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अनिवृत्तिकिया वृहत् जैन शब्दार्णध
अग्रसेन परलोक के सुख सम्पत्ति और आनन्द को (१) अवतारक्रिया (२) व्रतलाभक्यिा (३) भोगते हुए नियम से अति शीघ्र ही स्थानलाभक्रिया (४) गणगृहक्रिया (५) अभीष्टफल (मुक्ति सुख) की प्राप्ति होतीहैः- पूजाराध्यक्रिया ( ६ ) पुण्ययज्ञक्रिया (७)
(१) गर्भाधान क्रिया, (२) प्रति दृदचर्याक्रिया (८) उपयोगिताक्रिया, (६-४८) क्रिया, (३) सुप्रीति क्रिया, (४) धृति 'उपनीति' या 'यज्ञोपवीत' आदि अग्रनिवृत्ति' क्रिया, (५) मोद क्रिया, (६) प्रियोद्भव पर्यन्त उपयुक्त ५३ कियाओंमें की अन्तिम क्रिया, (७) नाम कर्म, (८) बहिर्यान क्रिया ४० क्रियायें (नं० १४ से ५३ तक)। (आगे (६) निषद्या क्रिया, (१०) अन्न प्राशन(११) देखो शब्द 'अड़सठ क्रिया')॥ व्युष्टि या वर्षवर्द्धन, (१२) चौलि या केश आदि पु० पर्व ३८, श्लोक५४-३०६, । वाय या मुंडन, (१३) लिपी संख्यान (१४)
पर्व ३६, श्लोक १-१९६६ उप ति या यज्ञोपवीत [ जनेऊ ] ( १५ ) नोट ३-इन ५३ गर्भान्वय और ४८ व्रतचर्या (१६) व्रतावतरण (१७ ) विवाह| दीक्षान्वय क्रियाओं या संस्कारों में से (१८) वर्णलाभ (१९) कुल चर्या (२०) प्रत्येक का अर्थ व स्वरूप मंत्रों और व्यागृहीशिता ( गृहस्थाचार्यपद ) (२१) ख्यादि सहित यथास्थान देखें (देखो शब्द | प्रशान्ति ( २२) गृहत्याग ( २३ दीक्षा "क्रिया" और शब्द "अगारि" के नोट १ में (२४) जिन रूपिता (२५) मौनाध्ययन वृत्ति
अन्य प्रकार की ५३ क्रियाओं के नाम ) (२६) तीर्थङ्कर पदोत्पादक भावना ( २७ ) |
अगभानु ( अग्निभानु, अग्रभावी )गुरुस्थापनाभ्युपगम (२८) गणोपग्रहण पुष्करार्द्धद्वीप की पश्चिम दिशामें विद्यन्भा(२६) स्वगुरुस्थान संक्रान्ति (३०) निः लीमेरु के दक्षिण भरतक्षेत्रान्तर्गत आर्यखंड संगत्वात्म भावना (३१) योगनिर्वाण की अतीत चौबीसी में हुए १६ वें तीर्थंकर सम्प्राप्ति (३२) योग निर्वाण साधन (३३) का नाम । (आगे देखो शब्द “अढ़ाईद्वीपइन्द्रोपपाद ( ३४ ) इन्द्राभिषेक (३५) विधि पाठ" के नोट ४ का कोष्ठ ३)॥ दान (३६) सुखोदय ( ३७ ) इन्द्र पद त्याग भग्रश्रुतस्कन्ध (प्रथम श्रु तस्कन्ध, अग्र(३८) गर्भावतार ( ३६ ) हिरण्यगर्भ (४०) | सिद्धान्त ग्रन्थ )-षटखंडसूत्र और मन्दरेन्द्राभिषेक (४१) गुरुपूजन (४२) उनकी सर्व टीका, वृत्ति, और व्याख्या यौवराज (४३) स्वराज्य (४४) चक्रलाभ धवल, महाधवल, जयधवल, गोमट्टसार, (४५) दिशाञ्जय (४६) चक्राभिषेक (४७) लब्धिसार, क्षपणासार आदि, इन सर्व साम्राज्य (४८) निष्कान्ति (४६) योग प्रन्थ समूह को “अन श्रु तस्कन्ध" या "प्रसंग्रह (५०) आर्हन्त्य (५१) विहार (५२)
थम सिद्धान्त रन्थ" कहते हैं । योगत्याग (५३) अगनिवृत्ति ॥
नोट-इसके सम्बन्ध में विशेष जानने नोट २-किसी अजैन को जैनधर्म में दीक्षित करने के लिये जो आठ विशेष
| के लिये देखो शब्द "अग्रायणीपूर्व" ॥ क्रियाएँ और ४० साधारण क्रियायें हैं उन्हें अगसेन-सूर्यवंशी महाराजा "महीधर" 'दीक्षान्वय क्रिया' कहते हैं। वे यह हैं- का पुत्र ॥
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