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________________ ( १०८ ) अविद्या वृहत् जैन शब्दाणव अङ्कविद्या काल का १ 'उद्धारसागरोपमकाल' ॥ आकाशप्रदेश एक 'सूच्यांगुल' लम्बाई में ३. दश कोडाकोड़ी अद्धापल्योपम- समादेंगे। काल का १ 'अद्धासागरोपमकाल'॥ . ( किसी संख्या को जितनी बार 'सागर' शब्द का अर्थ है समुद्र । अतः आधा करते करते १ शेष रहे उसे उस मूलवह परिमाण जो किसी सागर ( समुद्र ) वि. संख्या की 'अर्द्धच्छेदसंख्या' कहते हैं । जैसे शेष की उपमा रखता हो उसे 'सागरउपमा १२८ का पहिला अर्द्ध ६४. दूसरा ३२, तीलोकोत्तरमान' या 'सागरोपममान' कहते हैं। सरा १६, चौथा ८, पांचवां ४, छटा २ और यहां इस मान को जिस सागर से उपमा दे सातवाँ १ है, अतः १२८ के अर्द्धच्छेदों की कर इसका परिमाण नियत किया गया है वह संख्या ७ है)। देखो शब्द 'अर्द्धच्छेद' । 'लवणसमुद्र' है जिसके छठे भागाधिक चौ- [४] प्रतरांगुल-सूच्यांगुल के बर्ग गुणे की बराबर उसका परिमाण है, अर्थात् को, अर्थात् एक प्रमाणांगुल लम्बे, एक प्र-1 'लवणसमुद्र' के छटे भागाधिक चतुर्गुणे स- माणांगुल चौड़े और एक प्रदेशमात्र भोटे मुद्र का परिमाण या घनफल ( खातफल ) क्षेत्र को 'प्रतगंगुल' कहते हैं। 'प्रतरांगुल' ! उपयुक्त 'पल्य' के परिमाण या घनफल केवल लम्बाई चौड़ाई (धरातल ) का एक ( खातफल ) से पूरा दश कोडाकोड़ी गुणा 'मान' है जिसकी मुटाई नाममात्र केवल एक ही है॥ | प्रदेश है । इस धरातलक्षेत्र में उपयुक्त सूच्यां[३] सूच्यांगुल-एक प्रमाणांगुल गुल के प्रदेशों की संख्या के घर्गप्रमाण प्रदेश | (यच की मध्यमुटाई का १ उत्सेधांगुल और समावेगे । अतः इस वर्गप्रमाण संख्या को ५०० उत्सेधांगुल का १ प्रमाणांगुल-भरत 'प्रतरांगुलउपमालोकोत्तरमान' कहते हैं ॥ । चक्रवती का अंगुल ) लम्बे, एक प्रदेश चौड़े ५] घनांगुल-सूच्यांगुल के घन और १ प्रदेश मोटे क्षेत्र को १ "सूच्यांगुल" | को, अर्थात् एक प्रमाणांगुल लम्बो, इतने ही। कहते हैं, अर्थात् सूच्यांगुल केवल लम्बाई चौड़े और इतने ही मोटे क्षेत्र को 'घनांगुल' (रेखा ) भाप का एक 'मान' है जिसकी कहते हैं । इसमें उपयुक्त सून्यांगुल के प्रचौडाई मोटाई नाममात्र १ प्रदेश है। इस ल- देशों की संख्या के घनप्रमाण प्रदेश समावेंगे। स्वाई में जितने आकाशप्रदेश समागे उतनी अतः इस घनप्रमाण संख्या को घनाल | संख्या को "सूयांगुलउपमालोकोत्तरमान' उपमालोकोत्तरमान' कहते हैं । कहते हैं। (उपर्युक्त अन्तिम तीनों प्रकार के | | 'मान' नियत करने में भरतचक्रयों के अंगुल अद्धापल्योपमकाल के जितने समय हैं उनकी संख्या का उनके अर्द्धग्छेदों की को उपमा में ग्रहण किया गया है ) ॥ संख्याप्रमाण 'बल' (धात) लेने से (अद्धापल्य [६] जगच्छ्रेणी ( जगत्श्रेणी)के समयों की संख्या को उसके अर्द्धच्छेदों की लोकाकाश की अर्द्ध उँचाई को, अर्थात् ७ ॥ संख्याप्रमाण स्थानों में रख कर परस्पर उन्हें | राजू लम्बी रेखा को (जिसकी चौड़ाई और | गुणन करने से) जितनी संख्या प्राप्त हो उतने | मुटाई नाम मात्र केवल एक प्रदेश हो)। www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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