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________________ (४१ ) पवन अक्षरात्मक - वृहत् जन शब्दाणव अक्षरावली तक के अर्थात् पूर्ण श्रुतज्ञानावरण के कर्म- सूक्ष्म पदाथों का उनकी असंख्य पर्यायों क्षयोपशम से हुई हो ॥ सहित परोक्ष रूप ज्ञान होता है, जिसका (२) निवृत्ति-अक्षर (निर्वत्यक्षर)- प्रादुर्भाव किसी निर्ग्रन्थ भाव-लिङ्गी मुनि की मुखोत्पन्न उच्चारण रूप कोई स्वर या व्यञ्जनादि | पवित्र आत्मा में महान तपोबल से होजाता है। मूल वर्ण या संयोगी वर्ण ॥ पूर्ण 'श्रतज्ञानी' और 'कैवल्यज्ञानी' के ज्ञान में केवल इतनाही अन्तर रहता है कि कैवल्य(३) स्थापना-अक्षर (स्थापनाक्षर)-- ज्ञानआत्म-प्रत्यक्ष और पूर्ण विशद होता है किसी देश कालादि की प्रवृति के अनुकूल किसी प्रकार की लिपि में स्थापित (लिखित) और श्रुतज्ञान परोक्ष । वह ज्ञानावरणी, दर्शना वरणी कर्म प्रकृतियों के क्षय से होता है और कोई अक्षर ॥ यह उनके क्षयोपशम से अर्थात् केवलज्ञान अक्षरात्मक--अक्षर जन्य, अक्षरों से बना क्षायिक ज्ञान है और श्रुतज्ञान क्षायोपशमिक हुआ॥ अक्षरात्मकश्रतज्ञान (अक्षरात्मक ज्ञान) नाट ४-कैवल्यज्ञानियों के पूर्ण प्रत्यक्ष वह शान जो एक या अनेक अक्षरों की ज्ञान में जिन लोकालोकवर्ती सम्पूर्ण सूक्ष्म या सहायता से हो; श्रुतज्ञान के मूळ दो स्थूल पदार्थों और उनकी भूत भविष्यत् वर्त. भेदों, अर्थात् 'अक्षरात्मक' और 'अन- मान तीनों काल सम्बन्धी अनन्तानन्त पर्यायों क्षरात्मक' में से एक पहिला भेद; वह का ज्ञान होता है उनके अनन्तवें भाग प्रशाप-. शान जो कम से कम एक अक्षर सम्बन्धी नीय पदार्थ ( बचन द्वारा कहे जाने योग्य हो और अधिक से अधिक श्रुतकान के पदार्थ ) हैं । और जितने पदार्थ बचन द्वारा समस्त अक्षरों सम्बन्धी हो अर्थात् पूर्ण निरूपण किये जा सकते हैं उनका अनन्तयाँ अक्षरात्मक श्रुतज्ञान हो । यह पूर्ण अक्षरा- भाग मात्र सम्पूर्ण द्रव्यश्रत या अक्षरात्मक त्मक श्रुतज्ञान (१) अङ्गप्रविष्ट और श्रुतज्ञान में निरूपित है । तो भी सम्पूर्ण (२) अङ्गवाह, इन दो विभागों में विभा. अक्षरात्मक श्रुतज्ञान में उपर्युक्त एक कम जित है। एकट्ठी तो अपुनरुक्त मूल और संयोगी अक्षर __ नोट १-यह शान 'पर्याय समास ज्ञान" | हैं। उसमें पुनरुक्त अक्षरों की संख्या उनसे से अधिक सम्पूर्ण "अक्षरात्मक-श्रतज्ञान" | भी कई गुणी अधिक है। यह पूर्ण "अक्षरातक है॥ स्मक श्रुतज्ञान" इतना अधिक है कि इसे पूर्ण __ नोट २-पूर्ण अक्षरात्मक-श्रुतज्ञान के | ही रूप लिखना यदि असम्भव नहीं तो अत्यन्त | समस्त अपुनरुक्त मूल और संयोगी अक्षरों कठिन अवश्य है । इसी लिये आज तक कभी की संख्या एक कम एकट्ठी अर्थात् १८४४६७ लेखनी-वद्ध नहीं हुआ। केवल मुख द्वारा ४४०७३७०६५५६१६१५ है । अतः अक्षरात्मक ही इसका निरूपण होता रहा । लेखनो द्वारा श्रुतशान के स्थान या भेद एक कम एकट्ठी तो यथा आवश्यक कुछ कुछ भाग ही कभी कभी लिखा जाता रहा है ॥ नोट ३–पूर्ण श्रुतज्ञानी को "श्रुतकेवली" अक्षरात्मक ज्ञान-देखो शब्द "अक्षरा या "द्वादशांगपाठी" भी कहते हैं। ऐसे ज्ञानी त्मक श्रुतज्ञान" ॥ को भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीतों | तका |काल सम्बन्धी त्रिलोक के समस्त स्थूत व अक्षरावली-देखो शब्द "अक्षरमाला'। है॥ - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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