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( १३० ) अङ्गवाह्य श्रु तज्ञान वृहत् जैन शब्दाच
अङ्गवाह्य व तज्ञान श्रत शान के दो विभागों (अङ्गप्रविष्ट और चातुर्मासिक (५) साम्वत्सरिक (६) ऐर्याअनचाह्य) में से दूसरा विभाग।
पथिक और (७) उत्तमार्थ, इन सात प्र( देवो शब्द 'अङ्गप्रविष्ट') कार के प्रतिक्रमण का भरत आदि क्षेत्र । पूर्ण अक्षरात्मक श्र त ज्ञान का यह दुःवमा सुवमादि काल, वजू वृषभ आदि विभाग स्नि लिखित २४ उपविभागों में संहनन, इत्यादि अपेक्षासहित निरूपण है। विभाजित है, जिन्हें २४ प्रकीर्णक इस लिये ५. वैनयिक-इस प्रकीर्णक में सकहते हैं कि यह पूर्ण 'अक्षरा मक श्रुत- म्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सझान' के एक कम एकट्ठी १८४४६७४४०- म्यक्तप, इन चार का विनय और पांग्वयां ७३७०६५५१६१५ अक्षरों में से बने हुए उपचार विनय, इन पञ्च प्रकार विनय का अंगप्रविष्ट या द्वादशांगके ११२८३५८००५ सविस्तार वर्णन है॥ . मध्यमपदों के अतिरिक्त जो एक मध्यमपद ६. कृतिकर्म-इस प्रकीर्णक में अर. से कम शेष अक्षर ८०१०८१७५ रह जाते हन्त, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय, साधु हैं अर्थात् जिन से पूरा एक मध्यमपद जो आदि नव-देव-वन्दना के लिये तीन शुद्धता, १६३४-३०७८== अक्षरों का होता है नहीं तीन प्रदक्षिणा, दो साष्टांग नमस्कार, चार बन सकता, उन्हीं शेष अक्षरों की संख्या- शिरोनत्ति, १२ आवर्त का, तथा देवपुजन, प्रमाण 'अंगवाह्य' के यह नीचे लिखे १४ गुरुवन्दन, त्रिकालसामायिक, शास्त्रस्थाप्रकीर्णक या १४ फुटकर विभाग है:-- ध्याय, दान, संयम, आदि सर्व नित्य
१. सामायिक-इस में सर्व प्रकार नैमित्तिक क्रियाओं के विधान का निरूके मिथ्यात्व और विषय कषायों से चित्त पण है। को हटाने के लिये नाम, स्थापना, द्रव्य, ७. दशकालिक-इस प्रकीर्णक में क्षेत्र, काल, भाव, इन छह भेदों युक्त 'सा- १० प्रकार के विशेष अवसरों पर जिस ! मायिकः का सविस्तार वर्णन है। प्रकार साधुओं को अपने आचार और
२. स्तवन-इस प्रकीर्णक में तीर्थंकरों आहार आदि की शुद्धता रखनी व के ५ कल्याणक, ३४ अतिशय, = प्राति श्यक है उस की विधि आदि का निरू-| हार्य, परमौदारिक दिव्य देर, समवशरण- पण है । सभा, धर्मोपदेश, इत्यादि तीर्थकरत्व की
८. उत्तराध्ययन-इस प्रकीर्णक में महिमा का प्रकाशनरू। स्तबन का निरू- चार प्रकार का उपसर्ग, २२ परीषह आदि पण है॥
सहन करने का विधान और उन के फल ३. बन्दना-इस में किसी एक तीर्थ- का तथा श्री महावीर स्वामी के उपसर्ग ङ्कर के अवलम्बन कर चैत्यालय, प्रतिमा सहन और परीषहजय और मोक्षगमन आदि की स्तुति का निरूपण है ॥ का सविस्तार निरूपण है ॥ . ४. प्रतिक्रमण--इस में पूर्वकृत् प्र- ___६. कल्पव्यवहार-इस प्रकीर्णक में | माद घश लगे दोषों के निराकरणार्थ (१): मुनीश्वरों के योग्य आचरण का विधान देवसिक (२) रात्रिक (३) पाक्षिक (४) और अयोग्य सेवन से लगे दोषों को दूर
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