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________________ ( ६२ ) अग्निभूति वृहत् जैन शब्दार्णव अग्निभूति (२) अग्निला ब्राह्मणी का पति- प्राप्त किया और अग्निमग्दिर" नामक इस अग्निमति की 'अग्निला" पत्नी से पर्वत से निर्वाण पद पापा ॥ उत्पन्न तीन पुत्रियां (१) धनश्री, सोम इस अग्निभूति ब्राह्मण का लघु भ्राता श्री ( मित्रश्री ) और नागधी इसकी वुआ (पितृस्वसू, पितृभगनी, पिता की बहन, 'चायुभूति' जिसने अपने परम उपकारी और विद्या-गुरु मातुल "सूर्य-मित्र" से फूफी ) केतीन पुत्रों (१) सोमदत्त ( २) दोष कर उदम्ब र कोढ़ से शरीर छोड़, तीन सोमिल और (३) सोमभूतिको चम्पापुरी में विवाहो गई थीं जो कई जन्मान्तरमें क्रम बार क्षुद्र पशु योनि धारण कर पांचवें जन्म में जन्मान्ध चाँडाल-पुत्री का जन्म से नकुल सहदेव और द्रोपदी हुई और पाया और जिसने इस पाँचवें जन्म में उनके पति सोमदत्त आदि कमसे युधिष्ठिर, अपने पूर्व जन्म के ज्येष्ठ भ्राता और परम भीम और अर्ज न हुए ॥ दयालु श्री “ अग्निभूति " मुनि से जो (३) कौशाम्बी नगरी (आज कल विचसे हुए इधर आ निकले थे धर्मोपदेश प्रयाग के पास उसके उत्तर-पश्चिम की सुन और मुनि के बताये हुए व्रतोपचास ओर ३० मील पर कोसम नाम की प्रसिद्ध को प्रहण कर मृत्यु सना शुभ ध्यान से नगरी) निवासी 'सोमशर्मा' नामक राजः शरीर छोड़ा, चम्पापुरी में "चन्द्रयाहन', पुरोहित का पुत्र-इस अग्निभूिन का एक राजा के पुरोहित "नागशर्मा' की "नागलघु भ्राता वायुभूति था। इस समय श्री'' नामक पुत्री हुई जिसने अपने पूर्व कौशाम्बी में राजा अतिबल का राज था जन्म के मातुल “ सूर्गमित्र मुनि" से इन दोनों भाइयों की माता "काश्यपी" धर्मोपदेश सुन, देहभोगों को क्षण स्थायी एक सुशीला और विदुषी स्त्री थी। दोनों और दुखदाई जान, गृहस्थधर्म से विरक्त भाइयों ने अपने मातुल (मामा) 'सूर्य हो आर्यका के व्रत ग्रहण कर लिये और मित्र' के पास मगध देश की राजधानी आयु के अन्त में धर्मध्यान पूर्वक शरीर राजगृह नगर में विद्याध्ययन कर के अपने परित्याग कर १६ दें देव लोक के उत्कृष्ट पिता के पश्चात् कौशाम्बी नरेशले राज सुष भोग अवन्ति देश की राजधानी पुरोहित पद पाया। अपने मातल "सूर्य उज्जैन नगरी में सुरेन्द्रदत्त" श्रेष्ठीकी यशोमित्र' के दिगम्बर मुनि हो जाने के पश्चात् भद्रा सेठानी के उदर से पुराण प्रसिद्ध यह ‘अग्निभति' भी अपने मामा के पास " सुकुमाल” नामक पुत्र हुआ । और ही इन्द्रिय भोगों से विरक्त हो पञ्चमहा- फिर इन्द्रिय-विषयों को विष तुल्य और व्रत धोरी, त्रयोदश चारित्र पालक और शारीरिक भोगों को रोग सम जाम, अष्टाविंशति मूलगुणसम्पन्न दिगम्बर | इनसे उदासीन हो, महावती संयमी बन, मुनि हो गया । तपोवल से वाराणसी शरीरत्याग, सर्वार्थसिद्धि पद पाया जहां (बनारस नगरी) के उद्यान में गुरु शिष्य का आध्यात्मिक सुख चिरकाल भोग अयोदोनों ही ने त्रैलोक्यव्यापी कैवल्यज्ञान ध्या में सुकौशल नामक राजपुत्र हो अपने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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