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अग्नि
(२) कर्नाटक देशीय वत्सगोत्री एक सुप्रसिद्ध ब्राह्मण का नाम भी "अग्गलदेव " था जिसके पुत्र "ब्रह्माशिव" ने वैदिक मत त्याग कर पहिले तो लिंगायत मत ग्रहण किया और फिर लिंगायत मत को भी निःसार जान कर “मेघचन्द्रत्रैविद्यदेव" के "श्रीवीरनान्द " मुनि के उपदेश से पुत्र जैनधर्म को स्वीकृत किया और समयपरीक्षा" नामक ग्रन्थ रचा जिसमें शैव वैष्णवादिक मतों के पुराण ग्रन्थों तथा आचारों में दोष दिखा कर जैनधर्म की प्रशंसा की है । यह सुप्रसिद्ध महाकवि उभय भाषा ( संस्कृत और कनड़ी ) का अच्छा विद्वान था । इसका समय ईस्वी सन् १९२५ के लगभग का है ॥ अग्नि - (१) आग, वहि, वैश्वानर, धनञ्जय, बीत होत्र, कृपीटियोनि, ज्वलन, पावक, अनल, अमरजिह्न, सप्तजिह्न, हुत, भुज, हुताशन, दद्दन, वायुख, हव्यवाहन, शुक्र, शुचि, इत्यादि साठ सत्तर से अधिक इसके पर्याय बाचक नाम है ।
( ५-६ )
वृहत् जैन शब्दार्णव
नोट- वर्तमान कल्पकाल के इस अवसर्पिणी विभाग में "अग्नि" का प्रादुर्भाव ( प्रकट होना ) श्री ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर के समय में हुआ जब कि भोजनादि सामग्री देने वाले 'कल्पवृक्ष' नष्ट होजाने पर अन्नआदि उत्पन्न करने और उन्हें पका कर खाने की आवश्यकता पड़ी।
आवश्यक्ता पड़ने पर पहिले पहल श्री ऋषभदेव ( आदि ब्रह्मा ) ने अग्नि उत्पन्न करने की निम्नलिखित तीन विधियां सिखाई':
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अग्निकायिक
२. सूर्यकान्तमणि (आतशी शीशा ) बना कर और उसे सूर्य के सन्मुख करके अग्नि उत्पन्न करना ॥
३. (१) वह्निप्रस्थर ( चकमक पत्थर ) की पहिचान बताकर और उसके टुकड़ों को बलपूर्वक टकराकर अग्नि निकालना ॥
(२) चित्रकवृक्ष, स्वर्णधातु, पित्त, चिन्ता, कोप, शोक, ज्ञान, राज, गुल, भिलावा, नीव बृक्ष, ३ का अङ्क, तृतीयातिथि, कृत्तिका नक्षत्र ॥
(३) कृत्तिका नक्षत्र के अधिदेवता का नाम पूर्व और दक्षिण दिशाओं के मध्य की विदिशाओं के अधिपति देव का नाम तथा उसी विदिशा का भी नाम ॥
आठों दिशा विदिशाओं के अधिपति देव अष्ट दिक्पाल - इन्द्र (सोम), अग्नि, यम, नैऋत्य, वरुण, वायव्य, कुवेर, ईशान ॥
नोट २ -- कृत्तिका नक्षत्र के अधिदेव का नाम "अग्नि" होने से ही "अग्नि" शब्द " कृत्तिका " नक्षत्र का भी वाचक है । तथा यह नक्षत्र 'अश्विनी' नामक प्रथम नक्षत्र से तीसरा होने के कारण ३ के अङ्क का और तृतीया तिथि का वाचक भी यह "अग्नि" शब्द है ॥
अग्निकाय
१. अरणि, गनियारी, अनन्ता, अग्निशिखा आदि कई प्रकार के काष्ठ विशेष के नाम और उनकी पहिचान आदि बता
अग्नि का शरीर; पाँच प्रकार के एक इन्द्रिय अर्थात् स्थावर कायिक जीवों में से एक अग्निकायिक जीवों का शरीर ॥
और उनके सुखे टुकड़ों को रगड़ कर अग्निकायिक- अग्नि काय वाला, जिस
अग्नि निकालना ।
प्राणी का शरीर अग्नि हो ।
(४) नाक से आने जाने वाले श्वास के तीन मल भेदड़ा, पिंगला, और सुष्मणा में से तीसरे स्वर का भी नाम "अग्नि" है । इस स्वर को 'सरस्वती स्वर, भी कहते हैं जिस प्रकार 'ईड़ा' का नाम 'चन्द्र' और 'यमुना', और पिंगला का नाम 'सूर्य' और 'गङ्गा' भी है । . ( देखो शब्द प्राणायाम ) ॥
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