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________________ प्रस्तावना ( EXORDIUM) १. कोष-ग्रन्थों की भावश्यकता जब हम अपने नगर की पाठशाला की किसी निम्न श्रेणी में बैठकर 'उर्दू भाषा' का अध्ययन करते थे तब किली पुस्तक में पढ़ा था: ज़माना नाम है मेरा तो मैं सब को दिखा दूंगा। कि जो तालीम से भागेंगे नाम उनका मिटा दूंगा ॥ किन्तु बाल्यावस्था की स्वाभाविक निन्दता, बुद्धि अपरिपक्वता और अग्रशोचादि उपयोगी गुणों के नितांत ही संकुचित होने के कारण, कभी इसके अन्तस्तल में छिपे हुये उपदेश को न तो अपेक्षा ही की दृष्टि ले देखा, और न उसकी उपेक्षा ही की। अब ज्योंही गहस्थ जीवनरूपी-रथका चक्र घूमा, नमक तेल लकड़ीकी चिन्ता व्यापी, और आवश्यकताओं का अपार बोझ शिर को दबाने लगा त्योही उपरोक्त शेर साक्षात् शेर वन कर मस्तिष्क क्षेत्र को अपनी क्रीडा का रजस्थल बनाने लगा। होश ठिकाने आये और आंखें खुली। नज़र उठा कर देखा तो ज्ञात हुआ कि वास्तव में वर्तमान काल अशिक्षितों के लिये विनिष्टकारी काल ही है। बिना शिक्षित हुए आज कल दाल गलना ज़रा टेढ़ी खीर है । हमारे पूर्वजों ने अपनी सर्वव्यापनी दृष्टि से इस बात का अनुभव बहुत पहिले ही से कर लिया था। हमारी शिक्षापूर्ण सामग्री अपने अनुभवों की अभतपूर्व ज्ञानलमृद्धिराशि, तथा विविध शुद्ध सिद्धान्तों और नियमों के संग्रह को पुस्तक भंडार रूप में हमारे उपकारार्थ छोड़ दिया था । यद्यपि कुटिल काल की कुटिलता के कारण हमारा उपयुक्त भंडार प्रायः नष्ट हो चुका है किन्तु फिर भी जो कुछ बचा खुत्रा है कम नहीं है। सच पूछिये तो हम जैसे कूदमरज़ तथा कुंठित बुद्धि वालोंके लिये तो यह अवशिष्ट रत्न-भण्डागार भी कुवेर का सम्पत्ति से कुछ कम नहीं हैं। इस अपूर्व भंडारमें बनीहुई अनेक अनुपम कोठरियों और उन कोठरियों में रक्खे हुये अगणित संदूकों के तालों के खोलने के लिये बुद्धिरूपी तालियों का होना परमाघश्यक है । जबतक हमारे पास उन भंडारोंतक पहुँचनेका यथेष्ट मार्गही नहीं है तो उसमें रक्खी हुई अमूल्य वस्तुओं का दिग्दर्शन कैसे कर सकते हैं। हमारे कुछ दयालुचित्त पूर्वजों का ध्यान इस बात परभी गये बिना न रहा । उन्होंने इसी कमीको पूरा करने के लिये 'कोषप्रन्यो' की रचना की। किन्तु यह किसी पर अप्रगट नहीं कि संसार परिवर्तन शील है । उसकी भाषा तथा भाव सभी कुछ परिवर्तित होते रहते हैं। जब भाषा बदलती है तो उससे प्रथम के सिद्धान्तादि आवश्यक विषयों से सम्बन्ध रखने वाले शब्दों के परिज्ञान का मार्ग भी पलट जाता है और उनको जानने के नियम भी दूसरे ही हो जाते हैं वर्तमान काल न तो वैदिक काल है, न दर्शन तथा सूत्रकाल और न पौराणिक काल ही है। यही कारण है कि अब उस समय सम्बन्धी भाषाओंके समझने वाले भी नहीं रहे हैं । इसके अतिरिक्त हम अपने पूर्वजों के विविधकालीन अनन्त अनुभवों को उपेक्षा की दृष्टिले देखने में भी अपना अकल्याण ही समझते हैं अतः आवश्यक है कि संस्कृतादि पूर्व राष्ट्र भाषाओं में सुरक्षित उन विचारों, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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