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________________ ( १७१ ) अजित वृहत् जैन शब्दार्णव अजित (६) तारागण मंडित पूर्ण चन्द्रमण्डल। भर में आनन्द लहर विद्युत लहर की। (७) उदय होता हुआ सूर्य । समान फैल गई। (८) कमलपत्रों से ढके दो स्वर्ण कलश । ५. अपने अपने 'मति-शानावरण' और। (६) सरोवर में कल्लोल करती मछलियों का 'श्रु त-शानावरण' कमों के क्षयोपशमानुजोड़ा। सार मतिज्ञान और श्र तज्ञान, यह दो प्र(१०) स्वच्छ जल से भरा एक विस्तीर्ण कार के शान तो अरहन्तोव सिद्धों के अतिसरोवर। रिक्त प्रैलोवय के प्राणी मात्र को हर समय (११) जलचर जीवों सहित विशाल समुद्र । निरन्तर कुछ न कुछ प्राप्त हैं पर इस पवित्र (१२) रत्नजड़ित एक उतंग सिंहासन ! आत्मा को अपने अवधि शानावरण कर्म के (१३) आकाश में गमन करता एक रत्नमय क्षयोपशम से सुमतिज्ञान और सुश्रुतदेवधिमान । शान के अतिरिक्त तीसरा अनुगामी सु(१४) पृथ्वी से निकलता एक नागेन्द्र भवन । अवधिशान भी गर्भावस्था से ही प्राप्त था (१५) बहु मूल्य रत्नों की एक ऊँची राशि । जो साधारण मनुष्यों में से किसी किसी चलित अग्नि। को ही उग्रतपोबल से प्राप्त होता है । अतः इन १६ स्वप्नों के पश्चात् माता ने इस महान आत्मा को विद्याध्ययन या • अपने मुख मार्ग से एक स्वेत पन्धसिन्धुर किसी लौकिक या पारमार्थिक शिक्षा के (गन्ध युक्त हस्ती) को सूक्ष्म रूप में प्रवेश लिये किसी विद्या-गुरु की आवश्यक्ता करते देखा और फिर तुरन्त ही मिद्रा न हुई । खुल गई॥ ६. इनका दिव्य पवित्र भोजन-पान ४. गर्म में इस महान पवित्र आत्मा के | इतना विशुद्ध, सूक्ष्म, अल्प और अगर अवतीर्ण होने से षट माश पूर्व ही से म- (हल्का) होता था जो पूर्ण रूप से शरी. हाराजा जितशत्रु'के नगर व राज भवन में राङ्ग बन जाता था. जिससे साधारण . दैववल से अनेक दिव्य शक्तियोंका प्रकाश प्राणियों की समान इन के शरीर में मल:दिव्य दृष्टि रखने वालों को प्रष्टिगोचर मूत्र और स्वेद (पसीना ) न बनता था होता रहा। इस दैवी चमत्कार से माता अर्थात् सम्पूर्ण भोज्य पदार्थ यथा आधके गर्भ का समय पूर्ण आनन्द और भगवद् | यक शरीर की सप्त धातुओं में परिवर्तित भक्ति व धर्मचर्चा में व्यतीत हुआ। प्रसव हो जाता था जिस से इन्हें मल मूत्र आदि के समय भी माता को किसी प्रकार का | किसी भी मैल-त्याग की आवश्यकता न कष्ट नहीं हुआ किन्तु उस महान आत्मा के पड़ती थी। पूर्ण पुन्योदय से क्षण भर के लिये संसार | (१६) निळून * आयु भर भोजन पान ग्रहण करते हुये मल मूत्र त्याग न करना यद्यपि एक आश्चर्य जनक और बड़ी ही अद्भुत बात तथापि सर्वथा असम्भव नहीं है। जब कि हम यह देखते है कि आज कल भी कोई २ साधारण मनुष्य कभी कभी और कहीं कहीं ऐसे दृष्टिगोचर होजाते है को दो चार आठ दिन, यो पक्ष दोपक्ष ही नहीं, दो चार मास या केवल वर्ष दो वर्ष नहीं, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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