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________________ अगीत ( ५४ > वृहत् जैन शब्दार्ण न अगीत शास्त्रार रहित, जिनवाणी ो न 'समझने वाला अ० मा० गीतार्थ अगी, अगत्य ) || अगुप्त - त्रिगुप्ति रहित; मनोगुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति, इन तीनों या कोई एक गुप्ति रहित पुरुष, मन बचन काय को दोषों से रक्षित या अपने वश में न रखने वाला, अरक्षित; जो गुप्त अर्थात् छिपा हुआ न हो, प्रत्यक्ष ॥ गुप्तभय - प्रत्यक्ष भय; प्रकट भय; वह भय जो गुप्त अर्थात् छिपा नहो; सात प्रकारके भयों में से एक छठे प्रकार के भय का नाम जिसमें धन माल के लुटने या चोरी जाने आदि का भय रहता है। ( पीछे देखो शब्द "अकस्मात भय” नोटों सहित पृ० १३ ) ॥ अगुप्ति - त्रिगुप्ति रहित पना, त्रिगुप्तिका अभाव ॥ अगुरु-गुरुतारहित, भारीपनरहित, हलका गौरवशून्य; गुरुरहित, बिन उपदेशक; अगरु चन्दन, कालागरु; शीशम; लघुवर्ण, वह वर्ण या अक्षर जो अनुस्वार विसर्ग यादीर्घस्वर से युक्त, अथवा संयुक्त वर्ण से पूर्व न हो । अगुरुक - अगुरुलघु नामकर्म ( अ०मा० अगुरुअ ) ॥ अगुरुलघु - (१) गुरुता और लघुता रहित न भारी न हलका | ( २ ) नामकर्म की ४२ अथवा अवान्तर भेदों सहित १३ उत्तर प्रकृतियों में से एक प्रकृति का नाम जिसके उदय से किसी संसारी जीव का शरीर न अति भारी हो और न अति दलका हो । नोट- देखो शब्द "अघातिया कर्म" के अन्तर्गत " नामकर्म" । Jain Education International अगुरुलत्वघुगुण अगुरुलघुक-वे द्रव्य गुण, या पर्याय जिन में भारीपन या हलकापन नहीं है । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, काल, जीव यह ५ द्रव्य और चडफालियापुद्गल अर्थात् भाषा मन, और कर्म योग्य द्रव्य, भाव लेश्या, दृष्टि दर्शन, ज्ञान, अज्ञान, संज्ञा, मनोयोग, बचनयोग, साकार उपयोग, अनाकारउपयोग, यह सर्व अगुरुलघुक है । ( अ० मा० अगुरुलघुग, अगुरुलड्डु ) ॥ उपघात: अगुरुलघु चतुष्क- अगुरुलघु, परघात, उच्छ्रवास, यह ४ नामकर्म की प्रकृतियाँ | ( अ० मा० ) ॥ अगुरुलघुत्व - ( १ ) गुरुता और लघुता का अभाव, भारीपन और हलकेपन का न होना ॥ (२) सिद्धों अर्थात् कर्मबन्धरहित मुक्तात्माओं के मुख्य अष्टगुणों में से एक गुण जो गोत्र कर्म के नष्ट होने से प्रकट होता है ॥ नोट - सिद्धों के मुख्य अष्टगुण - ( १ ) क्षायिक सम्यक्त ( २ ) अनन्त दर्शन ( ३ ) अनन्तज्ञान (४) अमन्तवीर्य ( ५ ) सुक्ष्मत्व (६) अवगाहनत्व (७) अगुरुलघुत्व ( ८ ) अध्यावधित्व ॥ अगुरुलघुत्व गुण - पटद्रव्यों मेंसे हर द्रव्य के छह सामान्य गुणोंमें का वह सामान्य गुण या शक्ति जिस के निमित्त से हर द्रव्य का द्रव्यत्व बना रहता है अर्थात् एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप नहीं हो जाता और न एक दूसरे गुण रूप होता है और न द्वयं के अनन्त गुण कभी बिखर कर अलग होते हैं, अथवा जिसशक्ति के निमित्त से द्रव्यं की अनन्त शक्तियां एक पिंडरूप रहती है तथा एक शक्ति दूसरी शक्ति रूप नहीं परिणमन करती या एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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