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________________ ( १८३ ) वृहत् जैन शब्दार्णव अजितञ्जय देवी' के गर्भ से 'श्री शान्तिनाथ' ने जन्म धारण किया 1 अजितञ्जय के गर्भ से जन्म लिया और मर कर अपने दुष्कर्मों के फल में 'रत्नप्रभा' नामक प्रथम नरकभूमि में जा जन्मा । वहां एक सागरोपम काल की आयु पाई ॥ (उत्तर पु० पर्व ७६ श्लोक ३९७-४००, ४१५) नोट २ - ' दुःखम' नामक वर्तमान पंचम काल के अन्त में २१वां अन्तिम कल्कि - राज अयोध्या में 'जलमन्थन' नामक होगा । उस समय श्री इन्द्रराज (चन्द्राचार्य) नामक आचार्य के शिष्य श्री वीराङ्गद ( वीरांगज ) नामक अन्तिम मुनि, सर्वश्री नामक अन्तिम आर्यिका अग्निल (अर्गिल) नामक अन्तिम श्रावक, और पंगुसेना ( फल्गुसेना ) नामक अन्तिम श्राविका अयोध्या के निकट बन में विद्यमान होंगे । यह चारों धर्मज्ञ महानुभाव पापी 'कल्किराज' के उपद्रव से ३ दिन तक संन्यास धारण कर श्री वीरनिर्वाण पूरे २१००० वर्ष पीछे ( जब पंचमकाल में ३ वर्ष ८॥ मास शेष रहेंगे) कार्त्तिक कृ० ३० (अमावस्या) के दिन पूर्वान्ह काल, स्वाति नक्षत्र मैं शरीर परित्याग कर सौधर्म नामक प्रथम स्वर्ग में जा जन्म लेंगे। वहां मुनि की आयु लगभग एक सागरोपम काल की और अन्य तीनों की आयु एक पल्योपम काल से कुछ अधिक होगी । और इस लिये इसी दिन पूर्वान्ह काल में इस भरतक्षेत्र में धर्म का नाश होगा । पश्चात् मध्यान्ह काल में उस अन्तिम राजा 'जलमन्थन' का नाश और अपरान्ह काल (सायंकाल ) में अग्नि (स्थूल अग्नि) का भी नाश ६२ सहस्र वर्ष के लिये हो जायगा, अर्थात् 'अतिदुःखम' (दुःषम दुःषम ) नामक छठे काल के २१ सहस्र वर्ष, फिर आगामी उत्सर्पिणी काल के 'अतिदुःखम' नामक प्रथम राजा 'शिशुपाल' की रानी 'पृथिवीसुन्दरी' | काल के २१ सहस्र वर्ष और फिर दुःखम ना ( आगे देखो शब्द 'अजित सेनचक्री' ) (६) 'चतुर्मुख' नामक प्रथम कल्की राजाका पुत्र भी 'अजितंजय' नामचारी था । 8 अपने अनाचार के कारण घमरेन्द्र के शस्त्र से जब पापी 'चतुर्मुख' ४० वर्ष राज्य भोग कर ७० वर्ष की वय में मारा गया तब यह 'अजितञ्जय' वीरनिर्वाण सं० १०७० में अपने पिता की गद्दी पर बैठा और 'चेलका' नामक अपनी स्त्री सहित जैनधर्म का पक्का श्रद्धानी हुआ । (देखो शब्द 'चतुर्मुख' ) ॥ ( त्रि० सार गा० ८५५, ८५६ ) नोट १ – इस चतुर्मुख नामक प्रथम कल्की राजा ने वीर नि० सं० १००० में (मधा नामक सम्वत्सर में) पाटलीपुत्र (पटना) के था ॥ ( पीछे देखो शब्द 'अइरा' ) (४) एक चारण ऋद्धिधारी मुनि का भी नाम 'अजितञ्जय' था, जिन्होंने हिमचान पर्वत पर एक सिंह को धर्मोपदेश देकर और उसे उसके पूर्व भवों का और उन पूर्व भवों में किये दुष्कर्मों आदि का स्मरण करा कर सुमार्ग के समुख किया जिसने क्रम से आत्मोन्नति करके और ग्यारहें जन्म में श्री महावीर तीर्थकर होकर निर्वाण पद प्राप्त किया ॥ ( पीछे देखो शब्द 'अग्निसह' ) (५) अलकादेश की राजधानी 'कौ शलापुरी' का राजा भो अजितंजय नाम से प्रसिद्ध था जो श्री चन्द्रप्रभ तीर्थङ्कर के पञ्चम पूर्वभवधारी अजितसेन चक्री का पिता था । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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