________________
-
अढ़ाईद्वीप पाठ वृहत् जैन शब्दार्णव
अढ़ाईद्वीप पाठ नोट ५-यह ३२ विदेहदेश "जम्बूद्वीप" | विदेह देशों में चन्द्रबाहु, मुजङ्गप्रभ, ईश्वर, के मध्य सुदर्शनमेरु सम्बन्धी हैं । इसी प्रकार नेमीश्वर, इन नामों के ४ तीर्थंकर और "धातकी द्वीप'' के विजय और अचल दोनों पांचवें विद्युन्मालीमेर सम्बन्धी ३२ विदेह मेरु और पुष्कराद्धद्वीप के मन्दर और विद्यु- देशों में वीरसेन, महाभद्र, देवयश, अजितन्माली दोनों मेरु, इन चारों में से प्रत्येक वीर्य, इन नामों के ४ तीर्थकर सदैव विद्यमेरु सम्बन्धी भी ३२, ३२ विदेह देश इन्हीं मान रहते हैं। और प्रत्येक देश में अलग २ नार्मों के हैं जिनकी राजधानियों के नाम एक एक तीर्थकर हो सकने से प्रत्येक मेरु
और उनका पारस्परिक विभाग आदि सब सम्बन्धी ३२, ३२ देशों में ३२, ३२ तीर्थकर रचना उपरोक्त कोष्ठ में दी हुई रचना की भी एक ही समय में होने की सम्भावना है। समान ही है। अतः पांचों मेरु सम्बन्धी सर्व | अर्थात् पांचों मेरु सम्बन्धी १६० विदेह देशों विदेहदेश ५ गुणित ३२ = १६० हैं ॥. में कम से कम तो उपरोक्त नाम के
सुदर्शनमेरु सम्बन्धी इन ३२ देशों में से २० तीर्थंकर और अधिक से अधिक इन "कच्छा" आदि ८ देशों में से किसी एक में २० और अन्यान्य नाम वाले १४० एवं सर्व "सीमन्धर" नाम के, 'वत्सा' आदि = देशों १६० तीर्थकर तक त्रिकाल में कभी न कभी में से किसी एक में “युगमन्धर" नाम के, युगपत् हो सकते हैं । पद्मा आदि आठ देशों में से किसी एक में उपर्युक्त १६० विदेह देशों में जिस प्र. "बाहु" नाम के और वप्रा आदि = देशों में कार कम से कम और अधिक से अधिक से किसी एक में “सुबाहु" नाम के कोई न १६० तीर्थकर युगपत कभी न कभी हो कोई पुण्याधिकारी महान पुरुष तीर्थंकर प. सकते हैं उसी प्रकार चक्रवर्ती या अर्द्ध दवी धारक सदैव विद्यमान रहते हैं । प्रत्येक चक्री (नारायण, प्रतिनारायण ) भी युगदेश में अलग अलग एक एक तीर्थकर हो पत कम से कम २० रहते हैं और अधिक से सकने से सर्व ३२ देशों में ३२ तीर्थकर भी अधिक १६० तक हो सकते हैं । एक ही समय में कभी हो सकते हैं । अर्थात् यदि अढ़ाईद्वीप के पांचों मेरु सम्बन्धी इन ३२ देशों में कम से कम उप-५ भरत और ५ ऐरावत के तीर्थकरादि भी रोक्त चार तीर्थकर और अधिक से अधिक गणना में लिये जायें तो अढ़ाईद्वीप भर में अ. उपरोक्त नामों के चार और अन्यान्य नामों के धिकसे अधिक तार्थंकर, और चक्री या अद्ध२८, एवं सर्व ३२ तीर्थंकर तक सुगपत् होने | चक्री में से प्रत्येक की उत्कृष्ट संख्या युगपत की सम्भावना है।
१७० तक हो सकती है। परन्तु जघन्य संख्या इसी प्रकार विजयमेरु सम्बन्धी ३२ वि- प्रत्येक की उपर्युक्त २० ही है क्योंकि भरत देह देशों में संयातक, स्वयम्प्रभ, ऋषभानन, | और ऐरावत क्षेत्रों में काल पलटते रहने से अनन्तवीर्य्य, इन नामों के चार तीर्थकर, तीर्थंकरादि एक एक भी सदैव विद्यमान अचलमेरु सम्बन्धी ३२ विदेह देशों में सूरः
| नहीं रहते ॥ प्रभ, विशालकीर्ति, वजूधर, चन्द्रानन, इन |
| (त्रि०६६५-६६६.६८१,६८७-६९०,७१२-७१५) नामों के ४ तीर्थकर, मन्दरमेरु सम्बन्धी ३२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org