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________________ ( ३१ ) को क्रमशः वर्तमान राष्ट्र तथा अपनी मातृ भाषा हिन्दी में लाने का सतत उद्योग करे।। राष्ट्रभाषा हिन्दी' द्वारा ही हमारा कल्याण होना संभव है अतः आज कल हिन्दी में बने हुए कोष ही हमारे ऋषि मुनियों के प्रगट किये हुये रहस्य को समझाने के लिये प्रशस्त मार्ग प्रस्तुत कर सकते हैं । इस प्रकार निर्मित किये गये कोषों द्वारा कितना आनन्द प्राप्त होगा, इस बात को सहृदय पाठक ही समझ सकते हैं । यह आनन्द बिहारी के इस दोहे-- रे गन्धी मति अन्ध तू, अतर सुघावत काहि । करि फुलेल को आचमन, मीठो कहत सराहि ॥ के अनुसार किसी मर्मशता विहीन व्यक्ति को प्राप्त नहीं हो सकता और इसीलिये उस से युक्त मार्मिक रचना भी सम्मानित नहीं हो सकती। "कद्रे गौहर शाह दानद या बिदामद जौहरी" अर्थात् मुक्ता का सम्मान ( उस के गुणों को समझ कर ) या तो जौहरी (पारखी) ही कर सकता है या फिर उस से विभूषित होने वाला नृपतिही कर सकता है। सच पूछिये तो यह कोषग्रन्थ'ही हमारेलिये वास्तविक कसौटी हैं। किसी जिज्ञासुको जौहरी अथवा बादशाह की पदवी प्राप्त कराने की क्षमता उनमें है। भाषा विज्ञान और शब्द विज्ञानके वास्तविक रहस्य को जिसने समझ लिया, मानो त्रैलोक्य की सम्पत्ति पर उसका अधिकार हो गया। इस आगाध-रत्नाकर के अगणित रत्नों के रङ्ग रूप का पहचानना तनिक कष्ट साध्य है शब्दरत्न में अन्य रलों से एक विशिष्ट गुण यह भी है कि उस में अपना रङ्ग ढंग पलटने की सामर्थ्य है। वे बहुरूपिया की उपाधि से विभूषित किये जा सकते हैं। देखिये, शब्द-शक्ति की बिलक्षणता-"आप की कृपा से मैं सकुशल हूं", "आपकी कृपा से आज मुझे रोटी तक नसीब नहीं हुई"इन दोनों वाक्यों में एक ही शब्द 'कृपा' अपने २ प्रयोग के अनुसार भाव रखता है । इसी प्रकार केवल एक ही शब्द के अनेक प्रयोग होते हैं। उन्हें हम बिना कोष के किसी प्रकार भी नहीं समझ सकते । वस्तुतः कोष हमारे लिये बड़े ही लाभदायक हैं । किसी कवि ने ठीक कहा है--कोशश्चैव महीपानाम् कोशश्च विदुषामपि। उपयोगो महानेष क्ल शस्तेन विना भवेत् ।। वास्तव में महत्वाकांक्षी राजाओं के लिये जितनी आवश्यकता कोश (खजाना) की। है उतनी ही आवश्यकता सकीाभिलाषी विद्वानों को कोश (शब्द भंडार ) की है। २. वत्तेमान गन्थ की आवश्यकता नागरी-प्रचारिणी सभा काशी को प्राचीन हस्तलिखित हिन्दी साहित्य का अन्वेषणसम्बन्धी कार्य करते हुए मुझे हिन्दी भाषा के जैन साहित्य को अवलोकन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । मैं समझता हूँ यदि उस ओर हमारे मातृ भाषा प्रेमी जैन तथा जैनेतर विद्वानों का ध्यान आकर्षित हो और निष्पक्ष भाव से पारस्परिक सहयोग किया जाय तो हिन्दी के इतिहास पर किसी विशेष प्रभाव के पड़ने की सम्भावना है। प्राकृत तथा संस्कृत से किये गये अनेक अनुवादित ग्रन्थों के अतिरिक्त, हिन्दी भाषा के मौलिक गद्य तथा पद्य ग्रन्थों की भी वहां (हिंदी जैन साहित्य में ) कमी नहीं है। किन्तु खेद यही है कि अब तक जैन साहित्य के पारिभाषिक तथा ऐतिहासिक शब्दों का सरलता से परिचय कराने के लिये । - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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