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________________ - - - - - - अकस्छ वृहत् जैन शब्दार्णव . अकण्डुकशयन अकच्छ.-कच्छरहित, लंगोटरहित, नि- | शरीर संस्काराभाव, और (४) मयूर पिच्छिका (मोर-पीछी),यह चार मुख्य वाह्य ग्रन्थ-मुनि, दिगम्बरसाधु, अकिञ्चन, चिन्ह या लिङ्ग है ॥ जिन-लिङ्गी-भिक्षुक या उत्सगीलगी भिक्षुक, अनगारी, अचेलवती, महाव्रती, यह सर्व ही निम्रन्थ मुनि पंच महाव्रत, संयमी, अपरिग्रही. श्रमण, भिक्षुकाश्रमी पंच समिति, पंच इन्द्रिय-निरोध, षट या सन्यस्था मी, इत्यादि । आवश्यक, केशलुश्च आचेलक्य, अस्नान, भूमि शयन, अदन्तघर्षण, स्थितिभोजन, व्रती पुरुषों के दो भेदो-१) देशवती और एक-भक्त एकाहार ), इन अष्टाया अनुव्रती ( अणुव्रती ) और ( २ ) विंशति (२८, अट्ठाईस ) मूलगुणों के महावती-में से दूसरे व्रती पुरुषों को | धारक और यथा शक्ति अष्टादश-सहस्र 'अकच्छ' कहते हैं । यह शुद्ध संयम में हीनाधिक्यता की अपेक्षा या व्रतों में अती ( १८ हज़ार ) शील, और चतुरशीति लक्ष (८४ लाख) उत्तर गुणों के पालक होते घारादि दोष लगने न लगने की अपेक्षा ५ हैं । इन शील और गुणों की पूर्णता सर्वोप्रकार के होते हैं-(१) पुलाक (२) वकुश स्कृष्ट ‘अर्ह-त" पदमें पहुँचने पर होती है । (३) कुशील (४) निर्ग्रन्थ और (५) स्नातक । इन के पगेपकारादि की हीनाधि यह सर्व ही साधु अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शन, क्यता की अपेक्षा (१) अर्हन्त (:) अष्टाङ्गसम्यग्ज्ञान, त्रयोदश-सम्यक्-चारित्र, आचार्य (३) उपाध्याय और (४) साधु पंचाचार द्वादशतप, द्वाविंशतिपरीषहजय, यह ४ भेद हैं; कषायों की मन्दता से दश लक्षणधर्म, द्वादशानुप्रेक्षा-चिन्तवन, आत्म-शक्तियों की प्राप्ति की अपेक्षा (१) इत्यादि को यथा विधि और यथा अवसर यति, (२) साधु, (३) ऋषि (-राजर्षि, बड़े उत्साह के साथ त्रिशल्य रहित धारण देवर्षि. ब्रह्मर्षि, परमर्षि ) और ( ४ ) मुनि, करतेहुए अनादि कर्मबन्ध से मुक्त होने के यह चार भेद हैं; सम्यक्त की तथा वाह्या- लिये निरन्तर प्रयत्न करते हैं । न्तरङ्ग शुद्धि की अपेक्षा (१) द्रव्यलिंगी नोट - उपयुक्त मुनि भेदों और उनके मूल और (२) भावलिंगी, यह दो भेद हैं । | गुण आदि के नाम व स्वरूपादि व्याख्या गुणस्थान अपेक्षा छठे गुणस्थान से तेरह | सहित इसी कोष में यथा स्थान देखें । ( आगे तक आउभेद हैं। अन्य अपेक्षा से आचार्य, | देखो श. "अठारहसहस्र-शील" ) ॥ उपाध्याय, वृद्ध, गणरक्ष, प्रवर्तक, शैक्ष्य, मुलाचार,चारित्रसार, भगवति-) तपस्वी, संघ, गण, ग्लान, यह १० भेद आराधनासार, धर्म संग्रह हैं । इत्यादि इस पदस्थ के अनेक भेद श्रावकाचार आदि । उपभेद हैं। इनमें से छठे गुणस्थान वाले प्रत्येक मुनि कण्डुक.शयन-'अकण्डुक' शब्द काअर्थ | के (१) वस्त्र त्याग, (२) केशलुश्च (३) है 'खाज रोग रहित' । अतः 'अकण्डुक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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