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________________ (. १०९ ) अङ्कविद्या वृहत् जैन शब्दार्णव अङ्कविद्या जगच्छ्रणी कहते हैं । घनांगुल के प्रदेशों की न्यमान १ प्रदेश है। आकाश के जितने क्षेत्र संख्या का अद्धापल्य की अर्द्धच्छेदों की संख्या को एक परमाणु घरे उतने अत्यन्त सूक्ष्मशेष के असंख्यातवें भागप्रमाण 'बल' (घात ) | को प्रदेश' कहते हैं । पुद्गलद्रव्य का ऐसा लेने से, अर्थात् घनांगुल के प्रदेशों की संख्या। छोटे से छोटा अंश जिसको कोई तीक्ष्ण से को अद्धापल्य की अर्द्धच्छेदसंख्या के असं- तीक्ष्ण शस्त्र या जल या अग्नि अथवा संसार ख्यातवें भाग प्रमाण स्थानों में रखकर परस्पर | भर की कोई प्राकृतिकशक्ति भी दो खंडों में गुणन करने से जितनी संख्या प्राप्त हो उतने विभाजित न कर सके उसे 'परमाणु कहते प्रदेश एक जगच्छणीप्रमाण लम्बाई में स- हैं। ऐसे अनन्तानन्त परमाणुओं का समूह मागे । अतः इस संख्या को "जगत्श्रेणी- रूप स्कन्ध एक “अवसन्नासन्न" नामक उपमालोकोत्तरमान" कहते हैं । स्कन्ध है। = अवसन्नासन्न का १ सन्नासन्न । [७] जगत्पतर–जगच्छ्णी के वर्ग ८ सन्नासना का १ तृटरेणु को, अर्थात् ७ राजू लम्बे, ७ राजू चौड़े धरा. - तृटरेणु का १ त्रसरेणु तक क्षेत्र को ( जिसकी मुटाई नाममात्र केवल ८ त्रसरेणु का १ रथरेणु १ प्रदेश हो ) "जगत्प्रतर'' कहते हैं । इसके ८ रथरेणु का १ उत्तम भोग भूमिया मेढ़ का प्रदेशों की संख्या 'जगच्छ्रेणी' के प्रदेशों की | बालाग्र संख्या के वर्गप्रमाण है । अतः इस संख्या | । इस सख्या = उत्तम भोगभूमिया मेढ़े के बालान का | प्रमाण राशि को “जगत्प्रतरउपमालोकोत्तर- | १ मध्यम भोगभूमिया का बालान मान" कहते हैं । ८ मध्यम भोगभूमिया के बालाग्र का ८] जगत्घन या लोक-जगच्छृणी १ जघन्य भोग भूमिया का बालान। के घन को, अर्थात् ७ राजू लम्बे,७ राजू चौड़े ८ जघन्य भोग भूमिया के बालागू का | और ७ राजू मोटे घनक्षेत्र को 'जगत्धन' कहते १ कर्म भूमिया का बालागू । हैं। इतना ही अर्थात् ७ राजू का घन ३४३ | ८ कर्म भूमिया के बालागू की १ लीख । घनराजू सर्व लोकाकाश या त्रिलोकरचना का | = लीख की मुटाई की १ सरसों या ज। घनफल ( खातफल ) है । अतः 'जगत्धन' को ८ सरसों की मुटाई की १ जौ (यव) के 'घनलोक' या 'लोक' भी कहते हैं । इसके मध्य भाग की मुटाई। प्रदेशों की संख्या जगच्छ्रेणी के प्रदेशों की = जौ की मुटाई का १ अगुल ( १ उत्सेधासंख्या के घनप्रमाण है। अतः इस संख्या गुल)। प्रमाण राशि को “जगत्यनउपमालोकोसर | ५०० उत्सेधाङ्गुल का १ प्रमाणागुल । मान" कहते हैं ॥ ... ६ उत्लेधाङ्गुल लम्बाई का १ पाद । ( उपर्युक्त अन्तिम तीनो प्रकार के २ पाद लम्बाई की १ वितस्ति (बालिश्त )। मान नियत करने में 'लोक' या जगत् से उ- | २ बितस्ति लम्बाई का १ हस्त । पमा दी गई है)। २ हस्त लम्बाई का१बीख, या किकु (गज) नोट ७-'क्षेत्रलोकोत्तरमान' का जघ- | २ बीख लम्बाई का १ धनुष या दंड । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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