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________________ हैं ( १२६ ) अङ्गरक्षक वृहत् जैन शब्दार्णव अङ्गवाह्य श्रु तशान रचयिता विक्रम की ११वीं शताब्दी के श्री में २००००० (७) नवम दशम में १६०००० 'शुभचन्द्र' आचार्य से तथा इन से पीछे (0) एकादशम् द्वादशम् में १२०००0 (8) विक्रम सं० १४५० में हुए इसो नाम के एक त्रयोदशम्. चतुर्दशम्, पञ्चदशम और षोड़-1 'अग्रवाल' जाति के भट्टारक से अङ्गप्रशप्ति | शम, इन ४ स्वर्गों में 20000, एवम् १६ के रचयिता श्री शुभचन्द्राचार्य भिन्न थे ॥ स्वर्गों में सर्व अङ्गरक्षक देव२०२४००० हैं। नोट २--श्री शुभचन्द्र नाम से प्रसिद्ध (त्रि० ग० ४६४)। कई आचार्यों और भट्टारको का समय या दश भवनवासी देवों के २० इन्द्रों में (१) उन की ग्रन्थ रचनादि जानने के लिये देखो चमरेन्द्र के अङ्गरक्षक देव २५६००० (२) ग्रन्थ 'वृहत् विश्व धरितार्णव' ॥ धैरोचन के २४०००० (३) भूतानन्द के २२४ भङ्गरक्षक-शरीर की रक्षा करने वाला ॥ 000 और (४) शेष १७ इन्द्रों के २०००००, कल्पवासी, ज्योतिषी, भवनवासी | एवम् सर्व ९२०००० हैं ॥ और व्यन्तर, इन चारों निकाय के देवों में (त्रि० गा०२२७,२२८ )। से एक विशेष प्रकार के देव जो राजा के ___ अष्ट व्यन्तर देवों के १६ इन्द्रों में से प्रत्येक अङ्गरक्षकों की समान प्रत्येक इन्द्र के अङ्ग | के अङ्गरक्षक देव १६०००, एवम् सर्व २५६००० रक्षक ( तनुरक्षक, आत्मरक्षक ) होते हैं । . नोट १--कल्पवासी अर्थात् १६ स्वर्ग (त्रि० गा० २७९ )। वासी देवों के और भवनवासी देवों के, पदवी की अपेक्षा (१) इन्द्र (२) प्रतीन्द्र (३) दिक्पाल ज्योतिषी देवों के २ इन्द्रों में से प्रत्येक के ( लोकपाल ) (४) त्रायत्रिंशत् (५) सामा १६००० एवम् सर्व ३२००० अङ्गरक्षक हैं। निक (६) अंगरक्षक (७) पारिषद (अन्तःप इन सर्व की आयु, काय, आवास आदि जानने के लिये देखो ग्रन्थ “त्रिलोकसार' रिषद या समिति, मध्यपरिषद या चन्द्रा, गाथा २४४, ५००, ५१८, ५३०, ५७५ ॥ वाह्यपरिषद या जतु ) (८) अनीक (६) प्रकीर्गक (१०) आभियोग्य (११) किल्विषिक, | अङ्गवती--चम्पापुरी के एक सेठ प्रियदत्त यह ११ भेद हैं । और व्यन्तर देवों और ज्यो- की सुशीला धर्मपत्नी । नारीरत्न धर्मपरायण तिथी देवों के भेद त्रायस्त्रिंशत् और लोक- सती “अनन्तमती" जिसने आजन्म कुमारी पाल, इन दो को छोड़ कर शेष ६ हैं ॥ . रहकर ब्रह्मचर्य व्रत का पूर्ण रीति से अखंड (त्रि० गा० २२३, २२४, २२)। पालन किया इसी महिला 'अंगवती" की नोट २--१६ कल्पों (स्वर्गों) और पुत्री थी॥ (देखो शब्द अनन्तमती')। भवत्रिक में अङ्गरक्षक देवों को संख्या निम्न अङ्गवाह्य--अङ्ग से बाहर, द्वादशाङ्ग प्रकार है:-- ___ (१) प्रथम स्वर्ग में ३३६००० (२) द्वितीय श्रु तज्ञान से बाहर, अक्षरात्मक श्रु तज्ञान के स्वर्ग में ३२०००० (३) त्रिीय में २८८००० दो मूल भेदों में से एक भेद जो १४ प्रकीर्णक (४) चतुर्थ में २८००००(५) पञ्चम षष्ठम नामक उपभेदों में विभाजित है युगल में २४०००० (६) सप्तम अष्टम युगल अङ्गवाह्य श्रुतज्ञान-पूर्ण अक्षरात्मक | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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