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________________ ( २६ ) है । इसी लिये यह अनेकान्त सिद्धान्त भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से भिन्न भिन्न बात को मानने बालों के विरोध को मेटने वाला है । जैन साहित्य में दूसरा विलक्षण गुण ग्रह है कि इसमें आत्मा के साथ पुण्य पाप रूप कर्मों के बन्धन का विस्तार से विधान है जिसको समझ लेने पर एक शांता यह सहज में जान सकता है कि जो मेरे यह भाव हैं इनसे किस किस तरह का कर्मबंध मैं करूँगा व कौनसा कर्म का बन्ध किस प्रकार का अपना फल दिखा रहा है। तथा कौन से भाव मैं करू जिनके बल से मैं पूर्व बाँधे हुए कर्मों को उनके फल देनेसे पहिले ही अपने से अलग कर दूँ । जैन साहित्य में इतिहास का विवरण भी विशाल व जानने योग्य है जिससे पूर्णतः यह पता चलता है कि भारतवर्ष की सभ्यता बहुत प्राचीन है । ऐसे महत्वपूर्ण अनेक विषयों से भरपूर यह जैन साहित्य है जिसके सर्व ही प्रकार के शब्दों का समावेश इस कोष में हुआ है। अतः यह कोष क्या है अनेक जैन शास्त्रों के रहस्य को दिखाने के लिये दर्पण के समान है। इसका आदर हर एक विद्वान को करना चाहिये तथा इसका उपयोग बढ़ाना चाहिये । Jain Education International ० सीतलप्रसाद, आ० सम्पादक जैनमिश्र - सूरत For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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