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________________ अक्षरौटी वृहत् जैन शब्दार्णव अक्षीणऋद्धि ज्ञान । अक्षरौटी-देखो शब्द “अक्षर लिपि ॥ मनेन्द्रिय जन्य अर्थधारणा ज्ञान ॥ २. व्यञ्जन (अप्रकट पदार्थ) सम्बन्धी अक्षिप्र-मन्द, विलम्ब, एक मुहूर्त के अक्षिप्र मतिज्ञान । यह निम्न लिखित ४ सोल्हवें भाग से कुछ हीनाधिक समय ॥ प्रकार का है: (१) स्पर्शनेन्द्रिय जन्य व्यञ्जनावग्रह | अक्षिप्र-मतिज्ञान--मन्दगत व्यक्तया अव्य शान (२) रसनेन्द्रिय जन्य व्यञ्जनावग्रह | क्त पदार्थ सम्बन्धी मति-ज्ञान; पाँचों शान (३) घ्राणेन्द्रिय जन्य व्यञ्जनावग्रह | इन्द्रिय और मन, इन छह में से किसी के ज्ञान (५) 'श्रोत्रेन्द्रिय जन्य व्यञ्जनावग्रह द्वारा किसी मन्दगत प्रकट या अप्रकट पदार्थ का अवग्रहादि,अर्थात् अवग्रह,ईहा, नोट-जिस प्रकार यह उपर्युक्त २८ भेद । अवाय और धारणा रूप ज्ञान “अक्षिप्र "अक्षिप्र-मतिज्ञान" के हैं ठीक उसी प्रकार मतिज्ञान" कहलाता है । इसके :निम्न यही २८, २८ भेद (१) एक (२) बहु लिखित मूल भेद दो और उत्तर भेद (३) एक विध (४) बहु विध (५) क्षिप्र (६ ) निःसृत (७) अनिःसृत (८)| ३. अर्थ ( प्रकट पदार्थ ) सम्बन्धी | उक्त (६) अनुक्त (१०). अध्रुव (११) अक्षिप्र मतिज्ञान । यह निम्न लिखित २४ | ध्रुव, इन ११ प्रकार के प्रकट या अप्रक प्रकार का है: पदार्थों सम्बन्धी मतिज्ञान के भी हैं । अतः (१) स्पर्शनेन्द्रिय जन्य अर्थावग्रह (२) मतिज्ञान के सर्व भेद या विकल्प २८ को १२ | रसनेन्द्रिय जन्य अर्थावग्रह (३) घ्राणेन्द्रिय | गुणा करने से ३३६ होते हैं ( देखो शब्द ! "मतिज्ञान") ॥ जन्य अर्थावग्रह (४) चक्षुरेन्द्रिय जन्य अर्थावग्रह (५) कर्णेन्द्रिय जन्य अर्था- अक्षीण-क्षीणता रहित, न घटने यान कम || वग्रह (६) मनेन्द्रिय जन्य अर्थावग्रह होने वाला। (७) स्पर्शनेन्द्रिय जन्य अर्थीहा ज्ञान | अक्षीणऋद्धि-अष्ट ऋद्धियों में से एक (८) रसनेन्द्रिय जन्य अर्थीहा ज्ञान (8) घ्राणेन्द्रिय जन्य अर्थीहा ज्ञान (१०) चक्षु का नाम; क्षेत्र ऋद्धि का अपर नाम; इसके रेन्द्रिय जन्य अर्थीहा ज्ञान (१.) श्रोत्रे | दो भेद है-(१) अक्षीण महानस ऋद्धि न्द्रिय जन्य अर्थीहा ज्ञान (२२) मनेन्द्रिय (२) अक्षीण महालय ऋद्धि। जन्य अर्थीदा ज्ञान (१३) स्पर्शनेन्द्रिय नोट १-- इस ऋद्धि व विक्रिया ऋद्धि जन्य अर्थावाय ज्ञान (४) रसनेन्द्रिय | के धारक ऋषि "गजर्षि' कहलाते हैं। जन्य अर्थावाय ज्ञान (१५) घ्राणेन्द्रिय नोट २-अष्ट ऋद्धि--(१) बुद्धिः ऋद्धि जन्य अर्थावाय शान (१६) चक्षुरेन्द्रिय जाय। (२ ) क्रिया ऋद्धि (३) विक्रिया ऋद्धि अर्थावाय शान (१७) श्रोत्रेन्द्रिय जन्य | (४) तपो ऋद्धि (५) बल ऋद्धि (६)|| अर्थावाय ज्ञान (१८) मनेन्द्रिय जन्य अर्था- | औषध ऋद्धि (७) रस ऋद्धि (८) क्षेत्र वाय शान ५६ स्पर्शनेन्द्रिय जन्यअर्थधारणा | ऋद्धि या अक्षीण ऋदि । शान (२.)रसनेन्द्रिय जन्य अर्थ धारणा ज्ञान इन में बुद्धि ऋद्धि आदिक्रम से १८ या | ( २ ) घ्राणेन्द्रिय जन्य अर्थधारणा ज्ञान | २५, २, ११, ७, ३, ८, ६. और २ प्रकार (२२ ) चक्षुरेन्द्रिय जन्यअर्थ धारणाज्ञान की हैं । अतः आठ ऋद्धियों के विशेष (२३) श्रोत्रेन्द्रिय जन्य अर्थधारणा शान (२४ भेद ५७ या ६४ हैं । इनके कई अन्यान्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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