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उत्थानिका (PREAMBLE)
* श्री जिनायनमः * बिध्न हरण मंगल करण, अजर अमर पद दाय । हाथ माथ धर ऋषभजिन, यजन करूँ शिरनाय ॥ १ ॥ रीझ रीझ पर वस्तु पै, निज सत् पद विसराय । लालन पालन तन मलिन, करत असत् अपनाय ॥२॥ शान्ति हेतु अब शान्ति जिन, बन्दू बारम्बार । चन्द्र प्रभू के पद कमल, नमू न शत बार ॥ ३॥ यती-पूज्य प्रभु नाम जप, साहस कीन गहीर । शब्दार्णव के तरण को, शरण लेय महाबीर ॥४॥ चन्द्रसूर्य निकसत मुदत, आय बीतत जाय । जिन पच रत मम चित रहै, प्रतिक्षण हे जिनराय ॥ ५॥
अनुपम, अगम, अगाध भाव जल राशि भस्यो है। शब्द अर्थ जल जन्तु आदि सो जटिल खरयो है॥ अलंकार व्याकरण तरंगन विकट करन्यो है। साहित-सागर अखिल नरन को कठिन परयो है ॥ 'चेतन' शब्दार्णव तरन, ग्रन्थ सुभग नौका अहै। भवि-समूह सेवन करै, अघस रतन अगणित लहै ॥
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पूर्वाचार्यों का मत है कि किसी प्रन्थ के लिखने में ग्रन्थलेखक ग्रन्थ निर्माण सम्बन्धी | “अनुबन्ध-चतुष्टय" और निम्न लिखित “षडाङ्गों" को भी प्रकट कर दे।
"मगल निमित्तंफलं परिमाणं नाम कर्तारमिति षडपिव्याकृत्याचार्याः पश्चाच्छास्त्रं व्याकुर्वतु ॥
__इति वचनात्
१. अनुबन्ध चतुष्टय १. अधिकारी-जैन साहित्य के सर्वोपयोगी अटूट भंडार से परिचित होकर लौकिक और लोकोत्तर ज्ञान प्राप्त करने और पारमार्थिक लाभ उठाने के इच्छुक महानुभाष | इसके पठन पाठन के मुख्याधिकारी हैं।
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