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________________ अंगलपृथक्व वृहत् जैन शब्दार्णक अंगुलिभ्र दोष चौड़ई का माप ही “आत्मांगुल" हैं। त्सर्ग' के समय किसी अँगुली को हिलाने नोट २-जिनवाणी में नरक, ति- चलाने से लगता है ॥ र्यश्च, मनुष्य और देव, इन चारों ही गति के नोट १-कायोत्सर्ग सम्बन्धी ३२ | जीवों के ( अर्थात् त्रिलोक और त्रिकाल स- | दोषों के नाम जानने के लिये देखो शब्द 'अङ्गाम्बन्धी सर्व ही जीवों के) शरीर का और स्पर्शनदोष का नोट ॥ देवों य मनुष्यों के नगरादि का परिमाण नोट २-षटआवश्यक नियुक्ति-(१) उत्सेधांगुल' से, महापर्वत, महानदी, महा- | सामायिक (२) स्तव (३) बन्दना (४) प्रतिद्वीप, महासमुद्र, नरकबिलों, स्वर्गविमानों, क्रमण (५) प्रत्याख्यान (६) कायोत्सर्ग आदि का परिमाण 'प्रमाणांगुल से, और नोट ३-प्रायश्चित, विनय, धैयावृत्य, प्रत्येक तीर्थङ्कर या चक्रवर्ती आदि के छत्र, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान, यह अन्तरंग चमर, कलशा आदि मंगलद्रव्यों या अनेक तप के ६ भेद हैं । इन छह भेदों में से व्युत्सर्गउपकरणों व शस्त्रों आदि का तथा समवश तप के (१) वाह्योपधि व्युत्सर्ग और (२) अरणादि का परिमाण आत्मांगुल से निरूपण भ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग, यह दो मूल भेद हैं । किया गया है ॥ इस 'अभ्यन्तरोरधि व्युत्सर्ग' के (१) यावत्नोट ३-एक अंगुल लम्बाई को जीव अभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग और (२) नियत'सूच्यांगुल', एक अंगुल लम्बी और इतनी कालाभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग, यह दो भेद हैं। ही चौड़ी समधरातल को 'प्रतरांगुल' और इन दो में से भी प्रथम के तीन भेद (१) एक अंगुल लम्बे, इतने ही चौड़े और इतने ही भक्तप्रत्याख्यान (२) गिनीमरण और (३) मोटे ( या ऊँचे या गहरे ) क्षेत्र को 'घनांगुल' प्रायोपगमन हैं और द्वितीय के दो भेद (१) कहते हैं । नित्य नियतकालाभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग और अष्ट उपमालोकोत्तरमान में सून्यांगुल (२) नैमित्तिक-नियतकालाभ्यन्तरोपधि प्युआदि का मान प्रमाणांगुल से ग्रहण किया त्सर्ग हैं। गया है। ( देखो शब्द 'अङ्कविद्या' के मोट | | इन अन्तिम दो भेदों में से पहिले भेद ३ और ६)॥ 'नित्यनियतकालाभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग' होके | अलपृथक्त्व-दो अंगुल से मव अंगुल उपर्युक्त 'सामयिक' आदि षटावश्यक क्रिया तक (अ. मा.)॥ ( या कर्म या नियुक्ति ) हैं जिन में 'कायोअशलिचालन दोष (अंगुलिभ्रमण दोष, | त्सर्ग' छटा भेद है। (प्रत्येक भेद उपभेद ।। अंगुलिभ्र दोष, अंगलि दोष - आदि का स्वरूप और व्याण्या आदि प्रत्येक . नामक अन्तरंग तप के अन्तर्गत या षटा- शब्द के साथ यथा स्थान देखें)॥ वश्यक नियुक्ति का छटा भेद जो 'का- अङ्गलिदोष । योत्सर्गतप' या 'कायोत्सर्गनियुक्ति' है | अङ्गलिभ्रमणदोष लिचालमदोष' ॥ - देखो शब्द 'अंगु उस के ३२ त्याज्य अतीचारों या दोषों में से एक का नाम 'अंगुलिदोष' है जो 'कायो- | अङ्गुलिभूदोष । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016108
Book TitleHindi Sahitya Abhidhan 1st Avayav Bruhat Jain Shabdarnav Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorB L Jain
PublisherB L Jain
Publication Year1925
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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