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________________ ( ८१ ) अघातियाकर्म वृहत् जैन शब्दार्णव अघातियाकर्म ( = ) संहनन ६--वज़वृषभनाराच | ७वीं निर्माण प्रकृति के भी दो भेद(१) स्थानसंहनन, वजूनाराच संहनन, नाराच संहनन, | निर्माण और (२) प्रमाणनिर्माण माने जाते अर्द्धनाराव संहनन, कीलक संहनन, | हैं जिससे पिंडप्रकृतियों की संख्या १५ असंप्राप्तासृपाटिक संहनन, ॥ और अपिंडप्रकृतियों की २७ गिनी जाती है। (६) स्पर्श ८--कठोर, कोमल, गुरु | किसी किसी आचार्य ने निर्माण प्रकृतिको (धारी), लघु ( हलका ), रूक्ष, स्निग्ध, | पिंडप्रकृतियों में गिनाया है और विहायोशीत, उष्ण ॥ गति प्रकृति को जो उपयुक्त १४पिंड प्रकृतियों : . (१०) रस ५-तिक्त (चर्परा), कटु में गिनाई गई है अपिंड में गिनाया है, अर्थात् ( कड़वा ), कषायल, आम्ल ( खट्टा ), | निर्माण प्रकृति और विहायोगति प्रकृति को मधुर (मीठा)॥ परस्पर एक दूसरे के स्थान में परिवर्तित (११) गन्ध२-सुगन्ध, दुर्गन्ध ॥ | करके गिनाया है ॥ . (१२) वर्ण ५- कृष्ण (काला), नील, | चौदह पिंडप्रकृतियों में शरीर पिंडप्रकृति पीत, पद्म( लाळ ), शुक्ल (स्वेत)। के जो उपयुक्त ५ भेदहैं उनके निम्नलिखित (१३) आनुपूर्वी ४-नरकगत्यानुपूर्वी, | १० संयोगी भेद और हैं जिससे १४ पिंडतिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देव- प्रकृतियों के ६५ के स्थान में ७५ भेद हो गत्यानुपूर्वी ॥ जाते हैं:(१४) विहायोगति३-प्रशस्त विहायो- (१) औदारिकतैजस (२) औदारिकगति, अप्रशस्त विहायोगति ॥ . कार्माण (३) औदारिकतैजसकार्माण (४) अट्ठाईस अपिंड प्रकृतियां:-- वैक्रियिकजस (५) वैक्रियिककार्माण (६) (१) अगुरुङ (२) उपघात (३) परघात वैक्रियिकतैजसकार्माण (७) आहारकतैजस (४) आतप (५) उद्योत (६) उच्छ्वास (७) (E) आहारककार्माण (8) आहारकतैजसनिर्माण (८) प्रत्येक (E) साधारण (१०) कार्माण (१०) तैजसकार्माण ॥ प्रस (११) स्थावर (१२) सुभग (१३) दुर्भग | इस प्रकार नामकर्म की उपयुक्त ६३ (१४) सुस्वर (१५) दुःस्वर (१६) शुभ | प्रकृतियों में यह दश प्रकृतियां जोड़ देने से (१७) अशुभ (१८) सूक्ष्म (१६) स्थूल (२०) नामकर्म की सर्व ६३ प्रकृतियों के स्थानमें पर्याप्त (२१) अपर्याप्त (२२) स्थिर (२३), १०३ प्रकृतियां भी गिनी जाती हैं । अस्थिर (२४) आदेय (२५) अनादेय | नामकर्म की जधन्य स्थिति ८ मुहूर्त (२६) यशःीति, (२७) अयशःौति (२८) और उत्कृष्ट स्थिति ३० कोडाकोडी साग-1 तीर्थङ्कर ॥ रोपमकाल प्रमाण है। इस प्रकार नामकर्मकी उपयुक्त चौदह विशेष-नामकर्मकीजघन्य स्थिति केवल पिंडप्रकृतियों की ६५ प्रकृतियां और २८ | यशःकीर्ति की = मुहूर्त की १० चे सूक्ष्मअपिंड प्रकृतियां सर्व मिला कर ६३ | साम्पराय गुणस्थान ही में बँधती है । उ स्कृष्ट स्थिति २० कोड़ाकोड़ी सागरोपम की नोट२--इन २८ अपिंड प्रकृतियों में से | हुण्डक संस्थान और असंप्राप्तामृपाटिक प्रकृतियां हैं। - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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