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________________ - इष्टदेव की भक्ति, स्तुति, व बन्दना अथवा स्मरण व चिन्तवन प्रकट या अप्रकट रूप अवश्य करना उचित है। इसीको "मंगलाचरण" कहते हैं। (५) फल-मंगल ग्रन्थ की आदि में किया हुआ मंगलकर्ता को अल्प काल में अज्ञानता से मुक्त करता है, मध्य में किया हुआ विद्याध्ययन के व्युच्छेद से उसे बचाता है और अन्त में किया हुआ आगे को विद्याध्ययन में पड़ सकने वाले अनेक विनों से उसे सुरक्षित रखता है। (६) रीति--१.नमस्कारात्मक २.वस्तुनिर्देशात्मक ३.आशीर्वादात्मक या इष्ट-प्रार्थनास्मक । इनमें पहिली रीति श्रेष्ठ है। इस ग्रन्थ की आदि में "बिन बिनाशक ऋषभ को ........." इत्यादि दो दोहों में, अथवा इस उत्थानिका के प्रारम्भ में 'विन हरण......' इत्यादि ५ दोहों में जो मंगलाचरण किया गया है वह पहिली व अन्तिम रीति का है। २. निमित्त-प्रन्थ निर्माण के प्रयोजन को 'निमित्त' कहते हैं। इस ग्रन्थ के लिखने का मुख्य निमित्त या प्रयोजन उपरोक्त है जो 'अनुबन्ध चतुष्टय' में बताया गया है। ३. फल-किसी गन्थ के निर्माण या पठन पाठन व मनन से जो लाभ प्राप्त होता है उसे 'फल' कहते हैं। (१) प्रत्यक्ष फल:-- (क) साक्षात प्रत्यक्ष--लेखक व पाठक रौनों के रिये कुछ न कुछ अंशों में अज्ञान का विनाश और ज्ञानावर्णीय कर्म की निर्जरा, इसके साक्षात प्रत्यक्ष फलं हैं। परम्परा प्रत्यक्ष--ग्रन्थ में निरूपित वस्तुओं सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त हो जाने से कुछ न कुछ लोकप्रतिष्ठा या कीर्ति तथा इच्छा होनेपर शिष्य प्रतिशिष्यों द्वारा किसी .. न किसी रीति से आर्थिक लाभादि उस परम्परा प्रत्यक्षकल हैं। (२) परोक्षफल:--. (क) अभ्युदयरूप फल--इस गून्थ के लिखने व पढ़ने में अज्ञान की कमी होने और अपने समय का कुछ न कुछ भाग शुभोपयोग में बीतने से सातावेदनीय रूप पुण्यबन्ध होकर जन्मान्तर में स्वर्ग या राज्य वैभव आदि किसी शुभ फल की प्राप्ति होना अम्युदय रूप परोक्ष फल है। (ख).निश्रय स्वरूप फल--बिना किसी लौकिक प्रयोजन सिद्धि की इच्छा के निष्काम भावयुक्त इस गन्थ को केवल 'ज्ञान प्राप्ति' और 'अज्ञान निवृत्ति' की अभिलाषा से लिखना या पठन पाठन व मनन करना मोक्ष प्राप्तिका भी परम्परा कारण है। ४. परिमाण--प्रन्थ के इस प्रस्तुत प्रथम खंड का प.रेमाण लगभग १० सहस्र श्लोक (अनुष्टुप छन्द परिमाण ) या इस से कुछ अधिक है। ५. नाम-श्री वृहत् जैन शब्दार्णव ('श्री हिन्दी साहित्य अभिधान' का प्रथम अवयत्र ) इस गून्थरत्न का नाम है ६. कता--- (१) अर्थ कर्त्ता या भाषगून्य कर्ता अथवा मूलग्रन्थ कर्ता--श्री अरहन्त देव हैं। (२) गन्थकर्ता व उत्तर गन्धकर्ता--श्रीगणधर देव व अन्य पूर्वाचार्य आदि अनेक | . व्यक्ति हैं। (३) संगृह कर्ता या लेखक-एक अति अल्पक्ष 'चैतन्य' है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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