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________________ - - ( १०७ ) अङ्कविद्या वृहत् जैन शब्दार्णव अङ्कविद्या योजन या महायोजन २००० क्रोश का नितान्त असम्भव है। इसी लिये यहां साहोता है) गहरा और इतने ही व्यास मान्यसंज्ञा 'असंख्यात' का प्रयोग किया गया वाला कंए के आकार का एक गोल है। यहां इस असंख्यात शब्द से इतना अगर्त ( गढ़ा ) खोद कर उसे उत्तमभोग वश्य जान लेना चाहिये कि यह संख्या जघन्य भमि के मेढे के बालानों से पूर्णठोस भरें। असंख्यात से अधिक और जघन्यपरीतानन्त ( इस बालाग्र का परिमाण जानने के लिये से कम है । इसकी ठीक २ संख्या प्रत्यक्षशान देखो अगला नोट ७)॥ ( अवधिशान, मनःपर्यशान और कैवल्यज्ञान) इस गढ़े में जितने बालाग्र या रोम गम्य ही है, परोक्षशान ( मतिज्ञान और श्र तसमागे उनकी संख्या गणितशास्त्र के नि- शान ) गम्य नहीं है ॥ यमानुसार गणित करने से ४१३४५२६३०३० इन उपयुक्त तीन प्रकार के पल्यों में ८२०३१७७७४६५१२१९२००००००००००००० से व्यवहारपल्य से तो संख्या या गणना ००००० (२७ अङ्क और १८ शन्य, सर्व ४५ बताने में, उद्धारपल्य से द्वीप या समुद्रों की अङ्कप्रमाण ) है ॥ संख्या बताने में और अद्धापल्य से कर्मों की इस गर्त के एक एक रोम को सौ सौ स्थिति आदि बताने में काम लिया जाता है। वर्ष में निकालने से जितने काल में वह गर्त यहां इतना जान लेना और भी आवरीता हो जाय उस काल को एक 'व्यवहार- श्यक है कि यह उपयुक कथन सामान्य है। पल्योपमकाल' कहते हैं । अतः इस 'व्यवहा- इसमें विशेष इतना है कि अद्धापल्य से जो रपल्योपमकाल' के वर्षों की संख्या उपयुक्त | कर्मों की स्थिति बताई जाती है उसमें आयुरोमों की संख्या से सौगुणी ४७ अङ्कप्र- कर्म के अतिरिक्त शेष सर्व कर्मों की बताई माण है। | जाती है। आयुकर्म की स्थिति और । उद्धारपल्य के रोमों की संख्या व्यवहार काल या उसके विभागों का परिमाण व्यवपल्य के रोमों की संख्या से और 'उद्धारप- हारपल्य * से बताया गया है। ल्योपमकाल' के वर्षों की संख्या 'व्यवहारप [२] सागर-यह भी पल्य की समान ल्योपमकाल' के वर्षों की संख्या से असंख्यात तीन प्रकार का होता है, अर्थात् (१) व्यवकोटि गुणी है और अद्धापल्य के रोमों की हारसागर (३) उद्धारसागर (३) अद्धासासख्या उद्धारपल्य के रोमों की संख्या से और | गर। इनमें से प्रत्येक का परिमाण निम्न 'भद्धापल्योपमकाल' के वर्षों की संख्या कित.. 'उद्धारपल्योपमकाल' के वर्षों की संख्या से १. दश कोडाकोड़ी (१० करोड़ का असंख्यात गुणी है ॥ करोड़ गुणा अर्थात् १ पद्म) व्यवहारपल्योयहां असंख्यात की संख्या 'मध्य- पमकाल का १ 'व्यवहारसागरोपमकाल' । असंख्यात' का कोई मुख्य भेद है जो कैवल्य- | २. दश कोडाकोड़ी उद्धारपल्योपमशान गम्य है । क्योंकि मध्यअसंख्यात के भेद - * कई आचार्यों की सम्मति में आइतने अधिक (असंख्यात) हैं कि उन सर्व यकर्म और कल्पकाल का परिमाण भी अद्धाकी अलग २ संज्ञा शब्दद्वारा नियत करना पल्य ही से है ॥ . । - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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