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कहते हैं।
६. २११ ) अज्ञानवादी वृहत् जैन शब्दार्णव
अंजन मिले केवल मिथ्यात्व कर्म प्रकृति के उदय से, के पाण्डुक नामक बन का एक गोलाकार होता है 'अगृहीत मिथ्यात्व' कहते हैं। और | भवन ॥ जो कुदेव आदि के निमित्त से और मिथ्या- | अढ़ाईद्वीप (मनुष्य-लोक) में सुदर्शन, त्य कर्म प्रकृति के उदय रूप अन्तरंग निमित्त | विजय, अचल, मंदर और विद्युत्माली, से स्वयम् अपनी रुचि से चाह कर अतत्व यह पांच मेरु पर्वत हैं। इन में से प्रत्येक या कुतत्व श्रद्धान रूप मिथ्यात्व नवीन की पूर्व और पश्चिम दिशाओं में समभूमि | उत्पन्न होता है उसे 'गृहीत मिथ्यात्व' कहते । पर तो भद्रशाल नामक बन है. और हैं । अगृहीत मिथ्यात्व को 'नैसर्गिक' थोड़ी थोड़ी ऊंचाई पर चारों ओर और गृहीत मिथ्यात्व को 'अधिगमज' भी गोलाकार कम से नन्दन, सौमनस और
पांडुक नामक बन हैं । भद्रशाल को छोड़ (गो० जी० गा० १५; मो० क. गा०1 कर शेष के प्रत्येक बन की चारों दिशाओं ८१२,१३, ८१८. ८८६, ८८७)
में से प्रत्येक दिशा में एक एक गोल हरि० स०५८ श्लोक १६२-१४५, भवन है। इन में सौधर्म इन्द्र के लोम, स० १० श्लोक ४७-६०
यम, वरुण और कुबेर, यह चार २ लोकत० सू० अ० ८ सू१७ त. सार । अ०५ श्लोक २-८
पाल कम से पूर्व दक्षिणादि दिशाओं में अज्ञानवादी-अशानबाद का अनुयायी
निवास करते हैं । इन भवनों में से पांचों
मेरु के पांचों पाण्डक बनों की दक्षिणः अशानवाद के ६७ भेदों में से किसी एक
दिशा के पांचों भवनों का नाम 'अंजन' या अनेक भेदों का पक्षपाती या श्रद्धानी
है जिस का अधिपति. 'यम' नामक | व्यक्ति । (ऊपर देखो शब्द 'अज्ञानबाद')॥
लोकपाल है। यह भवन १२॥ योजन अञ्चल मत-श्वेताम्बर जैनाचार्य श्री मु- ऊंचे, ७॥ योजन ब्यास (diametery के निचन्द्र' के ज्येष्ठ गुरुभ्राता श्री चन्द्रप्रभ और लगभग २३ योजन गोलाई के हैं। के वि० सं० ११५२. में चलाये हुए 'पौर्णि
(पीछे देखो शब्द 'अचल' पृ० १३७; और मीयक' नामक मत की एक शाखा जिसे पंचमेरु पर्वतों का चित्र )॥ एक पौर्णिमीय मतावलम्बी नरसिंह उपा
(त्रि० गा०.६१६-६२१) ध्याय ने सम्बत् १२१३ में अथवा मतान्तर (२) मेरुपर्वत की दक्षिण दिशा में से खं० १२१४ या १२३३ में चलाया देवकुरु भोगभूमि के. दो दिग्गज पर्वतों था। या वि० सं० १९६६ में भी विधिपक्ष में से एक पर्वत का नाम । यह 'भञ्जन:मुख्याभिधान, आर्यरक्षितसूरि ने स्थापा नामक पर्वत 'सीतोदा' नामक महानदी था॥ .
के बाम तट पर है ॥
विदेहक्षेत्र के बीचों बीच में मेरु है।। । जैनमत वृक्ष पृ० ६३, 'जैनसाहित्य- । । संशोधक' खं०२ अ. २ पृ. १४१ ।
मेरु की दक्षिण दिशा में 'सौमन और
'विद्युत प्रभ' नामक दो मजदन्त पर्वतो। अञ्जन(१) मेरु पर्वत पर सब से ऊपर के मध्य 'देवकुरु-भोगभूमि' है । इसी
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