदोष-देखो शब्द “अङ्गपर्शनसम्यक्त, अकामनिर्जरा आदि-का विधान
दोष" तथा उन स्थानों के विभव आदिक का सविस्तार वर्णन है।
अंगार-(१) जलता हुआ कोयला या ल. १३. महापुण्डरीक-इस प्रकीर्णक में कड़ी का टकड़ाया उपलो लालरंग;रामभाध; इन्द्र प्रतीन्द्र और कल्पातीत विमानों के अ- 'आसक्तता या विषय-लम्पटता; मरकासुर॥ हिमिन्द्रादि महर्द्धिक देवों में उत्पन्न होने के (२) मंगलवार; ४८ ग्रहों में से एक कारणभूत विशेष तपश्चरणादि का तथा प्रह का नाम जिसे मङ्गल, भौम, महीसुत, उनके विभव आदिका सविस्तार निरूपण है। कुज, अंगारक, लोहितांम भी कहते हैं। ११. निषिद्धिका-इस प्रकीर्णक में प्रमाद
(देखो शब्द 'अघ' का नोट ) जन्य दोषों के निराकरणार्थ अनेक प्रकार के (३) नभस्तिलकपुर के विद्याधर प्रायश्चित का पूर्णरूप से निरूपण है। राजा त्रिशिखर का एक पुत्र जो "श्रीकृष्ण प्रङ्गस्पर्शनदोष( अङ्गामर्श दोष)-छह चन्द्र" के पिताः 'वसुदेव' की एक 'मदन
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( १३२ ) अङ्गारक वृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्गारदोष वेगा नामक स्त्री के भाई चंडवेग के हाथ | की तीन अविवाहित पुत्रियाँ, 'चन्द्ररेखा', से युद्ध में परास्त हुआ था जब कि 'वसु 'विद्युतप्रभा' और 'तरङ्गमाला' मनोदेव' ने उसी युद्ध में उसके पिता त्रिशिखर' गामनी विद्या सिद्ध कर रही थीं और दो। को मार कर और 'मदनवेगा' के पिता को चारण ऋद्धिधारी मुनि ध्यानारूढ़ थे और त्रिशिखर के कारागार से छुड़ा कर ‘मदन- जिस अग्नि को 'पवन-अंजय' के पुत्र 'हनुवेगा' से विवाह किया था जिससे प्रथम पुत्र मान' ने, जब कि वह श्रीरामचंद्र की ओर "अनावृष्टि” नामक उत्पन्न हुआ। ( अंगार से दूत पद पर नियुक्त हो कर किकन्धासम्बन्धी विशेष कथा जानने के लिये देखो पुरी से लङ्का को जा रहा था। वर्षायंत्र की प्रन्थ 'वृहत् विश्वचरितार्गव' या हरिवंश सहायता से बुझाई थी॥ पुराण, सर्ग२४, श्लोक ८४-८६, व सर्ग
(देदो ग्रन्थ 'बृहत् विश्वचरितार्णव' २५, श्लोक ६२ आदि)॥
या पद्मपुराण सर्ग ५१) अङ्गारक-(१) चिङ्गारी; मंगल ग्रह; एक अङ्गारदोष-अति आसक्तता या लोलुपता तेल जो सर्व प्रकार के ज्वरों को दूर करता
से किसी वस्तु को ग्रहण करना । भोजन है; भीमराज नाम से प्रसिद्ध एक कुरंटक
सम्बधी एक प्रकार का दोष; अतिगृद्धता
से भोजन करने का दोष; निग्रन्थ दिगम्बर वृक्ष जिसे भृङ्गराज भी कहते हैं ॥
मुनियों के आहार सम्बन्धी त्याज्य दोषों के - (२) श्रीकृष्णचन्द्र के पिता 'वसुदेव' की एक श्यामा'नामक स्त्री के पिता अशनिवेग'
जो मूलभेद ७ और उभेद ४६ हैं उन में के बड़े भाई राजा 'ज्वलनवेग' का एक पुत्र,
से एक उस दोष का नाम जो लोलुपता के जिसने श्यामा के पिता को बन्दीगृह में
साथ भोजन करने से लगता है । वसतिका डाल रखा था और पति 'वसुदेव' को भी
अर्थात् दिगम्बर मुनियों के लिये आवश्य
तानुसार ठहरने के स्थानसम्बन्धी जो जब सोते समय एक बार हरण कर लिया
त्यागने योग्य ४६ दोष हैं उन में से वह तो श्यामा ने बड़े साहस के साथ उससे
दोष जो मोहवश वसतिका को ग्रहण करने युद्ध करके उसकी आकाशगामनी विद्या
या उस में अधिक समय तक ठहरे रहने (वायु-यान यो विमान') छेद दी थी॥
से लगता है ॥ ( देखो ग्रन्थ 'वृहत् विश्वचरितार्णव' या
___ नोट १-आहारसम्बन्धी दोषों के ७ हरिबंश पुराण, सर्ग १६ श्लोक ६७ से
मूलभेद और उन के ४६ उरभेद निग्न । १०९ तक व सर्ग २२ श्लोक १४४ आदि;
प्रकार हैं:-- सर्ग २४ दलोक ३१-३४)।
(१) १६ भेदयुक्त उद्गम दोष (२) १६, (३) दक्षिण देशीय एक विद्याधर
भेदयुक्त उत्पादन दोष (३) १० भेदयुक्त एषण राजा का पुत्र, जिसने दक्षिण भारत के एक
(अशन ) दोष (४) संयोजन दोष (५) प्रमा'दध मुख' नामक बन में षाग्नि से
| णातिरेक दोष (६) अङ्गार दोष और (७) प्रज्वलित हो अग्नि लगा दी थी जहां धनदोष । उसी बन के निकटवर्ती 'दधमुख' नामक नोट २--यही उपयुक्त ४६ दोष व नगर के विद्याधर राजा 'गन्धर्वसेन' | सतिका सम्बन्धी भी हैं ।
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( १३३ )
बृहत् जैन शब्दार्णव
अङ्गारमर्दक
नोट ३--इन ४६ उपर्युक्त दोषों के अतिरिक्त एक " अधः कर्म' जिस के ४ भेद | हैं और एक 'अकारण' जिस के ६ भेद हैं, यह | दो मूल भेद या दश उत्तर भेद रूप त्याज्य दोष और भी हैं। यह अधिक निकृष्ट होने से अलग गिनाए गए हैं ॥
( इन सर्व दोषों के अलग अलग नामादि जानने के लिये देखो शब्द 'आहार दोष' ) ॥ अङ्गारमर्दक-इ
5- इस नाम से प्रसिद्ध 'रुद्र'देव' नामक एक अभव्य जैनाचार्य | अ. मा.
अङ्गारवती - स्वर्णनाभपुर के एक विद्याधर राजा 'चितवेग' की स्त्री जिस के पुत्र का नाम 'मानसवेग' और पुत्री का नाम 'वे गत्रती' था जो 'श्रीकृष्ण' के पिता 'श्री वसुदेव' की एक पत्नी थी ॥
( देखो ग्रन्थ वृहत् विश्वचरितार्णव' या हरिवंशपुरण सर्ग २४, ३० ) अङ्गारिणी
-हाथ
- प्रज्ञप्ति. रोहिणी आदि अनेक दिव्य विद्याओं में से एक विद्या का नाम । ( देखो शब्द 'अच्युता' नोटों सहित ) अङ्गिर- देखो शब्द 'अग्निर' ॥ अङ्गुतया पांव की शाखा अर्थात् अंगुलि, अँगुली या उँगली; एक अंगुलि की चौड़ाई बराबर माप, म यव ( जव या जौ ) की मध्य-भाग की मुटाई बराबर माप; विक्रम की सातवीं शताब्दी में विद्यमान कामसूत्र के रचयिता वात्स्या यन मुनि का अपर नाम; उड़ीसा प्रान्त का एक देशीराज्य ( महानदी के उत्तर जो सन् १८४७ से अँगरेज़ी राज्य में स
अंगुल म्मिलित कर लिया गया है। इस की मुख्य नगरी का नाम भी 'अंगुल' ही है ।
नोट १--अंगुल निम्न लिखित तीन प्रकार का होता है:
(१) उत्सेधांगु -- यह ८ यव या ६४ सरसों की मुटाई बराबर का एक माप है जो 'श्री महावीर' तीर्थकर के हाथ की अंगुलो की चौड़ाई से ठीक अर्द्धभाग और उन के निर्वाण की सातवीं शताब्दी में विद्यमान 'श्री पुष्पदन्ताचार्य' और 'श्री भूतवत्याचार्य' के हाथ की अंगुलि की चौड़ाई की बराबर है जब कि कंठस्थ जिनवाणी का कुछ भाग वर्त्तमान पञ्चम काल में सब से प्रथम पटखंड
सूत्रों (प्रथम श्र ुतस्कन्ध ) में लिपिबद्ध किया गया था । यह अंगुल-माप आजकल के साधारण शरीरवाले मनुष्यों की अंगुलि से कुछ बड़ा है । ( देखो शब्द " अङ्कविद्या" का नोट ७ और "अग्रायणीपूर्व" के नोट २, ३ ) ॥
(२) प्रमाणांगुल - यह माप उपर्युक्त उत्लेघांगुल के माप ५०० गुणा बड़ा है जो इस भरत क्षेत्र के वर्त्तमान अवसर्पिणीकाल के चतुर्थ विभाग में हुए प्रथम तीर्थकर "श्री ऋषभदेव स्वामी" की या उन के पुत्र प्रथम चक्रवर्ती "भरत' की अंगुलि की चोड़ाई की बराबर है ॥
(३) आत्मांगुल -
-इस का प्रमाण कोई एक नियत नहीं है । 'भरत' व 'ऐरावत' आदि क्षेत्रों के मनुष्यों की अपने अपने समय में जो जो अंगुलि है उसी के बराबर के माप का नाम "आत्मांगुल" है ओ प्रत्येक समय मैं शरीर की ऊँचाई घटने से घटता और बढ़ने से बढ़ता रहता है अर्थात् हर समय के हर मनुष्य का अपने अपने अंगुलि की
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अंगलपृथक्व वृहत् जैन शब्दार्णक
अंगुलिभ्र दोष चौड़ई का माप ही “आत्मांगुल" हैं। त्सर्ग' के समय किसी अँगुली को हिलाने
नोट २-जिनवाणी में नरक, ति- चलाने से लगता है ॥ र्यश्च, मनुष्य और देव, इन चारों ही गति के नोट १-कायोत्सर्ग सम्बन्धी ३२ | जीवों के ( अर्थात् त्रिलोक और त्रिकाल स- | दोषों के नाम जानने के लिये देखो शब्द 'अङ्गाम्बन्धी सर्व ही जीवों के) शरीर का और स्पर्शनदोष का नोट ॥ देवों य मनुष्यों के नगरादि का परिमाण
नोट २-षटआवश्यक नियुक्ति-(१) उत्सेधांगुल' से, महापर्वत, महानदी, महा- |
सामायिक (२) स्तव (३) बन्दना (४) प्रतिद्वीप, महासमुद्र, नरकबिलों, स्वर्गविमानों,
क्रमण (५) प्रत्याख्यान (६) कायोत्सर्ग आदि का परिमाण 'प्रमाणांगुल से, और
नोट ३-प्रायश्चित, विनय, धैयावृत्य, प्रत्येक तीर्थङ्कर या चक्रवर्ती आदि के छत्र, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान, यह अन्तरंग चमर, कलशा आदि मंगलद्रव्यों या अनेक
तप के ६ भेद हैं । इन छह भेदों में से व्युत्सर्गउपकरणों व शस्त्रों आदि का तथा समवश
तप के (१) वाह्योपधि व्युत्सर्ग और (२) अरणादि का परिमाण आत्मांगुल से निरूपण भ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग, यह दो मूल भेद हैं । किया गया है ॥
इस 'अभ्यन्तरोरधि व्युत्सर्ग' के (१) यावत्नोट ३-एक अंगुल लम्बाई को जीव अभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग और (२) नियत'सूच्यांगुल', एक अंगुल लम्बी और इतनी कालाभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग, यह दो भेद हैं। ही चौड़ी समधरातल को 'प्रतरांगुल' और इन दो में से भी प्रथम के तीन भेद (१) एक अंगुल लम्बे, इतने ही चौड़े और इतने ही भक्तप्रत्याख्यान (२) गिनीमरण और (३) मोटे ( या ऊँचे या गहरे ) क्षेत्र को 'घनांगुल' प्रायोपगमन हैं और द्वितीय के दो भेद (१) कहते हैं ।
नित्य नियतकालाभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग और अष्ट उपमालोकोत्तरमान में सून्यांगुल (२) नैमित्तिक-नियतकालाभ्यन्तरोपधि प्युआदि का मान प्रमाणांगुल से ग्रहण किया त्सर्ग हैं। गया है। ( देखो शब्द 'अङ्कविद्या' के मोट |
| इन अन्तिम दो भेदों में से पहिले भेद ३ और ६)॥
'नित्यनियतकालाभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग' होके | अलपृथक्त्व-दो अंगुल से मव अंगुल उपर्युक्त 'सामयिक' आदि षटावश्यक क्रिया तक (अ. मा.)॥
( या कर्म या नियुक्ति ) हैं जिन में 'कायोअशलिचालन दोष (अंगुलिभ्रमण दोष, | त्सर्ग' छटा भेद है। (प्रत्येक भेद उपभेद ।। अंगुलिभ्र दोष, अंगलि दोष - आदि का स्वरूप और व्याण्या आदि प्रत्येक
. नामक अन्तरंग तप के अन्तर्गत या षटा- शब्द के साथ यथा स्थान देखें)॥ वश्यक नियुक्ति का छटा भेद जो 'का- अङ्गलिदोष । योत्सर्गतप' या 'कायोत्सर्गनियुक्ति' है | अङ्गलिभ्रमणदोष लिचालमदोष' ॥
- देखो शब्द 'अंगु उस के ३२ त्याज्य अतीचारों या दोषों में से एक का नाम 'अंगुलिदोष' है जो 'कायो- | अङ्गुलिभूदोष ।
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( १३५ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अंगुष्टप्रदेशन
अंगुष्ठप्रदेशन)
अङ्गुष्ठप्रश्न अंगुष्ठप्रसेन ( अंगुष्पदेशन या अंगुठ प्रश्न ) - अंगुष्ट अर्थात् अँगूठे में किसी देवता का आह्वानन करके या आ स्मिक विद्युत्तरंगें उत्पन्न करके अँगूठे से ही प्रश्नों का उत्तर देने की एक विद्या । यह विद्या ७०० अल्प विद्याओं में से सर्व से पहिली है । इस विद्या का स्वरूप, सामर्थ, और प्राप्त करने की विधि - मंत्र, तंत्र, पूजा, विधानादि -- इत्यादि का सविस्तार पूर्ण निरूपण 'विद्यानुवाद' नामक दश पूर्व में है जहां शेष अल्प विद्याओं तथा 'रोहिणी' आदि ५०० महा विद्याओं का और अष्ट महानिमित्तज्ञान का भी पूर्ण वर्णन है । 'प्रश्नव्याकरण' नामक १०व अङ्ग में भी इस विद्या का निरूपण है ॥
आगे देखो शब्द 'अंगुप्रसेन'
[ देखो शब्द 'अंगमविष्ट तज्ञान' में (१२) दृष्टिवादांग का भेद (४) पूर्वगत और उस का विभाग १० विद्यानुवादपूर्व और (१०) प्रश्नव्याकरणांग ] अंगुष्टिक-आगे देखो शब्द 'अंगोस्थित' ॥ अरियक - भरतक्षेत्र के एक पर्वत का
प्राबीन नाम ॥
भरत चक्रवर्ती की दिग्विजय के समय मार्ग में जो अनेक नदी, पर्वत, बम, नगरादि पड़े उनमें से एक पर्वत यह भी था ॥ अङ्गोपाङ्ग - (1) शरीर के अङ्ग और उपाङ्ग ।
शरीर के अवयव या भाग दो पग दो हाथ, नितम्ब (कमर के नीचे का भाग, चूतड़ ), पीठ, हृदय, और मस्तक या शिर, यह आठ 'अंग' हैं । इन अंगों के जो मुख, नाक,
अंघ्रिक्षालन
कान, आँख, गर्दन, पहुँचा, हथेली, अँगुली, नाभि, जंघा, घटना, पड़ी आदि अनेक अङ्ग या अवयव हैं उन्हें 'उपाङ्ग' कहते हैं ॥
नोट--नितम्बों सहित दो पग दो हाथ, शिर और धड़ ( शरीर का मध्यभाग ), इस -प्रकार अङ्गों की गणना ६ भी मानी जाती है । आठों या छहीं अङ्गों से नमस्कार करने को
'अष्टाङ्गनमस्कार' या 'साष्टाङ्गनमस्कार' या 'षडाङ्गनमस्कार' बोलते हैं ॥
(२) नामकर्म की ४२ उत्तर प्रकृतियों में से जो १४ पिंड प्रकृतियां ( भेदयुक्त प्रकृ तियां ) हैं उन में से एक का नाम 'अङ्गोपाङ्ग' है जिस के उदय से शरीर के अनेक अवयवों की रचना होती है । इस पिंडप्रकृति के शरीरभेद अपेक्षा तीन भेद (१) औदारिक शरीराङ्गोपांग (२) वैकथिक श
रांगोपांग (३) आहारक शरीरांगोपांग हैं। शेष दो प्रकार के शरीरों अर्थात् तैजसशरीर और कार्माण शरीर के अङ्गोपांग नहीं होते [ देवो शब्द 'अघातियाकर्म' मैं (२) नामकर्म ] ॥
मङ्गोस्थित- -एक तीर्थङ्कर का नाम ॥
जम्बूद्वीप के सुदर्शनमेरु की उत्तरदिशा में स्थित ऐरावतक्षेत्र की गत चौबीसी के यह ९ वें तीर्थङ्कर हैं । ( आगे देखो शब्द 'अढाईद्वीपपाठ' के नोट ४ का कोष्ठ ३ ) ॥ अंधिदालन - 'अघि' या 'अघि' शब्द का अर्थ है 'चरण', और 'क्षालन' का अर्थ है 'प्रक्षालन' या 'घोना', अतः नवधाभक्ति ( नव प्रकार की भक्ति ) में से एक प्रकार की भक्ति 'अक्षालन' है जो किसी मुनि को आहार देने के समय उदार हृदय दातार प्रकट करता है अर्थात् 'अक्षिा
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( १३६ ) अचक्ष वृहत् जैन शब्दार्णव
अचङ्कारितभट्टा। लन' वह हृदयस्थित भक्ति है जो दातार अवक्ष दर्शनावरण-चक्ष के अतिरिक्त आहार दानादि के समय मुनि के चरण
अन्य किसी इन्द्रिय या मन की दर्शन धोकर और उस चरणोदक (चरणामृत)
शक्ति का आवरण या आच्छादन (ढकना), को निज मस्तकादि पर लगा कर प्रकट
दर्शनावरणीय कर्म के भेदों में से एक करता है।
का नाम, जिसके उदय से जीव को चक्ष नोट--नवधाभक्ति-(१) प्रतिग्रह या
के अतिरिक्त अन्य किसी एक या अधिक पड़गाहन अर्थात् किसी अतिथि ( मुनि ) को
इन्द्रियों द्वारा दर्शन न होसके अथवा आते देव कर स्वामिन् ! नमोऽस्तु, नमोऽस्तु,
जिसके उदय से जीव के पौद्गलिक शरीर नमोऽस्तु, अत्र तिष्ठ, तिष्ठ तिष्ठ, अन्न जल
में रसना, घ्राण, श्रोत्र और मन, इन चार शुद्ध" ऐसे वचन दोनों हाथ जोड़े हुए मस्तक
द्रव्येन्द्रियों में से किसी एक या अधिक नमा कर बड़ी विनय से कहना, (क) उच्च
की रचना ही न हुई हो, या नेत्र को छोड़ स्थानप्रदान, (३) अङ्घि, क्षालन (चरण प्रक्षा
कर अन्य किसी द्रव्येन्द्रिय की रचना होते | लन ), (४) अर्चा ( पूजन ), (५) आनति
हुए भी उनमें से किसी एक या अधिक में | ( साष्टाङ्ग नमस्कार ), (६) मनःशुद्धि, (७)
किसी प्रकार का विकार होने से उस के वचन शुद्धि, (८) कायशुद्धि, (६) अन्न शुद्धि॥ | द्वारा उसके. योग्य विषय का दर्शन न प्रचक्षु-चक्षुरहित, विना नेत्र; चक्षु के हो सके ॥. अतिरिक्त अन्य ४ इन्द्रिये और मन ॥
नोट-दर्शनावरणीय कर्म के भेद
| (१) चक्ष-दर्शनावरण (२) अवक्षदर्शनावरण अचक्षु दर्शन-दर्शन के ४ भेदों में से एक
| (३) अवधि-दर्शनावरण (४) केवल-दर्शनावरण भेद, चक्षु ( आंब, नेत्र) के अतिरिक्त |
| (५) निद्रोत्पादक-दर्शनावरण (६) निद्रानिद्रोअन्य चार इन्द्रियों में से किसी ज्ञानेन्द्रिय
त्पादक दर्शनावरण (७) प्रचलोत्पादक दर्शनासे या मन से होने वाला दर्शन या अव
वरण (E) प्रचलाप्रवलोत्पादक दर्शनावरण लोकन वा सामान्य निर्विकल्प ज्ञान ॥ (०.) स्त्यानगृद्धय त्पादक-दर्शनावरण ॥ - नोट-आत्मा को स्वयम् बिना किसी
अचक्षुदर्शनि-चक्षुदर्शन रहित जीव, इन्द्रियादि की सहायता के या पांचों ज्ञानेन्द्रियों में से प्रत्येक के या मन के द्वारा जो
| एफेन्द्रिय, हीन्द्रिय, और त्रीन्द्रिय जीव ॥ अपने अपने विषय का सामान्य निर्विकल्प अवकारितभट्टा-धन्य नामकाएक सेठ ज्ञान होता है उसे 'दर्शन" कहते हैं । अर्थात् की पुत्री जिस का विवाह उसकी आशा वह सामान्य ज्ञान जिस में किसी वस्तु या उठाने वाले के साथ हुआ था। यह सदा पदार्थ की केवल सत्ता मात्र का निर्विकल्प अपने पति को दवाव में रखती थी । एक रूप से आभास या ग्रहण हो उसे 'दर्शन' बार राजा के दबाव डालने से पति स्त्री । कहते हैं । इस दर्शन के चार भेद (१) चक्षु की आमा का पालन न कर सका तो वह दर्शन (२) अचक्ष दर्शन (३) अवधि दर्शन रुष्ट होकर भाग निकली। रास्ते में चोरों ने और (8) केवल दर्शन हैं ।
लटा और रंगेरे के यहां बेचा । इस प्रकार |
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अचर
( १३७ ) वृहत् जेन शब्दार्णव
अचल जब बहुत कष्ट उठाया तब उसे उसके | . (२) धातुकीखंड नामक द्वितीय पति ने छुड़ाया। तब से उसने क्रोध मान महाद्वीप की पश्चिम दिशा के मेरु-गिरि | आदि करना छोड़ दिया। मुनिपति नामक का नाम । एक साधु के जले हुए शरीर की दवा के
यह 'अचल' नामक मेरुगिरि लिए लक्षपाक (लाक्षादि) नामक तेल मीनार या शिखर के समान गोल गृञ्जन लेने के लिए एक साध इस के घर आया । (गाजर) के आकार का लगभग गावदुम उस समय उस तेल की तीन शीशियां
८४ सहस्र प्रमाणयोजन ऊंचा और एक सदासी के हाथ से फूट गई तो भी उसे
हस्र प्रमाणयोजन समभमि से नीचे चित्रा क्रोधन आया। चौथो बार वह स्वयं शीशी
पृथ्वी तक मूलरूप गहरा है । इसके मूल लेकर आई और साधु को तेल दिया। इस
के तल भाग का व्यास साढ़े नव हजार का विस्तृत वर्णन मुनिपतिचरित्र में है। (६५०० ) योजन और चोटी का व्यास (अ० मा०)॥
एक हज़ार ( १००० ) योजन है । मूल से नोट-इसी कथा से बहुत कुछ मिलती
एक सहस्र योजन ऊपर समभूमि पर इस हुई एक कथा श्री शुभचंद्र भट्टारककृत 'श्रे.
का व्यास १४०० योजन है। यहां से णिक चरित्र' के ११वें सर्ग में तुंकारी' की है
५०० योजन ऊपर जाकर इस में ५०० योजो उज्जैनी निवासी सोमशर्मा भट्ट की थर्म
जन चौड़ी चारों ओर एक कटनी है जहां पत्नी थी । ( आगे देखो शब्द 'तुंफारी' )॥ | मेरु की गोलाई का व्यास कटनी के वाह्य अचर-(१) अचल, दृढ़, स्थिर; (२)जो | किनारे पर ६३५० योजन और अभ्यन्तर अपनी इच्छा से चल फिर न सके अर्थात्
किनारे पर ८३५० योजन है। यहां से दश सर्व अचेतन या जड़ पदार्थ (जीव के अति
सहस्र (१०००० ) योजन की ऊँचाई तक रिक्त शेष ५ द्रव्य ) (३) जीव और पुद
मेरुगिरि गृजनाकार गावदुम नहीं है किंतु । गल के अतिरिक्त शेष चार द्रव्य, अर्थात्
समान चौड़ा ( समान व्यासयुक्त ) चला धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल और
गया है जिस से इस ऊँचाई पर पहुँच कर | आकाश; (४) अचर जीव अर्थात् पृथ्वी
भी उस का व्यास ८३५० योजन ही है। कायिक, जलकायिक, अग्नि कायिक, वायु
यहां से साढ़े पैंतालीस सहस्र (४५५००) कायिक, और बनस्पति कायिक, यह ५ |
योजन की ऊँचाई तक फिर गृजनाकार प्रकार के स्थावर जीव ,अर्थात् सर्व प्रकार
गावदुम जाकर उस में एक कटनी ५०० के एकेन्द्रिय, जीव ॥
योजन चौड़ी चारों ओर है जहां मेरु की अचरम-संसार की चरमावस्था (अन्तिम
गोलाई का व्यास कटनी के पाह्य किनारे
पर तो ३८०० योजन और अभ्यन्तर किअवस्था ) को न पहुँचा हुआ, जन्म मरण
नारे पर २८०० योजन है। यहां से दशयुक्त संसारी जीव ॥
सहस्र (१०००० ) योजन की ऊँचाई तक भचल-(.१ ) अटल, स्थिर, धीर, पर्वत, | मेरुगिरि फिर समान व्यासयुक्त चला वृक्ष, खंटा
गया है जिस से इस ऊँचाई पर पहुँच
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अचल
अचल
र १३E"
वृहत् जैन शब्दार्गव कर भी उस की गोलाई का व्योस २८०० अकृत्रिम जिनचैत्यालय है; अतः सर्व १६ योजन ही है। यहां ले शेष अठारह सहस्त्र चैत्यालय हैं । इन में से 'भप्रशाल' और (१८०००) योजन की ऊँचाई तक अर्थात् 'नन्दन' बनों के चैत्यालय ज्येष्ठ हैं, 'सौ. चोटी तक फिर गावदुम जाकर चोटी की मनस' के मध्यम और 'पाण्डुक' के लघु गोलाई का व्यास एक सहस्र (१०००) हैं । ज्येष्ठ चैत्यालयों की लम्बाई, चौड़ाई, योजन है।
ऊंचाई क्रम से १००, ५०, ७५ योजन है, चोटी पर उसके मध्य में एक चूलिका मध्यम की ५०, २५, ३७॥ योजन और लघु गोल गावदुम ४० योजन ऊँची है जिस की २५, १२॥ १८॥ योजन है॥ की गोलाई का व्यास नीचे मूल में १२ पाण्डुक बन में उस के ईशान कोण योजन और ऊपर शिरोभाग में ४ योजन (उत्तर पूर्व के मध्य ) में 'पाण्डक' नामक है। इस चूलिका के मूलमं चारों ओर कटनी शिला स्वर्ण के रंग की, अग्निकोण (पूर्व के आकार का जो स्थान शेष रहा उस की दक्षिण के मध्य ) में “पाण्डु-कँवला' ना. चौड़ाई ४६४ योजन है ॥
मक शिला रूपावर्ण की, नैऋत्य ( दक्षिण इस मेह के मूल में सम भूमि पर जो पश्चिम के मध्य में 'रक्ता' नामक शिला मूल के तल भाग से १००० योजन ऊपर ताये स्वर्णवर्णकी, और वायव्य (पश्चिम है एक "भद्रशाल" नामक धन उस की उत्तर के मध्य ) में 'रक्तकँवला' नामक
शिला रक्तवर्ण की, यह चार 'अर्द्धचन्द्राचारों ओर उत्तर दक्षिण १२२५ योजन
कार' शिलाऐं प्रत्येक १०० योजन लम्बी और पूर्व पश्चिम १०७८७६ योजन चौड़ा (१०० योजन व्यास को ), बीच में ५० है। यहां से ५०० योजन ऊँचाई पर जो
योजन चौड़ी, और ८ योजन मोटी हैं। उपयुक्त ५०० योजन चौड़ी कटनी मेरु के इन में से प्रत्येक पर तीन तीन गोलाकार चारों ओर है उसमें "नन्दन" नामक पन पूर्व-मुख सिंहासन हैं, जिन में से मध्य का ५०० योजन चौड़ा है । यहां से ५५५०० तीर्थकर देव सम्बन्धी, इसके दक्षिण दिशा योजन ऊपर जाकर जो उपयुक्त का सौधर्मेन्द्र सम्बन्धी और उत्तर दिशा दूसरी कटनी ५०० योजन चौड़ी का ईशानेन्द्र सम्बन्धी है। प्रत्येक आसन है उसमें तीसरा 'सौमनस' नामक की ऊंचाई ५०० धनुष ( १००० गज़), बन ५०० योजन चौड़ा है । यहां से तलव्यास ५०० धनुष और मुखन्यास २८००० योजन ऊपर मेरु की चोटी पर २५० धनुष है। "चूलिका" के मूल में उसके चारों ओर उपयुक्त 'पाण्डुक' आदि चारों शिजो उपयुक्त ४१४ योजन चोड़ा कटनी के लाओं पर 'धातुकळखंड' महाद्वीप के आकार का स्थान है उसमें चोथा पाण्डुक” | पश्चिमीय भाग के भरत, पश्चिमविदेह, नामक बन ४६४ पोजन चौड़ा है। ऐरावत, और पूर्वविदेह-क्षेत्रों में जन्मे
उपर्युक प्रत्येक बन की पूर्व, पश्चिम, | सर्थकरों का क्रम से जन्माभिषेक होता |.. उत्तर, दक्षिण प्रत्येक दिशा में एक एक है, अर्थात् 'पाण्डुक' शिला पर भरतक्षेत्र
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dalitish-HIRANDA
GARCAtti-
( १३९ ) अचल वृहत् जैन शब्दार्णव
अचलगढ़ के, 'पाण्डुर-कँवला' शिला पर पश्चिम | में से द्वितीय बलभद्र का नाम; अन्तिम विदेहक्षेत्र के, 'रक्ता' शिला पर ऐरावतक्षेत्र तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी के ११ गणके और 'रक्त-कवला' शिला पर पूर्व विदेह- धरों में से नघे मण घर का नाम: ११ रुद्रों। क्षेत्र के तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक होता है। में से छटे रुद्र का नाम; शोर्यपुर के राजा ___ नोट १.- अढ़ाईद्वीप में (१) सुदर्शन अन्धकवृष्णि के समुद्रविजय आदि १०, (२) विजय (३) अचल (४) मन्दर (५) विद्युत् पुत्रों में से छोटे पुत्र का नाम जो श्री नेममाली (विद्युन्मालो ), यह पाँच मे है । इन नाथ तीर्थङ्कर का एक चचा और श्रीकृष्ण | में से पहिला १००००० (एक लाख ) योजन का एक ताऊ था; इसी अचल के ७ पुत्रों, ऊंचा 'जम्बूद्वीप' में है, दूसरा और तीसरा में से एक पुत्र का नाम भी अचल ही था। प्रत्येक ८१ हजार योजन ऊँका 'धातुकी- जो श्री नेमनाथ का चचेरा भाई था; आखंड' द्वीप में क्रम से पूर्वभाग और पश्चिम- गामी उत्सर्पिणीकाल के तृतीय भाग में भाग में हैं, और चौथा, पांवां भी प्रत्येक होने काले ६ नारायण पदवीधारक पुरुषों ८५ सइन योजन ऊंचा 'पु:करार्द्धद्वीप' में मे से पश्चम का नाम श्री मल्लिनाथ तीर्थकम से पूर्वभाग और पश्चिमभाग में हैं। कर के पूर्वभव (महाबल ) का एक मित्र॥ प्रत्येक की यह उपयुक्त ऊंचाई मूलभाग नोट ३.-इन सर्व प्रसिद्ध पुरुषों का सहित है।
चरित्रादि जानने के लिये देखो 'वृहविश्व-I नोट २.-पांचों मेहओं की मूल की चरितार्णव' नामक ग्रन्थ ॥ गहराई १०००योजन, भद्रशाल बन की ऊंचाई (४) मल्लिनाथ के पूर्वभव का एक १०० योजन, शेष नन्दन आदि लीनो बनों की मित्र; १० दशाहों में से छटा दशाई; चौड़ाई क्रम से ५००, ५००, ४६४ योजन, अन्तगढ़सूत्र के दूसरे वर्ग के ५. अध्याय चोटी का व्यास १००० योजन और चूलिका का नाम ( अ. मा.)। का तलन्यास १२ योजन, मुखव्यास ४ योजन अचलकीर्ति-एक भट्टारक का नाम जिऔर ऊंचाई ४० योजन, तथा पाण्डुक आदि
न्हों ने हिन्दी भाषा में "विषापहार स्तोत्र" शिलाओं सम्बन्धी रचना आदि जो ऊपर
को छन्दोवद्ध किया। अचल मेरु की बतलाई गई हैं वही शेष चारों मेरुओं की हैं । शेष बातों में प्रथम 'सुदर्शन
अचलगढ़-यह एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान मेरु' से तो अन्तर है । परन्तु अन्य तीन से सिरोही राज्य में है जहां पहुँचने के लिये . प्रायः कोई अन्तर नहीं है, अर्थात् छोटे चारों अजमेर से दक्षिण-पश्चिमीय कोण को 'मा-| मेरुओं की सर्व रचना प्रायः समान है। रवाड़' जङ्कशन होते हुए या अहमदायाद | (देवो शब्द 'पञ्चमेह' और 'अढ़ाईद्वीप') से उत्तर-पूर्षीय कोण को महसाना जङ्कशन
(३) वर्तमान अबसर्पिणीकाल के गत होते हुए “आबू-रोड” स्टेशन पर पहुँच चतुर्थकाल में हुए २४ तीर्थङ्करों में प्रथम | कर इसी स्टेशन से “दैलबाड़ा-आबू'' की तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव के ८४ गणधरों में | पहाड़ी तक २० मील पक्की सड़क जाती| . से एक गणधर का नाम; ६ पलभद्रो है नहां से अचलगढ़ पहुँचने के लिये केवल
Manish
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( १४०
)
rameramanand
अचलगढ़ वृहत् जैन शब्दार्णव
अबलपुर ४ मील का पहाड़ी रास्ता है । यहां गढ़ । की धर्मपत्नी 'अनुपमादेवी' की इच्छा से चा-1 के नीचे एक तालाब, एक मैदान और लुक्य वंशीय राज्य के अन्त होने पर 'वीरधकई हिन्दुओं के शिवमन्दिर हैं। तालाब वल वाघेला' के राज्य कालमें सन १२५० ई० के किनारे पर एक दर्शनीय गऊ की के लगभग निर्माण कराया था। इसी आव मूर्ति है । राह में एक स्वेताम्बरी जैन मंदिर पहाड़ी के मन्दिरों में से एक मन्दिर पोरवाल है। यहाँ से अद्ध मील की चढ़ाई पर "अ- जातिरत्न 'विमलशाह' ने भी 'भीमदेव' के चलगढ़" नामक ग्राम है जिसमें दो स्वेता- शासन काल में सन् २०३१ ई० में श्रीआदि। म्बरी धर्मशाला और इन धर्मशालाओं में नाथ' प्रथम तीर्थकर का बनवाया था। ३ जैन मंदिर देखने ही योग्य हैं। इन में से
अचलग्राम-प्राचीन समय के एक प्रसिद्ध । एक तो अत्यन्त विस्तृत और विशाल है
ग्राम का नाम जिस के निवासी एक प्रसिद्ध जिस में बहुत बड़ी बड़ी १४ स्वेताम्बरी
श्रेष्ठी (सेठ ) की पुत्री "बनमाला'' और प्रतिमाएं १४४४ मन स्वर्ण की बड़ी मनोहर
राजपत्री 'मित्रश्री' श्रीकृष्ण के पिता 'श्री| हैं। इस मन्दिर के नीचे दूसरा मन्दिर है
वसुदेव' को विवाही गई थीं। जिसमें २४ देहरी हैं। इन मन्दिरों और उन
अचलद्रव्य-पट द्रव्यों में से एक रूपी की प्रतिमाओं का निर्माण गुजरात देश निवासी एक “भेषा शाह" नामक प्रसिद्ध
द्रव्य पुद्गल को छोड़ कर शेष पांचों अरूधनकुधेर ने कराया था जिसका बनवाया
पी द्रव्य अर्थात् (१) शुद्ध जीव द्रव्य (२) हुआ 'दैलवाड़ाआव-पहाड़ी पर १८ करोड़
धर्मद्रव्य (३) अधर्म द्रव्य (४) आकारुपयों की लागत का एक विशाल दर्शनीय
श द्रव्य (५) कालद्रव्य अचल हैं। इन | जैन मन्दिरहै जिसमें चहुँ ओर २४बड़ी बड़ी |
के प्रदेश सदैव स्थिर है । जीव द्रव्य जब और २८ छोटी देहरी एक से एक बढ़िया
तक कार्मण आदि पौद्गलिक शरीरों के और मनोहारिणी तथा मंदिर के साम्हने
बन्धन में फंस रहा है तब तक यह भी रूपी की ओर पाषाण के सिंह, हस्ती, घोटक
है और इसीलिो विप्रहगति में इस के आदि सर्व देखने ही योग्य है यह मन्दिर अ
प्रदेश चल हैं, चौध अयोग गुणस्थान में पनी रचना और शिल्पकला आदि के लिये।
(केवलि समुद्घात के काल को छोड़कर )। इतना लोक-प्रसिद्ध है कि भारतवर्ष से बा
अचल है और शेष अवस्थाओं में चला हर के दूर दूर देशों के यात्री भी इसे देखने आते और इसकी प्राचीन अद्भत रचना को अचलपद-मोक्षपद, अक्षयपद, अभयपद. देख कर चकित हो जाते हैं।
अविनाशीपद, शुद्धात्मपद, निकल परमात्म ____ नोट.-किसी किसी लेख से ऐसा पद निर्वाणपद, सिद्धपद, पञ्चमगति, जाना जाता है कि दैलवाड़ा आव पहाड़ी पर अष्टप्रवराप्राप्ति ॥ (देखो शब्द अक्षयपद') के जगत प्रसिद्ध जैन मन्दिर को गुजरात देश अचलपुर-ब्रह्मद्वीप के पास के आभीर निवासी पोरवाल जाति भूषण "वस्तुपाल'' | देश का एक नगर,जिसमें रेवती नक्षत्राचार्य और "तेजपाल", इन दो भाइयों ने 'तेजपाल' के शिष्यों ने दीक्षा ली थी। (अ०मा०)॥
EnAmsanmaamanual
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( १४१ ) अचलभ्राता वृहत् जैन शब्दार्णव
अचाम्लतप मचलत्राता-श्री महावीर तीर्थङ्कर के ११ सम्पत्ति, श्रु तज्ञान-सम्पत्ति, एकावली,द्विगणधरो में से धवल नामक १.वें गणधर का
कावली, रत्नावली, महारत्नावली, कनकाद्वितीय नाम । [ पीछे देखो शब्द अकम्पन
वली, मुक्तावली, रत्नमुक्तावली,मृदङ्गमध्य, (६) का नोट २] ॥
वजूमध्य, मुरजमध्य, कर्मक्षपण, त्रैलोक्य
सार, चान्द्रायण, सप्तसप्तम कपल, सौवीर अचलमेरु-देखो शब्द "अचल (२)" ॥
भुक्ति, दर्शनशुद्धि तपःशुद्धि, चारित्रशुद्धि, अचलस्तोक-वर्तमान अवसर्पिणी काल पञ्चकल्याणक, शीलकल्याण, पञ्चविंशतिके गत चतुर्थ विभाग में हुए ६ बलभद्रों
भावना, पञ्चविंशतिकल्याण-भावना, दुःख में से दूसरे का नाम ॥
हरण, धर्मचक्र, परस्पर कल्याण (परम ' [देखो शब्द "अचल (३)"]
कल्याण ), परिनिर्वाण, सूर्यप्रभ, चं. प्र , अवला-शक्रेन्द्र की ७ वीं अग्र-महिषी
कुमारसम्भव, सुकुमार, इत्यादि अनेक
प्रकार तपोविधियों में से एक प्रकार की (अ० मा० )॥
तपो विधि का नाम 'आचाम्ल वर्द्धन त,' अचलावती ( अबला )-एक व्यन्तरी
है। इसे 'सौवीर भुक्ति' भी कहते हैं । इस देवी का नाम जिसका निवास स्थान की विधि निम्न प्रकार है:-- जम्बूद्वीप के मध्य सुदर्शन मेरु के भैऋत्य ___ पहिले एक षष्ठक और एक चतुर्थक कोण के 'विद्युत्प्रभ' नामक गजदन्त पर्बत अर्थात् एक बेला और एक उपवास निर्विके एक शिवर (स्वस्तिक नामक कूट ) कृत आहार पूर्वक करे जिनमें ६ दिवश
लगेंगे । पश्चात् सातवें दिन इमली या अचलितकर्म-वह कर्म जिसका उदय न अन्य कोई शुद्ध अचित अम्ल (तुर्श, खट्टा) हुमा हो (अ० मा०, अचलियकम्म ) ॥
पदार्थ युक्त भात या केवल भात का एक प्रचाम्ल ( आचाम्ल )-अल्पाहार, तक
ग्रास अथवा भात से निकला हुआ
माँड या तक्र का एक घंट ले । अगले दिन (छाछ ,,भात मिला हुआ अनपका कांजी
दो ग्रास या दो घंट ले। इसी प्रकार एक रस, अर्थात् पके चावलों से निकला हुआ
एक प्रास या घंट प्रति दिन बढ़ा कर १० पूतला मांड जो फिर पका कर गाढ़ा न
ग्रास या १० धंट तक १० दिन में बढ़ावे । किया गया हो उस में मिलाये हुए पके
फिर १७ वें दिन से एक एक ग्रास या घंट चाँवल । इमली-रस मिला भात या भात
प्रति दिन घटा कर दश ही दिन में एक का मांड ॥ .
ग्रास या घंट पर आजाय । तत्पश्चात् प्रचाम्लतप (आचारलवर्द्धनतप)-सर्व- २७ वें दिन निर्विकृत अल्पाहार से एकातोभद्र, बसन्तभद्र,महासर्वतोभद्र, त्रिविध- शन कर के एक उपवास और एक बेला | सिंहनिष्क्रीड़ित, त्रिविध-शतकुम्भ, मेरु- या तेला करे । इस प्रकार यह आचाम्लपंक्ति ( मन्दर पंक्ति), विमान पंक्ति, नन्दी- व्रत ( आचाम्ल वर्द्धनतप ) ३३ या २४ श्वर पंक्ति, दिव्य-लक्षण-पंक्ति, जिनगुण। दिन में पूर्ण हो जाता है ।
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अचित
नोट - विकृत रहित आहारको 'निर्वि कृताहार' कहते हैं । जो जिह्वा (जीभ) और मन में विकार या चटोरपन या जिह्वा लम्पटता आदि अवगुण उत्पन्न करे उसे 'विकृत' कहते हैं । ऐसा विकृत भोजन ५ प्रकार का होता है(१) गोरस (२) इक्षुरस (३) फलरस (४) धान्य रस और (५) सर्व प्रकार के चटपटे मसालेदार या कामोह पक या अति स्वादिष्ट संयोगिक पदार्थ ॥
( १४२ )
वृहत् जैन शब्दाव
अति उष्ण-संवृतविवृत ) अचितक्रीत
नोट २ - मध्यान्ह ( दुपहर ) से कुछ देर पश्चात् शुद्ध अल्पाहार केवल एक बार ग्रहण करने को 'एकाशन' कहते हैं । पहिले और पिछले दिन 'एकाशन' और मध्य के एक दिन निराहार - (निर्जल ) रहने को एकोपवास कहते हैं । इसी का नाम 'चतुर्थक' भी है, क्यों कि इस व्रत में पूरे ३ दिन रात्रि में ६ बार के स्थान केवल दो बार भोजन ग्रहण किया जाने से चार बार के भोजन का त्याग हो जाता है । इसी प्रकार दो दिन निराहार (निर्जल ) रहने और पूर्व व उधर दिवशों में एक एक दिन एकाशना करनेको 'वेला' (द्व ेला) कहते हैं जिस में पूर्वोक्त रीति से छह बार का आहार त्याग हो जाने के कारण उसे 'षण्ठक' भी कहते हैं । ऐसे ही तीन दिन निराहार और पूर्वोत्तर दिन एक एक 'एकाशन' करने को 'तेला' (त्रेला ) या 'अष्टम' कहते हैं ॥ अचित-चितरहित अर्थात् चैतन्य या चेतना या जीव प्रदेश रहित, निर्जीव, प्राशुक ॥
चित-उष्ण-वित
अचित-उष्ण-संवृत
अचितजल
(१)
कारण घी, दुग्ध, गुड़, शक्कर, वस्त्र, भाजन, भूषण, आदि कोई अधित द्रव्य बेचकर या बदले में देकर मोल लिया हुआ कोई पदार्थ | अतिक्रीतदोष ( अचितद्रव्य क्रीतदोष ). - मुनियों के आहार या वसतिका ( वस्तव्य स्थान, वसने योग्य या ठहरने योग्य कोई मकान ) सम्बन्धी १६ प्रकार के "उगम दोषों में से एक "की" नामक दोष का एक भेद जो अचित क्रीत सामग्री से बना हुआ आहार या वसतिका ग्रहण करने से किसी निथ साधुको लगता है। नोट - १६ प्रकार के उद्गम दोष यह हैंऔद्देशिक, (२) अध्यधि (३) पूति (४) मिश्र ( ५ ) स्थापित (६) बलि (७) प्रावर्तित ( प्राभृतक ) (=) प्राविधकरण (प्रादुकार ) (E) क्रीत (१०) प्रामृष्य (११) परिवर्तक (१२) अभिघट (१३) उद्भिन्न (१४) मालारोहण (१५) अच्छेय (१६) अनिसृष्ट (अनीषार्थ ) ॥ इन १६ में से नवें " क्रीतदोष" के दो भेद द्रव्यक्रीत और भावकीत हैं जिन में से 'द्रव्यक्रीत' दोष के भी दो भेद, सचितद्रव्यक्रीत दोष और अचितद्रव्यक्रीत दोष हैं, अर्थात् क्रीतदोष के सर्व तीन भेद (१) सचितद्रव्यकत दोष या सचितक्रीत दोष (२) अतिद्रव्यकीत दोष या 'अचितक्रीत दोष' और (३) भावकीत दोष है । (देखो शब्द 'अङ्गारदोष' और 'अहारदोष' ) ॥ अश्चितजल - जो जल छान कर इतना
|
गर्म (उष्ण ) कर लिया गया हो कि उस में चावल गल जाय या जिस में लवंग, इलायची आदि कोई तिक्त अथवा कषैली वस्तु मिला दी गई हो ।
'
देखो शब्द
"अचितयोनि
33
[-दाम पास न होने के
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( १४३ )
वृहत् जैन शब्दाव
अचितद्रव्य
सूर्य की किरणों से आतापित या तीव्र वायु या पाषाण आदि से ताड़ित नदी, सरोवर, वापिका आदि का भी सी किसी आचार्य की सम्मति में 'अचित' है ॥ अचितद्रव्य-व - वह द्रव्य जिस में उस द्रव्य
का स्वामी चैतन्य या अधिष्ठाता जौधात्मा या उस में व्यापक रहने वाला कोई जीव न हो, अर्थात् षह द्रव्य जो किसी विद्य
जीवद्रव्य का सौद्गलिक शरीर न हो और जिस में कोई सजीव स्थावर शरीर ( सप्रतिष्ठित या अप्रतिष्ठित ) अथवा सजीव या निर्जीव त्रसशरीर भी विद्यमान न हो । ऐसे अश्वितद्रव्य ही को 'प्राशुकद्रव्य' भी कहते हैं ॥
नोट १. - जिस अन्न के दाने में या किसी फल के बीज़ में चाहे वह सूखा हो यो हरा हो जब तक पृथ्वी आदि में बोने से उपजने की शक्ति विद्यमान है तब तक वह दाना या वीज या गुठली 'सचित' है । और जब अति जीर्ण होने, अग्नि में भूतते, पकाने या टूक टूक करदेने आदि से उस की वह शक्ति नष्ट हो जाय तब वह 'अति' है । किसी पूर्ण पके फल का गूदा अचित है परन्तु कच्चे फल का गूदा तथा कव्याजल, सर्व कन्द, मूळ, फल, पत्र, शाक, आदि स चित हैं जो मिर्च, खटाई, लवंग, इलायची या किसी अन्य तिक्त या कपायले पदार्थ के मिला देने से या अग्नि पर पका लेने से या सुखा लेने से अचित हो जाते हैं ।
नोट २. - विशेष जानने के लिये देखो शब्द 'अभक्ष्य' और 'सचितत्याग प्रतिमा' ॥
अचितद्रव्यपूजा-पूजा के हे षट भेदों अर्थात्
अतिद्रव्य पूजा
नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में से 'द्रव्यपूजा' का एक भेद । श्री अरहन्तदेव के साक्षात् परमैौदारिक, दिव्य, निर्विकार, वीतराग मुद्रायुक्त 'शरीर' का
तथा 'त्र्यन त' ( जिनवाणी या जिनवाणी गंधित ग्रन्थ अथवा अक्षरात्मक या 'शब्द अन्य श्र तज्ञान' ) का जल चन्दनादि अष्ट द्रव्यों में से किसी एक या अधिक सचित या अचित या उभय शुद्ध द्रव्यों से पूजन करना अति द्रव्यपूजा' है ॥
नोट १. – प्रकारान्तर से 'अचित द्रव्य पूजा' में दो विकल्प हैं - १. अचित 'द्रव्यपूजा' अर्थात् द्रव्यपूजा के तीन भेदों (१) अचित ( २ ) सचित और (३) सचिताचित या मिश्र, इन में से प्रथम भेद जिस का स्वरूप उपर्युक्त है ॥
हैं . - (१) अचितद्रव्य की पूजा और (२) २. 'अचितद्रव्य' पूजा जिसके दो अर्थ अतिद्रव्य से पूजा |
प्रथम अर्थ ग्रहण करने से इस में तीन विकल्प उत्पन्न होते हैं- (१) अश्चितद्रव्य की पूजा अक्षतादि अचितद्रव्य से (२) अचितद्रव्य की पूजा पुष्प फल आदि सचितद्रव्य से (३) अचितद्रव्य की पूजा पक्के फल या अक्षत पुष्पादि सम्मिलित मिश्रद्रव्य से । इनमें से प्रत्येक विकल्प के पूज्य द्रव्य के भेद से निम्न लिखित ४ भेद हैं:
१. मुक्तिगमन अर्थात् निर्वाणप्राप्ति पीछे अरहन्त के शेष निर्जीव शरीर (अधित शरीर ) की पूजा | २. अर्हन्तादि पञ्चपरमेष्ठी की सद्भावस्थापना पूजा अर्थात् उनकी वीसराग मुद्रायुक्त अश्वितधातु या पाषाण की तदाकार प्रतिमा में उन की कल्पना कर उनकी पूजा करना । ३. अर्हन्तादि पर
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( १४४ ) अचितद्रव्यपूजा वृहत् जैन शब्दार्णव
अचितयोनि मेष्ठी की या षोडश-कारण-भावना, दश- | अवस्था में निगोद राशि सहित 'सप्रतिष्ठत लक्षण धर्म, रत्नत्रयधर्म, इत्यादि की अस. प्रत्येक ' होते हैं जिम में ( तीर्थर शरीर के द्भाव स्थापना पूजा अर्थात् अचित कमल- अतिरिक्त शेष में ) त्रस जीव भी आश्रय पाते गट्टा, सूखे पुष्प, अक्षत आदि अतदाकार | हैं। पवित्र अचित पदार्थों में उनकी कल्पना कर | (देखो शब्द 'अष्ट स्थाननिगोद रहित') उनका पूजन करना। ४. द्रव्यश्रत या - नोट ३-पूजन के सम्बन्ध में विशेष | जिनवाणी प्रतिपादित ग्रन्थों का पूजन ॥ बातें जानने के लिये देखो शब्द 'अर्चन' ॥ _ 'चितद्रव्य पूजा' का द्वितीय अर्थ अचितपरिग्रह-परिग्रह के मूल दो भेदों 'अचितद्रव्य से पूजा' ग्रहण करने से इस
(१) अन्तरङ्ग या अभ्यन्तर परिग्रह और में भी तीन विकल्प उत्पन्न होते हैं-(१) |
(२) वाह्यपरिग्रह में से “वाह्यपरिग्रह' के अचितद्रव्य से पूजा उपयुक्त अर्हन्त शरी
जो तीन विकल्प हैं अर्थात् (१) अचितरादि में से किसी अचितथ्य की (२)
परिग्रह (२) सचितपरिग्रह और (३) मिश्रअयितद्रव्य से पूजा सचितद्रव्य अर्थात् |
परिग्रह. इनमें से रुपया पैसा,सोना चांदी, 'साक्षात' अर्हन्तादि ( सिद्धों के अतिरिक्त)४ |
वर्तन वस्त्र, आदि 'अचितपरिग्रह' हैं । परमेष्ठी की अथवा सचित पुष्पादि द्वारा |
| देखो शब्द 'परिग्रह' ॥ असगाव स्थापना से परोक्षरूप पूजा प. चपरमेष्ठी आदि की (३) अचित द्रव्य से अचितफल-पीछे देखो शब्द 'अचितपूजा मिश्रद्रव्य अर्थात् अष्ट प्रातिहार्य आदि द्रव्य' और उसका नोट ॥ युक्त साक्षात अरहन्त देव की अथवा द्रव्य अचितयोनि-आत्मप्रदेश रहित योनि । श्रु त या पीछी कमंडल उपकरणयुक्त
गुणयोनि के मूल तीन भेदों में से एक आचार्यादि की॥ . इन में से प्रत्येक विकल्प के भी पूजन
भेद ॥ की भचित सामग्री के भेदों से--(१)
___इस के गण अपेक्षा निम्न लिखित छह अचित जल से पूजा (२) अचित चंदन
भेद हैं:से पूजा (३) अचित तन्दुल से पूजा,
(१) अचित-शीत-संकृत योनि-वह अइत्यादि--कई विकल्प हो सकते हैं।
चित योनि जो शीतगुण युक्त ढकी हुई हो। नोट २.-मनुष्य शरीरों में केवल श्री. जैसे कुछ देव और नारकियों की तथो अर्हन्त देव ( केवली भगवान ) के शरीर में | कुछ एकेन्द्रिय जीवों की योनियां ॥ निगोद राशि नहीं होती और न उसमें किसी (२) अचित-शीत-विकृत योनि--वह समय त्रस जीव ही पड़ते हैं । इसी लिये उन अचित योनि जो शीतगुण सुस्त खुली हुई | का औदारिक शरीर ‘परमौदारिक अप्रतिष्ठत | हो । जैसे कुछ विकलत्रय और सम्मर्छन | प्रत्येक' होता है। अतः निर्वाण प्राप्ति पश्चात् | पञ्चेन्द्रिय जीवों की योनियां ॥ वह परम पवित्र अचित है। परन्तु शेष सर्व (३)अचित उष्ण-संवृत योनि-वह अ. मनुष्य-शरीर छद्मस्थ (असर्वज्ञ या अल्पश) चित योनि जो उष्ण गुणयुक्त ढकी हुई हो।।
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। १४५ ) (अचितयोनि वृहत् जैन शब्दार्णव
अचितयोनि जैसे कुछ देव और नारकियों की तथो | ही हैं--(१) अचित (२) सचित और (३) कुछ एकेन्द्रिय जीवों की योनियां ॥ सचिताचित मिश्र । इन में से प्रत्येक के
(४) अचि त-उष्ण-विवृत योनि-वह | (१) शीत (२) उप्ण और (३) शीतोष्ण सचित योनि जो उष्णगुण युक्त खुली हुई | मिश्र, यह तीन तीन भेद होने से योनि के हो । जैसे कुछ विकलप्रय और सम्मूर्छन | नौ भेद हैं। इन नव में से (१) सचिता. पञ्छन्द्रिय जीवों की योनियां ॥ चित-शीत (२) सचिताचित उष्ण और
(५) अचित-शीतोष्ण-संवृत योनि-- (३) सचिताचित-शीतोष्ण, इन तीन में से वह अचित योनि जो शीतोष्ण मिश्रगुण प्रत्येक के (१) संवृत (२) विवृत और (३) युक्त ढकी हुई हो । जैले कुछ एकेन्द्रिय संवृत-धिवृतमिश्र, यह तीन तीन भेद हैं जीपों की योनियां ॥
और शेष ६ में से प्रत्येक के (१) संवृत | . - (६) अचित-शीतोष्ण-विवृत योनि- और (२) विवृत, केवल यह दो ही भेद हैं | यह अचित योनि जो शीतोष्ण मिश्रगुण जिस से योनि के सर्व भेद गुण अपेक्षा २१ हो । युक्त खुली हुई हो । जैले कुछ विकलत्रय जाते हैं जिन के अलग अलग नाम निम्न । और सम्मूर्छन पञ्चेन्द्रिय जीवों की लिखित हैं:योनियां ॥
(१) अचित-शीत-संवृत (२) अचित्त · · नोट?-पैदा होने या उपजने के स्थान शीत-विवृत (३) अचित-उष्ण-संवृत (४) अविशेष को 'योनि' कहते हैं जिस के मूल भेद चित-उष्ण-विवृत (५) अचित-शीतोष्णेसंवृत।
(६) अधित-शीतोष्ण-विवृत (७) सचित-शीत. (१) आकार योनि और (२) गुणयोनि। संवृत (८) सचित-शीत-विवृत (8) सचित
योनि के आकार अपेक्षा तीन भेद है-- | उग-संवृत (१०) सचित-उष्णविवृत (११) । - (१) शंबावर्त्त-जिस के भीतर शङ्ख की सचित-शीतोष्ण-संवृत (१२) सचित-शीतोसमान चक्र हो।
पण-विवृत (१३) सचिताचित-शीत-संवृत। (२) कर्मोन्नत--जो कछवे की पीठ (१४) सवितावित-शीत-धिवृत (१५) सचिसमान उठी हुई हो।
त.चित-शीत-संवृत-विवृत (१६) सचिता__ (३) वंशपत्र--जो बांस के पत्र की चित उष्ण-संवृत (१७) सचितावित-उपा-पि. समान लम्बी हो ॥
वृत (१८) सचितावित-द-संवृतधिवृत इन में से प्रथम प्रकार की योनि में (१६) सचिलाधित-शीतो-रावृत (२०) सनियम से गर्भ नहीं रहता और यदि रहता चिताचित-शीतोष्ण विवृत (२१) सचिता-1 भी है तो नष्ट हो जाता है। दूसरी में तीर्थ चित-शीतोष्ण-संवृत वित॥
रादि पदवी धारक महान पुरुष तथा गुणअपेक्षा योनिके इन २१ भेदों में से साधारण पुरुष भी उत्पन्न होते हैं और प्रथम के ६ भेद "अचितयोनि' के हैं। इन तीसरी में तीर्थङ्करादि महान पुरुष जन्म नहीं से अगले ६ भेद "सचितयोनि" के हैं और लेते, साधारण मनुष्यादि जन्म लेते हैं। शेष भेद सचिताचित मिश्र योनि के हैं।
योनि के गुण अपेक्षा भी मूल भेद तीन योनि के इन २१ भेदों को उपयुक
साज
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अथितयोनि वृहत् जैन शब्दार्णव
अचेलक आकारापंक्षित तीन भदौ अर्थात् शं बावर्त्त, अवित-शीत-विवृत ,
देखो शब्द कूर्मोन्नत और वंशपत्र में से प्रत्येक पर | अचित-शीत-संवृत । और गर्भज, उप्पादज, सम्मूर्छन, इन | अचित-शीतोष्ण-विवृत
“अचिततीन प्रकार के अन्मों में से प्रत्येक पर
योनि "॥ तथा सर्व संसारो जीपों में ऐकेन्द्रिय, द्वी
अवित-शीतोष्ण-संवृत योनि निष्टय आदि के अनेक जाति भेदों पर यथा- भविरा ( अइरा, पेरा)-१६वे तीर्थकर सम्भय लगाने से सर्व योनियों के विशेष | श्री शान्तिनाथ की माता का नाम ( देवो भेद ८४ लक्ष हो जाते हैं जिन का विवरण शब्द 'अइरा' और ऐरा')। (अ. मा.)॥ “योनि" शब्द के साथ यथास्थान मिलेगा॥ अचतन-चेतनारहित पदार्थ, अजीव या
(गो. जी. गा०८१-८) ___ जड पदार्थ षट द्रव्यों में से एक जीवद्रव्य नरेट २.-उपाद जन्म वाले सर्व को छोड़ कर अन्य पाँचों द्रव्य अर्थात् जीवों की, अर्थात् सर्व देव गति और नरक
पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आगति में उत्पन्न होने वालों की और कुछ
काशद्रव्य और कालद्रव्य अचेतनद्रव्य' हैं। सम्मर्छन जीवों की “अचितयोनि' होती अचेल-(१) चेलरहित अर्थात् वस्त्ररहित, है। गर्भज जीवों में ( जिनके पोतज, जरायुज
वस्त्रत्यागी ॥ . . या जेलज, और अण्डज, यह तीन भेद होते
___ (२) अल्प वस्त्रधारी (अ. मा.)॥ हैं) "अचित-योनि'' किसी की भी नहीं |
| अचेलक-(१) विजयार्द्ध पर्वत पर के एक होती॥
योनि के उपर्युक्त २१ भेदों में से (१) नगर का नाम जिसका स्वामी 'अमितवेग' अचित शीत-संवृत और (.) अचित-उष्ण नामक राजा था। इसी राजा की पुत्री संवृत, केवल यह दो ही भेद उप्पाद जन्म | 'मणिमती' ने लङ्कानरेश 'रावण' द्वारा वालों के–देव और नारकियों के-हो हैं। अपनी १२ वर्ष में सिद्ध की हुई विद्या हसम्मूर्छन जन्म वाले पहेन्द्रिय जीवों की रण किये जाने से निदान बन्ध युक्त योनि उपयुक्त २१ भेदों में से १,३५,७.६.११ शरीर त्याग करके रावण' की पटराणी १३. १६, १६ इन संख्या वाले कंवल नव भंदी 'मन्दोदरी' के उदर से जन्म लिया और की और शंप ईन्द्रियादि की योनि २४,६, मिथिलानरेश 'जनक' की रानी 'विदेहा' ८,१०,१२, १४.७,२०, इन संरया वाल कंवल की पुत्री 'सीता' नाम से प्रसिद्ध होकर नव ही भों की होती है । और गर्भ ज जीवों और श्री रामचन्द्र' को स्वयम्बर द्वारा की योनि उपयुक्त २१ भेदों में से १५, ८.२१
विवाही जाकर अन्त में रावण के नाश इन संख्या पाठे, अर्थात् (१) सचिाबित. का कारण हुई ॥ शीत-संवृतधियत (.) सचितावित उष्ण- (उ० पु० पर्व ६८, श्लोक १३-२७)॥ संवृत विवृा और (३) सविता-धित शीतो. (२) चलरहित या कुत्सित अल्पमूल्य पण-संवृत विवृतावल इन तीन ही भेदों की के वस्त्र वाला (अ. मा. अचेलअ)। होती है।
(३) वस्त्र न रखने का या स्वेत मामो(गो०जी० ८५-८७) पेत अल्पवस्त्र रखने का आचार; प्रथम
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Gaa.
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( १४७ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अनेककप्रत
और अन्तिम तीर्थकरों के साधुओं का आचार ( अ. मा. अचेलग ) ॥ अलकत्रत - सर्व प्रकार के वस्त्र त्याग देने का व्रत । दिगम्बर मुनियों के २८ मूलगुणों में से एक गुण का नाम 'आवेलक्य' है । इस 'आवेलक्य' नामक मूलगुण को धारण करने का नाम ही 'अचे लक व्रत' है ॥
नोट - २८ मूलगुण आदि का विव रण जानने के लिये देवो शब्द 'अनगारधर्म' ॥ लक्य (अचेलक्य ) – अचेलकपना, वप्रत्याग, दिगम्बरत्व ॥ मौर्य - चोरीत्याग, चोरीवर्जितकर्म अदत्तग्रहणत्याग, स्तेयत्यागः प्रमत्त-योग पूर्व अर्थात् लोभादि कषाय वश या इन्द्रियविषय- लम्पटतावश बिना दी हुई किसी की वस्तु को ग्रहण करना 'स्तेय ' या 'चोरी' है । इसके आठ भेद हैं - (१) ग्राम (२) अरण्य (३) खलियाम (४) एकान्त (५) अन्यत्र (६) उपधि (७) अमुक्तक (८) पृष्ठग्रहण, इन अ ठों प्रकार की चोरी का त्याग 'अचौर्य' है ॥
( हरि० पु० सर्ग ३४, श्लोक १०३ ) । प्रचौर्य प्रणुव्रत ( अचौर्याणुव्रत ) - गृहस्थधर्म सम्बन्धी ५ अणुव्रत ( 'अनुव्रत' अर्थात् महावत या पूर्णत्रत के स हायक या अनुवर्ती व्रतों) में से तीसरे अणुव्रत को नाम जिसमें स्थूल चोरी का त्याग किया जाता है। इसी के नाम 'अदसादानविरति' या 'अदत्तादानविरमण' या 'अदसग्रहण त्यागाणुव्रत' या 'स्तेयत्यागाणु व्रत' या 'अस्तेयाणुव्रत' भी कहते हैं ।
A
( आगे देखो शब्द 'अणुव्रत' ) ॥
इस व्रत को धारण करने वाला मनुष्य किसी अन्य प्राणी की कहीं रखी हुई, पड़ी हुई, गिरी हुई, भूली हुई, धरोहर रखी हुई, आदि किसी प्रकार की कोई वस्तु लोभादि कषायवश नहीं ग्रहण करता, न किसी से ग्रहण कराता है और न उठा कर किसी को देता, न उठवाकर किसी को दिलवाता है | किली वस्तु को उस के स्वामी की आज्ञा बिना उस के सम्मुख भी न बलात् लेता, न किसी से लिवाता ही है और न उठा कर किसी अन्य को देता, म दिलाता ही है । इस व्रत को धारण करने बोला मनुष्य कोई ऐसी वस्तु जिस का कोई स्वामी न हो या कोई ऐसी वस्तु भी जिस के विषय में यह सन्देह हो कि यह मेरी है या किसी अन्य की है न स्वयम् ग्रहण करता, न अन्य किसी से प्रहण करने को कहता ही है ।
अचौर्याणुवती गृहस्थ किसी कूप सरोवर आदि जलाशय का जल, खान की मिट्टी, घास, वृक्ष, फल आदि ऐसा कोई पदार्थ जिसे उस के स्वामी राजा आदि मे सर्व साधारण के लिये छोड़ रखा हो और जिसके लेने में किसी की कोई रोक टोक आदि न हो उसे ग्रहण कर सकता है । अथवा माता, पिता, भाई, बन्धु, आदि का यह माल जिस को दायेदार कोई अन्य मनुष्य धर्मशास्त्रानुकूल या शाय नियमा नुकूल या रीति रिवाज के अनुसार न हो, बिना दिये भी उन की मृत्यु के पश्चात् ले सकता है ॥
- इस अचौर्याणुव्रत के निम्न लिखित ५ अतिचार दोष हैं जिनसे इस व्रत के पालन
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अचौर्य-अणुव्रत बृहत् जैन शब्दार्णव
अचौर्यअणत करने वाले को सदैव बचना चाहिये :- (५) प्रतिरूपक व्यवहार या प्रतिरूपक(१) चौर-प्रयोग या सेन-प्रयोग--किसी व्यवति था कृत्रिम व्यवहार--बहुमूल्य की को चोरी करने के उपाय आदि बताना या वस्तुमै उसी की सरश अल्प मूल्य का स्वयम् सीखना या चौर्य कर्म के लिये उओ- कोई वस्तु गुप्त रूपसे मिलाकर बहु मूल्यकी जना उत्पन्न कराने वाली कोई अनुमति वस्तु के भाव पेचना या नकली वस्तु को वा सहायता आदि देना या चौर कर्म के असलो या अधिया को लिया बताकर | साधन या सहायक पदार्थ ‘कमन्द' आदि पंचना, इत्यादि। बनाना, वेचना या मांगे देना, इत्यादि ॥ यह पाँचौ तथा इसी प्रकार के अन्य भी (२) चौरार्थदान या चौराहृत-ग्रह या ऐसे कार्य जो लोमादि वरा गुप्त रीति से तदाहतादान-चोरी का माल धरोहर र
या बलात् करने पड़े व सब चोरी ही का खना, या मोल लैना, या किसी अनजान रूपान्तर या उसके तिवार। याभोले मनुष्यादि से लोभ आदि कषायवश
(सागार० अ०४ोक ५०)। घहु मूल्य की वस्तु बहुत कम मूल्य में नोट --किसी ग्रहण कि हुए त का लैना या उत्कोच(अर्थात् घूस या रिशवत) एक अंश भंग होना अर्थात् अन्तरगया बहिलैना, इत्यादि ॥
रग इन दोनों में से किसी एक कार से भग (३) विरुद्धराज्यातिक्रम या विरुद्धराज्य- होना “अतिचार" या "अतीधार" दोष पाहध्यतिक्रमण--राजा की किसी आशा का
लाता है जिस से उस व्रत में शिथिलता और घोरी से उलङ्घन करना, राजस्व (राजा का कुछ असयंमपना आ जा । और अन्तरङ्ग नियत "कर" या महसूल ) चोरी से (गुप्त वहिरङ्ग दोनों प्रकार से जब कोई प्रत भंग हो रीति से ) न देना या कम दैना, राज भंग जाय तो वा "अनाचार' कहलाता है। होने पर नीति का उलंघन करके अनचित "अतिचार दोप" लगने में प्रतटने से बचने व्यापार करना, राजाज्ञा बिना अपने राजा के लिये चित्त में कुछ न कुछ भय बना रहता के विरोधी राज्य में जाना अर्थात् शत्र है पन्तु ."अनाचार” में हृदय में नियता राजा के राज्य में जाना, अपने राजा के आजाती है ।। शत्रुसे गुप्त रीति से मिलना या उसे किसी (सा. अ. ४, इलोक १८ मू गा. १०.६) प्रकार की सहायता देना, इत्यादि ॥ ___ इस "अचौर्याणवत'' को निल रमने . (५) हीनाधिक मानोन्मान या हीनाधिक | के लिये निम्न लिखित ५भावनाओं को भी मानतुला या मानोन्मानवपरीत्य या मानव- अवश्य ध्यान में रखना और हरदम उनके न्यूनताधिक्य-तोलने नापने के यार या अनुकूल प्रवर्तना चाहिये :--- गज आदि कम बढ़ रावना या ताखड़ी (३) शून्यागारवास--सुर्यसनी, तीव्र (तुला या तराज ) की डंडी में कान रखना
कषायी, भ्रष्टाचरणी मनुष्यों से शय स्थान | या उंडी मारकर तोलना जिससे गुप्त रूपमें
में निवास करने का सदा ध्यान रखना ॥ अपना माल कम दिया जाय और पराया | (२) विमोचितावास--किसी अन्य मनुमाल अधिक लिया जाय ॥
- प्य के झगड़े टंटे से रहित स्थान में निवास
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अचौर्य-महाव्रत वृहत् जैन शब्दार्णव
अचौर्य-महावत करने का सदैव विचार रखना ॥ | संयमोपकरण “पीछी", और शौचोपकरण (३) अपरोपरोधाकरण-किसी अन्य | 'कमंडल', यह तीन उपकरण ( साधन या मनुष्य के स्थान में जहाँ जाने की रोक टोक उपकारी पदार्थ ) धम्मो पकरण हैं ॥ हो बलात् प्रवेश न करने का सदैव ध्यान नोट२.-जो स्वयम् महान हैं, जिनके रहना।।
| ग्रहण करने से ग्रहण करने वाला व्यक्ति (४)आहार शुद्धि-न्यायोपार्जितधन महान हो जाता है अथवा जिन्हें महान शक्तिसे प्राप्त की हुई शुद्ध भोजन-सामग्री से बने वान पुन्यवान पुरुष ही धारण कर सको है हुए आहार को लोलुपता रहित सन्तोष तथा जिन का आचरण अत्यन्त पने संसार सहित ग्रहण करने का सदैव ध्यान रखना। की निवृति और मोक्ष महा-पद की प्राप्ति के ( ५ ) सधौविसंवाद-साधर्मी
लिये ही किया जाय उन्हें "महात्रत" कहते हैं। मनुष्यों से किसी वस्तु के सम्बन्ध में “यह इस अचौर्य महाव्रत के निम्न लिग्नित मेरी है यह तेरी है' इत्यादि कहन सुनन
५ अतिचार दोष है जो इस व्रत के पालक द्वारा कोई फलद विसंवाद आदि न रख मुनियों को बचाने चाहियेः-- कर परस्पर कार्य निकालने का सदा वि. (१) अयात्र-आचार्य आदि से चार रखना ॥
प्रार्थना पूर्वक आशा लिये बिना किसी
धर्मापकरण को ग्रहण करना या किसी भवौर्य-महानत-मुनि धर्म सम्बन्धी ५
अन्य साधर्मी मुनि के उपकरण को अपने महावतों में से तीसरा महावत, तथा २८
काम में लाना ॥ मूलगुणों में से एक मूलगुण जिस में स्थूल
(२) अननुज्ञापन-किसी अन्य मुनि और सूक्ष्म सर्व ही प्रकार की चोरी का,
के उपकरण को बिना उसकी अनुमति के अर्थात् विना दी हुई वस्तु ग्रहण करने का
अपने काम में लाना ॥ मन, बचन और फाय से कृत, कारित,
(३) अन्यथाभाव-धर्मोपकरणों या अनुमोदना युक्त पूर्णतयः त्याग किया
शिप्यादि में ममत्व भाव रखना ॥ जाता है।
(४) प्रति सेवा या त्यक्त सेघा-- इस व्रत को धारण करने वाले मुनि, आचार्यादि की यथार्थ सेवा से मन को ऋषि, साधु सर्व प्रकार के परिग्रह के अर्था- प्रतिकूल रखना अर्थात् सेवा से जी त् धन, धान्य, वस्त्र, फटम्ब आदि १० चुराना ॥ प्रकार के सर्व पदार्थों और क्रोध, मान, (५) अननुचिसेवन--अन्य किसी माया, लोभादि १४ प्रकार की सर्व कषायों साधर्मी मुनि के किसी उपकरण को उस के तथा निज पौद्गलिक शरीर तक से म- की अनुमति से लेकर योग्य रीति से काम ! मत्व भाव रखने के त्यागी होते हैं । अतः में न लाना ॥ धर्मोपकरण और भोजन के अतिरिक्त अन्य
. . (मू० गा० ३३६)। कोई वस्तु दी हुई भी ग्रहण नहीं करते ॥ इस अचौर्य-महाघ्रत को निर्मल रखने ___ नोट १.-ज्ञानोपकरण "शास्त्र" के लिये निम्न लिखित ५भाषनाओं को भी
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अवीर्यवत
हर दम ध्यान में रखना और तदनुकूल प्रवर्तना आवश्यक है:--
( १५० )
बृहत् जैन शब्दाव
( १ ) शून्यागार घास - पर्वतों की गुहाओं या वृक्षों के कोटरों आदि सुने स्थानों में निर्ममत्वभाव से निवास करने की भावना रखना ॥
( २ ) विमोचितावास --दूसरे के छोड़े हुए स्थान में अर्थात् ऐसे आवास में निर्मम भाव से निवास करने की भावना रखना जो किसी गृहस्थ ने निज कार्य के लिये बनवा कर ! पश्चात् अतिथियों के आकर ठहरने या धर्म साधन करने के ही लिये छोड़ दिया हो
(३) अनुपरोधाकरण - अन्य मनुष्य या पशु पक्षी आदि को अपने ठहरने के स्थान में आने से या आकर ठहरने या बसने से न रोकने की भावना रखना । इस भावना के अन्य नाम "परनुपरोधा करण", "अपरोपरोधाकरण", "अन्यानुपरोधाकरण", "अन्यानुपरोधिता” भी हैं ॥
( ४ ) भैक्ष्यशुद्धि या आहार शुद्धिशास्त्रानुकूल आहार सम्बन्धी ४६ दोष और ३२ अन्तराय बचा कर 'भिक्षा शुद्धि' की भावना रखना ॥
(५) सधर्माविसंवाद--3 -- अन्य किसी साधर्मी मुनि के साथ उपकरणों के सम्ब न्ध में "यह मेरा है यह तेरा है" इत्यादि विसंवाद न रखने की भावना रखना ॥ अचौर्यव्रत - देखो शब्द 'अचौर्य अणुव्रत' और "अचौर्य महाव्रत" ॥ अचौर्यव्रतोपवास-अचौर्यव्रत के उप
वास ॥
अचौर्यव्रतोपवास
"अचौर्यव्रत" में आठ प्रकार की चोरी में से प्रत्येक का त्याग (१) मनः कृत (२) मनः कारित (३) मनःअनुमोदित (3) वचन कृत ( ५ ) वचन कारित ( ६ ) वचन अनुमोदित (७) काय कृत (८) काय कारित (९) काय अनुमोदित, इन मध विधि से किया जाता है जिसे "नवकोटि त्याग विधि" कहते हैं, जिस से प्रत्येक प्रकार की चोरी के नव नव भेद होने से आठों प्रकार की चोरी के सर्व ७२ भेद हो जाते हैं । अतः इस व्रत को परम शुद्ध और निर्मल बनाने के लिये जो "उपबास" किये जाते हैं उनकी संख्या भी ७२ ही है । प्रत्येक उपवास से अगले दिन 'पारणा' किया जाता है | अतः पारणों की संख्या भी ७२ ही है । उपवास प्रारम्भ करने से पूर्व के दिन 'धारणा की जाती है। अतः इस अचौर्यव्रतोपवास' में लगातार सर्व १४५ दिन लगते हैं ।
नोट १. -- एकोपवास, या इला, या बेला आदि या पक्षोपवास, मासोपवास आदि व्रत पूर्ण होने पर जो भोजन किया जाता है उसे 'पारण' या 'पारणा' कहते हैं और उपवास के प्रारम्भ से पूर्व के दिन जो प्रतिक्षा सूचक भोजन किया जाता है उसे धारणा' कहते | पारणा और धारणा के दिन प्रायः 'एका शना' ही किया जाता है ॥
नोट २. - यह "अचौर्यत्रतोपवासविधि" "चारित्रशुद्धि विधि' के अन्तर्गत है जिस के १२३४ उपवास, १२३४ पारणा और ८ धारणा में सर्व २४७६ दिन निम्न प्रकार से लगते हैं:--
(१) अहिंसा व्रतोपवास – १२६ उपवास, १२६ पारणा, १ धारणा, सर्व २५३ दिन ॥
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( १५१ )
बृहत् जैन शब्दार्णव
अयोव्रत
(२) सत्य व्रतोपवास-७२ उपवास, ७२ पारणा, १ धारणा, सर्व १४५ दिन ॥ (३) अचौर्य प्रतोपवास-- ७२ उपवास, ७२ पारणा, १ धारणा, सर्व १४५ दिन (४) ब्रह्मखर्य प्रतोपवास-- १८० उपवास, १८० पारणा, १ धारणा, सर्व ३६१ दिन ॥ (५) परिप्रहत्याग या परिग्रहपरिमाण व्रतो पवास - २१६ उपवास, २१६ पारणा, १ धारणा, सर्व ४३३ दिन ॥
(६) रात्रिभुक्कित्याग व्रतोपवास-- १० उपवास, १० पारणा, १ धारणा, सर्व २१ दिन | (७) त्रिगुप्ति व्रतोपवास - २७ उपवास, २७ पारणा, १ धारणा, सर्व ५५ दिन ॥ (८) पञ्चसमिति व्रतोपवास -- ५३१ उपवास, ५३१ पारणा १ धारणा, सर्व १०६३ दिन !!
इन सर्व व्रतोपवासों का विवरण उम के वाचक शब्दों में से प्रत्येक शब्द की व्याख्या में यथास्थान देखें ॥
अचौर्याशुवत -पीछे देवो शब्द "अचौं
- अणुत ॥
अच्छुत्ता नाथपुराण में जो कि ई० सन् १२०५ में ा गया है प्रशंसा की है । इससे स्पष्ट है कि यह ई०सन् १२०५ से पहिले होगया है और इसने अपने पूर्वकालीन कवियों की स्तुति करते समय "अग्गलकवि" की ओ कि ई० सन् १०८९ में हुआ है, प्रशंसा की है, इससे यह ई० सन् १०८९ के पीछे हुआ है। इसके सिवाय रेवण नामक सेनापति राजा कलचुरि का मंत्री था और शिला लेखों से मालूम होता है कि आहषमल्ल ( १९८१ - १९८३ ) के और नवीन हयशाल बंश के वीर वल्लाल ( ११ ७२ - १२१६ ) के समय में भी वह जीवित था । इससे इस कवि का समय ११९५ के लगभग निश्चित होता है । बर्द्धमान पुराण मैं महावीर तीर्थङ्कर का चरित है। इसमें १६ आश्वास हैं। इसकी रचना अनुप्रास यमक आदि शब्दालंकारों से युक्त और प्रौढ़ है। इस कवि का और कोई ग्रन्थ नहीं मिलता ॥
( क. ४१ ) अच्चुतावतंसक -आगे देखो शब्द “अच्युत (६) " और "अच्युतावतंसक” अच्छ-निर्मल, मेरु पर्वत, एक आर्य देश, स्फटिक मणि ( अ. मा. ) ॥
अञ्चरण (आचण ) -- समय ई० सन् १९६५ | यह कवि भरद्वाज गोत्री जैन ब्राह्मण था । इसके पिता का नाम केशवराज, माता का मल्ल/म्बिका, गुरु का नन्दियोगीश्वर और ग्राम का पुरीकरनगर ( पुलगिर ) था। इसके पिता केशवराज ने और रेचण नाम के सैनापति ने जो कि बसुधैवान्धव के नाम से प्रसिद्ध था वर्द्धमान पुराण नाम प्रन्थ का प्रारम्भ किया था; परन्तु दुदैब से उनका शरीरान्त हो गया और तव उक्त प्रन्थ को आचरण ने समाप्त किया ।
अच्छवि-काययोग को रोकने वाला स्नातक, १४ वे गुणस्थानवर्ती साधु ॥ ( अ. मा. )
मच्छिद्र - छिद्ररहित; गोशाला के ६ दिशाचर साधुओं में से चौथा ( अ. मा. अच्छि ) ॥
इस कवि की पार्श्वकवि ने अपने पार्श्व | अच्छ्रुत्ता - २० वें तीर्थङ्कर श्री मुनिसुप्रत
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( १५२ ) अच्छध दोष वृहत् जैन शब्दार्णव
अच्युत नाथ की शासन देवी (अ. मा.)। (२) श्री ऋषभदेव के "भरत" आदि। मच्छेद्यदोष ( आछेद्य दोष)--किसी १०० पुत्रों में से एक का नाम । राजा आदि के भय या दयाव से दिया |
(३) १६ (सोलह) स्वगौ या कल्पों में | हुआ भोजन ग्रहण करना । मुनिव्रत सम्ब- |
से सोल कल्प का नाम ॥ . न्धी अष्ट-शद्धियों के अन्तर्गत जो “भिक्षा- |
(४) सोल्हवें स्वर्ग के इन्द्र का नाम ॥ शुद्धि" या "आहार शुद्धि'' और "शयना
(५) अन्तिम चर स्वर्गी अर्थात् आ-, सन शुद्धि" या "घसतिका शुद्धि" नामक
नत,प्राणत,भारण,अच्युत सबन्धी ६ इन्द्रक | भेद हैं उसमें निर्दोष पालनार्थ जो ४६ दोषों
विमानों में ले सब से ऊपर के छठे इन्द्रक | से बचने का उपदेश है उन में से एक
विमान का नाम जो १६ स्वर्गों के ५२पटलों। दोर का नाम 'अछेद्य दोष' है । यह उन
में से सर्व से ऊपरके अन्तिम पटल के मध्य ४६ दोगे के अन्तर्गत १६ उदगम दोषों' में से एक प्रकार का दोष है जो साधओं। (६) उपर्युक्त अध्युत'नामक इन्द्रक विको ऐसे आहार या स्थान के जान बूझकर मान की उत्तर दिशा के ११ (हरि पु० १२) । प्रहण करने में लगता है जिसे किसी गृह- श्रेणीवद्ध विमानों में से मध्य के छटे (हरि० । स्थ ने राजा आदि किसी बलवान पुरुष पु०चौये) श्रेणीघद्ध विमान का नाम जिस | के भय या दबाव से दिया हो।
में 'अज्युरोन्द्र' का निवास स्थान है। इसी नोट--पीछे दे वो शब्द "अक्ष मृक्षण", विमान को अगुतायतसक' विमान भी "अगर दोप' और "अधितक्रीत दोष ॥ अचान युत न होना, च्युत न होने नोट१-अध्युत स्वर्ग के निवासी देवों बाला, न गिरने वाला॥
के मुकुट का चिन्द 'कल्पवृक्ष है। यहां जघन्य प्रच्चन-लिब्ध-वह लम्धि या प्राप्ति जो आयु २० सांगरोपम वर्ष और उत्कृष्ट २२ एक बार प्राप्त होकर फिर कभी च्युत न
सागरोपम यर्प प्रमाण है । देवाङ्गनाओं की हो; आत्मा के वह परिणाम या भाव जो
जघन्य आयु कुछ समयाधिक ४८ पत्योपम प्रगट होकर फिर लुन न हो।
वर्ष की और उत्कृष्ट ५५ पल्योपम वर्ष की है। अपाय गो पूर्व में जो '१४ घस्तु" नामक |
शरीर का उल्लेध ( ऊंचाई ) कुछ कम ३ हस्त महा अधिकार है उस में से पांचवीं वस्तु |
| (३ अरलि) प्रमाण है। अच्युत स्वर्ग सम्बन्धी का नाम 'अच्यवन लब्धि' है जिस में २० सव विमान शुरुः वण के है। प्रामृत या पाहुड़ हैं । इन २० पाहुड़ों में
(त्रि० ५३०, ५४२, ५४३) से “कर्म प्रकृति" नामक चौथे पाहुड़ में नोट २-अन्युरेन्द्र की आशा स्वर्गों के कृति, वेदना, आदि २४ योगद्वार है। सबसे ऊपर के तीन प्रतरों या पटलों के उत्तर - (देवो शब्द 'अप्रायणीपूर्व') ॥
| दिशा के सर्वश्रेणीबद्ध और चायष्य ( उत्तर अच्युत-(१) च्युत न होने वाला, अमर,
पश्चिम के मध्य की विदिशा ) और ईशान
( उत्तर पूर्व के मध्य की विदिशा ) कोणों के भवल, स्थिर ॥
सर्व प्रकीर्णक विमानों में प्रवर्तित है। इन तीन
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( १५.३ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अच्युत
प्रतरों (पटलों) के इसी उत्तरी भाग का नाम ( जहां अच्युतेन्द्र की आज्ञा का प्रवर्तन है ) 'अच्युतस्वर्ग' है जिस के प्रत्येक पटल की भूमि की मुटाई ५२७ महा योजन प्रमाण है ॥
१४ वें स्वर्ग 'प्राणत' नामक की चोटी या ध्वजा दण्ड से ऊपर असंख्यात महायोज न प्रमाण अन्तराल ( रचना रहित शून्य आ काश ) छोड़ कर इस स्वर्ग के प्रथम पटल की रचना का प्रारम्भ है । फिर इसी प्रकार असं ख्यात असंख्यात महायोजन ऊपर ऊपर को अन्तराल छोड़ छोड़ कर दूसरे तीसरे और चौथे पटल की रचनाओं का प्रारम्भ है । इन चारों अन्तरालों सहित इस स्वर्ग की रचना अर्द्ध राजू प्रमाण ऊँचाई में है अर्थात् १४वें स्वर्ग की घोटी से इसकी चोटी तक का अन्तर अर्द्ध राजू प्रमाण है। और 'सुदर्शन मेरू' के तल भांग या मूल की तली से इसकी चोटी या ध्वजा दंड की नोक का अन्तर छह राजू प्रमाण है ।
अच्युत पटल के मध्य के इन्द्रक विमान का नाम " अच्युत", और कल्पातीत विमानों में सब से ऊपर के ११ वें पटल के मध्य के विमान का नाम " सर्वार्थसिद्धि" है ।
इस "सर्वार्थसिद्धि” नामक इन्द्रक वि मान से केवल १२ महायोजन प्रमाण अन्तराल छोड़कर " ईषत्प्रभार या ईषत्प्राग्भार' नामक "अष्टमधरा" या अष्टम भूमि ८ महा योजन मोटी, ७ राजू लम्बी, १ राजू चौड़ी चौकोर लोक के अन्त तक है जिसके बीचों बीच इतनी ही मुटाई का, और मनुष्य क्षेत्र या अढ़ाई द्वीप समान ४५ लाख योजन प्रमाण व्यास वाला गोल ऊर्द्ध मुख उल्टे छाते के आकार का श्वेतवर्ण "सिद्धक्षेत्र'' है । यह क्षेत्र ८ योजन मोटा मध्य में हैं। किनारों की ओर को इसकी मुटाई क्रम से घटती घटती अन्त में बहुत कम रह गई है । इसी क्षेत्र को "सिद्ध शिला" या "मुक्ति शिला" भी कहते हैं । इसके ऊपर इस से स्पर्श करती हुई "घनोदधिवात" अर्द्ध योजन मोटी, इसके ऊपर "घन वात" चौथाई योजन मोटी, और इसके ऊपर १५७५ महाधनुष ( २ गज़ x ५०० = १००० गज़ या ५०० धनुष को १ महाधनुष) मोटी "तनुवात " है । अर्थात् एक महा योजन से कुछ कम (४२५ महा धनुष कम ) मुटाई में यह तीनों प्रकार की वायु हैं जिनके अन्तमें लोक का भी अन्त होजाता है । अतः सर्वार्थ सिद्धि विमान से ऊपर को लोक के अन्त तक सवा चार सौ महा धनुष कम २१ महा योजन की और "अच्युत" नामक इन्द्रक विमान से पूरे एक राजू की ऊँचाई है ॥
इस अच्युत स्वर्ग सम्बन्धी जो उपर्युक्त ३ पटल हैं उनमें से प्रत्येक के दक्षिण भाग की रचना "आरण" नामक १५ वें स्वर्ग की है। इस " आरणाच्युत" युगल की चोटी से असंख्यात असंख्यात महायोजन का अन्त राल छोड़ छोड़ कर नव "प्रवेयक" बिमानों के पटल, नव अनुदिश विमानों का १ पटल और पञ्च अनुत्तर विमानों का भी १ पटल, एवं सर्व ११ पटल हैं । १६ स्त्रर्गों के उपयुक्त ५२. पटल हैं । अतः ऊर्द्धलोक के सर्व पटलों की संख्या ६३ है । १६ स्वर्ग सम्बधी ५२ पटलों के विमानों को "कल्प विमान" और ऊपर के ग्रैवेयक आदि सम्बन्धी ११ पटलों के विमानों को "कल्पातीत विमान" कहते मोटे "सिद्ध क्षेत्र" में अथवा इस सिद्ध क्षेत्र । कल्प विमानों में सबसे ऊपर के ५२ वें | पर ( सिद्धशिला पर ) सिद्धों (मुक्ति पद
|
यह ध्यान रहे कि उपर्युक्त अष्ट योजन
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विमान' कहते हैं।
( १५४ ) अच्युत वृहत् जेन शब्दार्णव
अच्युत । प्राप्त जीवों ) का निवास स्थान नहीं है, विमान, और शेष दो विदिशा-आग्नेय, । किन्तु इसके ऊपर पौन महायोजन मुटाई की | | नैऋत्य-के ५७ प्रकीर्णक विमान, एवम् | घनोदधि वात और घनवात से ऊपर जाकर सर्व १६८ विमान हैं । इन्हीं १६८ विमानों के
जो १५७५ महा धनुष मोटी "तनुवात" है समूह का नाम “आरण'' स्वर्ग है जो १६ उसकी मुटाई का भी १५७३ १-महाधनुष स्वर्गों में १५वां है ।। मोटा नीचे का भाग छोड़ कर इस की मुटाई नोट ४.-तिर्यकरूप बराबर क्षेत्र में। के उपरिम शेष भाग १ महानुप(५२५
अर्थात् समधरातल में जहां जहां विमानों की। धनुष ) में अनन्तानन्त सिद्धौ ( मुक्त
रचना है उसे "प्रतर' या "पटल' कहते हैं । जीवों) का निवास स्थान है। यही "सिद्धा
____ हर पटल के मध्य के विमान को ‘इन्द्रक | लय” है। यह भी विस्तार में सिद्धक्षेत्र समान
हर इन्द्रक के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और ४५ लाख महा योजन प्रमाण व्यास युक्त वृत्ताकार है और उसी की ठीक सीध में उस
उत्तर, इन चारों दिशाओं के पंक्ति रूप विमानों
को “श्रेणीवद्ध" विमाम कहते हैं । के ऊपर कुछ कम एक महा योजन प्रमाण
चारों दिशाओं के मध्य के आग्नेय आदि अन्तराल छोड़कर है।
| ४ कोणों (विदिशाओं) में के अनुक्रम रहित नोट ३.-अच्युत स्वर्ग सम्वन्धी जो जहां तहां फैले हुए विमानों को प्रकीर्णक' उपयुक्त ३ पटल हैं उनमें से सबसे नीचे के विमान कहते हैं । पटल की उत्तर दिशा में श्रेणीवद्ध विमान नोट ५-१६ स्वर्गों के नाम यह है-(१) १३, इससे ऊपर के पटल की उत्तर दिशा में सौधर्म (२) ईशान (३) सनत्कुमार (४) महेन्द्र १२ और ससे ऊपर के तीसरे पटल की (५) ब्रह्म (६) ब्रह्मोत्तर (७) लान्तव () कापिष्ट उत्तर दिशा में ११ हैं, अर्थात् उत्तर दिशा के (९) शुक्र (१०), महाशुक्र (११) शतार (१.) सर्वश्रेणीबद्ध विमान ३६ ( हरिवंश पुगण सहस्त्रार (१३) आनत (१४) प्राणत (१५) में ३६) असंख्यात असंख्यात योजन विस्तार आरण (१६) अच्युत ।। के हैं । ओर वायव्य व ईशान कोणों के सर्व इन १६ स्वर्गों के ८ युगल (जोड़े) हैं। प्रकीर्णक विमान ५६ हैं जिनमें कुछ असंन्यात पहिले युगल सोधर्म ईशान में से सौधर्म की असंध्यात और कुल संख्यात संख्यात योजन | रचना दक्षिण दिशा को, और ईशान की रचविस्तार के हैं । अतः सर्व विमानों की संख्या ना उसकी बराबर ही में उत्तर दिशा को है। जिनमें अव्युमेन्द्र की आज्ञा प्रवर्तती है ६२ है। इस युगल को रचना जरबूद्वीप के मध्य स्थिइन तीनों पटलों में से प्रत्येक के मध्य में जो त सुदर्शन भेरु की चूलिका (चोटी ) से एक एक इन्द्रक विमान है उनमें आयुरेन्द्र का केवल एक बाल को मुटाई का अन्तर छोड़ आज्ञापन नहीं है किन्तु “आरणेन्द्र" का है | कर ऊपर की ओर को ३१ पटलो (खंडों, जिसकी आशा में यह तीनों इन्द्रक विमान | मंजिलों या दर्जी) में एक लाख और चालीस
और इन तीनों पटलों की शेष तीन दिशा- (१०००४०) महा योजन कम डेढ़ राजू प्रमाण पूर्व,दक्षिण और पश्चिम-के १०८ श्रेणीबद्ध | ऊँचाई में फैली हुई है। प्रत्येक पटल की|
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अच्युत वृहत् जैन शब्दार्णव
अच्युत रचना ऊपर ऊपरको एक दूसरे से असंख्यात | जो ४ युगल हैं उनमें प्रत्येक स्वर्ग का शासक महा योजन का अन्तराल छूट छूट कर है। एक एक इन्द्र होने से उन में ८ इन्द्र हैं जिस । जहां से इस युगल का आरम्भ है वहां ही से से १६ स्वर्गों के सर्व १२ ही इन्द्र हैं । अत: "ऊद्ध लोक" का प्रारम्भ है ॥
इन्द्रों की अपेक्षा स्वर्णा या कल्पों की। इसी प्रकार क्रम से दो दो स्वर्गों का संख्या केवल १२ ही है और इसी अपेक्षा से। एक एक गुगल एक दूसरे से ऊपर ऊपर है 'अच्युत स्वर्ग' १२ वाँ स्वर्ग या १२ ह्वाँ कल्प।
और प्रत्येक युगल का पहिला पहिला स्वर्ग है ॥ दक्षिण की ओर का भाग है और दसरा दसरा नोट७-'अच्यत' स्वर्ग लम्बन्धी कुछ। स्वर्ग उत्तर की ओर का भाग है। अर्थात् | अन्यान्य ज्ञातव्य बातें निम्न लिखितं हैं:१, ३,५,७,९,११,१३,१५ संख्यक स्वगी की १. इस स्वर्ग के सर्व विमान जिन की रचना दक्षिण भाग का है और २, ४, ६,८, संख्या ६२ है शुक्ल वर्ण के हैं। १०, १२ १४, १६ संख्यक स्वर्गों की रचना २. इस स्वर्ग में बसने वाले सर्व ही उत्तर भाग की है। सौधर्म-ईशान आदि = | इन्द्रादिक देवों के भाव शुक्ललेश्या रूप हैं।। युगलों के क्रम से ३१, ७,४२, १, १, ३, ३, | ३. इस स्वर्ग के 'अच्युतावतंसक' एवम् सर्व ५२ पटल १६ स्वर्गों में हैं । प्रत्येक | नामक श्रेणीबद्ध विमान की पूर्वादि चार पटल के मध्य में एक एक इन्द्रक विमान है। दिशाओं में क्रम से रुचक, मन्दर, अशोक, अतः ५२ ही इन्द्रक विमान हैं।
सप्तच्छद नामक विमान हैं नोट ६-पांच छटे अर्थात् ब्रह्म और ४. इस स्वर्ग के इन्द्रादिक देवों के ब्रह्मोत्तर इन दो स्वर्गो का एक ही इन्द्र | मुकट का चिन्ह कल्पवृक्ष है। . " ब्रह्म न्द्र'' है जिसका निवास स्थान दक्षिण |
५. इस स्वर्ग के इन्द्र का 'अमरावती' भाग में ब्रह्म स्वर्ग में है। सातवें अठवें नामक नगर २० सहस्र योजन लम्बा और इअर्थात् लोन्तव और कापिष्ट, इन दो स्वर्गो तना ही चौड़ा समचतुरस्र चौकोर है जिस के का भी एक ही इन्द्र 'कापिष्ठेन्द्र' है, जिसका प्राकार ( कोट या चार दीवारी ) की ऊचाई। निवास स्थान उत्तर दिशा की ओर 'कापिष्ट' | ८० योजन की, गाध (नीव) और चौड़ाई। स्वर्ग में है। नवें दसवें अर्थात् शुक्र और (आसार ) प्रत्येक अढ़ाई ( २०) योजन है ॥ महाशुक्र, इन दो स्वर्गों में भी एक नगर के प्राकार में जो गोपुर अर्थात् द्वार ही इन्द्र 'शुक्रन्द्र' है जिसका निवास स्थान या दरवाजे हैं उन की संख्या १०० है जिन में दक्षिण भाग में शुक्र स्वर्ग में है। से प्रत्येक की ऊँचाई १०० योजन (दीवार इसी प्रकार ग्यारह बारहे अर्थात् शतार और | की ऊँचाई से २० योजन अधिक) और। सहस्त्रार. इन दो स्वर्गों का इन्द्र भी एक ही चौड़ाई ३० योजन की है॥ 'सहस्रारेन्द्र' है जिस का निवास स्थान उत्तर ६. सर्व ही स्वर्गों के देवों के जो इन्द्र, भागमें 'सहस्रार स्वर्ग'में है। इस प्रकार ५वे । प्रतीन्द्र, दिगिन्द्र या लोकपाल, त्रायस्त्रिंशत्, से बारह तक के ८ स्वर्गों के जो ४ युगल हैं | सामानिक, अङ्गरक्षक, पारिषत्, अनीक, प्र-- उनके शासक ४ इन्द्र हैं और शेष ८ स्वर्गों के | कीर्णक, आभियोग्य, कित्विषिक, यह १२
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अच्युत वृहत् जैन शब्दार्णव
अच्युत भेद हैं इन में से इस सोल्हवे स्वर्ग में १ इन्द्र, | चारों ओर उस से १३ लात्र योजन के अन्तर १ प्रतीन्द्र, ४ लोकपाल (सोम, यम, वरुण, पर दूसरा कोट, दूसरे से ६३ लात्र योजन! कुवेर ), ३३ प्रायस्त्रिंशत्. २० सहस्त्र सामा- के अन्तर पर तीसरा कोट, तीसरे से ६४ निक, ८० सहस्र अङ्गरक्षक, २५० समित् ना- लाख योजन के अन्तर पर छौधा कोट मक अभ्यन्तर परिषद के पारिषत्, ५०० च- | और चौथे से ८४ लाख योजन के अन्तर पर न्द्रा नामक मध्य परिषद के पारिषत्. १००० पांववाँ कोट है। प्रथम अन्तराल में अङ्गरक्षक जतु नामक वाह्य परिषद के पारिषत् सात देव और सेनानायक बसते हैं। दूसरे अन्तप्रकार की अनीक (सेना) में से प्रत्येक के राल में तीनों प्रकार के परिषदों के पारिषत् प्रथम कक्ष में २० सहस्र और द्वितीय आदि देव और तीसरे अन्तराल में सामानिक देव सप्तम् कक्ष पर्यन्त प्रत्येक प्रकार की अनीक बसते हैं। चौथे अन्तराल में वृषभादि पर में आगे आगे को अपने अपने पूर्व के कक्ष | चढ़ने वाले आरोहक देव तथा आभियोग्य से दुगुण दुगुण संख्या; शेष प्रकीर्णक आदि ३ और कित्विषिक आदि देव यथायोग्य आकी संख्या असंख्यात है।
वासों में बसते हैं । त्रि. गा० २२३-२२६, २२६, ? पांचवें कोट से ५० सहस्र योजन 1४६४, ४९५, ४६८
अन्तराल छोड़ कर पूर्वाद दिशाओं में क्रम ७. सात प्रकार की सेना (१) वृषभ से अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्रबन(२) अश्व (३) रथ (४) गज (५) पदाति ( प- खंड प्रत्येक १००० योजन लम्बे और ५०० यादे) (६) गन्धर्व और (७) नर्तकी है जिन में योजन चौड़े हैं। प्रत्येक बन में एक एक चैसे प्रत्येक के सात सात कक्ष (भाग या समूह) त्यवृक्ष जम्बद्वीप के जम्बूवृक्ष समान विस्तार एक से दूसरा, दूसरे से तीसरा, इत्यादि वाला है । दुगुण दुगुण संख्या युक्त हैं । यह वृषभादि इन बनखंडों से बहु योजन अन्तराल ! पशु जाति के नहीं हैं किन्तु इन इन जाति के देकर पूर्वादि दिशाओं में क्रम से सोम, यम, देवगण ही अपनी वैक्रियिक ऋद्धि की शक्ति | वरुण और कुधेर, इन लोकपालों के निवास से वृषभादि रूप आवश्यकता होने पर बन स्थान है। आग्नेय आदि चार विदिशाओं में जाते हैं।
क्रम से कामा, कामिनी, पद्मगन्धा और अइन वृषभादि सात प्रकार की सेना लम्बूषा नामक गणिका महत्तरी देवाङ्गनाओं के नायक (सेनापति ) क्रम से (१) महादा- के निवास स्थान है ॥ मयष्टि (२) अमितिगति (३) रथमन्थन (४)
(त्रि. ४६६, ५०६) पुष्पदन्त (५) सलघुपराक्रम (६) गीतरति, ६. इस स्वर्ग के 'इन्द्रादिक देवों के यह छह महत्तर (अध्यक्ष) और महासेना महलों की ऊँचाई, लम्बाई और चौड़ाई कम नामक एक महत्तरी (अध्यक्षिणी ) हैं॥ से २५०, ५०, २५ योजन और देवांगनाओं
... (त्रि. ४६४, ४६७) के महलों की ऊँचाई आदि २००, ४०, २०
८. 'अमरावती' नामक राजधानी के योजन है॥ गिर्द जो उपयुक्त प्राकार (कोट ) है उसके ।
(त्रि० ५०७, ५०८)
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अच्युत
( १५७ )
बृहत् जैन शब्दार्णव
१०. इस स्वर्ग के इन्द्र की अग्र-देवियां आउ हैं जिनमें से प्रत्येक की परिवार देवियां अप्रदेवी सहित २५०, २५० हैं जिन में से इन्द्र की त्रुभिका देवियां ६३ हैं ॥
आठ अदेवियों के नाम - (१) श्रीमती (२) रामा (३) सुसीमा (४) प्रभावती (५) जयसेना (६) सुषेणा (७) वसुमित्रा (८) वसुन्धरा । (देवो शब्द 'अग्रदेवी' ) ॥ (त्रि० ५०६, ५११, ५१३ ) ॥ ११. इस स्वर्ग के इन्द्र की प्रत्येक अप्रदेवी अपनी वैक्रियिक शक्ति से मूल शरीर सहित अपने १०२४००० ( दशलाख २४ हज़ार ) शरीर बना सकती 11. (Foto 482) 11 १२. अमरावती नामक इन्द्रपुरी इन्द्र के रहने के महल से ईशान कोण की ओर को 'सुधर्मा' नामक आस्थान- मंडप अर्थात् 'सभास्थान' १०० योजन लम्बा, ५० योजन चौड़ा और ७५ योजन ऊँचा है ॥
(FSTO 484) 11 १३. सर्व देवांगनाएँ केवल प्रथम और द्वितीय स्वर्गौ ही में जन्म लेती हैं । अतः इस १६वें स्वर्ग की अग्र-देवी आदि देवियां भी यहां नहीं जन्मीं किन्तु यह दूसरे स्वर्ग 'ईशान' में जन्म लेती हैं जहां ४ लाख विमाम तो केवल देवियों ही के जन्म धारण करने के लिये हैं। शेष २४ लाख विमानों में देव और देवियां दोनों ही उत्पन्न होते हैं ॥
(त्रि० ५२४,५२५ ) ॥ १४. इस स्वर्ग के इग्द्रादिक देव और देवियों में काम- सेवन न तो परस्पर रमण क्रिया द्वारा है न शरीर स्पर्शन द्वारा है, न रूप देख कर है और न रसीले शब्द श्रवण | कर ही है किन्तु राग की मन्दता और इन्द्रिय
अच्युत
भोगों की ओर बहुत अल्प रुचि होने से के वल मन की प्रसन्नता या मानसिक कल्पना ही से मन की तृप्ति हो जाती है।
(त्रि० ५२६ ) ॥ १५. इस स्वर्ग के इन्द्रादिक देवों की "अवधिज्ञान" शक्ति तथा गमनागमन की 'वैक्रियिक' शक्ति नीचे को तो अरिष्टा' नामक पाँचवें नरक की 'धूम-प्रमा' नामक पञ्चम पृथ्वी तक और ऊपर को निज स्वर्ग के ध्वजा दण्ड तक की है
(FOTO 420) 11
१६. इस स्वर्ग में उत्कृष्ट 'जन्मान्तर' तथा 'मरणान्तर' काल ४ मास है और उत्कृष्ट 'विरहकाल' इन्द्र, इन्द्र की अग्रदेवी (इन्द्राणी) और लोकपाल का तो ६ मास, और प्रायस्त्रिंशत, अङ्गरक्षक, सामानिक और पारिषत् भेद वाले देवों का ४ मास है ॥
(त्रि० ५२९, ५३० ) ॥
१७. इस स्वर्ग में इन्द्रादिक देवों के श्वासोच्छ्वास का अन्तराल काल अघन्य २० पक्ष और उत्कृष्ट २२ पक्ष है और आहार ग्रहण करने का अन्तराल काल जघन्य २० सहस्र वर्ष और उत्कृष्ट २२ सहस्र वर्ष है इन का आहार 'निजकंठामृत' है । ( आयु जघन्य २० सागरोपम काल और उत्कृष्ट २२ सागरोपम काल है ) ॥
( त्रि० ५४४ ) ॥
१८. इस स्वर्ग में प्रथम के ४ संहनन वाले केवल कर्मभूमि के कोई कोई सम्यग्दृष्टी मनुष्य या तिर्यञ्च ही आकर जन्म लेते हैं । काँजी आदि सूक्ष्म और अप ओडार लेते वाले अति मन्द कषाय युक्त सगोषी मनुष्य जो 'आजीवक' नाम से प्रसिद्ध हैं उनमें से भी कोई कोई इस स्बर्ग तक पहुँच सकते हैं ॥
( त्रि० ५४५ ) ॥
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अज
( १५८ ) अच्युतकल्प
वृहत् जैन शब्दार्णव १६. इस स्वर्ग से आयु पूरी करके यहां त्रिपर्वा, दश पविका, शत पत्रिका, सहस्र के इन्द्रादिक देव कर्म भूमि के ६३ शलाका पु- | पर्विका, लक्ष पर्घिका, उत्पातिनी, त्रिपारुषों में या साधारण मनुष्यों में ही यथा योग्य तिनी, धारिणी, अन्तर्विचारिणी, जंलगता, जन्म धारण करते हैं ।
अग्निगति, सर्वार्थसिद्धा, सिद्धार्था, जयंती, - २०. देवगति में आकर उत्पन्न होने मङ्गला, जया, प्रहारिणी, अशय्याराधिनी, वाले सर्व ही जीव 'भवप्रत्यय अवधिशान' विशल्पाकारिणो, संजीवनी, व्रणरोहिणी, सहित उत्पाद शैय्या से एक अन्तरमुहूर्त में शक्तिविषमोचनी, सवर्णकारिणी, मत संषट पर्याप्ति पूर्ण सुगन्धित शरीर युक्त जन्म जीवनी, इत्यादि ॥ धारण कर लेते हैं ।
(हरि० पु० सर्ग २२ श्लोक ५६-७३ )॥ नोट -देखो श द 'कल्प' ॥
नोट २-रोहिणी, प्रशप्ति, वजूशृङ्खअच्युत-कल्प पीछे देवो शब्द 'अच्युत'
ला, वजांक्षा, जाम्बुनन्दा, पुरुषदत्ता, काली,
महाकालो, गौरी, गान्धारी, ज्वालामालिनी, अच्युत-स्वर्ग नोटों सहित ॥
मानवि शिखंडिनी, बैरोटी, अच्युता',मानसी, अच्युता-(१) अनेकदिव्य विद्याओं में से महानानली, यह १६ भी विद्या देवियां हैं एक विद्या का नाम ॥
जिनमें से अच्युता चौदह्रीं विद्या का नाम नोट -अष्ट गन्धर्व विद्या-मनु, मा- है ॥ नव, कौशिक, गौरिक, गान्धार. भूमितुण्ड,
(प्रतिष्ठासारोद्धार )॥ मूलवीर्यक, शंकुक। इन अष्ट विद्याओं का (२) छठे और १७वें तीर्थङ्कर श्री प. नाम आर्य, आदित्य, व्योमचर आदि भी है ॥ मप्रभु और श्री कुन्थनाथ की शासन देवी
भष्ट दैत्य विद्या-मातङ्ग, पाँडुक, (अ० मा० अच्चु पा)। आगे देखो शब्द काल, स्वपाक, पर्वत, वंशालय, पांशुमूल,
'अजिता ॥ वृक्षमूल । इन अष्ट विद्याओं को पन्नग- अच्युतावतंसक-अच्युत स्वर्ग के उस विद्या और मातङ्ग विद्या भी कहते है ॥ श्रेणीबद्ध विमान का नाम जिस के मध्य
यह १६ दिग्य विद्याएँ अनेक अन्य | में अच्युतेन्द्र की 'अमरावती' नामक राजदिव्य विद्याओं की मूल हैं जिनमें से कुछ धानी (इन्द्रपुरी) बसती है। (देखो शब्द के नाम यह हैं-प्राप्ति, रोहिणी, अङ्गारि- 'अच्युत' नोटौ सहित ) ॥ णी, गौरी, महागौरी, सर्व विद्या प्रकर्पिणी,
अच्यतेन्द्र-'अच्युत' नामक १६वें स्वग श्वेता, महाश्वेता, मायरी, हारी, निर्वशाद्वला, तिरस्कारिणी, छाया, संक्रामि- |
का इन्द्र । देखो शब्द "अच्युत" नोटों णी, कूष्मांडगणमाता, सर्च विद्याविराजि
सहित ॥ ता, आर्यकूष्मांडो, अच्युता, आर्यवती, अज-(१) जन्मरहित, अंकुर उत्पन्न करने | गान्धारी, निवृति, दंडाध्यक्षगणा, दंडभूत- की शक्तिरहित, त्रिवार्षिक यव या तुषसहस्रक, भद्रा, भद्रकाली, महाकाली, रहित शालि, बकरा, मेढ़ा। (आगे देखो काली, कालमुखी, एकपर्वा, द्विपर्वा, शब्द 'अजैर्यष्टध्यं' )॥
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अजय
( १५६ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
(२) २८ नक्षत्रों में से पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र के अधिदेवता का नाम । ( देषो शब्द 'अट्ठाईस नक्षत्राधिप' ) ॥
(३) अष्टम बलभद्र श्री रामचन्द्र के पितामह जो 'अनरण्य' नाम से भी प्रसिद्ध थे और जिनके पिता का नाम 'रघु' था ॥
प्रतापी महाराजा ' रघु' के गृहत्यागी हो जाने पर इन्हीं के वंशज 'सगर' ने ' रघु' के पुत्र युवराज 'अनरण्य' को अ योध्या की गद्दी से वंचित रख कर बलात् वहां अपना अधिकार जमा लिया और 'अरण्य' को वाराणसी की गद्दी पर सुशोभित किया । पश्चात् सगर की मृत्यु पर अवसर पाकर अनरण्य के पुत्र वाराणसी नरेश दशरथ ने अयोध्या को फिर अपनी राजधानी बना लिया । दशरथ के दो पुत्र राम और लक्ष्मण का जन्म वाराणसी में और दो पुत्रों 'भरत' और 'शत्रुघ्न' का जन्म अयोध्या में हुआ । राम के प्रपितामह महाराजा ' रघु' के नाम पर ही 'अयोध्या' की गद्दी की सूर्य. वंशो शाखा 'रघुवंश' के नाम से प्रसिद्ध हुई ॥
अजय- (१) नगदेश का एक सुप्रसिद्ध जैन राजा जो महा मंडलेश्वर राजा 'श्र े कि बिसार के पुत्र 'कोणिक अजातशत्रु' का पौत्र था। आगे देखो शब्द 'अजातशत्रु'"
नोट १- इस का चरित्र व राज्यकाल आदि जानने के लिये देवो ग्रन्थ 'वृहत् विश्वचरितार्णव' ॥
( २ ) श्री ऋषभदेव के चार क्षेत्रपाल यक्षों में से पहिले यक्ष का नाम ॥
नोट २ - अन्य तीन क्षेत्रपालों के नाम विजय, अपराजित और मानभद्र हैं ॥
अजयपाल
(३) यत्नाचार रहित, गृहस्थ के समान साधु, अविरत सभ्यग्दृष्टी चतुर्थ गुणस्थानी | ( अ० मा० ) ॥ अजयपाल - चालुक्यवंशी सुप्रसिद्ध महाराजा 'कुमारपाल' का पुत्र ॥
अजयपाल अपने पिता के ३० वर्ष ६ मास २७ दिन का राज भोगकर लगभग ८१ वर्ष की वय में वि० सं० १२३० में परलोक सिधारने के पश्चात् अणहिलपाटण ( अनहिल नाड़ा- गुजरात ) की गद्दी पर बैठा । कुमारपाल ने इसे राज्यासन पाने के लिये अयोग्य देख कर अपने परम पूज्य गुरु 'श्री हेमचन्द्राचार्य' की सम्मति से अपने बहनेज 'प्रतापमल्ल' को राज्य सिंहासन देने का निश्चय किया था । पर इस दुराचारी 'अजयपाल' ने इस विचार का पता लग जाने पर 'श्री हेमचन्द्र' के स्वर्गारोहण से लगभग छह मास पीछे अवसर पाकर अपने पूज्य धर्मज्ञ, परोपकारी, परमदयालु पिता को राज पाने की लोलुपतावश विष दिला कर मृत्यु के गाल में पहुँचा दिया ।
'मोहपराजय' नामक एक नाटक ग्रन्थ इसी अजयपाल' के मंत्री 'यशःपाल' कृत है जो 'कुमारपाल' की मृत्यु के पश्चात् वि० सं० १२३२ के लगभग लिखा गया था । इस में 'श्री हेमचन्द्र' और उन के अनन्य भक्त 'कुमारपाल' का ऐतिहासिक चरित्र नाटक के रूप में सविस्तार वर्णित है ॥
नोट १. - गुजरातदेश के चौलुक्यवंशी राज्य का प्रारम्भ लगभग वि० सं० ९९७ से हुआ जिस के संस्थापक सोलङ्की
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अजयपाल
वृहत् जैन शब्दार्णव
अजयपाल
'मूलराज' ने चावड़ावंशियों से गुजरात | पहिली यात्रा में प्रभु की पूजा में चढ़ाये, २१ छीन कर अणहिल्लपाटन को अपनी राजधानी महान ज्ञानभंडार स्थापित किये। बनाया। यहां इस वंश का राज्य वि० सं० (३) ७२ लाख रुपयावार्षिक का राज्य- | १२६२ तक लगभग ३०० वर्ष रहा । पश्चात् कर श्रापकों का छोड़ा और शेष प्रजा के लिये यहां बघेलों ने अपना राज्य जमा कर वि. | भी कर बहुत हलका करदिया। सं० १३५३ तक शासन किया। वि० सं० (४) धन हीन व्यक्तियों की सहायतार्थ १३५३ या १३५४ में यह राज्य दिल्ली के बाद एक करोड़ रुपया प्रति वर्ष दिया।। शाह अलाउद्दीन खिलजी के अधिकार में (५) पुत्रहीन विधवाओं का धन जो चला गया।
पुराने राज्य नियमानुसार राजभंडार में जमा नोट २.-इन चालुक्यवंशियों में कई किया जाता था और जिसकी संख्या लगभग राजा जैनधर्मी हुए जिन में 'कुमारपाल' सब | ७२ लाख रु० वार्षिक थी उसे बड़ी निर्दयता से अधिक प्रसिद्ध है। इस का जन्म वि० सं० और अनीति का कार्य जान कर लैना छोड़ ११४२ में और राज्य अभिषेक वि० सं० | दिया। ११६६ में ५० वर्ष की वय में हुआ । इस ने (६) जुआ, चोरी, मांस भक्षण, मद्य'श्री हेम बन्द्र' के तात्विक सत्-उपदेशों पर पान, धेश्या सेवन,पर स्त्री रमण, और शिकार मुग्ध होकर और वैदिक धर्म को त्याग कर खेलना, यह सप्त दुर्व्यसन अपने राज्य भर में अपनी युवा अवस्था ही में जैनधर्म को ग्रहण से लगभग सर्वथा दूर कर दिये। कर लिया । पश्चात् वि० सं० १२१६ के मा- |
| (७) अहिंसा धर्म का प्रचार न केवल र्गशिर मास की शुक्लपक्ष की दोयज को | अपने ही अधिकार घर्ती देश में किया किन्तु श्रावकधर्म के द्वादशवत भी ग्रहण कर लिये॥ भारतवर्ष के कई अन्य भागों में भी यहां के
इस भाग्यशाली धर्मज्ञ दयाप्रेमी अधिपतियों को किसी न किसी प्रकार अपना राजा के सम्बन्ध में निम्न लिखित बातें ज्ञा- मित्र बनाकर बड़ी बुद्धिमानी से किया और तन्य हैं:
इस तरह भारत वर्ष के १८ छोटे बड़े देशों में (१) साढ़े तीन करोड़ श्लोक प्रमाण म- | जीव दया का बड़ी उत्तमर्राति से पालन होने होन जैन ग्रन्थों के रचयिता 'कलिकालसर्पज्ञ' लगा और धर्म के नाम पर अनेक देवताओं उपाधि प्राप्त "श्री हेमचन्द्र सूरि" इसके पूज्य के सन्मुख जो लाखों निर अपराध मूक पशुओं धर्म गुरु थे।
का प्रतिवर्ष बलिदान होता था वह सब दूर (२) इसने अपने राज्यकाल में १४०० | होगया। प्रासाद (जिनालय ) बनवाये.१६००० मन्दिरों (E) शान्तिमय अहिंसात्मक धर्म फैलाका जीर्णोद्धार किया, १४४४ नये ने के प्रबन्ध में जिन जिन व्यक्तियों को किसी जिन मन्दिरों पर स्वर्ण कलश चढ़ाये, ६८ प्रकार की आर्थिक हानि पहुँची उन सब को | लाख रुपया अन्यान्य शुभ दान कार्यों में व्यय | यथा आवश्यक धन दे देकर प्रसन्न कर दिया किया, सात बार संघाधिपति होकर तीर्थ | था। यात्रा की जिनमें से ९ लाख रुपये के नव रल (E) गरीबों का कष्ट दूर करने को इसने
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अजयपाल
( १६१ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
एक विशाल दानशाला अपने नगर में खोली जिस की देख रेख का प्रबन्ध सेठ नेमिनाग' के सुपुत्र 'अभयकुमार श्रीमाली' को सौंपा
गया ।
(१०) स्वदारासन्तोष व्रत बड़ी दृढ़ता से पालन करने के कारण 'परनारी सहीदर', शरणागतपालक होने से 'शरणागतवजूपंजर', जीव दया का सर्वत्र प्रसार करने से 'जीवदाता', विचारशील होने से 'विचार चतुर्मुख', दीनों का उद्धार करने से 'दीनोद्धारक', और राज्यशासन करते हुए भी त्रिकाल देवपूजा, गुरुसेवा, शास्त्रश्रवण, इन्द्रियसंयम, धर्मप्रभावना आदि श्रावकोचित आवश्यक कार्यों में सदैव दत्तचित्त रहने से "राजर्षि" इत्यादि इसके कई यथा गुण तथा नाम प्रसिद्ध हो गए थे । इत्यादि ॥
सारांश यह कि इस के राज्य में सर्वत्र शांति का साम्राज्य था । प्रजा को सर्व प्रकार का सुख चैन और प्रसन्नता प्राप्त थी । मानो कलिदुष्ट को जीतकर सत्युग की जागृति ही कर दी थी ॥
नोट ३-जगडूशाह ( जगदृश ) नामक एक धनकुबेर जैनधर्मी वैश्य जो सदैव अपने अटूट धन का बहुभाग गुप्तदान में लगाता रहता था इसी 'कुमारपाल' के राज्य में कच्छ देश के 'महुवा' या 'भद्रेश्वर' नामक ग्राम; में रहता था। अपने धर्मगुरु 'श्री हेमचन्द्र जी सूरि', 'वाग्भट्ट' आदि सामन्त और मन्त्री, राज्यमान्य नगरसेठ का पुत्र 'आभट', षटभाषा चक्रवर्ती 'श्री देवपाल कवि', दानेश्वरों में अप्रगण्य "सिद्धपाल”, राज भंडारी "कपर्दि", पाटनपुरनरेश प्रह्लाद, ६६ लाख की पूंजी का धनी 'छाड़ाशेठ,' भाणेज 'प्रताप मलु', १८०० अन्य शेठ साहूकार, बहुत
अजयपाल
सेवतीया अवती श्रावक और अगणित अन्यान्य जैन और अजैन, ११ लाख अश्व, ११ सहस्र हाथी, १८ लाख सर्व पयादे, इत्यादि ठाठ बाट के साथ इतने बड़े संघ का अधिपति बनकर जब कुमारपाल ने श्री शत्रुंजय आदि तीर्थस्थानों की यात्रार्थ प्रयाण किया तो शत्रुंजय, गिरिनार और देवपत्तन ( प्रभासपाटन), इन तीनों तीर्थों पर पूजा के समय इन्द्रमाल ( जयमाला ) की बोली सब से बढ़कर “जगडूशाह" ही की सवा सवा करोड़ रुपये की होकर इसी के नाम खतम हुई । ( कुमारपाल चरित ) ॥ 'कुमारपाल' की मृत्यु से लगभग ४० वर्ष पीछे जबकि गुजरात में अणहिल्ल पाटण की गद्दी पर इसी वंशका राजा बीसलदेव या विशालदेव राज्य कर रहा था, उत्तर तथा मध्य भारत में गोन्धार देश तक ५ वर्ष के लिये भारी दुषकाल पड़ा उस समय इसी "जगडूशाह" ने अपने अटूट धन से सर्व अकाल पीड़ितों की परम प्रशंसनीय और अद्वितीय सहायता की थी जिस का उल्लेख प्रांडिफ साहिब ने अपनी " मरहट्टा कथा" में किया है । तथा डाक्टर बूलर ने इस धनकुबेर की पूरी कथा को संस्कृत कथा के गुजराती अनुवाद से लेकर स्वयम् प्रकाशित कराया है। इसी का सारांश निम्न प्रकार है:--
सन् १२१३ ई० (वि. सं. १२७० ) में भारत वर्ष में भारी अकाल पड़ा । यह गुजरात, काठियावार, कछं, सिन्धु, मध्य देश और उत्तरीय पूर्वीय भारत में दूर तक फैला जो लगातार ५ वर्ष तक रहा । इस अकाल पीडित प्रान्तों के सर्ब ही राजे महाराजे उसे रोकने में कटिबद्ध थे तो भी लगातार पाँच
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अजयपाल वृहत् जैन शब्दार्णव
अजयपाल वर्ष तक पड़ते रहने से सब के हक छूट | वह भूत्रों और अधिक दुखियों को एक एक गये । जबतक अनाज रहा बराबर बाँटते रहे, स्वर्ण मुहर भी देने लगा। रात्रि को वेश बदल परन्तु ५ वर्ष तक सूखा पड़ने से अनाज कहां कर उन भले मनुप्यों के घर भी जाता था। तक रह सकता था।
जो चुपचाप अपने अपने घरों में भूखे मरते। - उस समय यपि बहुत से धनाढ्यौं। थे परन्तु मानार्थ माँगना अनुचित जानते थे। और उदार हृदय शक्तिशाली महानुभावों | जादूश ने ऐसे लोगों की भी यथा आवश्यक ने यथाशक्ति अपनी अपनी उदारता का परि- पूरी सहायता की। चय दिया तथापि कच्छदेश के भद्रेश्वर ग्राम Korev इस अकाल के तृतीय वर्ष सन् १२१५ निवासी एक 'जैन हिन्दी ने अपनी उदारता में सब राजा महाराजा भी घबरा गए । उनके
और दानशीलता अन्त को ही पहुँचा दी । इस अनाज के भण्डार रीते हो गये । इधर उधर जैन महानुभाव का नाम जगदूश (जगडूशाह) से अनाज मँगाने के कारण कोष भी धन । था। यह एक व्यापारी जैन' था । व्यापार | शून्य होने लगे, तब गुजरात के राजा विशामें उसने करोड़ों रुपया कमाया । पारस | लदेव ने 'जगदृश' के पास अपना एक ए-1 (फारस ) और अरब देशों तक उसका व्या- लची भेजा और उसले अनाज देने की प्रार्थना पार का कार्य फैला हुआ था । जैसा वह ध- की । 'जगदूश' ने एलची से कहा कि “यह नाढ्य था वैसा ही दानी और उदारहृदय ७०० बड़ी बड़ी खत्तियां तो सब दुखी द. भी था । अकाल दुःकाल के लिये वह लखूवा रिद्री और कंगालों में बट चीं। अब मैं मन अनाज जमा रखता था । इस अकाल के क्या करूं' ? पर नहीं, इतना कह कर भी प्रारम्भ से दुछ पहिले जब कि उसे किसी| उसने गुजरात के राजा को निराश नहीं। जैनमुनि की भविष्यवाणी द्वारा यह ज्ञात हो किया । अगणित धन व्यय करके जहां कहीं से गया कि असह्य अकाल पड़ने वाला है तो और जिस प्रकार बना उसने अनाज दूर देशों। उतो पृथ्वी में ७०० बहुत बड़ी बड़ी ई से मँगाया । और न वै वल गुजरात के राजा।
यत्तियां खुदवा कर अनाज से भरवादीं। वो किन्तु अन्य अछुत से राजा महाराजाओं । इन सब पर उसने एक एक ताम्रपत्र लगवा को भी उसने नीचे लिखे अनुसार अनाज
कर उन पर लिखवा दिया कि "यह सर्व दिया:। अनाज केवल अकाल पीड़ित दुधी दरिद्रियों १. गुजरात के राजा को ८ लाल मन ।
२. सिन्धुदेश के राजा को १८लाख ९० ह. सन् १२१३ ई० में अकाल पड़ना जार मन । रम्भ हुआ। 'जगदूश' अनाज पांटने लगा। ३. मालवे के राजा को १८ लाख मन । ! केवल अनाज ही नहीं किन्तु उसने लड्डू भी ४. दिल्ली के बादशाह को २१ लाख मन । बांटे । भूत्रे लोग सहर्ष लड्डु खा खाकर उस । ५.धन्दहार के अधिपति को ३२ लाख ममः। दुष्काल का कुसमय बिताने लगे। जगदूश इत्यादि इत्यादि अन्य बहुत से नरेशों। ने केवल अनाज और लड्डू ही नहीं बांटे,किंतु | को भी 'जगदूश' ने अनाज दिया । और इस
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REHENP
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अजरषद वृहत् जैन शप्दार्णवः
अजाखुरी प्रकार सर्व अनोज जो उसने बांटा उस की पूर्वक प्रातःकाल में चारों घातिया कर्मी तौल लगभग ६ करोड ६६ लाख मन थी. का नाश कर कैवल्यज्ञान की प्राप्ति की।
और साथ ही इसके स्वर्ण मुहरे जो उसने तत्पश्चात् ६६६ वर्ष = मास ४ दिन देश बांटी उन की संख्या लगभग साढ़े चार क- देशान्तरों में विहार करते हुए अनेकानेक रोड़ थी।
भग्य प्राणियों को धर्मामृत पिला कर बगवासी, कलकत्ता त ० १६. ११. । इसी गिरिनार पहाड़ी पर आकर और । १८६६ ई०, पृ०२ कालम ६.
३२ दिन शुक्ल ध्यान में बिता कर आषाढ़ अजरपद-जरा (वृद्धावस्था) वर्जितपद,
शुक्ला ७ को अष्टमी तिथि में रात्रि के प्रथम
पहर के अन्तर्गत चित्रा नक्षत्र का उदय अमरपद, देवपद, मुक्तिपद. अर्थात् वह
होने पर इसी पहाड़ी पर से पर्यत आसन | परमपद जिले पाकर अनन्तकाल तक
लगाये ६६8 वर्ष ११ मास. २ दिन की फिर कभी वृद्धावस्था (बुढ़ाप.) का
घय में परम पवित्र निर्वाणपद प्राप्त किया। मुख न देखना पड़े । (देखो शब्द 'अक्षय
इसी पर्वत पर जूनागढ़ाधीश महाराजा पद' और 'अक्षयपदाधिकारी' ) ॥
'उग्रसेन' की सुपुत्री 'राजुलमती' ने भी भनाखुग-(१) सुराष्ट्र (गुजरात) देश जिसके साथ श्री नेमनाथ के विवाह सके एक प्रसिद्ध राजा राष्ट्रवर्द्धन' की राज म्बन्ध के लिये वाग्दान हो चुका था आधानी जिसका दूसरा नाम गिरिनगर तथा र्यिका के व्रत धारण कर तपश्चरण किया 'गिरिनार' भी था जिसके नाम पर वहां और स्त्रीलिङ्ग छेद समाधिमरण पूर्वक की पहाड़ी भी 'गिरिनार' के नाम ही से शरीर छोड़ सुरपद पाया । ( हरि. सर्ग प्रसिद्ध थी और आज तक भी इसी नाम ६०, श्लोक ३४०, नेमि पु० अ०९)॥ .. से प्रसिद्ध है। इसी पहाड़ी का नाम इसी गिरिनार पर्वत पर से वर्तमान | 'ऊर्जयन्तगिरि' भी है। यह पहाड़ी जैनियों अवसर्पिणीकाल के चतुर्थ विभाग में श्री का तो एक बहु प्रसिद्ध तीर्थ है ही,पर यह नेमिनाथ, शंबुकुमार, प्रद्युम्नकुमार, और हिन्दुओं का भी एक तीर्थ है।
अनिरुद्धकुमार आदि बहत्तर करोड़ सात २२वें तीर्थकर श्री नेमिनाथ' ने पूरे सौ (७२००००७००) मुनियों ने उग्रोन तप३०० वर्ष की वय में अपनी जन्मतिथि और श्वरण द्वारा अष्ट कर्म नाश कर सिद्धपद जन्म नक्षत्र के दिन श्रावण शु०६ को चित्रा (मोक्षपद) प्राप्त किया, अतः यह परम नक्षत्र में सायंकाल के समय इसी 'गिरि- पचित्र क्षेत्र सिद्ध क्षेत्र' कहलाता है। नार' पर्वत या 'ऊर्जयन्तगिरि' पर 'सह- नोट १:-श्री नेमनाथ का निर्वाण त्रास यन' में षष्ठोपवासः (बेला, द्वला) श्री महावीर स्वामी के निर्वाण से ८३९९६ व्रत धारण कर दिगम्बरी दीक्षा धारण की वर्ष ३ मास और २२ दिन पूर्व हुआ। थी और यहां ही पूरे ५६ अहोरात्रि उप्रोन नोट २.-जूनागढ़ काठियावाड़ (गु. तपश्चरण कर आश्विन शु. १ को चित्रा | मरात.) में एक देशी रियासत की राजधानी नक्षत्र ( जन्म नक्षत्र ) में षष्ठोपवास | और रेलवे स्टेशन है जो गिरनार पर्वत की।
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.। १६४ ) अजाखुरी वृहत् जैन शब्दार्णव
अजाखुरी तलहटी से उत्तर दिशा को लगभग ४ मील की चढ़ाई उतराई सहित १६ मील के लगभग चदूरी पर है । जूनागढ़ स्टेशन से दक्षिण दिशा | लना पड़ता है। को 'घेरावल' स्टेशन केवल ५२ मील के लग । नोट ५.-नीचे से ढाई मीलकी चढ़ाई। भग है जो समुद्र के किनारे पर है और जहां के पश्चात् सोरठमहल' आता है। यहाँ आज से हिन्दुओं का प्रसिद्ध 'सोमनाथ-मन्दिर' का कल दो दुकानें, एक स्वेताम्बर धर्मशाला स्टेशन केवल ढ़ाई तीन मील ही की दूरी पर | और २७ स्वेताम्बर जैन मन्दिर हैं जिन में समुद्र तट पर ही है। यहां से 'पोर बन्दर' ७ मन्दिर अधिक मनोज और बढ़िया हैं। होते हुए द्वारकापुरी जाने के लिये जहाज़ द्वारा यहां से कुछ दूर आगे एक कोट में दो दिगसमुद्री मार्ग लगभग १२५ ( सवा सौ) मील म्बर जैन मन्दिर बड़े रमणीय और विशाल उत्तर-पश्चिमीय कोण को है। द्वारका जाने के हैं जिन में बड़ी मनोज्ञ और विशाल प्रतिलिये जूनागढ़ स्टेशन से उत्तर दिशा को जैत- माऐं विराजमान हैं । पास ही में श्रीमती लसर या जैतपुर जङ्कशन होते हुए 'पोरबंदर' | 'राजुल कुमारी' की एक गुहा है जहां पर इस तक रेल द्वारा भी जा सकते हैं।
कुमारी ने तपश्चरण किया था। इस गुहा के नोट ३.-आज कल यद्यपि "द्वारका" अन्दर इस कुमारी की एक प्रतिमा और की दूरी "गिरिनार पर्वत" से लगभग १०० चरणपादुका है। मोल या ५० क्रोश है पर श्री नेमनाथ के । यहां से लगनग एक मील की ऊंचाई समय में 'द्वारिका' की बस्ती समुद्र के तट से | पर दूसरी और तीसरी टोंक हैं । रास्ते में | गिरनार पर्वत की तलहटी के निकट तक थी, | खेताम्बर मन्दिर, हिन्दुओं के मन्दिर मकान, ! क्योंकि उस समय के इतिहास से पाया जाता | उनके साधुओं की कुटी और ठाकुरद्वारा है कि द्वारकापुरी १२ योजन लम्बी और | आदि पड़ते हैं । इन दूसरी तीसरी टोको पर योजन चौड़ी आबाद थी। एक योजन ४ श्री नेमिनाथ,ने तप किया था। यहां पर क्रोश का और एक शास्त्रीय क्रोश ४००० गज़ उन की चरणपादुका बनी हैं । यहां ही एक या लगभग २। मील का है। अतः द्वारिका की 'गोरक्षााथ जी' की धनी भी है ॥ लम्बाई का परिमाण लगभग १०८ मील था । यहां से लगभग एक मील आगे पहुँन
नोट ४.-जूनागढ़ में दिगम्बर जैनों कर चौथी और पांववी टीमें हैं। चौथी टोक का आज कल एक भी घर नहीं है परन्तु गिर- श्री नेमिनाथ के कैवल्य ज्ञान प्राप्ति का, और मार की तलहटी में एक दिनम्बर और एक स्वे- पांचवी टोक निर्वाण पद प्राप्ति का स्थान ताम्बर धर्मशाला है। दो मन्दिर भी हैं । यहांसे हैं। प्रत्येक टोंक पर एक एक प्रतिमा और 'गिरनार' पर्वत पर चढ़ने के लिये एक द्वार में चरण पादुका बड़ी मनोज्ञ बनी हैं। होकर जाना पड़ता है जहाँ राजा की ओर से यहां से आगे लगभग दो मील नोचे को प्रति मनुष्य एक आना कर बंधा है। और जहां उतर कर बड़ा सुन्दर और रमणीय “सहस्रासे पाँचवीं टोंक ('सहस्रामवन') तक सीढ़ियाँ प्रवन" है जहां श्रीनेमिनाथ ने अन्तरङ्ग और बनी हुई हैं जिनकी सया ७ सहस्र से कुछ | वाह्य सर्व परिग्रह त्याग कर दिगम्बरी दीक्षा अधिक है । पहाड़ की सर्व बन्दना करने में धारण की थी। यहां दो देहरी, तीन चरण
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अजाखुरी वृहत् जैन शब्दार्णव
अजातशत्रु पादुका और एक शिला लेख है। मार्ग में | उत्पन्न हुई पुत्री ॥ हिन्दुओं के कुंडलील, गणेशधारा, गोमुबी . सुसीमा (सुशीला )--सुराष्ट्रदेश | आदि पड़ते हैं। यहां से आगे तलहटी की (गुजरात-काठियावाड़) की राजधानी गिरिधर्मशाला तक लौट आने का वही मार्ग है नगर ( अजाखुरी ) के राजा राष्ट्रवद्धन जहां होकर पहाड़ पर चढ़ते हैं ॥
गुणशालि वर्द्धन ) और उनकी रानी ___ नोट ६.- इस पहाड़ पर बन्दना के लिये | ज्येष्ठा (विजया) की पुत्री ॥ हिन्दू और मुसल्मान आदि सब ही यात्री ५.लक्ष्मणा--सिंहल द्वीप के सुप्रकारआते हैं। श्रीनेमिनाथ की मूर्ति को हिन्दू पुर नरेश राजा “शम्बर'' (इलक्षणरोम) और यात्री "दत्तात्रय" मान कर और उनकी विशाल उनकी रानी हीमती ( कुरुमती) की पुत्री ॥ चरण पादुकाओं को मुसलमान यात्री "बाबा ६. गान्धारी-गन्धार देश की राजआदम" के चरणों के चिन्ह मान कर पूजते धानी पुष्कलावती के राजा “इन्द्रगिरि" और हैं। यह पहाड़ जैन, हिन्दू और मुसल्मान सर्व उनकी रानी “मेरुमती" की पुत्री ॥ हीका तीर्थस्थान होने से ही सब ही के द्रव्य ७. गौरी-सिन्धु देश की राजधानी दान से इस पहाड़ पर चढ़ने की उपर्युक्त | "वीतशोकापुरी” के राजा मेरुचन्द्र" की सात सहस्र से अधिक सीढ़ियां बनवाई रानी चन्द्रवती की पुत्री। गई हैं।
८. पद्मावती-अरिष्टपुराधीश राजा __नोट ७.-गिरि नगर ( गिरिनार या अ- "स्वर्णनाभ" (हिरण्यनाभ, हरिवर्मा) और जाखुरी) के उपयुक्त राजा "राष्ट्रवर्धन" की उनकी रानी 'श्रीमती' (श्रीकान्ता) की पुत्री एक परम सुन्दरी पुत्री "सुसीमा" नामक श्री नोट ८-श्री कृष्ण की उपयुक्त कृष्ण की आठ पटरानियों में से एक थी॥ | प्रत्येक पटरानी का चरित्रादि जानने के लिये श्री कृष्ण की आठ पठरानियां यह थीं:- देखो ग्रन्थ "वृहत् विश्व चरितार्णव"॥
.. १. सत्यभामा-रजिताद्रि पर्वत (वि-भजातकल्प- अगीतार्थ का 'आचार जयार्द्ध या वैताढ्य पर्वत ) की दक्षिण श्रेणी (अ. मा. अजाय कप्प)॥ पर के रथनूपुरा(श विद्याधर राजा सुकेतु अजातशत्र-(१) जिसका कोई शत्रु की पुत्री जो उनकी रानी स्वयंप्रभा के उदर न जन्मा हो या जो जन्म ही से किसी का से उत्पन्न हुई थी॥
शत्रु न हो । २. रुक्मिणी-विदर्भ देश के प्रसिद्ध (२) मगधदेश का एक प्रसिद्ध राजा। नगर कुंडलपुर के राजा 'वासव" जो 'भीम' यह राज्य प्राप्त करने से पूर्व "वोनाम से प्रसिद्ध थे उनकी “श्रीमती'' नामक णिक” या 'कुणिक' नाम से प्रसिद्ध था। रानी के उदर से उत्पन्न हुई पुत्री ॥
यह 'शिशुनाग वंशी महामंडलेश्वर राजा ३. जाम्बवती-विजयार्द्ध पर्वत की | 'श्रेणिक बिम्बसार' का ज्येष्ठ पुत्र था उत्तर श्रेणी पर के जम्बुपुर ( जांबध ) नामक जो उसकी 'घेलना' रानी के गर्भ से जन्मा नगर के विद्यावर राजा "जाम्बव" की था। इस के सहोदर लघु भाता (१) रानी शिवचन्द्रा (जम्बुषेणा) के उदर से | वारिषेण (२) हल्ल (३) विदल (४) जित -
RDERA
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अजातशत्र वृहत् जैन शब्दार्णव
अजातशत्र शत्र (५) गजकुमार या दन्तिकुमार और लिये बन्दीगृह में गया । परन्तु महाराजा (६) मेघ कुमार थे । यह अपने छहों लघु | श्रेणिक ने दूर से ही इसे अपनी ओर भ्राताओं से अधिक भाग्यशाली और वीर शीघ्रता से आता हुआ देग्न कर और परन्तु अपनी पूर्व अवस्था में दयाशून्य यह समझ कर कि यह करचित्त इस
और अधर्मी था । अजातशत्रु से बड़ा समय मुझे अवश्य कोई अधिक कष्ट देने इसका एक और भाई भी था जो श्रेणिक के लिये आरहा है तुरन्त अपघात कर की दूसरी रानी 'नन्दश्री' के गर्भ से अपनी लिया जिस से कुणिक और उसकी माता ननिहाल में उत्पन्न हुआ था। इस का | चेलनाको अति शोक हुआ । पश्चात् नाम 'अभयकुमार' था जो बड़ा चतुर, | जैनधर्म की अटल श्रद्धालु महारानी पटुभुद्धि, दूरदर्शी और धर्मज्ञ था । 'घेलना' ने अपनी छोटी सहोदरा महाराजा ने इसी को युवराज पद दिया बहन 'चन्दना' के पास जा कर, जो बाल था और अपनी सेना का सेनापति भी ब्रह्मचारिणी परम तपस्वनी आर्यिका थी, नियत किया था, परन्तु जब 'अजातशत्रु आर्यिका (गृहत्यागी स्त्री) के व्रत नियकुणिक' के अनुचित वर्ताव से जितशत्रु मादि धारण कर लिये। के अतिरिक्त अन्य भ्राताओं के गृहत्यागी वीर निर्वाण से ८ वर्ष पूर्व और गौतम हो जाने पर महाराजा श्रेणिक ने कुणिक बुद्ध के शरीरोलर्ग से १० वर्ष पूर्व को राज्य पाने की अति लालसा में (सम्वत् विक्रमी से ४६६ वर्ष और सन् प्रसित देख कर और अपनी आयु का ईस्वी से ५५३ वर्ष पूर्व ) "अजातशत्रु''। शेष समय धर्मध्यान में बिताने के शुभ ने मगध देश का राज्य पाकर विदेह देश | विचार से राज्य भार सब कुणिक ही को या तिरहुत प्रान्त, और अङ्गदेश को भी सौर दिया तो इस अधर्मी ने इस पर भी अपने राज्य में मिला लिया और पिता के | सन्तुष्ट न हो कर थोड़े ही समय पश्चात् पश्चात् इसने राजगृही' की जगह 'चम्पाअपने धर्मज्ञ पूज्य पिता को एक 'देवदत्त' पुरी' को अपनी राजधानी बनाया। पिता नामक गृहत्यागी के कहने से काँटेदार की मृत्यु के पीछे उसी के शोक में जब कुछ काठ के एक कठहरे में बन्द कराकर कारा- फम एक वर्ष, और सर्व लगभग ३१ वर्ष के गृह में भिजवा दिया और बहुत दिन तक राय शाशन के पश्चात् 'अजातशत्रु' ने बढ़ा कष्ट देता रहा । माता के बारम्बार मुनि दीक्षा ग्रहण करली तो इसका उत्सरासमझाते रहने पर और पालक (लोक- धिकारी इसका पुत्र पालक बना जो दर्शक, पाल) नामक अपने शिशु पुत्र के स्नेह में दर्भक, हर्षक आदि कई नामों से प्रसिद्ध अपने मन को अति मोहित देखकर जब था। इसका राज्य अभिषेक, 'लोकपाल' एक दिन उसने पैतृक प्रेम का मूल्य नाम से किया गया और बालक होने के समझा तो उसे अपनी भूल और नादानी | कारण इसके पितृव्य चचा ) जित शत्रको पर अत्यन्त खेद और पश्चाताप हुआ। इसको संरक्षक बनाया गया। यह 'अजाततुरन्त ही पिता को बन्धनमुक्त करने के शत्र' की 'अवन्ती' नामक रानी के गर्भ से
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श्रजातशत्रु
( १६७ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
उत्पन्न हुआ था ॥
नोट १ -- महाराजा 'श्र ेणिक बिम्बसार' ने अपनी कुमार अवस्था में एक बौद्ध श्रमण के उपदेश से बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था परन्तु राजगद्दी पर बैठने और महारानी बेलिनी के साथ विवाह होने के कुछ समय पश्चात् इन्हों ने महारानी चेलिनी के अनेक उपायों द्वारा पैतृकधर्म अर्थात् जैनधर्म को फिर स्वीकृत कर लिया जिस पर इनकी इतनी दृढ़ अचल और गाढ़ श्रद्धा हो गई थी कि यह अन्तिम तीर्थंकर श्री 'महावीर वद्धमान' की धर्मसभा मुख्य श्रोता या 'श्रोता श्रीमणि' माने जाते थे । और राज्य प्रबंध का बहुभाग अपने पुत्रों और मंत्रियों पर छोड़ कर अपना अधिक समय धर्मोपदेश सुनने या तत्व विचार में व्यय करते थे। 'अजातशत्रु' अपनी वीरता और विद्वता के घमंड में अपने अन्य भ्रोताओं को तिरस्कार की वृद्धि से देखता हुआ और शीघ्र से शीघ्र पूर्ण राज्याधिकार पाने की लोलुस्ता में ग्रसित रह कर अपने धर्म कर्म से सर्वथा विमुख था । उपयुक्त देवदत्त ब्रह्मचारी गृहत्यागी की सहायता से उसी के रचे षडयंत्र द्वारा अपने अन्य भाइयों के विरक्त होकर गृहत्यागी होजाने पर इसने राज्य प्राप्त किया था । अतः यह देवदत्त का बड़ा कृतज्ञ था । देवदत्त जैनधर्म और बौद्धधर्म दोनों ही से हार्दिक द्रोह रखता था । इसी लिये इसी के | प्रभाव से दब कर 'अजातशत्रु' ने अपने पैतृकधर्म जैनधर्म को त्याग कर वैदिक धर्म ग्रहण कर लिया था और इसी कारण देवदत्त के कहने में आकर पिता को कारागृह में डाला
था ।
नोट २ - महाराजा श्रेणिक की निम्न
अजातशत्र
लिखित तीन रानियां थीं :--
(१) नन्दी - घेणपद्म नगर निवासी सेठ इन्द्रदन्त की पुत्री जिसके गर्भ से 'अभयकुमार' का जन्म हुआ ॥
(२)वेलिनी - वैशाली नगराधीश राजा बेटक की पुत्री जिसके गर्भ से उपर्युक्त 'कुणिक अजातशत्र' आदि ७ पुत्र उत्पन्न हुए | [ पीछे देखो शब्द 'अकम्पन' (८) ] ॥
(३) विलासवती (तिलकावती) – केरल नरेश मृगांक की पुत्री। इस के गर्भ से एक 'पद्मावती' नाम की पुत्री जन्मी थी ॥
नोट ३ – 'अजातशत्रु' की माता 'चेलिनी' की गणना १६ प्रसिद्ध सतियों अर्थात् विदुषी, शीलवती और पतिव्रत-परायण स्त्रियों में की जाती है जिनके नाम यह हैं:--
( १ ) ब्राह्मी ( २ ) सुन्दरी या शीलवती (३) कौशल्या ( ४ ) सीता ( ५ ) कुन्ती ( ६ ) द्रौपदी (७) राजमती या राजुल (=) चन्दना या चन्दनबाला ( ६ ) सुभद्रा ( १० ) शिव देवी ( ११ ) वेलिनी या चूला ( १२ ) पद्मावती (१३) मृगावती ( १४ ) सुलसा ( १५ ) दमयन्ती ( १६ ) प्रभावती ॥
शुद्ध मन बचन काय से पातिव्रत्य पालन करने में यद्यपि अञ्जना सुन्दरी, मैले सुन्दरी, रयनमंजूरा, विशल्या, मनोरमा आदि अनेक अन्य स्त्रियां भी पुराणप्रसिद्ध हैं परन्तु १६ की गणना में उनका नाम नहीं गिनाया गया है ॥
नोट ४ --मगध को गद्दी पर शिशुनाग वंशियों के राज्याधिकार पाने का सम्बन्ध और उसका प्रारम्भ निम्न प्रकार है:
महाभारत युद्ध में चन्द्रवंशी मगधनरेश 'जरासन्ध' के श्री कृष्ण के हाथ से मारे जाने के पश्चात् जब 'जरासन्ध' का अन्तिम वंशज
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(. १६८ ) अजातशत्रु वृहत् जैन शब्दार्णव
अजातशत्र 'रिपंजय' मगध का राजा था तो इसे इसके | नन्द *अर्थत् नवीन या दूसरा महानन्द (नन्दमंत्री 'शुनकदेव' ने वि० सं० से ६७७ वर्ष पूर्व महापद्म) और सुभाल्य (सुकल्प) आदि उस मार कर अपने पुत्र प्रद्योतन को मगध का | के कई पुत्रों के अधिकार में ६१ वर्ष रहा।। राना बना दिया । इस वंश में वि० सं० के | पश्चात् महाराजा चन्द्रगुत से वृहद्रथ तक! ६७७ वर्ष पूर्व से ५८५ वर्ष पूर्वतक ६२ वर्ष में | १० मौर्यवंशी राजाओं के अधिकार में रह प्रद्योतन, पालक, विशावयूप, जनक और कर मगध का राज्य शुङ्गवंशी पुष्पमित्र को नन्दिवर्द्धन, इन. ५ राजाओं के पश्चात् मिला। इस वंश के ११ राजाओं ने ११२ वर्ष 'शिशुनाग' नामक ऐसा वीर, प्रतापी और | तक राज्य किया । ( पीछे देखो शब्द 'अग्निलोकप्रिय राजा हुआ कि आगे को यह मित्र' और उसके नोट १, २ ) ॥ वंश इसी के नाम पर 'शिशुनागवंश' नाम | नोट ६.- जरोसन्ध' के समय में मसे प्रसिद्ध हो गया । शिशुनाग वंश में गध की राजधानी गिरिज' नगरी थी जिसे (१) शिशुनाग (२) काकवर्ण या शाकपर्ण बदल कर श्रेणिक ने अपनी नवीन बसाई (३) क्षेमधर्मण (४) क्षत्रीज (क्षेमजित, क्षेत्रज्ञ | नगरी राजगृही को, फिर उसके पुत्र अजातक्षेमार्च या उपक्षेणिक ) (५) श्रेणिक बिम्ब- शत्रु ने चम्पापुरी और राजगृही दोनों को, सार (विन्ध्यसार, बिन्दुसार या विधिसार) पश्चात् 'उदयाश्व' ने (किसी २'की सम्मति (६) कुणिक अजातशत्र (७) दरभक ( दर्शक, में 'अजातशत्रु' ही में ) पाटलीपुत्र (पटना) हर्षक, या वंशक ) () उदयाश्व ( उदासी, को राजधानी बमाया ॥ अजय, उदायी, या उदयभद्रक ) (5) नन्दि- नोट ७.-मत्मपुराण, वायुपुराण, वचन ( अनुरुद्धक या मुंड) (१०) महानन्दि, विष्णुपुराण, ब्रह्मांडपुराण, भागवत, आदि यह १० राजा वि० सं० के ५८५ वर्ष पूर्व से | पुराणों तथा अन्यान्य ऐतिहासज्ञों के लेखों ४२३ वर्ष पूर्व तक १६२ वर्ष में हुए । | में मगधदेश के राजाओं के नाम, गणना,
नोट ५.-मगध का राज्य शिशुनाग- समय और शासनकाल आदि के सम्बन्ध में घंशी अन्तिम राजा 'महानन्दि' के हाथ से परस्पर बहुत कुछ मत भेद पाया जाता है। निकल कर और कई भिन्न २ देशीय अज्ञात उपरोक्त नोट ४ और ५ का सारांश राजाओं के अधिकार में ६४ वर्ष रह कर नव- | अगले पृष्ठ के कोष्ट से देखेंः
MEAalamma
* नव शब्द का अर्थ नवीन और नव की संख्या अर्थात् ६, यह दोनों हैं। अतः पाई ऐतिहासज्ञों ने दूसरा अर्थ मान कर लिया है कि नव-नन्द अर्थात् 'नन्दमहापद्म' (महानन्द) और उसके नन्द नाम से प्रसिद्ध - पुत्रों, एवं सर्वनन्द ने ९१ वर्ष तक मगध का राज्य किया। किसी किसी ने शिशुनागवंशी अन्तिम राजा महानन्दि के पश्चात् होने वाले कई अशात नाम वाले राजाओं का राज्यकाल ६४ वर्ष नन्दवंश के राज्यकाल ९१ वर्ष में जोड़ कर नन्दवंश का ही राज्यकाल १५५ वर्ष लिखा है।
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निकास
मगध देश के राज-वंश । वीर निर्वाण सम्वत् । विक्रम संवत् ।
अजातशत्र
कम
वर्ष
स्थी सन् ।
शाका संवत्
संख्या
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महाभारत युद्ध के अन्त से जरासन्ध की सन्तान नहा- .... | १८६ वर्ष पूर्व तक | ६७७ वर्ष पूर्व तक । ७३४ वर्ष पूर्व तक | ८१२ वर्ष पूर्व तक भारतपरसे
शिशुनाग के पूर्वज (५ राजा) ९७ वर्ष पूर्व तक ५८५ वर्ष पूर्व तक . ६४२ वर्ष पूर्व तक ७२० वर्ष पूर्व तक शिशुनाग वंश ( १० राजा) सं० ६५ तक , ४२३ ___. . ४८०
___ " . ५५८ , , कई भिन्न भिन्न देशीय राजा ६४ सं० १२६ तक नन्दवंश ( २ या हरामा) सं० २२० तक २६८
, , ४०३ मौर्यवंश (१० राजा)
सं० ३६० तक । १२८ , , १८५ . | २६३ , , शुगवंश (११ राजा) ११२ | सं०४७२ तक १६ , , ७३ , १५१ . .
वृहत् जैन शब्दार्णव
( १६६ )
- (३) अजातशत्रु एक यादव वंशी राजा का भी नाम था, जो श्रीकृष्ण के पिता पसुदेव की एक "जरा" नामक रानी के पुत्र "जरत्कुमार" का एक वंशज था और जो २३चे तीर्थकर 'श्री पार्श्वनाथ' की निर्वाण प्राप्ति के पश्चात् “सुराष्ट्र" और 'कलि देश में राज्य करता था। (देखो ग्रन्थ 'प.वि.च.')॥
(हरि० सर्ग ६६ श्लोक १-५) (४) अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर का भी एक अपर नाम था (५) एक ब्रह्मज्ञानी राजा का नाम भी अजातशत्रु था, जो श्री कृष्ण के समय में विद्यमान था ॥
अजातशत्र
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"अजाता . वृहत् जैन शब्दार्णव
अजित भजाता-साधु के तजने योग्य वस्तु को तीर्थकर 'श्री महावीर स्वामी' के निर्वाण यत्नाचार पूर्वक त्यागना ॥ .
काल से लगभग ४२ सहस्र वर्ष कम ७२ . (अ. मा. अजाया ) ॥ | लक्ष पूर्व अधिक ५० लक्ष कोटि सागभजानफल-अज्ञातफल ॥
रोपमकाल पहिले हुआ॥ २२ प्रकार के अभक्ष्य पदार्थों में 'अ- नोट :-८४ लक्ष वर्ष का एक पूर्वाङ्ग जानफल' भी एक पदार्थ माना जाता है। काल और ८४ लक्ष पूर्वाण का एक पूर्वकाल (पीछ देग्ने शब्द 'अवाद्य' ) ॥
होता है। ४१३४५२६३०३०२०३१७७७४९५
१२१६२०००००००००००००००००००० (२७ अजित-[१] अजेय जो किसी से जीना न
अङ्क और २० शन्य, सर्व सैंतालीस अङ्क जा सके, नेत्र रोग निवारक एक तैल वि.
प्रमाण ) वर्ष का एक व्यवहार पल्योपमकाल शेष, एक प्रकार का जइरमुहग, एक प्र.
और १० कोडाकोड़ी अर्थात् १ पद्म (१०००. कार का जहरीला चूहा । विष्णु, शिव,
००००००००००००) व्यवहार पल्योषमकाल शुद्धात्मा, परमात्मा ॥
का १ व्यवहार सागरोफ्मकाल होता है। [-] द्वितीय तीर्थंकर का नाम । वर्त- (देखो शब्द 'अङ्कविद्या' का नोट =)॥ मान अवसर्पिणी काल के गत चतुर्थ
अतः ७०५६०००००००००० वर्ष का एक विभाग 'दुःखम सुखम' नामक काल में
पूर्व काल और ४१३४५२६३०३०८२०३१७७ हुए २४ तीर्थङ्करों (धर्मतीर्थ प्रवर्तक | ७४४५१२१९२००००००००००००००००००००० महान पुरुषों ) में से द्वितीय तीर्थका का
००००००००००००००० (२७ अङ्क और ३५ नाम 'अजित' या 'श्री अजितनाथ' है ॥
शन्य, सर्व ६२ अङ्क प्रमाण ) वर्षों का एक १. इन्होंने इक्ष्वाकवंशी काश्यप गोत्री
व्यवहार सागरोपमकाल होता है। . अयोध्या नरेश महाराज 'जितशत्रु' (नृप
३. जिस रात्रि को 'श्री अजितनाथ' जित ) की पटरानी 'विजयादेवी' (विज
अपनी माता के शिशुकुक्षि अर्थात् मभ में यसेना ) के गर्भ में शुभ सिती ज्येष्ठ कृष्ण
आये उस रात्रि के अन्तिम भाग में लकी ३० ( अमावस्या ) की रात्रि के पिछले प्र
माता ने निम्न लिखित १६ शुभ स्वप्न हर 'रोहिणी' नक्षत्र में विजय नामक अनु
देखेःतर विमान से आकर और दश दिवश (१) स्वेत ऐरावत इस्ती । अधिक अष्टमास गर्भस्थ रह कर नवम | (२) गम्भीर शररता एक पुष्ट स्वेत वृषभ मास में शुभ मिती माघ शुक्ल १० को अर्थात् बैलग। प्रातःकाल रोहिणी नक्षत्र में जन्म धारण (३) निर्भय विचाता हुआ केहरिसिंही. किया ॥
(४) लक्ष्मीदेवी जिसे दी स्वेत हस्ती अपनी ___२. इन का जन्म प्रथम तीर्थङ्कर 'श्री अपनी सूंड में स्वच्छ जल भर कर स्लान । ऋषभदेव' के निर्वाण गमन से लगभग ७२ | · कर रहे थे। लक्ष पूर्व काल कम ५० लक्ष कोटि सागरो- | (५) आकाश में लटकी दो सुगन्धित पुष्पप्रमकाल पीछे, और अन्तिम अर्थात् २४वे | . मालाएँ।
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( १७१ ) अजित वृहत् जैन शब्दार्णव
अजित (६) तारागण मंडित पूर्ण चन्द्रमण्डल। भर में आनन्द लहर विद्युत लहर की। (७) उदय होता हुआ सूर्य ।
समान फैल गई। (८) कमलपत्रों से ढके दो स्वर्ण कलश । ५. अपने अपने 'मति-शानावरण' और। (६) सरोवर में कल्लोल करती मछलियों का
'श्रु त-शानावरण' कमों के क्षयोपशमानुजोड़ा।
सार मतिज्ञान और श्र तज्ञान, यह दो प्र(१०) स्वच्छ जल से भरा एक विस्तीर्ण
कार के शान तो अरहन्तोव सिद्धों के अतिसरोवर।
रिक्त प्रैलोवय के प्राणी मात्र को हर समय (११) जलचर जीवों सहित विशाल समुद्र ।
निरन्तर कुछ न कुछ प्राप्त हैं पर इस पवित्र (१२) रत्नजड़ित एक उतंग सिंहासन !
आत्मा को अपने अवधि शानावरण कर्म के (१३) आकाश में गमन करता एक रत्नमय
क्षयोपशम से सुमतिज्ञान और सुश्रुतदेवधिमान ।
शान के अतिरिक्त तीसरा अनुगामी सु(१४) पृथ्वी से निकलता एक नागेन्द्र भवन ।
अवधिशान भी गर्भावस्था से ही प्राप्त था (१५) बहु मूल्य रत्नों की एक ऊँची राशि ।
जो साधारण मनुष्यों में से किसी किसी चलित अग्नि।
को ही उग्रतपोबल से प्राप्त होता है । अतः इन १६ स्वप्नों के पश्चात् माता ने
इस महान आत्मा को विद्याध्ययन या • अपने मुख मार्ग से एक स्वेत पन्धसिन्धुर
किसी लौकिक या पारमार्थिक शिक्षा के (गन्ध युक्त हस्ती) को सूक्ष्म रूप में प्रवेश
लिये किसी विद्या-गुरु की आवश्यक्ता करते देखा और फिर तुरन्त ही मिद्रा न हुई । खुल गई॥
६. इनका दिव्य पवित्र भोजन-पान ४. गर्म में इस महान पवित्र आत्मा के | इतना विशुद्ध, सूक्ष्म, अल्प और अगर अवतीर्ण होने से षट माश पूर्व ही से म- (हल्का) होता था जो पूर्ण रूप से शरी. हाराजा जितशत्रु'के नगर व राज भवन में राङ्ग बन जाता था. जिससे साधारण . दैववल से अनेक दिव्य शक्तियोंका प्रकाश प्राणियों की समान इन के शरीर में मल:दिव्य दृष्टि रखने वालों को प्रष्टिगोचर मूत्र और स्वेद (पसीना ) न बनता था होता रहा। इस दैवी चमत्कार से माता अर्थात् सम्पूर्ण भोज्य पदार्थ यथा आधके गर्भ का समय पूर्ण आनन्द और भगवद् | यक शरीर की सप्त धातुओं में परिवर्तित भक्ति व धर्मचर्चा में व्यतीत हुआ। प्रसव हो जाता था जिस से इन्हें मल मूत्र आदि के समय भी माता को किसी प्रकार का | किसी भी मैल-त्याग की आवश्यकता न कष्ट नहीं हुआ किन्तु उस महान आत्मा के पड़ती थी। पूर्ण पुन्योदय से क्षण भर के लिये संसार |
(१६) निळून
* आयु भर भोजन पान ग्रहण करते हुये मल मूत्र त्याग न करना यद्यपि एक आश्चर्य जनक और बड़ी ही अद्भुत बात तथापि सर्वथा असम्भव नहीं है। जब कि हम यह देखते है कि आज कल भी कोई २ साधारण मनुष्य कभी कभी और कहीं कहीं ऐसे दृष्टिगोचर होजाते है को दो चार आठ दिन, यो पक्ष दोपक्ष ही नहीं, दो चार मास या केवल वर्ष दो वर्ष नहीं,
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STERS
अजित वृहत् जैन शब्दार्णव
अजित ७. इनके शरीर का रुधिर रक्तवर्ण नथा ६. इन का सम्पूर्ण आयुकाल लगनग किन्तु दुग्ध जैसा स्वेतवर्ण था। इनका शरीर ७२ लक्ष पूर्व का था जिस में से चतुर्थ अति सुन्दर, सुगन्धित, समचतुरस्न, और भाग अर्थात् लगभग १८ लक्ष पूर्व की अष्टाधिक सहस्र (१००८) शुभ लक्षण युक्त वय तक यह कुमार अवस्था में रहे । पिता था। इनके शरीर का संहनन बजूवृषभना
के दीक्षित होने के पश्चात ५३ लक्ष पुर्व राब और अतुल्य बलवान था। सदैव हित और एक पूर्वाण काल तक मंडलेश्वर राज्यमित प्रिय वचन बोलना उन का स्वभाव वैभव का सुख भोगते रहने पर भी यह था॥
भोगों में किसी समय लिप्त न हुए। ८. इन के शरीर का पूर्ण और कान्ति राज्य कार्य को जिस उत्तम से उत्तम ! ताये स्वर्ण-समान देदीप्यमान और ऊँ प्रबन्ध और पूर्ण योग्यता के साथ इन्होंने चाई ४५० धनुष अर्थात् ९०० गज थी । किया उसके विषय में इतना ही बता देना। इम के शरीर के १००८ शुभ लक्षणों में से | पर्याप्त होगा कि इन सर्व कलापूर्ण । एक 'गज चिन्ह' मुख्य था जो इन के वाम | और विद्यानिपुण महानुभाव ने प्रजा के चरण की पगतली में था।
उपकार में अपनी शक्तिका कोई अंश बचा किन्तु निम्न लिखित एक व्यक्ति तो पूरे बारह घर्ष तक नित्य प्रति भोजन पान ग्रहण करता हुमा भी मल-त्याग बिना पूर्ण निरोग और कष्ट पुष्ट बना रहा :
१. श्रीमान् बाबू प्यारे लाल जी जमींदार बरौठा, डाकखाना हागंज, जिo अलीगढ़ जो एक प्रतिष्ठित और सुप्रसिद्ध पुरुष हैं और जो ज्योतिष. वैद्यक, गणित, इतिहास, भूगोल. कृषि, वाणिज्य, शिल्प, इत्यादि अनेक विद्याओं और कलाओं सम्बन्धी अनेकानेक ग्रन्थों के रचयिता व अनुवादकर्ता हैं, निज रचित 'जौहरेहिकमत' नामक उर्दू ग्रन्थ की सन् १८६८ ई० की छपी द्वितीय आवृत्ति के सप्तम भाग 'इलाजुलअमराज़' के पृष्ठ ७ पर संख्या (२) में निम्न समाचार लिखते हैं :
"मौजा सासनी, तहसील इग्लास, जिला अागढ़ में मेरे मासू का साला एक शरूस । पटवारी है । उसकी बारात गई । रास्ते में वह एक करके पास पास्त्राने को बैटा । उसी रोज से उसका पाखाने जाना बन्द होगया । वह तन्दुरुस्त रही। खूब वाता पीता जवान होगया। मगर'बारह बरस तक कभी उसको पाखाने की हाजत मोहुई न दग्त आया। डाक्टरी इलाज कराया मगर बेसूद । आरिवार एसकी औरत मर गई । फिर दूसरी शादी हुई । उस वक्तसे खुद बखुद बह पाखाने जाने लगा और दस्त आने लगा।
यद्यपि इस कोषके लेखक ने इस १२ वर्ष तक मल त्यागन करने वाले व्यक्तिको स्वयम् नहीं देखा तथापि इसके पितामह के एक चचेरे भ्रात स्वर्गीय श्रीमान् लाला मिटन लाल जी सबओवरसियर ने जो उस समय स्थान हागंज जिला अलीगढ़ में कार्य करते थे स्थयम् उसे कई बार मल न त्याग करने की अवस्था में पूर्ण निरोग और स्वस्थ्य देखा था। जिससे उपयुक्त लेख की पूर्णतयः पुष्टि हो जाती है। - २. उपयुक्त व्यक्ति के अतिरिक्त चार चार, पाँच पाँच, आठ आठ, दश दश, या ग्यारह ग्यारह दिवश के पश्चात् मल त्याग करने वाले निरोग नीया पुरुष तो कई एक सुनने और देखने में आये हैं । इस कोषके पाठकों में से भी कुछ न कुछ महाशयों ने ऐसे कोई न कोई प्यक्ति अवश्य देखे या सुने होंगे।
३. इस कोष के लेखक की पुत्रवधू को लगभग सदैव ही नित्य प्रति दोनों समय उदर
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अजित वृहत् जैन शब्दार्णव
अजित नहीं रखा । इनके शासन काल में प्रजा सर्व अगले दिन माघ शु०९ को प्रातःकाल प्रकारसे सुखी धर्मज्ञ और षट कर्म परायण ही अपने प्रियपुत्र 'अजितसेन' को राज्यथी। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, इन चारों भार सौंप कर अपरान्ह काल, रोहिणी पुरुषार्थों का यथायोग्य रीति से निर्विघ्न नक्षत्र में जबकि तिथि १० का प्रारम्भ हो साधन करती थी। सागार और नागार चका था 'सुप्रभा' नामक दिव्य शिविका धर्म अर्थात् गृहस्थ और मुनि धर्म दोनों (पालकी) में आरूढ़ हो अयोध्यापुरी ही सर्वांश सुव्यवस्थित नियमानुकूल (विनीता पुरी वा साकेतानगरी ) के वापालन किये जाते थे।
हर सहेतुक ( सहस्रान) नामक बन में १०. जब आयु में एक पूर्वाङ्ग कम पहुँचकर और विषमच्छद अर्थात् सप्तछद एक लक्ष पूर्व और एक मास २६ दिन । या सप्तपर्ण वृक्ष ( सतौने का पेड़) के नीचे शेष रहे तव माघ शु० ८ की रात्रि को षष्ठोपवास (बेला, द्वला) का नियम 'उल्कापात' अवलोकन कर क्षणक सांसा- लेकर दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली। रिक विभव से एक दम विरक्त हो गये। इसी समय इन्हें चतुर्थ ज्ञान अर्थात् 'मन:भर भोजन खाते पीते रहने पर भी प्रायः प्रत्येक तीन तीन, चार चार दिवश में निहार अर्थात् मल त्याग की आवश्यकता पड़ती है। इस के अतिरिक्त तीन व्यक्ति ऐसे देखने और कई एक के सम्बन्ध में सुनने का अवसर मिला है जिनकी प्रकृति आठ आठ दश दश या ग्यारह ग्यारह दिवश के पश्चात् निहार करने की थी। इनमें से एक दो के सम्बन्धमे ऐसा भी देखने और सुनने में आया कि उनके पसीने में तथा मख में कछ विशेष प्रकार को दर्गन्धि भी आती थी। शेष व्यक्ति सर्व प्रकार से निरोग और स्वस्थ्य थे॥ . चरक आदि पैद्यक ग्रन्थों से यह भी पता लगता है कि 'भस्मकव्याधि' नामक एक रोग भी ऐसा होता है जिस का रोगी चाहे जितना भोजन करै वह सर्व ही मल नहीं बनता किंतु उदर में पहुँचते ही भस्म होकर अदृश्य हो जाता है जिससे ऐसा रोगी क्षधा से हर दम बेचैन रहता है । यह रोग कफ़ के अत्यन्त कम हो जाने और वात पित्त के बढ़ जाने से जठराग्नि तीव्र होकर उत्पन्न हो जाता है । इसे अङ्गरेजो भाषा में बूलीमूस ( Bulimus ), अरबी भाषा में 'जाउलबक' और उर्द भाषा में 'भाल का होका' बोलते है ॥
उपयुक्त कथन से निःसंकोच यह तो प्रतीत हो ही जाता है कि ग्रहण किये हुए स्थूल भोजन का भी असार भाग स्थल मल बन कर किसी न किसी अन्य सूक्ष्म और अदृश्य रूप में परिवर्तित होकर शरीर से निकल जा सकता है। अतः जब साधारण व्यक्तियों के सम्बन्ध में स्थूल और गरिष्ट आदि सर्व प्रकार का अधिक भोजन करते हुए भी किसी न किसी विशेष कारण से उनके शरीर में स्थल मल न बनने की सम्भावना हैती दिव्यशक्तियुक्त महा पुण्याधिकारी असाधार पुरुषों का विशुद्ध सूक्ष्म और अल्प आहार मलमूत्रादिक रूप में न पारवर्तित होना कैसे असम्भव हो सकता है। यहां इतना विशेष है कि साधारण व्यक्तियों के शरीर में तो आहार का असार भाग (खलभाग) स्थल या सूक्ष्म मल के रूप में अवश्य परिवर्तित होता और किसी न किसी मार्ग से शीघ्र या अशीघ्र कभी न कभी निकल जाता है परन्तु तीर्थङ्कर जैसे असाधारण व्यक्तियों का प्रथम तो आहार ही ऐसा विशुद्ध होता है जिस में असार भाग नहीं होता, द्वितीय उन के शरीर की जठराग्नि तथा अग्न्याशय,. पाकाशय आदि अभी असाधारण होते हैं जो आहार को सर्वाङ्ग रस में परिपर्तित कर के खल भोग शेष नहीं छोड़ते ॥
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( १७४ )
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अजित वृहत् जैन शब्दार्णव
अजित पर्ययज्ञान' का भी आविर्भाव हो गया ॥ 'कैवल्यझान' (पूर्णशान या अनन्तज्ञान)
११. जिस समय इन्होंने दीक्षा धारण का प्रकाश होकर सर्वत्र उसकी व्यापकता | की उस समय इन के अनन्य भक्त एक स- होने से 'विष्णु', और अनन्त सुख सम्पत्ति हस्र अन्य राजाओं ने भी इन का साथ युक्त पूर्णानन्दमय होने से तथा सर्व घातिया दिया।
कर्मोको जो संसारीत्पत्ति या जन्ममरणका मुख्य १२. षष्ठोपवास (बेला) के दो दिन बीतने कारण हैं नष्ट कर देते से 'शिव', लोकालोक पर माघ शु० १२ को अरिष्टपुरी अर्थात् के सर्वचराचर पदार्थो का निरावरण अतेन्द्रिय अयोध्या ही में महाराज ब्रह्मदत्त (ब्रह्मभूत) ज्ञान प्राप्त हो जाने से 'सर्वज्ञ', तीन काल ने इन्हें नवधा भकि पूर्वक गोदुग्ध पाक | सम्बन्धी पदार्थो का ज्ञाता होने से त्रैकालश', का शुद्ध और पवित्र आहार निरन्तराय इत्यादि अष्टाधिक सहस्र या असंख्य और कराया ॥
अनन्त "यथा गुण तथा नाम" इसी अवस्था १३. मुनि दीक्षा धारण करने के पश्- | युक्त पवित्र आत्मा के हैं । आत्मा की इसी चात् ११ वर्ष, ११ मास और १ दिन तक | अवस्था का नाम “जीवनमुक्ति" या 'सदेहके उग्रोग्र तपोबल से इनके पवित्र आत्मा मुक्ति' है। इसी अवस्थायुक्त आत्मा को में अनेक ऋद्धियों का प्रकाश हुआ और "सकल परमात्मा' भी कहते हैं । अन्त में शुभमिति पौष शु०११ को अपरान्ह १४. कैवल्य ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् काल (सायकाल ) रोहिणी नक्षत्र में अयो- 'श्री अजितनाथ' के द्वारा एक पूर्वाह्न ११ ध्यापुरी के समीप ही के बन में षष्टोपवा- वर्ष, १०मास,६ दिन कम एकलाख पूर्वकाल सान्तर्गत ज्ञानावरणी आदि चारों घातिया तक अनेक भव्य प्राणियों को धर्मोपदेश कर्मीका एकदम अभाव होकर अनन्तचतुष्टय का महानलान प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त बङ्गदेशस्थ सम्मेदाचल अर्थात् सम्मेदपर्वत सुख और अनन्तवीर्यका आविर्भाव होगया। जो बङ्गाल देशान्तर्गत 'हज़ारीयाग' जिले
नोट २-जब कभी किसी सपोनिष्ठ में आज कल 'पाश्र्घनाथहिल' या 'पार्श्वमहानुभाव के आत्मा में महान तपोबल से नाथ पर्वत के नाम से लोक प्रसिद्ध है उस 'अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय' का आविर्भाप और के शिविर (चोटी) पर शुभ मिती फा४६ मूलगुणों तथा ८४ लक्ष उत्तर गुणों ल्गुन शु० ५ को पहुँचकर आयु के शेष की पूर्णता हो जाने पर जो परम पूज्य, पवित्र भाग अर्थात् एक मास पर्यन्त 'सिद्धकूट' और परमोत्कृष्ट अवस्था प्राप्त हो जाता है, नामक कूट पर ध्यानारूढ़ रहे जिससे उसी अवस्था विशेष का नाम 'अर्हन्त' (अ- शेष चारों अघातिया कर्मों को भी नष्ट कर रहन्त ) है । घातिया कर्मों पर विजय पाने के शुभ मिती चैत्र शु०५ के प्रातःकाल रोहिणी कारण उसी अवस्था या पदवी का नाम नक्षत्र में कायोत्सर्ग आसन से परमोत्कृष्ट 'जिन' है। कर्ममल दूर होने और परम उच्च । निर्वाणपद प्राप्त किया । बन कर त्रैलोक्य पूज्य अपूर्व अवस्था की १५. श्री अजितनाथ के सम्बन्ध में नवीन उत्पत्ति होजाने से 'ब्रह्म' या 'ब्रह्मा', अन्य ज्ञातव्य बातें निम्न लिखित है:-.
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अजित वृहत् जैन शब्दार्णव
अजित (१) कैवल्यज्ञान प्राप्त होतेही धर्मोप- स्थानों में, एवम् सर्प ७७१०. ने कैवल्य देशार्थ ४ प्राकार ( गोलाकार कोट की| ज्ञान यथा अवसर प्राप्त किया और श्री | भीत या चार दीवारी), ५ वेदिका, ८ अजितनाथ के कैवल्य ज्ञान प्राप्ति के समय पृथ्वी, १२ सभाकोष्ठ, ३ पीठ, और १ से मोक्ष गमन तक के समय तक इन सर्व गन्धकुटी ,इत्यादि रचनायुक्त जो दिव्य ने मुक्ति पद पाया ॥ २० सहन ने पंच गोलाकार समवशरण अर्थात् सर्व प्रा- अनुत्तर, तथा नव अनुदिश विमानों में णियों को समभाव से अवशरण देने वाले और शेष २६०० ने नव वेयक तथा १६ सभामन्डप की रचना की गई उस का स्वर्गों में जन्म धारण किया। व्यास साढ़े ११ योजन ( ४६ क्रोश या (६)इनका तीर्थकाल इनके जन्म समय लगभग १०४ मील) था। [विशेष रचना से तीसरे तीर्थङ्कर श्री संभवनाथ' के जन्म देखो धर्म सं. श्रा० अधि० २, श्लोक ४६- समय तक लगभग १२ लक्ष पूर्व अ. १४२ ]॥
धिक ३० लाखकोटि सागरोपम कालरहा॥ ___(२) इन की सभा में ९० गणधर,
(७)इनके तीर्थकालमें हमारे भरतक्षेत्र ३७५०पूर्वधारी,९४०० अवधिज्ञानी,१२४००
के आर्यखंड में यथार्थ धर्म की प्रवृति अअनुत्तरवादी, १२४५० विपुल मनःपर्यय खंड रूप रही और निरन्तर कैवल्य शानियों शानी,२०००० केवलज्ञानी,२०५००विक्रिया के उपदेश का लाभ मिलता रही ॥ ऋद्धिधारी, २१६०० सूत्राभ्यासी शिक्षक, () यह तीर्थकर अपने पूर्व भव एवं सर्व १ लाख और ६० यती थे; और अर्थात् पूर्व जन्म में जम्बू द्वीप के पूर्वयतियों के अतिरिक्त प्रहरजा ( फाल्गु ) विदेह क्षेत्र' में 'सीता नदी' के दक्षिण तट आदि ३ लाख २० सहन ( ३२००००) पर बसे हुए 'वत्स' नामक देश की 'सु . आर्यिका, ३ लक्ष प्रतिमाधारी ( प्रतिशा- सीमा' नाम की सुप्रसिद्ध नगरी के अधिधारी) श्रावक, ५ लाख श्राविका, एवम् पति 'विमल वाहन'नामक मांडलिक राजा सर्व ११ लाख २० सहस्र देशसंयमी थे जो सांसारिक भोगों से विरक्त हो, व्यक्ति थे॥
राज्य को त्याग, 'श्री अरिन्दम' आचार्य (३) इन के मुख्य गणधर 'सिंहसेन' थे
से मुनिदीक्षा ग्रहण कर, उग्र तपश्चरण जो मति, श्रु त, अवधि और मनःपर्यय,
करते हुए ११ अङ्ग के पाठी हो, १६ कारण इन चारों शान के धारक और द्वादशांग
भावनाओं से तीर्थङ्कर नाम कर्म का बन्ध पाठी श्रु तकेवली थे ॥
बांध, समाधिमरण पूर्वक शरीर त्याग ___ (४) इन के मुख्य श्रोता जो समय
'विजय' नामक अनुत्तर विमान में अहमेन्द्र शरण में मुख्य गणधर द्वारा अपने प्रश्नोंके
पद प्राप्त किया और ३३ सागरोपम की उत्तर श्रवण करते थे 'सगर' चक्रवर्ती थे ॥
आयु को निरन्तर अध्यात्म-चर्चा और (५) उपर्युक्त १ लक्ष यतियों में से आत्मानन्द में व्यतीत कर अयोध्या पुरी २० सहस्र ने तो श्री अजितनाथ के समवः |
में उपर्युक्त पवित्र राज वंश में अवतार ले शरण ही में, और ५७१०० ने अन्यान्य तीर्थङ्कर पद पाया॥ .
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अजित वृहत् जैन शब्दार्णव
अजित (९) जिस दिन इन्होंने निर्वाण पद शत्रु' जिसने लगभग ७१ लाख पूर्व प्राप्त किया उसी दिन लगभग १००० अन्य की वय में परमकृष्ण लेश्यायुक्त शरीर | महा मुनियों ने भी इनका साथ दिया, त्यागसप्तम नरक में जन्म लिया,यह दोनों अर्थात् अढाई द्वीप भर में कहीं न कहीं 'श्रीअजितनाथ' तीर्थङ्करके समकालीनथे ॥ से निर्वाण पद पाया । (देखो नीचे दिये (११) श्री सम्मेद शिखर के जिस 'सिकोष्ठ की क्रम संख्या ७८ का फट नोट ) | द्धकूट' नामक कूट से इन्हों ने निर्धाण पद
(१०.) द्वितीय चक्रवर्तिः 'सगर' पाया उससे वर्तमान अवसर्पिणी काल के जिसने लगभग ७२ लाख पूर्व काल | गत चतुर्थ विभाग में एक अरब अस्सी की वय में निर्वाण पद पाया और | 'करोड ५४ लाख ( १८०५४००००० ) अन्य ११ अङ्ग १० पूर्व पाठी द्वितीय रुद्र जित- | मुनियों ने भी मुक्तिपद पाया ॥.
श्री अजितनाथ तीर्थङ्कर के ८४ बोल का विवरण कोष्ठ ।
क्रम संख्या
बोल
विवरण
१ पूर्व जन्म
४. राज्यपद
नाम
विमलवाहन २. स्थान
अम्बद्वीप, पूर्वविदेह क्षेत्र सीता नदी के
दक्षिण, वत्सदेश, मसीमा नगरी | ३. शरीरवर्ण
स्वर्ण समान
मंडलीक ५. दीक्षागुरु
श्री अरिन्दम ६. मुनिपद
११ आङ्ग पाठी अन्तिम व्रत
सिंहनिःक्रीडित व्रत संन्यास
प्रायोपगमन ९. संन्यासकाल
१मास १०. गति -
"विजय" अनुत्तर विमान ( आयु ३३ साग
रोपम) गर्भ . . .
| १. स्थान जहां से गर्भ में आये | "विजय'' अनुत्तर विमान १२ | २. गर्भस्थान
अयोध्यापुरी (साकेता) १३ । ३. पिता
अयोध्या नरेश "जित शत्रु" ( नृपजित)
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अजित
क्रम संख्या
१९४
१५
१६
१७
११८
१६
३०
२१
२२
२३
२४
२५
२६
२७
२६
३०
३ जन्म
३३.
२८ ६ कुमार काल
७ राज्य पदवी
४. माता
५. वंश
६. गोत्र
७.
गर्भ तिथि
८.
गर्भ समय
९.
गर्भ नक्षत्र
१०. गर्भ स्थिति काल
१. तिथि
२. समय
३. नक्षत्र
४. शरीर वर्ण
५. मुख्य चिह्न
४ शरीर की ऊंचाई
५. आयु प्रमाण
बोल
८ राज्य काल
३१
६ विवाह किया या नहीं
३२ १० समकालीन मुख्य पुरुष
११ तप ग्रहण
१. तिथि
( १७७
वृहत् जैन शब्दार्णव
विजयादेवी (विजयसेना )
इक्ष्वाकु
काश्यप
ज्येष्ठ कृ० ३० ( अमावस्या )
रात्रि का अन्तिम प्रहर
रोहिणी
८ मास १० दिन
विवरण
माघ शु० १०
प्रातःकाल ( पूर्वान्ह )
रोहिणी ( वृष राशि )
ताये स्वर्ण समान
गज ( चरण की पगतली में )
४५० धनुष (१८०० हाथ )
लग भग ७२ लक्ष पूर्व
लगभग १८ लक्ष पूर्व
मंडलेश्वर
लग भग ५३ लक्ष पूर्व और १ पूर्वाङ्ग
किया
सगर (द्वितीय चक्रवर्ती )
और जितशत्रु ( द्वितीय रुद्र )
माघ शु० ९
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अजित
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( १७८ ) वृहत् जैन शब्दार्णव ।
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-
-
अजित
अजिता
क्रम संख्या
बोल
विवरण
iii
समय
सायंकाल (अपरान्ह, तिथि १०) नक्षत्र
रोहिणी ४. घेराग्य का कारण उल्कापात अवलोकन ५. शिबिका (पालकी) का नाम सुप्रभा ६. दीक्षा धन
सहेतुक अर्थात् सहस्रान ( अयोध्याके निकट) ७. दीक्षा वृक्ष
विषमच्छद अर्थात् सप्तछद या सप्तपर्ण या
सतौना ८. साथ दीक्षा लेने वाले अन्य राजाओं की संख्या
१००० ६. दीक्षा समय उपवास षष्ठोपवास (बेला या द्वला अर्थात् दो दिन
का उपवास) १०. दीक्षा से कौनसे दिन पारणा चौथे दिन ११. पारणे की तिथि माघ शु० १२ १२. पारणे का आहार
गोदुग्ध पाक १३. पारणे का स्थान अरिष्टपुरी ( अयोध्या या धिनीता) • १४. पारणा कराने वाले का नाम | ब्रह्मदत्त (ब्रह्मभूत ) १५. तपश्चरणकाल (छमस्थकाल) १५ वर्ष ११ मास, १ दिन केवलज्ञान ২. বিথি
पौष शु० १२ २. समय
अपरान्ह काल ३. नक्षत्र
रोहिणी ४. स्थान
अयोध्या के निकट ५. उपवास जिस के अनन्तर | षष्टोपवास (बेला)
कंवलज्ञान प्राप्त हुआ। समवशरण १. परिमाण
११॥ योजन व्यास का गोलाकार २. गणसंख्या . ६०
।
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अजित
वृहत् जैन शब्दार्णव
अजित
क्रम संख्या
.
बोल
विवरण ,
३. मुख्य गणधर
सिंहसेन ४. अनुत्तरवादी मुनियों की संख्या
१२४०० ( बारह हजार चार सौ) ११ अङ्ग १४ पूर्व पाठी श्रुतकंवलियों की संख्या
३७५० (तीन हजार सात सौ पचास) केवालयों की संख्या
२०००० (बीस हजार) मनःपर्यय शानियों की संख्या १२४५० ( बारह हजार चार सौ पचास) ८. अवध शानियों की संख्या १४०० (नव हजार चार सौ) ९. आचारांगादि सूत्रपाठी शिक्ष
को (उपाध्यायों) की सख्या २१६०० (इकीस हज़ार छह सौ) १०. वैक्रियिक ऋद्धिधारियों की सख्या
२०४०० ( बीस हजार चार सौ) . . ११. मुनियों या सकलसंयमियों : की सर्व संख्या
१००००० (एक लाख) १२. सर्व सकलसंयमियों की २०००० ने समवशरण ही में केवलशान पाकर गति का विवरण
और ५७१०० ने अन्यान्य स्थानों से केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण पद प्राप्त किया; २० सहन ने पंच अनुत्तर तथा नव अनुदिश विमानों में
और शष ने नव प्रेषक तथा १६ स्वर्गों में
जन्म पाया | १३. आर्यिकाओं की संख्या । ३२०००० (तीन लाख वीस हजार) १४. गणनी या मुख्य आर्यिका | प्रकुब्जा (फाल्गु) १५. श्रावकों की संख्या ३००००० (तीन लाख) १६. मुख्य श्रावक या श्रोता | सगर चक्री १७. श्रावकाओं की संख्या | ५००००० ( पाँच लाख) १८. देश संयमियों की सर्व संख्या ११२००००( ग्यारह लाख वीस हज़ार.) १६. समवशरण निर्वाण प्राप्ति से कितने दिन पूर्व विघटा
३० दिन | २०. समवशरण का स्थिति काल १ लक्ष पूर्णाङ्ग ११ वर्ष, १० मास ६ दिन कम
१ लक्ष पूर्व काल. | १४ निर्वाण ७३१. तिथि
| चैत्र शु०५
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- . . ( १८० )
अजित
___ वृहत् जैन शब्दार्णव
अजित
क्रम संख्या
बोल
विवरण
२. समय
३. नक्षत्र
आसन
प्रातःकाल (पूर्वान्ह ) रोहिणी कायोत्सर्ग खड्गाशन सम्मेदाचल का सिद्धवर नामक वृट (शिखर या चोटी) १००० (एक हजार ) * .
५. स्थान
साथ निर्वाण प्राप्त करने वालों की संख्या समवशरण के सर्व सकल-संयमियों में से कितनों ने साथ या पहिले पीछे निर्वाण पद पाया
७७१०० ( सतत्तर हजार एव सौ)
पूर्व के तीर्थङ्कर के निर्वाण काल से इनके निर्माण काल तक का ५० लक्ष कोटि सागरोपम अन्तराल
अगले तीर्थङ्कर के निर्वाण काल तक का अन्तराल
३० लक्ष कोटि सागरोपम २| १६ | शासन यक्ष, और ४ क्षेत्रपाल यक्ष महायक्ष. और (१) क्षेमभद्र (२) क्षान्तिभद्र
(३) श्रीमद्र, (४) शान्तिभद्र । २० शासन यक्षिणी
अजितबला ( अजिता) घोर निर्वाण से कितने वर्ष पूर्व लगभग ४२ सहस्र वर्ष वमै ५० लक्ष कोटि निर्वाण पद पाया
सागरोपम
* निर्वाण गमन सम्बन्धी कुछ नियम निम्न लिखित हैं:
१. अढ़ाईद्वीप अर्थात् मनुष्य क्षेत्र भर से प्रत्येक ६ मास और समय में नियम से ६०८ जीव सदैव निर्वाण प्राप्त करते है ॥
२. निर्वाण प्राप्ति में अधिक से अधिक ६ मास का अन्तर भी पड़ सकता है, अर्थात् कभी कभी ऐसा हो सकता है कि अढ़ाईद्वीप भर से अधिक से अधिक ६ मास पर्यंत एक भी जीव निर्वाणपद न पाये। ऐसी अवस्था में ६ मास और ८ समय के अन्तिम भाग अर्थात् शेष ८ समय ही में ६०८ जीव अवश्य निर्वाण पद प्राप्त कर लेंगे जिससे उपर्युक्त नियमानुकूल प्रत्येक ६मास ८ समय में ६०८ जीवोंके मोक्षगमन का परता ठोक पड़ जायगा।
३. निर्वाण प्राप्ति के लिये अन्तररहित काल अधिक से अधिक केवल = समय मात्रही है। इन ८ समय में यदि जीव निरन्तर मुक्तिगमन करें तो प्रति समय कम से कम १ जीव और | अधिक से अधिक १०८ जीब मुक्तिलाभ कर सकते हैं और आठों समर में अधिक से अधिक
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क
अजित वृहत् जैन शब्दार्णव
- अजितकेशकँवलि [३] मगधाधिपति अर्द्धचक्री नरेश अजितकेशवलि-यह अन्तिम तीर्थ'जरासन्ध' के एक पुत्र का नाम भी 'अजित' था जो 'महाभारत' युद्ध में बड़ी |.
ङ्कर श्री महावीर स्वामी' का समकालीन वीरता से लड़कर मारा गया है ।
एक मिथ्यात्व मत प्रचारक साधु था जो [४] २४ तीर्थङ्करी के भक जो २४
स्वयम् को वास्तविक तीर्थङ्कर बतलाकर 'यक्षदेव' हैं उन में से ९वें तीर्थङ्कर श्री
ग्रामीण अविद्य और अनभिज्ञ मनु'यों में 'पुष्पदन्त' के भक्त एक यक्ष का नाम भी
अपने सिद्धान्त का प्रचार कर रहाथा । श्री अजिता है।
महावीर तीर्थङ्कर को मायावी और उनकी __ नोट ३.-२४ तीर्थकरों के भक्त २४
दिव्य शक्तियों तथा दिव्य अतिशयी थमयक्ष क्रम से निम्न लिवित हैं:
स्कारों को इन्द्रजाल विद्या के खेल बताकर (१) गोमुव (२) महायक्ष (३) त्रिमुख
भोली जनता को उन से विमुख करने की (४) यक्षेश्वर (५) तुम्बर (६) पुष्प (७) मातङ्ग
चेष्ठा में अपनी सर्व शक्ति का व्यय कर | (E) श्याम (E) अजित (१०) ब्रह्म (११) ई
रहा था । यह एक वस्त्र धारी सिर मुंडे श्वर (१२) कुमार (१३) चतुमुख (१४) पा
साधुओं के रूप में रहता था। इसी के ताल (१५) किन्नर (१६) गरुड़ (१७) गन्धर्व
सरीखे उस समय गौतम बुद्ध' के अतिरिक्त (१८) खेन्द्र (१६) कुवेर (२०) वरुण (२१) | ४ साधु और भी थे जो स्वयम् को तीर्थङ्कर भृकुटि (२२) गोमेद (२३) धरण (२४) मातङ्ग॥ |
बतलाकर प्रायः इसी के सिद्धान्त का (प्रतिष्ठा सारोद्धार पत्र ६७-७०)
। प्रचार अलग अलग स्थानों में विचरते हुए ६०८ हो जीव मुक्ति लाभ करेंगे, अधिक नहीं।
(राज. अ. १० सू. १०, तत्वार्थ सार
। अ. = श्लो. ४१, ४२ की व्याख्या । उपयुक्त नियमों से अविरुद्ध कभी कभी ऐसी सम्भावना हो सकती है कि अढ़ाईद्वीप भर से अधिक से अधिक ६०८ के दुगुण १२१६ जीव तक एक ही दिन में या एक हो घटिका या इस से भी कुछ कम काल में निर्वाण प्राप्त कर लें । उदाहरणार्थ मान लो कि प्रत्येक ६ मास ८ समय के अन्तिम ८ समय में ६ मास का उत्कृष्ट अन्तर देकर आज प्रातःकाल ६०० जीवों ने निर्वाणपद पाया। पश्चात आज ही कुछ अन्तर देकर एक घटिका'या कुछ कम में अथवा सायंकाल तक या आज की रात्रि के अन्त तक के काल में (जो अगले या दूसरे ६ मास ८ समय का एक प्रारम्भिक विभाग है) अन्य ६०० जीवो ने भी सम्भवतः मुक्तिलाभ कर लिया और फिर इस दूसरे ६ मास ८ समय के शेष भाग में अर्थात् लगभग १ घटिका या १ दिन कम ६ मास तक एक जीव ने भी निर्वाणपद न पाया। ऐसी असाधारण अवस्था आपड़ने पर उपयुक्त नियम भी नहीं रटा और एक ही घड़ी या कुछ कम में अथवा एक ही दिन में १२१६ जीवों ने मोक्षलाभ भी कर लिया।
अतः जब एक दिन से भी कम में सम्भवतः १२१६ जीव तक मोक्षलाभ कर सकते है तौ महा पुण्याधिकारी परमोत्कृष्ट पद प्राप्त 'श्री अजितनाथ' के निर्वाण प्राप्ति के समय उनके साथ ( अर्थात् उसी दिन या उसी तिथि में ) केवल १००० जीवों का निर्वाण प्राप्त कर लेने का असाधारण अवसर आपड़ना किसी प्रकार नियम विरुद्ध नहीं है ॥
(कोष लेखक)
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अजितजय। । वृहत् जैन शब्दार्णव
अजितञ्जय कर रहे थे। इनमें पहिला 'मस्करी' (मंख- 'अजितजय' अजितराम के माम से भी लि गोशाल), दूसरा 'पूरण' ( पूरनकश्यप), प्रसिद्ध था । लक्ष्मण के शरीरोत्सर्ग के परतीसरा 'पकुधकच्चायन' और चौथा 'संजय- चात् राम ने लक्ष्मण के बड़े पुत्र पृथ्वीसुन्दर' बेलट्ठि' था । इन कल्पित तीर्थङ्करों में से (पृथ्वी चन्द्र ) को तो राज्य दिया और पहिले दो सर्वथा वस्त्र त्यागी दिगम्बरी महारानी सीता के गर्भ से उत्पन्न लवांकुश वेश में रहते थे । समय की आवश्यकता | आदि (अनङ्ग लवण और मदनांकुश आदि)|
और जनता के विचारों की अधिकतर अनु- | अपने बड़े पुत्रों के विरक्त होकर मुनि कूलता देख कर, अर्थात् वैदिक यज्ञादि | दीक्षा ले लेने के कारण अपने इस छोटे पुत्र क्रियाकांडों में होने वाली जीव हिंसा की 'अजितञ्जय' को युवराज बनाया और आधिक्यता प्रायः असह्य हो जाने से मिधला देश (तिहुत, विहार ) का राज्य यद्यपि यह सर्व ही साधु हिंसा के दिया। इसने अपने पूज्य पिता के मुनिव्रत पूर्ण विरोधी हो कर 'अहिंसा' का प्रचार धारण करने के समय श्रीशिवगुप्त कैवल्यकर रहे थे तथापि इनका मूल सिद्धान्त शानी से धर्मोपदेश सुनकर श्रावक के प्रायः चारवाक्य सिद्धान्त से बहुत कुछ व्रत ( गृहस्थधर्म सम्बन्धी व्रत मिलता जुलता नास्तिकता का फैलाने नियमादि ) ग्रहण किये ॥ घाला था । उन का सिद्धान्त था कि "सर्व | (उत्तर पु. पर्व ६८, श्लोक ७०४-७१३)। प्रकार के दुखों का अनुभव 'शान' द्वारा नोट-पद्म पुराण के रचयिता 'श्रीहोता है। अतः ज्ञान सर्वथा नष्ट हो जाना रविषेणाचार्य' का मत है कि राम और | ही दुखों से मुक्ति दिलाने वाला है और लक्ष्मण के सर्व ही पुत्रों ने मुनि दीक्षा इस लिये हमारा धास्तविक और अन्तिम | धारण कर ली थी। इस लिये राम ने अपने ध्धेय यही होना चाहिये । जीवों का पुनरा- एक पौत्र को जो 'अनङ्गलवण' का ज्येष्ठ पुत्र गमन अर्थात् बार बार जन्म मरण नहीं था राज्य दिया ॥ होता । वर्ण भेद सर्वथा निरर्थक है । इन्द्रि
(२) मुनिसुव्रतनाथ' तीर्थङ्कर के मुख्य | यों को उन के विषयों से रोकना और निर
श्रोता का नाम भी अजितञ्जय था ॥ र्थक आत्मा को कष्ट पहुँचाना अज्ञता है।
(३) १६वें तीर्थङ्कर श्री 'शान्तिनाथ' इच्छानुसार सर्व प्रकार के भोग विलास
के नानाका नाम भी जो गान्धार (कन्दहार) करना कोई अनुचित कार्य नहीं है। पुण्य |
देश के राजा थे'अजितञ्जय ही था । पाप और उन का फल कुछ नहीं है।
___इन की राजधानी 'गान्धारनगरी' इत्यादि ॥
थी। इन को पुत्री का नाम 'ऐरा' अजितञ्जय-इस नाम के निम्नलिखित
था जिसने 'सनत्कुमार' नामक
तृतीय स्वर्ग से आकर महाराज 'अजितकई इतिहास प्रसिद्ध पुरुष हुए:
अय' की रानी 'अजिता' के उदर से जन्म (१) सीता से उत्पन्न, राम के = | लिया और जो हस्तिनापुर के राजा 'विपुत्रों में से सर्व से छोटे पुत्र का नाम; यह श्वसेन' को विवाही गई थी। इसी 'ऐरा
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( १८३ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अजितञ्जय
देवी' के गर्भ से 'श्री शान्तिनाथ' ने जन्म धारण किया
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अजितञ्जय
के गर्भ से जन्म लिया और मर कर अपने दुष्कर्मों के फल में 'रत्नप्रभा' नामक प्रथम नरकभूमि में जा जन्मा । वहां एक सागरोपम काल की आयु पाई ॥
(उत्तर पु० पर्व ७६ श्लोक ३९७-४००, ४१५)
नोट २ - ' दुःखम' नामक वर्तमान पंचम काल के अन्त में २१वां अन्तिम कल्कि - राज अयोध्या में 'जलमन्थन' नामक होगा । उस समय श्री इन्द्रराज (चन्द्राचार्य) नामक आचार्य के शिष्य श्री वीराङ्गद ( वीरांगज ) नामक अन्तिम मुनि, सर्वश्री नामक अन्तिम आर्यिका अग्निल (अर्गिल) नामक अन्तिम श्रावक, और पंगुसेना ( फल्गुसेना ) नामक अन्तिम श्राविका अयोध्या के निकट बन में विद्यमान होंगे । यह चारों धर्मज्ञ महानुभाव पापी 'कल्किराज' के उपद्रव से ३ दिन तक संन्यास धारण कर श्री वीरनिर्वाण पूरे २१००० वर्ष पीछे ( जब पंचमकाल में ३ वर्ष ८॥ मास शेष रहेंगे) कार्त्तिक कृ० ३० (अमावस्या) के दिन पूर्वान्ह काल, स्वाति नक्षत्र मैं शरीर परित्याग कर सौधर्म नामक प्रथम स्वर्ग में जा जन्म लेंगे। वहां मुनि की आयु लगभग एक सागरोपम काल की और अन्य तीनों की आयु एक पल्योपम काल से कुछ अधिक होगी । और इस लिये इसी दिन पूर्वान्ह काल में इस भरतक्षेत्र में धर्म का नाश होगा । पश्चात् मध्यान्ह काल में उस अन्तिम राजा 'जलमन्थन' का नाश और अपरान्ह काल (सायंकाल ) में अग्नि (स्थूल अग्नि) का भी नाश ६२ सहस्र वर्ष के लिये हो जायगा, अर्थात् 'अतिदुःखम' (दुःषम दुःषम ) नामक छठे काल के २१ सहस्र वर्ष, फिर आगामी उत्सर्पिणी काल के 'अतिदुःखम' नामक प्रथम राजा 'शिशुपाल' की रानी 'पृथिवीसुन्दरी' | काल के २१ सहस्र वर्ष और फिर दुःखम ना
( आगे देखो शब्द 'अजित सेनचक्री' ) (६) 'चतुर्मुख' नामक प्रथम कल्की राजाका पुत्र भी 'अजितंजय' नामचारी था ।
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अपने अनाचार के कारण घमरेन्द्र के शस्त्र से जब पापी 'चतुर्मुख' ४० वर्ष राज्य भोग कर ७० वर्ष की वय में मारा गया तब यह 'अजितञ्जय' वीरनिर्वाण सं० १०७० में अपने पिता की गद्दी पर बैठा और 'चेलका' नामक अपनी स्त्री सहित जैनधर्म का पक्का श्रद्धानी हुआ । (देखो शब्द 'चतुर्मुख' ) ॥
( त्रि० सार गा० ८५५, ८५६ ) नोट १ – इस चतुर्मुख नामक प्रथम कल्की राजा ने वीर नि० सं० १००० में (मधा नामक सम्वत्सर में) पाटलीपुत्र (पटना) के
था ॥
( पीछे देखो शब्द 'अइरा' ) (४) एक चारण ऋद्धिधारी मुनि का भी नाम 'अजितञ्जय' था, जिन्होंने हिमचान पर्वत पर एक सिंह को धर्मोपदेश देकर और उसे उसके पूर्व भवों का और उन पूर्व भवों में किये दुष्कर्मों आदि का स्मरण करा कर सुमार्ग के समुख किया जिसने क्रम से आत्मोन्नति करके और ग्यारहें जन्म में श्री महावीर तीर्थकर होकर निर्वाण पद प्राप्त किया ॥
( पीछे देखो शब्द 'अग्निसह' ) (५) अलकादेश की राजधानी 'कौ शलापुरी' का राजा भो अजितंजय नाम से प्रसिद्ध था जो श्री चन्द्रप्रभ तीर्थङ्कर के पञ्चम पूर्वभवधारी अजितसेन चक्री का पिता था ।
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( १८४ ) अजितदेव वृहत् जैन शब्दार्णव
अजितनाभि मक दूसरे काल के २१ सहस्र वर्ष में से २०, में हुए २४ तर्थङ्करों में से द्वितीय तीर्थङ्कर सहस्र वर्ष तक इस क्षेत्र में धर्म, राजा और (पीछे देखो शब्द 'अजित' ) । अग्नि का लोप रहेगा। इतने समय तक लोग अजितनाथ पुगण-'अरुणमणि पंडित पशु समान जीवन बितायेंगे । वर्तमान पंचम काल के अन्त में मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु
रचित श्री अजितनाथ तीर्थङ्कर का चरित्र
( आगे देखो शब्द 'अजितपुराण') ॥ केवल २० वर्ष की, छटे काल के अन्त में केवल १६ वर्ष की, पश्चात् उत्सर्पिणी के भजितनाभि ( जितनाभि, त्रि० गा० प्रथम काल के अन्त में २० वर्ष की और दूसरे । ८३६ )-वर्तमान अवसर्पिणी काल के गत के अन्त में १२० वर्ष की होगी । ( पीछे देखो
चतुर्थ विभाग में हुए ११ रुद्रो में से नवम शब्द ‘अग्निल' और 'अग्नि' )॥
रुद्र का नाम: त्रि० गा० ८५७-८६१, । उत्तर पु०पर्व ७६ श्लोक ४३१-४३७ ॥
___ यह पन्द्रहवें तीर्थङ्कर 'श्रीधर्मनाथ' के |
तीर्थ काल में, जिनका निर्वाण गमन नोट ३-प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव |
अन्तिम तीर्थकर श्री महावीर' के निर्वाण के पुत्र ‘भरत-चक्रवर्ती' की सवारी के रथ का
काल से लग भग ६५८४००० वर्ष अधिक नाम भी अजितञ्जय' था॥
३ सागरोपम काल पहिले हुआ था, अजितदेव-यह एक प्रसिद्ध श्वेताम्बरा | विद्यमान थे। अजितनाभि के शरीर की चार्य थे जिन्होंने वि.सं.१२०४ में फलवर्धि' ऊँचाई २८ धडप ( ५६ गज) और आयु ग्राम में चैत्यबिम्ब की प्रतिष्ठा की और लगभग २० लाख वर्षकी थी। पांच लाख आरासण में 'श्री नेमनाथ' की प्रतिष्ठा | . बर्ष से कुछ कम इनका कुमार काल रहा। की । इन्होंने 'स्याद्वादरत्नाकर' नामक | फिर इससे कुछ कम संयम काल रहा एक श्वेताम्बर जैनग्रन्थ ८४००० श्लोक | अर्थात् दिगम्बर-मुनि-व्रत पालन करते रहे। प्रमाण रचा । वि० सं० १२२० में इनका इसी अवस्था में इन्हें ११ अङ्ग १० पूर्व तक स्वर्गवास हुआ। साढ़े तीन करोड़ श्लोक | का ज्ञान प्राप्त होगया । पश्चात् किसी -प्रमाण अनेक ग्रन्थों के रचयिता श्री | कारण वश मुनिपद से व्युत होकर आयु 'हेमचन्द्रसूरि' इन ही 'अजितदेवसूरि' के | के अन्त तक शेष काल असंयमी रहे । इस समय में विद्यमान थे जो 'श्री देवचन्द्रसूर'
असंयम अवस्था में काम वासना की आधिके शिप्य और गुजरात देशान्तर्गत 'पा
क्यता और रौद्र परिणामी रहने से नरक टण के राजा 'कुमारपाल' के प्रतिबोधक'
आयु का बन्ध किया जिससे मृत्यु काल
· में भी कृष्ण लेश्यायुक्त रौद्र परिणाम (पीछे देखो शब्द 'अजयपाल'नोटो सहित)
रहने के कारण शरीर परित्याग कर
'पङ्कप्रभा' ( अंजना ) नामक चतुर्थ नरक | अजितनाथ-वर्तमान अवसर्पिणी के
भूमि में जा जन्मे ! यहाँ की कुछ कम | 'दुःखमा सुखमा' नामक गत चतुर्थ काल | १० सागरोपम कोल की आयु पूर्ण करने |
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( १८५ )
अजितन्धर __ वृहत् जैन शब्दार्णव
अजितपुराण के पश्चात् मनुज्य और देवगति में कई गए । तत्पश्चात् कामातुर होकर इस उत्तम जन्म धारण कर अन्त में निर्वाण पद प्राप्त पद से च्युत होगए और आयु का शेष करेंगे । (देखो शब्द 'रुद्र' )।
काल असंयम अवस्था में बिताया । अन्त (त्रि. गा० ८३६-८४१, १६६) में रौद्र परिणाम युक्त शरीर को त्याग कर • नोट.-११रुद्रों की गणना १६६ पुण्य 'धनप्रभा' (अरिष्टा ) नामक पञ्चम धरा पुरुषों में से है जिनमें से कुछ तो तद्भव अर्थात् में जा उत्पन्न हुए जहां की कुछ कम १७ उसी जन्म से और शेष कई जन्म और धारण | सागरोपम काल की आयु पूर्ण कर मनुष्य कर नियम से निर्वाण पद प्राप्त करते हैं उन | और देवायु में कुछएक जन्म धारण करने १६९ पुण्य पुरुषों का विवरण इस प्रकार है :- के पश्चात् अन्त में मुक्तिपद प्राप्त करेंगे।
२४ तीर्थङ्कर, ४८ इन तीर्थङ्करों के (देखो शब्द “अजितनाभि" का नोट )॥ मातो पिता, २४कामदेव, १४कुलकर या मनु, (त्रि0 गा० ८३६-८४१, १६६) १२चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, ६ प्रति
भजितपुराण ( अजितनाथ पुराण)नारायण, ११ रुद्र, और नारद । (इनके अलग २ नाम आदि का विवरण 'तीर्थङ्कर',
एक पुराण का नाम जिसमें द्वितीय तीर्थ 'कामदेव' आदि शब्दों के साथ यथा स्थान
कर 'श्री अजितनाथ' का चरित्र वर्णित देखें)॥
यह पुराण कीटक देश निवासी सु. अजितन्धर ( जितन्धर )-वर्तमान
प्रसिद्ध कविरत्न 'रन्न' कृत ३००० श्लोक अवसर्पिणी काल के गत चतुर्थ विभाग प्रमाण कीटकीय भाषा में है जो 'तैलिपमें हुए रुद्र पदवी धारक ११ पुरुषों में से देव' के सैनापति 'मल्लप' की दानशीला अष्टम रुद्र का नाम
पुत्री 'अतिसब्बे-दानचिन्तामणि' के स_. इनका समय १४३ तीर्थङ्कर "श्री न्तोषार्थ शक सम्वत् ११५ में रचा गया था। अनन्तनाथ" के तीर्थ काल में, जिनका नि- __यह पुराण १२ आश्वासों या अध्यायो। र्वाण गमन अन्तिम तीर्थङ्कर "श्री महावीर में एक चम्पू ( गद्य पद्य मय काव्य) स्वामी के निर्वाण गमन से लगभग ६५ प्रन्थ है। इसे 'काव्य-रत्न' और 'पुराण८४००० वर्ष अधिक ७ सागरोपम काल
तिलक' भी कहते हैं । इस ग्रन्थ के विषय पहिले हुआ था, है । इनके शरीर की में कविरत्न का वचन है कि जिस प्रकार ऊँचाई लगभग ५० धनुष (१०० गज़) इस गून्थ से 'रन्न' वैश्यवंशध्वज फह
और आयु लगभग ४० लाख वर्ष की थी लाया, उसी प्रकार 'आदिनाथपुराण' इन का कुमारकाल आयु के चतुर्थ भाग से के कारण "आदि पंप” 'ब्राह्मण वंशध्वज' कुछ कम रहा । पश्चात् यह दिगम्बरी | कहलाया था । अजित-पुराण के एक पद्य दीक्षा लेकर कुमार काल से कुछ अधिक | से यह भी ज्ञात होता है कि पंप, पौन्न, समय तक संयमी रहे और तपश्चरण रन्न, यह तीन कवि कनड़ी साहित्य करते हुए ११ ज १० पूर्व के पाठी हो' (कर्णाटकीय भाषा) के 'रलत्रय हैं।
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| अजितपुराण वृहत् जैन शब्दार्णव
अजितब्रह्म नोट१-कविरत्न 'रन्न' वैश्यकुल भूषण चार्य 'श्री नेमचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती' जिन्हों| जिनवल्लभेन्द्र' के पुत्र थे । इनकी माता का | ने चामुण्ड राय की प्रेरणा से महान ग्रन्थ नाम 'अब्बलब्बे'था । इनका जन्म शक संवत् 'श्री गोमट्टसार' की रचना की, इसी कविरत्न -८७१ में तृदुबोल' नामक ग्राम में हुआ था। 'रन्न' के समकालीन थे। कबिरन, कविचक्रवर्ती, कविकंजरांकश, नोट २.-अजितपुराण जिस दानउभय भाषाकवि आदि इनकी पदवियां थी। चिन्तामणि स्त्री-रत्न "अत्तिमन्चे" के सन्तोयाह राज्यमान्य कवि थे। राजा की ओर से षार्थ रचा गया था वह उपयुक्त चालुक्य स्वर्णदड, चँवर, छत्र, हाथी आदि इनके साथ | वंशी राजा 'आहवमल्ल देव' के मुख्याधिकारी चलोथे। इनके गुरु 'अजितसेनाचार्य थे। 'मल्लिप' की सुशीला पुत्री थी। यह इसी गंगकुलचूड़ामणि महाराजा राचम' का राजा के महामंत्री 'दहिप' के सुपुत्र 'नागदेव' सुप्रसिद्ध जैन मंत्री 'चामुण्डराय' इस कवि- को विवाही गई थी जिसे बड़ा साहसी और रत्न का गुरु-भ्राता और सर्व प्रकार सहायक पराक्रमी देखकर चालुक्य चक्रवर्ती 'आहवव पोषक था। चालुक्य वंशी राजा आहवमल्ल' | मल्ल' ने अपना प्रधान सेनाप
| मल्ल' ने अपना प्रधान सेनापति बना दिया। भी इस कविरलका पोषक था। इस कविरल एक युद्ध में इस नागदेव के काम आजाने पर रचित 'साहलभीम विजय' या 'गदायुद्ध' इस की छोटी स्त्री 'गुंडमब्बे' तो इसके साथ | नामक एक अन्य ग्रन्थ भी इस समय उपलब्ध | सती होगई परन्तु 'अत्तिमब्बे' अपने प्रिय पुत्र है जो १० आश्वासों में विभक्त है। यह भी 'अन्नगदेव' की रक्षा करती हुई व्रतनिष्ठ होकर गद्य पद्य मय (चम्यू) हाहै। इस में महाभारत रहने लगी। जैन धर्म पर इसे अगाध श्रद्धा थी। कथा का सिंहावलोकन करके चालुक्यनरेश
| इसने स्वर्ण-मय रत्न जड़ित एक संहस्र 'आहवमल्ल' का चरित्र लिखा गया है जिसमें (१०००) जिनप्रतिमायें निरमाण कराकर प्रतिकविरत्न ने अपने पोषक 'आहबम' का
ठित कराई। बड़ी उदारता से लाखों मुद्रा पांडव 'भीमलेन' से मिलान किया है। यह का दान किया। दान में यह इतनी प्रसिद्ध बड़ा ही विलक्षण ग्रन्थ है। कर्णाटक कवि
हुई कि लोग इसे 'दानचिन्तामणि' के नाम से चरित्र का लेखक इस कविरत्न के सम्बन्ध में
इसका सम्मान करते थे । ( पीछे देखो शब्द लिखता है कि 'रन्न' कवि के ग्रन्थ सरस
'अजितनाथ पुराण' )॥ और प्रोढ़ रचना युक्त हैं । उसकी पद-सामग्री, अजितब्रह्म (अजित ब्रह्मचारी )-यह रचना-शक्ति और बन्ध-गौरव आश्चर्य- श्री देवेन्द्र कीर्ति भट्टारक के शिप्य १६ वीं जनक हैं। पद प्रवाहरूप और हृदयग्राही हैं। शताब्दी के एक प्रसिद्ध विद्वान ब्रह्मचारी इत्यादि...... ॥ इस कवि की अभिनव पंप, थे । यह गोलभंगार ( गोलसिंघाड़े) नयलेन, पाश्चे मधुर मंगरस, इत्यादि कार्णा- वंशी वैश्य थे । इन के पिता का नाम टिक भाषा के बड़े बड़े कवियों ने भी बहुत . 'वीरसिंह' और माता का नाम 'धीधा' या प्रशंसा की है । एक "रन्नकन्द' नामक 'पृथ्वी' था। श्री विद्यानन्दि' भट्टारक के ग्रन्थ भी इसी कविरत्न रचित है जो आदेश से इन्होंने भृगुकच्छ ( भिरोंच ) इस समय उपलब्ध नहीं है। सुप्रसिद्ध आ-| में जो बम्बई प्रान्त में नरबदा नदी के तट
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( १८७ ) | अजित ब्रह्मचारी वृहत् जैन शब्दार्णव
अजितसेन पर समुद्र के निकट एक प्रसिद्ध नगर है और अधिक से अधिक १६० तक भी हो जाते | 'हनुमच्चरित्र' नामक संस्कृत ग्रन्थ लिखा। हैं। इन जघन्य, मध्य या उत्कृष्ट संग्याके तीर्थकल्याणालोयणा (कल्याणालोचना)नामक ङ्करों के नामों में २० नाम उपयुक्त ही होते । प्राकृत ग्रन्थ के रचयिता यही विद्वान हैं | हैं । शेष नामों के लिये कोई नियम नहीं है।। जिस में ४६ आर्य छन्द ( गाथा छन्द) और त्रि० गा० ६८१, व पं० जवाहिरलाल । ५ अनुष्टुप छन्द, सर्व५४ छन्द हैं । 'उत्सव
। कृत ३० चौबीसी पाठ पद्धति' और 'ऊर्ध्वपद्धति' नामक ग्रन्थ भी
नोट-आगे देखो शब्द 'अढ़ाईद्वीप' इन ही की कृति हैं॥
के नोट ४ के कोष्ठ १,२, विशेष नोटों सहित, | अजितब्रह्मचारी-पीछे देखो शब्द 'अ
और शब्द 'विदेहक्षेत्र' ॥
• अजितशत्र-मगध-नरेश 'जरासन्ध' के जित ब्रह्म॥
'कालयवन' आदि अनेक पुत्रों में से एक भजित वीर्य-विदेह क्षेत्र में सदैव रहने | . का नाम । घाले २० तीर्थङ्करोंके २० नामों में से एक ॥ · यह महाभारत युद्ध में पाण्डवों के |
नोट१-विदेह क्षेत्र के २० तीर्थङ्करों के | हाथ से बड़ी वीरता के साथ लड़ कर कुशाश्वत नाम-(१) सीमन्धर (२) युगम
रुक्षेत्र के मैदान में काम आया॥ न्धर ( ३ ) बाहु (४) सुबाहु (५) संजात
__ (हरि० सर्ग ५२) (६) स्वयम्प्रभ (७) ऋषभानन (E) अनन्त- अजितषणाचार्य-विक्रम की १२ वीं या वीर्य (६) सूरप्रभ (१०) विशाल कीर्ति (११) १३ वीं शताब्दी के एक छन्द-शास्त्रश दिगवजूधर ( १२ ) चन्द्रानन (१३) भद्रबाहु म्बराचार्य ॥ (१४) भुजंगम (१५ ) ईश्वर ( १६ )नेमिप्रभ इन्होंने अलङ्कार-चिन्तामणि, छन्दशास्त्र, (१७) वीरषेण ( १८ ) महाभद्र ( १६) देव- वृत्तवाद, और छन्द-प्रकाश, आदि कई यश (२०) अजितवीर्य । (आगे देखा शब्द अच्छे अच्छे प्रन्थ रचे ॥ 'अढ़ाईद्वीप पाठ' के नोट ४ का कोष्ठ १,२)॥
(दि० प्र० ४ पृ०१) __ नोट २-अढ़ाईद्वीप के पांचो मेरु | अजितसागर-स्वामी-यह सिंह संघ | सम्बन्धी ३२, ३२ विदेह हैं। इन ३२ में से
में एक प्रसिद्ध विद्वान् हुए ॥ १६, १६ तो प्रत्येक मेरु को पूर्व दिशाको और __सिद्धान्तशिरोमणि' और 'षटखण्ड१६,१६ पश्चिम दिशा को हैं। पूर्व और पश्चिम
भूपद्धति'नामक ग्रन्थोंके यह रचयिता थे।। दिशा के १६. १६ विदेह भी दक्षिणी और
( देखो प्र० वृ० वि० च०)। उत्तरी इन दो दो विभागों में विभाजित हैं जिससे प्रत्येक विभाग में ८, विदेह हैं । इन
(दि० प्र०७ पृ० ३) प्रत्येक भाग के ८, = विदेहों में कम से कम | अजितसेन-(१) हस्तिनापुर नरेश ॥ एक एक तीर्थकर और अधिक से अधिक - यह काश्यप-गोत्री थे। इन की 'वाल८, ८ तीर्थङ्कर तक सदैव विद्यमान रहते हैं | चन्द्रा' (प्रियदर्शना ) रानी से महाराज जिस से सर्व १६० विदेहों में कम से कम २० विश्वसेन'का जन्म हुआ जिनकी महारानी
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( १८८ ) अजितसेन-आचार्य वृहत् जैन शब्दार्णव
अजितलेन-आचार्य 'ऐरादेवी' के गर्भ से १६वें तीर्थङ्कर 'श्री | (३) कौडिन्य गोत्री ब्राह्मण बेन्नाशान्तिनाथ' उत्पन्न हुए । ( शान्तिनाथ- मय्य का पुत्र एक प्रसिद्ध कर्णाटक जैनपुराण)॥
कवि 'नागवर्म' जो 'छन्दाम्धुधि' और (देखो ग्र० वृ० वि० च०) 'कादम्बरी' आदि कई ग्रन्थों का रचयिता (२) जम्बूद्वीपस्थ ऐरावतक्षेत्र के वर्त- था। (क० १%)॥ मान अवसर्पिणी के ६वें तीर्थङ्कर कानाम । (४) दक्षिण मथुरा ( मदुरा) का (अ. मा. अजियसेण )॥
गंगवंशी महाराजा'गचमल' जिसका मंत्री (३) स्वेताम्बरी अन्तगड़ सूत्र' के ती.
और गुरुभ्राता प्रसिद्ध कवि चामुण्डराय सरे वर्ग के तीसरे अध्याय का नाम ( अ.
था । (क० १७)॥
(५) महाराजा राचमल्ल'का मंत्री मा. अजियसेण)॥ ___ (४) भद्दलपुर निवासी नाग गाथा.
सेनापति 'चामुण्डराय' जो श्री गोम्मटसार पति की स्त्री 'सुलसा' का पुत्र जिसने
नामक सुप्रसिद्ध सिद्धान्त ग्रन्थ की रचना श्री नेमनाथ से दीक्षा लेकर और २० वर्ष
का प्रेरक और उस की कर्णाटक वृत्ति तक प्रवज्या पालन करके शझुंजय पहाड़
का कर्ता तथा 'त्रिषष्टिलक्षण-महापुराण'. पर से एक मासका संथारा कर निर्वाणपद
(चामुण्डराय पुराण ) और 'चारित्रसार' पाया। (अ. मा. अजिय सेण ) ॥
आदि का भी रचयिता था । (क० १७) ।
देखो शब्द "अण्ण' और 'चामुण्डभजितसेन-प्राचार्य-यह नन्दिसंघ के
राय' ॥ श्री सिंहनन्दी आचार्य के शिष्य और | ____ यह 'श्री अजितसेनाचार्य' उपयुक्त देशीय गण में प्रधान एक सुप्रसिद्ध दिग- | सिद्धान्त प्रन्थ श्री गोम्मटसार' अपर नाम स्बराचार्य थे जो विकूम की ११वीं शता
'पञ्चसंग्रह' के कर्ता 'श्री नेमिचन्द्र-सिद्धांत ब्दी में विद्यमान थे । श्री आर्यसेन मुनि चक्रवर्ती के समकालीन थे । यह सिद्धान्त इन आचार्य के विद्या-गुरु थे॥
शास्त्रों के पारगामी महान् आचार्य श्री ___निम्न लिखित सुप्रसिद्ध पुरुष इन |
नेमचन्द्र स्वरचित गोम्मटसार' ग्रन्थ के ही श्री अजितसेनाचार्य के मुरय शिष्य
• पूर्व भाग 'जीवकांड' की अन्तिम गाथा थेः
७३३ में, और उत्तर भाग 'कर्मकांड' की (१) मलधारिन पदवीधारक 'श्री म- प्रशस्ति सम्बन्धी गा० ६६६ में अपने अल्लिषेणाचार्य' जो विक्रम सं० १०५० की | न्यतम शिप्य चामुण्डराय को आशीर्वाद फाल्गुन ३० ३ को श्रवण बेलशुल में (मै- देते हुए इन ही 'श्री अजितसेनाचार्य' क सूर राज्य में) समाधिस्थ हुए थे । ( विद्व० जिन श्रेष्ठ माननीय शब्दों में स्मरण करते पृ० १५४-१५८)॥
(२) कर्णाटक देशीय सुप्रसिद्ध कविरत्न 'रन्न' जिसने कनड़ी भाषा में अजित- समूह संधारि अजियसेव गुरू । पुराण नामक ग्रन्थ रचा । (देखो शब्द भुवणगुरू जस्स गुरू . अजितपुराण')॥
सो रामो गोम्मटो जय ॥७३३॥
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(१८)
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अजितसेन-आचार्य वृहत् जैन शब्दार्णव
अजितसेन-चकी . अर्थ--श्री आर्यसेन आचार्य के अनेक प्रतिमा का विन्ध्यागिरि की 'गोमन्त' ( गोगुणगण को धारण करने वाले और तीन लोक म्मट ) नामक चोटी पर निर्माण और उस के गुरु श्री अजितसेन आचार्य जिसके गुरु की प्रतिष्ठा अपरिमित धन लगा कर कराई। हैं वह श्री गोम्मट राजा (चामुण्डराय) थी और जिस का नाम उस पहाड़ी के नाम जयवन्त रहो ॥ ७३३ ॥
ही पर 'श्री गोमन्तस्वामी' या 'गोम्मटेश्वर' जम्हि गुणा विस्संता .
लोक प्रसिद्ध हो गया होगा इसी से सम्भव ___गणहर देवादिदेढिपत्ताणं ।
है चामुण्डराय को नाम भी 'गोम्मटराय'
प्रसिद्ध हुआ हो । अथवा यह भी संभव है सो अजिय सेणणाहो
कि अन्य किसी कारण से चामुण्डराय का जस्स गुरू जयउ सो गयो।।६६६॥ नाम अन्य उपनामों के समान' 'गोमन्तराय' ____ अर्थ--जिस में बुद्धिआदि ऋद्धि-प्राप्त या 'गोम्मटराय' पड़ गया हो और फिर इस गणधर देवादि मुनियों के गुण विश्राम पा की प्रतिष्ठा कराई हुई 'श्री बाहुबली' की प्रके ठहरे हुए हैं अर्थात् गणधरादिकों के स- तिमा का नाम, तथा पर्वत के जिस शिखर | मान जिसमें गुण हैं ऐसा अजितसेन नामा- पर यह प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई गई उन दोनों मुनिनाथ जिस का व्रत (दीक्षा ) देने वाला ही का नाम 'गोमन्तराय' या 'गोम्मटराय' के गुरु है वह चामुण्डराय सर्वोत्कृष्टपने से जय नाम पर 'गोम्मटेश्वर' और 'गोम्मटगिरि' पायौ ॥ ६६६ ॥
प्रसिद्ध हो गया हो । ( देखो शब्द 'अण्ण' नोट-उपर्युक्त गाथा ७३३ से जाना और 'चामुंडराय')" जाता है कि 'चामुण्डराय' का समर-धुरन्धर, अजितसेन-चक्री-अष्टम तीर्थहूर 'श्री. वीरमार्तण्ड; सम्यक्तरत्नाकर आदि अनेक चन्द्रप्रभ' का पञ्चम पूर्वभव-धारी एक उपनामों में से एक नाम 'गोम्मटराय' भी धर्मश चक्रवर्ती राजा॥ था । इससे ऐसा भी अनुमान होता है कि यह अजितसेनचक्री अलका देश की उपर्युक्त पश्च-संग्रह' नामक सिद्धान्त ग्रन्थ राजधानी 'कोशलापुरी' के राजा 'अजितंजिसे चामुण्डराय या गोम्मटगय की प्रा. जय' का पुत्र था जो महारानी 'अजितर्थना पर ही गून्थकर्ता ने रचा था और जिस | सेना' के उदर से उत्पन्न हुआ था । की कर्णाटकवृत्ति भी इसी 'गोम्मटराय' ने राजा अजिसअय ने जय राजकुमार की थी उसका दूसरा नाम गोम्मटसार' | अजितसेन को युवराजपद देदिया तब गोम्मटराय ही के नाम पर लोकप्रसिद्ध पूर्व जन्म का एक शत्र 'चंडरुधि' नामक हुआ हो॥
'असुर उसे हर ले गया। शत्रु के पंजे से चामुण्डराय का यह 'गोम्मटराय' | छूटने पर 'अरिंजयदेश' के विपुल पुराधीश उपनाम इस कारण से प्रसिद्ध हुआ ज्ञात 'जषधर्मा' की शशिप्रभा नामक पुत्री के होता है कि इस ने जो 'श्री ऋषभदेव' के साथ अजितसेन का विवाह हुआ। पुत्र भरतचक्रवर्ती के लशुभ्राता 'श्री बाहु- आदित्यपुर के विद्याधर राजा धरणीधर बली' स्वामी की मुनि-अवस्था की विशाल | को युद्ध में परास्त करने के पश्चात् जब
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। १० ) अजितसेन चकी वृहत् जैन शब्दार्णव
অসিন। यह भारी सम्पत्ति के साथ अपने नगर अजितसेन-भट्टारक-कनड़ी भाषा 'कौशलापुरी' को वापिस आया तभी
के चामुण्डरोय पुराण ( त्रिषष्टि लक्षणमहान् पुण्योदय से आयुधशाला में इसे
महापुराण ) की संस्कृत-कनड़ीमिश्रित 'चक्ररत्न' को लाभ हुआ।
टीका के रचयिता एक भट्टारक (दि. ___ पश्चात् अजितसेन ने जब दिग्विजय |
ग्र०५)॥ द्वारा भरतक्षेत्र के छहों खंडों को अपने
अजितसेना-कोशलापुरी-नरेश 'अजितं. अधिकार में ले लिया तो यह १४ रत्न और नवनिधि आदि विभूति का स्वामी होकर
जय' की रानी और अजितसेनचक्री की ३२ सहस्र मुकुटबन्ध राजाओं का स्वामी
मोता। पूर्ण चक्रवर्ती राजा होगया ।
(देवो शब्द 'अजितसेनचक्री' ) ॥ कुछ दिन राज्यवैभव भोगकर 'श्री अजिता-(१) गान्धार नरेश 'अजितञ्जय' गणप्रभ' नामक मुनिराज से अजितसेन ने
की रानी और श्री शान्तिनाथ तीर्थकर की दिगम्वरी दीक्षा ग्रहण की । उग्रोप्र तपश्च
नानी ।। रण कर समाश्मिरण पूर्वक शरीर त्यागने (२) चौबीस तीर्थङ्करों की.मुख्य उपा पर १६ वें स्वर्ग में 'अच्युतेन्द्र' पद प्राप्त सिका जो चौबीस शासन देवियां हैं उनमें किया जहां की २२ सागरोपम की आयु | से दूसरी का नाम । इसका नाम 'अजितपूर्ण करके तीसरे जन्म में रत्न संचयपुर- | । बला' भी है। नरेश 'कनकप्रभ' कापुत्र 'पद्मनाम' हुआ। ___नोट१-२४ शासन देवयां २४ तीर्थङ्करों
पद्मनाभ के भव में राज्य विभव भोगने की भत क्रम से निम्न प्रकार हैं:के पश्चात् उसने उग्रोग्र तपश्चरण करते अप्रतिहत चक्रेश्वरी, २. अजिता, ३. हुए षोडशकारण भावनाओं द्वारा तीर्थङ्कर- नम्रा,४.दुरितारि..मोहिनी.७.मानवा,म.ज्वानामकर्म का महान पुण्यबन्ध किया और लामालिनी, भृकुटी,१०.चामुंडा,११.गोमेधआयु के अन्त में समाधिमरण पूर्वक शरीर का,१२.विद्युन्मालिनी,१३.घिद्या, १४.कंभिणि, त्याग पंच-अनुत्तर विमानों में से धैजयन्त' | १५. परभृता, १६. कन्दर्पा, १७. गान्धारिणी, नामक विमान में चौथे भव में अहमिन्द्र | १८. काली, १६. मनजात, २० सुगन्धिनी, पद पाया ॥
२१. कुसुममालिनी. २२. कुमांडिनी, २३. __ तत्पश्चात् उसने अहमिन्द्र पद के महान पद्मावती, २४. सिद्धायिनी । ( प्रतिष्टा० सुखों को ३३ सागरोपमकाल तक भोग | अ० ३ श्लोक १५४-१७९ ) ॥ कर और पांचवें जन्म में चन्द्रपुरी के इक्ष्वा- | .
___ (३) पूर्वादि चार दिशा और कुषंशी राजा 'महासेन' की पटरानी 'लक्ष्मणादेवी' के गर्भ से श्री चन्द्रप्रभ' नामक
आग्नेयादि चार विदिशा सम्बन्धी अष्टम तीर्थकर होकर निर्वाण पद पाया।
देवियों में से पश्चिम दिशा सम्बन्धी एक ( देखो शब्द 'चन्द्रप्रभ' और 'प्र० पृ०
देवी का नाम । वि०च०')॥
नोट-२. पूर्वादि चार दिशाओं और (चन्द्र प्रभ चरित्र) आग्नेयादि चार विदिशाओं सम्बन्धी देखियो ।
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किरिया' )॥
( १६९ ) | अजीव वृहत् जैन शब्दार्णव
अजीवकाय-असंयम के नाम क्रम से निम्न लिखित हैं:- पांचों में से प्रत्येक का विशेष स्वरूपादि
१. जया, २. विजया, ३. अजिता, | यथा स्थान देखें। ४. अपराजिता.५. जम्भा,६. मोहा,७. स्तम्भा. | अजीव-अप्रत्याख्यानक्रिया-मदिरा ८. स्तम्भिनी । (प्रतिष्ठा. अ. ३, श्लोक २१४,
आदि अजीव वस्तुओं का प्रत्याश्यान २१९)॥
(निराकरण, तिरस्कार ) न करने से होने । (४) भाद्रपद कृ० ११ की तिथि का
वाला कर्म धन्धन; अप्रत्याख्यानक्रिया का 1 नाम भी 'अजिता' है । इसी को 'अन्या
एक भेद (अ. मा. 'अजीव-अपचक्खण | एकादशी', 'अजा ११' या 'जया ११' भी | कहते हैं। (५) चौये तीर्थंकर श्री अभिनन्दन
अजीव-अभिगम ( अजीवाभिगम )नाथ की मुख्य साध्वी । (अ.मा. अजिपा, |
गुणप्रत्यय अवधि आदि शान से पुद्गअजिआ)॥
लादि का बोध होना ( अ. मा.)॥ अजीव-जीव-रहित, निर्जीव, अचेतन, अजीव-आनायनी-अजीव वस्तु मँगाने अड़ पदार्थ, जीव के अतिरिक्त विश्व भर के से होने वाला कर्मबन्ध; आनाया क्रिया अन्य सर्व पदार्थ; विश्व रचना के दो अङ्गों | का एक भेद (अ. मा. 'अजीवआणवया दो हेयोपादेय द्रव्यों-जीव और णिया' )॥ अजीव-में से एक अङ्गया एक हेय द्रव्य । भजीव-आरम्भिका-अजीघ कलेवर के जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, नि.
| निमित्त आरम्भ करने से होने वाला कर्मजरा, मोक्ष, इन सात प्रयोजनभूत (शुद्धा
बन्ध; आरम्भिका क्रिया का एक भेद ।। त्मपद यो मक्ति ग्द की प्राप्ति के लिये
(अ.मा.)॥ प्रयोजन भूत ) तत्वों या पुण्य और पाप सहित नव प्रयोजनभूत पदार्थों में से
अजीव-प्राज्ञापनिका-अजीव सम्बंधी दूसरा प्रयोजनभूत तत्व या पदार्थ ॥ आशा करने से होने वाला कर्मबन्ध; आ
अजीव बह तत्त्व यो पदार्थ है जो दर्शनो- शापनिका क्रिया का एक भेद । ( अ. मा. पयोग और ज्ञानोपयोग रहित (देखने और 'अजीव-आणवणिया' )॥ जानने की शक्ति रहित) है अर्थात् जो चेतना अजीव-काय-जीवरहित काय; धर्मास्तिगुण वर्जित है। इस के ५ भेद हैं (१)
काय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गल (२) धर्मास्तिकाय (३) अधर्मास्ति
पुद्गलास्तिकाय, यह चार द्रव्य, पंचाकाय (४) आकाश और (५) काल ॥
स्तिकाय में से एक जीवास्तिकाय को ___ अजीव द्रव्य के इन उपयुक्त पाँचौ
छोड़ कर शेष चार द्रव्य; षट द्रव्य में से भेदों में से प्रथम भेद “पुद्गल द्रव्य" तो
जीवद्रव्य और कालद्रव्य इन दो को छोड़ स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण गुण विशिष्ट !
कर शेष चार द्रव्य ॥ और शब्द पर्याय युक्त होने से 'रूपी द्रव्य' है और शेष चारों 'अरूपी दव्य' हैं।इन | अनावकाय-असयम-वस्त्र पात्र आदि ।
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( १६२ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अजीवकाय असमारम्भ
अजीव वस्तुओं का उपयोग करने से होने वाली हिंसा । ( अ.मा. 'अजीवकाय असं
.
जम' )॥
अजीव काय असमारम्भ-वस्त्र, पात्र
आदि अजीव वस्तुओं को उठाने धरते किसी प्राणी को दुःख न देना । ( अ. मा. 'अजीव काय असमारंभ' ) ॥ अजीव काय आरम्भ - वस्त्र पात्रादि उठाते रखने किसी प्राणी को दुःख देना (अ. मा. 'अजीवकाय आरंभ' ) ॥ अजीव काय - संयम-वस्त्र. पात्र, पु. स्तक आदि उठाते रखते यत्नाचार रा कि किसी प्राणी को कष्ट न पहुँचे। (अ. मा. 'अजीव काय-संजम' ) ॥ जीवक्रिया - अजीव का व्यापार पुद्गल समूह का ईर्यापथिक बन्ध, या सांप्रायिकबन्ध रूप से परिणमना; हरियावहिया और सांपरायिकी, इन दोनों क्रियाओं में से एक (अ.मा. 'अजीव किंरिया') ॥
अजीगत हिंसा - अजीवाधिकरण हिंसा. किसी अजीव पदार्थ के आधार से होने वाली हिंसा, पौद्गलिक द्रश्य के आवार से होने वाली हिंसा ॥
T
आवार अपेक्षा हिंसा दो प्रकार की है -- (१) जीवगत हिंसा या जीवाधिकरण हिंसा और (२) अजीवगत हिंसा या अजीकिरण हिंसा । इनमें से दूसरी अजीव गत हिंसा या अजीवाधिकरण-हिंसा के मूल भेद ४ और उत्तर भेद११ निम्न प्रकार हैं : :१. निक्षेपाधिकरण हिंसा - - (१) सहसा निक्षेपाधिकरण हिंसा (२) अनाभोग निक्षेपाधि करण हिंसा (३) दुःप्रमृष्ट निक्षेपाधिकरण
अजीवगत हिंसा
हिंसा (४) अप्रत्त्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण हिंसा;
२. निर्वर्तनाधिकरण हिंसा-- (१) देहदुः प्रयुक्त निर्वर्तनाधिकरण हिंसा (२) उपकरण निर्वर्तनाधिकरण हिंसा;
३. संयोजनाधिकरण हिंसा -- (१) उपकरण संयोजनाधिकरण हिंसा ( २ ) भक्तपानसंयोजनाधिकरण हिंसा;
४. निसर्गाधिकरण हिंसा - (१) काय निसर्गाधिकरण हिंसा (२) वाकू निसर्गाधिकरण हिंसा (३) मनो निसर्गाधिकरण हिंसा || ( प्रत्येक का लक्षण स्वरूपादि यथा स्थान देखें ) !!
( भगवती अ० सार गा० ८०६ - ८१४ ) नोट१. - प्रमादवश अपने व परके अथवा क्षेत्रों के किसी एक या अधिक भावप्राण या द्रव्यप्राण या उभयप्राणों का व्यपरोपण करना अर्थात् घाना या छेदना 'हिंसा' है ॥
( तत्त्वार्थ सूत्र अ० ७ सू० १३) नोट २. -- स्वरूप की असावधानता या मनकी अनवधानता का नाम प्रमाद' है । इस
के मूल भेद कपाय, विकथा, इन्द्रिय विषय, निद्रा और स्नेह, यह ५ हैं । इनके उत्तर भेद क्रम से ४,४,५,९,१ एवम् सर्व १५ हैं और विशेष भेद ८० तथा ३७५०० हैं । इनका अलग २ विवरण जानने के लिये देखो शब्द 'प्रमाद' ॥
नोट ३. - जिनके द्वारा या जिनके सद्भाव में जीव में जीवितपने का व्यवहार किया जाय उन्हें 'प्राण' कहते हैं । इनके निम्न लिखित सामान्य भेद ४ और विशेष भेद १० हैं : --
१. इन्द्रिय-- स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु,
श्रोत्र;
२. बल - - मनोबल, वचनबल, काय बल;
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( १९३ ) अजीवगत हिंसा बृहत् जैन शब्दार्णव
अजीवगत हिंसा ३. श्वासोच्छूनाल;
| कराई हुई हिंसा और ९ प्रकार की मनुमो४. आयु।
दित अर्थात् अनुमोदन या प्रशंसा की हुई | इन १० में से मनोबल और पाँचों- | हिंसा, एवम् २७ प्रकार की हिंसा है ॥ इन्द्रिय, यह छह प्राण जो स्वपर पदार्थ को यह २७ प्रकार की क्रोधवश हिंसा, ग्रहण करने में समर्थ लब्धि नामक भावेन्द्रिय | २७ प्रकार की मानवश हिंसा, २७ प्रकार की रूप हैं, वह 'भाव-प्राण' हैं और शेष चार मायाचारयश हिंसा और २७ प्रकार की 'द्रव्यप्राण' हैं।
लोभवश हिंसा, एवम् सर्व १०८ प्रकार की | (गो० जी० १२८, १२९, १३०) | हिंसा है ॥ ___नोट ४.-हिंसा के उपयुक्त दो भेदों | उपयुक्त १०८ प्रकार की हिंसा अमें से पहिली जीधगत हिंसा या जीवाधिक- | नन्तानुबन्धी कषायचतुष्कवश, अप्रत्याख्यारण हिंसा के निम्न लिखित १०८ या ४३२ | नावरणी कषायचतुष्कषश, प्रत्याख्यानावभेद हैं:
रणी कषायचतुष्कवश, या संज्वलन कषाय१. जीवगत हिंसा के मूलभेद (१) सं- चतुष्कवश होने से ४३२ प्रकार की है। प्ररम्भजन्य हिंसा (२) समारम्भजन्य हिंसा (३) कारान्तर से इसके अन्य भी अनेक भेद हो आरम्भजन्य हिंसा, यह तीन हैं । इन में से | सकते हैं । प्रत्येक प्रकार की हिंसा मानसिक, वाचनिक उपरोक्त १०८ भेदों में से प्रत्येक भेद
और कायिक इन तीन प्रकार की होने से इस का या यथाइच्छा चाहे जेथवें भेद का अलग हिंसा के ३ गुणित ३ अर्थात् ६ भेद हैं ॥ अलग नाम निम्न लिखित प्रस्तार की सहा
यह प्रकार की कृत अर्थात् स्वयम् | यता से बड़ी सुगमता से जाना जा सकता की हुई हिंसा, ६ प्रकार की कारित अर्थात् | है:
जीवगत हिंसा के १०८ भेदों का प्रस्तार :
प्रथमपंक्ति
संरम्भजन्य हिंसा १ समारम्भजन्य हिंसा २ आरम्भजन्य हिंसा ३
द्वितीय पंक्ति | मानसिक
. याचनिक
३ कायिक
तृतीय पंक्ति | स्वकृत
० कारित
| अनुमोदित
१८
लोभ५४ वश
चतुर्थ पंक्ति | कोधवश
. मानवश
-
२७ मायावश
अभीप्ट भेद जानने की विधि-प्रमाण जोड़ इस प्रस्तार की चारों पक्तियों (१) जीवगत हिंसा के १०८ भेदों में के जिन जिन कोष्ठकों के अङ्कों, या अङ्कों और से जेथयों भेद हमें जानना अभीष्ट है उसी | शून्यों का हो उसी उसी कोष्ठक में लिखे
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( १६४ ) अजीवगत हिंसा वृहत् जैन शब्दार्णव
अजीवगत हिंसा शब्द (अक्ष) कम से ले लेने या लिख लेने पर शून्य ( स्वकृत ). शूय (मानसिक ), अभीष्ट भेद का नाम प्राप्त हो जायगा । और ३ ( आरम्भजन्य हिंसा) लेने से ज्ञात । (२) यह ध्यान रहे कि ज्ञात-जोड़ प्राप्त | जोड़ ३० प्राप्त होता है । अतः 'मानवशकरने के लिये प्रत्येक ही पंक्ति का कोई न स्वकृत-मानसिक-आरम्भजन्य हिंसा', यह ३० कोई अङ्क अथवा शन्य लेना आवश्यकीय है ॥ | धाँ अभीष्ट भेद है।
(३) यह भी ध्यान रहे कि एक पंक्ति ___उदाहरण तीसग-हमें ५४ वां भेद का यथाआवश्यक कोई एक ही अङ्क अथवा | जानना अभीष्ट है। शून्य लिया जावे ॥
. यहां उपर्युक्त विधि के नियमों को (४) सुगमता के लिये यह भी ध्यान
गम्भीर दृष्टि से विचारे बिना और शब्द रहे कि अभीष्ट जोड़ प्राप्त करने के लिये च
'यथाआघश्यक' पर पूर्ण ध्यान न देकर यदि तुर्थ पंक्ति से प्रारम्भ फरके ऊपर ऊपर की
बड़े से बड़ा अङ्क चतुर्थ पंक्ति से ५४ ले पंक्तियों के कोष्ठकों से यथाआवश्यक बड़े
लिया जाय तो चारों ही पंक्तियों का से बड़ा अङ्क अथवा शून्य लिया जाय ॥ .
ज्ञात जोड ५४ लाने के लिये तृतीय और उदाहरण-जीवगत हिंसा के १०८
द्वितीय पंक्तियों से तो हम.शन्य ले लेंगे भेदों में से हमें २५वे भेद का नाम जानना | परन्तु प्रथम पंक्ति के किसी कोष्ठक में शून्य अभीष्ट है।
न होने से इस पंक्ति से कोई अङ्क न लिया जा उपयुक्त विधि के अनुकूल | सकेगा जो उपयुक्त नियम विरुद्ध है और यदि अन्तिम पंक्ति से शून्य (क्रोधवश ), तृतीय कोई अङ्क लेंगे तो जोड़ ५४ से बढ़ जायगा। पक्ति से १८ ( अनुमोदित), द्वितीय पंक्ति | अतः हमारी आवश्यक्तानुकूल बड़े से से ६(कायिक ), और प्रथम पंक्ति से १ बड़ा अङ्क चतुर्थ पक्ति से ७ (मानवश ), (संरम्भजन्य हिंसा) लेने से ज्ञात जोड़ तृतीय से १४ (अनुमोदित), द्वितीय से २५. प्राप्त होता है। अतः इन ही शन्य ६ (कायिक ), और प्रथम से ३ (आरऔर अङ्कों के कोष्ठकों में लिखे शब्दों म्भजन्य हिंसा) लैने से ज्ञात जोड ५४ (अक्षों) को क्रम से ले लेने या लिख लेने प्राप्त हो जाता है। अतः 'मानवश अनुमो. पर "कोधवश-अनुमोदित-कायिक-संरम्भ-दित-कायिक-आरम्भजन्य हिंसा', यह ५४वां | जन्य-हिंसा', यह २५वें भेद का नाम जान | | अभीष्ट भेद है । लिया गया ॥
उदाहरण चौथा- ६३ वा भेद हमें उदाहरण दूसरा-हमें जीवगत हिंसा
हिरण दूसरा- जात हता| जानना है। के १०८ भेदों में से ३०वां भेद जानना उपयुक्त दिये हुए नियमों के अनुकूल अभीट है।
| बड़े से बड़े अङ्क चतुर्थादि पंक्तयों से कम से . उपयुक्त विधि के अनुकूल बड़े | ८१,8, ०, ३ लैने से इनका जोड़ ६३ प्राप्त से बड़े अङ्कचतुर्थ, तृतीय, द्वितीय और | होता है। अतः इन अङ्कों वाले कोष्ठों में प्रथम पंक्तियों से कम से २७. (मानवश ), | लिखे शब्द क्रम से लैने पर "लोभवश-कारित
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(१६५ ) अजीवगत हिंसा वृहत् जैन शब्दार्णव
अजीवगत हिंसा मानसिक अारम्भजन्य हिंसा" यह ६३ वां का सुगमता के लिये नीचे दिये जाते हैं:-. । भेद ज्ञात हो गया ॥
१. क्रोधवश स्वकृत मानसिकनोट५-दूसरे और चौथे उदाहरणों में
संरम्भअन्य हिंसा यदि ३ का अङ्क प्रथम पंक्ति से न लेकर २. क्रोधवश स्वकृत मानसिकद्वितीय पंक्ति से ही ले लिया जाता तो अभीष्ट
समारम्मजन्य , जोड़ ३० या ९३ तीन ही प.क्तयों तक पूरा ३. क्रोधवश स्वकृत मानसिक हो जाने से और प्रथम पंक्ति में शून्य न होने
आरम्भजन्य से यह पंक्ति बिना अङ्क या शन्य लिये ही | ४. क्रोधवश स्वकृत पाचनिक- . . छूट जाती । इसो लिये द्वितीय पंक्ति से ३ |
संरम्भजन्य , का अङ्क न लेकर शन्य ही लिया गया है ॥ ५. क्रोधवश स्वकृत वाचनिकनोट ६-यदि जीवगत हिंसा के १०८
समारम्भजन्य , भेदों में से किसी भेद के शात नामके सम्बन्ध ६. क्रोधवश स्वकृत वाचनिकमें हमें यह जानना हो कि अमुक नाम वाला
आरम्भजन्यः - भेद गणना में केथवाँ है तो निम्न लिखित | ७. क्रोधवश स्वकृत कायिक- .. विधि से यह भी जाना जा सकता है.:
संरम्भजन्य " विधि-ज्ञात नाम जिन चार अङ्गों या | ८. क्रोधवश स्वकृत कायिकशब्दों के मेल से बना है वे शब्द ऊपर दिये
समारम्भजन्य.. हुए प्रस्तार में जिन जिन कोष्ठों में हो उनके | ६. क्रोधवश स्वकृत कायिकअङ्क, या शून्य और अङ्क जोड़ने से जो कुछ
__ आरम्भलत्य जोड़ फल प्राप्त होगा वही अभीष्ट अङ्क यह
१०. क्रोधवश कारित मानसिक बतायेगा कि ज्ञात नाम केथवां भेद है॥
संरम्भजन्य , उदाहरण- "लोभवश-कारित-मान- | ११. क्रोधवश कारित मानसिकसिक-आरम्भजन्य हिंसा' यह नाम जीवगत.
समारम्भजत्य. , हिंसा के १०८ भेदों में से कंथवां भेद है ? ।
१२. क्रोधवश कारित मानसिक
आरम्भजन्य , ज्ञात नाम के चारों अङ्गरूप शब्दों को
१३. क्रोधवश कारित वाचनिकप्रस्तार में देखने से 'लोभवश' के कोष्ठ में
संरम्भअन्य. .. ८१, 'कारित' के कोष्ठ में ६, 'मानसिक' के
१४. क्रोधका कारिल वाचनिककोष्ठ में शून्य, और आरम्भ जन्य-हिंसा के
समारम्भजन्य कोष्ठ में ३, यह अङ्क मिले । इन का जोड़ फल | १५. क्रोधवश कारित वाचनिक१३ है । अतः जीवगत हिंसा का ज्ञात नाम | ..
आरम्भजन्य , ९३ वां भेद १०८ भेदों में से है। | १६. क्रोधवश कारित कायिकनोट ७-ऊपर दिये हुए प्रस्तार की
___संरम्भजन्यः , सहायता से जीवगत हिंसा के १०८ भेदों के | १७. कोधवश कारित कायिकसर्व अलग २ नाम निकाल कर बाल-पाठकों |, .
समारम्भजन्य
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अजीवगत हिंसा - वृहत् जैन शब्दार्णव
अजीवगत हिंसा १८. कोधवश कारित कायिक
३५. मानवश स्वकृत कायिक- आरम्भजन्य हिंसा
समारम्भजन्य हिंसा १६. कोधवश अनुमोदित मानसिक | ३६. मानवश स्वकृत कायिक- . संरम्भजन्य ,
आरम्भजन्य ,, २०. कोधवश अनुमोदित मानसिक- ३७. मानवश कारित मानसिक. समारम्भजन्य ,
संरम्भजन्य , २१. कोधवश अनुमोदित मानसिक ३८. मानवश कोरित मानसिक आरम्भअन्य ,
समारम्भजन्य , २२. कोधवश अनुमोदित वाचनिक- २६. मानवश कारित मानसिक- . - संरभिजन्य ,
आरम्भजन्य, २३. कोधवश अनुमोदित वाचनिक- ४०. मानवश कारित वाचमिकसमारम्भजन्य ,
संरम्भजन्य ,, २४. कोधवश अनुमोदित वाचनिक- ४१. मानवश कारित वाचनिक आरम्भजन्य ,
. समारम्भजन्य :, २५. फोधवश अनुमोदित कायिक- ४२ मानवश कारित वाचनिकसंरम्भजन्य ,
आरम्भजन्य , २६. कोधवश अनुमोदित कायिक- ४३. मानवश कारित कायिकसमारम्भजन्य,
__ संरम्भजन्य , २७. कोधवश अनुमोदित कायिक
४४. मानवश कारित कायिक
.. , समारम्भजन्य , २८. मानवश स्वकृत मानसिक
४५. मानवश कारित कायिकसंरम्भजन्य ,
, आरम्भजन्य ,, २६. मानवश स्वकृत मानसिक
४६. मानवश अनुमोदित मानसिकसमारम्भजन्य ,
___ संरम्भजन्य , ३०. मानवश स्वकृत मानसिक
४७. मानवश अनुमोदित मानसिकआरम्भजन्य
समारम्भजन्य , ३१. मानवश स्वकृत वाचनिक
४८. मानवश अनुमोदित मानसिकसंरम्भजन्य ,
आरम्भजन्य , ३२. मानवश स्वकृत पावनिक... ४६. मानवश अनुमोदित वाचनिकसमारम्भजन्य ,
संरम्भजन्य , .३३. मानघश स्वकृत वाचनिक- ... । ५०. मानवश अनुमोदित वाचनिक__ आरम्भजन्य ,
समारम्भजन्य , ३४. मानवश स्वकृत कायिक-... | ५१. मानवश अनुमोदित वाचनिकसंरम्भजन्य ,
आरम्भजन्य".
आरम्भजन्य
I
:
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समारम्भजन्य "
( १६७ ) . अजीवगत हिंसा वृहत् जैन शब्दार्णव
अजीवगत हिंसा ५२. मानवश अनुमोदित कायिक- ६६. मायावश कारित वाचनिक-.. संरम्भजन्य हिंसा
आरम्भजन्य हिंसा ५३. मानवश अनुमोदित-कायिक- | ७०. मायावश कारित कायिक__ समारम्भजन्य ,
संरम्भजन्य , ५४. मानवश अनुमोदित-कायिक- | ७१. मायाघश कारित कायिक
आरम्भजन्य , ५५. मायावश स्वकृत मानसिक
७२. मायावश कारित कायिकसंरग्भजन्य ,
आरम्भजन्य , ५६. मायावश स्वकृत-मानसिक
७३. मायावश अनुमोदित मानसिकसमारम्भजन्य ,
संरम्भजन्य , ५७. मायावश स्वकृत-मानसिक
७४. मायावश अनुमोदित मानसिकआरम्भजन्य "
समारम्भजन्य , ५६. माया स्वकृत वाचनिक- ७५. मायावश अनुमोदित मानसिकसंरम्भजन्य ,
__आरम्भ जन्य , ५६. मायावश स्वकृत-वाचनिक
७६. मायावश अनुमोदित वाचनिक. समारम्भजन्य ,
.. संरम्भजन्य , ६०. मायावश स्वकृत-वाचनिक
७७. मायावश अनुमोदित वाचनिकआरम्भजन्य,
समारम्भजन्य , ६१. मायावश स्वकृत-कायिक
७४. मायावश अनुमोदित वाचनिक-.. संरम्भजन्य , .
आरम्भजन्य ,। ६२. मायावश स्वकृत-कायिक
| ७६. मायावश अनुमोदित कायिकसमारम्भजन्य ,,
संरम्भजन्य , ६३. मायावश स्वकृत-कायिक
८०. मायावश अनुमोदित कायिकआरम्भजन्य "
समारम्भजन्य , ६४. मायावश कारित-मानसिक
८१. मायावश अनुमोदित कायिकसंरम्भअन्य ,
- आरम्भजन्य , ६५. मायावश कारित-मानसिक
८२. लोभवश स्वकृत मानसिक- .:: समारम्भअन्य ,
संरम्भजन्य, ६६. मायावश-कारित-मानसिक
८३. लोभवश स्वकृत मानसिक• . आरम्भजन्य ,
समारम्भजन्य , | ६७. मायावश कारित-पाचनिक
८४. लोभवश स्वकृत मानसिक-. . . . संरम्भजन्य ,
आरम्भजन्य , ६८. मायावश कारित वाचनिक- ८५. लोभवश स्वकृत वाचनिक ....... समारम्भजन्य ,
संरम्मजन्य..,
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. ( १९८ ) अजीवतग हिंसा . वृहत् जैन शब्दार्णव
अजीवगत हिंसा
१००. लोभवश अनुमोदित मानसिक८६. लोभवश स्वकृत वाचनिकसमारम्भजन्य हिंसा
संरम्भजन्य हिंसा ८७. लोभवश स्वकृत वाचनिक
१०१. लोभवश अनुमोदित मानसिकआरसभजन्य ,
समारम्भजन्य , ८८. लोभवश स्वकृत कायिक
१०२. लोभवश अनुमोदित मानसिकसंरभजन्य ,
आरम्भजन्य , ८६. लोभवश स्वकृत कायिक
१०३. लोभवश अनुमोदित वाचनिकसमारभजन्य "
. संरम्भजन्य , १०. लोभवश स्वकृत कायिक
१०४. लोभवश अनुमोदित वाचनिकआरम्भजन्य ,
समारम्भजन्य , ६१. लोभवश कारित मानसिक १०५. लोभवश अनुमोदित वाचनिकसंरम्भजन्य
आरम्भजन्य, १३. लोभवश कारित मानसिकसमारभ्भजन्य ,
१०६. लोभवश अनुमोदित कायिक ९३. लोभवश कारित मानसिक
__संरम्भजन्य , आरम्भजन्य. "
लोभवश अनुमोदित का क-मि ६४. लोभवश कारित वाचनिक
समारम्भजन्य , संरम्भजन्य , १०८. लोभवश अनुमोदित कायिक६५. लोभवश कारित वावनिक
आरम्भजन्य , समारम्भजन्य "
नोट -यदि जीवगत हिंसा के ४३२ ६६. लोभवश कारित वाचनिक
भेदों में से प्रत्येक भेद का या यथाइच्छा
आरम्भजन्य " ९७. लोभवश कारित कायिक
चाहे जेथवें भेद का नाम जानना हो अथवा संरम्भजन्य
इसके विपरीत, नाम ज्ञात होने पर यह ९८. लोभवश कारित कायिक
जानना हो कि यह केथवां भेद है तो १०८ समारम्भजन्य भिंदों बाले ऊपर दिये हुए प्रस्तार ही की स९९. लोभवश कारित कायिक- ।मान नीचे दिये हुए दो प्रस्तारों में से किसी
आरम्भजन्य , एक की सहायता से काम लिया जाय:जीवगत हिंसा के ४३२ भेदों का प्रथम प्रस्तार ।
प्रथम पंक्ति | संरम्भजन्य हिंसा समारंभजन्य हिंसा आरम्भजन्य हिंसा
द्वितीय पंक्ति मानसिक
वाचनिक
३ | कायिक
तृतीय पंक्ति स्वकृत
कारित
६ अनुमोदित १८
चतुर्थ पंक्ति कोधवश
... मानवश
२७ | मायावश
५४ लोमवशर
पंचम पंक्ति । अनन्तानुबन्धी ० अप्रत्याख्यानावरणी प्रत्याख्यानावरणी संज्वलन ३२४
१०८
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(
8 )
अजीवगत हिंसा
वृहत् जैन शब्दार्णव
अजीवगत हिंसा
जीगत हिंसा के ४३२ भेदों का द्वितीय प्रस्तार ।
। द्वितीय प.क्त । तृतीय पक्ति
चतुर्थ पक्ति संरम्भजन्य हिंसा १ | मानसिक . स्वकृत . | अनन्तानुबन्धी कोधवश समारं नजन्य हिंसा२ वाचनिक ३ | कारित है। | अनन्तानुबन्धी मानवश आरम्भजन्यहिंसा ३' कायिक ६ अनुमोदित १८ अनन्तानुबन्धी मायावश
अनन्तानुबन्धी लोभवश · ८१ अप्रत्याख्यानावरणी-कोयवश १०% अप्रत्यास्यानावरण. मानवश १३५ अप्रत्याख्यानावरणी-मायावश१६२ अप्रत्याख्यानावरणी-लोभवश २८९ प्रत्याख्यानावरणी-धोधवश २९६ प्रत्याख्यानावरणी-मान वश २४३ प्रत्याख्यानाचरणी-मायावश २७० प्रत्याख्यानावरणा-लोभवश -२६७ स.वलन-क्रोधवश
३२४
स.वलन-मानवश
संज्वलन-मायावश
३७८
| सं.वलन-लोभवश , ४०५ उदाहरण---जीधगत हिंसा के ४३२ संरम्भजन्य-हिंसा', यह ४०० वां भेद है। भेदों में से ४०० वें भेद का क्या नाम है।
उत्तर द्वितीय प्रस्तार की सहायता उत्तर प्रथम प्रस्तार की सहायता से- से-पूर्वोक्त नियमानुसार चौथी पंक्ति से १०८ भेदों वाले प्रस्तार के साथ बताई हुई ३७८ ( संघलन मायावश), तीसरी पक्ति से विधि के नियमों के अनुसार प्रञ्चम पंकि से १८ (अनुमोदित), दूसरी पक्ति से ३ (वाच३२४ ( संज्वलन ), चौथी पंक्ति से ५४.(माथा | | निक), और पहली पक्ति से १ (संरम्भ-जन्य वश ), तृतीयपंक्ति से १८ (अनुमोदित), | हिंसा), यह अङ्क लेने से इन का जोड़४०० है। द्वितीय पंक्ति से ३ ( वाचनिक), प्रथम पंक्ति अतः इन अङ्को के कोष्ठों में लिखे शब्द (अक्ष) से १ (संरम्भ जन्य हिंसा), यह अङ्क लेने से क्रमसे लिख लेने पर, 'संग्वलन-मायावश-अनुइन का जोड़ ४०० है । अतः इन अटों के मोदित-वाचनिक-संरम्भजन्य हिंसा', यह ४०० कोष्ठकों में लिखे शब्द ( अक्ष) क्रम से रखने वां भेद है जो प्रथम प्रस्तार की सहायता से पर "संज्वलन-मायावश-अनुमोदित-वाचनिक भी प्राप्त हुआ था। ..
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( २०० )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अजीवगत हिंसा
दूसरा ( विलोम) उदाहरण - 'संज्वलन-मायावश-अनुमोदित वाचनिक-संरम्भजन्य हिंसा', यह नाम जीवगत हिंसा के ४३२ भेदों में से केथवां भेद है ?
उत्तर प्रथम प्रस्तार की सहायता से—इस ज्ञात नाम के पांचों अङ्गरूप शब्दों ( अक्षों ) को प्रथम प्रस्तार में देखने से संज्वलन के कोष्ठक में ३२४, मायावश के कोष्ठक में ५४, अनुमोदित के कोष्ठक में १८, वाचनिक के कोष्ठक में ३. संरम्भजन्य हिंसा के कोष्ठक में १, यह अङ्क मिले। इनका जोड़फल ४०० है । अतः ज्ञात नाम ४०० वां भेद है ।
उत्तर द्वितीय प्रस्तार की सहायता से ज्ञात नाम के चारों अङ्गरूप शब्दों (अक्षों) को दूसरे प्रस्तार में देखने से 'संज्वलनमायावश' के कोष्ठ में ३७८, 'अनुमोदित' के कोष्ठ में १८, वाचनिक के कोष्ठ में ३, और संरम्भजन्य हिंसा के कोष्ठ में १, यह अङ्क मिले। इन का जोड़फल ४०० है । अतः जीबगत हिंसा का ज्ञात नाम ४०० वां भेद ४३२ भेदों में से है ॥
नोट ९ - इसी प्रकार शील गुण के १८००० भेदों, ब्रह्मचर्यव्रत के १८००० वर्जित दोषों या कुशीलों या व्यभिचारों, प्रमाद के ३७५०० भेदों या महाव्रती मुनियोंके ८४ लाख उत्तर गुणों में से प्रत्येक का या यथा इच्छा चाहे जेय भेद का नाम भी ऐसे ही अलग अलग प्रस्तार बनाकर बड़ी सुगमता जाना जा सकता है। ( आगे देखो शब्द 'अठारह सहस्र मैथुन कर्म' और 'अठारह सहस्र शील' नोटों सहित ) ॥
नोट १० - उपर्युक्त प्रक्रिया सम्बंन्धी निम्न लिखित कुछ पारिभाषिक शब्द हैं
अजवगत हिस
जिन का जानना और समझ लेना भी इस प्रक्रिया में विशेष उपयोगी हैः
के
१. पिंड - किसी द्रव्य, पदार्थ या गुण मूल भेदों के समूह को तथा विशेष भेद उत्पन्न कराने वाले भेदों के प्रत्येक समूह को पिंड कहते हैं । इन में से मूल भेदों का समूह प्रथम पिंड है, दूसरा समूह द्वितीय पिंड है, तीसरा समूह तृतीय पिंड है, इत्यादि । जैसे जीवगत हिंसा के उपर्युक्त १०८ या ४३२ भेदों में मूल भेद संरम्भ आदि तीन हैं; यह प्रथम पिंड है ! आगे विशेष भेद उत्पन्न कराने वाले मानसिक आदि तीन त्रियोग हैं; यह द्वितीय पिंड है । आगे स्वकृत आदि तीन त्रिकरण हैं; यह तृतीय पिंड है । आगे क्रोध आदि ४ कषायचतुष्क हैं, यह चतुर्थ पिंड़ है ( अथवा अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि १६ कषाय, यह चतुर्थ पिंड है ) । और संञ्चलन आदि चतुष्क, यह पञ्चम पिंड है।
२. अनङ्कित स्थान - कोई पिंड जिन भेदों या अवयवों का समूह है उनमें से किसी ग्रहंत भेद से अगले सर्व भेद 'अनङ्कित स्थान' कहलाते हैं ॥
३. श्रात्ताप - सर्व भेदों में से प्रत्येक भेद को आलाप कहते हैं ।
४. भङ्ग - आलाप ही का नाम भंग है।
५. अक्ष-आलाप के प्रत्येक अङ्ग को 'अक्ष' कहते हैं । पिंड के प्रत्येक अवयव को भी 'अक्ष' कहते हैं ।
६. संख्या -- प्रस्तार के कोष्ठकों में जो प्रत्येक 'अक्ष' के साथ अङ्क लिखे जाते हैं। संख्या हैं या आलापों के भेदों की गणना को संख्या कहते हैं ॥
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nound
( २०१ ) | अजीवगत हिंसा वृहत् जैन शब्दार्णव . अजीगत हिंसा
७.प्रस्तार--अक्षों और संख्याओं सहित | ३. द्वितीय पंक्ति में द्वितीय पिंड के सर्व कोष्ठकों के समूह रूप पूर्ण कोष्ठ को प्रस्- | जितने अक्ष हो उतने कोष्ठक बनाकर उनमें तार कहते हैं। 'प्रस्तार' को 'गूढ़यंत्र' भी कूम से उस पिंड के अक्षों को लिखें और इस कहते हैं। .
पंक्ति के पहिले कोष्ठक में अक्ष के साथ शून्य ८. परिवर्तन-सर्व कोष्ठकों पर दृष्टि लिखें, दूसरे कोष्ठक में वह अङ्क लिखें जो
प्रथम पक्ति के अन्तिम कोष्ठक में लिया था, घुमाते हुए अपनी आवश्यक्तानुसार यथाविधि
इससे आगे के तीसरे आदि कोष्ठकों में दूसरे उनमें से अक्षों या संख्याओं कोग्रहण करने की क्रिया को परिवर्तन कहते हैं । इस परिवर्तन
कोष्ठक के अङ्क का द्विगुण, त्रिगुण आदि अङ्क ही का नाम 'अझ परिवर्तन' या 'अक्ष-संसार'
कम से लिव लिख कर यह द्वितीय पंक्ति
पूरी कर दे। भी है।
४. तृतीय पंक्ति में तृतीय पिंड के अक्षों ६.नष्ट- चाहे जेथवे आलाप का नाम
की संख्याके बराबर कोष्ठक बनाकर कमसे सर्व जानने की किया या विधि को नष्ट कहते हैं ।
| अक्ष लिखै और इस पंक्तिके पहिले कोष्ठक में | १०. उहिष्ट--आलाप के शात नाम से शन्य रखें। दूसरे कोष्ठक में यह अङ्क लिखें। यह जानना कि यह आलाप केथवां है, इस जो इस पंक्ति से पूर्व की प्रथम और द्वितीय किया या विधि को , उद्दिष्ट या समुद्दिष्ट पंक्तियों के अन्तिम अन्तिम कोष्ठकों के अङ्कों कहते हैं।
का जोड़फळ हो। फिर तीसरे आदि आगे! नोट ११--गूढ़ यंत्र या प्रस्तार बनाने के सर्व कोष्ठकों में कम से दूसरे कोष्ठक का की विधि भी नीचे लिखी जाती है जिसे सोख द्विगुण, त्रिगुण, आदि अङ्क लिख लिख कर। लेने से शील गुण के १८००० ( १८ हजार ) | यह तीसरी पंक्ति भी पूर्ण कर देवे ॥ भेदों, प्रमाद के ३७५०० ( ३७ हजार ५ सौ) ५. चतुर्थ आदि आगे की सर्व पंक्तियां। भेदों, और दिगम्बर मुनि के ८४००००० भी उपयुक्त रीति ही के अनुसार कोष्ठक बना (८३ लाज) उत्तरगुणों आदि के गूढ़यंत्र भी बना कर भरदै । यह ध्यान रहे कि कोष्ठको बनाकर उन भेदों या गुणादिक के अलग | में अङ्क भरते समय प्रथम पंक्ति के अतिरिक्त अलग नाम हम बड़ी सुगमता से जान सकते हर पंक्ति के प्रथम कोष्ठक में बो शून्य हो
लिग्णां जायगा, दूसरे कोष्ठक में पूर्व की | १. जिस द्रव्य, पदार्थ या गुण आदि सर्व पंक्तियों के अन्तिम अन्तिम कोष्ठकों के || के विशेष भेदों का प्रस्तार बनाना हो उसमें अङ्कों का जोड़फळ लिखा जायगा और आगे जितने पिंड हो उतनी पंक्ति बनावें। के तीसरे आदि कोप्ठकों में दूसरे कोष्ठक का।
२. प्रथम पंक्ति में प्रथम पिंड के जित- | विगुण. त्रिगुण, चतुर्गुण आदि क्रम से अन्तिम ने भेद (अक्ष) हो उतने कोष्टक बना कर कोष्ठक तक लिखा जायगा। . . उन कोष्ठकों में कूमसे उस पिंड के भेद (अक्ष)| इस प्रकार यथा आवश्यक प्रस्तार बनाया। लिखें और उन अक्षों के साथ कम से १,२,३, | जा सकता है । आदि अङ्क लिखदें।
नोट १२--बिना प्रस्तार बनाये ही
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१
२०२
अजीधगत हिंसा वृहत् जैन शब्दार्णव
'अजीवगत हिंसा नष्ट या उद्दिष्ट किया की विधि निम्न | नाम ज्ञात हो जायगा। लिखित है
उदाहरण-जोधगत हिंसा के ४३२ १. नष्ट की विधि-किसी पदार्थ आदि
भेदों में से ४००वां भेद (आलाप)कौनसा है ? के सर्व भेदों या आलापों में से जेथवां आलाप
___ यहां प्रथम पिंड संरम्भजन्य हिंसा आदि जानना अभीष्ट हो उस आलाप की शात संख्या को प्रथम पिंड की गणना (पिंड के
की गणना ३, द्वितीय पिंड मानसिक आदि भेदों या अङ्गों की गणना ) का भाग
की गणना ३, तृतीय पिंड स्वकृत आदि की देने से जो अवशेर रहे यही इस पिंड का
गणमा ३, चतुर्थ पिंड क्रोध आदि की गणना अक्षस्थान है । यदि अवशेष कुछ न बचे तो
४, और पंचम पिंड अनन्तानुबन्धी आदि की इस पिंड का अन्तिम भेद अक्ष स्थान है।।
गणना ४ है जिनके परस्पर के गुणन करने से - फिर मजनकल (भाग का उत्तर ) में १
जीवगत हिंसा के विशेष भेदों की संख्या जोड़कर जोड़फल को या भाग देने में शेष | | ४३२ प्राप्त होती है । इन में से ४०० वें भेद का कुछ न बचा हो तो कुछ न जोड़कर भजनफल | नाम जानना अभीष्ट है । अब उपयुक्त ही को द्वितीय पिंड की गणना का भाग | विधि के अनुसार ४०० को प्रथम पिंड की दैने से जो शेष बचे वही इस द्वितीय पिंड का गणना ३ का भाग देने से १३३ भजनफल अक्ष-स्णन है । अवशेष कुछ न बचे तो प्राप्त हुआ और १ शेष रहा। अतः प्रथम अन्तिम भेद अक्ष-स्थान है।
पिंड में पहिला भेद अक्ष-स्थान है जिसका इसी प्रकार जितने पिंड हो उतनी अक्ष संरम्भजन्य हिंसा' है। वार कूम से हर पिंड को गणना अब भजनफल १३३ में १ जोड़ कर पर भाग दे देकर जो शेष बचे उसे या शेष जोड़फल १३४ को द्वितीय पिंड की गणना न बचे तो अन्तिम भेद को अक्ष-स्थान जाने ३ का भाग देने से ४४ भजनफल प्राप्त हुआ और जो भजनं फल हो उसमें १ जोड़ कर और २ शेष रहा । अतः द्वितीय पिंड में जोड़फल को या भाग देने में शेष कुछ न दूसरा भेद अक्षस्थान है जिस का अक्ष बचा हो तो बिना १ जोड़े ही भजनफल को | 'वाचनिक' है। अगले अगले पिंड की गणना पर भाग देते अब मजनफल ४४ में १ जोड़ कर ४५ रहें । जहां कहीं भाजक से भाज्य छोटा हो को तृतीय पिंड की गणना ३ का भाग देने से वहां भाज्य ही को अक्ष-स्थान जाने । और १५ भजनफल प्राप्त हुआ और शेष कुछ नहीं भजनफल (शन्य ) में उपयुक्त विधि के बचा। अतः तृतीय पिंड में अन्तिम भेद अक्ष अनुकूल १ जोड़ जिससे अगले अगले पिंडोंमें स्थान है जिस का अक्ष 'अनुमोदित' है। प्रथम स्थान ही अक्ष स्थान प्राप्त होगा।
अब म समफल १५ में कुछ न जोड़कर ____ अब सर्व अक्ष-स्थानों के अक्षों को विलोम इसे चतुर्थ पिंड की गणना ४ का भाग देने से कम से रख लैने पर अर्थात् अन्त में प्राप्त हुए भजनफल प्राप्त हुआ और ३ ही शेष बचे। अक्षस्थान के अन्त से प्रारम्भ करके प्रथम अतः चतुर्थ पिंड में तीसरा भेद अक्षस्थान है। प्राप्त हुए अक्षस्थान के अक्ष तक सर्व अक्षों जिसका अक्ष 'मायावश' है। - को कम स रख लैने पर अभीष्ट आलाप का | अब भमलफल ३ में एक जोड़ कर
PPORTANT
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( २०३ )
वृहत् जैन शब्दाव
अजीवगत हिंसा
जोड़फल ४ को पञ्चम पिंड की गणना ४ का भाग देने से १ भजनफल प्राप्त हुआ और शेष कुछ नहीं बचा । अतः पञ्चम पिंड में अन्तिम भेद अक्षस्थान है जिस का अक्ष 'संज्वलन' है 1
अतः अब सर्व अक्षों को विलोम क्रम से रख लेने पर 'संवलन-मायावश-अनुमोदित वाचनिक-संम्नजन्य हिंसा, यह ४०० घाँ अभीष्ट आलाप प्राप्त हो गया ॥
२. उद्दिष्ट की विधि-आलाप का नाम ज्ञात होने पर यह जानना हो कि यह आलाप केथां है तो पहिले १ के कल्पित अङ्क को अन्तिम पिंड की गणना से गुण कर गुणनफल में से उस पिंड के अनंकित स्थानों का प्रमाण घटायें । शेष को अन्तिम पिड से पूर्व के पिंड की गणना से गुण कर गुणनफल से इस पिंड के अनंकित स्थानों का प्रमाण घटावें । यही क्रिया करते हुये प्रथम पिंड तक पहुँचने पर और इस प्रथम पिंड) के अनंकित स्थानों का प्रमाण घटाने पर जो संख्या प्राप्त होगी बही संख्या यह बतायेगी कि ज्ञात नाम थव आलाप का नाम है ।
अजीव-निःश्रित की संख्या कुछ नहीं है । अतः शून्य घटाने से शेष ४ को अन्तिम पिंड से पूर्व के पिंड ( क्रोधादि) की गणना ४ से गुणने पर १६ प्राप्त हुआ । इस गुणनफल में से इस पिंड के 'मायावश' अक्ष के आंगे के स्थानों की ( अनङ्कित स्थानों की ) संख्या १ को घटाने से शेष १५ रहे । इस १५ को तीसरे पिंड स्वकृत आदि की गणना ३ से गुणन किया तो ४५ प्राप्त हुए । इस में से इस पिंड के 'अनुमोदित' अक्ष से आगे के अनङ्कित स्थानों की संख्या शून्य को घटाने से ४५ हो रहे । इसे द्वितीय पिंड की गणना ३ से गुणने पर १३५ आये । इस में से 'बाचनिक' अक्ष से आगे के अनङ्कित स्थानों की संख्या १ घटाने से शेष १३४ रहे । इस शेष को प्रथम पिंडकी गणना ३ से गुणने पर ४०२ आये । इस गुणनफल से 'संरम्भजन्य हिंसा' अक्ष से आगे के अनङ्कित स्थानों की संख्या २ घटाने से शेष ४०० रहे। यही अभीष्ट अङ्क है अर्थात् ज्ञात नाम ४०० वाँ आलाप है ।
(गो० जी० गा० ३५ -४४ की व्याख्या) अजीव-तत्त्व - जीवादि सप्त प्रयोजन भूत
इस आलाप में संचलन, मायावश, अनुमोदित, वाचनिक, और संरम्भजन्य हिंसा, यह पांच अक्ष हैं । अब उपर्युक्त विधि के अनुसार कल्पित अङ्क १ को अन्तिम पिंड ( अनन्तानुबन्धी चतुष्क ) की मणना ४ से गुणने पर गुणनफल ४ प्राप्त हुआ । इस गुणनफल में से उसी पिंड के संज्वलन अक्ष
तत्वों में से दूसरा तत्व | ( पीछे देखो शब्द 'अजीव', पृ० १६१ ) ॥ अजीव द्रव्य-द्रव्य के जीव और अजीव, इन दो सामान्य भेदों में से दूसरा भेद । (पीछे देखो शब्द 'अजीव', पृ० १६१.) ॥ अजीव दृष्टिका - अजीव चित्रादि देखने से होने वाला कर्मबन्धः दृष्टिका क्रिया का एक भेद (अ. मा. अजीवदिठिया ) ॥ अजीव-देश- किसी अजीव पदार्थ का एक भाग (अ. मा. अजीवदेस ) ॥
से आगे के स्थानों की अर्थात् अमङ्कित स्थानों भजीव- निःश्रित - अजीव के आश्रय राही
उदाहरण - 'संघलन-मायावश-अनुमोदितवाचनिक-संरम्भअन्य हिंसा', यह जीवगत हिंसा के ४३२ बाळापों में से केथवे आलाप का नाम है ?
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( २०४ । अजीव-निःसृत वृहत् जैन शब्दार्णव
अजीव विचय हुआ ( अ. मा. अजीवणिस्सिय )॥ |अजीव-भावकरण-स्वाभाविक रीतिले अजीव-निःसत-अर्जाव सेनिकला हुआ| मेघ आदि की समान किसी अजीव पदार्थ - (अ. मा. अर्जीवणिस्सिय ) ॥
का रूपान्तर होना (अ. मा.)। अजीव-पद-पन्नवणा सूत्र के ५ पद का अजीव-मिश्रिता-सत्यासत्य या सत्यनाम (अ. मा.)॥
मृषा भाषा का एक भेद ( अ. मा. अजीय प्रजीव-पदार्थ-जीवादि नव प्रयोजन
मिस्सिया')॥
अजीव-राशि-अजीव पदार्थों का समूह भूत पदार्थों में से दूसरा पदार्थ (पीछे
(अ. मा. 'अजीवरासि' )॥ देखो शब्द 'अजीय', पृ० १६१ ) ॥
अजीव-विचय-अचेतन पदार्थ सम्बन्धी अजीव-परिणाम-बन्धन, गति आदि
खोज या विचार या चिन्तवन आभ्यन्तर अजीव का परिणाम ( अ. मा.)॥ या आध्यात्मिक धर्म-ध्यान के १० भेदों में अजीव-पर्यव-अर्जाव का पर्याय, अ. | से एक भेद ॥ जीय का विशेष धर्म या गुण (अ. मा.
पदार्थों के वास्तविक स्वरूप व 'अजीवपज़व')॥
स्वभाव को 'धर्म' कहते हैं । उस स्वरूप
से च्युत न होकर एकाग्र चित्त होना अजीव-पृष्टिका-आगे देखो शब्द 'अ
'धर्म ध्यान' है । जिस धर्मध्यान को केवल जीव स्पृष्टिका', पृ. २०५॥
अपना ही आत्मा या कोई प्रत्यक्षकानी अजीव-प्रदेश-अजीवद्रव्य का छोटे से आत्मा ही जान सके अथवा जो धर्मध्यान
छोटा विभाग ( अ. मा. 'अजीवप्पएस')॥ आत्म द्रव्य सम्बन्धी हो उसे 'आभ्यन्तर' अजीव-प्रज्ञापना-अजीव का निरूपण
या 'अन्तरा' या 'आध्यात्मिक' धर्मध्यान
कहते हैं। किसी अजीव पदार्थ के वास्तकरना या स्वरूप बताना (अ. मा. अंजीव
विक स्वरूप का एकाग्र चित्त हो चिन्तवन | पण्णवणा)॥
करना "अजीव-विक्षय धर्मध्यान" है। . अजीव-प्रातीतिकी-अजीव में ग
___ वाद्य या आभ्यन्तर धर्मध्यान के अन्य छष करने से होने वाला कर्मबन्ध; भेदों की समान यह धर्मध्यान चतुर्थ गुणप्रातिकी किया का एक भेद ( अ. मा. . स्थान से सप्तम गुणस्थान तक के पीत 'अजीव-पाडुच्चिया' )॥
पन्न शुक्ल लेश्या वाले जीवों के होता है। अजीव-प्राद्वेषिकी-किसी अजीव पदार्थ एक समय इसका जघन्य काल, और एक के साथ द्वष करने से होने वाला कर्मबंध;
उत्कृष्ट अन्तम हर्स अर्थात एक समय कम प्राषिकी किया का एक भेद (अ. मा. | दो घटिका इसका उत्कृष्ट काल है । स्वर्ग 'अजीव-पाउसिया')॥
प्राप्ति इसका साक्षात् फल और मोक्ष अजी-भाव-अजीव की पर्याय ( अ. | प्रानि इसको परम्पराय फल है। - मा.)।
- नोट १-आभ्यन्तर धर्मध्यान के १०
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( २०५ )
अजीव विभक्ति
अजीवाधिकरण आस्त्रव
भेद निम्न लिखित हैं:
वैदारणिका क्रिया का एक भेद (अ. मा. (१) अपाय विचय (२) उपाय घिचय _ 'अजीव-धेयारणिया')॥ । (३) जीव विचय (४) अजीव विचय (५). | अजीब-सामन्तोपनिपातिकी-अपनी विपाक विचय (६) विराग विचय (७) भव
बस्तु की प्रशंसा सुन कर प्रसन्न होने से विचय (८) संस्थान विचय (8) आशा विचय
होने वाला कर्मबन्ध; सामन्तोपनिपातिकी (१०) हेतुविचय । ( प्रत्येक का स्वरूपादि
क्रिया का एक भेद ( अ. मा. 'अजीययथास्थान देखें)॥
सामन्तोषणिवाइया' ) ॥ . (हरि० सर्ग ५६ श्लोक ३५-५२)।
नोट२-धर्म ध्यान के उपरोक्त १०. ४ाष्टका ( अजाय पृष्टिका )भेदों का अन्तर्भाव (१) आशा विचय (२) ।
किसी अजीध पदार्थ को रागद्वषरूप अपाय विचय (३) विणक विषय और (४) भावोंसे स्पर्श करने से होने वाला कर्मबंध; संस्थान विचय, इन चारों भेदों में हो सकता | स्पृष्टिका क्रिया का एक भेद ( अ. मा. है । अतः किसी किसी आचार्य ने धर्मव्यान | 'अजीवाठिया' )॥ के यही चार भेद गिनाये हैं ॥
अग्रीव-स्वाहस्तिका--खड्ग आदि नोट ३-धर्मध्यानके उपयुक्त २० भेदों| किसी अजीव पदार्थ द्वारा किसी अजीव में से अष्टम भेद, या चार भेदों में से अन्तिम | को अपने हाथ से मारने से होने वाला " संस्थान-विचय धर्मध्यान" के (१) पिंडस्व | कर्मयन्ध, स्वाहस्तिका क्रिया का एक (२) पदस्थ (३) रूपस्थ और (४) रूपात त, | | भेद (अ. मा. 'अजीयसाहत्थिया' )॥ यह चार भेद हैं । ( प्रत्येक का स्वरूपादि | अजीवाधिकरणासव-किसी अजीय यथास्थान देखें)॥
पदार्थ के आधार से होने वाला कर्मानव (ज्ञानार्णव प्रकरण १३ श्लो०५, प्र०३७ श्लो०१)
(शुभकर्मास्नव या अशुभ-कर्मास्रव, पुप्याअजीव विभक्ति-अजीव पदार्थों का स्रव या पापासूब )॥ प्रथक्करण या विभाग ( अ. मा. अजीब
- काय, बचन, मन की किया द्वारा विभत्ति )॥
आत्म प्रदेशों के सकम्प होने से द्रव्य कर्म अजीववैक्रयणिका ? न.चे देशो शब्द
(कर्म प्रकृति या कार्मणवर्गणा) का आत्मा
के सन्निकट आना या आत्मा की ओर अजीववैवारणिका “ अजीववैद... को सन्निकर्ष होना 'आय' कहलाता है। अजीववैतारणिका । णिका" ॥
___ आधार अपेक्षा आस्रष दो प्रकार का
है-(१) 'जीवाधिकरण आनव' और (२) अजीववैदारणिका ( अजीव-धैक्रय- 'अजीपाधिकरण आनध' । जीवाधिकरण णिका, अजीव वैचारणिका, अजीव-वैतार- हिंसा और अजीवाधिकरण हिंसा के समान णिका)किसी अजीव वस्तु का विदारण जीबाधिकरण आस्रव के भी वही १०८ करने या उसके निमित्त से किसी को ठगने | या ४३२ भेद और अजीवाधिकरण आस्रव से होने वाला कर्मबन्ध; विदारणिया या| के सामान्य ४, और विशेष ११ भेद हैं।
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( २०६ ) अजीवाभिगम
वृहत् जैन शब्दार्णव अजैन विद्वानों की सम्मतियां | ( पीछे देखो शब्द 'अजीगत हिंसा', | अजैन विद्वानों की सम्मतियांपृ. १६२ )॥
एक टूकट (पुस्तिका ) का नाम जिस में — ( तत्वार्थ. अ. ६ सू. ७, ८, ६)
जैनधर्म के सम्बन्ध में अनेक सुप्रसिद्ध अजीभिगम-देखो शब्द 'अजीवअ- | अजैन विद्वानों की सम्मतियों का बड़ा भिगम', पृष्ठ १६१ ॥
उत्तम संग्रह है । इस नाम का ट्रैक्ट भजन-जैनधर्म वर्जित, जैनधर्म विमुख निम्नलिखित दो स्थानों से प्रकाशित जिनाशाबाह्य, जैनधर्म के अतिरिक्त किसी
१. श्री जैनधर्म संरक्षिणी सभा, 'अमअन्य धर्म का उपासक ॥
रोहा' ( जि० मुरादाबाद ) की ओर से दो ___ नोट-'जिन' शब्द जित् धातु से | भागों में । प्रथम भाग में (१) श्रीयुत महा बना है जिस का अर्थ है जीतना या विजय | महोपाध्याय डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याप्राप्त करना । अतः 'जिन' शब्द का अर्थ है
भूषण एम० ए०, पी० एच० डी०, एफ० जीतने वाला या विजय पाने वाला, इन्द्रियों
आई० आर० एस०, सिद्धान्तमहोदधि और कर्म शत्रुओं को जीतने वाला तथा
प्रिंसिपल संस्कृत कालिज कलकत्ता,(२ ) त्रैलोक्य-विजयी-कामशत्रु पर पूर्ण विजय श्रीयुत महामहोपाध्याय सत्यसम्प्रदाप्राप्त करने घाला । अतः कामदेव, पांचों याचार्य सर्वान्तर पण्डित स्वीमि राममिश्र इन्द्रियों और कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त जी शास्त्री भूतपूर्व प्रोफ़सर संस्कृत काकरने वाले परम पूज्य महान पुरुषों के अनु लिज बनारस, (३) श्रीयुत भारत गौरव पायी अर्थात् उन की आशानुसार चलने के तिलक पुरुषश्रोमणि इतिहास मानधाले और उन्हीं को आदर्श मान कर उन की नीय पं० वालगङ्गाधर तिलक, भूतपूर्व समान कामधिजयी और जितेन्द्री बनने सम्पादक 'केशरी' और (४) सुप्रसिद्ध श्रीका निरन्तर अभ्यास करते रहने वाले व्यक्ति
युत महात्मा शिवव्रतलाल जी एम० ए० को जैन' कहते हैं । और पदार्थों के वास्तधिक सम्पादक 'साधु' 'सरस्वती भण्डार' आदि स्वरूप और स्वभाव को 'धर्म' कहते हैं । अतः कई एक उर्दू हिन्दी मासिकपत्र, प रचयिता | जिस धर्म में जीवादि पदार्थों का वास्तधिक | विचारकल्पद् म आदि ग्रन्थ, ष अनुवादक स्वरूप दिखा कर जितेन्द्रिय बनाने और विष्णुपुराणादि, इन ४ महानुभावों की 'जिनपद' (परमात्मपद) प्राप्त कराने की , सम्मतियों का संग्रह है। और दूसरे भाग वास्तविक शिक्षा हो उसे 'जैनधर्म' या में श्री युत घरदाकान्त मुख्योपाध्याय एम० 'जिनधर्म' कहते हैं । इस कारण जो व्यक्ति ए. और रा० रा. वासुदेव गोविन्द आपटे जितने अंश जितेन्द्रिय है या जितेन्द्रिय बनने बी० ए० इन्दौर निवासी, इन दो महानुका अभ्यास कर रहा है वह उतने ही अंशों भावों की सविस्तर सम्मतियों का संग्रह में धास्तधिक जैन या 'जैनधी ' है। केवल है। इन दोनों भागों की सम्मतियां इसी जैनकुल में जन्म ले लेने मात्र से वह वास्त- 'वृहत् जैनशब्दार्ण' के रचयिता की संप्रविक 'जैनधर्मी' नहीं है।
हीत हैं। मूल्य ॥ और =)। है। अजैनों
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( २०७ ) अजैर्यष्ट्रष्य वृहत् जैन शब्दार्णव
अजैर्यष्ट्रव्यं को बिना मूल्य ॥
और प्रमाणों के साथ गहरा शास्त्रार्थ २. मु. केसरीमल मोतीलाल राँका, हुआ। 'पर्वत' राजा 'घसु' का गुरु भ्राता आनरेरी मैनेजर, जैन पुस्तक प्रकाशक और गुरु पुत्र था। अतः राजा ने विधवा कार्यालय 'ज्यावर' की ओर से संग्रहीत घ गुरुपत्नी (पर्वत की माता) से बचनबद्ध प्रकाशित । इस में २१ सुप्रसिद्ध अजैन हो जाने के कारण न्याय अन्याय की ओर विद्वानों की सुयोग्य सम्मतियों का सारांश भ्यान न देकर अन्तमें पर्वत ही को जिताया रुप संग्रह है। मूल्य ). अजैनों को बिना जिससे राजा तो दुर्नामता और दुर्गत मूल्य ॥
का पात्र बना ही, पर माँस लोलुपी पर्वत अजैर्यष्ट्रव्यं (अजैोतव्यं )--यह एक का साहस भी पवित्र वेद धापयों का अर्थ संस्कृत भाषा का वाक्य है जिसका अर्थ का कुअर्थ लगाने में इतना बढ़ गया कि है 'अजों से अर्थात् न उत्पन्न होने योग्य फिर उसने घेद घायों के सहारे एक त्रिवर्षे यव या शालि से यश करना 'महाकाल' नामक असुर की सहायता चाहिये ॥
से यक्षों में अनेक पशुओं को स्वाहा कर ___ 'अजैर्यष्ट्रव्यं' और 'अजैोतव्यं' यह यज्ञ देने का पूर्ण जी खोल कर प्रचार किया ॥ के प्रकरण में आये हुए वेद-वाक्य हैं जिन .. नोट १.-राजा बसु अब से लगभग के अज' शब्द का अर्थ लगाने में एक बार | १० या ११ लाख वर्ष पूर्व तिरहुत्त प्रान्त या 'नारद' और 'पर्वत' नामक दो ब्राह्मण मिथिलादेश के हरिवंशी राजा अभिचन्द्र पुत्रों में परस्पर भारी वाद विवाद हुआ और उसकी उग्रयंशी रानी 'वसुमती(श्रीमती, था । 'नारद' तो गुरु आम्नाय से सीखा सुरकान्ता)का पुत्र था और २०वें तीर्थकर भी हुआ परम्परायसिद्ध और क्रियावल या| 'मुनिसुव्रतनाथ' की सन्तान में उन की २२वीं व्युत्पत्ति से बननेवाला तथा प्रकरणानुसार, पीढ़ी में जम्मा था । उस समय इसके राज्य अर्थ 'न जायते इत्यजाः' अर्थात् जिनका | की सीमा पूर्व में विदेह या तिरहुत प्रान्त जन्म नहो वे अज हैं, जो पृथ्वी में बोने से ( उत्तरी विहार ) से पश्चिम में चेदिराष्ट्र (वि. न उत्पन्न हो ऐसे त्रिवर्षे पुराने धान | ध्याचल पर्वत के पास जबलपुर के उत्तर)तक (चावल या जौ), यह लगाता था । परन्तु थी । बसु के पिता अभिचन्द्र ने जो 'ययाति' मांस लोलुपी ‘पर्वत' इस 'अज' शब्इ का और विश्वावसु' नामों से भी इतिहासप्रसिद्ध परम्पराय और प्रकरण विरुद्ध सामान्य हैं बुंदेलखण्ड और धवलपुर (जबलपुर) के लोक प्रसिद्ध रूढ़ि अर्थ 'छाग' या 'बकरा' मध्य के देश को अपने अधिकार में लाकर लगाता था।
यहाँ वेदि राज्य स्थापन किया और शुक्तमती ____ अन्त में इस झगड़े को न्याय जब नदी के तटपर शुक्तमती (स्वस्तिकावती) न्यायप्रसिद्ध न्यायाधीश राजा 'बसु' के नामक नगर बसा कर उसी को अपनी राजपास पहुँचा तो राजो के सन्मुख राजसभा धानी बनाया । इस समय अयोध्या में | मध्य बहुजन की उपस्थिति में कुछ देर इस्वाकुवंशी राजा सगर का राज्य था जो तक दोनों का अपनी अपनी युक्तियों 'हरिषेन' नामक १०वें चक्रवती की संतान
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अजोग वृहत् जैन शब्दार्णव
अज्ञान परीषह में उसके देवलोक प्राप्त करने से लगभग एक
मूर्खता, अज्ञानता, अविवेक, न जानने सहस्र बर्ष पीछे जन्मा था । (पीछे देखो
वाला, मूर्ख, अजान शान रहित अविवेकी, शब्द 'अज', पृष्ठ १५८)॥
मिथ्या शानी, आत्मज्ञानशून्य, मन्दमानी, नोट२.- पर्वत की माता का नाम
अल्पज्ञ। । 'स्वस्तिमती' और पिता का नाम 'क्षीरक
(२) मिथ्यात्व अर्थात् तत्वार्थ के दम्ब' था जो ब्राह्मण कुलोत्पन्न बड़ा शुद्ध
विपरीत श्रद्धान ( अतत्व श्रद्धान, कुतत्व आचरणी, धर्मश, वेद बेदांगों का ज्ञाता,
श्रद्धान, तत्वार्थ ज्ञान रहित श्रद्धान ) के और स्वस्तिकावती नरेश अभिचन्द्र का
मूल ५ भेदो--१. एकान्त, २. विपरीत, राजपुरोहित था । राजकुमार वसु, एक
३. विनय, ४. संशय, ५. अशान,--में से ब्राह्मण पुत्र नारद, और पर्यत, यह तीनों
एक अन्तिम भेद (आगे देखो शब्द सहपाठी थे और इसी राजपुरोहित से विद्या.
'अशान मिथ्यात्व', पृ.२०६) ॥ पन करते थे।
अज्ञानजय-अशान परीषह जय । ( आगे (रि. सर्ग १७ श्लोक ३४-१६०; ]
देखो शब्द 'अज्ञान परीषह जय' पृ.२०६)। पद्मपुराण पर्व ११:२० पु० पर्ष६७ । दलोक १५५-४६१
अज्ञानतप-शान शून्य तप, तत्त्वार्थ ज्ञान )
रहित तप, आत्मज्ञान रहित तप; अजोग (अजौगिक, अयौगिक)-पुष्क- |
यह तप जिसके साधन में अज्ञानवश रार्द्धद्वीप की पश्चिम दिशा में विद्युन्माली
या वस्तु स्वरूप की अनभिज्ञता से भाव, मेरु के दक्षिण भरतक्षेत्रान्तर्गत आर्यखंड
प्यास, जाड़ा, गर्मी आदि के अनेक प्रकार की अतीत चौबीसी में हुए तृतीय तीर्थङ्कर । के कष्ट सहन कर कर के शरीर को सुखाया ( आगे देखो शब्द 'अढ़ाईद्वीप पाठ' के नोट या तपाया जाय और स्वर्गीकी देवांगनाओं ४ का कोष्ठ ३)॥
संबन्धी भोग विलासों की प्राप्ति या अन्य प्रज्जुका-(१) १६ स्वर्गों में से प्रत्येक किसी लौकिक इच्छा की पूर्ति की अभि
दक्षिणेन्द्र की आठ आठ अनदेवियों या लाषा या लालसा से अनेकानेक व्रतोपपट्टदेवियों में से सातघी सातवीं अग्र-देवी
घास आदि किये जाय:अथवा वेसर्व क्रिया: का नाम ।
कलाप जो आत्म अनात्म के यथार्थ ज्ञान (त्रि. गा.५१०) से शून्य रह कर काम, क्रोध, मान, माया, (२) नाटकीय परिभाषा में इस 'अ- | लोभ, आदि को जीतने के उपाय बिना ज्जुका' शब्द का प्रयोग 'वेश्या' के लिये
केवल लोक रिझाने या लोक पूज्य बनने किया जाता है ॥
आदि की वाञ्छा से किये जांय "अज्ञान (३) यह 'अज्जुका' शब्द तथा अउजु, तप" कहलाते हैं । अज्जू और अज्जूका, यह चारों शब्द प्रज्ञानपरीषह-अज्ञान जन्प कप्ट, शान'बड़ी बहिम' के अर्थ में भी आते हैं। । प्राप्ति के लिये बारम्बार शास्त्र स्याध्याय, अज्ञान ( अज्ञान )--(१) न जानना, | या गुरुउपदेशश्रवण आदि अनेक उपाय
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( २०६ ) अशान परीषहजय वृहत् जैन शब्दार्णव
अज्ञानवाद करते रहने पर भी ज्ञान प्राप्त न होने का अभाव । दुःख । अथवा ज्ञानावरणीय कर्म के प्रचर गृहीत मिथ्यात्व के एकान्त, विपरीत, उदयपश अपने ज्ञान की मन्दता या संशय, विनया और अज्ञान, इन ५ भेदों मूर्खता के कारण अपना अमादर या में ले एकअन्तिम भेद यह 'अबान मिथ्यातिरस्कार होने का कष्ट ।
यह 'अज्ञान परीषह' निम्न लिखित नोट १-दर्शन-मोहनी कर्म की मिथ्या२२ प्रकार की परीषहों में से २१ वीं है :-- त्व प्रकृति के उदय से जो औदयिक भाव का
१. क्षुधा, २. तृषा, ३. शीत,४. उष्ण, | एक भेद 'मिथ्यात्व-भाव' संसारी आत्माओं में ५. दंशमशक,.६.नान्य,७. अरति, ८. स्त्री, उत्पन्न होता है उसी के निमित्त से अगृहीत ६. चर्या, १०. निषद्या, ११. शय्या. १२. | (निसर्गज), अथवा गृहीत (अधिगमज) आक्रोश,१३. वध, १४.याचना,१५.अलाभ, मिथ्यात्व का सद्भाव होता है। १६. रोग, १७. तृणस्पर्श, १८. मल, १६. मोट २–'मिथ्यात्व' शब्द का अर्थ है सत्कार पुरस्कार, २०. प्रशा, २१. अज्ञान,
| असत्यता, असत्य या अयथार्थ श्रद्धान, २२. अदर्शन ॥
असत्यार्थ रुचि, अतत्व श्रद्धान, कुदेव कुगुरु ___ इनमें से प्रज्ञा और अशान, यह दोनों | कुशास्त्र या कुधर्म का श्रद्धान, इत्यादि । परीषह 'शानाघरणीयकर्म' के उदय से होती | ( नीचे देखो शब्द 'अज्ञानवाद')॥ हैं और १२ । गुणस्थान तक इनके सद्भाव अज्ञानवाद-क्रियावाद, अक्रियावाद, की सम्भावना है।
अज्ञानवाद, और वैनयिकवाद, इन चार यह सर्व ही परीषह शारीरिक और | प्रकार के मिथ्यावादों में से एका मिथ्यामानसिक असह्य पीड़ा उत्पन्न करती वाद। हैं। इनका मनोविकार रहित धैर्य पूर्वक इस बाद के अनुयायी लोग जीवादि समभावों से सह लेना 'संवर' अर्थात् ९ पदार्थों के यथार्थ स्वरूप के अनुकूल या कर्मास्त्र के निरोध का तथाअनेक दुष्कर्मों प्रतिकूल किसी प्रकार की श्रद्धा नहीं रखते की निर्जरा (क्षय ) का कारण है। किन्तु अज्ञानवश ऐसा कहते हैं कि किसी इत. सू. अ. ९, सूत्र ८,९, १०, १३, । पदार्थ का स्वरूप दृढ़ता के साथ कौन
चा. पृ. १२५ (परीषहजय प्रकरण) कह सकता है कि यह है या यह है, इस प्रज्ञान परीषहजय-धैर्य और समता
प्रकार है या उस प्रकार है; अर्थात् उनका
कहना है कि किसी पदार्थ का यथार्थ पूर्वक निर्विकृत मन से अज्ञान परीषह का
स्वरूप कोई नहीं जानता। इस षाद के सहन करना । ( ऊपर देखो शब्द 'अज्ञान
अनुयायी लोग शानशूभ्य काय क्लेशादि परीषह')॥ .
तप को मुक्ति का कारण या उपाय मानते भज्ञानमिथ्यात्व-अज्ञानजन्य मिथ्या
तत्वभवान, हिताहित या सत्यासत्य की इस अज्ञानवाद के निम्नलिखित ६७, परीक्षा रहित श्रद्धान, तत्व श्रद्धान का भा, विकल्प, या भेद हैं:
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( २१० ) | अज्ञानवाद वृहत् जैन शब्दार्णव
अज्ञानवाद । (१-७) जीव पदार्थ सम्बन्धी भंग ७- . २. शुद्ध पदार्थ नास्ति अज्ञान,
१.जीवास्ति अशान, २. जीव-नास्ति- ३. शुद्ध पदार्थास्ति नास्ति अशान, अज्ञान, ३. जीवास्ति-नास्ति अज्ञान, ४. शुद्धपदार्थ अवक्तव्य अज्ञान | ४. जीव अवक्तव्य अज्ञान, ५. जीवा- नोट?--जीव पदार्थ के (१) औपस्ति अवक्तव्य अज्ञान, ६.जीव-नास्ति | शमिक, (२) क्षायिक, ( ३) क्षायोपशमिक अवक्तव्य भज्ञान, ७. जीवास्ति | मिश्र, (४) औदयिक, (५) पारिणामिक, मास्ति-अवक्तव्य अज्ञान,
यह ५ भाव हैं । (८-१४) अंजीव पदार्थ सम्बन्धी भङ्ग
इन पांचों भावों में से औयिक भाव १अजीवास्ति अशान,२अजीव-नास्ति के 'देवगतिजन्यभाव' आदि २१ भेद हैं। अशान, इत्यादि 'अजीवास्ति नास्ति इन २१ भेदों में से १२वां भेद 'मिथ्या
अवक्तव्य अज्ञान' पर्यन्त सातों | त्वजन्य भाव' है जिस के (२) गृहीत मिथ्या(१५-२१) आस्रव पदार्थ सम्बन्धी भंग- | त्वजन्य भाव, और (३) अगृहीत मिथ्यात्व
१. आस्रवास्ति अज्ञान, इत्यादि जन्य भाव, यह दो मूल भेद हैं। सातो भंग;
'मिथ्यात्व जत्य भाव' के इन दो मूळ (२२-२८ ) बन्ध पदार्थ सम्बन्धी भंग ७- भेदों में से पहिले 'गृहीत मिथ्यात्वजन्य भाव'
१. बंधास्ति अज्ञान, इत्यादि | की (१) एकान्त मिथ्यात्व, (२) विपरीत सातो भंग;
मिथ्यात्व, (३) विनय मिथ्यात्व, (४) (२९-३५ ) संवर पदार्थ सम्बन्धी भंग ७- संशय मिथ्यात्व, और (५) अज्ञान मिथ्या
१. संवरास्ति अज्ञान, इत्यादि त्व, यह ५ शाखा हैं। सातो भंग;
गृहीत मिथ्यात्व की इन ५ शाखाओं १६-४२ ) निर्जरा पदार्थ सम्बन्धी भंग ७- | में से पहिलो शाखा 'एकान्त मिथ्यात्य' के अ... १. निर्जरास्ति अज्ञान, इत्यादि (१) क्रियावाद १८०, (२) अक्रियावाद ८४, सातो भंग;
| ( ३) अज्ञानवाद ६७, और ( ४ ) बैन(४३-४९ ) मोक्ष पदार्थ सम्बन्धी भंग ७- यिकवाद ३२,यह ४ अङ्ग और ३६३ उपाङ्ग
१. मोक्षास्ति अज्ञान, इत्यादि हैं। [ पीछे देखो पृ० २४,२५,१२३, १२४ पर सातो भंग;
शब्द 'अक्रियावाद' और 'अङ्गप्रविष्ट श्रुत(५०-५६) पुण्य पदार्थ सम्बन्धी भंग ७- शान' के अन्तर्गत (१२) दृष्टिवादांग (२) . . १. पुण्यास्ति अज्ञान, इत्यादि 'सूत्र' उपांग की व्याख्या नोटों सहित ] सातो भंग;
नोट २--जिन अपने प्रतिपक्षी को (५७-६३) पाप पदार्थ सम्बन्धी भंग ७- के उपशमादि होने पर उत्पन्न हुए भावों कर
१. पापास्ति अक्षान, इत्यादि जीव पदार्थ पहचाना जाय उन भावों की सातो भंग;
संज्ञा 'गुण' भी है। (६४-६७) शुद्ध पदार्थ सम्बन्धी भंग- - नोट ३-तत्वश्रद्धानाभाव रूप मिथ्या
. : १. शुद्ध पदार्थास्ति अज्ञान, । त्व को जो बिना किसीका उपदेशादि निमित्त
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कहते हैं।
६. २११ ) अज्ञानवादी वृहत् जैन शब्दार्णव
अंजन मिले केवल मिथ्यात्व कर्म प्रकृति के उदय से, के पाण्डुक नामक बन का एक गोलाकार होता है 'अगृहीत मिथ्यात्व' कहते हैं। और | भवन ॥ जो कुदेव आदि के निमित्त से और मिथ्या- | अढ़ाईद्वीप (मनुष्य-लोक) में सुदर्शन, त्य कर्म प्रकृति के उदय रूप अन्तरंग निमित्त | विजय, अचल, मंदर और विद्युत्माली, से स्वयम् अपनी रुचि से चाह कर अतत्व यह पांच मेरु पर्वत हैं। इन में से प्रत्येक या कुतत्व श्रद्धान रूप मिथ्यात्व नवीन की पूर्व और पश्चिम दिशाओं में समभूमि | उत्पन्न होता है उसे 'गृहीत मिथ्यात्व' कहते । पर तो भद्रशाल नामक बन है. और हैं । अगृहीत मिथ्यात्व को 'नैसर्गिक' थोड़ी थोड़ी ऊंचाई पर चारों ओर और गृहीत मिथ्यात्व को 'अधिगमज' भी गोलाकार कम से नन्दन, सौमनस और
पांडुक नामक बन हैं । भद्रशाल को छोड़ (गो० जी० गा० १५; मो० क. गा०1 कर शेष के प्रत्येक बन की चारों दिशाओं ८१२,१३, ८१८. ८८६, ८८७)
में से प्रत्येक दिशा में एक एक गोल हरि० स०५८ श्लोक १६२-१४५, भवन है। इन में सौधर्म इन्द्र के लोम, स० १० श्लोक ४७-६०
यम, वरुण और कुबेर, यह चार २ लोकत० सू० अ० ८ सू१७ त. सार । अ०५ श्लोक २-८
पाल कम से पूर्व दक्षिणादि दिशाओं में अज्ञानवादी-अशानबाद का अनुयायी
निवास करते हैं । इन भवनों में से पांचों
मेरु के पांचों पाण्डक बनों की दक्षिणः अशानवाद के ६७ भेदों में से किसी एक
दिशा के पांचों भवनों का नाम 'अंजन' या अनेक भेदों का पक्षपाती या श्रद्धानी
है जिस का अधिपति. 'यम' नामक | व्यक्ति । (ऊपर देखो शब्द 'अज्ञानबाद')॥
लोकपाल है। यह भवन १२॥ योजन अञ्चल मत-श्वेताम्बर जैनाचार्य श्री मु- ऊंचे, ७॥ योजन ब्यास (diametery के निचन्द्र' के ज्येष्ठ गुरुभ्राता श्री चन्द्रप्रभ और लगभग २३ योजन गोलाई के हैं। के वि० सं० ११५२. में चलाये हुए 'पौर्णि
(पीछे देखो शब्द 'अचल' पृ० १३७; और मीयक' नामक मत की एक शाखा जिसे पंचमेरु पर्वतों का चित्र )॥ एक पौर्णिमीय मतावलम्बी नरसिंह उपा
(त्रि० गा०.६१६-६२१) ध्याय ने सम्बत् १२१३ में अथवा मतान्तर (२) मेरुपर्वत की दक्षिण दिशा में से खं० १२१४ या १२३३ में चलाया देवकुरु भोगभूमि के. दो दिग्गज पर्वतों था। या वि० सं० १९६६ में भी विधिपक्ष में से एक पर्वत का नाम । यह 'भञ्जन:मुख्याभिधान, आर्यरक्षितसूरि ने स्थापा नामक पर्वत 'सीतोदा' नामक महानदी था॥ .
के बाम तट पर है ॥
विदेहक्षेत्र के बीचों बीच में मेरु है।। । जैनमत वृक्ष पृ० ६३, 'जैनसाहित्य- । । संशोधक' खं०२ अ. २ पृ. १४१ ।
मेरु की दक्षिण दिशा में 'सौमन और
'विद्युत प्रभ' नामक दो मजदन्त पर्वतो। अञ्जन(१) मेरु पर्वत पर सब से ऊपर के मध्य 'देवकुरु-भोगभूमि' है । इसी
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अंजन
( २१२ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
प्रकार मेरु की उत्तर दिशा में 'गन्धमादन' और 'माल्यवान' नामक दो गजदन्त पर्वतों के मध्य ' उत्तरकुरु-भोगभूमि' है । मेरु की पूर्व और पश्चिम दिशाओं में भद्रशालबने है । देवकुरु और पश्चिम भद्रशाल में सीतोदा नदी और उत्तरकुरु व पूर्व भद्रशाल में सीतानदी बहती है । इन दोनों नदियों के प्रत्येक तट पर दोनों भोगभूमियों ओर दोनों बनों में दो दो दिग्गज पर्वत हैं । अतः मेरु की चारों दिशाओं में सर्व ८ दिग्गज हैं, जिन में से सीतोदा नदी के बाम तट पर के एक दिग्गज का नाम 'अञ्जन' है । (देखो जम्बू - विदेहक्षेत्र का चित्र ) ॥
( जि० गा० ६६१-६६४ )
(३) पूर्व विदेह में सीता नदी की दक्षिण दिशा के ४ वक्षार पर्वतों में से एक पर्वत का नाम ।
यह पर्वत सीता नदी की दक्षिण दिशा के ८ विदेह देशों में से पश्चिमी सीमा के पास मंगलावती और रमणीया नामक देशों के मध्य में है । ( आगे देखो शब्द 'अञ्जनात्मा', पृ०२१८, और विदेह क्षेत्र का चित्र ) ।।
(त्रि० गा० ६६७ )
(४) सनत्कुमार- महेन्द्र नामक युग्म अर्थात् तृतीय चतुर्थ स्वर्गी के युगल का सब से नीचे का प्रथम इन्द्रक विमान ॥ (त्रि०गा० ४६६ )
(५) खर भाग की १६ पृथ्वियों में से 'अञ्जनमूलिका' नामक १० वीं पृथ्वी का नाम 'अञ्जन' भी है (अ०मा० ) | ( आगे - देखो श• 'अञ्जन मूलिका, पृ० २१४ ) ॥ (६) आठवें स्वर्ग के एक विमान का
नाम (अ० मा० ) ॥
अंजनगिरि
(७) रुचकवर पर्वत का ७वां कूट
( अ० मा० ) ॥
(८) इस नाम का एक बेलन्धर देव (अ० मा० ) ।।
(ह) द्वीपकुमार देवों के इन्द्र के तीसरे लोकपाल का नाम ( अ० मा० ) ॥
(१०) उदधिकुमार देवों के इन्द्र प्रभजन के चौथे लोकपाल का नाम (अ० ATO) II
(११) वायुकुमार जाति के इन्द्र का नाम (अ० मा० ) ॥
(१२) काजल; सौवीराञ्जन ( सुरमा ) नामक एक उपधातु; रसांजन या रसवती, दारूहल्दी के अष्टमांश काढ़े में अजामूत्र मिलाकर उससे संस्कारित आँजने की सलाई; नेत्र में दुख उत्पन्न करने वाली लोहे की गर्म सलाई; एक जाति का रत्न; एक बनस्पति विशेष ( अ० मा० ) ॥ अञ्जनक - ( १ ) अञ्जनवर द्वीप व अ
जनवर समुद्र का नाम है । ( आगे देखो शब्द 'अञ्जनवर', पृ० २१५ ) ॥
(२) रुचकवर नामक १३वें द्वीप के मध्य रुचकगिरि पर्वत पर के पूर्व दिशा के ८ कूटों में से छटा कूट जिस पर 'नन्दाant' नामक दिवकुमारी देवी बसती है ।
(शि०गा० ३०५, ६४८-६५६ )
A
(३) नन्दीश्वर द्वीप के अञ्जन गिरि पर्वत का नाम (अ० मा० ) ॥ अञ्जन गिरि (अञ्जनाद्रि ) - (१) नन्दीश्वर नामक अष्टम द्वीप की पूर्वादि चारों दिशाओं के चार पर्वतों में से प्रत्येक पर्वत
का नाम ।
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( २१३ ) अंजनगिरि वृहत् जैन शब्दार्णव
अंजन चोर (२) देवकुरु भोगभूमि का एक दिग्गज मुख्य प्रतिमा श्रीपार्श्वनाथ भगवान की है। पर्वत । [ ऊपर देखो शब्द 'अञ्जन' (२) यहाँ से पहाड़ के ऊपर जाने के लिये पुरानी पृ० २११ ]" (त्रिगा०६६७) जीर्ण सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। गुहा से एक
(३) सीतानदी के दक्षिण दिशा का मील ऊपर जाकर एक प्राचीन सरोघर एक बक्षार पर्वत । [ ऊपर देखो शब्द दर्शनीय है जिसके निकट अन्य एक छोटी 'अंजन' (३) पृ. २१२] ॥
पहाड़ी है । यहाँ दो देवियों का एक स्थान (४) रुचकवर नामक १३वे द्वीप के | है जो 'अञ्जना देवी' और 'सीता देवी' मध्य चारों ओर बलयाकार रुचकगिरि के नाम से प्रसिद्ध हैं। कहते हैं कि अजना नामक पर्वत की उत्तर दिशा के 'वर्द्धमान' और सीता ने बनवास के समय यहाँ नासक कूट पर बसने वाले एक देव का निवास किया था और हनुमान का जन्म नाम ।
भी यहां ही हुआ था। इसी लिये यहां (हरि. सर्ग ५ श्लो०७०१) दोनों ही मूर्तियां स्थापित हैं और ग्राम व (५) मेरु के भद्रशाल वन का चौथा पर्वत का नाम भी 'अञ्जना' के अधिक कूट और उसका अधिपति देव (अ०मा० )। समय तक यहां निवास करने से उसी के
(६) एक जैन-तीर्थस्थान का नाम । नाम पर प्रसिद्ध है। गसिक और त्र्यम्बक,
यह एक अतिशय क्षेत्र है जो नासिक यह दोनों ही स्थान हिन्दुओं के प्रसिद्ध शहर से त्र्यम्बक नगर जाते हुए मार्ग में तीर्थ हैं । नासिक शहर से केवल ३ या ४ सड़क से १ मील हट कर दक्षिण दिशा मील और नासिक स्टेशन से मील की को पड़ता है । नासिक से लगभग १४ दूरी पर 'मसाल' ग्राम के निकट श्री मील और यम्बक से ७ या ८ मील पर 'गंजपन्था सिद्ध क्षेत्र है जहां से बलभद्रादि एक 'अजनी' नामक ग्राम के निकट ही ८ कोटि ( ८००००००० ) मुनीश्वरों ने यह तीर्थ एक 'अञ्जनगिरि' नामक पहाड़ी निर्वाण पद प्राप्त किया है। पर है। ग्राम के आस पास बहुत प्राचीन
(तीर्थ. द. पृ. ३५) १२ या१३ जीर्ण फूटे टूटे मन्दिर हैं । जिनके द्वारों, स्तम्भों, शिखरों और दीवारों आदि
अमनचोर-(१) सम्यक्त कौमुदी कथा पर बहुतसी जैन मूर्तियां दर्शनीय हैं । एक विहित एक 'रूपखुर' नामक प्रसिद्ध चोर ॥ मन्दिर में अखंडित अति प्राचीन जैन उत्तर मथुराधीश 'पद्मोदय' के समय प्रतिमा बड़ी मनोहारिणी है । यहां शाका
निवासी एक पखुर' सं. १०६३ का एक शिला लेख भी है। नामक चोर 'अञ्जनचोर' के नाम से प्रसिद्ध यहाँ से लगभग १ मील की ऊंचाई पर था। इसके पासं 'अञ्जनबंटी' या 'अञ्जनपहाड़ी के ऊपर, एर. विशाल गुहा है जो गुटिका' नामक एक मंत्रित औषधि बहुत लम्बी और पहाड़ का पत्थर काट ऐसी थी जिसे नेत्रों में आज लेने से पह कर बनाई गई है । इस गुहा में कई अन्य मनुष्यों की दृष्टि से मरश्य हो जैन प्रतिमाएं बड़ी मनोहर हैं जिन में जाता था । जिह्वालम्पटता वश वह छ
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( २१४ )
अंजन चोर
वृहत् जैन शब्दार्णव
अंजनरिष्ट
दिनों तक अञ्जनबटी नेत्रों में लगा कर और उस से धर्मोपदेश सुन कर इस ने और इस प्रकार अदृश्य हो कर राजा के मुनिव्रत की दीक्षा एक चारण ऋविधासाथ स्वादिष्ट भोजन करता रहा । जब रक मुनि के पास जाकर ले ली । अन्त में एक दिन मंत्री के बताये उपायों से वह | कैलाशपर्वत के शिखर पर से महान तपो. पकड़ा गया और अपने अपराध के दण्ड बल द्वारा सर्व कर्म कलङ्क नाश कर इस में सूली पर चढ़ाये जाने को ले जाया | अंजनचोर ने निरंजनपद उसी जन्म से मारहा था तो सेठ अरहदास के पिता प्राप्त कर लिया। सेठ जिनदत्त से णमोकार मंत्र पाकर | अञ्जनपुलाक-रत्नप्रभा नामक प्रथम और प्राणान्त समय उसी के ध्यान में नरक के खरकाण्ड के ११ विभागों में से शरीर छोड़ कर 'सौधर्म' नामक प्रथम ११वें 'अङ्का' नामक भाग का अपर नाम स्वर्ग में जा जन्मा॥
(अ. मा.)॥ (२) अञ्जनगुटिका औषधि लगा कर | भञ्जनप्रभ-राम-रावण युद्ध में रावण की चोरी करने वाला राजगृही निवासी एक
सैना के अनेक प्रसिद्ध योद्धाओं में से एक अन्य घोर भी 'अञ्जनचोर' नाम से
योद्धा। प्रसिद्ध था जो सम्यग्दर्शन के आठ अङ्गों
अजनमल-"रुचकबर'' नाम के १३ बै में से 'निःशांकित' नामक प्रथम आज को पूर्ण दृढ़ता के साथ पालन करने में पुराण
द्वीप के "रुचक गिरि" नामक पर्वत पर प्रसिद्ध है।
पूर्व दिशा की ओर के कमक आदि अष्ट जिस समय एक सोमदत्त नामक
कूटों में से सातबां कूट, जो "नन्दोत्तरा" माली एक जिनदत्त नामक सेठ से आ
नामक दिक्कुमारी देवी का निवास काशगामिनी विद्या सिद्ध करने की विधि
१ स्थान है। सीख कर कृष्णपक्ष की १४ की रात को
नोट-इन अष्ट कूटों पर बसने वाली श्मशान भूमि में विद्या सिद्ध कर रहा
देवियां तीर्थङ्करों के जन्म समय में परम था परन्तु प्राणनाश के भय से शंकित
प्रमोद के साथ अपने हाथों में भंगार (झारी) होकर बार बार रुक जाता था तो
लिये हुए माता की भक्ति और सेवा करती.हैं उसी समय यमदण्ड ( कोतवाल) के
(त्रि. गा. ६४८,६४६,६५५,६५६) भय से भागता हुआ यह अंजनचोर अजनमालका- 'धर्मा' नामक प्रथम भाग्यवश उसी स्थान में पहुँच गया। नरक के खर भाग की १६ पृथ्वियों में से उसने उस माली से विधि सोख कर | १० वीं पृथ्वी जिस की मुटाई १००० महा पंच नमस्कार मंत्र का अशुद्ध उच्चारण योजन है। (पीछे देखो शब्द “ अङ्का" करते हुए भी केवल दृढ़ श्रद्धावश प्राण- | पृ० ११४ )॥ नाश की लेश शंका न करके बताई विधि
(त्रि० गा० १४८) द्वारा वह विद्या तुरन्त सिद्ध करली। अजनरिष्ट-वायु कुमार जाति के देवों पश्चात् शेठ जिनदत्त का बड़ा कृतज्ञ होकर | का एक इन्द्र ( अ. मा.)।
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अंजना।
( २१५ ) अंजनवर
वृहत् जैन शब्दार्णव अंजनवर, ('अञ्जनक)-मध्य लोक, के |
स्कारित हो कर गर्भावस्था में ६ मास से असंख्यात द्वीप समुद्रों में से स्वयम्भूरमण
अधिक बनवास के अनेक कष्ट सहन किये।
बन ही में इस के गर्भ से वीर हनुमान का नामक अन्तिम समुद्र से पूर्व का १२ वां
शुभ मुहूर्त में जन्म हुआ जिसका नामसमुद्र और इसी नाम के अन्तिम द्वीप से
करण संस्कार और कुछ समय तक पाल-| पूर्व का १२ वां द्वीप। अञ्जनवर द्वीप में किन्नर कुल के व्यन्तर
म पोषण अञ्जना के मातुल प्रतिसूर्य के | देषों के इन्द्रों के नगर है। किन्नर कुल के
यहां हुआ। दो इन्द्र 'किम्पुरुषन्द्र' और 'किन्नरेन्द्र' हैं।
(पद्मपुराण पर्व १५-१६) इन में से पहिले इन्द्र के (५), किम्पुरुषपुर
'नोट१-अंजनी के पुत्र “वीरहनुमान" (२) किम्पुरुष प्रभ (३) किम्पुरुषकान्त का जन्म अब से लगभग १० लाख वर्ष पूर्व, (४) किम्पुरुषावर्त्त (५) किम्पुरुषमध्य, यह शुभ मि. वैशाख कृ.८ (गुजराती चैत्र कृ.८) ५ नगर दक्षिण दिशा में हैं और दूसरे |
ाि दिशा में हैं और दसरे | शनिवार, श्रवण नक्षत्र-चतुर्थ चरण, ब्रह्मयोग, इन्द्र के (१) किन्नरपुर (२) किन्नरप्रभ (३)
लग्न मीन में इष्ट ५६।१५ (५६ घड़ी १५ पल) किन्नरकान्त (४) किन्नरावर्त (५) किन्नर
पर रात्रि के अन्तिम भाग में हुआ था जिस मध्य, यह ५ उत्तर दिशा में हैं । की जन्म कुंडली यह है:-- (त्रि. गा. ३०५,२८३,२८४ )
१ सू०/ अंजना ( अञ्जनी)-(१) रामभक्त प्रसिद्ध वीर हनुमान की माता।
(१२बु०शु०श०१०चं०|| यह आदित्यपुर के एक वानरबंशी राजा 'प्रहलाद' के वीर पुत्र “पवनञ्जय" की स्त्री और महेन्द्रपुराधीश राजा महेन्द्र की पुत्री थी । राजकुमार प्रसन्नकीर्ति | ४ वृ० इस का भ्राता और हनु नरेश प्रतिसूर्य इस का मातुल (मामा) था । 'हृदय वेगा' इस की माता का नाम और 'केतुमती' इस की श्वश्रू ( सास ) का । नोट२-वाल्मीकीय रामायण के लेखानाम था।
नुसार 'अञ्जना' एक 'पुंजकस्थला' नामक इस ने पूर्व जन्म के एक अशुभ कर्म | अप्सरा ( स्वर्ग घेश्या ) थी जो 'केशरि' के उदय से विवाह होते ही २२ वर्ष तक | नामक एक तपस्वी कपिराज (वानर पति) पति के निरादर और पतिवियोग का की पत्नी हो कर 'अञ्जना' नाम से प्रसिद्ध निरपराध महान कष्ट सहन किया और हुई । एक दिन अपने रूप के अहंकारवश फिर पति संयोग होने पर पति की अनुप- | ऋषि के शाप से यह पशुजाति की कुरूपा स्थिति में श्वसुर और श्वन से तिर-| वामरी होगई । फिर प्रार्थना करने पर ऋषि
मं.
.
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अंजना
( २१६ ) अंजना
वृहत् जैन शब्दार्णव के अनुग्रह से अपना रूप यथा इच्छा बना| १. पृथ्वी के वर्ष को या उसकी दीप्ति सकने का बरदान पाकर "व" नामक एक की अपेक्षा से इस नरक का नाम 'पंकप्रभा' वानर की स्त्री बन गई । एकदा एक पर्वत है। चित्रा पृथ्वी के तल भाग से इस नरक पर पीतवस्त्रादि से शृङ्गारित हो विहार करते के अन्त तक की दूरी ३ राजू प्रमाण है॥ समय पवन देवता ने इस के रूप पर मोहित २. यह नरक ऊपर से नीचे नीचे को होकर और इस के शरीर में रोमों द्वारा प्रतरों या पटलों में विभाजित है जिन के प्रवेश कर इसे गर्भवती किया जिस से कुछ नाम आरा, मारा, तारा, चर्चा (वर्चस्क ), दिन पश्चात् अन्जनी की इच्छा होने पर तमका, घाटा (खड), और घटा (खडखड) अकस्मात् "हनुमान" का जन्म हुआ । है । इन में से प्रत्येक पटल के मध्यस्थित इत्यादि ।
बिल को इन्द्रक बिल कहते हैं जिनका नाम किसो किसी अजैन पौराणिक लेख से
अपने अपने पटल के नाम समान आरा मारा पाया जाता है कि अंजना अपने पूर्व जन्म आदि ही हैं। में "पुंजकस्थला" नामक अप्सरा थी ।
३. प्रथम पटल के मध्य में एक इन्द्रक भस्मासुर की कथा में हनुमान को शिवजी के बिल है, पूर्वादि चारों दिशाओं में सोलह वीर्य से उत्पन्न बतलाया है। कहीं शिव जी सोलह और आग्नेयादि चारों विदिशाओं का भवतार बता कर इनका नाम "शंकर. में पन्द्रह पनाह ।
| में पन्द्रह पन्द्रह, एवम् चारों दिशाओं में सुवन' लिखा है । इत्यादि ॥
६४ और विदिशाओं में ६०, सर्व १२४ श्री. (बाल्मीकि. किम्कि. सर्ग ६७)
। णीबद्ध बिल हैं। दूसरे पटल में १ इन्द्रक (२) चतुर्थ नरक का नाम अधोलोक की प्रसनाली ७ विभागों या | बिल. पूर्वादि प्रत्येक दिशा में १५ और आप्रवियों में विभाजित है। वर्ण या दीप्ति | ग्नेयादि प्रत्येक विदिशा में १४, एवम् चारों की अपेक्षा से इन ७ पृथ्वियों के नाम ऊपर | पूर्वादि दिशाओं में ६०, और विदिशाओं से नीचेको क्रमसे (१) रत्नप्रभा (२) शर्करा में ५६, सर्व ११६ श्रेणीबद्ध बिल हैं। इसी प्रभा (३) बालुका प्रभा (४) पङ्क प्रभा (५) | प्रकार तीसरे चौथे आदि नीचे नीचे के एटलों धमप्रभा (६) तमप्रभा (७)महातमप्रभा हैं। की प्रत्येक दिशा विदिशा में एक एक श्रेणीइनमें से चौथो पृथ्वीका रूढ़ि नाम अञ्जना
बद्ध बिल कम होता गया है जिससे तीसरे
पटल में १०८, चौथे में १००, पांचवें में ६२, इन सात पृथ्चियों के अर्थ रहित रूढ़ि छटे में ८४, और सातवे में ७६, एवम् सातों नाम क्रमसे (१)धर्मा (२)बंशा (३) मेघा(४) पटलों में सब ७०० श्रेणीबद्ध बिल हैं ।।। अञ्जना (५) अरिष्टा (६)मघवी (७)माघवी ४. इस नरक में उपर्युक्त ७ परलों हैं। यही सातों पृथ्वी सप्त नरक हैं। के मध्य के ७ इन्द्रक-बिल, इन.इन्द्रकबिलों की
(त्रि. १४४-१५१) | पूर्वादि दिशा विदिशाओं के ७०० श्रेणीबद्धनोट:- इस अञ्जना नामक चतुर्थ नरक बिल और दिशा विदिशाओं के बीच अन्तसम्बन्धी जानने योग्य कुछ बातें निम्न लि. | | राल के ६६६२६३ प्रकीर्णकबिल, एवम् सर्ध खित हैं:
१० लाख बिल हैं। .
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अंजना
५. इस नरक के 'आरा' नामक प्रथम इन्द्रकबिल की पूर्वादि चार दिशाओं में जो ६४ श्र ेणीबद्ध बिल हैं उन में से पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं के पहिले पहिले बिलों के नाम क्रम से निसृष्टा, निरोधा, अनिसृष्टा (अति निसृष्टा ) और महानिरोधा हैं ॥
१२६१६६६
( २१७ )
जैन शब्दार्णव
६. इस नरक के प्रत्येक बिल में अति उष्णता, दुर्गन्धता, और महा अन्धकार है ।
७. इस नरक के सबसे ऊपर के प्रथम पटल के 'आरा' नामक प्रथम इन्द्रकबिल का विस्तार १४७५००० महायोजन है । दूसरे पटल के 'मारा' नामक इन्द्रकबिल का विस्तार १३८३३३३१ महायोजन, तीसरे का
वृहत्
३
का, ११०८३३३ १, छठे का १०१६६६६ २,
३ ३ और सर्व से नीचे के सातवें का स२५००० महायोजन है । ७०० श्र ेणीबद्ध बिलों में से प्रत्येक का विस्तार : असंख्यात महायोजन और शेष ६६६२६३ प्रकीर्णक बिलों में से ७६६३०० का असंख्यात असंख्यात महायोजन और १९९९९३ का संख्यात संख्यात महायोजन है |
१०. इस नरक के सबसे ऊपर के 'आरा' नामक प्रथम पटल की भूमि की मट्टी जिसे वहां के नारकी जीव अति क्षुधातुर हो कर भक्षण करते हैं इतनी दुर्गन्धित है कि यदि उस मृतिका का कुछ भाग यहाँ मनुष्य लोक में आपड़े तो १७ कोश तकके प्राणी चौये का १२०००००, पांचवें उसकी अति दुर्गन्धिता से मृत्यु को प्राप्त हो जावैं, और इसी प्रकार वहां के द्वितीयादि पटलों की मृत्तिका से क्रम से १७, १८, १= ॥ १९, १२॥, और २० कोश तक के प्राणी मृत्यु के मुख में चले जाय ।
३
११. इस नरक के प्रथमादि सातों पटलों में जघन्य आयु क्रम से एक एक समय ३ ६ २ कम ७, ७ ७
"
७ ૭ ७
८. इस नरक के प्रत्येक इन्द्रकबिल की पृथ्वी की मुटाई २ क्रोश, प्रत्येक श्र ेणीबद्ध
३
बिल को ५ क्रोश है ॥
६
बिल की ३-क्रोश और प्रत्येक प्रकीर्षक
३
६. इस नरक के बिलों की छत में नारकियों के उत्पन्न होने के उप्पाद स्थान गो
अंजना
मुख, गजमुख, अश्वमुख, भत्त्रा (फुंकनी या मशक), नाव, कमलपुट आदि जैसे आकार के एक एक योजन व्यास या चौड़ाई के और पांच पांच योजन ऊंचे हैं। नारकी वहां जम्म लेते ही उप्पाद स्थान से नीचे गिर कर और पृथ्वी पर चोट खाकर गेंद की समान पहली बार ६२॥| योजन ऊँचे उछलते हैं, फिर कई बार गिर गिर कर कुछ कम कम ॐ ऊँ बे उछलते हैं ॥
५ १ ८ -, ६ -, ६ ७
७
सागरोपम काल प्रमाण और उत्कृष्ट आयु
६ २.
५
9
८- १ ह ७
ક
૭ ७
१० लागरोपम काल प्रमाण है, अर्थात् पटल पटल प्रति आयु सागरोपम काल बढ़ती जाती है।
७
१२. इस नरक के नारकियों के शरीर की ऊँचाई प्रथमादि सातों पटलों में क्रम से ३५ धनुष २ हाथ २०४ अंगुल, ४० धनुष 39
क्रम से ७
الله
३
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の
,
9
"
४
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( २१८ ) अञ्जना वृहत् जैन शब्दार्णव
अञ्जनात्मा १७ अंगुल, ४४ धनुष २ हाथ१३, अंगुल, | ...
मरण या दोनों से शन्य रह सकता है।
(त्रि. गा. १४४-२०६, हरि. सर्ग ४) ४६धनुष १० अंगुल,५३ धनुष २ हाथ ६६ (३) घर्मा नामक प्रथम नरक के खर
भाग की १६ पृथ्वियों में से ८वीं पृथ्वी अंगुल, ५४ धनुष ३३ अंगुल और ६२ धनुष का नाम भी अञ्जना' है जिसकी मुटाई
१००० महायोजन है । ( पीछे देखो शब्द २ हाथ है । अर्थात् पटल पटल प्रति ४ धनुष
'अङ्का', पृ०११४) । र हाथ २०५ अंगुल ऊंचाई बढ़ती गई है।
(त्रि. गा. १४७) ((२४ अंगुल का एक हाथ और ४ हाथ का
(४) जम्बूवृक्ष के नैऋत्य कोण की एक धनुष होता है)।
एक बावड़ी का नाम ( अ. मा.)॥ १३. इस नरक के नारकियों का अध- अंजना चरित-कर्णाटक देशीय प्रसिद्ध धिशान का क्षेत्र ढाई क्रोश तक का है। और | जैनकवि 'शिशुमायण' कृत एक चरित लेश्या नील है।
प्रन्थ जिसमें पवनञ्जय की स्त्री 'अञ्ज१४. इस नरकका नारकी वहां की आयु नासुन्दरी' का चरित वर्णित है॥ पूर्ण होने पर तीर्थङ्कर, चक्री, बलभद्र, नारा- इस चरित प्रन्थ की रचना कधि ने यण,प्रतिनारायण, इन पदों के अतिरिक्त अन्य बेलुकेरेपुर के राजा गुम्मटदेव की रुचि कोई कर्मभूमिज संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्त गर्भज और प्रेरणा से की थी। इस कवि रचित मनुष्य या तिर्यञ्च ही होता है । अन्य भेद एक अन्य प्रन्थ 'त्रिपुरदहन सांगत्य'नामक वाला मनुष्य या तिर्यच नहीं होता। भी है। कवि के पिता का नाम 'बोम्म
. १५. इस नरक में नियम से कोई कर्मः | शेठि' था जो कावेरीनदी की नहर के भूमिज़ संशी पंचेन्द्रिय तिर्यंच या मनुष्य पास 'नयनापुर' नामक ग्राम निवासी ही आकर जन्म लेते हैं। संशी जीवों में भी मायणशेठि' नामक एक प्रसिद्ध धनिक छिपकली गिरगट आदि सरीसर्प और भेरुंड व्यापारी की 'तामरसि' नामक स्त्री के पक्षी आदि विहंगम पंचेन्द्रिय यहां जन्म नहीं गर्भ से उत्पन्न हुआ। कवि की माता लेते । यह तृतीय नरक तक ही जन्म ले 'नेमांबिक्षा' और गुरु श्री भानुमुनि' थे।। सकते हैं । इस नरक में आकर जन्म लेने (देखी प्र० 'वृ० वि० च' ) ॥ वाला कोई जीप ५ बार से अधिक निरंतर
(क०४६) यहां जन्म नहीं लेता। .
अंजनात्मा-पूर्व विदेहक्षेत्र में 'सीता' १६. इस नरक में जन्म और मरण में प्रत्येक का उत्कृष्ट अन्तर एक मास का है,
नामक महानदी की दक्षिण दिशा के चार अर्थात् कुछ समय तक यहां कोई भी
'वक्षार' पर्वतों में से एक का नाम ॥ प्राणी आकर जन्म न ले या कुछ समय तक | पूर्व विदेहक्षेत्र में सीतानदी की दक्षिण | यहां कोई भी प्राणी न मरे तो अधिक से | दिशा में जो विदेहक्षेत्र का चौथाई भाग अधिक एक मास पर्वत यह नरक जन्म यो है वह त्रिकूट, वैश्रवण, अञ्जनात्मा और |
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अन्जनाद्रि बृहत् जैन शब्दार्णव
अजू अञ्ज, इन चार वक्षारगिरि और तप्त- भाषा के ग्रन्थ हैं॥ जला, मत्तजला और उन्मत्त जला, इन
(क०५६) ३ विभा नदियों से वत्सा, सुवत्सा, अञ्जना सुन्दरी नाटक-इस नाम का महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, सुरम्या,
एक नाटक प्रन्थ भरतपुर निवासी बाबू रमणीया और महलावती, इन ८ विदेह
मंगलसिंह वासवश्रीमाल के पुत्र बाबू। देशों में विभक्त है इन में से रम्या, सुरम्या
कन्हैयालाल अजैन ने हिन्दी गद्य पद्य में नोमक देशों की मध्य सीमा पर के पर्वत
जैन कथा के आधार पर सन् १८६६ ई. में! का नाम 'अञ्जनात्मा' है।
रखकर इस के मुद्रणादि का सर्वाधिकार . (त्रि. ६६७, ६८८)
'श्री बेङ्कटेश्वर प्रेस' बम्बई के स्वामी खेम-1 अंजनादि-पीछे देखो शब्द 'अञ्जन
राज श्रीकृष्णदास को दे दिया है, जो गिरि', पृ० २१२॥
प्रथम बार सन् १६०६ई. (वि०सं०१९६६) अंजना नाटक-हिन्दी के सुप्रसिद्ध एक | में उसी प्रेस से मुद्रित हो चुका है।
पैन लेखक सवाल विवासी श्रीयुत सु. अञ्जनी-पीछे देखो शब्द 'अञ्जना (१) | दर्शन कवि रचित नाटक ॥
. पृ० २१५ ॥ अञ्जना-पवनञ्जय नाटक-कर्णाटक अञ्जिकजय (पवनंजय)-भरत चक्र देशीय उभय भाषा कवि-चक्रवर्ति 'हस्ति- वर्ती की सवारी के अश्व का नाम । मल्ल' रचित एक संस्कृत भाषा का नाटक अञ्जका-१७ वें तीर्थंकर श्रीकुन्थनाथ ग्रन्थ।
के समवशरण की मुख्य साध्वी ( मुख्य। इस कवि का समय विक्रम को चौद
आर्यिका या गणनी) का नाम (अ.मा. ह्वीं शताब्दी है । कहा जाता है कि इस
अंजुया)। कवि ने एक बार एक मदोन्मत्त हस्ती को दमन किया था। इसी लिये इस का नाम
श्री कुन्थनाथ के समवशरण की मुख्य |
आर्यिका का नाम 'भाषिता' भी था जो 'हस्तिमल्ल' प्रसिद्ध हुआ । यह गोबिन्द
६०३५. आर्यिकाओं की मुख्य गणनी थी। भट्ट का पुत्र था । पाश्र्वपंडित भादि इस के कई पुत्र थे और श्रीकुमार, सत्यवाक्य,
(उत्तर पु० पर्ष ६४ श्लोक ४६ )। देवरबल्लभ और उदयभूषण, यह चार इस
नोट-श्वेताम्बर जैन मुनि श्री 'आत्मा' के ज्येष्ठ भ्राता थे और बर्द्धमान इसका एक
राम जी रचित ग्रन्थ 'जैन तत्वादर्श'मैं पृ० ३० लघु भ्राता था। लोकपालार्य नामक इस
पर 'श्रीकुन्थनाथ' की मुख्य साध्वी का नाम का एक शिष्य था । इस कवि रचित | 'दामिमि' दिया है। अन्य संस्कृत नारक ग्रन्थ, सुभद्राहरण, | अज-(१) शुक्रेन्द्र (९८ स्वर्ग का इन्द्र) विकान्तकौरवीय ( सुलोचना नाटक ), की चौथी पटरानी का नाम ( अ० मा० मैथिली परिणय आदि हैं और कई कनड़ी | अंजू )
i
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(
२२० )
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अटट वृहत् अनशब्दार्णव
अट्ठकवि (२) एक धनदेव सेठ की पुत्री का काल होता है । (पीछे देखो शब्द 'अङ्कनाम जिस का कथन विपाकसूत्र के १० वे विद्या,' का नोट ८ पृ० ११०,१११) ॥ अध्याय में है (अ० मा० अंजू)।
(हरि० सर्ग ७ श्लोक १६-३१) अटट-काल विशेष, एक बहुत बड़ा काल | अट्टन ( अट्टण )--उज्जयनी में रहने परिमाण, चौरासी लाख अष्टाङ्ग वर्ष, वाले एक मल्ल का नाम ।
__यह मल्ल सोपारक नगर के राजा के “(८४ लक्ष )१८ वर्ष ॥ ..
पास से बहुत बार इनाम (पारितोषिक ) ८४ लक्ष का १८ वां बल ( घात ),
लाया था, परन्तु उसकी वृद्धावस्था में . अर्थात् ८४ लाख को १८ जगह रख कर
एक प्रतिस्पर्धी ( ईर्षालु,देख जलने वाला) : परस्पर गुणन करने से जो संख्या प्राप्त हो
खड़ा हो गया जिसने उसे पराजित किया, उतने वर्षों का एक अटट होता है । ४३३
, इस लिये अट्टण ने दुखी होकर मुनिदीक्षा ५३,७६७६३६२६५३३८५३२१८३६५, २११५
लेली (अ० मा० ) ॥ १५२९९६००००००००००,०००००००००००
अट्रकवि :( अहंदास )-एक कर्णाटक ००००००००००००००००००००००००००० ००,००००००००००००००००००००, ०००० देशीय ब्राह्मण कुलोत्पन्न प्रसिद्ध जैन ०००००००००००००००० (३५ अङ्क और १० ___ कवि ॥ शन्य,सर्व १२५ स्थान) वर्षोंका एक 'अटट' इस कवि के सम्बन्ध में निम्न लिखित काल कहलाता है। (पीछे देखो श० 'अङ्क
बाबें ज्ञातव्य हैं।:-- विद्या' का नोट ८पृ० ११०, १११)॥
(१) इस कवि का समय ईस्वी सन् अटटाङ्ग-काल विशेष, एक बहुत बड़ा
१३०० के लगभग है ॥
(२) ईसा की दसवीं शताब्दी के मध्य काल परिमाण । ८४ लक्ष श्रुत्य प्रमाण
में हुए गङ्गवंशीय महाराज 'मारसिंह' के काल । एक 'अटट' काल का ८४ लाखवां
सेनापति 'काडमरस' के वंश में उसकी । भाग प्रमाण वर्ष, (८४ लाख) वर्ष ॥ १६वीं पीढ़ी में इस कवि का जन्म हुआ ८४ लाख का १७वाँ बल (घात ),
था। अर्थात् ८४ लाख को १७ जगह रख कर . (३) इसके पिता का नाम 'नागकुमार' परस्पर गुणन करने से जो संख्या प्राप्त हो उतने वर्षों का एक 'अटटाङ्ग' काल होता (४) इसने अपने नामके साथ 'जिन है। ५१६११६६४२०९८७५४०३०,१४५०४३ नगरपति', 'गिरिनगराधीश्वर' आदि ४७७५६१३४४००000,00000000000000 , विशेषण लिखे हैं जिस से जाना जाता है 000000,00000000000000000000,00 कि यह कवि इन नगरों का स्वामी भी था। 000000000000000000,0000000000 (५) इस कवि के पूर्वज 'काडमरस' 0000000000 ( ३३ अङ्क और ८५ शून्य, को जो महाराजा 'मारसिंह' का एक वीर सर्व ११८ स्थान ) वर्षों का एक 'अटंटा। सेनापति था एक बलवान शत्र पर विजय
....
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( २२१ ) अट्ठमत वृहत् जैन शब्दार्णव
अट्ठाईस अनुमानाभास पाने के उपलक्ष में २५ ग्रामों को एक बड़ी हैं। इस अनुमानाभास के निम्न लिखित जागीर मिली थी।
५ मूल भेद और २८ उत्तर भेद हैं:(६) यह कवि 'अर्हत्कवि' और 'अर्ह- १. पक्षाभास ७--(१) अनिष्ट पक्षादास' नामों से भी प्रसिद्ध था।
भास (२) सिद्ध पक्षाभास (३) प्रत्यक्ष(७) कनड़ी भाषा का 'अठमत' | वाधित पक्षाभास (४) अनुमान बाधितनामक एक प्रसिद्ध ज्योतिष प्रन्थ इसी पक्षाभास (५) आगमवाधित पक्षाभास कवि का बनाया हुआ है । यह समग्र नहीं (६) लोकवाधित पक्षाभास (७) स्ववचनमिलता। इसके उपलब्ध भाग में निम्न वाधित पक्षामास । लिखित विषय हैं :--
२. हेत्वाभास ११--(१) स्वरूपासिद्ध • १. वर्षा के चिन्ह, ३. आकस्मिक ल- या असतसत्तासिद्ध हेत्वाभास (२) सन्दि- 1 क्षण, ३. शकुन, ४. वायुचक्र, ५: मो ग्धासिद्ध या अनिश्चितसत्तासिद्ध हेत्वाप्रवेश, ६. भूकम्प, ७. भूजातफल, ८. उ- भास (३) विरुद्हेत्वाभास (४) निश्चित त्यातलक्षण, ६. परिवेशलक्षण, १० इन्द्र- विपक्षवृत्ति अनैकान्तिक हेत्वाभाल (५) धनुषलक्षण, ११. प्रथमगर्भ लक्षण, १२. शङ्कित विपक्षवृत्ति अनैकान्तिकहेत्वाभास द्रोणसंख्या, १३. विद्यु त लक्षण, १४. प्रति (६) सिद्धसाधन अकिञ्चित्कर हेत्वाभास सूर्य लक्षण, १५. सम्वत् सर फल, १६. (७) प्रत्यक्षवाधित विषय अकिञ्चित्कर ग्रहद्वेष, १७. मेघों के नाम कुल/वर्ण, १८. हेत्वाभास (E) अनुमान वाधित विषय ध्वनि विचार, १९. देशवृष्टि, २०. मास अकिञ्चित्कर हेत्वाभास (8) आगम फल, २१ राहुबक, २२. नक्षत्रफल, २३. पाधित विषय अकिञ्चित्कर हेत्वाभास संक्रान्तिफल, इत्यादि । (देखो प्र० 'वृ० | (१०) लोकवाधित विषय अकिञ्चित्कर वि० च०')
(क० ६०) हेत्वामास (११) स्ववचनवाधित विषय अट्ठमत- अट्ठ कवि रचित कनड़ी
अकिञ्चित्कर हेत्वाभास। भाषा का एक ज्योतिष ग्रन्थ । (ऊपर
३. अन्वय दृष्टान्ताभास ४--
(१) साध्य विकल अन्यय दृष्टान्ताभास देखो शब्द 'अट्ठकवि' )॥
(२)-साधन विकल-अन्वय दृष्टान्ताभास अट्ठाइस-अनुमानाभास-अनुमान
(३) उभय चिकल अन्धय दृष्टान्ताभास प्रमाण सम्बन्धी ३८ प्रकार के दोष ।। (४) विपरीत या अतिप्रसंग अन्वय दृष्टा. ___ यथार्थ न होने पर भी जो यथार्थ स- म्तामास । रीखा जान पड़े उसे न्याय की परिभाषा ४. व्यतिरेक दृष्टान्ताभास ४-- में आभास ( झलक, प्रतिबिम्ब, तुल्यता, (१) साध्य विकल व्यतिरेक दृष्टान्ताभास सदृशता ) कहते हैं। यह आभास जब (२) साधन विकल व्यतिरेक दृष्टान्ताभास अनुमान प्रमाण के किसी एक या अधिक (६) उभय विकल व्यतिरेक दृष्टान्ताभास अवयवों में हो अथवा उसके प्रयोग में हो । (४) विपरीत या अतिप्रसङ्ग व्यतिरेकदृष्टातो उस आभास को 'अनुमानाभास' कहते न्ताभास।
दस
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( २२२ ) वृहत् जैन शब्दाव
अट्ठाईस नक्षत्राधिप
वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, अभिजित, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, रेवती । (देखो ग्रन्थ 'स्थानां गार्णष' ) ॥ ( त्रि. गा. ४३२, ४३३ )
अट्ठाईस नक्षत्राधिप-अश्विनी आदि
२८ नक्षत्रों के २८ अधिपति देवताओं के नाम क्रम से निम्न लिखित हैं:
१. अश्व, २. यम ३. अग्नि, ४. प्रजापति, ५. सोम, ६. रुष्ट्र, ७. अदिति, म. देवमंत्री, ६. सर्प, १०. पिता, ११. भग १२. अर्यमा, १३. दिनकरा, १४. त्वष्टा, १५. अनिल, १६. इन्द्रग्नि, १७. मित्र, १८. इन्द्र, १९. नैऋति, २०. जल, २१. विश्व, २२. ब्रह्मा, २३. विष्णु, २४. वसु, २५. वरुण, २६. अज, २७. अभिवृद्धि, २८. पूषा । (देखो प्र० 'स्थानां गार्णव' ) ॥ ( त्रि० गा० ४३४, ४३५ ) ५. कर्णेन्द्रिय विषय ७—पड़ज, नोट १ - अश्विनी आदि प्रत्येक नक्षत्र ऋषभ, गाम्धार, मध्यम, पंचम, धैवत, के तारों की अलग अलग संख्या क्रम से ५, निषाद
अट्ठाईस इन्द्रियविषय
५. बाल प्रयोगाभास २ - (१) हीन प्रयोगाभास (२) क्रम भङ्ग प्रयोगाभास ।
नोट - इन २८ प्रकार के अनुमानाभास में से प्रत्येक का लक्षण स्वरूपादि यथास्थान देखें | ( देखो ग्रन्थ 'स्थानाङ्गाofa') 11
परी० अ० ६ सूत्र ११-५० )
अट्ठाईस इन्द्रियविषय- पांचों बाह्य इन्द्रियों और मनेन्द्रिय (अभ्यन्तर इन्द्रिय) के १८ मूल विषय निम्न लिखित हैं:
-
१. स्पर्शनेन्द्रिय विषय - कोमल, कठोर, लघु, गुरु, शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध ॥
२. रसनेन्द्रिय विषय ५ - कट, मिष्ट, कषायल, आम्ल, तिरू ॥
३. घ्राणेन्द्रिय विषय २-सुगन्ध, दुगंध ॥
४. नेत्रेन्द्रिय विषय ५ - स्वेत, पीत, हरित, अरुण, कृष्ण ॥
३, ६, ५, ३, १, ६, ३, ६, ४, २, २, ५, १, १, ४, ६, ३, ९, ४, ४, ३, ३, ५, १११, २, २, ३२ हैं ॥
६. अनिन्द्रिय ( मनेन्द्रिय) विषय १ - संकल्पविकल्प | ( देखो ग्रन्थ 'स्थागार्णव' ) ॥
( गो० जी० ४७८, मू० ४१८ )
प्रत्येक नक्षत्र के तारों की इस संख्या को ११११ में अलग अलग गुणन करने से उन
•
भट्ठाईस इन्द्रियविषय निरोध - २८ नक्षत्रों के परिवार तारोंकी संस्था प्राप्त होगी।
प्रकार के इन्द्रिय विषयों से मन को रोकना । ( ऊपर देखो शब्द 'अट्ठाईस 'इन्द्रियविषय' ) ॥ अट्ठाईस नक्षत्र - अश्विनी, मरणी, कुत्तिका, रोहिणी, मृर्गाशरा, आर्द्रा, पुन,
नोट २ - प्रत्येक नक्षत्र के तारागण की स्थिति से जो आकार दृष्टिगोचर होते हैं वह क्रम से ( उपरोक्त नक्षत्रक्रम से ) निम्न लिखित हैं:- १ अश्बमस्तक, २. घुलीपाषाण, ३. बीजना, ४. गाड़ा की ऊद्धिका, ५. मृगमस्तक, ६. दीपक, ७. तोरण, ८.
छत्र,
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( २२३ ) अट्ठाईस-प्ररूपणा वृहत् जैन शब्दार्णव
अट्ठाईस-प्ररूपणा ६.वल्मीक, १०. गोमूत्र, ११. शरयुगल, १२. नोट १.-मोह की हीनाधिक्यता और हस्त, १३. कमल, १४. दीप, १५. अधिकरण | योगों की सत्ता-असत्ता के निमित्त से होने | (आहरिणी, अर्द्धपात्र या अर्धासन) १६. घर- | वाली आत्मा के सम्यग्दर्शन शान चारित्र माला १७. वीणा,१८. शृङ्ग, १६. वृश्चिक,२०. | रूप गुणों की अवस्थाओं को 'गुणस्थाम' जीर्णयापी, २१. सिंहकुम्भस्थल, २२. गज- | कहते हैं । अथवा दर्शन मोहिनीयादि कर्मों कुम्भस्थल, २३. मृदङ्ग, २४. पतनमुखपक्षी, की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि | २५. सेना, २६. गजशरीरानभाग, २७. गज अवस्थाओं के निमित्त से होने वाले परिणामों शरीर का पृष्ट भाग, २८. नौका ॥ को 'गुणस्थान' कहते हैं। नोट ३.-नक्षत्रों और उनके सर्व तारों
(गो. जी. ET की उत्कृष्ट आयु एक पल्योपमकाल का चौ. नोट २.-जिन भावों या पर्यायों के थाई भाग और जघन्य आयु आठवां भाग | | द्वारा अनेक अवस्थाओं में स्थित जीवों का | प्रमाण है॥
शान हो उन्हें मार्गणा कहते हैं । अथवा (त्रि० १४०-४४६)
श्र तज्ञान में जिस प्रकार से देखे जाने गये अट्राईस-प्ररूपणा-जीवद्रव्य का स्व.
| हो उसी प्रकार से जिन जिन भावों द्वारा या रूपादि निरूपण करने के २८ आधार ॥ | जिन जिन पर्यायों में जीवद्रव्य का विचार
जिस आधार द्वारा जीवद्रव्य का किया जाय उन्हें 'मार्गणा' कहते हैं। सविस्तार स्वरूप आदि निरूपण किया
(गो० जी० १४.) जाय उसे 'प्ररूपणा' कहते हैं । इसके मूल । नोट ३.-संक्षेप, सामान्य और ओघ, भेदी दो अर्थात् (१) गुणस्थान और (२) यह तीनों भी 'गुणस्थान' की संज्ञा या उस मार्गणा है। इन ही. दो भेदो के विशष के पर्यायवाची अन्य नाम हैं। और विस्तार, भेद निम्न लिखित २८ है:
विशेष और आदेश, यह तीनों माम'मार्गणा' १. गुणस्थान १४-(१) मिथ्यात्व (२) की संज्ञा या उसके पर्यायवाची नामान्तरे है ।। सासादन (३) मिश्र (४) अविरत सम्य
(गो० जी०३) ग्दष्टि (५) देशविरत (६) प्रमत्तविरत (७) नोट ४.-उपर्युक्त २ या २८ प्ररूपअप्रमत्तविरत (E) अपूर्वकरण (६) अनि- णाओं के अतिरिक्त (१) जीवसमास (२) वृत्तिकरण (१०) सूक्ष्मसारप्राय (११) उप- पर्याप्ति (३) प्राण () संज्ञा (५) उपयोग, शान्तमोह (१२) क्षीणमोह (१३) सयोग | यह ५ प्ररूपणा तथा = अन्तरमार्गणा और फेवलिजिन (१४) अयोगकालजिन ॥ भी हैं जिन का अन्तर्भाव उपयुक्त १४
२. मार्गणा १४--(१) गति (२) इन्द्रिय मार्गणाओं में ही हो जाता है। (३) काय (४) योग (५) वेद (६) कषाय
. (गो० जी०४-७, १४२) (७) शान (८) संयम (8) दर्शन (१०) लेश्या नोट ५.-अभेद विवक्षा से अथवा (११) भव्य. (१२) सम्यक्त्व (१३) संशी संक्षिप्त रूप से तो प्ररूपणाओं की संख्या (१४) आहार ॥
केवल दो ( गुणस्थान और मार्गणा) ही है। (गो. जी. ६,१०, १४१) | पर भेद विवक्षा से अथवा विशेष रूप से
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(
२२४ )
अट्ठाईस-प्ररूपणा
वृहत् जैन शब्दार्णव . अट्ठाईस-भाव निम्न प्रकार इस में अनेक विकल्प हो सकते ८, यह ३६ भेद ॥
| १५. उपयुक्त ३६ भेदों में जीवसमालादि ५ १. गुणस्थान, मार्गणा, अन्तरमार्गणा, यह मिलाने से ४१ भेद ॥ . तीन भेद ॥
इत्यादि............... २. गुणस्थान, मार्गणा, जीवसमास, पर्याप्ति, नोट ६.-उपयुक्त १४मार्गणाओं में से .. प्राण, संज्ञा, उपयोग, यह ७ भेद ।। गति ४, इन्द्रिय २ या ५ यो ६, काय २ या
३. उपयुक्त ७ भेदों में अन्तरमार्गणा मिलाने | ६, योग ३ या १५,वेद २.या ३, कषाय २ या . से ८ भेद ॥
४ या २५, शान २ या ५ या ८, संयम २ या | ४: दो मूल भेदों में ८ अन्तरमार्गणा मिलाने ५ या ७ या १२ या २२, दर्शन ४, लेश्या ६, से १० भेद ।।
| भव्य २, सम्यक्त्व ३ या ६, संज्ञी २, आहार ५. उपर्युक्त १० भेदों में जीव-समास आदि | २ या ३ या ५, और इन में से प्रत्येक के __ ५ को मिलाते से १५ भेद । या गुणस्थान | अनेक अवान्तर भेद हैं । इसी प्रकार गुणस्थान
और १४ मार्गणा यह १५ भेद ॥ आदि में अनेकानेक विकल्प हैं जिनका विव६. उपयुक्त १५ भेदों में अन्तरमार्गणा मि- रण और स्वरूपादि यथास्थान देखें । ( देखो
लाने से १६ भेद । या गुणस्थान, १४ प्रन्थ 'स्थानांगार्णव')॥ ... मार्गणा और अन्तरमार्गणा, यह १६ भेद ।।
भट्राईस भाव (अष्टम च नवम गुणस्था७. गुणस्थान, १४ मार्गणा और जीवसमास
नी जीव के )-५३ भावों में से उपशमआदि ५, यह ३० भेद ॥
श्रेणी या क्षायिकरणी चढ़ने वाले जीव . (भेद विवक्षा से मुख्यतः यही २० भेद
के आठवें और न गुणस्थानों में निम्न प्ररूपणाओं के गिनाये जाते हैं)॥
लिखित २८ भाव होते हैं:८. उपयुक्त २० भेदों में अन्तरमार्गणा मिलाने
१. औपशमिकभाव २, या क्षायिक__से ३१ भेद ॥
भाव २ ( उपशमश्रणी घाले के )-उप| ९. गुणस्थान, १४ मार्गणा, और ८ अन्तरमा.
शमसम्यक्त्व, उपशमचारेत्रया क्षायिक, गणा. यह २३ भेद ॥
सम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र॥ १०. उपयुक्त २० भेदों में ८ अन्तरमार्गणा
___ या क्षायिकभाव २ (क्षायिक श्रेणी मिलाने से २८ भेद । या १४ गुणस्थान
वाले के )-क्षायिक-सम्यवत्व, क्षायिकऔर १४ मार्गणा, यह २८ भेद ॥
चारिन । १५. गुणस्थान १४, मार्गणा १४, और अन्तर
२. क्षायोपशमिकभाव १३--शान ४ . मार्गणा, यह २६ भेद ।
(मतिक्षान, श्रु तज्ञान, अवधिज्ञान, मनः | १२. गुणस्थान १४, मार्गणा १४, और जीव |
पर्ययज्ञान ), दर्शन ३ (चक्षुदर्शन, अचसमासादि ५, यह ३३ भेद ॥
क्षदर्शन, अवधिदर्शन ), लब्धि ५ ( दान, | १३. उपर्युक्त २९ भेद्रों में जीवसमासादि ५
लाभ, भोग, उपभोग, वार्य ), और स___ जोड़ने से ३४ भेद ॥
रागचारित्र१॥ १४. गुणस्थान १७, मार्गणा १४, अंतरमार्गणा ३. औदयिकभाव ११-मनुष्यगति १, ।
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( २२५ ) अट्ठाईस भाव
वृहत् जैन शब्दार्णव ___अट्ठाईस मतिज्ञान भेद कषाय ४ (क्रोध, मान, माया, लोभ), (५०) अज्ञान, लिङ्ग ३.(पुरुष, स्त्रो, नपुंसक ), शुक्ल- ५. पारिणामिक भाघ ३--(५१) जीलेश्या १, असिद्धत्व १, अज्ञान १ ॥ घत्व (५२) भव्यत्व (५३) अभव्यत्व । (देखो।
४. पारिणामिकभाव २-जीवत्व, भ- प्र० स्थानांगार्णव')॥ व्यत्व॥
[गो० क० ८१३-८२२] (गोः क. गा. ८२२ की व्याख्या) | अट्राईस मतिज्ञान भेद-मतिमान के नोट-५३ भाव निम्न प्रकार हैं:- (१) व्यंजनावग्रह (२) अर्थावग्रह (३)
१. औपशमिकभाव २-(१) उपशम. ईहा (४) अवाय (५) धारणा, यह ५. सम्यक्त्व (२)उपशम चारित्र,
मूल भेद हैं । इन पांच में से पहिले प्रकार २. क्षायिकभाव ९-(३) क्षायिकज्ञान | का अर्थात् व्यञ्जनावग्रह मतिज्ञान तो (४) क्षायिकदर्शन (५) क्षायिकसम्यक्त्व स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र, इन ४.ही (६) क्षायिकचारित्र (७) क्षायिकदान (6) इन्द्रियों द्वारा होता है ।। अतः इस व्यक्षायिकलाभ (९) क्षायिकभोग (१०) जनावग्रह मतिज्ञान के भेद चारों इन्द्रिय क्षायिकउपभोग (११) क्षायिकीय, अपेक्षा चार हैं। और भावग्रह आदि
३. क्षायोपशमिक या मिश्रभाष१८- शेष चार प्रकार के मतिज्ञान में से प्रत्येक (१२) मतिज्ञान (१३) श्रु तज्ञान (१४) ।। मविज्ञान स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र अवधिज्ञान (१५) मनःपर्ययज्ञान (१६) और मन, इन छहों इन्द्रियों द्वारा होता है। चक्षदर्शन (१७) अचक्षदर्शन (१८) अतः इन चारों प्रकार के मतिज्ञान के भेद अवधिदर्शन (१६) कुमतिज्ञान (२०) छहों इन्द्रिय अपेक्षा ४४६=२४ भेद हैं। कुश्र तज्ञान (२१) कुअवधिज्ञान (२२) अर्थात् व्यञ्जनावग्रह मतिज्ञान के चार क्षायोपशमिकदान (२३) क्षायोपशमिक- भेद, और अर्थावग्रह आदि के २४ भेद, लाभ (२४) क्षायोपशमिक भोग(२५)क्षायो- एवं सर्व २८ भेद मतिज्ञान के हैं। ( पीछे पशमिकउपभोग (२६) क्षायोपशमिकीर्य देखो शब्द 'अक्षिप्र-मतिज्ञान', पृ०४२) (२७) वेदक अर्थात् क्षायोपशमिक सम्य-, | नोट१-मतिज्ञान अभेद दृष्टि से एक क्त्व (२८) सरागचारित्र (२६) देशसंयम, ही प्रकार का है। और भेद दृष्टि से अवग्रह,
४. औदयिकभाव २१--(३०) नरक- ईहा, अवाय, और धारणा की अपेक्षा चार गति (३१) तिर्यञ्च गति (३२) मनुष्यगति प्रकार का है। व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा, (३३) देवगति (३४) पुंल्लिङ्ग (३५) स्त्रीलिङ्ग अवाय, और धारणा की अपेक्षा ५ प्रकार का (३६) नःपुंसकलिङ्ग (३७) क्रोधकषाय(३८) | है। पांच इन्द्रियों और छटे मन से अवग्रहादि मानकषाय (३६) मायाकषाय (४०) लोभ- | होने की अपेक्षा २४ प्रकार का है। व्यंजनाकषाय (४१) मिथ्यात्व (४२) कृष्णलेश्या वग्रह, अर्थावगूह, ईहा, अवाय, धारणा और (४३) नीळलेश्या (४४) कापोतलेश्या (४५) छहों इन्द्रियों की अपेक्षा उपयुक्त २८ प्रकार पांतलेश्या (४६) पद्मलेश्या (४७) शुक्ल- का है । बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, लेश्या (४८) असिद्धत्व (४६) असंयम अनुक्त, ध्रव, इन ६, और इनके विरुद्ध एक
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( २२६ ) "अट्ठाईस मतिज्ञानभेद वृहत् जैनशब्दार्णव
अट्ठाईस मूलगुण एकविध, अक्षिप, निःसृत, उक्त, और अध्रुव, और व्यञ्जनावगूह ) दोनों प्रकारका मतिशान इन ६, एवम् १२ की अपेक्षा १२, या ४८,६०, | होता है। २८८ या ३३६ प्रकार का है ॥
__अतः प्राप्त या सम्बद्ध पदार्थ के : (देखो गन्ध 'स्थानागार्णव') | अवग्रह मतिज्ञानको 'व्यञ्जनावगृह मतिज्ञान'
(गोजी० ३०५-३१३ ) कहते हैं और प्राप्त अप्राप्त या सम्बद्ध असम्बद्ध - नोट २-किसी पदार्थका अवगृह' नामक दोनों प्रकार के पदार्थों के अवगृह मतिज्ञान प्रतिज्ञान अब स्पर्शन, रसन, घ्राण, श्रोत्र, को 'अर्थावगृह मतिज्ञान' कहते हैं। इन चार इन्द्रियों द्वारा होता है तो वह ज्ञान
(गो० जी० ३०६ ) प्रथम समय में अर्थात् अपनी पूर्व अवस्था
अट्ठाईस मूलगुण (निन्थ मुनियों में अव्यक्तरूप और उत्तर अवस्था में व्यक्तरूप होता है। परन्तु वही ज्ञान अब चक्षु इन्द्रिय
के )-मुनिव्रत सम्बन्धी अनेक नियमों और मन द्वारा होता है तो वह व्यक्त पदार्थ
या गुणों में से २८ मुख्य गुण हैं जिन पर के विषय में व्यक्त रूप ही होता है।
मुनिधर्म की नीव स्थिर की जाती है। अतः किसी पदार्थ के 'अव्यक्तावगृह |
इन में से किसी एक की न्यूनता भी मुनि मतिज्ञान'को 'व्यञ्जनावग्रह मतिज्ञान' कहते
धर्म को दुषित करती या भंग कर देती है। हैं और व्यक्तापगृह मतिशान को अर्थावगृह
अर्थात् जिस प्रकार मूल विना वृक्ष स्थिर मतिक्षान' कहते हैं।
नहीं रहता इसी प्रकार इन गुणों के बिना उपयुक्त परिभाषा से यह प्रकट है
मुनि धर्म स्थिर नहीं रहता । इसीलिये कि व्यञ्जनायगृह केवल ४ ही इन्द्रियों द्वारा
इन्हें मूलगुण कहते हैं। इनका विवरण होताहै। परन्तु अर्थाषगृह पांचों इन्द्रिय और
निम्न लिखित है:छटे मन द्वारा भी होता है।
१. पंचमहाव्रत (१)-अहिंसा-महानत नोट ३-चक्ष इन्द्रिय और मन, यह | (२) सत्य-महाव्रत (३) अचौर्य महाव्रत (४) | २ इन्द्रियां अप्राप्यकारी हैं, अर्थात् इन दो के ब्रह्मचर्य-महाव्रत (५) अपरिग्रह महाव्रत ।
द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता है वह ____२. पंच समिति-(१) ईर्या समिति | इन दो इन्द्रियों से उस पदार्थ के असंबद्ध (२) भाषा समिति (३) एषणा समिति अर्थात् दूर रहते हुए ही होता है इसी लिये (४) आदाननिक्षेपण समिति (५) प्रतिष्ठाइन दो इन्द्रियों द्वारा केवल व्यक्तावगृह पना समिति। (अर्थावमूह ) ही होता है।
३. पंचेन्द्रिय निरोध-(१)स्पर्शनेन्द्रिय शेष ४ इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं, अर्थात् | निरोध (२) रसनेन्द्रिय निरोध (३) घ्राणेइन के द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता | न्द्रिय निरोध (४) चक्षुरेन्द्रिय निरोध (५) है. वह इन इन्द्रियों के साथ उस पदार्थ के | श्रोत्रेन्द्रिय निरोध । सम्बद्ध अर्थात् अति निकट होने पर ही ४. षटावश्यक-(१) सामायिक आहोता है। इसी लिये इन चार इन्द्रियों द्वारा __घश्यक (२) चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक व्यक्तावगृह और अध्यक्तावगृह ( अवगृह (३) बन्दनावश्यक (४) प्रतिक्रमण आवश्यक
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( २२७). अट्ठाईसमोहनीय कर्मप्रकृति वृहत् जैन शब्दार्णव अट्ठाईसमोहनीयकर्मप्रकृति । (५) प्रत्याख्यान आवश्यक (६) कायोत्सर्ग | (१३-१६) संज्वलन क्रोध, मान, माया, आवश्यक।
लोभ । ५. सप्तप्रकीर्णक--(१) केश-लुञ्च (२)/ (१७-२५) हास्य, रति, अरसि, शोक, आचेलक्य (३) अस्तान (४) भूमिशयन | भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नापुंसक(५) अदन्तघर्षण (६) स्थिति भोजन (७) घेद ॥ एक भक्त ।
___ नोट--मोहनीय कर्म प्रकृति के भेदों नोट.--निर्ग्रन्थ मुनियों के उपयुक्त | में उपयुक्त भेदों ही से निम्न लिखित अनेक | २८ मूलगुणों के अतिरिक्त ८४ लाख उत्तर- | विकल्प हो सकते हैं :-- ... गुण हैं जिनका पालन यथाशक्ति सर्व ही जैन १. अभेद रष्टि से मोहनीयकर्म एक मुनि, करते हैं परन्तु इनकी पूर्णता १२वे | गुणस्थान के पश्चात् होती है जब कि वास्त- _____२. दर्शन-मोहनीय, और चारित्र-मो विक निर्ग्रन्थ पद पूर्णरूप से प्राप्त हो जाता | हनीय, यह मूल भेद ३ हैं। है । (देखो प्रन्थ 'स्थानांगार्णव' )
३. दर्शन-मोहनीय, कषाय-वेदनीय (मू० २-३६,'१०२३)
और अकषाय-वेदनीय, यह ३ भेद हैं ॥.
____४. दर्शनमोहनीय के उपयुक्त ३ भेद भट्ठाईस-मोहनीयकर्मप्रकृति
और चारित्र मोहनीय, षह ४ भेद हैं। जीव को अपने स्वरूप से असावधान या ५. दर्शन-मोहनीय के उपर्युक ३ भेद अचेत करने वाले कर्म को 'मोहनीय कर्म' और चारित्र-मोहनीय के दो भेद, यह ५ कहते हैं जिसके मूल भेद दो और विशेष भेद हैं। भेद २८ निम्न प्रकार हैं :--
६. दर्शन-मोहनीय, कपाय-घेदनीय १. दर्शन मोहनीयकर्म प्रकृति ३ -- क्रोध, मान, माया लोम, और भकाय थे। (१) मिथ्यात्व कर्मप्रकृित (२) सम्यमि- दनीय, यह ६. भेद हैं। थ्यात्व (मिश्र ) कर्म'प्रकृति (३) सम्यक्त्या या दर्शन-मोहनीय, कषायवेदनीय कर्म प्रकृति ।
अनन्तानुषन्धी आदि ४, और अकषाय२. चारित्र मोहनीय कर्म प्रकृति २५-- वेदनीय, यह ६ भेद हैं कषाय घेदनीय १६ और अकषाय (नोक- ७. दर्शन-मोहनीय ३, कषायबेदनीय पाय ) बेदनीय ६, एवम २५ जिनका | ४ और अकषाय वेदनीय, यह ८ भेद हैं। विवरण यह है :--
८. दर्शन-मोहनीय, पानवेदनीय ! (१-४) अनन्तानुवन्धो क्रोध, मानः | और अकषाय वेदनीय ६, यहः११ भेद हैं।। माया, लोमा
६. दर्शनमोहनीय ३, कषाय . वेदनीय, (५-८ अप्रत्याख्यानाधरणी क्रोध,मान, और अक्रषाय वेदनीय ९, यह १३ भेद हैं। माया, लोभ ।
१०. दर्शन-मोहनीय, कषाय वेदनीय , . (१-१२) प्रत्यास्थानाधरण कोष, और अकषाय. घेदनीय ६, यह १४ भेद हैं। मान, माया, लोभ ।
१९. दर्शनमोहनीय , कषायनीय
.
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( २२८ ) अट्ठाईसश्रेणीबद्धमुख्यबिल वृहत् जैन शब्दार्णव अट्ठाईसश्रेणीबद्धमुख्यबिळ और अकषायवेदनीय ६, यह १६ भेद हैं ।। दुःखा (४) महावेदा ॥
१२. दर्शनमोहनीय, कषायवेदनीय ४. अञ्जना नामक चतुर्थ नरक के १६ और अकषायवेदनीय, यह १८ भेद हैं। 'आरा' नामक प्रथम इन्द्रक की पूर्वादि - १३. दर्शन मोहनीय ३, कषायधेदनीय दिशाओं में कम से (१) निसृष्टा (२) १६ और अकषायवेदनीय, यह २० भेद हैं। निरोधा (३) अतिनिसृष्टा (४) महानि
१४. दर्शन मोहनीय,कषायवेदनीय१६ रोधा॥ और अकषायवेदनीय है, यह ३६ भेद हैं।
____५. अरिष्टा नामक पञ्चम नरक के १५. दर्शन मोहनीय ३, कषोय वेद
'तमक' नामक प्रथम इन्द्रक की पूर्वादि नीय १६, और अकषायवेदनीय है, यह
दिशाओं में कम से (१) निरुद्ध (२) विम२८ भेद । इत्यादि अन्यान्य अपेक्षाओं से
दन (३) अतिनिरुद्ध (४) महाविमर्दन ॥ इसके और भी अनेक विकल्प हो सकते हैं
६. मघवी नामक षष्टम नरक के (देखो ग्रन्थ 'स्थानालार्णव')॥
'हिमक' नामक प्रथम इन्द्रक की पूर्वादि भट्टाईस श्रेणीवद्ध मुख्यबिल (स- दिशाओं में क्रम से (6) नीला (२) पङ्का (३) त नरकों के)-सातो नरकों में से प्र- महानीला (४) महापङ्का ॥ त्येक नरक के सब से ऊपर के एक एक
___७. मोघवी नामक सप्तम नरक में इन्द्रकपिल की पूर्वादि चारों दिशाओं केवल एक ही इन्द्रक बिल 'अवधिस्थान' में जो कई कई श्रेणीबद्ध बिल हैं उन में
या 'अप्रतिस्थान' नामक है। इसको पू. से उन इन्द्रकबिलों के निकट के जो चारों
र्षादि दिशाओं में क्रम से (१) काल (२) दिशाओं के चार चार बिल हैं वही मुख्य रौरव (३) महाकाल (४) महारौरव, यह बिल हैं जो गणना में निम्न लिखित २८ चार ही श्रेणीबद्ध बिल हैं।
नोट-प्रथम आदि सप्त नरकों में सर्व १. धर्मा नामक प्रथम नरक के 'सी.
इन्द्रक बिल क्रम से १३, ११, ९, ७, ५, ३ • मन्त' नामक प्रथम इन्द्रक बिल की पूर्व. और १. एवम् सर्व ४६ हैं और श्रेणीबद्धबिल दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में
म क्रम से ४४२०, २६८४, १४७६, ७००, २६०, क्रम से (१) कांक्षा (२) पिपासा (३) म.६०. और ४, एवम् सर्व १६०४ हैं । इनके अतिहाकांक्षा (४) महापिपासा ॥
| रिक्त आठों दिशाओं और विदिशाओं के - २. वंशा नामक द्वितीय नरक के | अन्तरकोणों में जो प्रकीर्णक बिल हैं उन की 'ततक' नामक प्रथम इन्द्रक को पूर्वादि | संख्या प्रथमादि नरकों में क्रम से २६६५५६७, . दिशाओं में क्रम से (१) अनिच्छा (२) २४६७३०५, १४६८५१५, ९९९२९३,२६६७३५, अविद्या (३) महाऽमिच्छा (४)महाऽविद्या। ९९९३२, ०, एवम् सर्व ८३९०३४७ है। इस
३. मेघा नामक तृतीय नरक के 'तप्त' | प्रकार लातो नरकों में ४६ इन्द्रकबिल, नामक प्रथम इन्द्रक की पूर्वादि दिशाओं ९६०४ आठों दिशा विदिशाओं के श्रेणीमें कम से (१) दुःखा (२) घेदा (३) महा- | बद्धबिल और ८३९०३४७ प्रकीर्णक बिल,
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अट्ठानवे जीवसमास
वृहत् जैन शब्दार्णव अानवे जीवसमास एवम् सर्व ८४ लाख बिल हैं। [ देखो शब्द | र्यचों के जीवसमास १२-(१) गर्भज'अञ्जना (:)' पृ० २१६, और ग्रन्थ | संशी-जलचर (२) गर्भज संशी थलचर (३) स्थाना ' (त्रि. १५१, १५६-१६५) ।
गर्भज संशी नभचर (४) गर्भज असंशी ज
लचर (५) गर्भज असंज्ञी थलचर (६) अट्रानवे जीवसमास-जिन धर्म |
गर्भज असंही नभचर, यह छहों प्रकार द्वारा अनेक जीवों अथवा उनकी अनेक |
के गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंच (१) पर्याप्त प्रकार की जातियों का संग्रह किया जाय
और (२) नित्यपर्याप्त, इन दो दो प्रकार उन धर्म विशेषों को 'जीव-समास' कहते
के होते हैं । अतः इन छह भेदों को द्वगुणा हैं जिनकी संख्या ९८ निम्न प्रकार है:
करने से इन के १२ भेद होते हैं । १. स्थावर या एकेन्द्रिय जीवों के
४. कर्मभूमिन सम्मूर्छन पंचेन्द्रिय जीवसमास ४२-(१) स्थूल पृथ्वी का
तिर्यञ्चों के जीवसमास१८--सम्मूच्र्छनयिक (२) सूक्ष्म पृथ्वाकायिक (३) स्थूल
संशी जलचर थलचर नभचर और सम्मूजलकायिक ४) सूक्ष्म जलकायिक (५)
छैन असंज्ञी जलचर थलचर नभचर, यह स्थल अग्निकायिक (६) सूक्ष्म अग्निका.
छह प्रकार के सम्मूर्छन पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च - यिक (७) स्थूल वायुकायिक (5) सूक्ष्म वायुकायिक (E) स्थूल नित्यनिगोद सा
(१) पर्याप्त (२) निर्वृत्यपर्याप्त और (३) धारण बनस्पतिकायिक (१०) सूक्ष्म नित्य
लब्ध्यपर्याप्त, इन तीनों प्रकार के होते हैं। निगोद साधारण बनस्पतिकायिक (११)
अतः ६ भेदों को तिगुणा करने से इनके स्थूल इतरनिगोद साधारण बनस्पति
१८ भेद हैं। कायिक (१२) सूक्ष्म इतर तिगोद साधा
५. भोगभूमिज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के रणबनस्पतिकायिक (१३) सप्रतिष्ठित जीवसमास ४-(१) पर्याप्त थलचर (२) प्रत्येकबनस्पतिकायिक (१४) अप्रतिष्ठित पर्याप्त नभचर (३) नित्यपर्याप्त थलचर प्रत्येकवनस्पतिकायिक; एकेन्द्रिय जीवों (४) निवृत्यपर्याप्त नभचर । के इन १४ भेदों में से हर एक भेद के जीव नोट १-भोगभूमिज जीव जलचर, (१) पर्याप्त (२) निवृत्यपर्याप्त और (३) सम्मूर्छन तथा भसंज्ञी नहीं होते और न लब्ध्यपर्याप्त, इन तीनों प्रकार के होते हैं। | लब्ध्यपर्याप्तक होते हैं । भोगभमिज पंचेन्द्रिय .. अतः इन १४ भेदों को तिगुना करने से तिर्यञ्चगर्भज ही होते हैं । भोगभूमि में विकएफेन्द्रिय जीवों के ४२ जीवसमास होते हैं।
लत्रय जीव भी नहीं होते। ___२. विकलत्रय जीवों के जीवसमास
.६. कर्मभमिज मनुष्यों के जीवसमास 8-(१) द्वीन्द्रिय (२) त्रीन्द्रिय (३) चतु
५--(१) आर्यखंडी गर्भज पर्याप्त मनुष्य रिन्द्रिय. यह तीन विकलत्रय जीव हैं। इन में से हर एक प्रकार के जीव पर्याप्त, |
(२) आर्यखंडी गर्भज निवृत्यपर्याप्त मनुष्य निवृत्यपर्याप्त, और लक्ष्यपर्याप्त होते हैं।।
(३) आर्यखंडी सम्भूर्छन लब्ध्यपर्याप्त अतः ३ भेदों को तिगुणा करने से विक- | मनुष्य (४) म्लेच्छखंडी पर्याप्त मनुष्य | लत्रय जीवों के 8 जीवसमास होते हैं । । (५) म्लेच्छखंडी निवृत्यपर्याप्त मनुष्य । ___३. कर्मभूमिज गर्भज पंचेन्द्रिय ति- ७. भोगमिज मनुष्यों के जीध समास
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२३० )
देव ॥ .
अट्ठानवे जीपसमास वृहत् जैन शब्दार्णव अट्ठावन बन्धयोग्य कर्मप्रकृतियां
४-[१] सुभोगभूमिज पर्याप्त मनुष्य [२] नोट ५-अभेद विवक्षा से या द्रव्यासुभोगभूमिज निवृत्यपर्याप्त मनुष्य [३] र्थिक नय से तो यद्यपि जीवसमास एक ही| कुभोगभूमिज पर्याप्त मनुष्य [४] कुभोग है क्योंकि 'जीव' शब्द में जीवमात्र का ग्रहण | भूमिज नित्यपर्याप्त मनुष्य ॥ | हो जाता है तथापि भेद विवक्षा से स्थाना
८. देव पर्यायी जीवों के जीवसमास घिकार द्वारा जीवसमास २,३,४,५,६,७,८, २-[१] पर्याप्त देव [२] निर्वृत्यिपर्याप्त ९,१०,११,१२,१३,१४,१५, १६,१७,१८,१६,२०,
२१, २२, २४, २६, २७, २८, ३०, ३२, ३३, ६. नारकी जीवों के जीवसमास २०३४,३६.३८,३६,४२,४५,४८, ५१, ५४, ५७, ६८ [१] पर्याप्त नारकी [२] निवृत्यपर्याप्त आदि अनेक हो सकते हैं । इसी प्रकार नारकी ॥
योनि, शरीरावगाहना और कुल, इन तीन ... नोट २-सम्मूर्छन मनुष्य नियम से अधिकारों द्वारा भी जीवसमास के अनेक लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं। और सर्व गर्भज विकल्प हैं। जीव तथा उप्पादज [ देव और नारकी ] | नोट ६.-योनि अपेक्षा जीवसमास लब्ध्यपर्याप्तक नहीं होते । सम्मूर्छन मनुष्यों के उत्कृष्ट भेद ८४ लाख, कुल अपेक्षा १६७॥ की उत्पत्ति चक्री की रानी आदि को छोड़ लाख कोटि अर्थात् १९ नियल ७५ खर्व (१६कर आर्यखंड की शेष नियों की योनि, ७५०००००००००००), और शरीरावगाहना काँख (बगल ), स्तन, मल, मूत्र, दन्तमल अपेक्षा असंख हैं । ( देखो प्रन्थ 'स्थानाङ्गाआदि में होती है।
नोट ३-म्लेच्छखण्डी और भोगभूमिज मनुष्य सम्मूर्छन नहीं होते तथा देव और |
| अट्ठावन बन्धयोग्य कर्मप्रकृतियां नारकी जीव लब्ध्यपर्याप्तक नहीं होते। (अष्टम गुणस्थान में )-आठवें गुणस्थान - इस प्रकार (१) एकेन्द्रिय (२) विकल- में बन्ध योग्य ५८ कर्म प्रकृतियां निम्नप्रय (३) कर्मभूमिज-गर्भजपंचेन्द्रिय तिर्यञ्च लिखित हैं:-- (४) कर्मभूमिज सम्मूर्छन पञ्चेन्द्रिय १. ज्ञानावरणी कर्मप्रकृतियां--(१) तिर्यञ्च (५) भोगभूमिज पचेन्द्रिय तिर्यञ्च मतिज्ञानावरणी ( २ ) श्रु तज्ञानावरणी (६) कर्मभूमिज मनुष्य (७) भोगभूमिज (३) अवधिशानावरणी ( ४ ) मनःपर्ययमनुष्य (E) देव (६) नारकी, इन 8 के क्रम | ज्ञानावरणी (५) केवलज्ञानावरणी। से ४२, १, १२, १८, ४, ५, ४. २, २, २.दर्शनावरणी कर्मप्रकृतियां ६--(६) एवम् सर्व ६८ जीव समास हैं। चक्षदर्शनावरणी (७) अचक्षुदर्शनावरणी ____नोट ४.--सम्पूर्ण जीवसमासों का नि- (८) अवधिदर्शनावरणी (8) केवलरूपण [१] स्थान[२] योनि [३] शरीरावगा. दर्शनाधरणी ( १० ) निद्रादर्शनावरणी हना[४]कुलभेद, इन ४ अधिकारों द्वारा किया | (११) प्रचलादर्शनाधरणी।। जाता है। उपयुक्त ९८ जीवसमास स्थाना- | ... ३. वेदनी कर्मप्रकृति १--(१२) साता धिकार द्वारा निरूपण किये गये हैं। वेदनी ।
र्णय')"
(गो० जी० ७०-११६)
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(२३१ ) अट्ठावन बन्धयोग्य कर्मप्रकृतियां वृहत् जैन शब्दार्णव अट्ठावन बन्धयोग्य कर्मप्रकृतियां
४. मोहनी कर्मप्रकृति :--( १३-१६)। नोट १--उत्तर कर्मप्रकृतियां ज्ञानावसंग्वलन क्रोध मान माया लोभ (१७) रणी की ५, दर्शनावरणी की है। घेदनीय की हास्य (१८) रति ( १६) भय (२०) | २, मोहनीय की २८, नामकर्म की ९३ [ या जुगुप्सा (२१) पुरुषवेद ।
१०३], गोत्र कर्म की २, आयुकर्म की ४ और ___५. नामकर्म प्रकृति ३१--(२३) देव- | अन्तराय कर्म की ५, एवम् सर्व १४८ [ या गति ( २३) पंचेन्द्रिय जाति ( २४ ) वैक्रि- | १५८] हैं। परन्तु अभेद विवक्षा से नामकर्म यिक शरीर ( २५ ) आहारक शरीर ( २६) की ९३ या १०३ के स्थान में केवल ६७ ही हैं। तैजस शरीर ( २७ ) कार्माण शरीर (२८) अतः अभेद विवक्षा से सर्व उत्तरकर्मप्रकसमचतुरस्र संस्थान ( २६ ) वैक्रियिक- तियां १२२ ही हैं जिन में से दर्शन मोहनीय आङ्गोपांग (३०)आहारक-आङ्गोपांग (३१) | की सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व वर्ण ( ३२ ) गन्ध (३३) रस (३४) स्पर्श [मिश्र] प्रकृति, इन दो को छोड़ कर शेष १२० (३५) देवगत्यानुपूर्व्य ( ३६) अगुरु- प्रकृतियां ही बन्ध योग्य हैं । इन्ही १२० लघु (३७) उपघात (३८ ) परघात प्रकृतियों में से उपयुक्त ५८ प्रकृतियां अष्टम( ३६ ) उच्छ्वास (४०) प्रशस्त विहा- गुणस्थान में बन्ध योग्य हैं। [ पीछे देखो योगति (४१) प्रस (४२) बादर ( ४३) शब्द 'अघातिया कर्म' और उसका नोट ३, पर्याप्ति (४४) प्रत्येक शरीर ( ४५ ) पृ० ८२ ]। स्थिर (४६) शुभ ( ४७) सुभग (४८ ) नोट २-अष्टम गुणस्थान में उपर्युक्ता सुस्वर (४६) आदेय (५०) यशस्कीर्ति ५८ बन्धयोग्य कर्मप्रकृतियों में से ३६ की (५१) निर्माण (५२) तीर्थङ्कर । बन्ध व्युच्छित्ति ( बन्ध का अन्त अर्थात् ६. गोत्र कर्मप्रकृति १ --(५३) उच्च- आगे के गुणस्थानों में बन्ध का अभाव)
इसी अष्टम गुणस्थान में, ५ की नवम गुण____७. अन्तराय कर्मप्रकृति ५--(५४) स्थान में, १६ की दशमगुणस्थान में, और दानान्तराय ( ५५ ) लाभान्तराय (५६) शेष १ की तेरहें गुणस्थान में निम्न प्रकार से भोगान्तराय [ ५७ ] उपभोगान्तराय[५८] | होती है:-- वीर्यान्तराय।
(१) अष्टम गुणस्थान की काल इस प्रकार [१] ज्ञानावरणी[२]दर्शना- मर्यादा के सात भागों में से प्रथम भान में वरणी [३] वेदनीय [४] मोहनीय [५] | | २ को [ न० १०, ११ की अर्थात् निद्रा और नाम [६] गोत्र [७] अन्तराय, इन सात प्रचला दर्शनावरणीकर्मप्रकृतियों की ], छटे मूल कर्मप्रकृतियों की क्रम से ५, ६, १, भाग के अन्त में ३० को [ न० २२ से ९, ३१, १,५, एवम् सर्व ५८ उत्तरप्रकृतियां ४९ तक और ५१, ५२ की ], और अन्तिम अष्टम गुणस्थान में बन्ध योग्य हैं । इस | सातवें भाग में शेष ४ की [नं० १७ से २० गुणस्थान में आयुकर्म का बन्ध नहीं होता तक की ], एवम् ३६ की बन्धव्युच्छित्ति हो अतः आयुकर्म की चारों प्रकृतियों में से | | जाती है। एक भी बन्ध योग्य नहीं है।
(२) नवम गुणस्थान की काल मर्यादा |
गोत्र
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( २३२ । अउत्तरजोपविपाकीकर्मप्रकृतियां वृहत् जैन शब्दार्णव
अठत्तर विदेहनदी के पांच भागों में यथाक्रम नं० २१, १३, १४, । [१] पूर्व विदेह के १६ विदेह देशों में से १५, १६, इन ५ की बन्धव्युच्छित्ति होती है। प्रत्येक देश में दो दो नदियां, एवम् ३२
(३) दशम गुणस्थान के अन्तिम [२] पश्चिम विदेह के १६ विदेह देशों में समय में नं० १ से तक, नं०५०, और नं० से प्रत्येक देश में भी दो दो नदियां, एवम् | ५३ से ५८ तक, इन १६ की बन्धव्युच्छित्ति | ____ ३२ । सर्व ६४ ॥ होती है ॥
३. विभंगा नदियां १२-(१) पूर्व (४) तेरह गुणस्थान के अन्त में शेष विदेह की सीता नदी की उत्तर दिशा में १ कर्मप्रकृति २०१२ की बन्ध व्युच्छित्ति गाधवती, द्रहवती, पङ्कवतो, (२) सीता
नदी की दक्षिण दिशा में तप्तजला, मत्तः ___नोट ३-बन्ध योग्य सर्व १२० कर्म- जला, उन्मत्तजला, (३) पश्चिम विदेह की प्रकृतियों में से उपर्युक्त ५८ के अतिरिक्त शेष सीतोदानदी की दक्षिण दिशा में क्षीरोदा, ६२ की बन्ध व्युच्छित्ति अष्टम गुणस्थान से सीतोदा, श्रोतोवाहिनी (४) सीतोदा नदी पूर्व के गुणस्थानों के अन्त में इस प्रकार से की उत्तर दिशा में गम्भीरमालिनी, फेन होती है कि प्रथम गुणस्थान में १६ की, | मालिनी, ऊर्मिमालिनी ॥ द्वितीय में २५ की, चतुर्थ मैं १० की, पंचम नोट.- उपयुक्त ७८ 'मुख्य नदियों के में ४ की, षष्टम में ६ की और सप्तम में एक अतिरिक्त विदेहक्षेत्र में १४ लाख परिवार की।
नदियां और हैं जो निम्न प्रकार हैं:_(गो० क० ९५-१०२)
. [१] गङ्गासिन्धु समान जो ६४ नदियां अठत्तरजीवविपाकीकर्मप्रकृतियां- हैं उनमें से प्रत्येक नदा की परिवार नदियां चारों घातिया कर्मों की सर्व ४७
१४ सहसू हैं । अतः सर्व परिवार नदियां
६४ गुणित १४००० अर्थात् ८९६००० हैं। ऊत्तरप्रकृतियां और चारों अघातिया कर्मों |
[२] विभंगा १२ नदियों में से प्रत्येक की १०१ में से ३१ प्रकृतियां जीवविपाकी हैं । (पीछे देखो शब्द 'अघातियाकर्म'
की परिवार नदियां २८ सहसू हैं । अतः और उसके नोट नं० ९, १०, पृ०८४,८५)॥
सर्व परिवार नदियां १२ गुणित २८ सहसू
अर्थात् ३३६००० हैं। (गो० क०४८-५१)
(३) देवकुरु में सीतोदा नदी के पूर्व अठत्तर विदेहनदी-जम्बूद्वीप के सप्त पार्श्व में ४२ सहस और पश्चिम पार्श्व में क्षेत्रों में मध्य का जो 'विदेह' नामक क्षेत्र ४२ सहस, एवम् सर्व ८४००० परिवार है उसमें मुख्य नदियां सर्व ७८ हैं जिनका नदियां सीतोदा नदी की हैं। विवरण निम्न प्रकार है :
___ (४) उत्तरकुरु में सोता नदी के पूर्व १. जम्बूद्वीप की सर्व १४ महा नदियों और पश्चिम पावों में से प्रत्येक में ४२ में से २--[१] सीता पूर्वनिदेह में [२] सहसू, एवम् सर्व ८४००० परिवार नदियां सीतोदा पश्चिमविदेह में।
सीता नदो की हैं। २. गङ्गा सिंधु समान नदियां ६४- इस प्रकार विदेहक्षेत्र की सर्व परिवार
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( २३३ ) अठाईकथा वृहत् जैन शब्दार्णव
अठाईपूजा नदियों का जोड़ ८६६०००+३३६००० + | धातकीखण्ड, पुष्करवर, वारुणीवर, क्षीरवर, ८४०००+८४००० = १४००००० (चौदह | घृतवर, इक्षबर और नन्दीश्वर । इनमें से लाख ) है।
केवल अढ़ाईद्वीप तक अर्थात् पुष्करार्द्ध तक (त्रि० ६६७-६६६, ७३१, ७४८ ) | ही मनुष्यों का गमनागमन है, इसलिये इतने मठाई कथा-आगे देखो शब्द'अठाईव्रत- ही क्षेत्र का नाम मनुष्यक्षेत्र है। कथा', पृ० २३९ ॥
(त्रि० ३०४) मठाई पर्व-अष्टान्हिक' पर्व, अधान्हिका
का अठाई पूजा-अष्टान्हिक पूजा,अष्टान्हिक पर्व, आठदिन का पवित्रोत्सव ।
यज्ञ, अष्टान्हिकमह ( ऊपर देखो शब्द | ____ यह आठ दिन कापवित्र काल प्रतिवर्ष
'अठाई पर्व')। तीन बार कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़
यह अवाहिकपजा निम्नलिखित ५ महीनों के अन्तिम आठ आठ दिवश
प्रकार की इज्या (पूजा) में से एक है:अष्टमी से पूर्णिमा तक रहता है। इसी
(१) नित्यमह (२) अष्टान्हिकमह लिये इस पर्व का नाम 'अष्टान्हिक पर्व' अ.
(३)चतुर्मुखमह या महामह या सर्वतोभद्र र्थात् आठ दिनका पर्व है । इन पर्व दिवशों
(४) कल्पद्ममह (५) ऐन्द्रध्वज ॥ में देवगण 'नन्दीश्वर'नामक अष्टम द्वीप में
नोट१-उपरोक्त पांच प्रकारकी पूजा जाकर वहां की चारों दिशाओं में स्थित गृहस्थधर्म सम्बन्धी निम्नलिखित षटकर्मों में ५२ अकृत्रिम चैत्यालयों में देवार्चन करके से एक मुख्य कर्म है :महान् पुण्योपार्जन करते हैं । इसीलिये इस | (१) इज्या अर्थात् पूजा (२) वार्ता पर्व का नाम 'नन्दीश्वरपर्व भी है। इस अ- अर्थात् आजीविका (३) दत्ति अर्थात् दान टम द्वीप में जाने के लिये असमर्थ होने से (४) तप (५) संयम (६) स्वाध्याय । अढ़ाईद्वीप अर्थात् मनुष्य-क्षेत्र के भव्य इनमें से इज्या के उपरोक्त ५ मूल भेद स्त्री पुरुष अपने अपने प्राम नगर या तीर्थ हैं और विशेष भेद अनेक हैं । वार्ता के स्थानादि ही में परोक्ष रूप से मन बचन- | असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और काय शुद्ध कर बड़ी भक्ति के साथ अष्ट विद्या (शद्रधर्ण के लिये 'विद्या' के स्थान पवित्र स्वच्छ द्रव्यों से फर्म निर्जरार्थ में 'सेवा'), यह छह भेद सामान्य और विशेष नन्दीश्वरद्वीपविधान आदि पूजन करते भेद अनेक हैं। दत्ति के पात्रदत्ति, दद्यादत्ति,
समानदत्ति, और अन्धयत्ति या सकल___ नोट १-नन्दीश्वरद्वीप और उसके | दत्ति, यह ४ मूल भेद और अभयदान, ५२ अकृत्रिम चैत्यालय आदि की सविस्तर | ज्ञानदान, आहारदान, औषधिदान, यह रचना जानने के लिये आगे देखो शब्द 'नन्दी- चार इनके 'मुख्य भेद तथा विशेष भेद श्वरद्वीप' या ग्रन्थ त्रि० गा० ६६६-६७७ | अनेक .हैं । तप के छह बाह्य और १
नोट २-नन्दीश्वरद्वीप तक के आठ अभ्यन्तर, यह १२ सामान्य भेद और विशेष द्वीपों के नाम क्रम से यह हैं :-जम्बूद्वीप, भेद अनेक हैं । संयम के ६ इन्द्रियसंयम और
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( २३४ ) अठाईपूजा. वृहत् जैन शब्दार्णव
अठाईपूजा ६ प्राणीसंयम , यह १२ भेद तथा अन्यान्य | १. श्री तत्वार्थसूत्र (मोक्षशास्त्र ) को श्र तसाअपेक्षाओं से अन्यान्य अनेक भेद हैं । गरी टीका की बचनिका, वि० सं० १८३७ स्वाध्याय के वाचन, पृच्छन, अनुप्रेक्षा, आम्नाय, धर्मोपदेश, यह ५ मूलभेद तथा २. सुदृष्टतरङ्गिणी वचनिका, वि० सं० १८३८ विशेष अनेक भेद हैं । ( यह सर्य भेद उपभेद |
और उनका अर्थ, लक्षण, स्वरूप आदि | ३. कथाकोष छन्दोबद्ध । यथास्थान देखें)।
४. बुधप्रकाश छन्दोबद्ध । नोट २--अठाईपूजा या अष्टान्हिका ५. षटपाहुड़ बचनिका टीका पूजा ( नन्दीश्वर पूजा) एक तो संस्कृत | ६. ढालगण छन्दोबद्ध । माकृत मिश्रित आज कल अधिक प्रचलित है | ७. कर्मदहन पूजा।
और एक आपरा निघासी अग्रवाल जातीय ८. सोलहकारण पूजा।। श्रीमान् पं० द्यानतराय जी कृत भाषा पूजा | ९. दशलक्षण पूजा। अधिक प्रसिद्ध है। इन के अतिरिक्त भाषा | १०. रत्नत्रय पूजा। पूजा अन्य भी भद्रपुर निघासी पं० टेकचन्द, | ११. त्रिलोक पूजा। माधवराजपुर निवासी पं० डालूराम, और | १२. पंचपरमेष्ठी पूजा।। पं० विलाल आदि कृत कई एक हैं. तथा | १३. पंचकल्याणक पूजा । एक अठाईपूजा. जैनधर्मभूषण ब्रह्मचारी . नोट ३–अध्यात्म-बारहखड़ी के र
शीतल प्रसाद कृत भी है जो उन्हीं की रचित | चयिता भी एक पण्डित टेकचन्द जी हुए हैं I'सुखसागर भजनावली' नामक पुस्तक में | परन्तु यह दूसरे हैं।
सूरत मगर से प्रकाशित हो चुकी है। इनका | जैनधर्मभूषण श्रीयुत ब्रह्मचारी शीतप्रचार बहुत कम है।
लप्रसाद जी रचित ध अनुवादित अन्य ग्रन्थ - पं.मानत राय का समय विक्रम की
| निम्नलिखित हैं:१६वीं शताब्दी ( १७), पटेकचन्द का (१) जिनेन्द्रमत दर्पण प्रथम भाग (जैनधर्म
और पं० डालूराम का १६वीं शताब्दी (क्रम- का स्वरूप) से १८३८ और १८50) और पं० विलाल (२) जिनेन्द्रमतदर्पण द्वितीय भाग ( तत्व. का समय अज्ञात है। पं० डालराम रचित
- माला) अन्य प्रन्थों की सूची जानने के लिये आगे | (३) जिनेन्द्र मतदर्पण तृतीय भाग (गृहदेखों शब्द 'अढाई द्वीप-पाठ' के नोट १ का न० स्थधर्म) ४ ॥ पं० द्यानतराय जी रचित ग्रन्थ चर्चाः |
| (४) श्रीकुन्दकुन्दाचार्य कृत समयसार की | शतक भाषा छन्दोबद्ध, द्रव्यसंग्रह भाषा हिंदी भाषा टीका छन्दोबद्ध और अनेक पूजा आदि का संग्रह- (५) जैननियमपोथी रूप द्यानतविलास है।
| (६) श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत नियमसार की | ___पं० टेकचन्द रचित व अनुवादित अन्य हिन्दी भाषा टीका प्रन्थ निम्न लिखित
| (७) सुखसागर भजनावली
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___ यार्थ
( २३५ ) अठाईपूजा वृहत् जैन शब्दार्णवः
अठाईपूजा (८) पं० दौलतराम कृत छहढाला सान्व- | मंगलसेन के सुपुत्र लाला मक्खन लाल जी
की धर्मपत्नी के गर्भ से हुआ। वि० सं०१६६६ i(8) आत्मधर्म
के मार्गशिर मास में आपने स्थान शोलापुर (१०) श्री सामायिक पाठ का विधि सहित में ऐलक श्री पन्नालाल जी के केशलोच के अर्थ .
समय 'ब्रह्मचर्य प्रतिमा के नियम ग्रहण किये (११) अनुभवानन्द
| आप को अध्यात्म चर्चा की ओर गाद रुचि (१२) सच्चे सुख का उपाय (१३) द्वीपमालिका विधान (दीवाली पूजन ) नोट ४-उपयुक्त अठाईपूजा पाठों (१४) प्राचीन श्रावक (मानभूम जिले में ) | के अतिरिक्त साँगानेर की गद्दी के, पट्टाधीश (१५) श्री पूज्यपाद स्वामी कृत समाधि श- | श्री देवेन्द्रकीर्ति जी भट्टारक ने वि० सम्वद
तक की हिन्दी भाषा टीका | १६६२ के लगभग 'संस्कृत मन्दीवर विधान'! (१६) स्वसमरानन्द (चेतन-कर्म युद्ध) और नन्दीश्वरलघुपूजा रची, श्री कनक(१७) श्री पूज्यपाद स्वामी कृत इष्टोपदेश | कीर्ति भट्टारक ने 'संस्कृत अष्टान्हिका सर्वतो की हिन्दी भाषा टीका
भद्र पूजा' रची और श्री सकलकीर्ति भट्टारक ( १८ ) आत्मानन्द का सोपान . | ने 'अष्टान्हिकासर्वतोभद्रकल्प,वि० सं० १५६५ (१६) प्राचीन जैन स्मारक (बंगाल बिहार के उगभग रचा। उड़ीसा के)
. इन महानुभावों के रचे अन्य ग्रन्थ (२०) प्राचीन जैन स्मारक ( संयुक्त प्रान्त | निम्न लिखित हैं:. आगरा व अवध के )
(१) श्री देवेन्द्र कीर्ति (वि० सं०१६६२ ) (२१) श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत प्रवचनसार क्षेत्रपाल पूजा विधान ( श्लोक ५७५ ),
प्रथम खण्ड की हिन्दी भाषा टीका आदित्य व्रतोद्यापन (श्लोक १५०), बुद्धाष्ट(शानतत्व दीपिका)
म्युद्यापन ( श्लोक २२६), पुष्पांजलिविधान (२२) सुलोचना चरित्र
( श्लोक ५०० ), केवलचान्द्रायणोद्यापन (२३) श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत प्रवचनसार
| ( श्लोक १३० ), पल्यव्रतोद्यापन, कल्याणमद्वितीय खण्ड की हिन्दी भाषा टीका | न्दिरोद्यापन, विषापहारपूजा विधान, त्रिपंचा(शेयतत्वदीपिका)
| शत्कियोद्यापन, सिद्धचक्रपूजा, रैद व्रतकथा, (२०) श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत प्रवचनसार व्रतकथा कोश ॥ तृतीय खंड की । हिन्दी भाषा टीका
(२) श्री कनककीर्ति--अष्टान्हिक*(चारित्र तत्वदीपिका).
उद्यापन इन ग्रन्थों के अतिरिक्त आप इस समय (३) श्री सकल कीर्ति (वि० सं० साप्ताहिक पत्र जैनमित्र के और पाक्षिक पत्र | १४६५)--सिद्धान्तसार, तत्वार्थसारीपक, 'चोर' के आनरेरी सम्पादक भी हैं । आप का सारबतुर्विशतिका, धर्म प्रश्नोत्तर, मूलाचारजन्म विक्रम सं० १९३५ में लखनऊ नगर में | प्रदीपक, प्रश्नोत्तरश्रावकाचार, यत्याचार, अग्रवाल वंशीय गोयल गोत्री श्रीमान लाला | सद्भाषितावली, आदिपुराण, उत्तरपुराण,
नाम
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( २३६ ) अठाई रासा वृहत् जैनशब्दार्णव
अठाईव्रत धर्मनाथ पुराण, शान्तिनाथ पुराण, मल्लिनाथ| पर्याय पाई और फिर हस्तिनापुरी ही में पुराण, पार्श्वनाथ पुराण, बर्द्धमान पुराण, | जन्म लेकर और राज्यसुख भोग कर सिंसिद्धान्तमुक्तावली, कर्मविपाक, देवसेन कृत घाष्टक नामक मुनि के उपदेश से राज्य तत्वार्थसार टीका, धन्यकुमारचरित्र, जम्ब. त्याग किया और मुनिव्रत द्वारा कर्मबन्ध स्वामी चरित्र, श्रीपालचरित्र, गजसुकुमाल काट कर मुक्तिपद पाया। (पीछे देखो चरित्र, सुदर्शन चरित्र, यशोधर चरित्र, | शब्द 'अठाईपर्व' नोट सहित, पृ०२३३) । उपदेशरत्नमाला, सुकुमाल चरित्र इत्यादि ॥ अठाईव्रत-यह व्रत एक वर्ष में तीन बार अठाईरासा-इस नाम का श्री विनय- अठाईपर्व के दिनों में अर्थात् कार्सिक, कीर्ति भट्टारक रचित एक पद्यात्मक क. फाल्गुन और आषाढ़, इन तीन महीनों के थानक है जिसमें अठाईव्रत और नन्दीश्वर अन्तिम आठ आठ दिन तक किया जाता पूजा का महात्म वर्णित है । कथा का है। यह व्रत अन्य प्रतों की समान उत्सम, सारांश यह है-पोदनपुर नरेश एक मध्यम और जघन्य भेदों से तीन प्रकार विद्यापति नामक विद्याधर राजा मे एक का है जिस की विधि निम्न प्रकार है:चारण मुनि से नन्दीश्वर पूजा का महात्म १. उत्तम-सप्तमी को धारणा अर्थात् सुन कर विमान द्वारा नन्दीश्वरद्वीप की एकाशना पूर्वक किसी मुनि या जिन यात्रार्थ गाढ़ भक्तिवश गमन किया। पर- प्रतिमा के सन्मुख व्रत करने की प्रतिज्ञा स्तु मानुषोत्तर पर्वत से टकरा कर उसं. ले । अष्टमी से पूर्णिमा तक निर्जल उपवास का विमान पृथ्वी पर गिर गया । राजा ने करै । पूर्णिमा से अगले दिन पड़िया को प्राणान्त हो कर देवगति पाई और नम्दी- पारण अर्थात् एकाशना पूर्वक व्रत की श्वरद्वीप जाकर अष्टद्रव्य से विधिपूर्वक | समाप्ति करै । इस प्रकार प्रतिवर्ष तीन पूजा की । पश्चात् विद्यापति के रूप में बार व्रत करता हुआ आठ वर्ष तक करें। पोदनपुर आकर रानी सोमा से कहा कि २. मध्यम-सप्तमी को धारणा, अ. मैं नन्दीश्वरद्वीप के जिनालयों की पूजाकर एमी, दशमी, द्वादशी, चतुर्दशी और आया हूँ । रानी बारम्बार यह उत्तर देकर पूर्णिमा को निर्जल उपवास करै और नकि मानुषोत्तर को उल्लंघनकर जाना मनुष्य वमी, एकादशी, त्रयोदशी और पड़िया की शक्ति से सर्वथा बाहर है अपने सम्य- को एकाशना करै । इस प्रकार प्रतिवर्ष
श्रद्धान में दृढ़ बनी रही। तब देव ने तीन बार करता हुआ आठ वर्ष, सात वर्ष 'प्रकट होकर यथार्थ बात बताई । विद्या- | अथवा ५ वर्ष तक व्रत करै॥ पति का जीव देवायु पूर्ण कर हस्तिनापुरी __३. जघन्य-अष्टमी, चतुर्दशी और में एक राज्यघराने में आ जम्मा और कुछ पूर्णिमा को अथवा केवल अष्टमी और दिन राज्य भोग कर और फिर राज्य को पूर्णिमा को, या अष्टमी और चतुर्दशी को, | त्याग मुनिवत पालकर उसी जन्म से पा केवल अष्टमी या चतुर्दशी या पू. निर्वाणपद पाया । सोमा रानी ने भी र्णिमा को निर्जल उपवास करै और शेष अठाईव्रत के महात्म से स्रोलिङ्ग छेद देव । दिनों में एकाशन करै अथवा निर्जल उप
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( २३७ ) अठाईव्रत वृहत् जैन शब्दार्णध
अठाईव्रत। वास की शक्ति न हो तो दशों दिन एका- खित मंत्रों को १०८ बार जपे अर्थात् एक शना ही करै । इस प्रकार प्रतिवर्ष ३ धार | माला फेरे:-- करता हुआ ८ वर्ष या ५ वर्ष या केवल । (१) अष्टमी को-ॐ ह्रीं नन्दीश्वर संज्ञायनमः। ३ही वर्ष करै॥
(२) नवमी को--ॐ ह्रीं अष्टमहाधिभूतिसंतीनों प्रकार के व्रतों में निम्नोक्त शाय नमः। नियमों का अवश्य पालन करैः- | (३) दशमी को-ॐ ह्रीं त्रिलोकसागरसंशाय
१. सप्तमी की धारणा के समय से ममः।। पविवा के पारणा के समय तक मन्द- / (४) एकादशी को--ॐ ह्रीं चतुरमुखसंशाय कषाययुक्त रहे और सर्व गृहारम्भ त्याग कर धर्म ध्यान में समय को लगावे ॥ (५) द्वादशी को--ॐ ह्रीं पञ्च महारललक्षण . २. नित्य प्रति अभिषेक और नित्य- संज्ञाय नमः। नियम पूजा पूर्वक नन्दीश्वर द्वीप सम्बन्धी (६) प्रयोदशीको--ॐ ह्रीं स्वर्गसोपान संशाय अष्टान्हिका पूजन करे और नन्दीश्वरद्वीप नमः। सम्बन्धी सर्व रचना का पाठ त्रिलोकलार | (७) चतुर्दशी को-ॐ ह्री सिद्धचक्रसंज्ञाय | आदि किसी प्रन्थ से भले प्रकार समझता नमः। हुआ मन लगा कर नित्य प्रति करे या (८)पूर्णिमा को-ॐ हीं इन्द्रध्वज संज्ञाय नमः॥ सुने ॥
८. प्रत्येक एकाशना या यथायोग्य ३. नित्य प्रति पञ्चमेरु पूजा भी करै भक्ति विनय सहित पारणे के दिन किसी सथा बन पड़े तो चौबीस तीर्थकरादि | सुपात्र को यो साधर्मी को या करुणा सअन्यान्य पूजन भी यथारुचि करै॥ हित किसी भूखे को भोजन कराकर स्वयम्
४. हो सके तो नन्दीश्वरद्वीप का, भोजन करे ॥ . . .. मंडल बना कर पूजन किया करै॥
३. इस प्रकार ३, ५, ७, या ८ वर्ष ५. सप्तमी से पड़िवा तक दो दिन तक इस व्रत को करने के पश्चात् निम्न अखण्ड ब्रह्मचर्य से रहे । चटाई आदि पर प्रकार उस का उद्यापन' करे और उद्यापन भमि में सोवे । अल्प निद्रा ले ॥
करने की शक्ति न हो तो दूने वर्ष तक ६. एकाशना के दिन किसी प्रकार व्रत करे:का अभक्ष या गरिष्ट भोजन का भाहार। (१) उत्कृष्ट-जहाँ जहाँ कहीं आवन करै । सचित पदार्थों का भी त्याग श्यकता हो वहाँ यहाँ ८, ७, ५ मा ३ करै । हल्का और अल्प भोजन करे जिस मषीन जिनालय निर्माण करा कर उन की से निद्रा और आलस्यादि न सतावै । घेदी प्रतिष्ठा और जिनविम्व प्रतिष्ठा आदि हो सके तो छहों रस का या जितनों का पूर्वक उन में वे प्रतिष्ठित जिन प्रतिमाएँ पन पड़े त्याग करे । गृद्धता से या जिह्वा- पधरावे और आवश्यकीय सर्व उपकरणलम्पटता के लिये कोई भोजन न करे ॥ | आदि दे, तथा प्रत्येक जिन मन्दिर में यथा
७. अष्टमी से पूर्णिमा तक निम्न लि- भावश्यक सरस्वतीभंडार भी अवश्य
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(
२३८ )
अठाईव्रत घृहत् जैन शब्दार्णव
अठाइवत स्थापे, अथवा आवश्यक्तानुसार जिनालयों (६) प्रयोदशी का-४० लक्षापघास का फल और जैन प्रन्थों का जीर्णोद्धार करावे ।। (७) चतुर्दशो का-१ कोटि उपचासका फल जहां २ आवश्यक्ता हो वहां वहां ८,७,५/(८) पूर्णिमा का-३कोटि ५० लक्ष उपवास या ३ नवीन पाठशालाएं खुलवावे अथवा | का फल यथाशक्ति और यथा आवश्यक पुरानी ११. इस व्रत को उत्कृष्ट परिणामों के पाठशालाओं को सहायता पहुँचावे और साथ यथाविधि पालन करने का अन्तिम विद्यार्थियों को पाठ्य पुस्तकें व मिठाई फल निम्न प्रकार है:-- आदि देकर संतुष्ट करे । यथा आवश्यक (१) तीन वर्ष तक करने वाले को जिन मन्दिरों के अतिरिक्त अन्यान्य सर- स्वर्ग प्राप्त होता है, तत्पश्चात् कुछ ही स्वती-भवन सर्व साधारण के लाभार्थ जन्म में मुक्तिपद प्राप्त होजाता है। खोले। सकलदत्ति, पात्रदत्ति, दयादत्ति, (२) पांच या सात वर्ष करने वाला और समानदत्ति, इन चार प्रकार के दान स्वर्ग और मनुष्य पर्याय के उत्तमोत्तम सुख में से जो जो बन पड़ें यथाशक्ति विधि भोग कर ७ वे जन्म तक मोक्षपद प्राप्त पूर्वक करे।
कर लेता है। ___ (२) मध्यम-निम्नलिखित जघन्य- | (३) आठ वर्ष तक करने वाला द्रव्य, विधि से अधिक जो कुछ बन पड़े करै। क्षेत्र, काल, भाव की योग्यता पूर्वक उसी - (३) जघन्य-किसी एक जैनमन्दिर
भव से अथवा तृतीय भघ तक सिद्ध पद में यथा आवश्यक वेष्ठन सहित कोई जैन .. पाता है। प्रन्थ, धोती, दुपट्टा, लोटा, थाल, आदि
१२. इस महान व्रत को धारण करने आठ उपकरण, प्रत्येक एक एक चढ़ावे में निम्न लिखित स्त्री पुरुष पुराण-प्रसिद्ध और अपनी लाई हूई सामग्री से अभिषेक और नित्यपूजन पूर्वक पंचमेरु और अठाई (१) अनन्तवीर्य-इसने इस व्रत को | पूजा स्वयं करे, ‘अथवा अपनी पालन कर चक्रवर्ती पद पाया। उपस्थिति में करावे । यथाआवश्यक (२) अपराजित-इसने भी चक्रवर्ती | पात्रदत्त या दया दत्ति भी करे। आगे पद प्राप्त किया। देखो शब्द 'अठाई व्रतोद्यापन', पृ०२४० ॥ . (३) विजयकुमार--यह चक्रवर्ती का
१०. इस व्रत को निर्मल भाव के साथ सेनापति हुआ। सर्वोत्कृष्ट रीति से पालन करने का प्रत्येक (४) जरासन्ध--इस ने पूर्व भव में यह दिन सम्बन्धी महात्म निम्नोक्त है :- व्रत किया जिस के प्रभाव से त्रिखंडी (१) अष्टमी का-१० लक्षोपवास का फल (अर्द्धचक्री) हुआ। (२) नवमी का-१० सहसोपवास का फल (५) जयकुमार-उसी जन्म में अवः | (३) दशमी का-६० लक्षोपवास का फल धिज्ञानी हो श्री ऋषभदेव का ७२वां गणः | (४) एकादशी का-५० लक्षोपवास का फल धर हुआ और उसी जन्म से मोक्षपद भी (५) द्वादशी का-८४ लक्षोपवास का फल | पाया॥
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and
( २३९ ) अठाई व्रत उद्यापन वृहत् जैन शब्दार्णव
अठाईव्रत कथ (६) जयकुमार की स्त्री सुलोचना--1 से हम दोनों भाई अरिंजय और अमित. उसी जन्म में आर्यिका हो तपोबल ले अजय उत्पन्न हुए हैं'। यह सुन कर राजा स्त्रीलिङ्ग छेद कर स्वर्ग में महर्द्धिक देव । हरिषेण ने श्री गुरु से विधि पूछ कर
उनकी आज्ञानुसार नन्दीश्वरवत फिर ग्रहण (७) श्रीपाल--इस का और इस के किया और अन्त में मुनिदीक्षा धारण कर ७०० साथियों का तीब्र कुष्ट रोग उसी तपोबल से अष्टकर्म नाश कर उसी जन्म जन्म में दूर हुआ ॥
से मुक्तिपद पाया ॥ .. इत्यादि ।
.. नोट १-धर्तमान अवसर्पिणी के गत अठाईव्रत उद्यापन-आगे देखो शब्द
चतुर्थ काल में २०वें तीर्थंकर श्री मुनिसुवत
नाथ के तीर्थकाल में राम-लक्ष्मण-खे पूर्व 'अठाईव्रतोद्यापन', पृ० २४० ॥
हरिषेण नाम का १०धाँ चक्रवर्ती राजा मी अठाईव्रत कथा-अष्टान्हिकवत या न- | सूर्यवंश में हुआ है, पर उपयुक्त कथाविहित | न्दीश्वरव्रत की कथा । इस कथा का | हरिषेण और चक्रवर्ती हरिषेण एक महीं हैं, सारांश निम्न प्रकार है:-- . . क्योंकि दोनों के जन्मस्थान और माता पिता
इसी भरतक्षेत्र के आर्यखंड की अयो- के नामों में बड़ा अन्तर है । इटावा निवासी ध्या नगरी के सूर्यवंशी राजा 'हरिषेण' पं० हेमराज कृत एक भाषा कथाग्रन्थ में ने एक बार अपनी गन्धर्वसेना' आदि उसे भी चक्रवर्ती लिखा है, परन्तु कई कथाकई सनियों सहित 'अरिंजय' और 'अ- प्रन्थों का परस्पर मिलान करने से ज्ञात मितञ्जय' नामक चारणऋद्धिधारी मुनियों होता है कि वह कोई अन्य समय अन्य क्षेत्र से धर्मोपदेश सुन कर अपने भवान्तर | का भी चक्रवर्ती न था ।। पूछे । उत्तर में श्री गुरु ने कहा कि 'इसी नोट २--अठाईव्रतकथा संस्कृत, हिंदी अयोध्यापुरी में पहिले एक कुवेरदत्त नामक भाषा, छन्दोबद्ध और बचनिकारूप कई संवैश्य रहता था जिस की सुन्दरी नामक स्कृतज्ञ कवियों की और कई भाषा कक्यिों स्त्री के गर्भ से श्रीवर्मा, जयकीर्ति और की भनाई हुई हैं जिन का विवरण निम्न प्र. जयचन्द्र नाम के तीन पुत्र पैदा हुए। | फार है:तीनों ने निग्रन्थ गुरु के उपदेश से श्रद्धा- १. संस्कृतकथा--(१) श्री श्रुतसागर पूर्वक यथाविधि नन्दीश्वरवत पालन | (२) सुरेन्द्रकीर्ति (३) हरिषेण इत्यादि रचित किया जिसके फल में श्रीवर्मा तो प्रथम | २..हिन्दीभाषा कथा चौपाईयन्धस्वर्ग के सुख भोग कर इसी नगर के राजा (१) इटावा निवासी पं० हेमराज (२) श्री चक्रवाहु की रानी विमलादेवी के उदर भूषणभट्टारक के शिष्य श्री ब्रह्मज्ञानसागर से तू उत्पन्न हुआ और शेष दोनों भाई (३) खरौआ जातीय श्री जगभूषण भट्टारक जयीर्त्ति और जयचन्द्र स्वर्गसुख भोग के पट्टाधीश श्री विश्वभूषण (फाल्गुन शुक्ल कर हस्तिनापुर में श्रीविमल नामक | ११ बुधवार वि० सं० १७३८) इत्यादि रचित । वैश्य की धर्मपत्नी श्री लक्ष्मीमती के गर्भ ३. हिन्दी भाषा कथा बचनिका---
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( २४० ) अठाईव्रत कथा वृहत् जैन शब्दार्णव
अठाईव्रतोद्यापन यपुर निवासी पं० नाथलाल दोसी खंडेलवाल | (२) सुकुमालचरित, भाषा बचनिका वि० रचित (वि० सं० १९२२ में )॥
सं० १९१८ में .. इन महानुभावों के रचे अन्य प्रन्थ | (३) महीपाल चरित, भाषा बचनिका वि० निम्न लिखित हैं:--
सं० १९१९ में १. 'श्री श्रु ससागर' रचित ग्रन्थ-- , (४) दर्शनसार, भाषा छन्दवद्ध वि० सं० (१) तस्वार्थ की सुबोधिनी टीका।
१९२० में (२) तर्कदीपक।
(५) षोडशकारणजयमाल, भाषा छन्दवद्ध (३) षटपाइड़ की टीका।
वि० सं० १९२० में (४) यशस्तिलक काव्य की टीका। (६) रत्नकरंडश्रावकाचार, भाषा छन्दबद्ध (५) विक्रम प्रबन्ध ।
वि० सं० १९२० में (६) क्रियापाठ स्तोत्र ।
(७) रत्नत्रयजयमाल, भाषा छन्दवद्ध वि (७) व्रतकथा कोश। . .
सं० १९२२ में () थ तस्कन्धावतार।
(८) रत्नत्रयजयमाल, भाषा बचनिका वि० (8) ज्ञानार्णव टीका
सं०१६२४ में (१०) आशाधरकतपूजाप्रबन्ध की टीका। (8) सिद्धप्रिय स्तोत्र, भाषां छन्दबद्ध (११) सारस्वतयंत्र पूजा। .
नोट ३--एक भाषा चौपाईबद्ध (१२) नन्दीश्वरउद्यापन। . ..
'अठाईव्रत कथा' 'श्री भूषण' भट्टारक के (१३) अष्टान्हिकोद्यापन ।
शिष्य 'श्री ब्रह्मशानप्लागर' रचित है और • (१४) आकाशपञ्चमी कथा।
एक खगैवा जाति के श्री जगभूषण भट्टारक (१५) आदित्यचार कथा
के पट्टाधीश श्री विश्वभूषण रचित अधिक (१६) भक्तिपाठ।
प्रसिद्ध है जो शुभ मिति फाल्गुन शु० ११ (१७) सहस्त्रनामस्तोत्र की टीका । बुधवार को प्रमोदविष्णु नामक वि०सं० १७३८ (१८) लक्षणपंक्ति कथा।
में रची गई है। (१९) जैनेन्द्रयशविधि।
अठाईव्रतोद्यापन-इस नाम के निम्न (२०) एकीभाव की कथा।
लिखित विद्वानों के रचै कई ग्रन्थ हैं जिनमें (२१) चन्दनषष्ठीव्रतकथा ।
अष्टान्हिकाव्रत के उद्यापन की विधि २. श्री हरिषेण' रचित ग्रन्थ
सविस्तर वर्णित है:-- • (१) बृहत् आराधना कथा कोश
१.श्री कनककीर्ति भट्टारक--इन के (२) धर्म परीक्षा (संस्कृत)
रचे अन्य गन्थ--अष्टान्हिकासर्वतोभद्र ३. 'श्री विश्वभूषण' रचित जिनदत्त चरित
पूजा आदि ॥ . छन्दोबद्ध, सं० १७३८ में ॥
२. श्री धर्मकीर्ति भट्टारक-इन के रचे ४. पं० नाथूलाल दोसी रचित
अन्य प्रन्थ-(१) आशाधर कृत यत्याचार (१) परमात्माप्रकाश, भाषा छन्दयद्ध,
की टीका (२) धनंजयकृत द्विसन्धानकाव्य - सं० १९११ में ।
की टीका (३) हरिबंशपुरोण (४) पद्मपुराण |
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(२४१ ) अठाईव्रतोद्यापनविधि वृहत् जैन शब्दार्णव
अठारह जन्ममरण (५) गणधरवलय पूजा (६) नन्दिशान्तिक | अधिक १८ बार एक श्वासोच्छ्वास में कर
३. श्री श्रु तसागर-पीछे देखो शब्द सकता है जिस का विवरण निम्न प्रकार 'अठाईव्रत कथा' का नोट २, पृ० २३६॥
४. श्री सकलकीर्त्ति (द्वितीय)-इनके पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निरचे अन्य प्रन्थ--(१) षोड़शकारण कथा | कायिक, पवनकायिक और साधारण(२) श्रु तकथाकोश (३) कातंत्ररूपमाला बनस्पतिकायिक, यह ५ प्रकार के जीव लघुवृत्ति (४) गुलावली कथा (५) रक्षा- स्थूल और सूक्ष्म भेदों से १० प्रकार वन्धन कथा (६) त्रिवर्णाचार कथा (७) के हैं। इन में प्रत्येकवनस्पतिकायिक का जिनरात्रि कथा (८) सहस्रनाम स्तोत्र (6) एक भेद मिलाने से सर्घ ११ भेद हैं। इन लब्धिविधान ॥
११ प्रकार के लब्ध्यपर्याप्तक शरीरों में से अठाईव्रतोद्यापनविधि- पीछे देखो हर एक प्रकार के शरीर को कोई एक शब्द 'अठाईव्रत', पृ० २३६-२३६
जीव एक अन्तमुहूर्त में अधिक से अधिक अठारह कूट भरत, और ऐरावत क्षेत्रों के |
६०१२ बार और इसलिये ग्यारहों प्रकार
के शरीरों को ११ गुणित ६०१२ अर्थात् दौनों विजयाद्ध पर्वतों पर)-१. भरतक्षेत्र
६६१३२ बार, और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, के "विजयार्द्ध" पर के कूट पूर्व दिशा की
चतुरेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक ओर से क्रम से (१) सिद्धकूट (२)दक्षि
शरीरों को कम से ०, ६०, ४०, २४ बार, णा भरतकूट (३) खंडप्रपात (४) पूर्ण
एवम् सर्व ६६१३२+0+६०+४+ भद्र (५) विजयार्द्धकुमार (६) मणिभद्र (७)
२४ =६६३३६ बार पा सकता है। तामिश्रगुह (८) उत्तर-भरत (९) वैश्रवण ॥
एक मुहूर्त में ३७७३ श्वासोच्छ्वास ___२. ऐरावत क्षेत्र के "विजयार्द्ध" पर
होते हैं अतः एक अन्तमुहूर्त में अर्थात् के कूट क्रम से (१) सिद्धकूट (२) उत्तरार्द्ध
एक मुहूर्त से कुछ कम काल में ३७७३ से ऐरावत कूट (३) तामिश्रगुह (४) मणिभद्र १५) विजयार्द्ध कुमार (६) पूर्गभद्र (७) खंड
कुछ कम श्वासोच्छ्वास होंगे। यदि यहां प्रपात (E) दक्षिणैरावताद्ध (६) चैश्रवण ॥ जन्म मरण की गणना में ३६८५ श्वासो(त्रि०७३२--७३४)
छ्वास का एक अन्तर्मुहर्त ग्रहण किया। अठारहतायोपशमिक भाव- १८
जाय अर्थात् ३६८५१ श्वासोच्छ्वास में | मिश्रभाव । ( पीछे देखो शब्द "अट्ठाईस भाव" का नोट, पृ० २२५)
अधिक से अधिक जन्म मरण को उपयुक्त | __ (गो० क० ८१३,८१७) संख्या ६६३३६ हो तो ६६३३६को ३६८५३ अठारह जन्ममरण ( एक श्वासो- का भाग देने से एक श्वासोच्छ्वास में च्छ्वास के )--कोई लब्ध्यपर्याप्तक जीव जन्म मरण की उत्कृष्ट संरया पूरी १८ यदि अपनी अपर्याप्त अवस्था में अति | प्राप्त हो जाती है। शीघ्र शीघ्र जन्म मरण करे तो अधिक से ) नोट १-एक मुहूर्त दो घड़ी या ४८
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ध
( २४२ ) अठारह जीवसमास
____ अठारह दोष मिनिट का होता है । उत्कृष्ट अन्तमुहर्त एक (१८) संशी पंचेन्द्रिय । अर्थात् स्थावर समय कम एक मुहूर्त का और जघन्य अन्त- (एफेन्द्रिय ) जीवों के १३ भेद और त्रस मुहूर्त एक समय अधिक एक आवली प्रमाण (द्वन्द्रियादि ) जीवों के ५ भेद, एवम् काल का होता है।
सर्व १८ जीवसमास ॥ नोट २--यहां एक अन्तमुहूर्त यदि २. द्वितीय रीति-उपरोक्त स्थावर उत्कृष्ट अन्तमुहर्त को ही ग्रहण किया जाय जीवों के १३ भेदों में प्रत्येक वनस्पति के
और ३७७२ या३७७३ श्वासोच्छ्वासही होना सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित, यह दो भेद एक अन्तमुहर्त में माना जाय तो भी जन्म गिनने से स्थावर जीवों के सर्च १४ भेद मरण की उपरोक्त संख्या ६६३३६ को ३७७२ और द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय, पंचे या ३७७३ का भाग देने से १७॥ (साढ़ेलत- न्द्रिय, यह चार भेद त्रस जीवों के, इस रह ) से कुछ अधिक प्राप्त होने के कारण प्रकार सर्व १८ जीवसमास हैं। उत्कृष्ट संख्या पूरी १८ ही मानी जायगी॥ . ३. तृतीय रीति--पंच स्थावर और
नोट ३-एक मुहुर्त में जो ३७७३श्वा- एक प्रस, यह ६ भेद पर्याप्त आदि तीनों सोच्छ्वास माने गये हैं वह बाल श्वासोच्छ्- प्रकार के होने से १८ जीवसमास हैं । वास हैं अर्थात् एक मुहूर्त में तुरन्त के जन्मे ४. चतुर्थ रीति--पृथ्वीकायिक आदि स्वस्थ बालक के ३७७३ श्वासोच्छ्वास होते स्थावर ५ भेद, और विकलत्रय (द्वीन्द्रिय, हैं । यह एक श्वासोच्छ्वासकाल स्वस्थ युधा त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ) के पर्याप्त, निवृत्यपुरुष के एक बार नाड़ी फड़कन काल की पर्याप्त, लब्ध्यपर्याप्त भेदों से भेद और बराबर एक सेकेन्ड से कुछ कम समय का पंचेन्द्रियों के तिर्यञ्च, मनुष्य,देव, नारकी, या लगभग दो विपळ का होता है। यह ४ भेद, एवम् सर्व १८ जीवसमास
. (गो० जी० १२२-१२४) हैं । इत्यादि अन्य कई रीतियों से भी अठारह जीवसमास-१८ जीवसमास १८ जीवसमास हो सकते हैं। (पीछे देखो निम्नलिखित कई रीतियों से गिनाये जा शब्द 'अट्ठानवे जीवसमास', पृ० २२९)।
(गो० जी० ७५-८०) १. प्रथम रीति-(१) स्थल पृथ्वीका- अठारह दोष-निम्नलिखित १८ दोष यिक (२) सूक्ष्म पृथ्वीकायिक (३) स्थूल हैं जो श्री अरहन्तदेव में नहीं होतेःजल काथिक (४) सूक्ष्म जलकायिक (५) (१) जन्म (6) जरा (३) मरण (४) स्थूल अग्निकायिक (६) सूक्ष्म अग्निका- रोग (५) भय (६) शोक (७) क्षुधा (८) यिक (७) स्थूल पवनकायिक (E) सूक्ष्म तृषा (९) निद्रा (१०) राग (११) द्वेष पवनकायिक (5) स्थल नित्यनिगोद (१०) (१२) मोह (१३) स्वेद (१४) खेद (१५) सूक्ष्म नित्यनिगोद (११) स्थल इतरनिगोद विस्मय (१६) मद (१७) अरति (१८) | (१२) सूक्ष्म इतरनिगोद (१३) प्रत्येक बन- चिन्ता॥ स्पति (१४) द्वीन्द्रिय (१५) श्रीन्द्रिय (१६) अनगार धर्मामृत अ० २ । चतुरिन्द्रिय (१७) असंज्ञी पंचेन्द्रिय श्लोक १४ । १,२, ३, रत्न०६ ।
सकते हैं:
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NHSARAPRI5550MAINTAINA
(२४३ ) अठारह द्रव्यश्रु त भेद वृहत् जैन शब्दार्णव
अठारह नाते अठारह द्रव्यश्रुतभेद-(१) अर्याक्षरः
प्राणियों में से प्रत्येक के साथ छह छह, (२) अर्थाक्षरसमास (३) पद (४) पदस
एवम् तीनों के साथ १८ नातों की एक मास (५) संघात (६) संघातसमास (७)
कथा पुराण प्रसिद्ध है जो संक्षिप्तरूप में |
निम्नोक्त है:प्रतिपत्तिक (८) प्रतिपत्तिकसमास (९) अनुयोग (१०) अनुयोगसमास (११) प्रा.
किसी समय 'विश्वसेन' नामक राजा | भृतप्राभूतक (१२) प्राभृतप्राभृतकसमास
के शासन काल में मालव देश की राज(१३) प्राभृत (१७) प्राभृतसमास (१५)
धानी ‘उज्जयनी' में एक १६ कोटि द्रव्य वस्तु (१६) घस्तुसमास (१७) पूर्व (१८)
का धनी सुदत्त श्रेष्ठी रहता था। यह सेठ पूर्वसमास । (पीछे देखो शब्द 'अक्षर
एक 'बसन्ततिलका' नामक वेश्या से समास', 'अक्षर-समासज्ञान', 'अक्षरशान',
आसक्त था । उस सेठ के सम्बन्ध से। 'अक्षरात्मक-श्रु तज्ञान' और उनके नोट,
वेश्या के गर्भ से एक युगल पुत्र पुत्री का | पृ०३९, ४०, ४१) ॥
जन्म हुआ। वेश्या ने बड़े यत्न से पुत्र को गो० जी० ३४७, ३४८, ।
तो नगर के उत्तर द्वार से बाहर और पुत्री ३१४-३१७...
को दक्षिण द्वार से बाहर कहीं जंगल में
पहुँचा दिया। पुत्र तो साकेतपुर निवासी अठारह नाते-अनादिकाल से संसार एक 'सुभद्र' नामक बनजारे के हाथ लगा में बारम्बार जन्म मरण करते हुये प्रा. और पुत्री प्रयाग निवासी एक अन्य बनणियों के परस्पर अनेक और अगणितः | जारे के हाथ लगी। दोनों ने अपने अपने | सम्बन्ध तो होते ही रहते हैं अर्थात्, जो घर उन्हें बड़े यत्न से पाला । पुत्र का नाम दो प्राणी आज भाई भाई हैं ये परस्पर 'धनदेव' और पुत्री का नाम 'कमला' रखा कभी पिता पुत्र, कभी पिता पुत्री, कभी गया। युवावस्था प्राप्त होने पर कर्मवश माता पुत्र, माता पुत्री, भाई बहन, पति | इन दोनों का परस्पर विवाह होगया पत्नि, मित्र मित्र, शत्रु शत्रु, चचा भर्ताजे, अर्थात् जो एकही उदर से पैदा हुए भाईचचा भतीजी, चची भतीजे, दादा पोते, | बहन थे वही अब अनजानपने से पतिनाना दोहिता, श्वसुर जामाता, इत्यादि पनि हो गए । एकदा 'धनदेव' अपने इत्यादि सर्व ही प्रकार के सम्बन्ध पाते। साकेतनगर से बणिज के लिये 'उज्जयनी' रहे हैं और पाते रहेंगे जबतक फर्मवन्धन | गया जहां 'बसन्ततिलका' वेश्या से, जो में जिकड़ रहे हैं । परन्तु संसार चक्र | इस की माता थी, इसका अनजान में में इस प्रकार चक्कर काटते हुये कभी कभी सम्बन्ध हुआ जिससे वेश्या गर्भवती हो ऐसा भी होता है कि एक ही जन्म में गई । नवम मास में वेश्या के गर्भ से एक कई २ प्राणियों के परस्पर कई २ नाते स- पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम परुणं म्बन्ध हो जाते हैं। साधारण दो दो तीन रखा गयी। तीन नातों के उदाहरण तो अद्यापि बहुतेरे | एक दिन जब कमला ने अपने परदेश मिल जायगे पर एक प्राणी के अन्य तीन गये पति 'धनदेव' के समाचार किसी
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( २४४ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अठारह नाते
अवधिज्ञानीमुनि से पूछे तो मुनिने इनके पूर्व जन्म के चरित्र सहित सारा यथार्थ वृतान्त उसे बता दिया जिसे सविस्तार सुन कर 'कमला' को तुरन्त जाति-स्मरण हो गया अर्थात् उसे अपनी इस जन्म और पूर्व जन्म की सारी बातें स्वयम् भी स्मरण हो आई । [ पूर्व जन्म का चरित्र जानने के लिये पीछे देखो शब्द "अग्निभूति (५)” पृष्ठ ६३ ]
पश्चात् 'कमला' 'उज्जयनी' गई और 'बसन्ततिलका' वेश्या के महल में पहुँची जहां वरुण पालने में झूल रहा था । कमला उसके पास बैठ कर उसे झुलाती हुई कहने लगी :-.
३. धनदेव मेरा और तुम्हारा दौनों का पति है । अतः तुम मेरी सौतिन हो ।
४. तुम मेरे पति धनदेव की माता हो । अतः तुम मेरी भी हो । सासू
हे बालक तेरे साथ मेरे छह नाते हैं१. घनदेव मेरा पति है । उसका तू पुत्र है । अतः तू मेरा भी है । पुत्र २. धनदेव मेरा भाई है । उसका तू पुत्र है । अतः मेरा भतीजा है ।
५.
धनदेव सौतिन का पुत्र होने से मेरा सौतीला पुत्र है और तुम उसकी स्त्री हो । अतः तुम मेरी पुत्रवधू भी हो ।
३. बसन्ततिलका तेरी और मेरी दौनों की ६. धनदेव तुम्हारा पति है और मैं तुम्हारे
माता है । अतः तू मेरा भाई है।
1
गर्भ से जन्मी हूं । अतः धनदेव मेरा पिता है और तुम धनदेव की माता भी हो। इस लिये तुम मेरी दादी भी हो ।
कमला बसन्ततिलका से इतना कह कर धनदेव से भी कहने लगी कि आपके साथ भी मेरे ६ ही नाते हैं, सो सुनिये :१. आपके साथ मेरा विवाह हुआ है । अतः आप मेरे पति हैं ।
४. बसन्ततिलका तेरी और धनदेव की माता होने से तू धनदेव का छोटा भाई है और धनदेव मेरा पति है | अतः पति का छोटा भाई होने से तू मेरा देवर है ।
५ बसन्ततिलका मेरी माता है । धनदेव उस का पति है, अतः धनदेव मेरा प्रिता है । तू धनदेव का छोटा भाई है । अतः तू मेरा चचा (काका) है ।
अठारह नाते
/
बसन्ततिलका ने जब कमला को 'वरुण' से इसप्रकार कहते हुए सुना तो कमला के पास आकर उससे पूछने लगी कि तू कौन है जो मेरे पुत्र से इस प्रकार ६ नाते प्रकट कर रही है। तब कमला बोली कि सुनो तुम्हारे साथ भी मेरे ६ ही नाते हैं :
१. मैं धमदेव के साथ तुम्हारे ही उदर से जन्मी हूं । अतः तुम मेरी माता हो । २. धनदेव मेरा भाई है । तुम मेरे भाई घनदेव की स्त्री हो । अतः तुम मेरी भावज (भौजाई ) हो ।
२. आप और मैं दोनों एक ही माता के उदर से जन्मे हैं । अतः आप मेरे भाई हैं । ३. मेरी माता वसन्ततिलका के आप पति हैं। अतः आप मेरे पिता भी हैं।
६. बसन्ततिलका और मैं दोनों ही धनदेव कत्र होने से बसन्ततिलका मेरी सौतिन है । धनदेव सौतिन का पुत्र होने से मेरा
भी पुत्र है अतः तू मेरे पुत्रका पुत्र होने से | ४. आप मेरे और बसन्ततिलका दोनों के मेरा पोता भी है ।
पति हैं | और आप बसन्ततिलका के पुत्र
1
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( २४५ ) अठारह पाप वृहत् जैन शब्दार्णव
अठारह श्रेणी भी हैं । अतः सौतिन के पुत्र होने से आप | (४) बीजबुद्धि (५) कोष्टबुद्धि (६) पदानुमेरे सौतीले पुत्र भी हैं।
सारित्व (७) संभिन्न श्रोतृत्व (८) दूरस्प५. आप मेरी सानु वसन्ततिलका के पति | र्शन-समर्थता (६) दूरास्वादन-समर्थता होने से मेरे श्वसुर भी हैं।
(१०) दूरघ्रोण-समर्थता (११) दूरदर्शन ६. वरुण आपका छोटा भाई होने से मेरा । समर्थता (१२) दूरश्रवण-समर्थता (१३)
चाचा ( काका ) है। उसके आप पिता दशपूर्वस्व (१४) चतुर्दशपूर्वत्व (१५) अष्टांग हैं । अतः आप मेरे दादा (पितामह ) हैं ॥ महानिमित्तज्ञता (१६) प्रज्ञाश्रवणत्व (१७)
__ नोट १-जिस प्रकार कमला के छह प्रत्येकबुद्धता (१८) वादित्व । यह अठारह छह नाते वरुण, बसन्ततिलका और धनदेव भेद बुद्धिऋद्धि के हैं। के साथ ऊपर दिखाये गए हैं, इसी प्रकार | नोट-ऋद्धियों के आठ मूल भेदों में वरुण के, बसन्ततिलका के, और धनदेव के से एक भेद "बुद्धिऋद्धि" है जिसके उपरोक्त भी छह छह नाते अन्य तीनों के साथ दिखाये | १८ उत्तर भेद हैं। (पीछे देखो शब्द जा सकते हैं।
'अक्षीण ऋद्धि' और उसके नोट, पृष्ठ,४२,४३) नोट२–यदि किसी एक के नातों का अठारह मिश्रभाव-१८ क्षायोपशमिक अन्य के सर्व पारस्परिक नातों के साथ | भाव । ( पीछे देखो शब्द 'अठारह क्षायोपसम्बन्ध लगा लगा कर विचार किया जाय | शमिक भाव', पृ० २४१) तो प्रत्येक व्यक्ति के अन्य भी कई कई नाते
(गो० क०८१७) एक दूसरे के साथ निकल सकते हैं। जैसे | अठारह श्रेणी--एक मुकुटबन्ध राजा कमला ने धनदेव को नं०५ में अपना श्वसुर | जिस दल या समूह पर शासन करता है सिद्ध किया है तौ श्वसुर की माता बसन्त- वह दल निम्नलिखित १८ श्रेजी में तिलका कमला की दादस भी सिद्ध होती | विभक्त है:है। फिर दादस का पति धनदेव उसका | (१) सेनापति (२) गणकपति अर्थात् ददिया श्वसुर भी सिद्ध होता है । इत्यादि ॥ ज्योतिषनायक (३) वणिकपति अर्थात् अठारह पाप-(१) प्राणातिपात (२)
राजश्रेष्ठी या व्यापारपति (४) दंडपति मृषावाद (३) अदत्तादान (४) मैथन (५)
अर्थात् सर्व प्रकार की सेनाओं का नाइक परिग्रह (६) क्रोध (७) मान (E) माया
(५) मन्त्री (पंचाङ्गमंत्रविद ) (६) महत्तर (६) लोभ (१०) राग (११) द्वेष (१२)
अर्थात् कुलवृद्ध (७) तलवर अर्थात् कोटकलह (१३) अभ्याख्यान (१४) पैशन्य
पाल या कुतवाल (८-११) वर्ण चतुष्टय (१५)परपरिवाद (१६) रति अरति (१७)
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, · शूद्र मायामोषा (१८) मिथ्यादर्शनशल्य ।
(१२-१५) चतुरङ्गसेना अर्थात् गज,तुरङ्ग ___ (वर्द्धमानचरित्र पृ०२०)
रथ, पयादा (१६) पुरोहित (१७) आमात्य |
अर्थात् 'देशाधिकारी (१८ ) महामात्य | अठारह बद्धिर्द्धि-(१ ) कैवल्यज्ञान
अर्थात् सर्व राज्यकार्याधिकारी ॥ (२) अवधिःज्ञान (३) भनःपर्ययज्ञान |
..
(त्रि०६८३,६८४)।
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( २४६ ) अठारह श्रेणीपति
वृहत् जैन शब्दार्णव अठारहसहस्र मैथुनकर्म | अठारह श्रेणीपति-अठारह श्रेणी का
रङ्गार, रणरेज़, रङ्गसाज छीपी, चित्र- |
कार आदि। नायक एक मुकुटधारी राजा । ( ऊपर
___२. अस्पृश्य कारु १-चर्मकार देखो शब्द "अठारह-श्रेणी")
अर्थात् चमार या मोचा आदि । नोट-५०० मुकुटबन्ध राजाओं के
(२) अकार के ९ भेद.स्वामी को "अधिराज", १००० मुकुटवन्ध राजाओं के स्वामी को "महाराजा", २०००
१. स्पृश्य अकारु ७--(१)। मुकुटबन्ध राजाओं के स्वामी को "अर्द्ध
नापित अर्थात् नाई (२) रजक अमंडलीक", ४००० मुकुटवन्ध राजाओं के
र्थात् धोबी (३) शवर अर्थात् भील अधिपति को "मंडलीक" या "मंडलेश्वर'',
आदि (४) उद्यानप अर्थात् माली या ८०००मुकुटबन्ध राजाओं के अधिपति को
काछी आदि(५)अहीर अर्थात् आभीर, "महामंडलीक", १६००० मुकुटबन्ध राजाओं
गोप या ग्वाला आदि (६) वाद्यकर के अधिपति को “अद्धचक्री" या "त्रिखंडी"
अर्थात् वजन्त्री (७) कत्थक या गन्धर्व और ३२००० मुकुटबन्ध राजाओंके अधिपति
अर्थात् गायक या गवैया, नृतक या | को "चक्री" या "चक्रवर्ती" कहते हैं ।
नत्यकार आदि
(त्रि० ६८५) २. अस्पृश्य अकार २-(१) श्वपच अठारह श्रेणी शूद्र-शद्र वर्ण के मुख्य
या श्वपाक अर्थात् भङ्गी (२) बधक
अर्थात् व्याध, मछेरा, धीवर, पासी, भेद दो हैं (१) कार (३) अकारु या नारु ।
जल्लाद,चांडाल, कंजर आदि ॥ . इनमें से प्रत्येक के सामान्य भेद दो दो
नोट १--इन १८ श्रेणी शूद्रों की और विशेष भेद नव २ निम्नलिखित हैं
| उपजातियां अनेक हैं। अर्थात् ६ श्रेणी कारु और ९ श्रेणी
नोट२-किसी प्रकार की शिल्पकारी, अकारु या नारु, एवम् सर्व १८ श्रेणी
हस्तकला, कारीगरी या दस्तकारी के कार्य शूद्रों को है :--
करने वाले 'कार' कहलाते हैं। और जो (१) कारु के भेद.
कारु नहीं हैं बे सर्व अकार हैं। १. स्पृश्य कारु ८-- (१) कुम्भकार अर्थात् कुम्हार (२)
अठारहसहस्रपदविहितआचाराङ्गभूषणकार अर्थात् सुनार, जडिया
अङ्गप्रविष्ट श्र तज्ञान के १३ भेदों अर्थात् भादि (३) धातुकार अर्थात् लुहार,
द्वादशाङ्गों में से एक अङ्ग, अर्थात् द्वाद कंसकार या कसेरा आदि (४)पटकार
शांग जिनवाणी का प्रथम अङ्ग जो अर्थात् कोली या कौलिक (५) सूची.
१८००० मध्यम पदों में वर्णित है। (पीछे कार अर्थात् दर्जी (६) काष्ठकार अ
देखो शब्द 'अङ्गप्रविष्ट-श्रु तज्ञान',पृष्ठ११९) र्थात् स्थपति या बढ़ई, खाती आदि
(गो० जी० ३५६, ३५७) (७) लेपकार अर्थात् लेपक या थवई, भठारहसहस्र मैथुनकर्म-( अठारह राज या मेमार (८) रङ्गकार अर्थात् | सहसू कुशील या व्यभिचार भेद )-- !
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( २४७ ) अठारहसहस्र मैथुनकर्म वृहत् जैन शब्दार्णव अठारहसहस्र मैथुनकर्म ब्रह्मचर्य अत को पूर्ण रीति से सर्व प्रकार, कर्म मन, वचन, काय, इन तीनों योगों निर्दोष पालन करने के लिये जिन १८००० द्वारा हो सकने से इसके ३ गुणित ५०० प्रकार के मैथुन या व्यभिचार या कुशील अर्थात् १५०० भेद हैं। से बचने की आवश्यका है उनका विवरण निम्न प्रकार है:
५. उपरोक्त १५०० प्रकार का मैथुन१. मैथनकर्म के मूल भेद १० हैं(१)वि
कर्म कृत, कारित, अनुमोदित, इन तीन षयाभिलाषा या विषय-संकल्प-विकल्प (२)
प्रकार से हो सकने से इस के ३ गुणित वस्तिविमोक्ष या वीर्य स्खलन या शुक्रक्ष
१५०० अर्थात् ४५०० भेद हैं। रण या लिङ्गविकार.(३) प्रणीत रस सेवन
६. यह ४५०० प्रकार का मैथुनकर्म या वृष्याहार सेवन या शुक्रवृद्धिकर-आ
जात और स्पल, इन दोनों ही अब हार गृहण (४) संसक्त द्रव्य सेवन या
स्थाओं में हो सकने से २ गुणित ४५०० सम्बन्धित द्रव्य सेवन (५) इन्द्रियाव
अर्थात् ६००० भेद हैं॥ लोकन या शरीराङ्गोपाङ्गावलोने (६) प्रे
७. यह नौ सहन प्रकार का मैथुन कर्म मी सत्कार पुरस्कार (७) शरीरसंस्कार चेतन और अचेतन, इन दोनों ही प्रकार (E) अतीतस्मरण या पूर्वानुभोग सम्भोग
की स्त्रियों के साथ हो सकने से इस के स्मरण (E) अनागत भोगाविलाष (१०)
१००० का दुगुण १८००० (अठारह सहन) इष्टविषसेवन या प्रेमीसंसर्ग ॥
भेद हैं। २. उपरोक्त १० प्रकार में से प्रत्येक प्रकार का मैथुनकर्म कामचेष्ठा या काम- नोट १.-अगले पृष्ठ पर दिये प्रस्तार की विकार की निम्न लिखित १० अवस्थाओं सहायता से अथवा बिना सहायता ही मैथन। या १० वेगों को उत्पन्न करने की संभा- के सर्व भेदों के अलग अलग नाम या नष्ट वना रखने से १०० (१०x१० = १००) उद्दिष्ट लाने और प्रस्तार बनाने आदि की प्रकार का है:--
रीति जानने के लिये पीछे देखो शब्द 'अजी___ (१) चिन्ता (२) द्रष्टुमिच्छा या दर्श- वगतहिंसा' और उस के सर्व नोट, पृ० १९३नेच्छा (३) दीर्घनिश्वास (४) ज्वर (५) दाह (६) अशनारुचि (७) मूर्छा (८) |
नोट २.-पुरुष का मैथुन कर्म उपरोक्त
दो प्रकार की स्त्री के साथ होने से इस के उन्माद (E) प्राणसंदेह या जीवनसंदेह
१८००० भेदहैं इसी प्रकार स्त्री का भी दो प्रकार (१०) मरण ।
के पुरुष के साथ मैथुन कर्म हो सकने से इस ३. उपरोक्त १०० प्रकार का मैथुन |
| के अठारह हज़ार भेद हैं। स्पर्शन आदि ५ इन्द्रियों में से प्रत्येक के वशीभूत होने से हो सकता है। अतः | | गोट३--मैथुन कर्म के उपरोक्त १८ सहन इस के ५ गुणित १०० अर्थात् ५०० भेद | भेदों के सम्पूर्ण अलग अलग नाम या मष्ट
| उद्दिष्ट लाने के लिये नीचे दिये प्रस्तार से स४. उपरोक्त ५०० प्रकार का मैथुन- हायता लें:--
हैं।
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चेतन स्त्री संबन्धी १
अचेतन स्त्री संबन्धी
भष्टादश सहस्र मैथुन भेदों का प्रस्तार ।
अठारहसहस्त्र मैथुनकर्म
जागृतावस्था स्वप्नावस्था मध्य
स्वकृत
कारित | अनुमोदित
.४
मानसिक
वाचनिक
कायिक
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वृहत् जैन शब्दार्णव
( २४८ )
स्पर्शनेन्द्रिय | रसनेन्द्रिय
वश
घश
नाणेन्द्रिय | नेनेन्द्रिय कणेन्द्रिय वश | वश । वश
| १४४
चिन्तोत्पा- | दर्शनेच्छोत्पा,दीर्घ निश्या- ज्वरोल्पा-दाहोत्पादक अशनारु- मूछों- | उन्मादो- प्राणसंदेहो मरणोसोत्पादक
च्योत्पादक त्पादक त्पादक त्पादक पादक ० १८० ३६० ७२० । ६०० ।
२०४० १२६० । १४४० । १६२०
विषया
लिंगविकार यन कम
अठारहसहस्र मैथनकर्म
भिलाष
वृज्यादार |संसक्तद्रव्य अंगोपाला-प्रेमीसत्का, शरीरसं- | अतीत अनागत । इष्ट विषय सेवनभैथुन संवनमैथुन बलोकन पुरस्कार कार . स्मरण | भोगाभिए सवन.
| मैथनकर्म | मैशनकर्म | मैथुन कर्म | मैथनकर्म | पनैथुनकमे | मैथनकर्म ३६०० ५४०० | ७२००
। १६२००
मैथन कर्म
कम
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( २४४ ) अठारह सहस्र मैथुनकर्म वृहत् जैन शब्दार्णव अठारह सहस्र शी ।
नोट ४-अन्यान्य कई प्रन्थकारों ने जाती हैं, किन्तु गम्भीरता से विचार करने | निम्त्रोक्त अन्यान्य रीतियों से भी मैथुन के | पर घे अधिकांश में निमूल ही सिद्ध होती १८००० भेद गिनाये हैं:
हैं और प्रस्तार में दिये हुये भेदों पर तो किसी (१) जागृतावस्था और स्वप्नावस्था प्रकार की शंका होती ही नहीं । यदि होगी, के स्थान में दिवा-मैथुन और रात्रिमैथुन तो वह थोड़े ही से गम्भीर विचार से सशश रख कर।
निमल सिद्ध हो जायगी (२) स्त्री के दो भेद करने के स्थान में
अठारहसहस्त्र शील-शील शब्द का १४ भेद अर्थात् देवी, मनुप्यनी, तिर्यञ्चनी
अर्थ है स्वभाव, शुद्धविचार, अभ्यास, और अचेतन स्त्रो, करके और जागृत व स्वप्न
आत्म मनन, आत्मसमाधि, आत्मरमण, इन दो अवस्थाओं को न लेकर।
आत्म रक्षा, आत्म सत्कार, इत्यादि । अतः (३) स्त्री का सामान्य भेद एक ही
जिस अभ्यास से या जिस प्रकार के वि। रख कर ओर दो प्रकार की स्त्री और दो अव
चार रखने से सर्व विकार दूर हो कर स्थाओं के स्थान में क्रोधादि चार कषायें
आत्मा में निर्मलता आती और मुनिधर्म लेकर।
सम्बन्धी व्रतो या मूल गुणों की रक्षा (४) चेतन श्री ३, कृत आदि ३,
होती है तथा जिन की सहायता से संयम मनोयोगादि ३, स्पर्शनादि इन्द्रिय ५, आहार,
के भेद रूप मुनिधर्म के ८४ लाख उत्तर गुणों भय, मैथुन, परिग्रह , यह संज्ञा ४, द्रव्यत्व,
की पूर्णता होती है वे १८ हजार प्रकार के भावत्व, यह २, अनन्तानुवन्धी-क्रोधादि १६,
निम्न लिखित हैं:यह गिना कर ३४ ३४३४५४४४२४ १६
१.आत्मधर्म के लक्षण १०-(१) = १७२८० प्रकार का मैथुन तो चेतन स्त्री स.
उत्तम क्षमा (२) उत्तम मार्दव (३)। म्बन्धी । और अचेतन स्त्री ३ (१. मट्टी, काष्ठ,
उत्तम आर्यव (४) उत्तम शौच (५) पाषाण आदि की कठोर स्पर्ध्य, २.रुई आदि
उस्तम सत्य (६) उत्तम संयम (७)उत्तम! के पत्र की या रबर आदि की कोमल स्पर्ध्य,
तप (2) उत्तम त्याग (९) उसमे आ३. चित्रपट), कृत आदि. ३, मन बचन २,
किञ्चन्य (१०) उत्तम ब्रह्मचर्य। इन्द्रिय ५, संज्ञा ४, द्रव्यत्व भावत्ध २, इस
___ यह दश लक्षण ही शील के १० मूल प्रकार ३४३४२४५४४४२ = ७२०, अथवा
भेद हैं। अबेतन स्त्री ३, कृत आदि ३, मनो योग १,
२. प्राणिसंघम १०-(१1 पृथ्वी । इन्द्रिय ५, कपाय १६, इस प्रकार ३४३४१
कायिक प्राणिसंयम (२) जल कायिक ४५४ १६= ७२० प्रकार का मैथुन अचेतन
प्राणिसंयम (३) अग्निकायिक प्राणिसंयम स्त्री सम्बन्धी । चेतनस्त्री सम्बन्धी १७२८०
(४) वायुकायिक प्राणिसंयम (५) और अवेतनस्त्री सम्बन्धी ७२० भेद जोड़ने
प्रत्येकबनस्पतिकायिक प्राणिसंयम (६)। से १८००० भेद ॥ इत्यादि................
साधारणबनस्पतिकायिक प्राणिसंयम नोट ५-मैथनकर्म के उपरोक्त |
(७) द्वीन्द्रिय प्राणिसंयम (८) श्रीन्द्रिय | १८००० भेदों पर कई प्रकार की शंकाएँ उठाई | प्राणिसंयम (8) चतुरिन्द्रिय प्राणिसंयम
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स्वकृत | कारित | अनुमोदित |
अष्टादशसहस शीलाङ्ग
अठारहसहस्र शील
मनोगुप्ति सहित
बचनगुप्ति सहित
कामगुप्त सहित
आहारसंज्ञा भयसंज्ञा विरक्त
विरक्त
| मैथुन संज्ञा | परिग्रहसंज्ञा
विरक्त
*धिरक्त
|
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स्पर्शनेन्द्रिय रसनेन्द्रिय | घ्राणेन्द्रिय- | नेत्रेन्द्रिय- | करणेन्द्रियवश रहित वश रहित | वश रहित घश रहित |वश रहित
७२
१००
( वृहत् जैन शब्दार्णव
२५० )
पृथ्वीकायि-जल कायिक अग्निकायिका वायकायिका प्रत्येक बन-| साधारण । द्वीन्द्रिय | श्रीन्द्रिय । चतुरेन्द्रिय | पंचेन्द्रिय क प्राणिसं प्राणिसंयम | प्राणिसंयम | प्राशिसंयम | स्पतिकायिक बनस्पति का- प्रोणिसंयम प्राणिसंयम | प्राणिसंयम
प्राणियम यमसहित सहित सहित सहित प्राणिसंयम | यिक प्राणि-| सहित | सहित
सहित सहित सहित संयम सहित १०० ३६० ५४० ७२० ६०० १०८०
१४४० १६२०
उत्तम
उत्तम उत्तम
उत्तम उत्तम
उत्तम उत्तम क्षमाश्वित मार्दवान्वित | आर्यवान्वित | शौचाधित सत्यान्वितः संयमान्वित | तपान्चित शील शील शील
शील शील शील - शील
उत्तम उत्तम
उत्तम त्यागान्धित आकिञ्चन्या- ब्रह्मचर्यान्वित | शील |न्वित शील शील
अठारहसहन शील
१८००
३६००
५४००
७२००
९०००
१०८००
१२६००
१४४००
१६२००
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( २५१ ) अठारह सहस्र शील वृहत् जैन शब्दार्णध
अठासी ग्रह (१०) पंचेन्द्रिय प्राणिसंयम
नोट २-'अठारहसहस्त्र-मैथुनकर्म' शीलके उपरोक्त १० मूल भेद अर्थात् के प्रस्तार के समान इन १८००० शील के. दशलक्षण धर्म इन १० प्रकार के प्राणि भेदों को प्रस्तार भी बनाया जा सकता है! संयम में से प्रत्येक के साथ पालन किये और प्रत्येक भेद का नाम अथवा नष्ट उद्दिष्ट जाने से शील के १० गुणित १० = १०० लाया जा सकता है । ( पीछे देखी पृ० २५० भेद हैं।
और शब्द 'अठारह सहस्र मैथनकर्म' को ३. इन्द्रिय संयम ५.-(१)स्पर्शनेन्द्रिय नोट १, पृ० २४७)॥ संयम (३) रसनेन्द्रियसंयम (३) घ्राणेन्द्रिय | ज्ञा० प्र० ११ श्लोक ७,८,९,३१७
अनगार० अ०४.श्लोक ६१, ६६, । संयम ( ४ ) नेन्द्रिय संयम (५) थोत्र
भग. गा०.८७८,८७९.८८०; न्द्रिय संयम।
( गृ० अ० ९३ श्रा० पृ० २०४ ) ___ उपरोक्त १०० प्रकार का शील प्रत्येक अठारह स्थान-(१) वैराग्योत्पादक १% इन्द्रिय संयम के साथ पालन करने से
विचार स्थान । प्रमावश कोई आकुलना शोल के ५०० भेद हैं। .
या चित्त विकार उत्पन्न होने पर संयम ४. संज्ञा ४-(१) आहार ( २) भय में दृढ़ता रखने और मन स्थिर रखने के (३) मैथन ( ४ ) परिग्रह।
लिये साधुओं को विचारने योग्य १८ . उपर्युक्त ५०० प्रकार का शील इन
स्थान हैं । ( अ० मा०)॥ ४ संज्ञाओं में से प्रत्येक से विरक रह कर (२) दोषोत्पादक १८ पापस्थान । शुद्ध पालन किये जाने से शील के २००० भेद विचार से गिराने वाले और जीवन को
बिगाड़ने वाले प्राणातिपात आदि दोषो५. गुप्ति ३--(१) मनोगुप्ति (२) त्पादक १८ पापस्थान हैं। (अ० मा० बचनगुप्ति (३) कायगुप्ति ।
'अट्ठारसठाण' ) ॥ (पीछे देखो शब्द अथवा करण ३-(१)मनकरण (२)
'अठारह पाप', पृ० २४५)॥ बचकरण (३) काय करण ।
अठासीगह-(१) कालविकाल (६) उपरोक्त २००० प्रकार का शील मनो.
लोहित ( ३ ) कनक (४) कनकसंस्थान गुप्ति आदि ३ गुप्ति सहित अर्थात् मन
. (५) अन्तरद(६) कचयव (७) दु'दुभि करण आदि ३ करण रहित, पालन कियो ।
(८) रत्ननिभ (६) रूपनिर्भास (१०) जाने से शील के ६००० भेद हैं जिनके स्व- |
नील (११) नीलाभास (१२) अश्व (१३) कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा किये जाने
अश्वस्थान (१४) कोश (१५) कंसवर्ण से १८००० भेद हो जाते हैं।
(१६) कंस (१७) शंङ्खपरिमोण (१८) __नोट १--किसी. किसी गून्थकार ने शङ्खवर्ण (१६) उदय (३०) पंचवर्ण कृत, कारित, अनुमोदना, इन तीन के स्थान ( २१ ) तिल (२२) तिलपुच्छ (२३) में उपरोक्त ३ गुप्ति और ३ करण को अलग क्षारराशि (२४) धूमू (२५) धूम्रकेतु अलग गिना कर शील के..८००० भेद दि- (२६) एक संस्थान (२७) अक्ष (२६) खाये हैं।
कलेवर (२६) विकट (३०) अभिन्न
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( २५२ ) अठासी ग्रह वृहत् जैनशब्दार्णव
अठासी ग्रह संधि ( ३१ ) प्रथि (३२) मान (३३) | इन ही से काम लिया जाता है और इसलिये चतुःपाद (३४) विद्यज्जित ( ३५ ) नभ साधारण गणित ज्योतिष ग्रन्थों में भी अन्य (३६) सदृश (३७ ) निलय (३८) काल की उपेक्षा कर इन ही ७ का सविस्तार व (२६) काल केतु (४० ) अनय ( ४१) र्णन है । इन ७ ग्रहों में चन्द्र और सूर्य, इन सिंहायु (४२) विपुल ( ४३ ) काल दो को मिला कर ज्योतिषी लोग नवग्रह (४४) महाकाल (४५) रुद्र (४६) कहते हैं । यद्यपि यह दो वास्तव में ग्रह महारुद्र (४७) सन्तान (४८) संभव नहीं हैं तथापि फलित ज्योतिष में इन से (४६) सर्वार्थी (५०) दिशा (५१) शांति भी ग्रहों की समान ही काम लिया जाता है। (५२) बस्तन (५३) निश्चल (५४) प्रलंभ इसी लिये यह दो भी वास्तविक ७ गहों से। (५५) निमंत्र ( ५६ ) ज्योतिष्मान (५७) मिला कर नवगह कहने में आते हैं। स्वयम्प्रभ (५८) भासुर (५६) विरज नोट ३-बहुत लोग जानते हैं कि । (६०) निदु:ख (६१) वीतशोक (६२) यह नवगृह ही हम मनुप्यों को सर्व प्रकार | सीमङ्कर (६३) क्षेमङ्कर (६४) अभयंकर का सुख दुःख देते रहते हैं परन्तु वास्तव में (६५) विजय (६६) वैजयन्त (६७) जयन्त | ऐसा नहीं हैं। वे हमें किसी प्रकार का सुख (६८) अपराजित (६६) विमल (७०) त्रस्त | दुःख नहीं देते और न वे किसी प्रकार भी (७१) विजयिष्णु (७२) विकस (७३) करि- हमारे सुख दुःख का कारण हैं । इसी लिये काष्ठ (७४) एकजटि (७५) अग्निज्वाल | उनका अरिष्टादि दूर करने के लिये जो पूजन, (७६) जल केतु (७७) केतु (७८) क्षीरस अनुष्ठान, जप आदि किये जाते हैं उन से | (७६) अघ (८०) श्रवण (८१) राहु (८२) घे प्रसन्न भी नहीं होते और न वे हमारा महाग्रह (८३) भावग्रह (८४)मंगल (अंगार) | कोई भी कष्ट दूर करने में हमें किसी प्रकार | (८५) शनैश्चर (८६) बुध (८७) शुक्र (८८) की सहायता ही देते हैं । हां इतना अवश्य धृहस्पति ॥
है कि गणित ज्योतिष शास्त्रों के नियमानु-! (त्रि० ३६३-३७०) कल उनके गमनागमन से १२ राशियों में। नोट १-जम्बूद्वीप सम्बन्धी दो च. उनकी स्थिति आदि को भले प्रकार जानकर । न्द्रमा हैं प्रत्येक चन्द्रमा का परिवार ८८
तथा अपने जन्म समय के द्रव्य, क्षेत्र, काल, ग्रह, २८ नक्षत्र और ६६९७५०००००००००००
भाव आदि का उन से सम्बन्ध मिला कर १०० तारे हैं।
हम अपने पूर्व कर्मों के निमित्त से होने वाले
(त्रि० ३६२) सुख दुःख के सम्बन्ध में पहिले ही से बहुत नोट २-उपरोक्त ८८ ग्रहों में से कुछ ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । इस प्रकार का नं० ७७, ८१, ८४, ८५, ८६, ८७, ८८ (अ- ज्ञान प्राप्त कराने वाले नियमों का नाम ही र्थात् केतु, राहु. मंगल, शनि, बुध, शुक्र, 'फलितज्योतिष' है । यह नियम यदि किसी बृहस्पति ), इन ७ प्रहों का मनुष्य लोक के यथार्थशानी ऋषि मुनि द्वारा बताये हुए हैं या | साथ अन्य ग्रहों की अपेक्षा कुछ अधिक स- | उनही के वचन की परम्परागत हैं तो उन के म्बन्ध होने के कारण फलित ज्योतिष में | अनुकूल जाना हुआ फल अवश्य सत्य होता।
KAROO
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( २५३ ) अड़तालास अन्तरद्वप वृहत् जैन शब्दार्णव
अड़तालीस मतिज्ञान भेद है। यह फल यदि किसी कर्म के तीव्र उदय- | वाह्यतट पर धातकीखंडद्वीप के निकट रूप है तब तो किसी भी उपाय द्वारा बदल | सर्व २४ अन्तरद्वीप हैं ।। नहीं सकता। हां, जब मन्द उदयरूप होता (६) इस प्रकार सर्व मिल कर लवणहै तो योग्य और धार्मिक उपायों द्वारा परि- समुद्र में दोनों तटों के निकट ४८ अन्तरवर्तित हो सकता है, परन्तु ग्रहों के अनु- द्वीप हैं। ष्ठान आदि अयोग्य उपायों द्वारा नहीं।
(त्रि. ६१३) नोट ४–फलित ज्योतिष के नियमों अड़तालीस अन्तरद्वीप ( कालोदकद्वारा जो त्रिकाल सम्बन्धी कुछ स्थूलशान
समुद्र में )-लवणसमुद्र की समान का प्राप्त होता है यह ज्योतिष चक्र के निमित्त
लोदकसमुद्र में भी उस के दोनों तटों के से होने के कारण निमित्तान' के आठ अङ्गों
निकट अड़तालीस अन्तरद्वीप हैं। [ ऊपर में से एक अङ्ग गिना जाता है। इसी का
देखो शब्द 'अड़तालीस अन्तरद्वीप (लवनाम 'अन्तरीक्ष निमित्तज्ञान' भी है । (नि
समुद्र में ) ] ॥ मित्तज्ञान के आठ अङ्गों के नाम जानने के लिये पीछे देखो शब्द 'अङ्गप्रविष्टथ तज्ञान' अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाके १२वें अङ्ग 'दृष्टिवादाङ्ग' के भेद 'पूर्वगत' __ अघतार क्रिया आदि उपयोगिता क्रिया में १०वाँ विद्यानुवादपूर्व, पृ० १२७ ) ।। पर्यन्त ८ विशेष क्रिया और उपनीति | अड़तालीस अन्तरद्वीप (लवणसमुद्र
आदि अनिवृति पर्यन्त ४० साधारण |
क्रिया । ( इन का विवरण जानने के में)-इन अन्तर द्वीपों का विवरण निम्न
लिये पीछे देखो शब्द 'अगूनिवृति क्रिया' प्रकार है:
का नोट ३. पृ० ७१ )। (१) लवणसमुद्र की ४ दिशाओं में ४, और ४ विदिशाओं में ४, एवम् सर्व ८
अड़तालीस प्रशस्तकर्मप्रकृति__ (२) चारों दिशाओं और चारों विदि. | पीछे देखो शब्द “अघातियो कर्म" का शाओं के मध्य की = अन्तर दिशाओं में - नोट = पृ० ८४ । ___ (३) हिभवन कुलाचल, शिखरी कुला- अडतालीस मतिज्ञान भेद- मतिचल, भरतक्षेत्र का वैताढ्य पर्वत (विजयार्द्ध पर्वत ), और ऐरावतक्षेत्र का वैता
ज्ञान के मूल भेद अवग्रह, ईहा, अवाय, व्य पर्वत, इन चारों पर्वतों के दोनों अ
धारणा,यह ४ हैं। इनमें से प्रत्येकके विषयन्तिम किनारों के निकट लवणसमुद्र में दो
भूत पदार्थ बहु, बहुविध आदि १२, भेद दो अन्तरद्वीप, एवम् सर्व
रूप होने से मतिज्ञान १२ गुणित ४ अर्थात् (४) उपरोक्त प्रकार लवणसमुद्र के
४८ भेद रूप है । ( पीछे देखो शब्द “अअभ्यन्तर तट पर जम्बूद्वीप के निकट सर्व
ट्ठाईस मतिज्ञान भेद" के नोट १, २, ३, २४ अन्तरद्वीप हैं।
पृ० २२५)॥ (५) उपरोक्त प्रकार लषणसमुद्र के
(गो० जी० ३१३) |
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( २५४ ) अड़तालीसव्यंजनावग्रहमतिज्ञानभेद वृहत् जैन शब्दार्णव अड़सठ श्रेणीवद्ध विमान अड़तालीस-व्यंजनावग्रहमतिज्ञान के आराधन के फलरूप हैं । इन्हें महापुण्या
धिकारी पुरुष ही पाते हैं। भेद-व्यंजनावग्रह केवल स्पर्शन, इसन |
आदि पु० पर्व ३८ । श्लो०६४ । घ्राण, श्रोत्र, इन ४ इन्द्रियों द्वारा होने |
। ६५, पर्व३६ श्लो०.७६-१६६ । से ४ भेद रूप है। इन में से प्रत्येक
नोट १-शेष ५३ और ८ क्रियाओं विषयभूत पदार्थ बहु, बहुविध, आदि |
| का विवरण जानने के लिये पीछे देखो शब्द १२ भेद रूप होने से व्यञ्जनावग्रह के १२
"अग्रनिवृति क्रिया'' के नोट १,२,३,पृ.७०. ॥ गुणित ४ अर्थात् ४८ भेद हैं । ( पीछे
नोट २-यह ५३ गर्भान्वय, = अथवा देखो शब्द "अट्ठाईस मतिज्ञान भेद", |
| ४८ दीक्षान्वय और ७ कतृन्वय, एवम् सर्व पृ० २२५)
६८ अथवा १०८ क्रियाएँ “कियाकल्प'' कह(गो० जी० ३०६, ३१३, )
लाती हैं। अड़तीस जीवसमास-स्थावर (एके
अड़सठ पुण्य प्रकृतियां-(पीछेदेखो न्द्रिय ) जीवों के सामान्य जीवसमास १४
शब्द 'अवातिया कर्म' का नोट ८ पृष्ठ-५) (पीछे देखो शब्द 'अट्ठानवे जीवसमास'
___अष्ट मूल कर्म प्रकृतियों के १४८ उत्तर का न०१ पृ० २२९),
भेदों में से ४ घातिया कर्मों की ४७ उत्तर ___इन में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय,
कर्मप्रकृतियां तो सर्व पोप प्रकृतियां ही हैं असंशी पंचेन्द्रिय और संझी पंचेन्द्रिय, यह
परन्तु शेष ४ अघातिया कर्म की १०१ ५ सामान्य जीवसमास त्रस जीवों के
उत्तर प्रकृतियों में से ३३ प्रकृतियां तो | जोड़ने से सर्व १६ जीवसमास हैं । इन
पापरूप हैं, ४८ प्रकृतियां पुण्य रूप हैं १६ में से प्रत्येक पर्याप्त और अपर्याप्त के
और शेष २० प्रकृतियां उभय रूप हैं अभेद से द्विगुण १६ अर्थात् ३८ भेद
र्थात् पुण्यरूप भी है, और पापरूप भी। जीवसमास के होते हैं ।
अतः ४८ पुण्य प्रकृतियों में यह २० जोड़ने (गो० जी० गा० ७६,७७, ७८ )
से ६८ पुण्य प्रकृतियां हैं। पुण्यप्रकृतियों भड़सठक्रिया- (६८ क्रियाकल्प )- को शुभ प्रकृतियां' या "प्रशस्त प्रकृतियां" गर्भाधानादि ५३ गर्भान्वय क्रिया, अवता- भी कहते हैं । अभेद विवक्षा से या बन्धोरादि उपयोगिता पर्यन्त ८ दीक्षान्वय
दय की अपेक्षा से पुष्यप्रकृतियां सर्व ४२ क्रिया, और निम्नलिखित ७ कर्तृन्वय क्रियाः
(गो० क.0 गा. ४१, ४२)। - (१) सज्जातिक्रिया (२) सद्गृहोसत्व अड़सठ श्रेणीबद्ध विमान ( शतार | क्रिया (३) पारिव्राज्य क्रिया (४) सुरेन्द्रता सहस्रार युगल में )-ऊर्द्धलोक के सर्व ६३ क्रिया (५) साम्राज्य क्रिया (६) परमाहत पटलों में से शतार और सहस्रार नामक | क्रिया (७) परमनिर्वाण क्रिया । यह ७ ११ वें, १२ वें स्वर्गों के युग्म में केवल एक - क्रियाएँ सप्त परम स्थान हैं जो जिनमार्ग | ही पटल है जिसके मध्य के इन्द्रक विमान |
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( २५५ ) अढ़ाईद्वीप वृहत् जैन शब्दार्णव
अढाईद्वीप का नाम "शतार" है। इस इन्द्रक विमान | जन चौड़ा कालोदकसमुद्र बलयाकार है। की पूर्व आदि प्रत्येक दिशा में १७ और इस समुद्र को बेढे १६ लक्ष योजन चौड़ा चारों दिशाओं में ६८ श्रेणीबद्धविमान हैं। | पुष्करवर द्वीप बलयाकार है जिस के बीचों।
(त्रि. गा. ४६७, ४७३ ) | बीच में बलयाकार "मानुषोत्तर" पर्वत पड़ा पाहाटी (मादय दीपहादी-- | है जिस से इस द्वीप के दो समान भाग हो जम्बुद्वीप,धातकीखंडद्वीप और पुष्करार्द्ध
| जाते हैं।
(त्रि० ३००) द्वीप अर्थात् अर्द्ध पुष्करद्वीप ।
नोट २-अढ़ाईद्वीप की रचना का ____ अढ़ाई-द्वीप का सर्व क्षेत्र
सामान्यविवरण निम्न प्रकार है:--
१. मेरु ५"मनुष्य क्षेत्र", "मनुष्य लोक" या "नरलोक" भी कहलाता है,क्योंकि सर्व प्रकार
___ जम्बूद्वीप के बीचों बीच में सुदके मनुष्य इस अढ़ाईद्वीप ही में बसते हैं ।
र्शनमेरु, धातकीखंडद्वीप की पूर्वदिशा में
विजया मेरु और पश्चिमदिशा में 'अचल इस से बाहर मनुष्य की गम्य विमान आदि की सहायता से भी नहीं है । इसी
मेरु', पुष्कराद्ध की पूर्वदिशा में मन्दरकारण तीसरे "पुष्कर-द्वीप" के मध्य में
मेरु' और पश्चिम दिशा में विद्य न्माली।
मेरु॥ उसे दो अद्ध भागों में विभाजित करने घाला जो एक पर्वत है उसका नाम 'मानु
(त्रि. गा.५६३) षोत्तर' है, अर्थात् यही पर्वत् मनुष्य क्षेत्र
२. महाक्षत्र३५-- . की अन्तिम सीमा है । इस मनुप्यक्षेत्र में
(१) प्रत्येक मेरु की पूर्व और पश्चिम दि. जम्वद्वीप और उसकी चारों दिशाओं का
शाओं में एक एक विदेह क्षेत्र है जो हरेक (गिर्दागिई का ) "लवणसमुद्र", धात
१६ पूर्वविदेहदेशों और १६ पश्चिमविदेहकीखंडद्वीप और उसकी चारों दिशाओं
देशों, एवम् ३२, ३२, विदेहदेशों में विभा. का (गिगिर्द का ) “कालोदक समुद्र", |
जित है और हरएक विदेहदेश में एक एक तथा मानुषोत्तर पर्वत तक का आधा |
आर्यखण्ड और पांच पांच म्लेच्छखण्ड पुष्कर द्वीप, इस प्रकार ये ढ़ाई द्वीप और |
हैं । अतःपांचों मेरु सम्बन्धी ५ विदेहक्षेत्र उनके मध्य के दो महासमुद्र सम्मिलित
हैं जो १६०विदेहदेशों तथा१६०आर्यखण्डों हैं । इस क्षेत्र का व्यास ४५ लक्ष महा
व ८०० म्लेच्छखण्डों में विभाजित हैं।। योजन है।
(त्रि. गा. ६६५,६६१) (त्रि. ३०४, ३०७,३३२,३२३)
(२) प्रत्येक मेरु की दक्षिण दिशा में नोट १--इस नरलोक में जम्बद्वीप | दक्षिण से उत्तर को क्रम से भरत, हैमवत, बीचों बीचमें एक लक्ष योजन चौड़ा वतुला और हरि, इस नाम के तीन तीन क्षेत्र हैं कार है। इसे बेढ़े हुए दो लक्ष योजन चौड़ा और उत्तर दिशा में दक्षिण से उत्तर को लवणसमुद्र बलयाकार है । इस समुद्र को | क्रम से रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत बेढे ४ लक्ष योजन चौड़ा धातकीखंडद्वीप नाम के तीन तीन क्षेत्र हैं । अतः पांचों बलयाकार है। इस द्वीप को बेड़े लक्ष यो- मेरु सम्बन्धी यह ३० ६ः है। इन में है
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( २५६ )
अढाईद्वीप
बृहत् जैन शब्दार्णव
क्षेत्रों में
पांचों भरत और पांचों ऐरावत से प्रत्येक क्षेत्र एक एक आर्यखंड और पांच पांच म्लेच्छखंडों में विभाजित है ॥
इस प्रकार यह ३५ क्षेत्र हैं जिन में पांचों विदेहक्षेत्र कर्मभूमि के क्षेत्र हैं । इन में अवसर्पिणी को अपेक्षा सदैव दुःषमसुषम नामक चतुर्थकाल (या उत्सर्पिणी की अपेक्षा तृतीयकाल) वर्तता है | पांचों भरत और पत्र ऐरावत क्षेत्रों के आर्यखंडों में कुछ समय तक तो उत्तम, मध्यम, जघन्य मोगभूमि सम्बन्धी सुपमसुषम, सुषम, सु
दुःषमं, यह अवसर्पिणीकी अपेक्षा प्रथम ● द्वितीय और तृतीय काल ( या उत्सर्पिणी की अपेक्षा चतुर्थ, पंचम, षष्ठम काल) क्रम से वर्तते हैं और कुछ समय तक कर्मभूमि सम्बन्धी दुःषम सुषम, दुःषम, दुःषम दुःषम यह अवसर्पिणी की अपेक्षा चतुर्थ, पंचम, और षष्ठम काल[या उत्सर्पिणी की अपेक्षा प्रथम, द्वितीय, तृतीय काल ] क्रम से वर्तते हैं। और इन दोनों क्षेत्रों के पांच पांच म्लेच्छ खण्डों तथा विजयाद्ध पर्वतों की श्र ेणियों में केवल दुःषमसुषम काल ही अपनी आदि अवस्था से अन्न अवस्था तक हानि वृद्धि सहित वर्तता है । शेष २० क्षेत्र भोगभूमि के हैं जिनमें से पाँचों हैमवत और पाँचों हैरण्यवत तो जघन्य भोगभूमि के क्षेत्र हैं। इनमें अवसर्पिणी की अपेक्षा सदैव तृतीयकाल सुषमदुःषम नामक वर्तता है । और पाँचों हरि व पाँचों क मध्यमभोगभूमि के क्षेत्र हैं । इनमें अवसर्पिणी की अपेक्षा सुक्ष्म नामक द्वितीय काल सदैव वर्तता है ।
4
इस प्रकार ३५ महाक्षेत्रों में से २० क्षत्र अखंड भोगभूमि के, ५ क्षेत्र अखण्ड
अढाईद्वीप
कर्मभूमिके और शेष १० क्षेत्र उभय प्रकार
के हैं।
त्रि०गा० ५६४, ६५३, ६६५, ७७९, ८८२, ८८३
}
३. उपरोक्त ३५ महाक्षेत्रों के अतिरिक्त प्रत्येक मेरु के निकट उसकी दक्षिण दिशा में देवकुरु और उत्तर दिशा में उत्तरकुरु नामक क्ष ेत्र उत्तमभोगभूमि के क्षेत्र हैं। जहां अवसर्पिणी की अपेक्षा सदैव प्रथम काल सुषमसुषम नामक वर्तता है । अर्थात् पांचों मेरु सम्बन्धी ५ देवकुरु और ५ उत्तरकुरु यह १० क्षेत्र उत्तमभोगभूमि के हैं।
इस प्रकार अढाईद्वीप में सर्व ४५ क्षेत्र हैं जिन में से ३० क्षेत्र नित्य-भोगभूमि के, ५ क्षेत्र नित्य कर्मभूमि के, और शेष १० क्षेत्र अनित्यमवर्ती भोगभूमि और कर्मदोनों के हैं।
( क्रि० ६५३ ) ४. भोगभूमि के क्षेत्रों में कल्पवृक्ष १० प्रकार के होते हैं - ( १ ) तूग ( २ ) पात्रांग (३) भूषणांग ( ४ ) पानांग (५) आहारंग (६) उपाङ्ग ( ७ ) ज्योतिराङ्ग (८) गृहांग ( 8 ) बलांग (१०) दीपांग ॥ ( त्रि. गा. ७८७ )
५. महावन १५
( १ ) प्रत्येक मेरु के निकट उस के चौगिर्द भद्रशाल वन है. जो पूर्व में सीता नदी से और पश्चिम में सीतोदा नदी से दो दो भागों में विभाजित है । अतः पाँचों मेरु सम्बन्धी ५ भद्रशालवन हैं ।
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( २ ) प्रत्येक मेरु की पूर्व दिशा में पूर्व-देवारण्य या भूतारण्यवन और पश्चिम दिशा में पश्चिम-भूतारण्य या देदारण्य
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( २५७ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
अढाईद्वीप
१५ हैं ।
बन समुद्र-तट के निकट ( विदेह देशों और समुद्र तट के बीच में ) हैं जो क्रम से सीता और सीतोदा नदियोंसे दो दो भागों में विभाजित हैं । अतः प्रत्येक मेरुसम्बंधी दो दो और पांचों मेरु सम्बन्धी १० देवारय या भूतारण्य नाम के वन हैं। इस प्रकार सर्व बन ( ५+१० ) (त्रि० गा० ६०७-६१२, ६७२ ) ॥ ६. कुलाचल ३० - - प्रत्येक मेरा सम्बन्धी दक्षिण से उत्तर दिशा को क्रम से ( १ ) हिमवत ( २ ) महा हिमवत ( ३ ) निषध (४) नील (५) रूक्मी (६) शिखरों नामक छह छह कुलाचल, भरत हैमवत आदि सात सात महाक्षेत्रों के बीच बीच में हैं। अतः पांचों मेरु सम्बन्धी सर्व कुलाचल (५४६) ३० हैं ॥
(त्रि० गा० ५६५, ७३१, ९२६ ) ॥ ७. अन्य पर्वत १५२० - - प्रत्येक मेरु सम्बन्धी यमगिरि ४ कांचनगिरि २००, दिग्गज ८, वक्षारगिरि १६, गजदन्त ४, विजयार्द्ध या वैताढ्य या रूरांचल ३४, वृषभाचल ३४, नाभिगिरि ४, एवम् सर्व ३०४ हैं । अतः पांचों मेरु सम्बन्धी सर्व ( ५× ३०४ ) १५२० हैं ।
f
त्रि०गा०६५४,६५५,६५६
६६१,६६३, ६६५- ६७०, ७१०, ७१८, ७३१,६२६
८. इष्वाकार पर्वत ४- धातकी खण्ड द्वीप की दक्षिण उत्तर दोनों पावों में एक एक, और पुष्करार्द्ध की दक्षिण उत्तर दोनों पावों में भी एक एक, एवम् सर्व ४ हैं । [ त्रि०गा०९२५] इस प्रकार अढ़ाई द्वीप में ५ मेरु, ३० कुलाचल, इष्वाकार सहित सर्व पर्वतोंकी संख्या १५५६ है । इन के अतिरिक्त अढ़ाई
अढाईद्वीप
द्वीपकी वाह्य सीमा पर उसे सर्व दिशाओं से बेढ़े हुये एक मानुषोत्तरपर्वत है । [ त्रि० गा० ९३७, ६४२ ]
हैं. मुख्यनदी ४५० - - प्रत्येक मेरु सम्बन्धी भरत आदि ७ महां क्षेत्रों में गङ्गा आदि महानदी १४, विदेहदेशों में गाधवी आदि विभंगा नदी १२ और गंगा, सिन्धु, रक्ता, रक्तोदा, नामक प्रत्येक नदी १६, १६, एवम् सर्व ६० ( १४+१२+१६+१६+ १६ + १६=९० ) हैं । अतःपांचों मेरु सम्बन्धी सर्व ४५० (५×९० = ४५० ) हैं ।. त्रि.गा. ५७८, ५७९,५८१,
{ }
१०. परिवार नदी ८६६०००० - - प्रत्येक मेरु सम्बन्धी ९० मुख्य नदियों की सहायक या परिवार नदियां १७२२००० हैं । अतः पांचों मेरु सम्बन्धी ८६६०००० (५x १७६२००० = ८९६०००० ) हैं ।
इस प्रकार अढ़ाई द्वीप में ४५० मुख्य नदियों को मिला कर सर्व नदियां ८६६०४५० हैं।.
त्रि० गॉ० ७३१,७४७-७५० ) ११. महाहृद ( द्रह या ताल ) १३०प्रत्येक मे सम्बन्धी छह कुलाचलों पर पद्मद्रह आदि हद ६ जिन से १४ महा नदियाँ निकलती हैं, सीता महानदी में १० और सीतोदा महानदी में १०, एवम् सर्व २६ ह्रद हैं । अतः पांचों मेरु सम्बन्धी सर्व हृद १३० (५ x २६ = १३० ) हैं ।
[ त्रि० गा० ५६७, ६५६,७३१,६२६ ] १२. मुख्यकुंड ४५० - प्रत्येक मेरु सम्बन्धी उपयुक्त ६० मुख्य नदियों में से १४ महां नदियां षट कुलाचलों से निकल कर उन कुलाचलों के मूलस्थ जिन कुण्डों मैं गिर कर आगे को बहती हैं वे कुण्ड१४,
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( २५E ) अढाई द्वीप वृहत् जैनशब्दार्णव
अढ़ाईद्वीप और शेष ७६ नदियाँ जिन कुण्डों से नि- ण समुद्र का एक भाग)है उसका नामआजकल कलती हैं घे कुंण्ड ७६, एवम् सर्व कुण्ड | हिंद महासागर प्रसिद्ध है । अरबकी खाड़ीऔर ९० हैं। अतः पांचो मेरु सम्बन्धी सर्व | बङ्गालकी खाड़ी इस उपसमुद्र के मुख्यविभाग कुण्ड ४५० (५xt=४५०) हैं॥ और लाल समुद्र, अदन की खाड़ी, पारसकी (त्रि० गा० ५८६, ७३१, ६२६)
खाड़ी, ओमान की खाड़ी, कच्छ की खाड़ी, १३. पृथ्वीकायिक अकृत्रिम वृक्ष१४०१२००
खम्बातकी खाड़ी, मनार की खाड़ी, मर्ताबान जम्बद्वीप में जम्बू वृक्ष १ और शाल्मली
की खाड़ी, इत्यादि अनेक इसके उपभाग हैं। वृक्ष १,धातकीडीप में धातकी दृक्ष २ और इस 'हिन्द महासागर' नामक उपसमुद्र शाल्मली वृक्ष ३, पुष्कराद्ध में पुष्कर वृक्ष में जो अन्तरद्वीप हैं और जिनके नाम, रूप, २ और शाल्मली वृक्ष २, एवम् सर्व आकार, और परिमाण आदि में समय के १० महावृक्ष हैं । इन १० महावृक्षों में से फेर से बहुत कुछ परिवर्तन भी होता रहता प्रत्येक के परिवार वृक्ष १४०११६ हैं, अतः है उनमें से कुछेक आजकल निम्न लिखित सर्व परिवार वृक्ष १४०११९० हैं जिन की नामो से प्रसिद्ध है:संख्या १०.मुख्य वृक्षों सहित१४०१२०० है (१) अफ्रीका देश के निकट उसके पूर्व में
(त्रि०गा०६३६-६५२,६३४, ५६२) मैडेगास्कर ( लगभग ६८० मील लम्बा १४. मुख्य अन्तरद्वीप ४५४२१६४- और ३०० मील चौड़ा) और इसके आस [१] अढाई द्वीप के सर्व १६० विदेह देशों पास नियन, मॉरीशस रोड्रीगीज़,सीचै
में से प्रत्येकके आर्यखंड में सीता सीतोदा लीज़, अमीरेंटीज़, प्रोविडेंस और कोमोरो नदियों के निकट एक २ उपसमुद्र है । तथा | आदि अनेक अन्तरद्वीप हैं। ५ भरत और ५ ऐरावत क्षेत्रों में से प्रत्येक | (२) अरब देश के दक्षिण ( अफ्रीका के के निकटमी महासमुद्रों के अंशरूप एकएक
पूर्व ) पैरिम, सॉकोटरा, फ्यूरियाम्यूउपसमुद्र है । अतः सर्व उपसमुद्र १७०हैं । |
रिया, आदि हैं।
'! (३) पारस देश की खाड़ी में पारस और | इनमें से प्रत्येक में ५६ साधारण अन्तर
___ अरब देशों के मध्य बहरेन और ऑरद्वीप, २६००० रत्नाकर द्वीप और कुक्षि
मज़ आदि हैं। वास ७००, एवम् सर्व २६७५६ हैं। अतः (४) भारतवर्ष के निकट उसके दक्षिण-पश्चिम १७० उपसमुद्रों में सर्व ४५४८५२० ( १७० | में लकाद्वीप, मालद्वीप आदि छोटे छोटे
४ २६७५६ = ४५४८५२०) अन्तरद्वीप हैं। सहस्रों टापुओं के समह हैं। .." नोट (क)-जिन अन्तरद्वीपों में चांदी, (५) भारतवर्ष के दक्षिण-पूर्व बङ्गाळ की सौना, मोती, मंगा, नीलम, पुखराज, हीरा,
खाड़ी में सीलोन ( लङ्का-२६७ मील पन्ना, लाल, आदि अनेक प्रकार के रत्न लम्बा, १४० मील चौड़ा ), अंडमान उत्पन्न होते हैं उन्हें 'रत्नाकर द्वीप, और जो (महा ईस्वी सन् १७८९ से भारत वर्ष किसी देश के तट के अति निकट हो उन्हें |
के तीब्र दंडित अपराधी भेजे जाते हैं और 'कुक्षिवास' कहते हैं।
जो काले पानी के नाम से भी प्रसिद्ध है), __ नोट (ख)-जम्बद्वीप के भरत क्षेत्र के नि- निकोबार, रामरी, चडूबा, मरगुई आदि कट उसकी दक्षिण दिशा में जो उपसमुद्र(लव- कई टापुओं के समूह हैं। :
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( २५६ ) अढ़ाईद्वीप वृहत् जैनशादार्णव
अढ़ाई द्वीप पाठ (६) ब्रह्मादेश के दक्षिण मलाया प्रायःद्वीप। १६, गौतम नामक १, दो भरत और दो
के निकट समात्तरा ( लगभग १००० ऐरावत क्षेत्रों के निकट मागधादि नाम के मील लम्बा, २५० मील चौड़ा), जावा, १२, अभ्यन्तर तट पर२४और वाह्य तटपर बोरनियो, सेलीबीज़, न्यूगिनी और इनके २४, एवम् सर्वः५(+१६+१+१२+२४ दक्षिण में आस्ट्रेलिया ( लगभग २३६० +२४ ==५ ) अन्तरद्वीप हैं। मीललम्बा और १०५० मीलचौड़ा भारत
इस प्रकार १७० आर्य देशों, और सीता, बर्षसेबड़ा) आदि बड़े और उनके आस सातोदा लवण समुद्र और कालोदकसमुद्र पास बहुत से छोटे छोटे अन्तरद्वीप हैं। के सर्व अन्तरद्वीपों की संख्या ४५४९१६४
नोट (ग)-उपरोक्त अन्तरद्वीपों में सी- (४५४८५२०+४८०+७+५:४५४६१ लोन, बोरलियो, आस्ट्रेलिया आदि कई बड़े ६४ ) है। बड़े और लकाद्वीप मोलद्वीप आदि सहस्रों
(त्रि.६७७,६७८,808-8१३.९३१) छोटे २ रत्नाकर द्वीप है । और पौरम, क्यू- १५. अक्रश्रिम जिनालय ३६८-मेरु ५, रियायरिया, कच्छ, बम्बई, सालसट, |
कुलाचळ ३०, वक्षारगिरि ८०,गजदन्त२०, रामेश्वरम, जाना, श्रीहरिकोटा, सागर, इप्वाकार ४, मानुषोत्तर १, जम्बूधातकीरामरी, चडबा, मरगुईआदि अनेक कुक्षिवास
पुष्करवृक्ष५,शाल्मलीवृक्ष ५,और विजयार्द्ध हैं। शेष साधारण अन्तरद्वीप हैं।
पर्वत १७०,इनमें अकृत्रिम चैत्यालय क्रम [२] अढ़ाईद्वीप सम्बन्धी १६० विदेह देशों से ८०, ३०, ८०, २०, ४,४,५,५,१७०, एवम् के १६० आर्यखंडों में से प्रत्येक के निकट
सर्व ३६८ हैं । (पीछे देखो शब्द "अकृत्रिम सीता और सीतोदा नामक महानदियों
चैत्यालय", पृ० २२)। में मागध, वरतनु और 'प्रभास'नामक तीन
(त्रि० गा० ५६३) तीन अन्तरद्वीप, एवम् सर्व ४८० अन्तरद्वीप है।
अढ़ाईद्वीप पाठ ( अढ़ाईद्वीप पूजनः । [३] लवण समुद्र में अभ्यन्तर तट से सार्द्धद्वयद्वीप पूजन )--अढाई द्वीप सम्ब
४२०००योजन दूर चार विदिशाओं में 'सूर्य' न्धी ३६८ अकृत्रिम जिन चैत्यालयों और नामक द्वीप ८,आठ अन्तर दिशाओमें "च
उनमें विराजमान जिन प्रतिमाओं का, न्द्र" नामकद्वीप११, उसके अभ्यन्तर तट से
१६० विदेह देशों में नित्य विद्यमान २० १२००० योजन दूर वायव्य दिशाम गौतम' तीङ्करों का, तथा पांच भरत और पांच नामक द्वीप १, भरत क्षेत्र के दक्षिण और ऐरावत इन १० क्षेत्रों में से प्रत्येक की ऐरावत क्षेत्रके उत्तर को समुद्र के अभ्यन्तर भूत भविष्यत वर्तमान तीन तीन चौबीसी तट से कुछ योजन दूर मागध,वरतनु और अर्थात् सर्व ३० चौबीसी (७२० तीर्थङ्करो. प्रभास नामक तीनतीन द्वीप और अभ्यन्तर का, इत्यादि का पूजन विधान है। तटपर ४ दिशा,४ विदिशा,८ अन्तर दिशा नोट १-इस नाम के प्राकृत, संस्कृत में तथा हिमवन, शिखरो, भरत सम्बन्धी | और हिन्दी भाषा में कई एक पाठ हैं जिनमें घेतान्य,और ऐरावत सम्बन्धी वैताट्य,इन से कुछ के रचयिता निम्न लिखित महाचारों पर्वतों के दोनों छोरों पर सर्व २४, | नुभाव हैं:-- और वाह्य तट परभी इसी प्रकार२४,एवम् १. श्री जिनदास ब्रह्मचारी--इनका सर्व७६(८+१+१+३+३+२४+२४=
| समय विक्रम की १५ वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध। ७६ ) अन्तरद्वीप हैं।
और १६ वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है ( संवत् [४] लवण समुद्र की समान कालोदक १५१० )। इनके रचित अन्य ग्रन्थ निम्न ।
समुद्र में 'सूर्य' नामक द्वीप८, चन्द्र' नामक | लिखित हैं:
.
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( २६० ) अढ़ाईद्वीप पाठ वृहत् जैन शब्दार्णव
अढाई द्वीप पाठ (१) हरिवंश पुराण ( २ ) पद्म ३. श्री सुरेन्द्रभूषण-इन का समय पुराण ( ३ ) जम्बूस्वामी चरित्र, (४ ) विक्रमकी १६वीं शताब्दी है ( स० १८८२)। हनुचरित्र (५) होली चरित्र ( ६ ) रात्रि | इनके बनाये अन्य ग्रन्थ निम्नलिखित हैं:भोजन कथा, (७) जम्बद्वीप, पूजन, (८) मुनिसुव्रत पुराण,श्रेयांशनाथ पुराण अनन्तव्रत पूजा (8) चविंशत्युद्यापन | श्रेयस्करणोद्यापन, सुख सम्पति व्रतोद्या (१०) मेध मालोद्यापन ( ११) चतुर्विंश पन, चतुर्दशोद्यापन, भक्तामरोद्यापन, कदुत्तरद्वादशशतोद्यापन (१२) अनन्त व्रतो ल्याण मन्दिरोद्यापन, रोहिणी कथा, सार द्यापन (१३) वृहत्सिद्ध चक पूजा (१४) | संग्रह, चर्चा शतक, पंचकल्याणक पूजा धर्मपंचासिका।
(दि. ० ३७०) (दि० प्र०९७) ४. माधव राजपुर निवासी पं० डालू२, त्रिविधविद्याधर षट भाषाकविचक्र- राम अग्रवाल--इनका समय विक्रम की वर्ती श्रीशुभचन्द्र--इनका समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है। इनके बनाये अन्य ग्रन्थ १७ वीं शताब्दी है (सं०१६८०)। इनके रचे निम्न लिखित हैं:अन्य ग्रन्थ निम्न लिखित हैं:--
गुरूपदेश श्रावकाचार छन्दोबद्ध १ सुभाषितरत्नावली, २ जीवन्धरचरित्र,
(सं० १८६७ में ), श्रीमत्सम्यकप्रकाश छन्दोईपांडयपुराण,४ प्रद्युम्नचरित्र, ५ करकंडुचरित्र
वद्ध (सं० १८७१ में ), पंचपरमेष्ठी पूजा, ६ जिनयशकल्प, ७ श्रेणिकचरित्र, - सुभाषि.
अष्टान्हिका पूजा, शिखरविलास पूजा, पंचतोर्णन, सम्यक्त्वकौमुदी, १० श्रीपालचरित्र कल्याणक पूजा, इन्द्रध्वज पूजा, द्वादशांग ११पद्मनाभपुराण, १२ अंगप्रज्ञप्ति, १३ त्रैलोक्य पूजा, प
| पूजा, पंचमेरु पूजा, रत्नत्रय पूजा, दशप्राप्ति,१४चिन्तामणिलघुव्याकरण,१५अपशब्द
लक्षण पूजा, तीनचौबीसी पूजा ॥ खंडन,१६तर्कशास्त्र,१७स्तोत्रपञ्चक,१८सहस्त्र
(दि० प्र०४८, पृ०४४) नामस्तोत्र, १९षटपदस्तोत्र,२०नन्दीश्वरकथा,३१
५. पं० जवाहिरलाल-इनका समय
भी धिक्रम की १६वीं शताब्दी है । इन्होंने षोडशकारणोद्यापन,२२चतुर्विंशतिजिनपूजा,२३ यह पाठ लगभग ९५०० श्लोक प्रमाण सर्वतोभद्रपूजा,२४चारित्रशद्धितपोद्यापन,२५ - हिन्दी भाषा में लिख कर शुभ मिती ज्येष्ट तेरहद्वीपपूजा,२६पंचपरमेष्टीपूजा, २७चतुस्त्रिंश गु० १३ शक्रवार, विक्रम सं० १८८७ में | दधिकद्वादशशत्नतोद्यापन(१२३४व्रतोद्यापन), पूर्ण किया था। इनके रचे अन्य ग्रन्थ नि२८पत्यव्रतोद्यापन,२१कर्सदहन पूजा, ३० सिद्ध |
| स्नोक्त हैं:
सिद्धक्षेत्र पूजा,सम्मेदशिखर माहात्म्य चक्रवहत्पूजा, ३१समयसारपूजा, ३२ गणधर
| पूजा विधान सहित, त्रैलोक्यसार पूजा, वलयपूजा, ३३ चिन्तामणियंत्रपूला, ३४विमान तीनचौबीसी पूजा, त्रिकाल चौबीसी पाठ । शुद्धिशान्तिक,३५ अम्बिका कल्प, ३६ स्वरूप या तीसचौबीसीपाठ (वि० सं० १८७८ में ) | संबोधन की टीका,,३७अध्यात्मपद की टीका,
नोट २. इनमें से पहिलेतीन महानुभावों ३८ स्वाभिकार्तिकेयानुप्रक्षा की टीका, ३६अष्ट
के रचित पाठ संस्कृत भाषा में हैं और अंतिम
दो के हिन्दी भाषा में हैं। पाहड़की टोका,४०तत्वार्थरीका,११पार्श्वनाथ
___नोट ३.-अढ़ाईद्वीप सम्बन्धी ३६८ अ. काश्य की पंजिका टीका, ४२ आशाधरकृत | कृत्रिम जिनालयों का विवरण जानने के लिये पूजाकी टीका, ४३प मनन्दिपंचविंशति का की पीछे देखो शब्द "अकृत्रिम चैत्यालय' नोटों टीका, ४३ सारस्पन-यंत्र पूजा॥
सहित पृ० २२ और शब्द"अढ़ाईद्वीप"के नोट (६ि० प्र० ३३४) । २ का नं० १५ पृ० २५९ ॥
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( २६१ ) अढ़ाईद्वीप पाठ वृहत् जैन शब्दाणव
__ अढ़ाईद्वीप पाठ नोट ४-१६० विदेह देशों और उनमें नित्य विद्यमान ३० तीर्थंकरों और भरत, ऐरावत क्षेत्रों की ३० चौबीलो आदिका विवरण जानने के लिए नीचे कोष्ठ १, २, ३ नोटों सहित देखें:
कोष्ठ १ ।
जम्बूद्वीप के सुदर्शनमेरु सम्बन्धी विदेह देश ३२।
क्रम संख्या
विदेह देश
राजधानी
विवरण
कच्छा
सुकच्छा
महाकच्छा
कच्छकावती आवर्सा लाङ्गलावर्त्ता (मङ्गलावती) पुष्कला पुष्कलावती
क्षेमा
यह ८देश सुदर्शनमेरु कीपूर्व दिशा में सीताक्षेमपुरी | नदी के उत्तर तट पर मेरु के निकट के भद्रशालवन अरिया की बेदी से लवण समुद्र के निकट के देवारण्यबन
की वेदी तक क्रम से पश्चिम से पूर्व को हैं ॥ | अरिष्टपुरी
इन कच्छा आदि देशोंका परस्पर विमाग करने खड्गा बाले चित्रकूट, पनकूट, नलिन, एक शैल, यह मंजूषा
चार वक्षारगिरि और गांधबती, द्रहवती, पकवती, यह तीन विभंगा नदी हैं जो क्रम से एक गिरि, एक नदी, एक गिरि, एक नदी, एक गिरि, एक नदी,
एक गिरि, इन देशों के बीच बीच पड़ कर इनकी पुंडरीकिणी
| सीमा बनाते हैं ।
औषधी
घत्सा
सुसीमा ___ यह आठ देश सुदर्शनमेरु की पूर्व दिशा
| में सीतानदी के दक्षिण तट पर लवण समुद्र सवत्सा कुण्डला
के निकट के देवारण्यबन की वेदी से मेरु के महावत्सा अपराजिता
निकट के भद्रशालबन की वेदी तक क्रम से । वत्सकावती अभंकरा
| पूर्व से पश्चिम को हैं॥
इन वत्सा, आदि देशों के बीच बीच में .. रम्या
अङ्का
| त्रिकूट, चैश्रवण, अंजनात्मा, अंजन, यह चार सुरम्यका पद्मावती वक्षार पर्वत, और तप्तजळा, मत्तजला, उन्मत्त रमणीया
जला, यह तीन विभंगा नदी क्रम से पर्वत, शुभा
नदी, पर्वत, नदी, इत्यादि पड़ कर इन देशों १६. मङ्गलावती रत्नसंचया | की पारस्परिक सीमा बनाते हैं ।
यह कच्छा आदि १६ 'विदेहदेश' मेरुकी पूर्व दिशामें होनेसे 'पूर्व विदेहदेश'कहलाते हैं।
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अढाईद्वीप पाठ
क्रमसं०,
विदेह देश
१७. पद्मा
१८. सुपद्मा
१६. महापद्मा
२०. पद्मावती
२१. शंखा
२२. नलिनी
२३. कुमुदा
२४. सरिता
( नलिनावती)
वप्रा
२५.
२६. सुचप्रा
२७. महावप्रा
२८. वप्रकावती
( प्रभावती)
गन्धा (वल्गु )
२६.
३०. सुगन्धा
(सुबलगु)
३१. गन्धिला
३२. धमालिनी (गन्धलावती)
( २६२ ).
वृहत् जैन शब्दार्णव
राजधानी
अश्वपुरी
सिंहपुरी
महापुरी
विजयपुरी
अरजा
विरजा
अशोका
बीतशोका
विजया
वैजयन्ती
जयन्ता
अपराजिता
चक्रपुरी
खड्गपुरी
अयोध्या
अवध्यो
विवरण
अढाईद्वीप पाठ
यह आठ देश सुदर्शनमेरु की पश्चिम दिशा में सीतोदानदी की दक्षिण और मेरु के निकट के भद्रशाल बन की वेदी से लवणसमुद्र के निकट के देवारण्यवन की वेदी तक क्रम से पूर्व से पश्चिम को हैं ॥
इन पद्मा आदि देशोंकी पारस्परिक सीमा बनाने वाले श्रद्धावान, विजटावान, आशीविष, सुखावद, यह ४ वक्षारगिरि और क्षीरोदा, सीतोदा, श्रोतोबाहिनी यह तीन विभंगा नदी हैं जो गिरि, नदी, गिरि, नदी इस क्रम से बीच बीच में पड़ते हैं ॥
यह आठ देश सुदर्शनमेरु की पश्चिम दिशा में सीतोदानदी की उत्तर और लवण समुद्र के निकट के देवारण्यबन की वेदी से मेरु के निकट के भद्रशालबन की वेदी तक क्रम से पश्चिम से पूर्व को हैं ।
इन वप्रा आदि देशों का पारस्परिक वि भाग करने वाले चन्द्रमाल, सूर्यमाल, नागमाल, देवमाल, यह ४ वक्षारपर्वत और गम्भीरमालिनी, फेनमालिनी, ऊर्मिमालिनी, यह ३ विभंगानदी इनके बीच सीमा पर एक गिरि, एक नदी, एक गिरि, एक नदी, इस क्रम से बीच बीच में पड़ते हैं ।
यह पद्मा आदि १६ विदेह देश मेरुकी पश्चिम दिशामें होनेसे "पश्चिम विदेहदेश” कहलाते हैं ॥
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अढ़ाईद्वीप पाठ वृहत् जैन शब्दार्णव
अढ़ाईद्वीप पाठ नोट ५-यह ३२ विदेहदेश "जम्बूद्वीप" | विदेह देशों में चन्द्रबाहु, मुजङ्गप्रभ, ईश्वर, के मध्य सुदर्शनमेरु सम्बन्धी हैं । इसी प्रकार नेमीश्वर, इन नामों के ४ तीर्थंकर और "धातकी द्वीप'' के विजय और अचल दोनों पांचवें विद्युन्मालीमेर सम्बन्धी ३२ विदेह मेरु और पुष्कराद्धद्वीप के मन्दर और विद्यु- देशों में वीरसेन, महाभद्र, देवयश, अजितन्माली दोनों मेरु, इन चारों में से प्रत्येक वीर्य, इन नामों के ४ तीर्थकर सदैव विद्यमेरु सम्बन्धी भी ३२, ३२ विदेह देश इन्हीं मान रहते हैं। और प्रत्येक देश में अलग २ नार्मों के हैं जिनकी राजधानियों के नाम एक एक तीर्थकर हो सकने से प्रत्येक मेरु
और उनका पारस्परिक विभाग आदि सब सम्बन्धी ३२, ३२ देशों में ३२, ३२ तीर्थकर रचना उपरोक्त कोष्ठ में दी हुई रचना की भी एक ही समय में होने की सम्भावना है। समान ही है। अतः पांचों मेरु सम्बन्धी सर्व | अर्थात् पांचों मेरु सम्बन्धी १६० विदेह देशों विदेहदेश ५ गुणित ३२ = १६० हैं ॥. में कम से कम तो उपरोक्त नाम के
सुदर्शनमेरु सम्बन्धी इन ३२ देशों में से २० तीर्थंकर और अधिक से अधिक इन "कच्छा" आदि ८ देशों में से किसी एक में २० और अन्यान्य नाम वाले १४० एवं सर्व "सीमन्धर" नाम के, 'वत्सा' आदि = देशों १६० तीर्थकर तक त्रिकाल में कभी न कभी में से किसी एक में “युगमन्धर" नाम के, युगपत् हो सकते हैं । पद्मा आदि आठ देशों में से किसी एक में उपर्युक्त १६० विदेह देशों में जिस प्र. "बाहु" नाम के और वप्रा आदि = देशों में कार कम से कम और अधिक से अधिक से किसी एक में “सुबाहु" नाम के कोई न १६० तीर्थकर युगपत कभी न कभी हो कोई पुण्याधिकारी महान पुरुष तीर्थंकर प. सकते हैं उसी प्रकार चक्रवर्ती या अर्द्ध दवी धारक सदैव विद्यमान रहते हैं । प्रत्येक चक्री (नारायण, प्रतिनारायण ) भी युगदेश में अलग अलग एक एक तीर्थकर हो पत कम से कम २० रहते हैं और अधिक से सकने से सर्व ३२ देशों में ३२ तीर्थकर भी अधिक १६० तक हो सकते हैं । एक ही समय में कभी हो सकते हैं । अर्थात् यदि अढ़ाईद्वीप के पांचों मेरु सम्बन्धी इन ३२ देशों में कम से कम उप-५ भरत और ५ ऐरावत के तीर्थकरादि भी रोक्त चार तीर्थकर और अधिक से अधिक गणना में लिये जायें तो अढ़ाईद्वीप भर में अ. उपरोक्त नामों के चार और अन्यान्य नामों के धिकसे अधिक तार्थंकर, और चक्री या अद्ध२८, एवं सर्व ३२ तीर्थंकर तक सुगपत् होने | चक्री में से प्रत्येक की उत्कृष्ट संख्या युगपत की सम्भावना है।
१७० तक हो सकती है। परन्तु जघन्य संख्या इसी प्रकार विजयमेरु सम्बन्धी ३२ वि- प्रत्येक की उपर्युक्त २० ही है क्योंकि भरत देह देशों में संयातक, स्वयम्प्रभ, ऋषभानन, | और ऐरावत क्षेत्रों में काल पलटते रहने से अनन्तवीर्य्य, इन नामों के चार तीर्थकर, तीर्थंकरादि एक एक भी सदैव विद्यमान अचलमेरु सम्बन्धी ३२ विदेह देशों में सूरः
| नहीं रहते ॥ प्रभ, विशालकीर्ति, वजूधर, चन्द्रानन, इन |
| (त्रि०६६५-६६६.६८१,६८७-६९०,७१२-७१५) नामों के ४ तीर्थकर, मन्दरमेरु सम्बन्धी ३२
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अढाईद्वीप पाठ
क्रमसं०
२.
३.
४.
( २६४. )
बृहत् जैन शब्दार्णव
कोष्ठ नं० २ ।
अढ़ाई द्वीप के पांचों मेरु सम्बन्धी ५ विदेह क्षेत्रों के १६० विदेह देशों में विद्यमान २० तीर्थंकर 1
७.
८.
नामतीर्थकर लक्षणया चिन्ह
सुबाहु
५. संयातक
६.
स्वयंप्रभ
सीमन्धर वृष
युग मन्धर
बाहु
•
गज
ऋषभानन हरि
अनन्तवीर्य
१५ बज्रघर
१२. चन्द्रानन
१३. चन्द्रबाहु
मृग
कपि
रवि
शशि
ह.
सूरप्रभ
सू
१०. विशाल कीर्ति चन्द्र
शंख
गज
वृषभ
पद्म
चन्द्र
रवि
कमल
39
सुदर्शनमेरु सीतानदी के उत्तर सत्या
दक्षिण सुतारा
सीतोदानदी के दक्षिण विजया
"
99
"
59
"
"
सुसीमा
उत्तर सुनन्दा निशिढिल | अयोध्या
विजयमेरु सीता नदी के उत्तर देवसेना देवसेन अलकापुरी
" सीतानदी के दक्षिण सुमङ्गला मित्रभूत विजयानगर
सीतोदा के दक्षिण धीरसेना कीर्त्तिराज सुसीमा
अयोध्या
मेघराय नागराज विजयपुरी
भद्रा दक्षिण विजया | विजयपति पुंडरीकपुर
सीतोदा के दक्षिण सरस्वती पद्मार्थ सुसीमा
उत्तरपद्मावती वाल्मीकि पुंडरीकिनी
मंदर मेरु सीतानदी के उत्तर रेणुका देवनन्दि विनीता
(अयोध्या)
विजयानगर
सुसीमा
अयोध्या
39
99
अचलमेरु सीता नदी के उत्तर
स्थान
ور
""
39
7
१४. भुजङ्गप्रभ
१५. ईश्वर
१६. नेमीश्वर
वृष
१७. वीरसेन ऐरावत विद्युन्मालीमेरु सीताके उत्तर
१८. महान
शशि
१६. देवयश
स्वस्तिक
२०. अजितवीर्य
"
"
• de•
"
99
دو
, सीतोदानदी के दक्षिण ज्वाला
"
99
"
75
"
"
उत्तर मङ्गला
माता
सूर्या
दक्षिण उमादे
सीतोदानदी के दक्षिण गङ्गा
उत्तर कनका
"
""
दक्षिण महिमा महाबल
गलसेन
उत्तर सेना वीरषेण
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अढाईद्वीप पाठ
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पिता
श्रेयांस
दृढ़राज
सुग्रीव
जन्म नगरी
पुंडरीकपुर
विजयवती
पृथ्वीपाल पुंडरीकिनी
देवराज विजयनगर
अवभूत सुसीमा
सुबोध
अयोध्या
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कोष्ठ ३
( २६५ ) अढ़ाई द्वीप के पांचौ मेरु सम्बंधी ५ भरत और ५ ऐरावत क्षेत्रों की त्रैकालिक ३०चौबीस। जम्बद्वीप भरत क्षेत्र (सुदर्शन मेरुके दक्षिण) _ ऐरावत क्षेत्र (सुदर्शन मेरु के उत्तर )
अतीत वर्तमान | अनागत । अतीत घेतमान | अनागत | २४ तीर्थकर | २४ तीर्थकर | २४ तीर्थकर ३४ तीर्थकर २४ तीर्थकर | २४ तीर्थकार । २ श्री निर्वाण श्रीऋषभदेव श्री महापद्म | श्री पंचरूप श्री वालचन्द्र श्री सिद्धार्थ
(आदिनाथ) २, सागर , अंजितनाथ ,, सूरदेच ,, जिनधर |, सुव्रत ,, विमल
| (जिनदेव) ३ ,महासाधुदेव , संभवनाथ ,, सुप्रभ ...,, सांप्रतीक | ,, अग्निसेन , जयघोष
(सुपाच) (संपुटिक) ४, विमल प्रभ , अभिनन्दन ,, स्वयंप्रभ, उर्जयन्त , नन्दसेन , आनन्दसेन
.( उर्द्धत)
(नंन्दिसेन) |, श्रीधर , सुमतिनाथ , सर्वायुध , अधिक्षायक , श्रीदत्त , स्वर्गमंगल (श्रीशुद्धाभ)
(सर्वात्मभूत) , दत्तनाथ , पद्मप्रभु ,, जगदेव । ,, अभिनन्दन , व्रतधर , অসুখ (सुदत्त)
देवपुत्र) ,, अमलप्रभ सुपाव , उदय देव , रत्नेश |सोमचन्द्र , निर्वाण
(कुल पुत्र) ,, उद्धरनाथ ,चन्द्रप्रमु
|, रामेश्वर |, धृतदीर्घ , धर्मध्वज (प्रभादेव)
(दीर्घसेन) ६, अग्निनाथ |, पुष्पदन्त , प्रश्नकोति, अंगुष्ठिक . शतपुष्पक , सिद्धसेन (सुविधिनाथ) (प्रौष्टिल)
शतायुधअजित २० , सन्मति
, शीतलनाथ , जयकीर्ति , विन्यास ,, शिव शत,महासेन
(उदयकीर्ति २१ ,, संगमसिंधु ,श्रेयांशनाथ ,, मुनिसुव्रत, आरोष , श्रेयांश |, रविमित्र १२, कुसमांजलि, वासुपूज्य , अरनाथ | ,, सुविधान |, श्र ति जल |,, सत्यसेन | (पप्पांर्जाल)
(अमम)
| (स्वयंजल) १३,शिवगणाधिप, विमलनाथ ,, निःपाप ,विप्रदत्त सिंहसेन 1, चन्द्रनाथ (पूर्णबुद्ध) (प्रदत्त)
(श्रीचन्द्र ) २४, उत्साह प्रभ , अनन्तनाथ ., निः कषाय ,, कुमार | , उपशान्त ,,महीचन्द्र
| (महेन्द्र) १५ , ज्ञानेश्वर, धर्मनाथ | ,, विपुल , सर्व शैल
" सब शल "गुप्तासन
"श्र तांजन (ज्ञाननेत्र) विमलप्रभ)
| (स्वयंज्वल) , परमेश्वर | , शान्तिनाथ,निर्मळ (बहुल) , प्रभजन
, अनन्तवीर्य श्री देवसेन
(महावार्य) ,, विमलेश्वर , कुन्थु नाथ , चित्रगुप्त , सौभाग्य , पार्श्वनाथ श्री सुव्रत , यशोधर
| " अरनाथ , समाधिगुप्त ,, दिवाकर | ,, अभिधान श्री जिनेन्द्र (यथार्थ) कृष्णचन्द्र |, मल्लिनाथ | ,, स्वयंभुव , व्रतविन्दु , मरुदेव श्री. सुपार्श्व
(ध्वनिविन्दु) ज्ञानमति ,, मुनिसुव्रत ,, कन्दर्प
|, श्रीधर श्री सुकोशल .(अनिवृत) | ,, ममिनाथ
|, जयनाथ | , ज्ञानशरीर , श्याम कंठ श्री अनन्त ,, मेमनाथ
,, विमलदेव , कल्पद्रुम | ", अग्निप्रभ श्री विमलप्रभ अतिक्रान्त , पार्श्वनाथ | ., देवपाल |, तीर्थ नाथ, अग्नि दत्त श्री अमृतसेन
(दिव्यवाद) , शान्तिनाथ, महावीर ,, अनन्तवीर्य , वीरमप्रभ , वीर सेन श्री अग्निदत्त (वर्द्धमान)
(फलेश)
शुद्धमति
श्रीभदा
Jain Education international
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________________
M
._ms. I सख्या
(वरसेन)
।
( २६६ )
धातकी खण्ड द्वीप (पूर्व भाग)। | पूर्व भरतक्षेत्र (विजय मेरु के दक्षिण) । पूर्व पेरावत क्षेत्र (विजय भेरु के उत्तर)। अतीतचौबीसी वर्तमान २४ सी अनागत ४सी अतीत २४सा वर्तमान२४सी अनागत२४सी श्री रत्न प्रभ श्री युगादिदेव श्री सिद्धनाथ श्रीवजूस्वामिन् श्रीअपश्चिम | श्री धीरनाथ ,, अमितनाथ , सिद्धांत | सम्यकनाथ ,, उदयदत्त , पुप्पदत्त श्रीविजयप्रभ ३" सम्भवनाथ ,, महेशनाथ , जिनेन्द्रदेव | सूर्यदेव |., अरिहन्त श्रीसत्यप्रभ ४" अकलङ्क ,, परमार्थ | , सम्प्रतिनाथ ,, पुरुषोत्तम | , सुच्चारित्र श्रीमहामृगेन्द्र ५,,चन्द्रस्वामिन् ,, समुद्धर् . ,, सर्वस्वामिन् शरणस्वामिन् ,, सिद्धानन्द श्रीचिन्तामणि ६ :, शुभङ्कर , भूधरनाथ | , मुनिनाथ 1,, अविरोधन |,, नन्दक | খ্রীসহ ७ ., तत्वनाथ ,, उद्यात , वशिष्ठदेव ,, विक्रम ;, पनाकर
श्रीद्विमृगेन्द्र
(पअकूप) ८),सुन्दरस्वामिन् ,, आजवअद्वितीयदेव ,, निर्घटक |,, उदयनाभि श्रीउपचासिक
(अग्रनाथ) ६. पुरन्दर , अभय नाथ ,, ब्रह्म शांति ,, हरीन्द्र ,, रुक्मेन्दु श्रीपदाचन्द्र १०, स्वामिदेव | ,, अप्रकम्प |, पूर्वनाथ प्रतिरित | ,, कृपाल
श्रीबोधकेन्दु
(परिप्रेरित ११, देवदत्त , पद्मनाथ | अकामुकदेव ,, निर्वाणपूर ,, प्रोष्टिल श्रीचिन्ताहिम ११२, वासवदत्त , पद्मनन्दि |, ध्याननाथ ,, धर्मधुरन्धर ,, सिद्धेश्वर श्रीउत्साहिक १२३, श्रेयनाथ ,,प्रयंकर |, कल्पजिन |,, चतुर्मुख ,, अमृतेन्दु |श्रीउपासिक (श्रेयांश)
: (अपासिक) १२४, विश्वरूप , सुकृतनाथ ,, संवर देव |, कृतेन्द्र , स्वामिनाथ श्रीजलदेव १५, तपोज, सुभद्रनाथ ,,स्वच्छनाथ
, श्रुताम्बुधि , भुवनलिंग श्रीमारिकदेव १६), प्रतिबोधदेव ,, मुनिचन्द्र , आनन्दनाथ, विमलादित्य ., सर्वार्थ श्रीअमोघ (मणिचन्द्र)
(अनिन्ध) ११७ ,, सिद्धार्थदेव ,, पंचमुष्टि , रविप्रभ
., देव प्रभ |, मेघनन्द श्रीनागेन्द्र १८ , अमलप्रभ,, त्रिमुष्टि ., चन्द्रप्रभ
|, धरणेन्द्र | ., नन्दकेश
श्रीनीलोत्पल (प्रभंजन) २९, अमलसंयम, गांगयिक, नन्दसुन्दर ,, तीर्थनाथ
., अधिष्णत्रिक श्रीअप्रकम्प नाथ २०, देवेन्द्र |, 'गण नाथ | ,, सुकर्णदेव उदयानन्द | ,, हरिनाथ श्री पुरोहित २१ ,, प्रवरनाथ |,, सर्वाङ्ग देव ,, सुकर्मणदेव ,, सर्वार्थदेव |, शान्तिकदेव श्रीभिन्दकनाथ
(उपेन्द्र) २२,, विश्वसेन |, ब्रह्मन्द्रनाथ ,, अममदेव |, धार्मिक |, आनन्द श्रीपार्श्वनाथ
स्वामिम् २३ ,, मेघनन्दि , इन्द्रदत्त | पार्श्वनाथ , क्षेत्रनाथ | ., कुन्दपार्श्व | श्रीनिर्वाच्यक २, त्रिनेत्रिक , दयानाथ
, विरोचन | श्रीविरोषनाथ 1 । सर्वज्ञ . ।”(जिनपति) |" शास्वतनाथ " हरिचन्द्र
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(स्वयबुद्ध ।
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( २६७ )
धातकीखंड द्वीप (पश्चिम भाग) F पश्चिम भरत क्षेत्र ( अचल मेरु के दक्षिण ) पश्चिम ऐरावत क्षेत्र (अचल मेरु के उत्तर) अतीतचीबीसी वर्तमानचौ० । अनागतचौ० अतीत चौ० | वर्तमान चौ०। अनामत्स चौ० श्री वृषभ देव श्री विश्वचन्द्र श्री रक्त केश श्री सुमेरु श्री उषाधिक श्री रवीन्द्र श्री प्रिय मित्र श्री कपिलदेव श्री चक्र हस्त, जिनकृत " जिन स्वामि " सुकुमालिका श्रीशान्तिनाथ श्री ऋषभदेव श्री कृत नाथ | कैटभ नाध, स्तमितेन्द्र " पृथ्वी पान
रुषिकेश,अरुषि
प्रश्रित वन्त ४ श्रीसुमतिनाथ श्री प्रिय तेज श्री जिनचन्द्र | " प्रशस्त ,अत्यानन्दधाम " कुलरत्न
(परमेश्वर) श्रीअतीतजिन श्री प्रशम श्री सुमूर्तदेव ,निदर्प (निर्मद)"पुष्पकोत्फल्लक " धर्मनाथ | | ( आदिजिन) (विषमाँग) | , अन्यक्तजिन श्री चारित्रनाथ श्री मुक्तकांत " कुलकर " मुंडिक ' सोमजिन
(अपिसोम)। श्रीकमल सेन ,,प्रशमस्वामिन् श्री निकेश" वर्द्धमान प्रहित देव " वरुणेन्द्र |, सर्व जिन | श्री प्रभादित्य श्री प्रशान्लिक " अमृतेन्दुः " मदन सिंह " अभिनन्दन ,, प्रबोधजिन श्री पुंजकेश श्री निराहार , संख्यानन्द ” हस्तेन्द्र " सर्वनाथ
, निवृत्त देव श्री पीतवास श्री अमूर्त " कल्पकृत, चन्द्र पाश्र्ध सुदृष्ट ११ ,, सौधर्म श्री सुराधिप श्री द्विजनाथ " हरिनाद | ""अब्ज बोध "शिष्ठ जिन १२ ,, अर्द्धदीप्त श्री दया नाथ ,, श्रेयनाथ "बहुस्वामिन्" जिन बल्लभ " धन्य जिन तमोदीप्त) (स्वेतांगद)
(जिनाष्टि) (सुपर्ण) २३ ,, जास श्रीसहस्ररश्मि 1, अरुज नाथ " भार्गव , विभूति सोमचन्द्र १४, प्रबुद्धनाथ श्री जिन सिंह , , देवनाथ: |, सुभद्र देव ,, कुकुप्श. . " क्षेत्राधीश
(कुसूर ) । १५/ ,, प्रबन्धदेव श्री रेवतिनाथ ., दयाधिक , पविपति |" स्वर्ण शरीर "सदंतिकनाथ १६), अतीत श्री वाहु जिन ,, पुष्पनाथ " विपेषित , हरिवास " जयन्त देव | (अमितनाथ)
(कृमय) १७ सुमुख देव श्री श्रीमाल | , नरमाथ ,, ब्रह्मचारित्र " प्रियमित्र " तमोरिपु. ३१८,, पल्योपम श्री अयोगदेव , प्रतिभूत " असंश्यक " सुधर्मदेव " निर्मल देष १६ ,, अकोप देव श्रीअयोगनाथ ,, नागेन्द्र • चारित्रसेन , प्रियरत्न " कृतपार्थ २० ,, निष्ठित , कामरिषु | " तपोधिक , परिणामिक " नन्दिनाथ
"वोधलाम
- (बहुप्राव) २१ ,, मृग नाभि श्रीअरण्यवाहु , दशानन , शाश्वतनाथ " अश्वानीक " बाहुनन्द
(कम्बोज) २२ ,, देवेन्द्र श्री नेमिनाथ , आरण्यक , निधिनाय " पूर्व नाथ " कुष्टिजिन २३ ,, पदस्थित गर्भ नाथ, दशानीक, कौशिक " पार्श्वनाथ ” ककुनाभ
(विकंक २४ , शिवनाथ | इकार्जित सात्विक |, धर्मेश चित्र हृदय " वक्षेश
| (मौप्टिक)
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क्रमस०
.
पुष्करार्द्धद्वीप (पूर्व भाग) पूर्व भरत क्षेत्र ( मन्दरमेरु के दक्षिण ) | पूर्व-ऐरावत क्षेत्र ( मन्दर मेरु के उत्तर) अतीत२४सी० वर्तमान२४सी अनागत२४सी अतीत२४सी वर्तमान२४सी अनागत२४मा १ श्रीमदनेन्द्र श्रीजगन्नाथ धावत
| श्रीजगन्नाथ | श्रीवसन्तध्वज श्रीकृतनाथ श्रीशङ्कर. श्रीयशोधर (दमनन्द)
(निशामित) २ श्रीमूतेन्द्र श्रीप्रभास ,, विजयन्त उपविष्ट अक्षपात सुकृत
(त्रिमातुल) श्री निराग श्रीसूरस्वामिन् , त्रिस्कन्ध आदित्तदेव नग्नादि अभय घोष
(त्रिस्थंभ) श्री प्रलंवित श्रीभरतेश "परमब्रह्म अस्थानिक नग्नाधिप निर्वाण
(अघटित) (अष्टान्हिक) ५धीपृथ्वीपति श्रीदीर्धापन |,, अवालीश प्रचन्द्र नष्टपाखंड व्रतवासु
(पनपट) ६ धीचरित्रनिधि श्रीविख्यात ,, प्रवादिक वेणुक स्वप्नप्रबोध अतिराज कीर्ति
। (स्वपद) श्रीअपराजित ,, अवशानन |, भूमानन्द त्रिभानु तपोधन अश्वजिन
(अश्रमण) श्रीसुबोधक , प्रबोधन 1;, त्रिनयन ब्रह्मब्रह्मण्य पुष्यकेतु अजुक
(ब्रह्मादित्य) श्री युद्धश सपोनिधि ,, विवश घजाङ्ग धार्मिक तपश्चन्द्र | (बुद्ध श) | १. श्री वैतालिका, पावक ,, परमात्म अविरोधन चन्द्र केतु शारीरिक
प्रशम ११ श्रीत्रिमुधि , मिपुरेश | भूमीन्द्र अपाप वीतराग महेश्वर
(मुक्तिधन) (प्रणरिपु १२ श्रीमुनिबोधक ,, सौगत ,, गोस्वामिन् लोकोत्तर अनुरक्त
(विरक्त) १३) श्रीतीथेन्द्र ,, यवास , कल्याण जलधिशेष उद्योतक दृढ़प्रहार
प्रकाशित १४ श्रीधर्माधीश, मनोहर |मंडलेश
विद्योद्युति
तमीपेक्ष दयोनीति । (अधमन) १५ श्रीधारणश |, शुभकर्म शमहाघसु
मधुनाथ अम्बरीष
(अतीतदेष) १६ श्रीप्रभवदेव 1, दृष्ट पेवक ,, तेजोदयेन्दु भावित मरुदेव तुंवरनाथ
(कृमतिकृच्छ)। १७ श्रीअनादिदेवा,कमलेन्द्र दिव्यजोति वत्सल दममाय सर्वशील
(दुर्दरीक)
(दमयुक) १८ श्रीअनाधिप |, धर्मध्वज 1. प्रबोधजयति जिनालय वषभस्वामिन
प्रतिजातक ६, सर्वतीर्थार्थ ,, प्रस्वादनाथ ,, अभयंक तुषारिक शिलातन जितेन्द्रिय १२० ., निरुपमदेव ,, प्रभामृगांका , नमितेश भुवनेश
विश्वनाथ
तपादित्य
(निधिचन्द्र) (२१ , कुमारिक ,, अकलङ्क ,दिव्यस्फारक सुकामुक महेन्द्रसनक रलकिरण
| (मृगांक) ३२., विहारगृह |.. स्फटिकप्तम,, ब्रतेन्द्रस्वामि देवाधिदेव नन्दसहस्राधि दिवेश (विग्रह)
(ज़िमचन्द्र २३ , धारणेश्वर, गणेन्द्र . निधिनाथ अकारिमदेव तमोनिम || लांछनेश
(गजेन्द्र) विकाशदेव, ध्यानेन्द्र 1., निर्मकदेव विनीत । ब्रह्मधारण |(पिकालन)।
| (त्रिकर्मक) । (विवंक)।
सुग्रीव
सुमेरु
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( २६९ )
पुष्करार्द्ध द्वीप (पश्चिम भाग )
(पश्चिम-भरत क्षेत्र (विद्युन्माली मेरु के दक्षिण ) पश्चिम ऐरावत क्षेत्र (विद्युन्माली मेरुके उत्तर) अतीतचौबीसी वर्तमान चौ० | अनागत चौ० अतीत चौ० ! वर्तमान चौ० अनागत चौ० १ श्री पद्मचन्द्र श्री अदोष
श्री गायक
श्री सर्वाङ्ग श्री प्रभाकरदेव श्री उपशान्त (पद्मप्रभ श्रीप्रभाकरदेव (विद्युत्प्रभ ) ३ श्री अजोगिक श्री पद्माकर
२ श्री रत्नाङ्ग
विनयेन्द्र
वृषभ
स्वभावकदेव
विनयानन्द
दिनकर
मुनिभारत
अनङ्गतेज
(अगस्त) धनदत्त
पौर व
जिनदत्त
पार्श्वनाथ
मुनिसिन्धु
अस्तक
(आस्तिक) भवनीक
( बलनाथ)
४ श्री सिद्धार्थ | श्रीयोगनाथ (सर्वार्थ)
५ श्री ऋषिनाथ (रुषिनाथ)
श्री सूक्ष्माङ्ग
६ श्री हरिभद्र श्री बलातीत
७ श्री गणाधिप श्री मृगांक
= श्री पारत्रिक श्री कलंवक
६ श्री ब्रह्मनाथ श्री परित्याग (पद्मनाथ) १० श्रीमुनिचन्द्र श्री निषेधक
११ श्री कुलदीपक श्रीपापप्रहारक
१२ श्री राजर्षि
श्री मुक्त चन्द्र स्वामि १३ श्रीविशारवदेव श्री अप्रकाश ( अप्रासिक) १४ श्री आनन्दित श्री जयचन्द्र (आनन्दित ) श्री मलाधार ( मलधारिण) श्री सुसंजय
१५ श्रीरविस्वामिन्
१६ श्री सोमदत्त
१७ श्रीजयस्वामि श्रीमलय सिंधु |
१८ श्री मोक्षनाथ
श्री अक्षधर (JFAITHT) धराजयति (धरदेव) श्री गणाधिप
( प्रयच्छत) श्री अकामिक
१६ श्री अग्रभानु
१२० श्री धनुषाङ्ग
२१ श्री. मुक्तनाथ
२२ श्री रोमांच बिनीत
२३ " प्रसिद्धनाथ,
वीतराग
२४, जिनेशस्वामि
रानन्द
35
23
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नृपनाथ
नारायण
प्रशमौक
भूपति
सुदृष्टि (हष्टांक)
भवभोरु
नन्दन
भार्गव
वासव
फाल्गु
पुरवास
सुन्दर
गौरव
त्रिविक्रम
नृसिंह
मृगवासब
परम शोभ (सोमेश्वर) शुद्धेश्वर
अपापजिन
विवाध जिन
सन्धिकजिन
(भववास) भरतेश
मनिधात्र
श्रश्वतेज
विद्याधर
सुलोचन
निधि
मुनीन्द्र
परवासव सर्वकला
(किल्विषाद)
वनवासि
भूरिश्रवण
पुण्याङ्ग
पुंडरीक
चित्रगण
पुष्पाङ्ग
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मल्लवास ( नलवास भीम
दयानाथ ' ( ध्वजाधिप )
सुभद्र नाथ
स्वामि जिन
हनिक
नन्दघोष
रूप वीर्य
वज्रनाभ
सन्तोन
सुधर्म
फर्नाश्वर
वीरचन्द्र
मेधानीक
स्वच्छ नाथ
को पक्ष
अकामिक
धर्मग्राम
( सन्तोषिक)
सुक्त सेन (सत्य सेन)
क्षेमङ्कर (क्षेमाङ्ग )
दयानाथ
कीर्तिप
शुभङ्कर
इन्द्रक
चन्द्रकेतु
ध्वजादित्य
वस्तुबोधक
मुकगति
'धर्म प्रबोधक
देवोङ्ग
मरीचि
जीव नाथ
( धर्मरथ ) यशोधर
गौतम
मुनिशुद्ध
प्रबोधक
सदानीक
चारित्र नाथ
सदानन्द
दार्थ नाथ
सुधानीक ( प्रशस्त ) ज्योतिमूर्ति
सुराधं (सुबुद्ध)
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अणिमा
( २७० >
वृहत् जैन शब्दार्णव
नोट १ - जम्बू द्वीप के भरतक्षेत्र की अनागत चौबीसी के "श्री महापद्म" नामक प्रथम तीर्थंकर का पद मगध नरेश महाराजा श्र ेणिक "विम्बसार" का जीव प्रथम नरक से आकर पायेगा "श्री निर्मल" नामक १६ वां तीर्थङ्कर "श्रीकृष्ण चन्द्र" ९वें नारायण का जीव होगा और श्री अनन्त वीर्य नामक अन्तिम २४ वां तीर्थंकर "सात्यकि तनय" नामक ११ वें रुद्र का जीव होगा ।
(त्रि. ८७२, ८७४, ८७५)
नोट २ -- जिस समय श्रीकृष्ण का जीव अनागत चौबीसी का १६वां तीर्थंकर 'निर्मल' नामक होगा उसी समय श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता “श्री बलदेव" का जीव मुक्तिपद
प्राप्त करेगा ||
( त्रि. ८३३ ) अणिमा - लघुता, अणुत्व, सूक्ष्म परिमाण, एक दैवी विद्या, एक ऋद्धि विशेष जिस के तपोबल द्वारा प्राप्त हो जाने पर अपना शरीर यथा इच्छा चाहे जितना छोटा बना सकने की शक्ति तपस्वियों को प्राप्त हो जाती है । यह शक्ति सर्व देवों और नारकियों में, तथा कुछ अन्य पर्यायों में जन्मसिद्ध होती है ।
नोट १ - यह ऋद्धि बुद्धि ऋद्धि आदि ८ ऋद्धियों मेंसे तीसरी विक्रिया ( वै क्रियिक) ऋद्धि के ११ भेदों में से एक भेद है जिन के नाम निम्नलिखित हैं:--
( १ ) | अणिमा ( ३ ) महिमा ( ३ ) लघिमा ( ४ ) गरिमा ( ५ ) प्राप्ति ( ६ ) प्राकाम्य ( ७ ) ईशित्व ( ८ ) वशित्व ( ६ ) अप्रतिघात (१०) अन्तर्द्धान ( ११ ) काम
रूपित्व ॥
अणिमा
नोट २ - वैकियिक शक्ति दो प्रकार की होती है, एक पृथक विक्रिया और दूसरी अथक विक्रिया । जिस शक्तिले अपने शरीर से पृथक् ( अलग ) युगपत् अनेक शरीरादि की रचना विजात्म प्रदेशों द्वारा की जा सके उसे "पृथक् वैकिकिशक्ति" कहते हैं । और जिस शक्ति से अपने ही शरीर को यथा इच्छा सूक्ष्म, स्थूल, हलका, भारी आदि अनेक प्रकार के रूपों में यथा इच्छा परिवर्तित किया जा सके उसे 'अपृथक वैकिथिक शक्ति' कहते हैं ।
नोट ३ - सर्व प्रकार के देवों और नारकियों का शरीर जन्म ही से वैकियिक होता है जिस से देव तौ पृथक और अपृथक दोनों प्रकार की, और नारकी केवल अपृथक वि क्रिया कर सकते हैं। वैक्रियिक शरीर को "विगूर्व शरीर" या "वैमूर्विक शरीर" भी कहते हैं।
नोट ४ - वैक्रियिक शक्ति को सम्भा वना सर्व देवों, सर्व नारकियों और तपोबल द्वारा ऋद्धि प्राप्त किसी२ ऋषि मुनियों में तथा कुछ स्थूल तेजस कायिक और वायुकायिकः पर्याप्त एकेन्द्रिय जीवों में, कुछ संज्ञी पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में, भोगभूमिज मनुष्यों और तिर्यञ्चों में, तथा कर्मभूमिज अर्द्धचक और चक्रवर्ती पद विभूषित पुरुषोंमें है । इनमें से देवों में पृथक् और अपृथक् दोनों, भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यचों में सथा कर्मभूमिज चक्री, अर्द्ध चक्रियों में पृथक्. और शेष में अपृथक-वैक्रियिक-शक्ति है ।
( गो० जी० २३१, २३२, २५६ नोट ५ -- तपस्वियों को तपोबल से 'जब यह शक्ति प्राप्त होती है तो वह 'वैक्रियिक ऋद्धि' कहलाती है जो पृथकू और अप्रथक्
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(
२७१)
अण ।
अणिमा ऋद्धि
वृहत् जैन शब्दार्णव दोनों प्रकार की होता है । शेष जीवों की ऐसी | __दारुणी ( ३६ ) वारिणी (३७) मदनाशनी जन्मसिद्ध शक्ति को वैक्रियिकशक्ति कहते | (३८) वश कारिणी (३६) जगत कम्पाहैं। वैक्रियिकऋद्धि नहीं॥
यिनी (४०) प्रघर्षिी (४१) भानु मा. नोट ६--भोगभूमिज प्राणियों में | लिनी (४२) चित्तोद्भवकरी(४३) महा कष्ट | विकलत्रय ( अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और निवारिणी (४४) इच्छा पूर्णी (४५)। चतुरेन्द्रिय जीव ), असंशो और सम्मूछन । सुख सम्पत्ति दायिनी (४६) घोरा (५७) पञ्चेन्द्रिय जीव, और जलचर प्राणी नहीं धीरा ( ४८ ) वीरा (४९.) भवना (५०)। होते।
अवध्या (५१) वन्धमाचनी (५२) भा(गो० जी० ७६, ८०, ६१, ४२) स्करी (५३) उद्योतनो ( ५४ ) वजा अणिमाद्धि --पीछेदेखोशब्द “अणिमा"
(५५)रूप सम्पन्ना (५६) रूपपरिवर्तनी
(५७) रोशानी (५८) विजया (५९) अणिमाविद्या-रोहिणी, प्रज्ञप्ति आदि जया (६०) बहुवर्द्धनी (६१) संकट ५०० महाविद्याओं में से एक विद्या का मोचनी (६३) वाराही (६३) कुटिलाकृति नाम जो मन्त्रादि द्वारा सिद्ध की जातीहैं। (६४) शान्ति (६५) कौवेरी (६६) इस विद्या के सिद्ध हो जाने पर अणिमा योगेश्वरी (६७) पलोत्साही ( ६८ ) चंडी। ऋद्धि के समान शक्ति इस के साधक को (६६) भीति (७०) दुर्नियारा (७१) प्राप्त हो जाती है । इन ५०० विधाओं सवृद्धि (७२) जूभणी (७३) सर्व हारिणी में से कुछ के नाम निम्न लिखित है :- (७४ ) व्योम भामिनी (७५) इन्द्राणी (१) रोहिणी (२) प्रशप्ति (३)
(७६ ) सिद्धार्था (७७ ) शत्र दमनी (७८) गौरी (४)गान्धारी ( ५ ) नभ सम्चारिणी
निर्व्याधाता (७६) आघातिनी (८०) (६) कान दायिनी (७) कान गामिनी
धज भेदनी । इत्यादि ॥ · । (८) आणला (९) लघिमा (१० ) अ- मणीयस-भहिलपुर निवासी "नाग'' नाक्षोभ्या (११) मनः स्तमान कारिणः
मक अधिकारी की स्त्री सुलसा के गर्भ से (१२) सुधियाना (१३) सपोरूपा (१४ )
उत्पन्न पुत्र, जिसने श्री नेमिनाथ से दीक्षा दहनी ( १५ ) विश्लोदरी ( १६) शभप्रदा
लेकर, १४ पूर्व पाटी हो २० वर्ष तक प्रव ( १७ ) रजोरूपा ( १८) दिवारात्रि विधा
ज्या ( संन्यास विशेष, मुनि धर्म ) पालन यिनी ( १९.) वजोदरी (२०) समाकृष्टि
करने के पश्चात् शत्रुजय पर्वत से मुक्तिपद (२१) अदर्शनी (२२) अजरा ( २३ )
पाया; षटभ्राताओं के नाम से प्रसिद्ध अमरा (२४) अगलस्तम्भनी (२५) जलस्त.
मुनियों में से एक मुनि। (अ० मा०) म्भनी (२६) वायुस्तम्भनी (२७) पवन सं. चारिणी ( २८) गिरिदामणी ( २९ ) अप- भण-भाग, अंश, कणं; लेश, सूक्ष्म, क्षद, संचारिणी ( ३०) अवलोकिनी (३१) लघु, अदृश्य, धान्य, संगीतशात्र की मात्रा बन्हिप्रजालिनी ( ३२) दुःख मोचनी (३३)| विशेष, पुद्गलकण, पुद्गलपरमाणु, अनु भुजङ्गिनी ( ३४ ) सर्व विष मोचनी ( ३५)। (उपसर्ग विशेष,) पीछे, सादृश्य, समीप,
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( २७२ ) . अणु वृहत् जैनशब्दार्णव
अण सहकारों, अनुसार।
| जा सकता किन्तु जलाने से पीतवर्ण की 'अण' शब्द का प्रयोग मुख्यतः पुदगल | लपट प्रदर्शित करता और औक्सिजन गैस । द्रव्य (मैटर matter ) के अंशही केलिये (Oxygen gas)से नियमानुसार विधिपूर्वक । किया जाता है, और काल द्रव्य की अंश
| मिलने पर जल कण बनाता है उस के साठ कल्पना में भी, परन्तु अन्य चार द्रव्यों अ- |
लाख संख ( ६०००००००००००००००००००० र्थात् जीव, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय,
००० चौबीसस्थानप्रमाण ) अणु तोल में और आकाश की अंशकल्पना में नहीं । केवल “एक रत्ती भर" होते हैं । इसी एक की
में प्रदेशाट अण को अर्थात् एक रत्तीभर हाइड्रोजन गैस का प्रयोग होता है और गुणों की अंश- के ६० लाख संखवे भाग को वे परमाण मानते कल्पना में "अविभागी प्रतिछेद" का। । है जो वास्तव में नैयायिक आदि के माने
प्रदेश यथार्थ में आकाश द्रव्य के या क्षेत्र हुए परमाणु से अत्यन्त सूक्ष्म और लघ है।। के उस छोटेसे छोटे अंश को कहते हैं जिसमें
। आजतक आविष्कृत अणुवीक्षण अर्थात् | पुदगलद्रव्य का केवल एक छोटे से छोटा चूक्ष्म दर्शक यंत्रों में सर्वोत्कृष्ट यंत्र से देखने | अंश अर्थात परमाण समावे । प्रदेश पर कोई वस्तु अपने सहज आकार से आठ | यद्यपि क्षेत्रमान का एक अंश है तथापि सहस्र (८०००) गुणी बड़ी दीख पड़ती है।। छहों ही द्रव्यों के लघुत्व और गुरुत्व का वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि कोई ऐसा अन्दाज़ा इसी मान के द्वारा भले प्रकार
अणुवीक्षण यंत्र आविष्कृत हो जाय जिस के । लग सकनेसे भाचायौं ने अलौकिक गणना
द्वारा कोई पदार्थ अपने सहज आकार से | में इसी को एक पैमाना मान लिया है जिस
चौसठ सहस्र (६४०००) गुणा बड़ा दीख सके | से नाप कर प्रत्येक द्रव्य का मान बताया
तो जलके परमाणु अलग अलग उस यंत्र द्वारा जाता है। ( पीछे देखो शब्द "अविद्या" | देखे जा सकते है अर्थात् वे मानते हैं कि जो का नोट ७)॥
छोटे से छोटा जलकण हमें नेत्र द्वारा दीख नोट १-परमाणु (जर्ग या ऐटम Atom) सकता है-अथवा दूसरे शब्दों में यो कहिये | कोई तो बाल रेत के कण को और कोई कि जो जलकण किसी सुई की बारीक से इसके ६० वें भाग को मानते हैं । नैयायिक | बारीक नोक पर रुक सकता है-उस जलअन्धेरी कोठरी में किसी छिद्र द्वारा प्रवेशित कण का चौसठ सहस्रवां भागांश जल का सूर्यकिरणों में उड़ते चमकते प्रत्येक रजकणके एक परमाणु है । यह परमाणु उपयुक्त हाइ६० वें भाग को परमाणु समझते हैं। आज ड्रोजन गैस के एक परमाणु से बहुत बड़ा है। कल के वैज्ञानिकों ने हिसाब लगा कर अनु- सन १८८ ३ ई० में डाक्टर डालिंजर मान किया कि हाइड्रोजन गैस (Hydrogen ( Dr. Dallinger ) ने किसी सड़े मांस gas ) जो हलके से हलका अमिश्र द्रव्य वायु के केवल एक घन इन्च के एक सहस्रवें भा. 1 से भी बहुत ही सूक्ष्म है और जिस में न गांश में अणु वीक्षण यंत्र (खुर्दवीन Micras
कोई वर्ण, न रस और न गन्ध है अर्थात् जो| cope ) द्वारा २ अर्ब ८० करोड़ ( २८० नेत्रादि किसी इन्द्रिय द्वारा पहिचाना नहीं कोटि, २८०००००००० ) जीवित कीट (कीड़े)
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( २७३ ) | अणु
वृहत् जैनशब्दार्णव देखे थे जिस से उसने अणु या परमाणु स्थूल भेद २०० निम्न प्रकार हो जाते हैं:की लघता या सूक्ष्मता का अनुमान किया | १. स्पर्श गुण अपेक्षा ४ भेद--(१) शीतथा कि वह इस कीट के सहस्रांश ले भी छोटा | स्निग्ध (२) शीतकक्ष (३) उष्णस्निध (४) । होगा । इत्यादि
उष्णकक्ष। ___सारांश यह कि उपयुक्त विद्वानों ने । २. स्पर्शगुण अपेक्षा इन उपयुक्त ४ जिस जिस को परमाणु स्वीकृत किया या प्रकार के परमाणुओं में से प्रत्येक में रस के समझा है उन में से प्रत्येक अणु जैन सिद्धा- ५ भेदों में से कोई एक रहनेसे रसगुण अपेक्षा न्तानुकूल एक स्कन्ध ही है, परमाणु नहीं उसके ५ गुणित ४ अर्थात् २० भेद हो जाहै। परमाणु तो पुद्गल द्रव्य ( Matter ) येंगे।
का इतना छोटा और अन्तिम अंश है जिसे ३. इसी प्रकार इन २० प्रकार के परमा| संसार भर की कोई प्राकृतिक शक्ति भी दो णुओं में से प्रत्येक में गन्ध के २ भेदों में से भागों में नहीं बाँट सकती । आजकल के कोई एक रहने से गन्ध गुण अपेक्षा उसके दो वैज्ञानिकों की दृष्टि में हाइड्रोजन गैस का जो गुणित २० अर्थात् ४० भेव हो जायेंगे । और उपयुक्त छोटे से छोटा अंश आया है अत्यन्त ५ वर्णगुण अपेक्षा ५ गुणित ४० अर्थात् २०० सक्ष्म होने पर भी जैनसिद्धान्त की दृष्टि से भेद हो जाते हैं। .. असंख्य परमाणुओं का समूहरूप एक स्कन्ध पुद्गल द्रव्य के उपर्युक्त २० असाधारण या पिंड है॥
|गुणों में से प्रत्येक गुण के अविभागी प्रतिनोट २-परमाणु पुद्गल द्रव्य का एक च्छेद या अविभागी अंश अनन्तानन्त होते अत्यन्त लघकण है। इसी लिये हम अल्पज्ञों हैं। अतः इन गुणों के अविभागी अंशों की को इन्द्रियगोचर न होने पर भी उस में असा- होनाधिक्यता की अपेक्षा से परमाण भी धारण पौदगलिक गुण(Material-proper | अनन्तानन्त प्रकार के हैं जिनके प्राकृतिक ties)स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण सदैव विद्यमान | नियमानुसार यथा योग्य संयोग वियोग से रहते हैं। पुद्गल ट्रध्यके इन चार मूल गुणों के विश्वभर के सर्व प्रकार के पौड्गलिक पदार्थों विशेष भेद २० हैं जिन में से परमाणु में स्पर्श ( Material Substances ) की रचना के ८ भेदों में से दो ( शीत-उष्ण युगल में से | सदैव होती रहती है। कोई एक और स्निग्ध-रूक्ष युगल में से कोई यहां इतना ध्यान रहे कि पृथ्वी, जल, एक और हलका-भारी, नर्म कठोर, इन ४ में अग्नि, वायु, या सोना, चांदी, लोहा, तांबा, से कोई नहीं), रस के ५ भेदों अर्थात् तिक्त, गन्धक, हाइड्रोजन, ऑक्सिजन, नाइट्रोजन कटु, कषायल, आम्ल और मधुर में से कोई आदि पदार्थों की अपेक्षा,जिन्हें कुछ प्राचीन या एक, गन्ध के दो भेदों अर्थात् सुगन्धि दुर्गन्थि अर्वाचीन दार्शिनिक या वैज्ञानिक लोग 'द्रव्य' में से कोई एक, और वर्ण के ५ भेदो अर्थात् ( अमिश्रित पदार्थ Elements) मानते हैं, कृष्ण, नील, पीत, पद्म, और शुक्ल में से कोई परमाणुओं में किसी प्रकार का कोई मूल एक, इस प्रकार यह ५ गुण सदैव विद्यमान | भेद नहीं है किन्तु जिन जाति के परमाणुमो रहते हैं। इन २० गुणों की अपेक्षा परमाणु के | के संयोग से पृथ्वी आदि में से किसी एक
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( २७४ ) अणुवर्गणा वृहत् जैन शब्दार्णव
अणव्रत पदार्थ के स्कन्ध बनते हैं उन्हीं परमाणुओं के | हर दम रखने और उनके अनुकूल चलने संयोग से उनके मूलगुणों के अंशों में यथा से इस अणुव्रत की असत्य भाषण से आवश्यक हीनाधिक्यता होकर किसी अन्य | रक्षा होकर उसका पालन निर्दोष रीति से पदार्थ के स्कन्ध भी बन सकते हैं और बनते | भले प्रकार हो सकता है। रहते हैं। और इसी लिये पृथ्वी, अग्नि, जल, नोट-सत्याणुव्रत की ५ भावनाओं घायु या सोना, चाँदी आदि के स्कन्ध भी के नाम यह हैं-(१) क्रोध त्याग (३) लोभ वाद्यनिमित्त मिलने पर परस्पर एक दूसरे | त्याग (३) भयत्याग (४) हास्यत्याग (५) 1 के रूप में परिवर्तित हो सकते हैं।
अनुवीचि भाषण ॥ (पंचास्तिकाय ८०, ८१, २,]
(त० सू० ५, अ०७) गो० जी० ६०८...... )
प्रणवत (अनुव्रत)-एकोदेश विरक्तता, नोट ३-"अणु" शब्द का प्रयोग 'अनु'
हिंसा आदि पंच पापों का एक देश त्याग, के स्थान में भी कभी २ किसी अन्य संज्ञा.
पूर्ण विरक्तता या महाव्रत की सहायक या वाची या क्रियाबाची शब्द के पूर्व उसके
सहकारी प्रतिज्ञा, महावत की योग्यता उपसर्ग रूप भी किया जाता है तब यह अनु
प्राप्त करने वाली प्रतिज्ञा ॥. की समान “पीछे, सादृश्य, समान, अनुकूल, सहायक", इत्यादि अर्थ में भी आता है।
हिंसा, अनृत ( असत्य ), स्तेय (अदत्त जैसे "अणुव्रत" शब्द में “अणु" "अनु" के
ग्रहण या अपहरण या चोरी), अब्रह्म (कु. अर्थ में है ॥
शीलया मैथुन), और परिग्रह (अनात्मया मणवर्गणा-अणुसमुदाय, त्रैलोक्यव्यापी
अचेतन पदार्थों में ममत्व ), यह ५ पाप
हैं। इनसे विरक होने को, इन्हें त्याग करने पुद्गलद्रव्य के अविभागी अणुओं अर्थात्
को, या इनसे निवृति स्वीकृत करने की | परमाणुओं के समूह की जो २३ प्रकार की
शल्य रहित प्रतिज्ञा को 'व्रत' कहते है। परमाणु से लेकर महास्कन्ध पर्यंत वर्ग
यह प्रतिज्ञा जब तक पूर्ण त्याग रूप न "णायें हैं उनमें से प्रथम वर्गणा का नाम ।
हो किन्तु पूर्ण त्याग की सहायक और (पीछे देखो शब्द “अणु" और "अग्राह्य
उसी की ओर को ले जाने वाली हो तथा वर्गणा')॥
किसी न किसी अन्श में उसी की अनु. ( गो० जी० ५९३-६०३)
करण रूा हो तो उसे "अणव्रत" या नोट- "अणवर्गणा" शब्द में "अणु"
'अनुव्रत' कहते हैं । और जब यही प्रतिज्ञा शब्द का प्रयोग 'परमाणु' के अर्थ में किया
पूर्ण रूपसे पालन की जाय तो उसे 'महागया है ॥
अत' कहते हैं। अणुवीचीभाषण (अनुवीचीभाषण)- उपर्युक्त पंच पाप त्याग की अपेक्षा
आगमानुसार परिमित वचन बोलना। से अणुव्रत निनोक्त ५ हैं:. यह सत्त्याणुव्रत की ५ भावनाओं में | (१) अहिंसाणुव्रत, या प्रसहिंसात्याग से एक भावना का नाम है जिनकी स्मृति व्रत ।
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अणुव्रत
( २७५ ) __ वृहत् जैन शब्दार्णव
अणुव्रत - (२) सत्याणुव्रत, या स्थूल असत्य- (२) सत्याणुव्रत की ५ भावना-१. त्याग व्रत ॥
| क्रोध त्याग २. लोभत्याग ३.. भयत्याग ४. ___ (३) अस्तेयाणुव्रत, या. अचौर्याणुव्रत, हास्य त्याग ५. अणुवीचीभाषण ( आगमानुया स्थूल चोरी त्यागवत ॥
| सार बोलना)। ___ (४) ब्रह्मचर्याणुवत, या शीलाणुव्रत, इस व्रत के ५ अतिचार-१. मिथ्योपया स्वदारा सन्तोष या स्वपति सन्तोष | देश २. रहोभ्याख्यान ३. कूटलेखक्रिया ४. ब्रत ॥
न्यासापहार ५. साकारमंत्रभेद । ___ (५) परिग्रह त्यागाणवत, या परिग्रह (३) अस्तेयाणुव्रत की ५ भावना-- परिमाणवत या अनावश्यक परिग्रह १. शून्यागार वास २. विमोचितावास ३. त्यागवत, या अल्पपरिग्रह-सन्तोषव्रत, या अपरोपरोधाकरण ४. आहार शुद्धि ५. सध. नियमिन-परिग्रह-सन्तोषव्रत ॥ । विसंवाद ।
नोट १-इन पांचों अणुव्रतों को सुर- इस व्रत के ५ अतिचार-१. चौरप्रयोग क्षित रखने और निर्दोष पालन करने के लिये | २. चौरार्थदान या चौराहतग्रह ३. विरुद्धरानिम्न लिखित संप्त शील पालन करना और ज्यातिक्रम ४. हीनाधिक मानोन्मान ५. प्रतिप्रत्येक व्रत की पांच पांच भावनाओं पर य- रूपक व्यवार । थोचित ध्यान देना तथा पंचाणुव्रतों और (४) ब्रह्मचर्याणुव्रत की ५ भावना--- सप्तशील में से प्रत्येक के पांच पांचे मुख्य | १. अन्य स्त्री ( या अन्य पुरुष) राग कथा और अन्यान्य गौण अतिचारों से बचना श्रवण त्याग २.पर स्त्री(यापरपुरुष)तन-मनोहभी परमोपयोगी है:
रांग निरीक्षण त्याग ३. पूर्वरतानुस्मरणत्याग १. सप्तशील (३ गुणवत+४ शिक्षा- ४. वृष्येष्ट रस त्याग ५. स्वशरीरातिसंस्कार व्रत )-(१) दिग्वत (२) अनर्थदण्डत्यागवत त्याग । (३) भोगोपभोग परिमाणवत; (४) देशा- इस व्रत के ५ अतिचार-१. पर वकाशिक (५) सामायिक (६) प्रोषधोप- विवाहकरण २. इत्त्वरिका-परिगृहीतागमन ३. वास (७) अतिथि संविभाग।
इत्त्वरिका अपरिगृहीतागमन ४. भनङ्ग क्रीड़ा ३. पांचों अणुव्रतोंकी पांच २ भावना ५. कामतीव्राभिनिवेश । और उनके पांच २ मुख्य अतिचार निम्नोक्त (५) परिग्रहत्यागाणवतको ५ भाषना
१. स्पर्शनेन्द्रिय विषयातिरागद्वष त्याग। (१) अहिंसाणुव्रत को ५ भावना-- २. रसनेन्द्रिय विषयातिराग त्याग । १. मनोगुप्ति २. बचनगुप्ति ३. ईर्या समिति | ३. घाणेन्द्रिय विषयातिरागद्वष त्याग । ४. आदान निक्षेपण समिति ५. आलोकित | ४. चक्ष रेन्द्रिय विषयाति राग द्वष त्याग। पान भोजन ।
५. श्रोत्रेन्द्रिय विषयाति राग द्वेष त्यामः। ___ • अहिंसाणुव्रत के ५ अतिचार-१. वध इस व्रत के ५ अतिचार२. बन्धन ३. छेद ४. अति भारारोपण ५. अ- १.-वास्तुक्षेत्रातिकमा न्नपान निरोघ। .........
२. धनधान्यातिकमा
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अण्डज
.. ( २७६ ) अणुव्रती
वृहत् जैनशब्दार्णव ३. कनकरूप्यातिक्रम
त्रैलोक्य भर के प्राणीमात्र के जन्म ४. कुन्य भांडाति क्रम
सामान्यतः निम्न लिखित तीन प्रकार के (या वस्त्रकुप्याति क्रम) ५. दासी दासात्तिक्रम
१. उप्पादज-उप्पादशय्या से पूर्ण (या द्विपदचतुष्पदाति क्रम )॥
युवावस्था युक्त उत्पन्न होने वाले प्राणी । इत०सू०अ०७ सू० १-८, २४-२४ ।
इस प्रकार का जन्म केवल देवगति और सा०अ० ४। १५,१८,४५,५०,५८,६४ ।
नरकगति के प्राणियों का ही होता है। नोट २-उपरोक्त पंचाणवतो, सप्त
(देखो शब्द 'उप्पादज')॥ शीलों, सर्व भावनाओं व सर्व अतिचारों का
२. गर्भज--गर्भ से उत्पन्न होने वाले लक्षण व स्वरूप आदि प्रत्येक शब्द के साथ
प्राणी अर्थात् वे प्राणी जो पिता के शुक्र यथास्थान देखें ॥
(वीर्य) और माता के शोणित ( रज ) के नोट ३-भावना शब्दका अर्थ "बारंबार
संयोगसे माताके गर्भाशयमें उत्पन्न हो कर चिन्तवन करना, बिचारना या ध्यान रखना"
और कुछ दिनों तक बहीं बढ़कर माता की है । अतिचार शब्द का अर्थ जानने के लिये
योनिद्वार से बाहर आते हैं.॥ पीछे देखो शब्द "अचौर्य-अणुव्रत'का नोट १॥
___ यह सामान्यतः ३ प्रकार के होते हैं-- . नोट ४--संसार में जितने भी पाप या (१) जरायुज; जो गर्भ से जरायु अर्थात् दुराचार हैं वे सर्प उपरोक्त ५ पापों ही के अ- | जेर या पतली झिल्ली युक्त उत्पन्न हो, जैसे म्तर्गत हैं। इतना ही नहीं किन्तु सूक्ष्म विचार मनुष्य, गाय, भैंस, घोड़ा, बकरी, हरिण दृष्टि से देखा जाय तो एक 'हिंसा' नामक आदि । (२) पोतज; जो गर्भ से बिना ज. पाप में ही पापों के शेष चारों भेदों का समा- गयु ( जेर या झिल्लो ) के उत्पन्न हों, पेश है । अर्थात् वास्तव में केवल 'हिंसा' ही | जैसे सिंह, स्यार, भेडिया, कुत्ता आदि । का नाम “पाप" है। अन्य सर्व ही प्रकार के
( ३) अण्डस; जो गर्भ से अण्डे द्वारा अपराध जिन्हें 'पाप' या दुराचारादि' नामोसे उत्पन्न हों, जैसे कच्छव मत्स्य आदि पुकारा जाता है वे किसी न किसी रूपमें एक
बहुत से जलचर जीव, सर्प, छपकली, 'हिंसा' पाप के ही रूपान्तर हैं । ( पोछे देखो
मेढ़क आदि कई प्रकार के थलचर जीव शब्द 'अजीवगतहिंसा' और एस के नोट १
और प्रायः सर्व पक्षी या नभचर जीव । २, ३, पृष्ठ १६२ )॥
(देखो शब्द 'गर्भज' ) ॥ नोट ५--पीछे देखो शब्द 'अगारी' ३. संमूर्छन (सम्मूच्र्छन)-प्राणी नोटों सहित पृष्ठ ५१॥
जो बिना उप्पाद शय्या और बिना गर्भ के भणु व्रती-पंचाणुव्रतों को पालन करने अन्य किसी न किसीरीति से उत्पन्न हों। पाला । (पीछे देखो शब्द 'अवत' नोटों
इनके उद्भिज ( उद्भिद ) स्वेदज, टीवनज, सहित, पृ०२७३)॥ ..
आदि अनेक भेद हैं । ( देखो शब्द "सम्मू
छन")। भिण्डज-अपडे से जन्म लेने वाले प्राणी ॥
नोट १-एकेन्द्रिय से चौइन्द्रिय तक
काकाका
A
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( २७७ ) . अण्डज वृहत् जैन शब्दार्णव
अण्डज के सर्व ही प्राणी सम्मूर्छन ही होते हैं । और | पतले शरीराकार और स्वभाव, शक्ति और पंचेन्द्रिय जीव उपयुक्त तीनों प्रकार के अ- | कार्य कुशलता आदि किसी न किसी गुण र्थात् उप्पादज, गर्भज,और सम्मूर्छन होते हैं। विशेष की अपेक्षा से की जाती है । वास्तव
नोट २-सर्व सम्मूर्छन प्राणी में उनमें गर्भज जीवों की समान शुक्रशोणित और उप्पादों में नारकी जीव सर्व ही नपुं- द्वारा सन्तानोत्पत्ति करने की योग्यता नहीं सक लिंगी होते हैं । देवगति के सर्व जीव | होती॥ पुल्लिंगी और स्त्रीलिंगी ही होते हैं । और म- | नोट ५-गर्भज और सम्मूर्च्छन दोनों र्भज जीव पुल्लिंगी, स्त्रीलिंगी और नपुंसक- प्रकार के अण्डज व कुछ अन्य प्राणियों के लिंगी तीनों प्रकार के होते हैं।
सम्बन्ध में कुछ निम्न लिखित बातें शातव्य __नोट ३--अण्डे दो प्रकारके होते हैं- हैं जो पाश्चात्य विद्वानों और वैज्ञानिकों ने गर्भज ओर सम्मूर्छन । सीप, घोंघा, चींटी अपने अनुभव द्वारा जान कर लिखी हैं:-- (पिपीलिका ), मधुमक्षिका, अलि (भौंरा), १.घोंघा एक बार में लगभग ५० अण्डे बर, ततईया आदि विकलत्रय (द्वीन्द्रिय, | | देता है . श्रीन्द्रिय, चतुः इन्द्रिय) जीवों के अण्डे स. २. दीमक (स्वेत चींटी White akti) म्मूर्छन ही होते हैं जो गर्भसे उत्पन्न न होकर एक दित रात में गभग अस्सी सहन उन प्राणियों द्वारा कुछ विशेष जाति के पु. (८००००) अण्डे देती है। दगल स्कन्धों के संग्रहीत किये जाने और उन ३. मधुमक्षिका (मुमाखी ) एक फ़स्ल के शरीर के पसेव या मुख की लार (ष्टीवन) | में एकलक्ष (१०००००) तक अण्डे रखती है। गाजार की उष्णता आदि के संयोग से ४. कोई जाति की मकड़ी दो सहन अण्डाकार से बन जाते हैं । या कोई २ स-| (२०००) तक अण्डे देती है। म्मूर्छन प्राणीके सम्मूर्छन अण्डे योनि द्वारा ५. कछुवा एक बारमे ५०ले १५० तक उनके उदर से निकलते हैं, परन्तु वे उदर में | अण्डे देता है । भी गर्भज प्राणियों की समान पुरुष के शुक्र | ६. हंसनी जब अण्डे देना प्रारम्भ करती और स्त्री के शोणित से नहीं बनते, क्योंकि | है तो १५ या १६ दिन तक बराबर नित्य प्रति सम्मूर्छन प्राणी सर्व नपुंसकलिंगी ही होते | देती रहती है । हैं । और न वे योनि से सजीव निकलते हैं | ७. साधारणतः पक्षियों के अण्डे २, ३ किन्तु बाहर आने पर जिनके उदरसे निकलते या ४ तक एक बारमें होते हैं पर छोटी जाति हैं उनकी या उसी जाति के अन्य प्राणियोंकी के पक्षी १८ या २० तक अण्डे देते हैं। मख लार आदि के संयोग से उनमें जीवो- . पक्षियों में शुतरमी का अण्डा सब
| से बड़ा लगभग एक फुट लम्बा होता है। नोट ४-सम्मूर्छन प्राणी सर्व ही . पक्षी साधारणतः बसन्त और नपंसकलिंगी होने पर भी उनमें नर मादीन गीष्म ऋतुओं में अंडे देते हैं, परन्तु राजहंस अर्थात पुल्लिंगी स्त्रीलिंगी होने की जो कल्पना | और कबूतर आदि कोई २ पक्षी इस नियम की जाती है वह केवल उनके बड़े छोटे, मोटे | से बाहर हैं ।
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( २७८ )
वृहत् जैन शब्दाणव
अण्डय्य
अण्डे देती हैं। झींगा मछली जो बहुत छोटी जाति की साधारण मछली होती है वह २१६६६ तक, कौड मछली ३६३६७६० तक और सामन मछली ( Salmon ) सर्व से अधिक १ करोड २० लाख से २ करोड़ तक अंडे देती पाई गई हैं ॥
१०. मछलियां लगभग सर्व ही जाति दो के चार इत्यादि होने से लगभग ३ पद्म की सहस्रों, लक्षों और करोड़ों तककी संख्या (२८१४७४६७६७१०६५६ ) तक हो जाती है । १४. कोई कोई जीव जन्तु ऐसे हैं जिन के शरीर पर एक या कभी कभी कई गांठे या व्रण जैसे चिह्न उत्पन्न हो कर वे फल जाते हैं फिर धीरे धीरे उन्हीं व्रणों से एक एक नया कीड़ा उसी जाति का उत्पन्न हो जाता है । इन जन्तुओं का सन्तानोत्पत्तिक्रम यही है ।
११. अन्य सन्तान की रक्षा व पालन पोषण करने वाले पक्षियों में मुर्गों और तीतर सर्वोत्कृष्ट धात्री हैं ॥
१२. तीमी आदि जातिकी कुछ मछलियों के अतिरिक्त शेष मछलियां और किसी२ जाति की. सैकियां अपने उदरसे निर्जीव अंडे निकालती हैं पश्चात् नर मत्स्य या नर मेंढक उन अंडों मैसे, जिन पर अपना शुक्र त्याग करता है उनमें जीवोत्पत्ति हो जाती है जिनसे उनकी सन्तान का जन्म होता है ।
अण्डज
१३. कोई कोई जलजन्तु ऐसे विलक्षण देखने में आये हैं कि उन के शरीर के टूट टूट कर या तोड़ देने से जितने भाग हो जाते हैं उतने ही नवीन जन्तु प्रत्येक भाग से उसी जाति के बन जाते हैं अर्थात् प्रत्येक भाग में थोड़े ही समय में शिर और दुम ( पुच्छ ) आदि अन्य शरीर अवयव निकल आते हैं। इनकी उत्पत्ति का क्रम यही है । यह कीड़े अपनी उत्पत्ति के समय से एक घंटे के अन्दर और कभी कभी आधे घण्टे ही में सन्तानोत्पत्ति योग्य हो जाते हैं । अर्थात् फट कर एक के दो हो जाते हैं । इसी क्रम से प्रति घण्टा एक के दो और दो के चार और चार के आठ इत्यादि बढ़ते बढ़ते २४ घण्टे में केवल एक कीड़े की सन्तान एक करोड़ ६८ लाख के लगभग और हर आधे घण्टे में एकके दो और
१५. जिन जन्तुओं के कान प्रकट दृष्टि गोचर हैं ये प्रायः बच्च े देते हैं और जिन के कान प्रकट नहीं दिखाई देते या जिन में सुनने की शक्ति ही नहीं होती अर्थात् जिनके कान नहीं होते वे प्रायः अण्डे से उत्पन्न होते हैं या गर्भ के अतिरिक्त अन्य किसी रीति से ( सम्मूर्छन ) जन्म लेते हैं I
१६. पालू खरद्दा ( Rabbit ) छह मास की वय का होकर प्रत्येक वर्ष में सात सात बार तक व्याता है और प्रत्येक बार में' ४ से १२ तक बच्चे देता है अन्दाजा लगाया गया है कि यदि खरहा ( शशक ) का केवल एक ही जोड़ा और उसकी सन्तान योग्य खान पान और जलवायु आदि से पालन पोषण पाकर पूर्ण सुरक्षित रहे तो केवल ४ वर्ष ही में उस की सन्तान की संख्या लगभग १२ लक्ष तक हो सकती है ।
[ Beeton's Dictionary of UniIversal Information, शब्द 'Oviparous, Egg etc.' fasa कोष, शब्द 'अण्डा'; हमारे शरीर की रचना भाग २ पृष्ट १३२, Every body's Pocket Cyclopaedia; .etc.
मण्डय्य - एक कर्णाटक देशीय जैनकवि ।
इस कवि के पितामह का नाम भी अण्डय्य था जिसके शान्त, गुम्मट और वै
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(
२७२ )
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अण्डर
वृहत् जैन शब्दार्णव
अण्ण जण, यह तीन पुत्र थे । इन में से बड़े पुत्र है जिनकी असंख्यात लोक प्रमाण संख्या शान्त की धर्म पत्नी “बल्लब्बे" के गर्भ से एक एक स्कन्ध में है। इस कविका जन्म हुआ। इसने 'कम्बिगर'। नोट १-लोकाकाश के प्रदेश असं. नाम का एक ग्रन्थ शुद्ध कनकी भाषा में ख्यात हैं । इस प्रदेश संख्या की असंख्यात लिखा है जिस में संस्कृत शब्दों का मिश्रण | गुणित संख्याविशेष का नाम “असंख्यात नहीं है। इस का समय लगभग सन् | लोक प्रमाण" है। असंख्यात की गणना के १२३५ ई... अनुमान किया जाता है। असंख्यात भेद हैं । यहां असंख्यात के जिस
(क० ५२) भेद का प्रहण किया गया है वह कैवल्यज्ञान
... गम्य है। अण्डर-- स्थूल निगोदिया जीवों का
नोट २-असंख्यात लोक प्रमाण संख्या शरीर विशेष । निगोदिया जीवों के ५
को ५ बार परस्पर गुणन करने से जो असंप्रकार के पिंडों या गोलकों में से एक प्र
ख्यात की एक बड़ी संख्या प्राप्त होगी उस की कार का गोलक । सप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर
बराबर सर्व स्थूल निगोद शरीरों की संख्या का एक अवयव । ।
सर्वलोकाकाशमें है । लोकाकाश में असंख्यात स्कन्ध, अण्डर, आवास, पुलवि, और
लोक प्रमाण स्कन्ध तथा एक एक स्कन्ध में शरीर, यह ५ प्रकार के गोलक, कोष्ठ या
असंख्यात लोक प्रमाण अण्डर, इत्यादि के पिंड हैं। यहां सप्रतिष्ठित प्रत्येक जीवों के विद्यमान होने की सम्भाधना आकाश और शरीर का नाम स्कन्ध है । यह स्कन्ध सर्व पदगल द्रव्य की अवगाहना शक्ति के निमित्त लोकाकाश में असंख्यात लोक प्रमाण विद्यमान हैं। एक एक स्कन्ध में असंख्यात
(गो० जी० १९३, १९४, १९५) लोक प्रमाण "अण्डर" हैं । एक एक अण्डर में असंख्यात लोक प्रमाण आवास
अण्ण-चामुंडराय का अपर नाम । हैं । एक एक आवास में असंख्यात लोक यह द्राविड़ देशस्थ दक्षिण मथुरा या प्रमाण पुलवि हैं । एक एक पुलवि में अ. मदुरा नरेश, गंगकुल चूड़ामणि महाराज संख्यात लोक प्रमाण स्थूल निगोद शरीर
राचमल्लके मन्त्री और सेनापति थे। इनका हैं । और एक एक निगोद शरीर में अन- जन्म ब्रह्मक्षत्रिय कुल में वीर नि० सं० तानन्त साधारण निगोदिया जीव हैं। १५२३ (वि० सं० १०३५) में हुआ था। अर्थात् अनन्तानन्तसाधारणनिगोदकायिक | इन की उदारता से प्रसन्न होकर राचमल्ल जीवों को निवास स्थान एक एक निगोद ने इन्हें "राय' की पदवी प्रदान की। यह शरीर है । ऐसे असंख्यात लोक प्रमाण बड़े शूर और पराक्रमी थे । गोबिन्दराज, निगोद शरीरों के समूह का नाम पुलवि, घेकोडुराज आदि अनेक राजाओंको इन्होंने असंख्यात लोक प्रमाण पुलवियों के समूह | पराजित किया था। इसी लिये इन्हें समरका नाम आवास, और असंख्यात ठोक | धुरन्धर, वीरमार्तड, रणशसिंह, धैरिकुल. प्रमाण आवासों के समहका नाम 'अण्डर'. कालदण्ड, सगर,परशुराम, प्रतिपक्षराक्षल
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अण्ण
अण्ण
( २८० )
वृहत्जैनशब्दार्णव आदि अनेक उपनाम प्राप्त थे। यह जैन- ____ एलाचार्य, वीरसेन, जिनसेनादि का धर्म के अन्यतम श्रद्धालु थे। इसी लिये उल्लेख किया है और फिर अपने गुरु की! जैन विद्वानों ने इन्हें “सम्यक्त्वरत्नाकर” | स्तुति की है। यह पुराण प्रायः गद्यमय | शौचाभरण, सत्य युधिष्ठिर आदि अनेक है। पद्य बहुत ही कम है। कमड़ी के उपप्रशंसा वाखक पद दिये थे । महाराजा लब्ध गद्यग्रन्थों में चामुंडराय पुराण हो। रावमल्ल और यह, दोनों ही श्री अजित- सर्व से पुराना गिना जाता है । गोम्मटअनाचार के लिए को। आचार्य नेमिचन्द्र | सार की प्रसिद्ध कनड़ी टीका ( कर्नाटक
लचकनी ने सुप्रसिद्ध गोम्मट- 'वृत्ति ).भी चामुंडराय ही की बनाई हुई। सार प्रन्थ की रचना ही की प्रेरणा है, जिस परसे केशवयर्णि ने संस्कृत टोका | से की थी। इन का बना हुआ. प्रसिद्ध | बनाई है। इस से मालूम होता है कि ! प्रन्थ त्रिषष्ठिलक्षण महापुराण या चामुं| चामुंडराय केवल शरवीर राजनीलिश और डराय पुराण है ।समें चौसों तीर्थः | कवि ही नहीं थे, किन्तु जैनसिद्धान्त के करों का पात्र है। इस के प्रारम्भ में भी बड़े भारी पंडित थे । ( पीछे देखो लिखा है कि इस चरित्र को पहिले | शब्द “अजितसेन आचार्य' ५० १८८ ) | "कूचिमन्दि मुनीश्वर,
( क. १७) तत्पश्चात् कवि परमेश्वर और तत्पश्चात् जिनसेन व गुणभद्र स्वामी, इस प्रकार पर- नोट-चाउराय का विशेष चरित्र म्परा से कहते आये हैं, और उन्हीं के आदि जानने के लिये शेषो संस्कृत छन्दोवद्ध अनुसार मैं भी कहता हूं। मंगलाचरण में | 'भुजबल चरित्र' ( बाहुवलिचरित्र ) छन्द ६, गृद्ध पिच्छाचार्य से लेकर अजितसेन ११, २८, ४३, ५५, ६१, ६२, ६३, आदि पर्यन्त आचार्यों की स्तुति की है और और गोम्मटसार कर्मकांड की अन्तिम ७ अन्त में श्रु तवली, दशपूर्वधर, एका- गाथा ९६६ से ९७२ तक, जिन का सारांश व
दशांगधर, आचारांगधर, पूर्वांगदेशधर के भावार्थ अन्य कई आवश्यकीय सूचनाओं ENNह कर अहधलि, माघनन्दि, भूत- सहित श्री वृ० द्रव्य संग्रह की विद्वद्वर पं० प्रवी-2 . अप्पदंत, श्यामकुंडाचार्य, तुम्बुलरा- जवाहर लाल जी अत टीका की प्रस्तावना
चार्य, समन्तभद्र, शुभनन्दि, रविनन्दि, | में भी पृ० १ से ७ तक दिया है।
इति बुलन्दशहर नगर निवासि श्रीयुत लाला देवीदासात्मज मास्टर बिहारीलाल
चैतन्य विरचित हिन्दी साहित्याभिधानान्तर्गत प्रथमावयवे
श्री बृहत् जैनशब्दार्णवे प्रथमो खण्डः
.. ॥ इतिशुभम् ॥
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शुद्धिपत्र (कोष के प्रारम्भिक भाग का) | शुद्धिपत्र (कोष के मन भागे का)। MEER अशुद्ध शुद्धE E अशुद्ध शुन्न
कालम
अशुद्ध
शुद्ध
पंक्ति
अशुद्ध
शुद्ध
-
३.४।४ बाएँ
दाएँ
। २।१६ वश्वानर ७४।२३. आवश्कीय आवश्यकीय
२१।३० अर्व १२।।२७ चेनतआर्यवशां चेतनआर्यक
८फु.नो.18 (४८८ ५७) राज) तीसहितजो यह शांतियुत,जेनरते
हा२।२८
. तो १४।४।१ ज़नाना जमाना
१३४ ददुग: दन्तिदुर्ग १४।४।१६ आसार असार
१६I X ककगुज ककराज . १५।४।१५ तरगं
तरंग २३॥३॥
नेम २५।४।५ ज्योषि
ज्योतिष
२६।१।३० अधित हितशत्रु २६।४।६ Treasuries , Treasures २७११।२८ अक्षयपरिवर्तन, अक्षपनि REIX 139 Propagate propagate २८॥१ ३८॥३॥२२ अंगुष्ट अंगुष्ठ २८।२।१७ सिरिता सिद्धाश ३८।३।२३ ,
३०१२।३३ क्षे. ३८।३।२४ ,
३१।१।१६ प्रचीन प्राचीन - ३८।३।२५ ,
३२।२।१० हैं। उनके हैं उनके ३६।४।२३ अजीव प्राव अजीवप्रा
४१।२।३६ अक्षरमाला अक्षरमातृका शिका. शिकी
४३।१।२८ अक्षीरमधु- अक्षीरमधु४२।१।२ . '५५।२ ५५।१
सपिक .. सर्पिष्क ४२।१।१६ ४५४८१६४ ४५४९१६४ ४३३२।३७ धति
धति
और बल ४२।१।१७
और
४६२।१६ २२२।२ २२३१२
४७११११६ (७-११) रक्तपदा (७-११) पंच ४२१:१९ २५३११,२ २५३११ ४२१११२४ अन्वय दृष्टान्त अन्वय दृष्टान्ता.
भास . ५१।२६,७ और पृ० १३,१४ ४२११४३३. ६६२ ७०११ ४२।२।१६ २२१
५३।२।२९ (कठूमरफल, कठूमरफुल) ४२।२।३१ अष्ट उपाम अष्ट उपमा .
५४।२।हेडिंग अगुरुलत्वगुण गुरुलघुत्व । ४३।११५ १५८, १५८१
...५४|११ शास्त्रज्ञाव शास्त्रज्ञान ५३।१८ २७१ १२७१
1.५६।२।४ : (१) ४३।२।२२ ७१।१ ७६१
| ५६/२।३० सर्य
सूर्य ४३।२।२७ ४६१ २८१ |५७१।१२. आकर
आकार ४४।१।३१ उद्भव उद्धव
| ५६।३ अजी
आजी-, .
गुण
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( २८२ )
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.
PS अशुद्ध
कालम
शुद्ध
शुद्ध
पृष्ठ
कालम पंक्ति
अशुद्ध
अशुद्ध
शुद्ध
।
.
m
अंगुष्ठ
६०१११२ वर्ष
वर्ष
१०८।२।१७ का ६०१११३ किया किया)
११०।२।५ स्वस्थ्य
स्वस्थ ६९११.३२ कूटा कूटा(ऋजुकूला) | ११४।१।१३ या कोया को) या को याको) ६३।१।१३ प्राता
भ्राता ६५।२।२३ अन्त में अन्तमें दोनोहीने ६६।३ विमाम विमान
१२४।१।२५ सविस्तार, सविस्तार ६८।१।२२ स्वर्म स्वर्ग
१२७११२ सपश्च
पञ्च ६९।२।३१ अशद्ध. अशुद्ध १७।१११७ नरायण नारायण ७३।२।१ प्राभृत प्रभृत प्राभृत प्राभूत १२८१२।११ का पांचवां के पांचवें ७३।२१२ योग्यद्वार योगद्वार १३५।१६१,२,३अंगुष्ठ ७४।२।१५ श्री यतिकृपम श्रीयतिवृषभ १३७।१।३२ पर्वत पर्वत ७५।१।१५ इलोक श्लोक १३२।१।१ पाण्डुक-कँवला पाण्डु-कँवला ७पाश२१ ने रचा (यतिवृषभ)नेरया १४॥१॥३१ अप्रतिष्ठत अप्रतिष्ठित ७६।१।२१ इयादि इत्यादि १४७।१।२९ ईसी इसी ७६।१२ रहो
रहा
१४८।१।१२ मनुषयादि। मनुष्यादि ७६।१।३२ तिर्थव्य तिर्यञ्च १४८।२।२३ पन्तु
परन्तु ७६३१॥३४ स्थित स्थिति
१५१।२।२७ साध साधु ७२।२।१ स्थित३पल्योयम स्थिति ३पल्यो
१५६।१।६ रघ
रघ पम
१५६।१।१२ अरण्य अनरण्य 98।२।१७ स्थित स्थिति
१६०।२।८ ज ८०२।६ तिर्यज्ज तिर्यश्च
१६६।२।१ वर्ष ८२।२।२० (कषायरहित) (कषायसहित) १६६।३.१ वर्षसंख्या शासनकालवर्ष EE२१ पप्तम सप्तम
१६६।२।२. सन्तान सन्तान (महाभा९०११ कोटि, ९९ कोटि, 8
रत युद्ध के अन्तसे) लक्ष, १७१।१।२४ ष्टष्टिगोचर दृष्टिगोचर ९०२।१ धर्म
| १७३।११५ शनागार अनागार ३९।२।११ योयन . योजन
। १७३।२।- (सहस्राम) (सहस्रान) १०१११।२२ घ फुट घन फुट १७३फु.नो.१८असाधार असाधारण १०२।१।३२ आश्र्थोत्पादक आश्चर्योत्पादक | १७४।२।२५ शि वर शिरवर १०३।१।४ त्यादि इत्यादि १७६३१ पर्व १०३।२।२ तृतीत तृतीय ९७६३१५ राज्ययद राज्यपद १०।२६ या ७. ७
१७६।४।२ पूर्वधिदेह, क्षेत्र पूर्वविदेहक्षेत्र १०८।२।१० सू यांगुल सूच्यांगुल । १७६४।३ मुसीमा मुसीमा
-
जो
वंश .
धर्म
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पृष्ठ
कालम
पंक्ति
अशुद्ध
१८१२।१६ इसीके
१८४/२/१ तर्थङ्करो
१८६।२।३० 'शी
१८६११७ इड्ढि १६८२१५ कापिक
१६८/२/१६ समारम्भ
२०६/२/१६ स्वोमि
२१९/१/१२ सुप्रसिद्ध एक २९६| १ | १३ जैन लेखक
हाथरस निवासी
२२३।१।१९ भेदो
२३११ x | हेडिङ्ग अट्ठानवन
२३८।२।१ लक्षापवास
शुद्ध
इलाके जैसे
तीर्थङ्करो
वंशी
इड़ दि
कायिक
( २८३ }
समारम्भ
स्वामी
एक सुप्रसिद्ध
लेखक
भेद
अट्ठावन कक्षोपवास
५४
कालम पति
अशुद्ध
किसी
२४३/२/३४ किल २४७/१/१३ शरीराङ्गोपांगा- शरीराङ्गोपाङ्का
वलोन
२४८/२/१४ दर्शनेच्छोत्प
२४८|६|४ प्रेमीसत्का
२५१/२/३३ धूम्रकेतु
२५६।२।१८ भमि
२६३/९/४ विद्य
२६३/२।१७४
२७३/२/३ उष्णस्तिध
२७७/२/१४ aut
२७२/११४ कढ़ी
शुद्ध
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लोकम दर्शनेच्छोत्पा
प्रेमीसत्कार
धूम्रकेतु
भूमि
विद्य ु -
२०
उष्ण स्निग्ध
ant
कनड़ी
नोट - उपरोक्त अशुद्धियों के अतिरिक्त भी छपते समय प्रेस के दबाव में आकर किसी आगे पीछे की या ऊपर नीचे की मात्रा या अनुस्वार (बिन्दु) अथवा रेफाके टूट जानेसे कोई शब्द जहां कहीं अशुद्ध हो गया हो वहां पाठकमहोदय यथाआवश्यक शुद्ध करके पढ़े ॥
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(२४)
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स्वल्पार्घ ज्ञानरत्नमाला
नियम (१) इस माला के प्रत्येक रत्न का स्वल्प मूल्य रखना इसका मुख्य उद्देश्य है। (२) जो महानुभाव ॥-) प्रवेश शुल्क जमा कराकर माला से प्रकाशित होने वाले सर्व ग्रन्थ
रलों के अथवा १) जमा कराकर मन चाहे ग्रन्थ रत्नों के स्थायी प्राहक बन जाते हैं उन्हें
माला का प्रत्येक रत्न पौने मूल्य में ही दे दिया जाता है। (३) शानदानोत्साही महानुभावों को पब्लिक पुस्तकालयों या पाठशालाओं या विद्याप्रेमियों
आदि में धर्मार्थ बांटने के लिये किसी रत्नकी कम से कम १० प्रति लेने पर ), २५ प्रति पर ।), १०० प्रति पर =) और २५० प्रति पर ॥) प्रति पया कमीशन भी काट दिया जाता है।
माला में भाज तक प्रकाशित हुए ग्रन्थ रत्न १. प्रथमरत्न--"श्री वर्तमान चतुर्विशति जिन पंचकल्याणक पाठ" ( हिन्दी भाषा ) | यह पाठ काशी निवासी प्रसिद्ध कविवर घृन्दावन जी कृत उनके जीवनचरित, जन्मकुण्डली और वंशवृक्ष तथा उनके रचे अन्य सर्व प्रन्थों की सूची, प्रत्येक ग्रन्थ का विषय व रचना काल आदि सहित नवीन प्रकाशित हुआ है अर्थात् कविवर कृत "श्री चतुर्विंशति जिन पूजा" तो कई स्थानों से कई बार प्रकाशित हो चुकी है, किन्तु उनका "पंचकल्याणक पाठ" कल्याणक कम से आज तक अन्य किसी स्थान से भी प्रकाशित नहीं हुआ। इसमें न केवल २५ पूजाओं (समुच्चय चौबीसी पूजा सहित ) का संग्रह है परन् गर्भ आदि पांचों कल्याणको में से प्रत्येक कल्याणक सम्बन्धी चौबीसों तीर्थंकरों की चौबीस चौबीस पूजाओं और एक लमु. चय पूजा, एवं सर्व १२१ पूजाओं का संग्रह है। जिसमें सर्व १२१अष्टक,२४१ अर्घ और जयमालार्ध हैं। व उपयुक्त विशेषताओं के अतिरिक्त इस पाठ में यह भी एक मुख्य विशेषता है कि पंच कल्याणकों की कोई तिथि अन्य हिंदी भाषा चौबीसी पाठों को समान अशुद्ध नहीं है। सत्र तिथियों का मिलान संस्कृत चौबीसी पाठों तथा श्री आदिपुराण, उत्तरपुराण और हरिवंशपुराण से और ज्योतिषशास्त्र के नियमानुकूल गर्भादि के नक्षत्रों से भी भले प्रकार कर लिया गया है। और साथ ही में तीर्थंकर कम से तथा तिथि कम से दो प्रकार के शुद्ध पंचकल्याणक तिथि कोष्ठ भी नक्षत्रों सहित इस ग्रन्थरत्न में लगा दिये गये हैं। इन सर्व विशेष. ताओं पर भी नुछावर केवल |-)| सजिल्द की है। वी. पी. मँगाने से डाक व्यय एक प्रति पर I) और इससे अधिक हर एक प्रतिपर =) लगेगा । मालाके ११) शुल्क देने वाले स्थायी ग्राहकों को श्री मन्दिर जी के लिये १ प्रति बिना भूल्य ही केवल डाक व्यय लेकर ही दी जा सकती है। किसी अन्य ग्रन्थ के साथ मँगाने से उसका डाक व्यय केवल ॥ ही लगेगा।
२.द्वितीय रत्न-"श्री वृहत् जैन शब्दार्णव"--यही प्रन्थ है जो इस समय पाठकों के हस्तगत है।
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(२५)
३.तृतीय रत्न--"अग्रवाल इतिहास"-सूर्यवंशकी एक शाखा अग्रवंशका लगभग सात सहस्र (७००० ) वर्ष पूर्व से आज तक का कई प्रमाणिक जैन अजैन ग्रन्थों और पट्टावलियों के आधार पर लिखा गया सर्वांग पूर्ण और शिक्षाप्रद इतिहास । मूल्य =), लेखक के फोटो सहित )
४. चतरत्न-'संस्कृत-हिन्दीव्याकरण शब्दरत्नाकर" (संक्षिप्त पद्यरचना, काव्य रचना नाट्यकला और संगीतकला आदि सहित)-यह गन्थरत्न इसी 'श्री वृहत् जैन शब्दार्णव' के माननीय लेखक की लेखनी द्वारा लिखा गया है। यह अपने विषय और ढंग का सब से पहिला और अपूर्व गून्य है । इसी शब्दार्णव के जैसे बड़े बड़े ११६ पृष्टों में पूर्ण हुआ है। इस में जैनेन्द्र, शाकटायन, पाणिनी, सिद्धान्त कौमुदी आदि कई संस्कृत व्याकरण ग्रन्थों और बहुत से प्रसिद्ध और प्रमाणिक हिन्दी व्याकरण ग्रन्थों, तथा छन्दप्रभाकर, काव्यप्रभाकर, वाग्भटालंकर, नाट्यशास्त्र, संगीतसुदर्शन आदि कई छन्दोगन्थ, काव्यालंकार गन्थ, नाट्य व संगीत गून्थों में आये हिन्दी भाषा में प्रयुक्त होने वाले लगभग सर्व ही शब्दों की निर्दोष परिभाषा उदाहरण आदि सहित ऐसी उत्तम रीति से क्रमबद्ध दी गई है जिस की सहायता से व्याकरण के विद्यार्थी अपनी हिन्दी भाषा में इस एक ही गन्थ द्वारा अच्छा ज्ञान प्राप्त करके उपरोक्त विषयों सम्बन्धी परीक्षाओं में अधिक से अधिक उत्तम अंक प्राप्त कर सकेंगे।
अंगरेजी मिडिल या हाई स्कूलों तथा इन्टरमिडियेट कालिजों के संस्कृत व हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थी इस ले और भी अधिक लाभ उठा सकेंगे, क्योंकि इस ग्रन्थ में प्रारम्भ से अंत तक के सर्व लगभग १००० (एक सहस्र) पारिभाषिक शब्दों के अङ्गरेज़ी पारिभा षिक शब्द ( पर्याय वाची शब्द ) अङ्गरेज़ी अक्षरों ही में प्रत्येक शब्द के साथ दे दिये गये हैं।
भाषा और उसके भेद,व्याकरण और उसके भेद, अक्षरविचार और अक्षरभेद, लिपि और उसके पर्यायवाची अनेक नामादि, स्वर, व्यंजन, सन्धि, शब्दव उसकी जाति भेद, उपभेदादि, संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिवा व धातु आदि, अव्यय और इन सर्वके अनेक भेद उपभेद आदि, शब्दरूपान्तर-लिंग, वचन, कारक, पुरुष, विशेषणावस्था, वाच्य, काल, अर्थ या रीति, प्रयोग, कृदन्त,कालरचना आदि-समास और उसके अनेक भेद उपभेदादि,वाक्य में अन्वय, अधिकारादि व उसके अङ्ग प्रत्यंग आदि, वाक्य भेद-अर्थापेक्षा, वाच्यापेक्षा, रचनापेक्षा--,विरामचिह्न, हिन्दी में प्रयुक्त होने वाले अन्य अनेक चिह्न, छन्दरचना-छन्द, गति, | यति,पाद, दग्धाक्षर, गण आदि-काव्यरचना-काव्य,काव्यरस, काव्यगुण,काव्य दोष,काव्य रीति, काव्यालंकार, शब्दालंकार, अर्थालङ्कार, उभयालङ्कार और इन सब के लगभग १२५ भेदोपभेदादि, न्यायालङ्कार और उसके ४५ भेद, नाटक सम्बन्धी ४० और संगीत में ६ राग, ३० रागणी, ३० रागपुत्र, ३० रागपुत्रवध इत्यादि, और ताल नृत्यादि के अनेक भेदोपभेद इत्यादि इस महान गन्धरत्न में हिन्दी साहित्य सम्बन्धी अनेक विषयों का समावेश है । बड़ी दृढ़ता और साहस के साथ कहा जा सकता है कि हिन्दी व्याकरण के अथवा संस्कृत या हिन्दी के साथ अंग्रेजी भाषा सीखने वाले विद्यार्थियों के लिये इतना महत्व पूर्ण और उपयोगी अन्यग्रन्थ आज तक एकभी नहीं लिखा गया। तिस पर भी मूल्य केवल १),सजिल्द १) स्व
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(२८६) रूपाधं शानरत्नमाला के स्थापी ग्राहकों को अर्द्ध मूल्य ही में । पब्लिक पुस्तकालयों को पौने मूल्य में । वी. पी. डाक व्यय एक प्रति का 45) और इससे अधिक प्रत्येक प्रति का डाक महसूल ) ग्राहकों को देना होगा।
५. पंचमरत्न-उपर्युक्त चारों ग्रन्थ रत्नों के सम्पादक महोदय का संक्षिप्त जीवनचरित्र, उनके रचे ५० से अधिक ग्रन्थों की सूची और उनमें से कुछ की गद्यात्मक और पद्यात्मक रचनाओं के नसूनों सहित । मूल्य =)| फोटो सहित )
६. षष्टमरत्न--श्री वृहत् “हिन्दी शब्दार्थ महासामर" ( प्रथमखंड)-यह ग्रन्थरत्न भी इसी श्री वृहत् जैन शब्दार्णव के माननीय लेखक की लेखनी द्वारा लिखा गया है। यह एक चतुर्भाषिक-या भाषाचतुष्क शब्द कोष है। हिन्दी भाषा में लिखे पढ़े और बोले जाने वाले लगमग सर्व ही विद्याओं, कलाओं या विषयों सम्बन्धी सर्व प्रकार के शब्दों के संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ो अक्षरों में अंग्रेज़ी पर्याय वाची शब्द और उनके अर्थ आदि दिये | गयेहैं। शह किस भाषाले हिन्दी में आयाई तथा उसका शब्द भेद और लिंग भी प्रत्येक शब्द के साथ देदिरे हैं। इन विशेग्ताओं अतिरिक्त इसका महत्व प्रगट करते हुए दावे के साथ कहा जा सकताहै कि हिन्दी में प्रयुक अधिक से अधिक जितने शब्दोंका संग्रह इस कोष गन्थ में किया गया है उतनों का संग्रह अन्य किसी भी हिन्दी कोष गन्थ में-कलकत्ते का विश्वकोष
hresthaedia Indica of Calcutta) और काशी नागरी प्रचारिणी सभा का द हीं हुआ । अर्थात् इस महान् कोषमै विश्वकोष और हिंदी शब्दसागर | के सर्व ही शब्दाकै अतिरिक्त हिन्दी में आने वाले अन्य सैकड़ों सहस्रों शब्द भी माननीय लेखक, ने रखकर हिन्दी संसार का महान् उपकार किया है। हाँ इतना अवश्य है कि इन उपर्युक्त दोनों वृहत् कोषों के समान इस “वृहत् हिन्दी शब्दार्थ महा सागर' में शब्दों की व्याख्या नहीं दी गई है इसी लिये यह गून्य रत्न साइना ( आकार और परिमाण ) में उनसे छोटा है। पर उपर्युक्त अपनी अन्य कई विषेषताओं में उनमें से प्रत्येक से अधिक महत्वपूर्ण है । प्रथम खंड लिखा जा चुका है और प्रेस को छपने के लिये दिया जा चुका है। आशा है कि छपकर ! मो शीघ्र ही तयार होजायगा । प्रथम खंड का मूल्य लग भग २) रहेगा। _ नोट--इस वृहत्जैन शब्दार्णव के लेखक महोदय रचित,अनुवादित व प्रकाशित हिन्दी
अंग जी,अन्यान्य सर्व गन्थ भी जिनका संक्षिप्त विवरण पंचम रत्न में (जो इसी शब्दार्णव प्रारम्भ में जोड़ दिया गया है ) देदिया गया है नीचे लिखे पते पर माला के स्थायी गाहकों को माला के उपरोक नियमानुकूल मिल सकते हैं ।
...शान्तीशचन्द्र जैन, जर स्वल्पार्घज्ञानरत्नमाला,
बाराबंकी (अवध)
RomaARTANINGE R
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________________ -puspara PATI - -Pangene - T रत्नमाला . सर्व प्रधानों के मिलने का पता :-- (1) मनेजर गिर र पुश्तकार. तुरन (2) मनजर लगन्यानाकर काय 05 115 111 8. आई STAR - ST ज ना जनवार्ण प्रचारक के 1 र , मा 8) मन जर 'ग' पुस्तकमाजा, म 2014 31. सन्न ऊ ( are अनंत कुमार जैन, कीर , REAM / LADMRd. ने में 4 नर र वडा का LEn A n.iittees.. 220 Tarateiadioact For Personal & Private Use Only