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________________ ( ६५ ) वृहत् जैन शब्दार्णव अग्निर समय १६ वें तीर्थङ्कर श्रीशान्तिनाथ से पूर्व का है । (देखो शब्द " कामदेव " ) अग्निर (अङ्गिर) - तीर्थङ्कर पदवी धारक म हान् पुरुषों की अतीत चौबीसी में से यह ९ वां तीर्थङ्कर पदवी धारक पुरुष था ॥ (देखो शब्द "अतीत तीर्थङ्कर" ) ॥ अग्निल (अर्गल ) - वर्तमान अवसर्पिणी काल के वर्त्तमान दुःखम काल नामक पञ्चम विभाग के अन्त में अब से लगभग साढ़े अठारह हज़ार (१८५०० ) वर्ष पश्चात् इस नाम का एक धर्मात्मा गृहस्थी उत्पन्न होगा और उस समय के " जलमन्थन" नामक कल्की राजा के उपद्रव से ३ दिनरात निराहार भगवद्भजन में बिताकर कार्त्तिक कृ०३० (अमावस्या ) वीर निर्वाण संवत् २१००० ( विक्रम सम्बत् २०५१२ ) के दिन पूर्वान्ह काल स्वाति नक्षत्र में शरीर परित्याग कर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक (स्वर्ग) में जा जन्म लेगा | Jain Education International अग्निवेग की अनुपस्थिति में "अक्षीण महानस् ऋद्धि" धारी श्री 'वरदत्त' नामक एक दिगम्बर मुनि को जो विचरते उधर आनिकले थे, नवधा भक्ति से निरन्तराय आहारदान देकर महान् पुण्यबंध किया । पतिदेव जो स्वभाव के क्रोधी थे, उसके इस कार्य से बहुत अप्रसन्न हुए । अतः वह धर्मज्ञ विदुषी बहुत ही अपमानित और तिरस्कृत होकर गिरिनगर के समीप के गिरिनार पर्वत पर उन ही 'श्रीवरदत्त' मुनि के पास शरीर भोगों से विरक्त हो आर्यिका ( साध्वी ) के व्रत धारण करने के विचार से अपने दो पुत्रों शुभङ्कर और प्रभङ्कर सहित पहुँची । परन्तु श्री गुरु ने इसे पति की आज्ञा बिना क्रोधवश आई जान तुरंत दीक्षा नहीं दी । पश्चात् पतिदेव के भय से यह पर्वत से गिर कर प्राण त्याग अष्ट प्रकारी - व्यन्तर जाति की देव योनि में यक्षिणी देवी हुई और दोनों पुत्र पिता की मृत्यु के पश्चात् जितेन्द्रिय दिगम्बरं मुनियों के पक्के श्रद्धालु और परम भक्त हो गए और अन्त में श्री कृष्णचन्द्र के ज्येष्ठ- पितृव्य“श्री नेमिनाथ" ( अरिष्टनेमि ) २२ वें पुत्र तीर्थङ्कर के समवशरण में जाकर दिगम्बर मुनि हो, उग्र तपश्चरण कर सर्वोत्कृष्ट सिद्धपद प्राप्त किया ॥ (देखो ग्र०वृ० वि० च० ) अग्निला - ( १ ) एक पुराण प्रसिद्ध अग्निभूति ब्राह्मण की धर्मपत्नी ( देखो यूर्वोक्त व्यक्ति "अग्निभूति" ) ॥ (२) सौराष्ट्र देश (गुजरात) के गिरिनगर में रहनेवाले एक "सोमशर्मा" नामक प्रसिद्ध धनी ब्राह्मण की धर्मपत्नी - यह 'अग्निला' ब्राह्मणी बड़ी धर्मात्मा, सुशीला, और दयालु हृदय थी । अतिथियों का सत्कार करना और विरक पुरुषों को पूज्य दृष्टि से देखना इस का स्वभाव था । यह नवम नारायण श्रीकृष्णचन्द्र के समय (देखो प्र० वृ० वि० च० ) अग्निवाहन (अग्निवेश्म ) -- भवनवासी देवों के अग्निकुमार नामक एक कुल के दो इन्द्रों में से एक इन्द्रको नाम । ( देखो शब्द "अग्निकुमार " ) ॥ में विद्यमान थी । इसने एक बार पति | अग्निवेग ( रश्मिवेग ) - श्री पार्श्वनाथ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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