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________________ ( ८२ ) अघातियाकम वृहत् जैन शब्दार्णव अघातियाकर्म संहनन की धुंधती है । बामनसंस्थान और | कोटि से अधिक और एक कोटाकोटि से कीलक संहनन की १८ कोडाकोड़ी साग- कम) सागरोपम है। और मनुष्यगति और रोपम की; कुब्जक संस्थान और अई- मनुष्यगत्यानुपूर्वी की उत्कृष्ट स्थिति १५ नाराच संहनन की १६ कोडाकोड़ी साग- फोड़ाकोड़ी सागरोपम है । इस प्रकार रोपम को; स्वातिक संस्थान और नागच बंधयोग्य नामकर्म की सर्व ६७ प्रकृतियों का संहनन फी १४ कोड़ाकोड़ी सागरोपम की; | उत्कृष्ट स्थिति बन्ध है ॥ न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान और वजू- नोट३-शरीर नामकर्मकी पांच प्रकृतियों नाराच संहनन की १२ कोडाकोड़ी साग- में अपनी अपनी बंधन नामकर्म की ५ और रोपम की और समचतुरस्र संस्थान और संघात नामकर्मकी ५ एवम् १० प्रकृतियों वजूवृषभनाराव संहनन को १० कोटा का अविनाभाव है । तथा वर्ण, गन्ध, रस, कोटि सागरोपम की स्थिति बँधती है ।। | स्पर्श, इन ४ नामकर्म की पिंडप्रकृतियों के जाति नामकर्म में विकलत्रय (द्वीन्द्रिय, जो २० भेद हैं वह अभेदरूप बंध अपेक्षा श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) की और अपिंड ४ही गिनी जाती हैं । अतः बंधन और संघात प्रकृतियों में सूक्ष्म, अपर्याप्त और की १० और वर्णादि की यह १६ सर्व २६ साधारण, इन छह की १८ कोड़ाकोड़ी प्रकृतियाँ ९३ प्रकृतियों में से कम हो जाने से सागरोपम की; तिर्यञ्चगति, नरकगति. नामकर्म की बन्धयोग्य सर्व उपरोक्त ६७ तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, नरकगत्यानुपूर्वी, तैजस- प्रकृतियां ही होती हैं । शरीर, कार्माणशरीर, औदारिकशरीर, नोट ४-नामकर्म की सर्व बन्धयोग्य | वैक्रियिकशरीर, औदारिकअङ्गोपांग, वैकि- ६७ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यथा यिकमगोपांम, आतप, उद्योत, प्रस, स्थूल सम्भव उत्कृष्ट संक्लेश (कषायोहित ) परिणा(बादर), पर्यात, प्रत्येक, वर्ण ५, रस ५, मो से और जघन्य स्थितियन्ध जघन्य संक्लेश गंध २, स्पर्श =, अगुरलघ, उपघात, परघात, परिणामों से होता है। उच्छ्वास, एकेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, निर्माण, नोट:-नामकर्म की बन्धयोग्य ६७ | स्थावर, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर, प्रकृतियों में से आहारकशरीर, आहारकअशुभ, दुर्भा. दु स्वर, अनादेय,अयशःकीर्ति, अङ्गोपांग, और तीर्थङ्करत्व इन ३ प्रकृतियों की इन ३५ प्रतियों की उत्कृष्ट स्थिति २० उत्कृष्टस्थिति केवल सम्यग्दृष्टी जीव ही बाँधकोडाकोड़ी सागरोपम की बंधती है। स्थिर, ता है। शेष ६४ प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति, | मिथ्यादृष्टी जीव बांधता है ॥ प्रशस्तविहायोगति, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, नोट ६-आहारकशरीर और आहाइन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति १० कोड़ा रकअङ्गोपांग, इन दो की उत्कृष्ट स्थिति ७ ।। कोड़ी सागरोपम है।आहारक शरीर,आहारक अप्रमत्त गुणस्थान वाला मनुष्य जो छठे गुणअलोपांग, तीर्थकरत्व, इन तीन प्रकृतियों की स्थान में उतरने को सन्मुख हो याँधता है। उत्कृष्ट स्थिति अन्तः कोड़ाकोड़ी ( एक | तीर्थकर नामक्रम की उत्कृष्ट स्थिति चौथे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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