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________________ अघातिया वृहत् जैन शब्दार्णव अघातियाकर्म जिस से वह सर्व प्रकार के पापों से डरता | उत्कृष्ट स्थित ३ पल्योयम काल प्रमाण है । देव. मनुष्य और नारकी जीवों (देखो शब्द “अगारी")॥ के अतिरिक्त शेष सर्व संसारी प्राणियों अघातिया-न घात करने वाला, चोटादि , को तिर्यञ्च कहते हैं । ( एक अन्तर दुःख न पहुँचाने वाला,नष्ट न करने वाला, | मुहर्त्त दो घड़ी या ४८ मिनट से कुछ कम कर्म प्रकृतियों के दो मूल भेदों-घातिया, काल को कहते हैं। जघन्य अन्तरमहर्त अघातिया-में से एक का नाम ॥ एक आवली से एक समय अधिक और अघातियाकर्म-वह कर्म प्रकृति जो उत्कृष्ट अन्तरमुहूर्त दो घड़ी से एक जीव के अनुजीवी गुण को न घाते, किन्तु समय कम का होता है । मध्य के भेद जीव के लिये वाह्य शरीरादि का सम्बन्ध एक आघली से दो समय अधिक, ३ मिलावे॥ समय अधिक इत्यादि दो समय कम दो ___ इस कर्म के मूलभेद चार (९) आयुकर्म | घड़ी तक असंख्यात हैं)। [ देखो शब्द अङ्क (२) नामकर्म (३) गोत्रकर्म (४) घेदनीयकर्म | विद्या'' का नोट ८ ] ॥ हैं और उत्तर भेद १०१ अथवा १११३ हैं ॥ (ग) जिस कर्म के निमित्त से जीव (१)आयुकर्म-जो कर्म जीयको किसो मनुष्य पर्याय में स्थित रहे उसे "मनुष्यायु पर्याय धारण कराने के लिये निमित्त कर्म" कहते हैं । इस कर्म की जघन्य व कारण है उसे आयुकर्म कहते हैं । इस उत्कृष्ट स्थित "तिर्यञ्चायु कर्म" की स्थित कर्म का स्वभाव लोहे की साँकल या के समान है ॥ काठ के यंत्र की समान है जिससे राजा (घ) जिस कर्म के निमित्त से जीव आदि किसी. अपराधी को नियत स्थान | देव पर्याय में स्थित रहे उसे “देवायु वर्म" में रख कर अन्य स्थान में जाने से रोके | कहते हैं । इस कर्म की जघन्य व उत्कृष्ट रखते हैं । इस कर्म के (क) नरकायु (ख) स्थिति "नरकायु कर्म' की स्थिति के तिर्यञ्चायु (ग) मनुष्यायु और (घ) देवायु, । समान है। यह ४ भेद हैं । ____सामान्यतयः आयुकर्म की जघन्य (क) जिस कर्म के निमित्त से जीव स्थित एक स्वास (बाल स्वासोच्छ्वास) नरक पर्याय ( नरकशरीर ) में स्थित के १८ वै भागमात्र अंतरमुहूर्त काल है और रहे उसे "नरकायुकर्म" कहते हैं । इस | उत्कृष्ठ ३३ सागरोपम काल है ॥ तत्काल कर्म की जघन्य स्थिति १० सहस्न वर्ष के उत्पन्न हुए स्वस्थ बालक के स्वासो और उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपमकाल च्छ्वासको 'बाल-स्वासोच्छ्वास' कहते प्रमाण है। हैं जो युवा स्वस्थ पुरुष के स्वासोच्छ्वास (ख ) जिसकर्म के निमित्तसे जीव तिर्यंच | का ५ वाँ भाग मात्र और एक मुहूर्त का मा पर्याय (तिर्य शरीर ) में स्थित रहे उसे | ३७७३ वां भाग होता है। स्वस्थ पुरुष की "तिर्यञ्चायु कर्म" कहते हैं । इस कर्म की | नाड़ी भी एक मुहूर्त में (दो घड़ी या ४८ जघन्य स्थित अन्तरमहूर्त काल और मिनट में ) ३७७३ बार फड़कती है ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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