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________________ ( १४१ ) अचलभ्राता वृहत् जैन शब्दार्णव अचाम्लतप मचलत्राता-श्री महावीर तीर्थङ्कर के ११ सम्पत्ति, श्रु तज्ञान-सम्पत्ति, एकावली,द्विगणधरो में से धवल नामक १.वें गणधर का कावली, रत्नावली, महारत्नावली, कनकाद्वितीय नाम । [ पीछे देखो शब्द अकम्पन वली, मुक्तावली, रत्नमुक्तावली,मृदङ्गमध्य, (६) का नोट २] ॥ वजूमध्य, मुरजमध्य, कर्मक्षपण, त्रैलोक्य सार, चान्द्रायण, सप्तसप्तम कपल, सौवीर अचलमेरु-देखो शब्द "अचल (२)" ॥ भुक्ति, दर्शनशुद्धि तपःशुद्धि, चारित्रशुद्धि, अचलस्तोक-वर्तमान अवसर्पिणी काल पञ्चकल्याणक, शीलकल्याण, पञ्चविंशतिके गत चतुर्थ विभाग में हुए ६ बलभद्रों भावना, पञ्चविंशतिकल्याण-भावना, दुःख में से दूसरे का नाम ॥ हरण, धर्मचक्र, परस्पर कल्याण (परम ' [देखो शब्द "अचल (३)"] कल्याण ), परिनिर्वाण, सूर्यप्रभ, चं. प्र , अवला-शक्रेन्द्र की ७ वीं अग्र-महिषी कुमारसम्भव, सुकुमार, इत्यादि अनेक प्रकार तपोविधियों में से एक प्रकार की (अ० मा० )॥ तपो विधि का नाम 'आचाम्ल वर्द्धन त,' अचलावती ( अबला )-एक व्यन्तरी है। इसे 'सौवीर भुक्ति' भी कहते हैं । इस देवी का नाम जिसका निवास स्थान की विधि निम्न प्रकार है:-- जम्बूद्वीप के मध्य सुदर्शन मेरु के भैऋत्य ___ पहिले एक षष्ठक और एक चतुर्थक कोण के 'विद्युत्प्रभ' नामक गजदन्त पर्बत अर्थात् एक बेला और एक उपवास निर्विके एक शिवर (स्वस्तिक नामक कूट ) कृत आहार पूर्वक करे जिनमें ६ दिवश लगेंगे । पश्चात् सातवें दिन इमली या अचलितकर्म-वह कर्म जिसका उदय न अन्य कोई शुद्ध अचित अम्ल (तुर्श, खट्टा) हुमा हो (अ० मा०, अचलियकम्म ) ॥ पदार्थ युक्त भात या केवल भात का एक प्रचाम्ल ( आचाम्ल )-अल्पाहार, तक ग्रास अथवा भात से निकला हुआ माँड या तक्र का एक घंट ले । अगले दिन (छाछ ,,भात मिला हुआ अनपका कांजी दो ग्रास या दो घंट ले। इसी प्रकार एक रस, अर्थात् पके चावलों से निकला हुआ एक प्रास या घंट प्रति दिन बढ़ा कर १० पूतला मांड जो फिर पका कर गाढ़ा न ग्रास या १० धंट तक १० दिन में बढ़ावे । किया गया हो उस में मिलाये हुए पके फिर १७ वें दिन से एक एक ग्रास या घंट चाँवल । इमली-रस मिला भात या भात प्रति दिन घटा कर दश ही दिन में एक का मांड ॥ . ग्रास या घंट पर आजाय । तत्पश्चात् प्रचाम्लतप (आचारलवर्द्धनतप)-सर्व- २७ वें दिन निर्विकृत अल्पाहार से एकातोभद्र, बसन्तभद्र,महासर्वतोभद्र, त्रिविध- शन कर के एक उपवास और एक बेला | सिंहनिष्क्रीड़ित, त्रिविध-शतकुम्भ, मेरु- या तेला करे । इस प्रकार यह आचाम्लपंक्ति ( मन्दर पंक्ति), विमान पंक्ति, नन्दी- व्रत ( आचाम्ल वर्द्धनतप ) ३३ या २४ श्वर पंक्ति, दिव्य-लक्षण-पंक्ति, जिनगुण। दिन में पूर्ण हो जाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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