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प्रविष्ट श्रुतज्ञान
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( १२० )
वृहत् जेन शब्दार्णव
( दश अङ्क प्रमाण ) मध्यम्पद हैं । एक मध्यम्पद १६३४८३०७८८८ ( ग्यारह अङ्क प्रमाण ) अपुनरुक्तअक्षर होते हैं:-- [१] आचाराङ्ग – यह अंग १८००० मध्यमपदों में है । इस में 'अमागारधर्म' अर्थात् मुनिधर्म के २८ मूलगुण, ८४ लक्षउत्तरगुण आदि समस्त आचरण का सविस्तार पूर्ण वर्णन है ॥
-यह अङ्ग ३६०००
[२] सूत्रकृताङ्गमध्यमपदों में है । इस में 'ज्ञानविनय' आदि परमागम की निर्विघ्न अध्ययनक्रिया का तथा प्रज्ञापना, कल्पाकल्प, छेदोपस्थापना आदि व्यवहारधर्म्मक्रिया का और स्वसमय, परसमय आदि का स्वरूप सूत्रों द्वारा सविस्तार वर्णित है ॥
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[३] स्थानाङ्ग- — यह अङ्ग ४२००० मध्यमपदों में है । इस में सर्व द्रव्यों के एक, दो, तीन, चार, पाँच इत्यादि असंख्य या अनन्त पर्यन्त जितने जितने विकल्प अनेक अपेक्षाओं या नयाँ उपनयों द्वारा हो सकते हैं उन सर्व विकल्पों का क्रम से एक एक स्थान बढ़ते हुये अलग अलग वर्णन है । यह 'अङ्ग' स्थानक्रम से निरूपण किये हुये सर्व द्रव्यों के एकादि अनेक विकल्पों या भेदों को बताने वाला एक प्रकार का " महानकोष" है । (देखो ग्रन्थ 'लघुस्थानाङ्गार्णवसार' ) ॥
[४] समवायाङ्ग -- यह १६४००० मध्यमपदों में है । इस में सम्पूर्ण द्रव्यों का वर्णन किसी अपेक्षा द्वारा परस्पर की समानता की मुख्यता से है। अर्थात् कौन कौन द्रव्य या पदार्थ किस २ द्रव्य या पदार्थ के साथ किन किन गुणों
अङ्गप्रविष्ट श्र ुतज्ञान
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या धर्मो में समानता रखता है, यह इस अङ्ग में वर्णित है। जैसे:
(क) द्रव्यतुल्यता-धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, लोकाकाश द्रव्य और एक जीव द्रव्य, ये प्रदेशों की संख्या में समान हैं ।
सामन्यतयः कर्मबन्ध की अपेक्षा सर्व संसारी जीव समान 111
बन्ध रहित होने की अपेक्षा सर्व सिद्धात्मा समान हैं ।
स्वाभाविक गुण अपेक्षा सर्व संसारी और सिद्ध जीव समान हैं | इत्यादि
(न) क्षेत्र तुल्यता-मध्यलोक में “अढाईद्वीप,” १६ स्वगों में से प्रथम स्वर्ग का 'ऋजुविमान', ७ नरकों में से प्रथम नरक के प्रथम पाथड़े का " सीमन्तक" इन्द्रक बिल, मुक्तशिला या सिद्ध क्षेत्र, यह सर्व क्षेत्र विस्तार में समान हैं ॥
सातवें नरक का अवधस्थान'" या "अप्रतिष्ठितस्थान' नामक इन्द्रकविल, जम्बूद्वीप और "सर्वार्थ सिद्धि" विमान, यहभी विस्तार में समान हैं ॥
मध्य के सुदर्शन मेरु को छोड़कर शेष चारों मेरु ऊँचाई में समान हैं ॥ इत्यादि
(ग) काल तुल्यता- उत्सर्पिणी काल और अप सर्पिणी काल, यह दौनों काल मर्यादा में समान हैं ॥
प्रथम नरक के नारकियों, भवनवासी और व्यन्तर देवों की जघन्य आयु समान है ॥
सप्तम नरक और सर्वार्थ सिद्धि की उ त्कृष्ट आयु समान हैं ।
उत्कृष्ट तथा जघन्य आयु स्थिति की
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