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________________ ( १०६ ) वृहत् जैन शब्दार्णव अङ्क विद्या नोट ४ - प्रकारान्तर से अलौकिक ग णित सम्बन्धी केवल दो ही मान अर्थात् (१) संख्या लोकोत्तरमान और (२) उपमालोको रमान कहे जा सकते हैं जिन में से पहिले में मुहूर्त्त प्रहर, इत्यादि ॥ (३) कालमान - विपल, पल, घटि, 'द्रव्यलोकोत्तरमान' और 'भाषलोकोत्तरमान' और दूसरे में 'काल लोकोत्तरमान' और 'क्षेत्रलोकोत्तरमान' गर्भित हैं ॥ (४) गणिमान - एक, दो, तीन आदि ॥ (५) तुलामान - चावल, रत्ती (चिमिटी), माशा, तोला, टंक, छँटाक, सेर आदि । अङ्कविद्या इकन्नी, तुअन्नी, रुपया, मुहर, इत्यादि ॥ (२) क्षेत्रमान - अंगुल, पाद वितस्ति, हस्त, बीख, धनुष योजन आदि व गट्ठा, जरीब, बिस्वा, बीघा आदि || (६) अनुमान - बूंद, चुल्लू, चम्मच, मुष्टी आदि ॥ इसी प्रकार अलौकिक या लोकोत्तर गणित के सहायक निम्न लिखित चार मान (परिमाण) हैं: - (१) द्रव्यलोकोत्तरमान (क) २१ भेद युक्त संख्या लोकोत्तर( देखो 'अङ्कगणना' शब्द ) ॥ ( ख ) = भेद युक्त उपमालोकोत्तरमान - १. पल्य, २. सागर, ३. सूच्यंगुल, ४. प्रतरांगुल, ५. घनांगुल, ६. जगच्छू णी, ७. जगत्प्रतर, ८. जगत्धन अर्थात् लोक । (देखो आगे नोट ६ ) ॥ मान (२) क्षेत्रलोकोत्तरमान - एक प्रदेश से लेकर लोक और अलोक के अनन्तानन्त प्रदेश समूह तक के सर्व भेद । (आगे देखो नोट७) । (३) काललोकोत्तरमान - एक समय से भूत, भविष्यत, वर्त्तमान, तीनों काल के अनन्तानन्त समय समूह तक के सर्व भेद । ( देखो आगे नोट ८ ) ॥ (४) भावलोकोत्तरमान - सूक्ष्मनिगोदिया लब्धि अपर्याप्तक जीवका लब्धि अक्षरज्ञान अर्थात् शक्तिके एक अविभाग प्रतिच्छेद | से पूर्णशक्ति 'केवलज्ञान' तक के सर्व भेद ॥ Jain Education International नोट ५ - संख्या लोकोत्तरमान के अन्तगत २१ प्रकार की लोकोत्तरअङ्कगणना ( देखो शब्द 'अङ्कगणना' ) के अतिरिक्त निम्न लिखित १४ धारा भी हैं: (१) सर्वधारा (२) समधारा (३) वि. मधारा (४) कृत्तिधारा या वर्गधारा (५) अकृतिधारा या अवर्गधारा (६) घनधारा (७) अघनधारा (८) कृत्तिमातृकधारा या वर्गमातृकवारा (९) अकृतिमातृकधारा या अवर्गमातृकधारा (१०) घनमातृकधारा (११) अघनमातृकधारा (१) द्विरुपवर्गधारा या द्विरूपकृतिधारा (१३) द्विरूपघनधारा (१४) द्वि रूपघनाघनधारा । स्थान ( इन में से प्रत्येक का स्वरूपादि यथा प्रत्येक शब्द के साथ देखें ) ॥ नोट ६ - उपमालोकोत्तरमान --- इसके निम्न लिखित ८ भेद हैं:-- [१] पल्य-पल्य शब्द का अर्थ है 'खलियान', 'खत्ता' या 'गढ़ा' जिसमें अनाज भरा जाता है । अतः वह परिमाण जो किसी पल्य विशेष की उपमा से नियत किया गया हो उसे 'पल्यउपमालोकोत्तरमान' या 'पल्योपमान' कहते हैं । पल्य के ३ भेद हैं- (१) व्यवहारपल्य (२) उद्धारपल्य (३) अड्डापत्य । इन में से प्रत्येक का स्वरूप निम्न लिखित है: एक प्रमाण योजन ( एक प्रमाण For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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